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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
मुनियों के उपदेश से अनेक भव्य जीवों को सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान प्रकट हुआ है। चौथी लब्धि प्रायोग्य लब्धि है। दिगम्बर ग्रन्थ लब्धिसार के अनुसार इसके अन्तर्गत जीव आयु कर्म के अतिरिक्त शेष कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटा कोटि सागरोपम कर लेता है। इसमें कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति एवं उत्कृष्ट अनुभाग का घात होता है तथा अशुभ कर्मों का अनुभाग द्वि स्थानिक बंधता है तथा शुभ कर्मों का प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ता चतुःस्थानिक अनुभाग बंधता है। अशुभ कर्मों का द्विस्थानिक उदय तथा शुभ कर्मों का चतुःस्थानिक रस उदित होता है । ' लब्धिसार के अनुसार क्षयोपशम आदि चार लब्धियाँ अभव्य जीवों को भी हो सकती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्य जीव को ही होती है। " सम्यक्त्व प्राप्ति के अनुकूल विशेष प्रशस्त परिणाम ही करण लब्धि हैं। इसकी प्राप्ति संज्ञी, पर्याप्तक, निर्मल परिणाम वाले, ज्ञानोपयोगवान्, जाग्रत और शुभ लेश्या वाले भवी जीव को होती है।
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करण लब्धि के तीन स्तर हैं- 1. यथाप्रवृत्तिकरण ( अधः प्रवृत्तिकरण ), 2. अपूर्वकरण एवं 3. अनिवृत्तिकरण | " प्रायोग्य लब्धि के अन्तर्गत जब सात कर्मों की स्थिति अंतः कोटाकोटि सागरोपम रहती है, उसको यथाप्रवृत्तिकरण में और परिमित कर दिया जाता है । यथाप्रवृत्त करण में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि बढ़ती रहती है जो अपूर्व करण में और अधिक बढ़ती जाती है। इसका उल्लेख पंचसंग्रह भाग 9 की गाथा 7 में हुआ है, यथा- 'पइसमयमणन्तगुणा सोही उड्ढामुही तिरिच्छा उ।' यथाप्रवृत्तिकरण करने वाला जीव राग-द्वेष की ग्रन्थि तक पहुँचता है, किन्तु उसे भेद नहीं पाता है। अपूर्वकरण में जीव राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ने में सफल हो जाता है, यह उसके लिए एक नवीन उपलब्धि होती है, इसलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया है। कर्मग्रन्थों की मान्यता के अनुसार यथाप्रवृत्तिकरण अभव्य जीवों में भी अनन्त बार हो सकता है, किन्तु वे उससे आगे नहीं बढ़ पाते हैं। भव्य जीव ही अपूर्वकरण करने में समर्थ हो पाते हैं । अपूर्वकरण के द्वारा जीव के परिणाम जब अधिक शुद्ध होते हैं तब अनिवृत्तिकरण होता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अनिवृत्ति करण में जीव का वीर्य समुल्लास इतना बढ़ जाता है कि वह अन्तर्मुहूर्त स्थिति का एक भाग शेष रहने पर अन्तरकरण की क्रिया करता हुआ मिथ्यात्व मोहनीय के कर्म दलिकों को उपशांत करने में समर्थ होता है। इस करण के