Book Title: Jain Dharm Darshan Ek Anushilan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 460
________________ 442 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अरूपावचर चित्त तथा वासना-संस्कार, राग-द्वेष आदि के प्रहाण से युक्त चित्त को लोकोत्तर चित्त कहा गया है। चित्त शब्द यहाँ चेतना का ही द्योतक है। चेतना चित्त-सन्तान के रूप में प्रवाहित होती रहती है। लोभ, मोह और द्वेष से युक्त चित्त किस प्रकार अनेक दोषों को उत्पन्न करता है तथा उसकी विभिन्न अवस्थाएँ किस प्रकार परिवर्तित होती रहती हैं, इसका विवेचन बौद्धग्रन्थों में विस्तार से प्राप्त होता है। चित्त और चैतसिक का विवेचन बौद्धदर्शन का वैशिष्ट्य है। चित्त की अवस्था विशेष को ही चैत्त या चैतसिक कहा जाता है। प्रत्येक चित्त अनेक चैतसिक अनुभूतियों से संश्लिष्ट रहता है। सुखद, दुःखद तथा अव्याकृत चेतना के अनुरूप सौमनस्य, दौर्मनस्य एवं उपेक्षारूपों का अनुभव होता है। स्थविरवाद के अनुसार 52 प्रकार के चैत्त या चैतसिक होते हैं। इनके स्पर्श, वेदना, संज्ञा, वितर्क, मोह, लोभ, मिथ्यादृष्टि, अकर्मण्यता, श्रद्धा, स्मृति, अलोभ, अद्वेष, काय प्रश्रब्धि, कायलघुता, चित्त ऋजुकता आदि अनेक भेद प्रतिपादित हैं। जैनधर्म का वैशिष्ट्य __ जैन धर्म-दर्शन में प्रभु महावीर के द्वारा उन प्रश्नों का भी समीचीन समाधान किया गया है, जिन्हें बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टाल दिया था । उदाहरण के लिए लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत ? लोक अन्तवान है या अनन्त ? जीव और शरीर एक है या भिन्न ? तथागत देह त्याग के बाद भी विद्यमान रहते हैं या नहीं ? इत्यादि प्रश्न बुद्ध के द्वारा अनुत्तरित हैं। वे इन प्रश्नों का उत्तर देना आवश्यक नहीं समझते थे तथा उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के आक्षेप की सम्भावना रहती थी, किन्तु भगवान महावीर ने इन प्रश्नों का भी सम्यक् समाधान किया है। उनके समक्ष जब यह प्रश्न आया कि लोक शाश्वत है या अशाश्वत तो प्रभु ने इसका उत्तर देते हुए फरमाया कि लोक स्यात् शाश्वत है एवं स्यात् अशाश्वत । त्रिकाल में एक भी समय ऐसा नहीं मिल सकता, जब लोक न हो, अतः लोक शाश्वत है। परन्तु लोक सदा एक सा नहीं रहता । कालक्रम से उसमें उन्नति, अवनति होती रहती है, अतः वह अनित्य और परिवर्तनशील होने के कारण अशाश्वत है। इसी प्रकार लोक की सान्तता और अनन्तता के संबंध में भी भगवान् महावीर

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