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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
नय के विषय की न्यूनाधिकता ... सात नयों में नैगम नय सामान्य और विशेष दोनों को विषय करता है। अतः उसका विषय सबसे अधिक है। संग्रह नय केवल सामान्य को विषय करता है। अतः उसका विषय नैगम नय से अल्प है। व्यवहार नय विशेष या भेदों का निरूपण करता है। अतः उसका विषय संग्रह नय की अपेक्षा कम है। ऋजुसूत्र नय मात्र वर्तमान की पर्याय का ग्रहण करता है। इसलिए उसका विषय व्यवहार नय की अपेक्षा न्यून है । शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत में भी पूर्ववर्ती नय अधिक विषय वाला एवं उत्तरवर्ती नय न्यून विषय वाला है। निश्चय नय एवं व्यवहार नय .
नय के एक प्रसिद्ध विभाजन के अनुसार नय दो प्रकार के हैं- 1. निश्चय नय 2. व्यवहार नय । निश्चय नय को पारमार्थिक नय भी कहा जाता है। तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन करने वाला नय 'निश्चय नय' है । जैसे- निश्चय नय की अपेक्षा भ्रमर पाँच प्रकार के वर्ण वाला है। लोक प्रसिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करने वाला नय 'व्यवहार नय' है। जैसे- भ्रमर में पाँच वर्ण होते हुए भी उसे व्यवहार नय से काले रंग का कहा जाता है। निश्चय नय का अधिक विचार दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि ग्रन्थों में हुआ है। निश्चय नय से वे आत्मा को शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदि से पृथक् बतलाते हैं, जबकि व्यवहार नय से वे प्राण, इन्द्रिय आदि से युक्त चेतना को जीव कहते हैं। जीवन में निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयों का महत्त्व है। निश्चय नय लक्ष्य का बोध कराता है और व्यवहार नय उसकी ओर प्रवृत्त करता है।
द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का ही आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चयनय एवं व्यवहारनय में विकास हुआ है। समयसार की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने यह स्पष्ट किया है कि निश्चय नय द्रव्याश्रित है और व्यवहारनय पर्यायाश्रित हैं।* आलापपद्धति में कहा गया है कि सब नयों में निश्चय नय और व्यवहारनय ये दो मूलभूत भेद हैं। निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन अर्थात् व्यवहारनय का हेतु पर्यायार्थिक नय है। निश्चय नय और व्यवहार नय में एक यह भिन्नता प्रतिपादित की गई है कि निश्चयनय द्रव्यार्थिक नय की भांति अभेद को विषय