Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. २ : उ. १ : सू. ४९-५२
भगवती सूत्र संयोजित करता है और वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपर्यटन करता है। इस बालमरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है, बढ़ता है। यह बाल-मरण है। वह पण्डित-मरण क्या है? पण्डित-मरण दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे–प्रायोपगमन और भक्त-प्रत्याख्यान । वह प्रायोपगमन क्या है? प्रायोपगमन दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-निर्हारि और अनिर्हारि। यह नियमतः अपरिकर्म होता है। यह प्रायोपगमन है। वह भक्त-प्रत्याख्यान क्या है? भक्त-प्रत्याख्यान दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे निर्दारि और अनिर्हारि। यह नियतमतः सपरिकर्म होता है। यह भक्त-प्रत्याख्यान है। स्कन्दक! इस द्विविध पण्डित-मरण से मरता हुआ जीव नैरयिक के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता है, तिर्यंच के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता है, मनुष्य के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आप को विसंयोजित करता है, देव के अनन्त भव-ग्रहण से अपने आपको विसंयोजित करता है और वह आदि-अन्तहीन चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार का व्यतिक्रमण करता है। इस पण्डित-मरण से मरता हुआ जीव घटता है, घटता है। यह पण्डित-मरण है।
स्कन्दक! इस द्विविध बाल और पण्डित-मरण से मरता हुआ जीव बढ़ता है और घटता है। ५०. इस बिन्दु पर वह कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक संबुद्ध होकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करता है। वन्दन-नमस्कार कर इस प्रकार बोलता है 'भन्ते! मैं आपके पास केवलि-प्रज्ञप्त धर्म को सुनना चाहता हूं।' 'देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।' ५१. श्रमण भगवान् महावीर कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक को उस विशाल परिषद् में धर्म कहते
हैं। धर्मकथा वक्तव्य है। ५२. वह कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्म सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, नन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम-सौमनस्य-युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला
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