Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २१२-२१५
भगवती सूत्र २१२. श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हृष्ट-तुष्ट हो गया।
श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे। २१३. क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने हंसलक्षण-युक्त पटशाटक में आभरण, माल्य और
अलंकार स्वीकार किए। स्वीकार कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार (निर्गुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती हुई इस प्रकार बोलीजात! संयम में प्रयत्न करना। जात! संयम में चेष्टा करना। जात! संयम में पराक्रम करना। जात! इस अर्थ में प्रमाद मत करना यह कह कर क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए। २१४. क्षत्रियकुमार जमालि ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। लोच कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापें और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है)। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है (प्रज्वलित हो रहा है)। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त-प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वहां जो अल्प भार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकांत स्थान में चला जाता है। (और सोचता है-) अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूख-प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा प्रवजित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय-वैनयिक, चरण-करण-यात्रा-मात्रा-मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं। २१५. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार जमालि को पांच सौ पुरुषों के साथ स्वयं ही
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