Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 523
________________ _ करता हूं। मन्ते!...... पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ७५ ६-१० करता हूं। भन्ते!...... ५२२, १३ -प्रतीप्सित है जैसा आप | १४ | (ईशान कोण) ३४ | यात्रामात्रा-मूलक पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध ३ | है । गौतम! १ | गुणशिल चैत्य कर रहे हैं। समय तुंगिका चैत्यआयुष्यमन्। शुद्ध है, गौतम! गुणशिलक चैत्य करते है। समय में तुंगिका -प्रतीप्सित है-जैसा आप पृष्ठ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध ६६ | १४०३,४ का देश है " | " " का प्रदेश है ४ अजीव द्रव्य अनन्त भाग से न्यून ४ रत्नप्रभा पृथ्वी ' स्पर्श करते हैं। , वैसे ही यावत् (ईशान-कोण) यात्रा-मात्रा-वृत्तिक के देश हैं के प्रदेश हैं अजीव-द्रव्य अनन्त-भाग-से-न्यून रत्नप्रभा-पृथ्वी (स्पर्श करते हैं। वैसे ही (भ. २/१४६-१५१, २/७५) यावत् (वक्तव्यता ज्ञातव्य है)। सौधर्म-कल्प (अणुओगदाराई सू. २८७) यावत् (विकल्पों) का भी स्पर्श संग्रहणी गाथा प्रावेश्य २ वक्तव्यता ज्ञातव्य है। आयुष्मन्! पर (रायपसेणियं, सू.६८७-६८६) हैं (रायपसेणियं, सू. ६८६) प्रवेश्य शाटक वाला हैं, प्रदक्षिणा हैं, वन्दन चतुर्याम कर हृष्ट-तुष्ट उच्च-, नीच, और मध्यम-कुलों शाटक-वाला है। प्रदक्षिणा है। वन्दन चातुर्याम कर, हृष्ट-तुष्ट | उच्च, नीच और मध्यम कुलों सौधर्म-कल्प यावत् | ४ | विकल्पों | का स्पर्श x कि बीच में | २ बारह कल्प नौ ग्रैवेयक, पांच सिद्धशिला-इन अनुत्तरविमान के ४ स्पर्श करते हैं सब (पृथ्वी ५ स्पर्श करते हैं। (बारह) कल्प, (नौ) ग्रैवेयक, (पांच) सिद्धशिला(-इन अनुत्तरविमान) के (स्पर्श करते हैं। (सब पृथ्वी (स्पर्श करते है) ॥११॥ प्रकार यावत् उच्च, | नीच और मध्यम कुलों इस प्रकार यावत् १ | सिद्धि। शीर्षक | उष्णजलकुण्ड-पद २ | द्वीपसमुद्रों ४ | तिगिच्छिकूट करो। वह करो। पूर्ववत् (भ.२/५८, ५६) (वह करता है। करता है।) | इसी प्रकार त्रैमासिकी इस प्रकार (म.२/५८, ५६) त्रैमासिकी, " | यथासूत्र यावत् यथासूत्र (भ.२/५२) यावत् २ | हुआ यावत् हुआ (म.२/५२) यावत् ६, ६ विरासन वीरासन २१ तपः कर्म तपः-कर्म २२ | विरासन वीरासन २ | यथाकल्प यावत् यथाकल्प (भ.२/५६) यावत् समवसरण या समवसरण या (ओवाइयं सू.६-८०) | २२ | कृतयोग्य स्थविरों कृतयोग्य (प्रत्युपेक्षणा आदि प्रवृत्तियों में निपुण तथा अनशनविधि संपन्न कराने में कुशल) आदि स्थविरों | १ | स्कन्दक! ४ गया हूं यावत् गया हूं (म.२/६६) यावत् ५ | पर यावत् पर (म.२/६६) यावत् चित्त ६ कृतयोग कृतयोग्य आदि २२ यावत् (भ.२/५२) यावत् ४ छोड़कर पण्णवणा का समुद्घात- छोड़कर समुद्धात-पद (पण्णवणा -पद (३७) पद ३६) ३ जीवाजीवाभिगम में जीवाजीवाभिगम (३/७६-१२७) " (पण्णवणा के इन्द्रिय पद (१५) का | (पण्णवणा, १५/१-५७) प्रथम उद्देशक) ४ ज्ञातव्य है, यावत् ज्ञातव्य है यावत्| एक जीव एक एक जीव भी एक ७ सम्पन्न यावत् सम्पत्र (ठा. ८/१०) यावत् ८०२ | यावत् जीव एक साथ स्त्री-वेद और यावत् एक जीव भी एक समय में दो वेदों का वेदन करते हैं जैसे स्त्री-वेद का और ३ वेद दोनों वेद का। ८३ | ८३ | २ अन्तर्मुहूर्त उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः शतक ३ चैत्य का (नगर का) (चैत्य का) (नगर से) (नगर में) थी (म. १/६, १०) यावत् दूसरी बार तिगिच्छिकूट ची। यावत् प्रकार (म. २/१०१, १०२) यावत् उच्चनीच- और मध्यम-कुलों इस प्रकार (म. २/६E-१०२) यावत् सिद्धि ।।१।। उष्ण-जल-कुण्ड-पद द्वीप-समुद्रों तिगिछिकूट ११६. उस तिगिछिकूट उत्पातपर्वत के ऊपर बहुसम-रमणीय भूभाग प्रज्ञप्त है-भूभाग-वर्णन तिगिछिकूट रत्नप्रभा-पृथ्वी चाहिए (रायपसेणियं, सू. २०४-२०८) जीवाजीवभिगम (३/२६०-८३३) ज्योतिष्क-देवों ग्रहणगुण-परस्पर या जीव द्वारा औदारिकादि प्रकारों से समुदित कहलाता है? अधर्मास्तिकाय भी वक्तव्य (वक्तव्य है)। शेष पूर्ववत्। के देश भी है के प्रदेश भी है -जीवों के -जीवों के | ३ | रत्नप्रभा पृथ्वी चाहिए। दूसरी बात प्रकार भगवान् | वहां तक का समग्र विषय प्रकार कहकर भगवान् वहां तक (म. ३/४,७) का समग्र जीवाजीवाभिगम ज्योतिष्क देवों | १३ | ग्रहणगुण-समुदित ६.८१ कहलाता है। १ अधर्मास्तिकाय वक्तव्य ३ | होते हैं। शेष पूर्ववत्। ३, ४ | का देश भी है का प्रदेश भी है ७-१०|-जीवों का ७-१२-जीवों के ४ वहां आते हैं, यावत् भन्ते! यह कैसे है? ही है" इस प्रकार तृतीय ११ | है। यावत् सौधर्म कल्प ८ अंगुल के असंख्यातवें भाग २७ शक की २६ है। तिष्यक तिष्यक-देव वहां आते हैं (भ. १/१०) यावत् भन्ते! यह इस प्रकार कैसे है? ही है।" इस प्रकार कहकर तृतीय है यावत् सौधर्म-कल्प अंगुल-के-असंख्यातवें भाग शक (भ. ३/१६) की है, तिष्यक तिष्यक देव ८४ | ८६ १ | मैथुन सेवन मैथुन-सेवन (११)

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