Book Title: Astha ki aur Badhte Kadam
Author(s): Purushottam Jain, Ravindar Jain
Publisher: 26th Mahavir Janma Kalyanak Shatabdi Sanyojika Samiti
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- आस्था की ओर बढ़ते कदम कारण मोह था। माता के सहयोग से वह पुनः धुर्म में स्थिर हुआ।
यह श्रद्धा की कहानीयां हैं प्रभु महावीर के एक विदेशी साधक आद्रक कुमार के जीवन में कुछ समय अज्ञान की अवस्था आई। यहां तक प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभ देव के पुत्र भगवान वाहुवलि ने जब यह सोचा कि जिस धरती पर मैं खड़ा हूं वह धरा मेरे भ्राता भरत की है। तो मन में अज्ञान उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व व मिथ्यात्व के बीच सिद्धांतों की भेद रेखा खींचने वाले अनेकों प्रमाणों व कथाओं से जैन ग्रंथ भरे पड़े हैं। इनमें से एक प्रसिद्ध कथा 'ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र' में मिलती है जो काफी ज्ञानवर्धक है।
"किसी नगर में दो मित्र रहते थे। एक बार वह वन __में घूम रहे थे। उन्हें मयूरी के दो अण्डे प्राप्त हुए। दोनों मित्रों
ने उन अण्डों को उठाया। वह सोचने लगे कि इन अण्डों को गर्मी देने से इनमें से सुन्दर वच्चे प्राप्त होंगे। दोनों घर आए। पहले मित्र ने उन अण्डों को पक्षीयों के झुण्ड में रख दिया। दूसरे मित्र का स्वभाव पहले मित्र से विपरीत था। वह शंकालु स्वभाव का था। वह हर रोज अण्डे को उठाता, फिर उसे हिला कर देखता कि उस में बच्चा है या नहीं।
समय वीता। जिस मित्र ने अण्डे को योग्य गर्मी पहुचाने के स्थान पर रखा था उसे उस की इच्छा का सुन्दर फल मिला। उसके यहां एक सुन्दर मयूर पैदा हुआ जो घर की छत की शोभा वना। मयूर आकर्षण का केन्द्र बना।
दूसरा मित्र जो अण्डा हिला कर देखता था, उसका अण्डा एक दिन टूट गया। इस के अविश्वास के कारण उसे कुछ प्राप्त नहीं हुआ।"
भगवान महावीर इन कथाओ को बताने के बाद फुरमाते हैं "सम्यकत्वी पहले मित्र की भांति श्रद्धा भाव होता
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