Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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श्री कन्हैयालाल 'कमल'
ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति का संकलन काल :
भगवान महावीर और नियुक्तिकार भद्रबाहु-इन दोनों के बीच का समय इस ग्रन्थराज का संकलन काल कहा जा सकता है क्योंकि भद्रबाहुकृत "सूर्यप्रज्ञप्ति की नियुक्ति" वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि के पूर्व ही नष्ट हो गई थी ऐसा वे सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में स्वयं लिखते हैं। ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति एक स्वतन्त्र कृति है :
संकलनकर्ता चन्द्रप्रज्ञप्ति की द्वितीय गाथा' में पांच पदों को वंदन करता हे और तृतीय गाथा में वह कहता है कि "पूर्वश्रुत का सार निष्पन्दन झरणा" रूप स्फुट-विकट सूक्ष्म गणित को प्रगट करने के लिए "ज्योतिषगण-राज-प्रज्ञप्ति" को कहूँगा इससे स्पष्ट ध्वनित होता हैयह एक स्वतन्त्र कृति है।
चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रत्येक सूत्र के प्रारम्भ में "ता" का प्रयोग है। यह "ता" का प्रयोग इसको स्वतन्त्र कृति सिद्ध करने के लिए प्रबल प्रमाण है।
इस प्रकार का "ता" का प्रयोग किसी भी अंग-उपांगों के सूत्रों में उपलब्ध नहीं है।
चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रत्येक प्रश्नसूत्र के प्रारम्भ में 'भंते !' का और उत्तर सूत्र के प्रारम्भ में “गोयमा" का प्रयोग नहीं है जबकि अन्य अंग-उपांगों के सूत्रों में "भंते और गोयमा" का प्रयोग प्रायः सर्वत्र है, अतः यह मान्यता निर्विवाद है कि "यह कृति पूर्ण रूप से स्वतन्त्र संकलिन कृति है। ग्रन्थ एक उत्थानिकायें दो :
ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति की एक उत्यानिका चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में दी हुई गाथाओं की है और दूसरी उत्थानिका गद्य सूत्रों की है।
इन उत्थानिकाओं का प्रयोग विभिन्न प्रतियों के सम्पादकों ने विभिन्न रूपों में किया है:१. किसी ने दोनों उत्थानिकायें दी हैं। २. किसी ने एक गद्य सूत्रों की उत्थानिका दी है । ३ किसी ने एक पद्य-गाथाओं की उत्थानिका दी है।
इसी प्रकार प्रशस्ति गाथायें चन्द्रप्रज्ञप्ति के अन्त में और सूर्यप्रज्ञप्ति के अन्त में भी दी है। जबकि ये गाथायें ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति के अन्त में दी गई थीं।
संभव है ज्योतिष-राज-प्रज्ञप्ति को जब दो उपांगों के रूप में विभाजित किया गया होगा, उस समय दोनों उपांगों के अन्त में समान प्रशस्ति गाथायें दे दी गई।
१. नमिऊण सुर-असुर-गल्ल-भुसगपरि वंदिए गयकिलेसे ।।
अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाय सव्वसाह य ॥२॥ २. फुड-वियड-पागडत्थ. वुच्छं पुव्वसुय-सार णिस्संद ।।
सुहुमं गणिणोवइटें, जोइसगणराय-पण्णत्ति ॥३॥
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