Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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कालिदास की रचनाओं में अहिंसा की अवधारणा
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कवि की दृष्टि में आखेट सर्वथा निन्दनीय कार्य रहा है, तभी तो उसने अभिज्ञान-शाकुन्तल में माधव्य के मुख से आखेट की निन्दा करते हुए इसको ( आखेट-वृत्ति को) बहेलिया (चिड़ीमार) आदि निम्न व्यक्तियों की वृत्ति कहा है
युक्तं नामेवं, यतस्त्वया राजकार्याणि उज्झित्वा तादृशमस्खलितपदं प्रदेशञ्च वनचरवृत्तिना भवितव्यमिति ॥
माधव्य के इस कथन से अभिभूत होकर राजा दुष्यन्त का अपनी शिकार-यात्रा का उत्साह मन्द हो गया, तभी वह सेनापति भद्रसेन से कहता है-भद्रसेन ! भग्नोत्साहः कृतोऽस्मि मृगयापवादिना माधव्येन-अर्थात् भद्रसेन ! शिकार की निन्दा करने वाले माधव्य ने मेरे उत्साह को मन्द कर दिया है।
इसी ग्रन्थ के छठे अङ्क में धीवर की मत्स्य-हिंसा आदि कार्यों को गर्दा सिद्ध करते हुए कवि ने उसे अति हेय स्थान दिया है, तभी तो नागरक (थानाध्यक्ष) धीवर की व्यङ्गय रूप में जो प्रशंसा करता है, उससे उसके हिंसा-कर्म को निन्दा ही ध्वनित होतो है-(विहस्य) विशुद्ध इदानीमा आजीवः३
___ अर्थात् (हँसकर ) इसकी आजीविका तो पवित्र है। इस व्यङ्गयोक्ति के उत्तर में अपनी मत्स्य-हिंसा-वृत्ति के समर्थन में धोवर कहता है
सहजं किल यद्विनिन्दितं न तु तत् कर्म विवर्जनीयकम् ।
पशुमारणकर्मदारुणोऽनुकम्पामृदुकोऽपि श्रोत्रियः ॥४ अर्थात् निन्दित होता हुआ भी जो कर्म स्वाभाविक ( वंशपरम्परागत ) है, उसे नहीं छोड़ना चाहिए। दया से कोमल ( हृदय ) होता हुआ भी वैदिक ब्राह्मण यज्ञ में पशु-हिंसारूपी कर्म से क्रूर हो जाता है। परन्तु धीवर के इस व्यङ्ग रूप कथन से स्पष्ट होता है कि यज्ञ में पशु-हिंसा करने वाले इन श्रोत्रिय ब्राह्मणों को भी कवि ने निन्दनीय दृष्टि से ही देखा है।
___ यहाँ हम इस तथ्य को तो अस्वीकार नहीं कर सकते कि तत्कालीन समाज में आखेट-क्रीड़ा और यज्ञादि में पशु-हिंसा प्रचलित थी, परन्तु अनेक प्रसङ्गों के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कम से कम महाकवि को ऐसी हिंसा रूचिकर न थी और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि महाकवि की इस अहिंसा-विश्व के प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और करुणा की भावना के अन्तस् में जैन धर्म का ही किञ्चित् प्रभाव अन्तर्निहित हो।
जैन धर्म में परमाराध्य एवं अहिंसा के सिद्धान्त के प्रतिपादक 'अरहंत' का स्थान सर्वोपरि है। इसी कारण जैन धर्म के अनादिनिधन मन्त्र में सर्व प्रथम इन्हें ही नमस्कार किया गया है।
१. अभिज्ञानशाकुन्तल : महाकवि कालिदास, २।२। २. अभिज्ञानशाकुन्तल : महाकवि कालिदास, २।४ । ३. वही, ५।१ ( अङ्कावतार )। ४. वही, ५।१ ( अङ्कावतार )। ५. णमो अरिहंताणं।
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