Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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ऋषिभाषित और पालिजातक में प्रत्येक-बुद्ध की अवधारणा जातक' में प्रत्येक-बुद्ध अपने धर्म की अभिव्यक्ति इस रूप में करते हैं.-"न पकाता हूँ, न पकवाता हूँ, न काटता हूँ, न कटवाता हूँ।" अतः उपासक इन्हें अकिंचन तथा सब पापों से दूर जानकर दाहिने हाथ से कमण्डलु ले,बाँयें हाँथ से पवित्र भोजन देते। बहुधा जातकों में भिक्षाटन करते प्रत्येक-बुद्धों के प्रति उपासकों द्वारा किये जाने वाला आदर-सत्कार इस रूप में वर्णित है कि उपासक लोग उन्हें घर ले जाकर दक्षिणोदक देते, पाँव धोते, सुगन्धित तेल मलते, आसन प्रदान करते और तत्पश्चात् उनके लिये उत्तम खाद्य परोसते, और अन्त में दान देकर प्रार्थना कर उन्हें विदा करते। छद्दन्त जातक बोधिसत्त्व छद्दन्त द्वारा पाँच सौ प्रत्येक-बुद्धों के लिये कमल के पत्तों पर मधुर फल तथा “भिस-मूल'' परोसने का उल्लेख करता है।
बाहर कहीं भी, मार्ग आदि में जब उपासकों की प्रत्येक-बुद्धों से भेंट हो जाती तो वे उनके प्रति आदर-सत्कार व्यक्त करते । सङ्घ और कुम्मासपिण्ड जातक' से ज्ञात होता है कि ऐसे अवसरों पर उपासकों के मन में यह भाव होता कि मेरा पुण्य क्षेत्र आ गया है, आज मुझे इसमें बीज डालना चाहिये, दान का यह पुण्य-कर्म दीर्घ-काल तक मेरे हित-सुख के लिये होगा, इत्यादि । वे प्रत्येक-बुद्ध को प्रणाम करते और दान स्वीकार कर लेने की उनकी अनुज्ञा जान, वे वक्ष की छाया में बाल का ऊँचा आसन तैयार कर उस पर अपनी चादर या कोमल टहनियाँ बिछा कर प्रत्येक-बुद्ध को बिठाते, दोने में पानी लाकर उन्हें दक्षिणोदक देते, उन्हें कुल्माष लड्ड प्रदान करते जो बिना नमक, शक्कर और तेल का बना होता, उनके लिये जूता, छाता आदि दान करते और उन्हें प्रणाम कर मिन्नत आदि करके विदा करते। स्थिति विशेष में उपासक के पास जो भी होता या जिसकी इच्छा होती, उसी को दान में अर्पित किया जाता। सुरुचि जातक' में एक वंसकार उपासक प्रत्येक-बुद्ध को देखकर उन्हें घर ले जाकर आदर-सत्कार करता है और उनके वर्षावास के लिए गंगा तट पर गूलर की जमीन और बांस की दीवार की पर्ण-कुटी बना, दरवाजा लगा और चङ्क्रमण भूमि बनाकर दान करता है। वर्षावास की तीन मास की अवधि पूरी होने पर वह उन्हें चीवर ओढ़ाकर विदा करता है।
दस ब्राह्मण और आदित्त जातक से ज्ञात होता है कि प्रत्येक-बुद्धों को उनके मूल निवासस्थान (उत्तर हिमालय का नन्दमूलक या गन्धमादन-पर्वत प्रदेश) से भी आमन्त्रित करके आदर-सत्कार करने की प्रथा थी। इस प्रकार के सत्कार में प्रातःकाल ही खा-पीकर, उपोसथव्रत रखकर, चमेली के पुष्पों की टोकरी ले, प्रासाद के आँगन या खुले स्थान पर अपने पाँच अंगों को भूमि पर प्रतिष्ठित कर, प्रत्येक-बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण किया जाता था और उत्तरदिशा की ओर प्रणाम कर, उसी दिशा में पुष्पों की सात-आठ मुट्ठियाँ आकाश की ओर फेंक कर इस प्रकार आग्रह किया जाता था कि “उत्तर हिमालय के नन्दमूल पर्वत पर रखने वाले
१. जातक ४९६, खण्ड ४, पृ० ५८१ । २. जातक ९६, खण्ड १; ३९०, खण्ड ३; ४०८, खण्ड ४; ४५९, खण्ड ४ आदि । ३. जातक ५१४, खण्ड ५, पृ० १२८ ।। ४. जातक ४४२, खण्ड ४, पृ० २१५; और ४१५, खण्ड ४, पृ० ६७ । ५. जातक ४८९, खण्ड ४, पृ० ५२३ । ६. जातक ४९५, खण्ड ४, पृ० ५७५; और ४२४, खण्ड ४, पृ० १२९-१३१ ।
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