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ऐसे क्या पाप किए !
कविवर बुधजन ने भी बहुत ही सरल व सशक्त भाषा में क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा के बल पर स्वयं को निर्भय होने की घोषणा की है। वे लिखते हैं -
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'जा करि जैसें जाहि समय में, जो होतब जा द्वार ।
सो बनिरहै कछु नाहीं, करि लीनों निरधार ।। " हमको कछु भय ना रे !
उक्त प्रकरणों में प्रायः सर्वत्र ही सर्वज्ञ के ज्ञान को आधार मानकर भविष्य को निश्चित निरूपित किया गया है और उसके आधार पर अधीर नहीं होने का एवं निर्भय रहने का उपदेश दिया गया है।
स्वामी कार्तिकेय ने तो ऐसी श्रद्धावाले को ही सम्यग्दृष्टि घोष किया है और इसप्रकार नहीं माननेवाले को मिथ्यादृष्टि कहने में भी उन्हें किंचित् भी संकोच नहीं हुआ। इसप्रकार हम देखते हैं कि 'क्रमबद्धपर्याय' की सिद्धि में सर्वज्ञता सबसे प्रबल हेतु हैं।
सर्वज्ञ को धर्म का मूल कहा गया है। जो व्यक्ति सर्वज्ञ भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह अपने आत्मा को भी जानता है । जब सर्वज्ञता हमारा लक्ष्य है, प्राप्तव्य है, आदर्श है, उसे प्राप्त करने के लिए सारा यत्न है तो फिर उसके सच्चे स्वरूप को तो समझना ही होगा, उसकी उपेक्षा कैसे की जा सकती है।
'सर्वज्ञता' और 'क्रमबद्धपर्याय' परस्परानुबद्ध हैं। एक का निर्णय व सच्ची समझ, दूसरे के निर्णय के साथ जुड़ी हुई है। दोनों का निर्णय ही सर्वज्ञस्वभावी निज आत्मा के अनुभव के सम्मुख होने के साधन है।
जिन्हें क्रमबद्धपर्याय में पुरुषार्थ निष्क्रिय अथवा लुप्त होता दिखता है, उन्हें पुरुषार्थ की परिभाषा और स्वरूप का जैनदर्शन के आलोक में पुनर्वालोकन करना होगा।
लौकिक पुरुषार्थ से जैन दर्शन के अनुसार की गई पुरुषार्थ की व्याख्या ही जुदी है। जैसे कि लोक में येनकेन प्रकारेण धनार्जन करने को अर्थ
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सर्वज्ञता, क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ
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पुरुषार्थ कहते हैं जबकि जैनदर्शन इसे पुण्याधीन संयोग मानता है और धन में सुख-शान्ति नामक गुण ही नहीं है अतः इससे ममत्व त्याग करने का संदेश देते हुए उसे धूल मिट्टी का ढेर कहता है इसके विरुद्ध छह द्रव्यों के स्वरूप की समझ के प्रयत्न को एवं लोभ कषाय के संवरण को अर्थ पुरुषार्थ कहता है। ऐसा पुरुषार्थ सर्वज्ञ की श्रद्धा और क्रमबद्धपर्याय की यथार्थ समझ से ही जागृत होता है। इस संदर्भ में कविवर बनारसीदास ने जो चारों पुरुषार्थों का स्वरूप लिखा है, वह मूलतः द्रष्टव्य है ।
आत्मा के स्वभाव का निर्णय कहो या सर्वज्ञता का निर्णय कहो दोनों एक ही हैं; क्योंकि आत्मा का जो ज्ञान स्वभाव है, वही सर्वज्ञ भगवान को सर्वज्ञ पर्याय के रूप में प्रगट हुआ है। इसलिए आत्मा का पूर्ण स्वभाव पहचानने से उसमें सर्वज्ञ की पहचान भी आ जाती है; और सर्वज्ञ को पहचाने तो उसमें आत्मा के स्वभाव की पहचान भी आ जाती है । सर्वज्ञ - भगवान ने प्रथम तो अपने पूर्ण स्वभाव की श्रद्धा की और पश्चात् आत्मा में एकाग्र होकर पूर्ण ज्ञानदशा प्रगट की । उस पूर्ण ज्ञान द्वारा सर्वज्ञ भगवान एक समय में सब कुछ जानते हैं। ऐसा जहाँ सर्वज्ञ का यथार्थ निर्णय किया वहाँ अपने में भी अपने रागरहित ज्ञान-स्वभाव का निर्णय हुआ ।
जिसप्रकार जड़ में 'अचेतनता' है, उसमें अंशतः भी ज्ञातृत्व नहीं है; उसीप्रकार आत्मा का ज्ञान स्वभाव है, उसमें ज्ञान परिपूर्ण है और अचेतनता बिल्कुल नहीं है । राग भी अचेतन के सम्बन्ध से होता है इसलिए राग भी ज्ञान - स्वभाव में नहीं है ऐसे ज्ञान - स्वभाव का निर्णय और अनुभव करना ही धर्म का प्रारम्भ है।
प्रश्न :- सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में जब धर्म का प्रगट होना ज्ञात होगा, उसीसमय आत्मा में धर्म प्रगट होगा, इससमय यह सब समझने की क्या जरूरत है?
उत्तर :- अरे भाई ! 'सर्वज्ञ भगवान ने सब कुछ देखा है और उसीप्रकार सब कुछ होता है' - ऐसा सर्वज्ञ के ज्ञान का और वस्तु के स्वभाव का