Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 79
________________ १५६ ऐसे क्या पाप किए! भगवान महावीर के विश्वव्यापी संदेश १५७ आत्मा के स्वभाव और विभाव को जाने-पहिचाने बिना उक्त स्वभाव की प्राप्ति और विभावों का अभाव होना संभव नहीं है। आत्मा के इस स्वभाव को जानना-पहिचाना ही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है और इसी स्वभाव में स्थिरता, जमना, रमना सम्यक्चारित्र है और यही मुक्ति का मार्ग है। इस आत्मज्ञान के साथ स्व-संचालित विश्वव्यवस्था समझना भी अति आवश्यक है। इसके समझने से हमारा अन्तर्द्वन्द्व और बाहर का संघर्ष समाप्त हो सकता है। हम निश्चिन्त और निर्भार होकर अन्तर आत्मा का ध्यान कर सकते हैं, जो हमें पुण्य-पापरूप कर्मबन्धन से मुक्त करा कर वीतरागधर्म की प्राप्ति करा सकता है। एतदर्थ भगवान महावीर की देशना का रहस्य जिनागम के अध्ययन से हम सब जाने । इसी में हम सबका भला है। पुराणों में तीर्थंकरों एवं महापुरुषों के पूर्वभवों का ही वर्णन क्यों किया गया है, उनकी पीढ़ियों का क्यों नहीं, वंशावलि का क्यों नहीं? जिन्होंने भी पुराण पढ़े या सुने हैं, उन्होंने पाया होगा कि उनमें महापुरुषों के पूर्वभवों का वर्णन ही विस्तार से है, पीढ़ियों का नहीं। माता-पिता के सिवाय अधिकांश किसी भी पीढ़ी का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा क्यों हुआ? यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विचारणीय विषय है। इसमें लौकिक व पारलौकिक - दोनों दृष्टियों से अनेक तथ्य निहित हैं। भगवान महावीर के पूर्वभवों की प्रासंगिक उपयोगिता की गहराइयों में उतर कर देखें वहाँ भी लौकिक एवं पारलौकिक - दोनों दृष्टियों से अनेक तथ्य निहित हैं। पारलौकिकदृष्टि से विचार करें तो सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पूर्वभवों के ज्ञान से आत्मा की अनादि-अनन्तता सिद्ध होती है और आत्मा की अनादि-अनन्तता की श्रद्धा से हमारा सबसे बड़ा भयमरणभय समाप्त होता है। दूसरे, असंख्य भवों में हुए सुख-दुःख रूप उतार-चढ़ाव के अध्ययन से पुण्य-पाप का स्वरूप ख्याल में आता है और उसके फल में नाना प्रकार के अनुकूलताओं-प्रतिकूलताओं के परिचय से पुण्य-पाप तथा आस्रव-बंध तत्वों की यथार्थ प्रतीति आती है। तीसरे, पुण्य-पाप आदि से भिन्न भगवान आत्मा के पहचानने का सु-अवसर प्राप्त होता है। पूर्वभवों से ही अपने आत्मा का सीधा सम्बन्ध है, पीढ़ियों से नहीं। अत: पीढ़ियों के परिचय की आवश्यकता नहीं है। लौकिक दृष्टि से चौथी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे हृदयों में जो नीच-ऊँच, अमीर-गरीब का भेद, धर्म और संस्कृति का भेद अथवा प्रान्त और भाषा आदि के भेद के कारण जातिवाद, वर्गवाद, प्रान्तीयता और भाषायी भेद उभरते हैं और इनसे संघर्ष की स्थिति बननी है। वे सब इन पूर्वभवों के वर्णन से सहज ही समाप्त हो जाते हैं; क्योंकि हम पुराणों में पढ़ते हैं कि हिन्दी भाषी भाई मरकर दक्षिण में पैदा हो गया। हरिजन मरकर ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न हो गया, सेठ या राजा मरकर निर्धन के यहाँ पैदा हो गया। इस प्रकार पूर्वभवों के ज्ञान से अब तक जो रंग भेद, जाति भेद, प्रान्त भेद व भाषा भेद या धर्म भेद के कारण भिन्नता की भिनभिनाहट होती थी, वह सब समाप्त हो जाती है। जो आज हिन्दू है वही कल मुसलमान हो सकता है। और तो ठीक मर कर कीड़ा-मकौड़ा भी हो सकता है, इससे कीड़ों-मकौड़ों से भी आत्मीयता हो जाती है। इसप्रकार इन सबकी सही जानकारी और श्रद्धा से देश की भी बहुत बड़ी समस्या सहज ही सुलझ सकती है। यही है पूर्वभवों के वर्णन की लौकिक व पारलौकिक उपयोगिता। (79)

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