Book Title: Aise Kya Pap Kiye
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 100
________________ १९९ १९८ ऐसे क्या पाप किए ! वृद्ध ने विदूषक का वचन सुनते ही अपना वेष बदल लिया। तब सुरमञ्जरी उसे जीवन्धरकुमार जानकर बहुत लज्जित हुई। इसके पश्चात् सुरमञ्जरी के पिता कुबेरदत्त ने शुभलग्न में अपनी सुपुत्री सुरमञ्जरी का जीवन्धरकुमार के साथ विवाह कर दिया। दसवें लम्ब (अध्याय) में कहा गया है कि -सुरमञ्जरी के साथ विवाह होने पर जीवन्धरकुमार अपने धर्म के माता-पिता सुनन्दा एवं गन्धोत्कट के पास गए। धर्मपिता से अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने हेतु परामर्श करके उनकी सम्मति से अपने मामा गोविन्दराज के पास गए। गोविन्दराज पहले से ही इसके लिए चिन्तित और प्रयत्नशील थे। संयोग से इसी बीच काष्ठांगार का एक सन्देश गोविन्दराज के पास पहुंचा था, जिसे गोविन्दराज ने अपने मन्त्रियों को सुनाया। उस सन्देश में काष्ठांगार ने छल से यह झूठा समाचार लिखा कि महाराज सत्यन्धर की मृत्यु एक मदोन्मत्त हाथी के द्वारा हुई है, किन्तु अशुभ कर्म के उदय से मैं उस अपयश का भागी बन गया हूँ। यदि आप मेरी बात पर विश्वास करें और यहाँ आकर मुझसे मिलने की कृपा करें तो मैं बिलकुल निःशल्य हो जाऊँगा। काष्ठांगार के छल भरे सन्देश को सुन गोविन्दराज ने उसकी चालाकी भाँप ली। अत: अपने मन्त्रियों को सावधान किया कि नीच काष्ठांगार मीठी-मीठी बातें बनाकर हम लोगों को राजपुरी में बुलाकर किसी मायाचार के जाल में फँसाना चाहता है। इसलिए हम लोग वहाँ जाएँगे तो अवश्य; पर उसके चंगुल में फँसने के लिए नहीं; बल्कि उसको उसकी चालाकी का मजा चखाने के लिए जाएँगे। अत: सशस्त्र सेना की तैयारी करो। इसी रीति-नीति के अन्तर्गत गोविन्दराज ने यह ढिंढोरा भी पिटवा दिया कि - काष्ठांगार के साथ हमारी भी मित्रता हो गई है, अत: हम उससे मिलने जा रहे हैं। पश्चात् गोविन्दराज जीवन्धरकुमार को साथ लेकर सेना सहित क्षत्रचूडामणि नीतियों और वैराग्य से भरपूर कृति राजपुरीनगरी के निकट पहुँचकर नगरी के बाहर ही ठहर गए। वहाँ गोविन्दराज ने ऐसा स्वयंवर मण्डप बनवाया, जिसमें एक चन्द्रकयन्त्र स्थापित किया और यह घोषणा कराई कि जो व्यक्ति इस मन्त्र का भेदन करेगा उसे मैं अपनी लक्ष्मणा नामक कन्या प्रदान करूँगा। ___ एतदर्थ अनेक धनुर्धारी राजा एवं राजकुमार पूरी तैयारी के साथ आए; परन्तु कोई भी उस चन्द्रकयन्त्र का भेदन नहीं कर सका । अन्त में जीवन्धरकुमार ने जब चुटकियों में ही अर्थात् बहुत जल्दी, सहज खेल ही खेल में उस यन्त्र को भेद दिया तो दर्शकों ने दाँतो तले अंगुली दबा ली अर्थात् दर्शक आश्चर्यचकित होकर पूछने लगे - अरे ! यह कौन है ? कहाँ का राजकुमार है ? तब गोविन्दराज ने गौरव के साथ परिचय दिया - "यह राजपुरी के स्वर्गीय महाराजा सत्यन्धर के पुत्र और मेरा भानजा जीवन्धरकुमार हैं।" अनेक राजाओं के मुँह से निकला “हम भी इनके बल-विक्रम एवं उत्साहपूर्ण चेष्टाओं से यही अनुमान कर रहे थे।" फिर क्या था ? यह सुनते ही काष्ठांगार की आँखों के आगे अँधेरा छा गया, वह पसीना-पसीना हो गया, उसके दिल की धड़कन बढ़ गई; वह सोचने लगा - यह तो मेरे साले मथन द्वारा मार दिया गया था, फिर यह जीवित कैसे हो गया ? मैंने इसके मामा को यहाँ बुलाकर अपने हाथों ही अपने पैर पर पत्थर पटक लिया। अपने मामा का बल पाकर यह मेरा अनर्थ अवश्य करेगा; इसप्रकार की चिन्ता से उसे दारुण दुःख हो गया। ___ इस कथानक से ग्रन्थकार ने पाठकों को यह सन्देश दिया है कि जिसके पाप का घड़ा भर जाता है, उसका विस्फोट एक न एक दिन तो होता ही है और उस भयंकर विस्फोट से वह पापी कभी बच नहीं सकता। अत: यदि पापी पाप करने से पहले उसके दुष्परिणाम पर थोड़ा भी सोचे तो फिर उससे कोई पाप होगा ही नहीं। इसीलिए तो कहा है - (100)

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