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वि. प्र.
विजयनामका हो और जिसमें दो शाला हों वह शंकनामका होता है वह मनुष्योंको शुभदायी होता है ।। १८१ ॥ जो सब दिशाओमें विपुल हो और जिसमें दो शाला हो उस घरको संपुटनामक कहते हैं. वह धनधान्यको देता है ॥ १८२ ॥ जो सब दिशाओम धनद होभा . टी वा सुवक्र वा मनोरम हो वह घर कान्तनामका होता है वह सब घरोंमें शोभन कहा है ॥ १८३ ॥ दो शालाओंके घरोंके ये १३ भेद इन गृहोंके फलपाकके लिये मैंने विस्तारसे कहे ॥ १८४ ॥ पूर्वदक्षिण १, दक्षिणपश्चिम २, पश्चिमउत्तर ३, उत्तरपूर्व ४, प्राक्पश्चिम ५, दक्षिण विपुलं सर्वदिग्भागे द्विशालं तत्प्रजायते । तानि संपुटसंज्ञानि धनधान्यप्रदानि च ॥ १८२ ॥ धनदं सर्वदिग्भागे सुवकं वा मनोरमम् । कान्तं नाम तु तद्नुहं सर्वेषां शोभनं स्मृतम् ॥१८३।। द्विशालानां तद्गृहाणां भेदाश्चैव त्रयोदश । फलपाकार्थमेतेषांव मया प्रोक्तं सुविस्तरात् ॥ १८४ ॥ पूर्वयाम्यमथ याम्यपश्चिमं पश्चिमोत्तरमथोत्तरपूर्वकम् । प्राक्प्रतीचमथ दक्षिणोत्तरं वास्तु पड्पिमिदं द्विशालकम् ॥ १८५ ॥ अथ त्रिशालानि ॥ उत्तरद्वारहीनं यत्रिशालं धनधान्यदम् । हिरण्यनामनामानं राज्ञां सौख्यविवर्द्धनम् ॥ १८६॥ प्राग्द्वारशालहीनं तु सुक्षेत्रं नाम तद्गृहम् । वृद्धिदं पुत्रपौत्राणां धनधान्यसमृद्धिदम् ॥ १८७ ।। । याम्यशालाविहीनं तत्रिशालं चुद्धिसंज्ञकम् । विनाशनं धनस्यापि पुत्रपौत्रादिनाशनम् ॥ १८८॥ उत्तर ६, इन भेदोंसे दो शालाका वास्तु छः प्रकारका होता है ॥ १८५ ॥ इसके अनंतर तीन शालाओंके वास्तुको कहते हैं-उत्तरके द्वारसे) जो रहित हो ऐसा तीन शालाका गृह हिरण्यनाभनामका होता है वह धन धान्यको देता है और राजाओंके सुखको बढाता है ॥ १८ ॥ |जिसमें पूर्वके द्वारकी शाला न हो वह गृह सुक्षेत्रनामका होता है और पुत्र पौत्रोंकी वृद्धि और धन धान्यकी समृद्धिको दता है ॥ १८ ॥ जो दक्षिणकी शालासे रहित हो और जिसमें तीन शाला हो ऐसे घरको चुल्ही कहते हैं, उसमें धन और पुत्र पौत्र आदिका नाश होता
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