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1. दाता जाने ॥ २६ ॥ बुद्धिमान मनुष्य उन पदोंके शुद्ध भाण्ड और कीलोंसे पीडित न करें. न स्तम्भ और शल्यके दोषोंसे पीड़ित कर, करेभा
तो गहके स्वामीको पडिा ॥ २७ ।। उसी अव यवमें होती है जिस अवयवमें वास्तुपुरुषके हो और जिस वास्तुके अंगमें कण्डति ( खजुली " कर उसी अंगमें घाके स्वामीके कण्डूति होती है ॥ २८ ॥ होमके समयमें यज्ञ और भूमिकी परीक्षामें जहां अग्निका विकार होजाय वहां शल्यको कहै अर्थात विनकी शंका होती है ॥ २९ ॥ काष्टके बांसमें धनकी हानि, अस्थिके बांसमें पशुओंमें पीड़ा और रोगका भय कहा न तानि पीडयेत्याज्ञः शुचिभाण्डेश्च कीलकैः । स्तम्भैश्च शल्यदोपैश्च गृहस्वामिषु पीडनम् ॥ २७ ॥ तस्मिन्नवयवे तस्य बाधा चैव प्रजायते । कण्डूयते यदङ्गं वा गृहस्वामी तथैव च ॥ २८ ॥ होमकाले च यज्ञादौ तथा भूमिपरीक्षणे । अग्नेर्वा विकृतिर्यत्र तत्र शल्यं विनिर्दिशेत् ॥ २९ ॥ धनहानिर्दारुमये पशुपीडास्थिसंभवे । रोगस्यापि भयं प्रोक्तं नागदन्तोऽपि दूपकः ॥ ३० ॥ | वंशानिमान्प्रवक्ष्यामि बहूनपि पृथक्पृथक् । वायुं यावत्तथा रोगापितृभ्यः शिष्यतस्तथा ॥ ३१ ॥ मुख्याभृङ्गस्तथाशोका द्वितथं यावदेव तु । सुग्रीवाददितिं यावद्भुङ्गात्पर्जन्यमेव च ॥ ३२ ॥ एते वंशाः समाख्याताः क्वचिदुर्जय एव तु । एतेषां यस्तु
संपातः पदमध्ये समन्ततः॥३३॥ एतत्प्रवेशमाख्यातं त्रिशूलं कोणकं च यत् । स्तम्भन्यासेषु वज्यानि तुलाबन्धेषु सर्वदा॥३४॥ है. हाथीदांत भी दृषित है॥ ३० ॥ इससे इन बहुत प्रकारके बांसोंको पृथक २ कहताहूं कि, रोगसे वायुपर्यन, और शिखीसे पिनगेंतल Palu ३१ ॥ मुख्यसे भुगतक. शोकसे वितथपर्यंत, सुग्रीवसे अदितिपर्यन, भुंगसे पर्जन्यपर्यत ॥ ३२ ॥ ये बांस शास्त्रका ने कहे है और कहीं ॥३५॥
दर्जयभी कहा है इनका जो पदके मध्य में चारों तरफका संपात है ॥ ३३ ॥ उसको प्रवेश कहते हैं वह त्रिशल वा कोणके आकारका जो