Book Title: Veerstuti
Author(s): Kshemchandra Shravak
Publisher: Mahavir Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ ३७६ . . ., वीरस्तुतिः ।.. हूं पाक तो अंव गैरकी शरकतसे वचूंगा। वह जात हूं रहता हूं में जो अपनी सफा में, है अक्सफ़िगन चीज़ हर इक मेरी ज़िया में ॥ ४२ ॥ यह है सिफ्ते ज़ात मिटाई नहीं जाती, पुद्गलसे किसी तरह दवाई नहीं जाती। सौ जंग लगें फिर भी सफ़ाई नहीं जाती, यह शान यह एजाजनुमाई नहीं जाती। इस पर मिरी हस्तीमें है इक लुत्फ़ इक आनन्द, और ऐसा के जिसका कोई हमसर है न मानन्द ॥ ४३ ॥ थी भूल के था महवे तमाशाए जहा में, फिरता था तलाशो हविस कामो ज़वां में । नादान था जो कैद था इस वंदेगिरा में, गफलत थी ममय्यज़ ही न था सूदो . ज़ियामें। आया है जो अब होश तो वेहोश न हूंगा, चिद्रूप हूं चिद्रूप ही में मगन रहूंगा ॥ ४४ ॥ असवावो तआल्लुक जो वज़ाहिर थे किए दूर । दिल शर्मसे मजबूर न जज़वातसे मामूर। था जामए उरियां ही लिवासे तने पुरनूर, जो रूप यथाजात था बस था वही मंजूर । कहने को तसव्वुर था अहिंसा थी दया थी, फ़िलअस्ल वह इक रूह थी और उसमें सिफ़ा थी । ॥ ४५ ॥ वह जोर जो था वादे मुखालिफका रुका था, तूफान जो उठा था अज़ल से वो थमा था। लहरोंमे जो था शोर वह खामोश हुआ था, उस ज्ञानके सागरमें करार आया हुआ था। साकिन जो हुआ आव तो आव आगई ऐसी, साफ़ उसमें 'झलकने लगी जो चीज़ थी जैसी ॥ ४६॥ यह इल्म सरीही था वस इक ज्ञान था केवल, सूरजसा निकल आया छुटा कर्मका वादल। हर सूक्ष्म-स्थूल हर इक आला व अस्फ़ल, शै उसमें अयां थीन था पर्दा कोई हायल । सर्वज्ञ हमादा हुए क्या उनसे छुपा था, जो आलिमे अस्वाव में था जान लिया था ॥ ४७ ॥ खुश लहजा सदा एक तने पाकसे निकली, थी रूहकी आवाज़ मगर ख़ाकसे निकली । वह ख़ाक भी बेहतर कहीं अफ़लाकसे निकली, मसजूद जौहर साहिवे अदराकसे निकली । सिजदह उसे इन्सान भी करते थे मुल्क मी, 'फितरतकी ज़िया थी वह हकीक़तकी झलक थी ॥४८॥ रूहोंका इधर पुण्य वचनका था उघर जोश, खिरनेलगी जव वर्गना सुननेलगे सब घोश । हर राज अयां होगया आने लगा सन्तोष, सिजदेमें झुके जिन्नो वशर दोश सरे दोश । हा मेरें महावीर इस आवाज़के सदके, इस शक्लका मायल हूं इस अंदाज़के सदके ॥ ४९ ॥ , (फकीर मायल)

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445