Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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५१४१ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ८१ यद्यपि पर्याय भी द्रव्य के प्राश्रित ही है और निर्गुण भी है, तथापि वह उत्पाद और विनाशशोल होने से सर्वदा अवस्थित रूप नहीं है। तथा गुण सर्वदा अवस्थित रूप से रहता है। यही गुण और पर्याय में अन्तर-भेद है।
द्रव्य की सदा वर्तमान शक्ति, जो पर्याय की उत्पादक रूप है, उसे ही गुण कहते हैं। गुण से अलावा अन्य गुण मानने पर अनवस्था नामक दोष उपस्थित होता है। इसलिए द्रव्यनिष्ठ अर्थात् द्रव्य में रहे हुए शक्ति रूप गुण को निर्गुण माना है। जीव-आत्मा के चैतन्य, सम्यक्त्व, चारित्र, आनन्द, वीर्यादि तथा पुद्गल के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श इत्यादि अनन्त गुण हैं।
उक्त कथन का सारांश यह है कि-पर्याय भी द्रव्य में रहते हैं और गुण से रहित होते हैं, ऐसा होने पर भी वे द्रव्य में सदा रहते नहीं हैं, जबकि गुण सर्वदाही रहते हैं। अस्तित्व एवं ज्ञानदर्शनादिक जीव-प्रात्मा के गुण हैं ।
अस्तित्व, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इत्यादि पुद्गल के गुण हैं। घटज्ञानादिक जीव-प्रात्मा के पर्याय हैं। तथा शुक्ल रूपादिक पुद्गल के पर्याय हैं।
इस सम्बन्ध में 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक ग्रन्थ में गुणों का तथा पर्यायों का लक्षण इस प्रकार कहा है। 'सहभाविनो गुणाः' द्रव्य के सहभावी (अर्थात्-सर्वदा द्रव्य के साथ रहने वाले) धर्म गुण कहने में आते हैं। तथा 'क्रमभाविनो पर्यायाः' द्रव्य के क्रमभावी (अर्थात्-क्रमशः उत्पन्न होने वाला तथा विनाश पामने वाला) धर्म पर्याय कहने में आते हैं ॥५-४० ।।
* परिणामस्य लक्षणम् * 卐 मूलसूत्रम्
तभावः परिणामः ॥५-४१ ॥
* सुबोधिका टीका * धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः । स द्विविधः । क्वी भेदो परिणामस्य द्वौ ? ॥ ५-४१ ।।
* सूत्रार्थ-धर्मादि द्रव्यों के स्वभाव को परिणाम कहते हैं। अर्थात्-उत्पाद व्यययुक्त स्वरूप में स्थित रहना परिणाम है ॥ ५-४१ ।।