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श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्
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श्री उमास्गतिंजी
५ तस्योपरि ६ सुबोधिका टीका तथा हिन्दी विवेचनामृतम् आचार्य विनय सुशील सूरिः
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श्री अष्टापद जैन तीर्थ के संस्थापक
परमपूज्य श्री सुशील गुरुदेवश्री
की जीवन-झलक जन्म- वि. स. १६७३, भाद्रपद शुक्ला द्वादशी,
चाणम्मा ( उत्तर गुजरात) २९-६-१७ दीक्षा-वि.स. १६कार्तिक (मृगशीर्ष) कृष्णा २,
उदयपुर (राज. मेवाड़) २७-११-३१ गणि पदवी-वि. सं. २००७, कार्तिक (मृगशीर्ष)
कृष्णा ६, वेरावल (गुजरात) १-१२-५० पंन्यास पदवी- वि.सं. २००७, वैशाख शुक्ला ३
(अक्षय तृतीया) अहमदाबाद (गुजरात) ६-५-५१ उपाध्याय पद- वि. सं. २०२१, माघ शुक्ला ३,
मुंडारा (राजस्थान) ४-२-६॥ आचार्य पद - वि.सं. २०२१, माघ शुक्ला
रबसन्त पंचमी) मुंडारा ६-२-६५ पुज्यपाद श्री प.पु. सरिचक्रचक्रवर्ती आचार्यदेव श्रीमद विजय नेमिसूरीश्वरजी म.सा. के पट्टालंकार साहित्य-सम्राट आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय लावण्यसुरीश्वरजी म.सा. के पट्टविभूषण कवि-दिवाकर आचार्यवयं श्रीमद विजय दक्षसरीश्वरजी म.सा. के पट्टधर हैं जो परम तपस्वी, महाकवि तथा लोकनायक हैं और जगत्-कल्याण के लिए सतत जागरूक हैं। आप भगवान महावीर के अहिंसामृत को पिलाने हेतु ६० वर्षों से घर-घर, नगर-नगर और ग्राम-ग्राम पैदल विहार कर रहे हैं। आपकी सौम्यता की उपमा अमृत निर्झर से दी जाती है। शीतलता के तो मानों आप डिमसरोवर हैं और विराटता की तुलना हिमगिरि से करना उपयुक्त होगा। आपने राजस्थान की मरुभूमि को ज्ञान-गगा से प्रवाहित करने हेतु इसे ही अपनी कर्मभूमि बनाया है। आपने लगभग १२७ से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है। साहित्य-सृजन का आपका उद्देश्य है मानवीय मूल्यों-प्रेम, सेवा, करुणा, प्रभूभक्ति और परमार्थ भावों को जागत करना। आपकी लघुता में विनय की पराकाष्ठा झलकती है। ज्ञान-गरिमा
यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिरामसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिन्मसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् भिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् यधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
धिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्र। श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्र श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् याधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
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(शेष अन्तिम पनप पर
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NAAMAvanvanamaARAM
ॐ श्रीनेमि-लावण्य-दक्ष-सुशील-ग्रन्थमालारत्न १०५ वा .
पूर्वधर-परमर्षि-सुप्रसिद्धश्रीउमास्वातिवाचकप्रवरेण
विरचितम ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥
[ पंचमोऽध्यायः+षष्ठोऽध्यायः ]
- तस्योपरि - शासनसम्राट - सूरिचक्रचक्रवत्ति - तपोगच्छाधिपति - महाप्रभावशालिश्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकतीर्थोद्धारक - परमपूज्याचार्यमहाराजाधिराज - श्रीमद्विजय - नेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार - साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न - सप्ताधिकशतलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक - परमपूज्याचार्यप्रवर - श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर – संयमसम्राटशास्त्रविशारद - कविदिवाकर-व्याकरणरत्न - परमपूज्याचार्यवर्य - श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधर-शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषणेतिपदसमलङ्कृतेन
प्राचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा
- विरचिता - 'सुबोधिका टोका' एवं तस्य सरलहिन्दीभाषायां विवेचनामृतम्
..... * प्रकाशक * श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समितिः C/o संघवी श्री गुणदयालचन्द भण्डारी
राइकाबाग, मु. जोधपुर (राजस्थान) noormoonroomwwroommmmmmm
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* सम्पादक * जैनधर्मदिवाकर-शासनरत्न-तीर्थप्रभावक- | राजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक
परम पूज्याचार्यदेव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरः
* सत्प्रेरक * संयम-वयस्थविर-मधुरभाषी परमपूज्य
वाचक प्रवर श्रीविनोदविजय जी गणिवर्यः
एवं पूज्य पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्यः
श्रीवीर सं. २५२४ प्रतियाँ १०००
विक्रम सं. २०५४
प्रथमावृत्तिः
नेमि सं. ४६ मूल्यम्-२५.००
卐 द्रव्यसहायकः ॥ साहित्यमनीषि-कार्यदक्ष-सुमधुरप्रवचनकारक-परमपूज्याचार्य - श्रीमद्विजयजिनोत्तमसूरीश्वराणां सदुपदेशाद् द्रव्यसहायकः चान्दराई - नगरस्थ श्रीजैनश्वेताम्बरमूत्तिपूजकसंघः राजस्थान-मरुधरः ।
' प्राप्ति-स्थानम्
[१] प्राचार्यश्री सुशीलसूरि जनज्ञानमन्दिर शान्तिनगर, मु. सिरोही-३०७ ००१ (राजस्थान)
[ २ ] श्री अष्टापद जैन तीर्थ सुशील-विहार मु. रानी स्टेशन-३०६ ११५ जिला-पाली (राजस्थान) -
[३] चान्दराई श्री जैनसंघ पेढ़ी मु. चान्दराई, जि. जालोर (राजस्थान)
* मुद्रक * ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर (राज.)
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श्री नमस्कार महामंत्री
नमो अरिहंताणं नमो सिद्धाणं नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं नमो लोएसव्वसाहूणं एसो पंचनमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥
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100 पंच परमेष्टि-वन्दना
(मंगलाचरण) अरिहन्त प्रभु तुझ चरणों में, ये जीवन मेरा अर्पित है । हे आतम-रिपु-विजय भगवन्, तुमको सर्वस्व समर्पित है ॥
- अरिहन्त. हे अष्ट-करम-मारक सिद्धा, हे चिदानन्द ! हे शिवधामी । हे अव्याबाध, अनादि सादि, हे नमो-नमो अन्तर्यामी ॥
अरिहन्त. छत्तीस गुणों से युक्त हुए, आचार्यदेव जग-हितकारी । शासन-पति के आज्ञापालक, हे नमो-नमो हे गणधारी ॥
अरिहन्त..... हे तप-रत द्वादश अंगध्यायी, उपदेशक उत्तम पदधारी । हे उपाध्याय ! भगवन्त नमो, हे सुखकारी ! हे सुविचारी ॥
अरिहन्त. ...... ममता-मारक, समताधारी, समिति, गुप्ति, संयम पाले । ऐसे साधु भगवन्त नमो, जो दोष बयालीस को टाले ॥
अरिहन्त. ...... ये पंच परमेष्ठी भव-तारक, इनकी महिमा का पार नहीं । ये 'नैन' निरन्तर जाप जपे, बिन जाप किये उद्धार नहीं ॥
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रचयिता : नैनमल विनयचन्द्र सुराणा
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वन्दन हो जिन चरणे...
(श्री चान्दराई नगर मंडण-प्रथम तीर्थंकर
*
श्री आदिनाथ भगवान)*
श्री चान्दराई नगर शणगार
卐श्री आदिनाथ जिन मन्दिर, चान्दराई।
जिनकी पावन छत्रछाया में चान्दराई नगर : सदा दैदीप्यमान एवं धर्मप्रवृत्तिमय बना रहा है।
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श्री चान्दराई नगर में “महान चमत्कारिक'
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अधिष्ठायक श्री माणिभद्रजी
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श्री जैन धर्मशाला, चान्दराई
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तत्वार्थभूमिका
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वैदिकपरम्परायां यत्स्थानं वेदानाम्, बौद्धपरम्परायां यत्स्थानं त्रिपिटकानाम्, ईसाईपरम्परायां यत्स्थानं 'बाईबिल' - ग्रन्थस्य इस्लामपरम्परायां यत्स्थानं कुरानस्य तदेव स्थानं, जैन-परम्परायाम् श्रागमानां प्रस्ति । सर्वेषामागम सिद्धान्तानां प्रामाणिकसारांश-सुधासंपृक्त ं सर्वाङ्गपूर्ण ग्रन्थरत्नं समुल्लसति 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्' ।
अस्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र - ग्रन्थरत्नस्य प्रणेता पदवाक्यपारावारीणो महर्षिः वाचकप्रवरः श्री उमास्वातिमहाराजः श्रासीत् । अस्य कालनिर्णयस्तु सम्यक्तया नावधारयितुं शक्यते विदुषां विसंवादात् किन्तु श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्यप्रशस्तौ प्राप्तेषु पञ्चसु श्लोकेषु महर्षेः परिचयः प्राप्यते
वाचकमुख्यस्य शिव श्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दि - क्षमणस्यैकादशाङ्ग विदः ॥ वाचनया च महावाचक - क्षमरण मुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्य - मूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः ॥ न्यग्रोधिकाप्रसूतेन विहरता पुरवरे कुसुमनाम्नि । कभी रिना स्वाति-तनयेन वात्सीसुतेनार्घ्यम् ।। अर्हद्वचनं सम्यग्गुरुक्रमेणागतं समुपधार्यं । दुखात्तं च दुरागम-विहतमति लोकमवलोक्य || इदमुच्चैर्नागरवाचकेन सत्त्वानुकम्पया दृब्धम् । तत्त्वार्थाधिगमाख्यं स्पष्टमुमास्वातिना शास्त्रम् ।। यस्तत्त्वाधिगमाख्यं, ज्ञास्यति च करिष्यते च तत्रोक्तम् । सोऽव्याबाधसुखाख्यं प्राप्स्यत्यचिरेण परमार्थम् ॥
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तत्त्वार्थाधिगमप्रणेतुर्मातुर्नाम वात्सी पितुश्च नाम स्वातिरासीत् । शिवश्रियः प्रशिष्यः घोषनन्दिनः शिष्योऽभूत् । वाचनागुरोरपेक्षयाऽयं क्षमाश्रमणस्य
एष महर्षिः
पादस्य प्रशिष्यो, मूलनामकवाचकाचार्यस्य शिष्यः आसीत् । कायामभवत् ।
अस्य जन्म न्यग्रोधि
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( ४ ) उमास्वातिविरचित-'जम्बूद्वीपसमासप्रकरणस्य वृत्तौ विजयसिंहसूरीश्वरेणास्य महर्षेतुिर्नाम 'उमा' लिखितम् । एतावता मातृपितृसम्बन्धात् 'उमास्वाति' नाम प्रसिद्धम् ।
तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य भाष्ये सुस्पष्टमुल्लेखः प्राप्यते यत् उमास्वातिमहाराजः उच्चनागरीशाखायाः प्रासीत् । उच्च नागरीशाखा भगवतो महावीरस्य पट्टपरम्परायां समागतस्य प्रार्यदिन्नस्य शिष्यात् पार्यशान्ति-श्रेणिक-समयात् प्रारब्धा। अतः वाचकमहर्षिः उमास्वातिमहाराजः विक्रमस्य प्रथमशताब्दीतः प्रारभ्य चतुर्थशताब्दी यावत् कालक्रमे समुत्पन्नः । अर्थात् विक्रमस्य प्रथमचतुर्थशताब्द्योर्मध्ये तस्य स्थितिकालोऽनुमीयते। विषयेऽस्मिन् निश्चप्रचत्वे किमपि वक्तु लिखितु च न शक्यते ।
तत्त्वार्थाधिगमस्य महत्ता :
जैनागमस्य सकलं प्रामाणिक सौरस्यं समादाय सन्दब्धमिदं ग्रन्थ रत्नं श्वेताम्बरदिगम्बर-परम्परायां समानरूपेण सादरं प्रशंसापदवीं प्राप्य विराजतेतराम् । अस्य ग्रन्थस्य दशाध्यायाः सन्ति । तेषु ३४४ सूत्राणि समुल्लसन्ति जैनागमसिद्धान्त सौरभमादाय । सकलेषु सूत्रेषु सूत्रलक्षणं सुदृढतया समुपजृम्भते। सूत्रस्य लक्षणं तावत्
अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतो मुखम् ।
अस्तोभमनवद्यञ्च, सूत्रं सूत्रविदो विदुः ॥ सूत्रस्य प्रामाणिकमिदं लक्षणं तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे प्रतिपन्नमास्ते । अल्पाक्षरता, असंदिग्धता, व्यापकता, सारवत्ता, प्रस्तोभत्वं पवित्रता च सर्वत्र विराजते-अतो विशुद्धोऽयं सूत्रग्रन्थः। परिष्कृता भाषायोजना स्फुटसंकेतसमन्विताः-सम्प्रेषणशैली विदुषां मनांसि सहसैवावर्जयति ।
अस्य ग्रन्थरत्नस्य प्रथमेऽध्याये पञ्चत्रिंशत् सूत्राणि सन्ति । तत्र शास्त्रस्य प्राधान्यं, सम्यग्दर्शनलक्षणम् सम्यक्त्वोत्पत्तिः, तत्त्वनामानि, तत्त्वविवेचना, ज्ञानस्वरूपं सप्तनयस्वरूपादीनां वर्णनानि सन्ति ।
द्वितीयेऽध्याये द्विपञ्चाशत् (५२) सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् अध्याये जीवलक्षणम् औपशमिकादिभावानां ५३ भेदाः, जीवभेदाः, इन्द्रिय-गति-शरीरायुष्यस्थितीत्यादीनां वर्णनमस्ति ।
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तृतीयेऽध्याये अष्टादशसूत्राणि (१८) सन्ति । अस्मिन् सप्तपृथ्वीनां नरकजीवानां वेदना, आयुष्यम्, मनुष्यक्षेत्रवर्णनं तिर्यञ्चजीवभेदस्थित्यादीनां प्रतिपादनमस्ति ।
चतुर्थेऽध्याये त्रिपञ्चाशत् (५३) सूत्राणि सन्ति । अत्र देवलोकस्य, देवर्डीनां तथा तेषां जघन्योत्कृष्टायुष्यवर्णनम् अस्ति ।
पञ्चमेऽध्याये चतुश्चत्वारिंशत् (४४) सूत्राणि सन्ति । अत्र धर्मास्तिकायादीनाम् अजीवतत्त्वनिरूपणम्, षड्व्व्यवर्णनम् अस्ति । जैनदर्शने षड्द्रव्याणि स्वीकृतानि तेषु एकं जीवद्रव्यं शेषाणि पश्चाजीवद्रव्याणि सन्ति ।
षष्ठेऽध्याये षड्विंशति (२६) सूत्राणि सन्ति । अत्र प्रास्रवतत्त्वस्य कारणानां विशदीकरणं स्पष्टरीत्या वर्तते । अस्य प्रवृत्तिः योगानां प्रवृत्त्या भवति । योगाः पुण्यपापयोर्बन्धका भवन्ति । अतएव प्रास्रवे पुण्यपापयोः समावेश-कृतो दृश्यते ।
सप्तमेऽध्याये चतुस्त्रिशत् सूत्राणि (३४) सन्ति । अस्मिन् देशविरति-सर्वविरतिव्रतानां तेषामतिचाराणां वर्णनं समुल्लसति ।
अष्टमेऽध्याये षड्विंशति-सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् मिथ्यात्वनिरूपणपुरस्सरं बन्धतत्त्वनिरूपणमस्ति।
नवमेऽध्याये नवचत्वारिंशत्-सूत्राणि सन्ति । अस्मिन् संवर-निर्जरातत्त्व निरूपणमस्ति ।
दशमेऽध्याये सप्तसूत्राणि (७) सन्ति । अस्मिन् मोक्षतत्त्ववर्णनमस्ति ।
उपसंहारे द्वात्रिंशत् [३२] श्लोकाः सिद्धस्वरूपस्य सुललितं वर्णनम्, प्रान्ते प्रशस्तिश्लोकाः (६) सन्ति । तैः सार्धमेव ग्रन्थपरिसमाप्तिः कृता। तत्त्वार्थसूत्रस्य भाष्य-टीकाग्रन्थाः
महनीयस्यास्य ग्रन्थ रत्नस्य सम्प्रति मुद्रिता अनेके ग्रन्थाः सन्ति । तेषां नामानीत्थम्(१) श्रीतत्त्वार्थाधिगमभाष्यम्-उमास्वातिमहाराजविरचिता स्वोपज्ञरचना। (२) श्री सिद्धसेन गणि विरचिता भाष्यानुसारिणी टीका। एषा टीका प्रतीव
विशदरूपेण विराजते ।
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( ३ ) श्रीतत्त्वार्थभाष्योपरि श्रीहरिभद्रसूरीश्वराणां लघुटीका सार्द्धपञ्चाध्यायं यावत्,
शेष टीका तु यशोभद्रसूरिणा पूरिता । ( ४ ) तत्त्वार्थटिप्पणम्-चिरन्तनमुनि विरचितम् । ( ५ ) भाष्यतर्कानुसारिणी टीका-महोपाध्याय यशोविजय विरचिता। ( ६ ) गूढार्थदीपिका-विजयदर्शनसूरीश्वरविरचिता। - ... (७) तत्त्वार्थत्रिसूत्री प्रकाशिका-श्रीमल्लावण्यसूरीश्वरविरचिता । (८) सुबोधिका, हिन्दीविवेचनामृतम्-प्राचार्यप्रवरश्री सुशीलसूरीश्वर विरचितम् । ( ६ ) गुर्जरभाषा विवेचनम्-मुनिश्रीराजशेखरविरचितम् । (१०) पण्डितश्रीसुखलालेनापि तत्त्वार्थस्य गुर्जरभाषायां विशदं विवेचनं कृतम् । (११) दिगम्बराचार्यपूज्यपादविरचिता-सर्वार्थसिद्धिः टीका । (१२) प्रकलंकदेवाचार्यविरचिता-राजवात्तिकटीका । (१३) श्लोकवार्तिकटीका-विद्यानन्दिविरचिता। (१४) तत्त्वार्थस्य एकाटीका 'श्रुतसागरी' अपि अस्ति । प्राचार्यश्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरः
अष्टोत्तरशतमहनीयग्रन्थलेखकाः संस्कृत-प्राकृतमर्मज्ञाः स्वनामधन्या प्राचार्यप्रवरा श्रीमद्विजयसुशील-सूरीश्वराः साम्प्रतं वृद्धावस्थायामपि सत्साहित्यसर्जनेऽनवरतं तल्लीनाः विराजन्ते ।
भवतां जन्म गुर्जरप्रान्तस्य 'चाणस्मा'-नामके ग्रामे वि.सं. १९७३ तमे वर्षेऽभवत् । मातुर्नाम चञ्चलदेवी पितुर्नाम चतुरभाईताराचन्द मेहता अस्ति । एष दशवर्षस्य लघुवयसि संयममार्गमनुसरितु प्रबल-भावुकोऽभवत् । पञ्चदश-वर्षस्यावस्थायां वि.सं. १९८८ तमे वर्षे श्रीमद्विजयलावण्यमुनीश्वरेण दीक्षितः। वि.सं. १९८८ तमे वर्षे एवास्य वृहती दीक्षा शासनसम्राट-श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वर-करकमलाभ्यां सम्पन्ना। वि.सं. २००७ तमे वर्षे गरिण-पन्यास-पदवीभ्यामलङ्कृतोऽभवत् । वि.सं. २०२१ तमे वर्षे मुण्डाराग्रामे उपाध्यायाचार्यपदवीभ्यां महिमामण्डितोऽभवत् । शास्त्रविशारद-साहित्यरत्न-कविभूषण-पदवीभिरपि समलङ्कृतोऽभवदेष सिद्धहस्तलेखकः । जैसलमेरतीर्थे श्रीसंघेन जैनदिवाकरोपाधिनापि सभाजितोऽयम् । तीर्थप्रभावकाचार्योऽयं
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सुकृत के सहयोगी है
श्वीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ५(पञ्चमोऽध्यायः + षष्ठोऽध्यायः)
ग्रन्थ के प्रकाशन में
श्री जैन संघ
चान्दराई (राज.)
ने सुन्दर आर्थिक सहयोग वि. सं. 2053 के यशस्वी व ऐतिहासिक भव्य चातुर्मास की पावन स्मृति में प्रदान किया है।
श्रुतभक्ति के महान् लाभ की
हार्दिक अनुमोदना के साथ सकल श्रीसंघ व कार्यकर्त्तागण को
हार्दिक धन्यवाद ।
ॐ साभार : __श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति
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प्रगुरुदेवस्य शताब्दि
समर्पण
वर्षे
साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न - पदविभूषितानां प्रगुरुदेवानां परमपूज्यानां आचार्यप्रवराणां
श्रीमद् - विजय - लावण्य - सूरीश्वराणां शताब्दिवर्षे श्रद्धावनतभावेन प्रगुरुदेव-गुणनिर्जितदासानुदासेन
विजयसुशीलसूरिणा सादरं समर्प्यते प्रस्तुत-श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य पञ्चम-षष्ठाध्यायग्रन्थः ।
श्रीमत्तपोगच्छ - विभूषणाय,
लावण्य - विख्यात - सुधीश्वराय 1 शताब्दिवर्षे सुसमर्म्यते च भक्त्या महाग्रन्थ - प्रसूनमेतत् 11
- विजयसुशीलसूरिः
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सादर समर्पण
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wwwwwwwोसोसोलोगोहोहोहोहोहोहोहो
शासनसम्राट्
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नमामि सादरं नेमिसूरीशं
साहित्यसम्राट्
नमामि सादरं लावण्यसूरीशं
संयमसम्राट्
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********-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*-*
नमामि सादरं दक्षसूरीशं
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प्रतिष्ठा शिरोमणि - राजस्थान दीपक
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Anidhid.
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प.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म.
2006
प.पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा.
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प्रतिष्ठाचक्रवर्ती। स्थाने-स्थाने श्रीजिनमन्दिराणां प्रतिष्ठा-अंजनशलाका-जीर्णोद्धारादि महनीयेषु कार्येषु प्रेरणास्रोतत्वात् जनैः 'प्रतिष्ठाशिरोमणि'-उपाधिना सम्मानितः ।
विविधोपाधि-विभूषितोऽप्यमतीवसरलः, विनीतः, सतत-साहित्यसेवासु संलग्नो विराजते। अस्य श्रीतीर्थङ्करचरित - षड्दर्शनदर्पण-शीलदूतटीका-हेमशब्दानुशासनसुधा-छन्दोरत्नमाला - साहित्यरत्नमञ्जूषा - गणधरवाद-मूर्तिपूजासार्द्धशतक - स्याद्वादबोधिनी-लावण्यसूरिमहाकाब्यादि महनीयग्रन्थाः विख्याताः सन्ति । सम्प्रति उमास्वातिविरचितस्य श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य सुबोधिका-संस्कृत टीका-हिन्दीविवेचनामृतेण सह श्रीमतां करकमलेषु सुशोभते । श्रीतत्त्वार्थाधिगम-'सुबोधिका'-वैशिष्टयम् :
'तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्' सूत्रात्मकशैल्यां विरचितं वर्तते। यद्यपि महर्षिणोमास्वातिमहोदयेन स्फुटशैली स्वीकृता किन्तु सूत्रशैली निश्चप्रचत्वेन व्याख्यां-भाष्यं चापेक्षते । इति मनसि निधाय पूर्वसूरिभिरपि भाष्य-व्याख्या-टीकादिग्रन्था रचिताः श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य ।
श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेणापि प्रागमानां रहस्यभूतस्यास्य ग्रन्थ रत्नस्य 'सुबोधिका' नाम्नी टीका विरचिता सुकुमाराणां तत्त्वजिज्ञासूनां झटित्यर्थावगमाय स्वान्तः सुखाय च। सरलैः शब्देस्तत्त्वार्थस्य स्पष्टीकरणम्, सरलीकरणं च सूत्रकारस्य मनोभावानां तत्तज्जैनसिद्धान्तानाम् अनुसंधानं च जैनागमेषु प्रोक्तानां तत्त्वार्थानाम् अस्ति वैशिष्टयम् सुबोधिकाटीकायाः। 'हिन्दीविवेचनामृतम्' विलिख्य राष्ट्रभाषारसिकानां मनःप्रसूनानि सहसैव विकचीकृतानि । सरलतया तत्त्वार्थावगमाय भूरिशः प्रयासः कृतोऽनेनाचार्यप्रवरेण हिन्दी-पद्यानुवादादिभिः। एतेन श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रं प्रति सूरीश्वरस्य श्रद्धा-भक्तिनिष्ठा सहसैव स्फुटतामुपैति ।
सम्प्रति तत्रभवतां भवतां तत्त्वजिज्ञासूनां करकजेषु विलसतितराम् अजीवास्रवविवेचनस्वरूपम् । . अस्मिन् भागे तत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य द्वौ अध्यायौ पञ्चमषष्ठौ सुबोधिका-विवेचनामृताभ्यां सह हिन्दीपद्यानुवादसंवलितो ललितो विलसतः ।
चैतन्यरहितोऽजीवः। स च प्रकर्ता, अभोक्ता किन्तु अनाद्यनन्तः शाश्वतश्चेति । अस्य पञ्चभेदाः
(१) धर्मास्तिकायः, (२) अधर्मास्तिकायः, (३) प्राकाशास्तिकायः, (४) कालः, (५) पुद्गलास्तिकायः ।
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एषु पञ्चसु चत्वारोऽरूपिणोऽजीवाः । पुद्गलास्तिकायो रूपिद्रव्यम् । वर्णरस-गन्ध-स्पर्शयुक्तत्वात् ये केचनापि निर्जीवपदार्थाः दृष्टिगोचरा भवन्ति ते सर्वेऽपि पुद्गलात्मकाः। तत्त्वार्थसूत्रस्य टीकायां पुद्गलविषये तत्त्वार्थस्य सिद्धसेनव्याख्यायां व्युत्पत्तिः प्रदर्शिता-"पूरणात् गलनाच्च पुद्गलाः”। ............
अस्तिकायधर्मविषये जैनाचार्याणां प्रायः सर्वमान्य-व्युत्पत्तिलभ्या परिभाषास्ति'अस्तयः-प्रदेशाः तेषां कायो-राशिरस्तिकायः, धर्मो-गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्धारणादित्यस्तिकायधर्मः । इति विषयः तत्त्वार्थस्य पञ्चमेऽध्याये वरिणतः तथा सुबोधिकायां टीकायां सम्यग् स्फुटीकत्तुं प्रयतितमाचार्यप्रवरेण ।
यया क्रियया जीवे कर्मणां स्राव:-प्रागमनं भवति तदेव प्रास्रवतत्त्वम् । प्रास्रवः कर्मणां प्रवेशद्वारः। महर्षिणोमास्वातिमहोदयेन षष्ठेऽध्याये प्रास्रवविषये प्रागमसिद्धान्तपूतानि सूत्राणि विरचितानि । कायवाङ्मनःकर्मयोगः स प्रास्रवः । स कषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः । अस्मिन् प्रसङ्ग सुबोधिकाटीकायां श्रीमद्विजय सुशीलसूरीश्वरेण साधुरीत्या स्फुटीकृत्य विषयः प्रतिपादितः ।
पञ्चमषष्ठाध्याययोः सुबोधिकायां भेदप्रभेदसहितम् अजीवास्रवतत्त्वयोः सद्यः सुबोधकारिणी व्याख्याशैली समादृता सूरीश्वरेणेति साधुवादार्हाः ।
एषा रचना मननीया सर्वथोपादेया च जिज्ञासुभिः बालमुनिभिः शोधाथिभिश्चेति मन्तव्यम् । शिवमस्तु सर्वजगतः ।
विदुषां वशंवदः कृष्ण जन्माष्टमी, १५-८-६८
शम्भुदयालपाण्डेयः कुलवन्तीकुञ्जम्
संस्कृतव्याख्याता १०/४३० नन्दनवनम् जोधपुरम् ।
१. (क) स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः । -तत्त्वार्य ५/२३ (ख) सधयार-उज्जोमओ, पहा छायातवे इ वा ।
वण्णगंधरसाफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।-उत्तराध्ययन २८/२१ २. स्थानांग, १० स्थानवृत्तिः। ३. तत्त्वार्थ. प्र. ६, सू. १। ४. तस्वार्थ. प्र. ६, सू. ५ ।
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* प्रकाशकीय-निवेदन *
'श्रीतत्त्वार्थाधिगम-सूत्रम्' नाम से सुप्रसिद्ध महान् ग्रन्थ प्राज भी श्रीजैनदर्शन के अद्वितीय आगमशास्त्र के सार रूप श्रेष्ठ है। इसके रचयिता पूर्वधर-परमर्षि सुप्रसिद्ध परम पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज हैं। इस महान् ग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति-टोका तथा विवरणादि विशेष प्रमाण में उपलब्ध हैं एवं विविध भाषाओं में भी इस पर विपुल साहित्य रचा गया है। उनमें से कुछ मुद्रित भी हैं और कुछ प्राज भी प्रमुद्रित है।
___ इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र पर समर्थ विद्वान् पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वर जी म. श्री ने भी सरल संस्कृत भाषा में संक्षिप्त 'सुबोधिका टीका' रची है तथा सरल हिन्दी भाषा में अर्थ युक्त विवेचनामृत अतीव सुन्दर लिखा है ।।
इसके प्रथम और द्वितीय अध्याय का पहला खण्ड तथा तृतीय और चतुर्थ अध्याय का दूसरा खण्ड सुबोधिका टोका व तत्त्वार्थविवेचनामृत युक्त हमारी समिति की ओर से पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है। अब श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के पांचवें और छठे अध्याय का तोसरा खण्ड प्रकाशित करते हुए हमें प्रति हर्ष-आनन्द का अनुभव हो रहा है। परमपूज्य आचार्य म. श्री को इस ग्रन्थ की सुबोधिका टीका, विवेचनामृत तथा सरलार्थ बनाने की सत्प्रेरणा करने वाले उन्हीं के पट्टधर-शिष्यरत्न पूज्य उपाध्याय श्री विनोद विजय जी गणिवर्य महाराज तथा पूज्य पंन्यास श्री निनोत्तम विजय जी गणिवर्य महाराज हैं। हमें इस ग्रन्थरत्न को शीघ्र प्रकाशित करने की सत्प्रेरणा देने वाले भी पू. उपाध्याय जी म. एवं पू. पंन्यास जी म. हैं ।
इस ग्रन्थ की प्रस्तावना संस्कृत भाषा में सुन्दर लिखने वाले पण्डितप्रवर श्री शम्भुदयाल जी पाण्डेय जोधपुर वाले हैं।
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- ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी की देख-रेख में सम्पन्न हुआ है ।
ग्रन्थ-प्रकाशन में अर्थ-व्यवस्था का सम्पूर्ण लाभ सुकृत के सहयोगी श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, चान्दराई (राजस्थान-मारवाड़) द्वारा लिया गया है ।
इन सभी का हम हार्दिक धन्यवाद पूर्वक आभार मानते हैं ।
यह ग्रन्थ चतुर्विध संघ के समस्त तत्त्वानुरागी महानुभावों के लिए तथा श्री जैनधर्म में रुचि रखने वाले अन्य तत्त्वप्रेमियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा। इसी आशा के साथ यह ग्रन्थ स्वाध्यायार्थ प्रापके हाथों में प्रस्तुत है ।
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प्रास्ताविकम्
( प्रथम खण्ड से उद्धृत )
संसारोऽयं जन्ममरणस्वरूप - संसरण भवान्तरभ्रमरणायाः विन्ध्याटवीव घनतमिस्रावृत्तादर्शनतत्वा भ्रमरणाटवी । कर्मक्लेशकर्दमानुविद्ध े ऽस्मिन् जगतीच्छन्ति सर्वे कर्मक्लेशकर्दमैः पारं मोक्षायाहर्निशम् गन्तुम् । कथं निवृत्तिः दुखैः ? कथं प्रवृत्तिः सुखेषु च ? जिज्ञासयानया तत्त्वदर्शिनः मथ्नन्ति दर्शनागमसागरं तत्त्वामृतप्राप्तये त्रिविष्टपैरिवात्र ।
श्रीजैन श्वेताम्बर - दिगम्बरसम्प्रदाये श्रीमदुमास्वातिरपि प्रजायत महान् वाचक-प्रवरः येन तत्त्वचिन्तने कृत्वा भगीरथश्रमश्चाविष्कृतममृतं, भव्यदेवानां कृते मोक्षायात्र । उमास्वातिस्तत्त्वार्थाधिगम-सूत्राणां रचयितासीत् । यो हि वाचकमुख्यशिवश्रीनां प्रशिष्यः शिष्यश्च घोषनन्दिश्रमरणस्य । एवश्व वाचनापेक्षया शिष्यो बभूव मूलनामकवाचकाचार्याणाम् । मूलनामकवाचकाचार्यः महावाचकश्रमण श्रीमुण्डपादस्य
शिष्य : आसीत् ।
न्यग्रोधकानगरमपि धन्यं बभूव वाचकश्रीउमास्वातेः जन्मना । स्वातिः नाम्नः पितापि उमास्वातिः सदृशं पुत्ररत्नं प्राप्य स्वपूर्वपुण्यफलमवापेह । धन्या जाता वात्सीजननी । उमास्वातिः स्वजन्मनाऽलंचकार कौभीषणी गोत्रम् नागरवाचकशाखाश्च । स्थाने-स्थाने विहरतोऽयं महापुरुषः कृतगुरुक्रमागतागमाभ्यासः कुसुमपुरनगरे रचयामास ग्रन्थोऽयं तत्त्वार्थाधिगमभाष्यः । ग्रन्थोऽयं रचितवान् स्वान्तसुखाय प्रारिणमोक्षाय कल्याणाय च ।
तेन महाभागेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रेषु स्पष्टीकृतं यज्जीवाः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपूर्वकं वैराग्यं यावन्नैवाधिगच्छन्ति संसारशरीरभोगाभ्यां तावन्मोक्षसिद्धिः दुर्लभा ।
सम्यग्दर्शनाभावे ज्ञानवैराग्येऽपि दुष्प्राप्ये । जीवानां जगति क्लेशाः कर्मोदयप्रतिफलानि जायन्ते । जीवानां कृत्स्नं जन्म जगति कर्मक्लेशैरनुविद्धः । भवेच्चानुबन्धपरंपरेति तत्त्वार्थाधिगमे विश्लेषितमस्ति । कर्मक्लेशाभ्यामपरामृष्टावस्था एव सत्स्वरूपं सुखस्य । पातञ्जलयोगदर्शनेऽपि " क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषः विशेष : ईश्वर:" जैनदर्शने तु इदमप्येकान्तिकम् यत् पातञ्जलिना पुरुषजीवं ज्ञानस्वरूपं वा सुखस्वरूपं नैवामन्यत । किन्तु जैनदर्शने तु जीवः ज्ञानस्वरूपश्च सुखस्वरूपश्चापि क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टावस्थायाः धारको विद्यते । निर्दोषमेतदेव सत्यमुपादेयश्च ।
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( १२ )
तत्त्वार्थाधिगमे दशाध्यायाः सन्ति येषु विशदीकृतं व्याख्यातञ्च जैनतत्त्वदर्शनम् । तत्त्वार्थाधिगमस्य संस्कृत हिन्दी भाषायां व्याख्यायितोऽयं ग्रन्थः विद्वद्भूर्धन्याचार्येः श्रीविजय सुशीलसूरीश्वर महोदयैः धार्यते । जैन दर्शन साहित्ये शताधिकग्रन्थानां रचयिता श्रीमद्विजय सुशीलसूरीश्वरः दर्शनशास्त्राणां प्रतीवमेधावी विद्वान् वर्तते ।
प्रतीवोपादेयत्वं
·
उर्वरीक्रियतेऽनेन भवमरुधराऽखिलमण्डलम् । जिनशासनश्च स्वतपतेज व्याख्यानलेखन- पीयूषधारा जीमूतमिव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरेण प्रथमेऽध्याये मोक्षपुरुषार्थसिद्धये निर्दोषप्रवृत्तिश्च तस्या जघन्यमध्यमोत्तरस्वरूपं विशदीकृतमस्ति -
(१) देवपूजनस्यावश्यकता तस्य फलसिद्धिः ।
( २ ) सम्यग्दर्शनस्य स्वरूपं तथा तत्त्वानां व्यवहारलक्षणानि । (३) प्रमाणनयस्वरूपस्य वर्णनम् ।
( ४ ) जिनवचनश्रोतॄणां व्याख्यातृणाञ्च फलप्राप्तिः । (५) ग्रंथव्याख्यान प्रोत्साहनम् ।
(६) श्रेय मार्गस्योपदेश: सरलसुबोधटीकया विवक्षितः ।
अस्य ग्रंथस्य टीका श्राचार्यप्रवरेण समयानुकूल मनोवैज्ञानिक विश्लेषणेन महती प्रभावोत्पादका कृता । श्राचार्यदेवेन तत्त्वार्थाधिगमसूत्रसदृशः क्लिष्ट विषयोऽपि सरलरीत्या प्रबोधितः । जनसामान्यबुद्धिरपि जनः तत्त्वविषयं श्रात्मसात्कर्तुं शक्नोति ।
अस्मिन् भौतिकयुगे सर्वेऽपि भौतिकैषणाग्रस्ता मिथ्यासुखतृष्णायां व्याकुलाः मृगो जलमिव भ्रमन्ति श्रात्मशान्तये । श्रात्मशान्तिस्तु भौतिकसुखेषु असम्भवा । भवाम्भोधिपोतरिवायं ग्रन्थः मोक्षमार्गस्य पाथेयमिव सर्वेषां तत्त्वदर्शनस्य रुचि प्रवर्धयति । आत्मशान्तिस्तु तत्त्वदर्शनाध्ययनेनैव वर्तते न तु भौतिक शिक्षया । एतादृशी सांसारिकीविभीषिकायां प्राचार्यमहोदयस्यायं ग्रन्थः संजीवनीवोपयोगित्वं धार्यते संसारिणाम् । ज्ञानजिज्ञासुनां कृते ग्रन्थोऽयं शाश्वतसुखस्य पुण्यपद्धतिरिव मोक्षमार्ग प्रशस्तिकरोति ।
प्रशासेऽधिगत्य ग्रन्थोऽयं पाठकाः कृत्वाऽनुभविष्यन्ति प्रपूर्वशान्तिमिति शुभम् । फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा जालोर (राजस्थान)
स्वजीवनं ज्ञानदर्शनचारित्रमयं
- पं. हीरालाल शास्त्री, एम. ए. संस्कृतव्याख्याता
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पुरो-वचः
(प्रथम खण्ड से उद्धृत) ___ भारतीय-वाङ्मयता, निखिलागम-पारावार-निसर्ग-निष्णात-पुनीतानां ज्ञेयमहर्षीणां विद्याविभूति-विभव-विशेषज्ञानां सूत्रकाराणां महती सम्पदामयी-सारगभिताप्रशस्तिर्वरीवर्तते।
भारतीय वाङ्मयता तपःपूत-महर्षीणां विद्या-विभूतिः श्री: सुवरीवर्तते । स्वाध्यायनिष्णात-निपुणानां सन्निधिः अस्ति । काले-कालेऽस्मिन् वाङ्मये सूत्रकाराः समभवन् । ये सूत्रकारत्वेन वाङ्मयसेवां कुर्वन्तः स्वयं कृतज्ञाः सुजाताः । सूत्रयुगस्य शुभारम्भो वैदिकवाङ्मयेषु, श्रमणवाङ्मयेषु, बौद्धवाङ्मयेषु परिष्कृतश्च वर्तते ।
निर्ग्रन्थनिगमागमविद् वाचकवरेण्यः श्रीउमास्वातिः स्वनामधन्यः सूत्रकारत्वेन संप्रसिद्धः समभूत् । पाटलीपुत्रपृथिव्यां श्रामण्यभावेन स्वयं समलंकृतवान् । तत्रैव "तत्त्वार्थसूत्र" रचितवान् । सूत्रमेतत् श्रामण्यपरिभाषां परिष्कतु पर्याप्तम् । अस्य सूत्रस्य निर्ग्रन्थमहाभागैः श्लाघनीया श्लाघा प्रस्तुता। यद्यपि सूत्रकारः स्वयं श्वेताम्बरत्वेन परिचयं स्वोपज्ञभाष्ये दत्तवान् । श्वेताम्बर-निर्ग्रन्थनिगमागमाम्नाये देववाण्यां सूत्रकारत्वेन सर्वप्रथम संबभूव वाचकाग्रणी: प्रमुखः श्रीउमास्वाति महाभागः । अयमेव महाभागः श्रीउमास्वातिः प्रायः दिगम्बरपरम्परायां श्रीकुन्दकुन्दमहाशयस्य शिष्यत्वेन श्रीउमास्वामीत्याख्यया प्रचलितः अस्यैव महाविदुषः "श्रीतत्त्वार्थसूत्रं" सर्वप्रशस्तिपात्रं वर्तते ।
___ तत्त्वार्थसूत्रस्य आद्यः सर्वार्थसिद्धिटीकाकारः श्रीपूज्यपाददेवनन्दी महामतिः संजातः । तदनन्तरं तत्त्वार्थस्य तारतम्यदर्शी श्रीप्रकलंकः प्रमेयविद्याविलक्षण: दिगम्बर-श्रमणशाखासु राजवातिककारत्वेन संप्रसिद्धः सुधीः प्रतिष्ठितः । दशम्यां शताब्द्यां विद्याचणः श्रीविद्यानन्दी श्लोकवातिककारत्वेन तत्त्वार्थसूत्रस्य व्याख्याता जातः । मनेनैव महाशयेन महामीमांसकस्य श्रीकुमारिलमहाभागस्य वैदुष्यं प्रार्हद्विद्या-विमर्शदार्शनिक-तुलासु तोलितम् । पुनः श्रुतसागराख्यः निर्वसननिर्ग्रन्धः प्रज्ञापुरुषः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य वृत्तिकारः समयश्रेण्यां जातः ।
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. ( १४ ) इत्थं दिगम्बरवृन्देषु विबुधसेन-योगीन्द्र-लक्ष्मीदेव-योगदेवाभयनन्दि-प्रमुखाः सुधयः श्रीतत्त्वार्थसूत्रस्य तलस्पशिनः संजाताः ।
श्वेताम्बर-वाङ्मये तत्त्वार्थसूत्रमनुसृत्य विविधास्टीकाः विद्यन्ते । अस्यैव सूत्रस्योपरि महामान्य-श्रीउमास्वातिमहाशयस्य स्वोपज्ञं भाष्यं वर्तते । तस्मिन् भाष्यग्रन्थे आत्मपरिचयं प्रदत्तवान् स्वयंश्रीवाचकवरेण्यः ।
श्रीतत्त्वार्थकारः सुतश्चासीत् वात्सीमातुः। स्वातिजनकस्य पुत्रश्च । उच्चनागरीयशाखायाः श्रमणः न्यग्रोधिकायां समुत्पन्नः । गोत्रेण कोभीषरिणश्चासीत् । पाटलीपुत्रनगरे रचितवान् सूत्रमिमं ।
श्रामण्यवतदाता घोषनन्दी, प्रज्ञापारदर्शी श्रुतशास्त्रे-एकादशाङ्गविदासीत् । विद्यादातृणां गुरुवराणां वाचकविशेषानां मूलशिवश्रीमुण्डपादप्रमुखानां श्लाघनीया परम्परा विद्यते । पुरातनकाले विद्यावंशस्य सौष्ठवं समीचीनं दृश्यते । तत्त्वार्थकारः श्रीउमास्वाति विद्यावंशविशिष्टविज्ञपुरुषः प्रतिभाति ।
तत्त्वार्थस्य टीकाकारः श्रीसिद्धसेनगणि "गन्धहस्ती" इत्याख्यया प्रसिद्धिमलभत् । अयमेव सिद्धसेनगणि मल्लवारिनः नयचक्रग्रन्थस्य टीकाकारस्य श्रीसिद्धसूरस्यान्वयेऽभूत् ।
अपरश्च टीकाकारः श्रीयाकिनीसूनुः श्रीहरिभद्र-महाभागः, अयमेव हरिभद्रसूरिः तत्त्वार्थस्य लघुवृत्तिटीकां पूर्णां न चकार । यशोभद्रेण पूर्णा कृता ।
उपांगटीकाकारेण श्रीमलयगिरिणा "प्रज्ञापनावृत्ती" चोक्तम्-तच्चाप्राप्तकारित्वं तत्त्वार्थटीकादौ सविस्तरेण प्रसाधितमिति ततोऽवधारणीयं ।
___सम्प्रति मलयगिरिमहाशयस्य टीका न समुपलभ्यते। महामहोपाध्यायेन श्रीयशोविजयवाचकेन तत्त्वार्थ-भाष्यस्य टीका रचितासीत् । सा टीकापि स्खलिता वर्तते ।
तत्त्वार्थस्य रचनाशैली रम्या हृदयंगमा च, अस्यैव ग्रन्थस्य सौम्यस्वरूपेण तपस्विना श्रीसुशीलसूरिमहाभागेन टीका नवीना रचिता। अयमेव सूरिमहोदयः स्वाध्यायनिष्ठः सुज्ञः सर्वथा तपसि ज्ञाने च नितरां निमग्नः वर्तते ।
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( १५ ) सूरिपुंगवानां श्रुतशास्त्रीयां भक्ति पुरस्कृत्य मया किमपि लिखितमस्ति । नितरां शास्त्ररसस्नातनिष्णाताः भूत्वा भूयोभूयः स्वाध्यायसमुत्कर्ष समुन्नतं कतु लेखनी च लोकोत्तरहितैषिणीं विदधातु विधिज्ञाः सूरिवराः सुतरां भूयासुः । प्रात्मलेखनाचात्मलेखिनो स्वात्महस्तगता सुशोभते सर्वथा सर्वेषां ।
___ इदं तत्त्वार्थसूत्रं श्रुतसिद्धान्तनिष्पन्नं, संसारक्षयकारणं, मुमुक्षूणां चात्मपथपाथेयं सदाहत्पादपीयूषं ज्ञानदर्शनचारित्रलालिते स्वाध्याय-तपः समाधिविभूषितं, प्रमेयप्रकाशपुजं पुरातनीपावनी-देववाणी-दुन्दुभिरूपं, शब्दब्रह्मपाँचजन्यं, गुरुसेवासमुपलब्धसौष्ठवतन्यं, यः कश्चित्, समुचितां श्रमणसंस्कृति ज्ञातुकामः सः शुद्धचेतसा च सुमेधया सततं पठेत्-पाठयेत् चैनं सूत्रं ।
सूत्रमेतत् शास्त्रज्ञनिष्ठानां नियामकं, निर्ग्रन्थ सिद्धान्तसारकलितं निगमागमन्यायनिर्मथितम् । विद्याविवेक-शौर्य-धैर्य-धनम्। नित्यं सेव्यं ध्येयं परिशीलनीयं च ।
अजस्रमभ्यासमुपेयुषा विद्यावता सूत्रकारेण प्रात्मनः स्मृतिपटलात् पटीयांसं शिक्षासंस्कारसमभिरूढं गोत्रगौरवं न त्यक्त। यद्यपि जातिकुलवित्तमदरहितं श्रामण्यं स्वीकृतं ।
सूत्रकारस्य महतीसूक्ष्मेक्षिका वर्तते-यथा-'निःशल्यो व्रती' या व्रतत्ववृत्तिता सा निःशल्यतायुक्ता स्यात् । यस्य शल्यत्वं छिन्न तस्य श्रामण्यं संसिद्धं । इत्थमनेकैः सूत्रः स्वात्मनः सुधीत्वं साधितं ख्यापितं च । इति निवेदयति
महाशिवरात्रि, २ मार्च, १९६२ हरजी
श्रीविद्यासाधकः पं. गोविन्दरामः व्यासः
हरजी-वास्तव्यः
'
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प्राक्कथन
* प्रथम खण्ड से उद्धृत *
* वन्दना * जैनागमरहस्यज्ञ, पूर्वधरं महर्षिणम् ।
वन्देऽहं श्रीउमास्वाति, वाचकप्रवरं शुभम् ॥ १ ॥ अनादि और अनन्तकालीन इस विश्व में जनशासन सदा विजयवन्त है । विश्ववन्द्य विश्वविभु देवाधिदेव श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के वर्तमानकालीन जैनशासन में परमशासनप्रभावक अनेक पूज्य आचार्य भगवन्त आदि भूतकाल में हुए हैं । उन प्राचार्य भगवन्तों की परम्परा में सुप्रसिद्ध पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज का अतिविशिष्ट स्थान है।
आपश्री संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। जैन आगमशास्त्रों के प्रौर उनके रहस्य के असाधारण ज्ञाता थे। पञ्चशत [५००] ग्रन्थों के अनुपम प्रणेता थे, सुसंयमी और पंचमहाव्रतधारी थे एवं बहुश्रुतज्ञानवन्त तथा गीतार्थ महापुरुष थे । श्री जैन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को सदा सम्माननीय, वन्दनीय एवं पूजनीय थे और प्राज भी दोनों द्वारा पूजनीय हैं।
ग्रन्थकर्ता का काल : पूर्वधर महर्षि-वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज के समय का निर्णय निश्चित नहीं हैं, तो भी श्रीतत्त्वार्थसूत्रभाष्य की प्रशस्ति के पाँच श्लोकों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार यह जाना जाता है कि शिवश्री वाचक के प्रशिष्य और घोषनन्दी श्रमण के शिष्य उच्चनागरी शाखा में हुए उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम' शास्त्र रचा। वे वाचनागुरु की अपेक्षा क्षमाश्रमण मुण्डपाद के प्रशिष्य और मूल नामक वाचकाचार्य के शिष्य थे। उनका जन्म न्यग्रोधिका में हुप्रा था। विहार करते-करते कुसुमपुर (पाटलिपुत्र-पटना) नाम के नगर में यह
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'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' नामक ग्रन्थ रचा। आपके पिता का नाम स्वाति और माता का नाम उमा था।
श्री उमास्वाति महाराज कृत 'जम्बूद्वीपसमासप्रकरण' के वृत्तिकार श्री विजयसिंह सूरीश्वर जी म. ने अपनी वृत्ति-टीका के प्रादि में कहा है कि उमा माता और स्वाति पिता के सम्बन्ध से उनका नाम 'उमास्वाति' रखा गया।
श्री पन्नवणा सूत्र की वृत्ति में कहा है कि 'वाचकाःपूर्वविदः ।' यानी वाचक का अर्थ पूर्वधर है। इस विषय में 'जैन परम्परा का इतिहास भाग १ में भी कहा है कि "श्री कल्पसूत्र" के उल्लेख से जान सकते हैं कि प्रार्य दिन्नसूरि के मुख्य शिष्य प्रार्यशान्ति श्रेणिक से उच्चनागरशाखा निकली है। इस उच्चनागर शाखा में पूर्वज्ञान के धारक और विख्यात ऐसे वाचनाचार्य शिवश्री हुए थे। उनके घोषनन्दी श्रमण नाम के पट्टधर थे, जो पूर्वधर नहीं थे, किन्तु ग्यारह अंग के जानकार थे । पण्डित उमास्वाति ने घोषनन्दी के पास में दीक्षा लेकर ग्यारह अंग का अध्ययन किया । उनकी बुद्धि तेज थी। वे पूर्व का ज्ञान पढ़ सकें ऐसी योग्यता वाले थे। इसलिए उन्होंने गुरुप्राज्ञा से वाचनाचार्य श्रीमूल, जो महावाचनाचार्य श्रीमुण्डपाद क्षमाश्रमण के पट्टधर थे, उनके पास जाकर पूर्व का ज्ञान प्राप्त किया।
श्री तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के भाष्य में 'उमास्वाति महाराज उच्चनागरी शाखा के थे', ऐसा उल्लेख है। उच्चनागरी शाखा श्रमण भगवान श्री महावीर परमात्मा के पाटे पाये हुए आर्यदिन के शिष्य आर्य शान्ति श्रेणिक के समय में निकली है। अतः ऐसा लगता है कि बाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज विक्रम की पहली से चौथी शताब्दी पर्यन्त में हुए हैं। इस अनुमान के अतिरिक्त उनका निश्चित समय अद्यावधि उपलब्ध नहीं है। श्रीतत्त्वार्थसूत्र की भाष्यप्रशस्ति में प्रागत उच्चनागरी शाखा के उल्लेख से श्रीउमास्वातिजी की गुरुपरम्परा श्वेताम्बराचार्य प्रार्य श्री सुहस्तिसूरीश्वरजी महाराज की परम्परा में सिद्ध होती है। प्रभावक प्राचार्यों की परम्परा में वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज एक ऐसी विशिष्ट श्रेणी के महापुरुष थे, जिनको श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों समान भाव से सम्मान देते हैं और अपनी-अपनी परम्परा में मानने में भी गौरव का अनुभव करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' नाम से ही प्रसिद्धि है तथा दिगम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' और 'उमास्वामी' इन दोनों नामों से प्रसिद्धि है।
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( १८ )
विशेषताएँ : जैनतत्त्वों के अद्वितीय संग्राहक, पाँच सौ ग्रन्थों के रचयिता तथा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र ग्रन्थ के प्रणेता पूर्वधर महर्षि - वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ऐसे युग में जन्मे जिस समय जैनशासन में संस्कृतज्ञ, समर्थ, दिग्गज विद्वानों की श्रावश्यकता थी । उनका जीवन अनेक विशेषताओं से परिपूर्ण था । उनका जन्म जैनजाति - जैनकुल में नहीं हुआ था, किन्तु विप्रकुल में हुआ था । विप्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण प्रारम्भ से ही उन्हें संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान था । श्री जैनश्रागम - सिद्धान्त-शास्त्र का प्रतिनिधि रूप महान् ग्रन्थ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र उनके आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान को प्रगट करता है; इतना ही नहीं, किन्तु भारतीय षट्दर्शनों के गम्भीर ज्ञानाध्ययन की सुन्दर सूचना देता है । उनके वाचक पद को देखकर श्री जैन श्वेताम्बर परम्परा उनको पूर्वविद् अर्थात् पूर्वी के ज्ञाता रूप में सम्मानित करती रही है तथा दिगम्बर परम्परा भी उनको श्रुतकेवली तुल्य सम्मान दे रही है । जैन साहित्य के इतिहास में आज भी जैनतत्त्वों के संग्राहक रूप में उनका नाम सुवर्णाक्षरों में अंकित है ।
कलिकालसर्वज्ञ श्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय हेमचन्द्रसूरीश्वर जी म.सा. ने अपने 'श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' नामक महाव्याकरण ग्रन्थ में "उत्कृष्टे अनूपेन" सूत्र में "उपोमास्वाति संग्रहीतारः" कहकर अद्वितीय प्रञ्जलि समर्पित की है तथा अन्य बहुश्रुत और सर्वमान्य समर्थ प्राचार्य भगवन्त भी उमास्वाति श्राचार्य को वाचकमुख्य अथवा वाचक श्रेष्ठ कहकर स्वीकारते हैं ।
* श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता *
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जैनागम रहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयमजीवन के काल में पञ्चशत [५०० ] ग्रन्थों की अनुपम रचना की है । वर्त्तमान काल में इन पञ्चशत [५००] ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगम गमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण, इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं ।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल प्राकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है । इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है । पूर्वधर - वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज जैनागम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे । इन्होंने अनेक शास्त्रों
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( १६ ) का अवगाहन करके जीवाजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्र रूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ, महान् ग्रन्थरत्न है। यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को साधु-महात्माओं को विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल प्रात्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को 'अर्हत् प्रवचन संग्रह' रूप में भी जाना है।
ग्रन्थ परिचय : यह श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैनसाहित्य का संस्कृत भाषा में निबद्ध प्रथम सूत्रग्रन्थरत्न है। इसमें दस अध्याय हैं। दस अध्यायों की कुल सूत्र संख्या ३४४ है तथा इसके मूल सूत्र मात्र २२५ श्लोक प्रमाण हैं। इसमें मुख्यपने द्रव्यानुयोग की विचारणा के साथ गणितानुयोग और चरणकरणानुयोग की भी प्रति सुन्दर विचारणा की गई है। इस ग्रन्थरत्न के प्रारम्भ में वाचक श्री उमास्वाति महाराज विरचित स्वोपज्ञभाष्यगत सम्बन्धकारिका प्रस्तावना रूप में संस्कृत भाषा के पद्यमय ३१ श्लोक हैं, जो मनन करने योग्य हैं। पश्चात्
[१] पहले अध्याय में-३५ सूत्र हैं। शास्त्र की प्रधानता, सम्यग्दर्शन का लक्षण, सम्यक्त्व की उत्पत्ति, तत्त्वों के नाम, निक्षेपों के नाम, तत्त्वों की विचारणा करने के द्वारा ज्ञान का स्वरूप तथा सप्त नय का स्वरूप प्रादि का वर्णन किया गया है।
[२] दूसरे अध्याय में-५२ सूत्र हैं। इसमें जीवों के लक्षण, प्रौपशमिक प्रादि भावों के ५३ भेद, जीव के भेद, इन्द्रिय, गति, शरीर, आयुष्य की स्थिति इत्यादि का वर्णन किया गया है।
[३] तीसरे अध्याय में-१८ सूत्र हैं। इसमें सात पृथ्वियों, नरक के जीवों की वेदना तथा प्रायुष्य, मनुष्य क्षेत्र का वर्णन, तिथंच जीवों के भेद तथा स्थिति आदि का निरूपण किया गया है ।
[४] चौथे अध्याय में-५३ सूत्र हैं। इसमें देवलोक, देवों की ऋद्धि और उनके जघन्योत्कृष्ट प्रायुष्य इत्यादि का वर्णन है ।
[५] पांचवें अध्याय में-४४ सूत्र हैं। इसमें धर्मास्तिकायादि मजीव तत्त्व का
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( २० ) निरूपण है तथा षट् द्रव्य का भी वर्णन है । पदार्थों के विषय में जैनदर्शन और जैनेतर दर्शनों की मान्यता भिन्न स्वरूप वाली है । नैयायिक १६ पदार्थ मानते हैं, वैशेषिक ६-७ पदार्थ मानते हैं, बौद्ध चार पदार्थ मानते हैं, मीमांसक ५ पदार्थ मानते हैं, तथा वेदान्ती एक अद्व ेतवादी है । जैनदर्शन ने छह पदार्थ अर्थात् छह द्रव्य माने हैं । उनमें एक जीव द्रव्य है और शेष पाँच जीव द्रव्य हैं । पाँचवें अध्याय में है ।
इन सभी का वर्णन इस
[६] छठे अध्याय में - २६ सूत्र हैं । इसमें प्रस्रव तत्त्व के कारणों का स्पष्टीकरण किया गया है । इसकी उत्पत्ति योगों की प्रवृत्ति से होती है । योग पुण्य और पाप के बन्धक होते हैं । इसलिये पुण्य और पाप को पृथक् न कहकर प्रस्रव में ही पुण्य-पाप का समावेश किया गया है ।
[७] सातवें अध्याय में - ३४ सूत्र हैं । इसमें देशविरति और सर्वविरति के व्रतों का तथा उनमें लगने वाले अतिचारों का वर्णन किया गया है ।
इसमें मिथ्यात्वादि हेतु से होते हुए
[८] प्राठवें अध्याय में - २६ सूत्र हैं । बन्ध तत्त्व का निरूपण है ।
[8] नौवें अध्याय में - ४६ सूत्र हैं । निरूपण किया गया है ।
इसमें संवर तत्त्व तथा निर्जरा तत्त्व का
[१०] दसवें अध्याय में -७ सूत्र हैं ।
इसमें मोक्षतत्त्व का वर्णन है ।
उपसंहार में ( ३२ श्लोक प्रमारण) अन्तिम कारिका में सिद्ध भगवन्त के स्वरूप इत्यादि का सुन्दर वर्णन किया है । प्रान्ते ग्रन्थकार ने भाष्यगत प्रशस्ति ६ श्लोकों में देकर ग्रन्थ की समाप्ति की है ।
* श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध अन्य ग्रन्थ *
श्री तत्त्वार्थ सूत्र पर वर्तमान काल में लभ्य मुद्रित अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं । ( १ ) श्रीतत्त्वार्थ सूत्र पर स्वयं वाचक श्री उमास्वाति महाराज की 'श्रीतत्त्वार्थाभिगम भाष्य' स्वोपज्ञ रचना है, जो २२०० श्लोक प्रमाण है ।
( २ ) श्रीसिद्धसेन गरिण महाराज कृत भाष्यानुसारिणी टीका १८२०२ श्लोक प्रमाण की है । यह सबसे बड़ी टीका कहलाती है ।
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( २१
(३) श्रीतत्त्वार्थ भाष्य पर १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज कृत लघु टीका ११००० श्लोक प्रमारण की है । उन्होंने यह टीका साढ़े पाँच ( ५ 11 ) अध्याय तक की है । शेष टीका श्राचार्य श्री यशोभद्रसूरिजी ने पूर्ण की है ।
( ४ ) इस ग्रन्थ पर श्री चिरन्तन नाम
लिखा है ।
मुनिराज ने 'तत्त्वार्थ टिप्पण'
( ५ ) इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय पर न्यायविशारद न्यायाचार्य महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज कृत भाष्यतर्कानुसारिणी 'टीका' है ।
(६) श्रागमोद्धारक श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी म. श्री ने 'तत्त्वार्थकर्तृ त्वतन्मतनिर्णय' नाम का ग्रन्थ लिखा है ।
(७) भाष्यतर्कानुसारिणी टीका पर पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधर न्यायवाचस्पति शास्त्रविशारद पू. प्राचार्यप्रवर श्रीमद् विजय दर्शन सूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर के विवरण को समझाने के लिये 'गूढार्थदीपिका' नाम की विशद वृत्ति रची है । सिद्धान्तवाचस्पति-न्यायविशारद पू. प्रा. श्रीमद् विजयोदयसूरीश्वरजी म. सा. ने भी वृत्ति रची है ।
(८) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्य पट्टालंकार व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद - कविरत्न- साहित्यसम्राट् पूज्य आचार्यवर्य श्रीमद् लावण्यसूरीश्वरजी महाराज ने श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के 'उत्पाद व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत्' ( २ ), ' तद्भावाव्ययं नित्यम्' (३०), 'अर्पितानर्पितसिद्धेः' (३१) इन तीन सूत्रों पर 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' नाम की विशद टीका ४२०० श्लोक प्रमाण रची है ।
( ६ ) सम्बन्धकारिका और अन्तिमकारिका पर श्री सिद्धसेन गरिण कृत टीका है ।
(१०) सम्बन्धकारिका पर प्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि कृत टीका है ।
(११) प्राचार्य श्री मलयगिरिसूरि म. ने भी श्रीतत्त्वार्थसूत्र पर टीका की है । (१२) मैंने [ मा. श्री विजय सुशोलसूरि ने] भो तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर तथा
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( २२ ) उसकी 'सम्बन्धकारिका' और 'अन्तिमकारिका' पर संक्षिप्त लघु टीका सुबोधिका, हिन्दी भाषा में विवेचनाऽमृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद की रचना की है।
(१३) पू. शासनसम्राट् श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वर जी म.सा. के पट्टधर शास्त्रविशारद-कविरत्न पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजयामृतसूरीश्वर जी म.सा. के प्रधान पट्टधरद्रव्यानुयोगज्ञाता पू. प्राचार्य श्रीमद् विजय रामसूरीश्वरजी म. श्री ने इस तत्त्वार्थाधिगमसूत्र का, सम्बन्धकारिका का तथा अन्तिमकारिका का गुर्जर भाषा में पद्यानुवाद किया है।
(१४) तीर्थप्रभावक-स्वर्गीय प्राचार्य श्रीमद् विजय विक्रमसूरीश्वर जी म. श्री ने गुजराती विवरण लिखा है।
(१५) श्री तत्त्वार्थ सूत्र पर श्री यशोविजय जी गणि महाराज का गुजराती टबा है।
(१६) कर्मसाहित्यनिष्णात प्राचार्य श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वर जी म. के समुदाय के मुनिराज श्री राजशेखरविजय जी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
(१७) पण्डित खूबचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री ने सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र का 'हिन्दी-भाषानुवाद' किया है।
(१८) पण्डित श्री सुखलालजी ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
(१६) पण्डित श्री प्रभुदास बेचरदास ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर गुर्जर भाषा में विवेचन किया है।
___ (२०) श्री मेघराज मुणोत ने श्रीतत्त्वार्थसूत्र का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है।
जैसे श्री जैन श्वेताम्बर अाम्नाय में 'श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' नामक ग्रन्थ विशेष रूप में प्रचलित है, वैसे ही श्री दिगम्बर आम्नाय में भी यह ग्रन्थ मौलिक रूपे अतिप्रचलित है। इस महान् ग्रन्थ पर दिगम्बर प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि, प्राचार्य
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( २३ ) प्रकलंकदेव ने राजवात्तिक टीका तथा प्राचार्य विद्यानन्दि ने श्लोकवात्तिक टीका की रचना की है। इस ग्रन्थ पर एक श्रुतसागरी टीका भी है। इस प्रकार इस ग्रन्थ पर आज संस्कृत भाषा में अनेक टीकाएँ तथा हिन्दी व गुजराती भाषा में अनेक अनुवाद विवेचनादि उपलब्ध हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ की महत्ता निर्विवाद है ।
* प्रस्तुत प्रकाशन का प्रसंग * उत्तर गुजरात के सुप्रसिद्ध श्री शंखेश्वर महातीर्थ के समीपवर्ती राधनपुर नगर में विक्रम संवत् १९६८ की साल में तपोगच्छाधिपति शासनसम्राट-परमगुरुदेव-परमपूज्य प्राचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमिसूरीश्वर जी म.सा. के दिव्य पट्टालंकारसाहित्यसम्राट्-प्रगुरुदेव-पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय लावण्यसूरीश्वर जी म.सा. का श्रीसंघ की साग्रह विनंति से सागरगच्छ के जैन उपाश्रय में चातुर्मास था। उस चातुर्मास में पूज्यपाद आचार्यदेव के पास पूज्य गुरुदेव श्री दक्षविजयजी महाराज (वर्तमान में पू. प्रा. श्रीमद् विजय दक्षसूरीश्वरजी महाराज), मैं सुशील विजय (वर्तमान में प्रा. सुशीलसूरि) तथा मुनि श्री महिमाप्रभ विजयजी (वर्तमान में प्राचार्य श्रीमद् विजय महिमाप्रभसूरिजी म.) आदि प्रकरण, कर्मग्रन्थ तथा तत्त्वार्थसूत्र आदि का (टीका युक्त वांचना रूपे) अध्ययन कर रहे थे। मैं प्रतिदिन प्रातःकाल में नवस्मरण आदि सूत्रों का व एक हजार श्लोकों का स्वाध्याय करता था। उसमें पूर्वधरवाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज विरचित 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र' भी सम्मिलित रहता था। इस महान् ग्रन्थ पर पूज्यपाद प्रगुरुदेवकृत 'तत्त्वार्थ त्रिसूत्री प्रकाशिका' टीका का अवलोकन करने के साथ-साथ 'श्रीतत्त्वार्थसूत्र-भाष्य' का भी विशेष रूप में अवलोकन किया था।
प्रति गहन विषय होते हुए भी अत्यन्त प्रानन्द प्राया। अपने हृदय में इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त लघु टीका संस्कृत में और सरल विवेचन हिन्दी में लिखने की स्वाभाविक भावना भी प्रगटी। परमाराध्य श्रीदेव-गुरु-धर्म के पसाय से और अपने परमोपकारी पूज्यपाद परमगुरुदेव एवं प्रगुरुदेव आदि महापुरुषों की असीम कृपादृष्टि
और अदृष्ट पाशीर्वाद से तथा मेरे दोनों शिष्यरत्न वाचकप्रवर श्री विनोदविजयजी गणिवर एवं पंन्यास श्री जिनोत्तमविजयजी गणि की जावाल [सिरोही समीपवर्ती] में पंन्यास पदवी प्रसंग के महोत्सव पर की हुई विज्ञप्ति से इस कार्य को शीघ्र प्रारम्भ करने हेतु मेरे उत्साह और प्रानन्द में अभिवृद्धि हुई। श्रीवीर सं. २५१६, विक्रम सं.
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( २४ )
२०४६ तथा नेमि सं. ४१ की साल का मेरा चातुर्मास श्री जैनसंघ, धनला की साग्रह विनंति से श्री धनला गाँव में हुआ ।
इस चातुर्मास में इस ग्रन्थ की टीका और विवेचन का शुभारम्भ किया है । इस ग्रन्थ की लघु टीका तथा विवेचनादियुक्त यह प्रथम- पहला श्रध्याय है । इस कार्य हेतु मैंने प्रागमशास्त्र के अवलोकन के साथ-साथ इस ग्रन्थ पर उपलब्ध समस्त संस्कृत, गुजराती, हिन्दी साहित्य का भी अध्ययन किया है और इस अध्ययन के आधार पर संस्कृत में सुबोधिका लघु टीका तथा हिन्दी विवेचनामृत की रचना की
1 इस रचना - लेख में मेरी मतिमन्दता एवं अन्य कारणों से मेरे द्वारा मेरे जानते या प्रजानते श्रीजिनाज्ञा के विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिए मन-वचनकाया से मैं 'मिच्छामि दुक्कड' देता हूँ ।
श्रीवीर सं. २५१७ विक्रम सं. २०४७
नेमि सं. ४२ कार्तिक सुद५ [ ज्ञान पंचमी ]
बुधवार दिनांक २४-११-६० 555
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लेखक - श्राचार्य विजय सुशीलसूरि
स्थल - श्रीमाणिभद्र भवन
- जैन उपाश्रय
मु. पो. धनला - ३०६०२५
वाया - मारवाड़ जंक्शन, जिला - पाली (राजस्थान )
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पूर्वधर-परमर्षि-श्रीउमास्वातिवाचकपप्रवरेण
विरचितम्
Eb0eo
MAHABHARADUATALLATURE
पर
श्री उमास्वातिंजीला
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
(
(पंचमोध्यायः)
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ॐ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता
धर्मलाभ
जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयम-जीवन के काल में पंचशत (५००) ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पंचशत (५००) ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध हैं।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है।
पूर्वधर-वाचकप्रवरश्रीउमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर के जीवजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्ररूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ महान् ग्रन्थरत्न है।
यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्माओं को, विद्ववर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को अर्हत् प्रवचनसंग्रह रूप में भी जाना है।
पुरोवचन
पूर्वधर महर्षि श्री उमास्वाति वाचक प्रणीत श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के इस पंचम अध्याय में कुल सूत्रों की संख्या ४४ है । इनके माध्यम से पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल इन पाँच अजीव द्रव्यों का वर्णन किया गया है। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल - ये पाँच अस्तिकाय हैं। कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है। जीव अनेक हैं, पुद्गल भी अनेक हैं किन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ये तीन द्रव्य एक-एक ही हैं । पुद्गल द्रव्य रूपी है, शेष सब द्रव्य अरूपी हैं । पुद्गल और जीव ये दोनों द्रव्य क्रियावान हैं, धर्माधर्माकाश ये तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एकजीव के प्रदेश संख्या में समान हैं यानी ये सब असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है। पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी होते हैं। सभी द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य है। क्रमशः गति और स्थिति धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का 'उपकार' है। अवगाह देना आकाश का उपकार है। शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास यह पुद्गलों का उपकार है। जीव का उपकार परस्पर हित-अहित, सुख-दु:ख इत्यादि में निमित्त बनना है। वर्तना, परिणाम क्रिया और परत्वापरत्व काल का उपकार है।
अनन्तर पुद्गल के भेद अणु और स्कन्ध, अणु और स्कन्ध की उत्पत्ति में कारणों का वर्णन है। द्रव्य का लक्षण है जिसमें गुण और पर्याय हों। काल अनन्त समय वाला द्रव्य है। आगे गुण और परिणाम के भेद और लक्षण बताये गये हैं।
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॥ अहम् ॥
जश्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥
तस्यायं
पञ्चमोऽध्यायः
प्रत्र प्रथमाऽध्याये सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं नयानाञ्च प्रतिपादनं कृतम् । द्वितोयाऽध्याये तृतीयाऽध्याये चतुर्थाऽध्याये च जीवतत्त्वं प्राश्रित्य नानाविधनिरूपणं कृतम्। अधुनैव पञ्चमाऽध्याये अजीव-तत्त्वस्य वर्णनं क्रियते ।
* अजीवतत्त्वस्य मुख्यभेदाः * 卐 सूत्रम्अजीवकाया धर्माऽधर्माऽऽकाशपुद्गलाः ॥ ५-१॥
* सुबोधिका टोका * अजीवद्रव्याणि पञ्च। ते च पञ्चकायेति व्याख्याता। धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय प्राकाशास्तिकायश्च पुद्गलास्तिकाय इति अजीवकायाः।
अत्र काय - शब्दस्य ग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थमेव । पञ्चद्रव्याणि अस्तिरूपाणि 'सत्' सन्ति । अतः अस्तिशब्दस्य प्रयोगः भवति ।
अन्यच्च यत् धर्मादिक-चतुर्णा द्रव्याणां प्रदेश-बाहुल्यात् कालद्रव्येषु नैतद् कालद्रव्यं तु एकप्रदेशी प्रतः कायशब्देन तस्य भेदः कृतः ।।
धर्मादिकानि पञ्चद्रव्याणि प्रजीवाः । तेषु जीवत्व-चैतन्याभावात् । जीवात् सर्वथा विरुद्धः वा तस्याभावः सर्वथा इति। प्रजीवशब्दस्य अर्थात्र नैवाभीष्टः, किन्तु एतानि द्रव्याणि नैव जीवरूपाणि इत्यभीष्टः ।। ५-१ ।।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
२ ]
[ ५।१
* सूत्रार्थ - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, श्राकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये 'प्रजीवकाय' हैं ।। ५१ ।।
5 विवेचनामृत 5
यहाँ प्रथम- पहले अध्याय में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और नयों का प्रतिपादन किया है । द्वितीय-दूसरे, तृतीय-तीसरे और चतुर्थ- चौथे अध्याय में जीवतत्त्व का विविध दृष्टियों से निरूपण किया था ।
अब इस पंचम पांचवें अध्याय में अजीव तत्त्व का निरूपण करते हैं ।
जीवतत्त्व के मुख्य भेद - ( १ ) धर्म, (२) श्रधर्मं, (३) श्राकाश, तथा ( ४ ) पुद्गल ये चार (द्रव्य) 'प्रजीवकाय' होते हैं। ये धर्म आदि चार द्रव्य अस्तिकाय हैं । अस्ति यानी प्रदेश तथा काय यानी समूह । धर्म इत्यादि चार तत्त्व प्रदेशों के समूह रूप होने से 'अस्तिकाय' कहलाते हैं ।
(१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, तथा ( ४ ) पुद्गलास्तिकाय । ये चार अजीव तत्त्व हैं । अर्थात् — जो जीव से भिन्न तत्त्व होते हैं वे अजीव रूप कहे जाते हैं ।
जीव भी आत्मप्रदेशों के समूह रूप होने से अस्तिकाय रूप ही है । किन्तु यहाँ पर अजीव का ही प्रकरण होने से धर्मास्तिकायादि चार तत्त्व अस्तिकाय रूप कहे हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों के स्कन्ध, देश और प्रदेश इस तरह तीन-तीन भेद तथा पुद्गलास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु इस तरह चार भेद हैं । सब मिलकर अजीवतत्त्व के कुल १३ भेद हैं ।
* वस्तु – सम्पूर्ण पदार्थ 'स्कन्ध' कहा जाता है ।
* वस्तु — पदार्थ का सविभाज्य कोई एक भाग वह 'देश' कहा जाता है ।
अर्थात् - जिसका अन्य विभाग हो सके, ऐसा कोई एक भाग वह देश है । स्कन्ध और देश के सम्बन्ध में इतना ध्यान रखना चाहिये कि सविभाज्य भाग जो वस्तु-पदार्थ के साथ प्रतिबद्ध हो तो
वह देश कहलाता है, किन्तु वह भाग जो पृथग्-भिन्न हो गया हो तो वह भाग देश कहा भी जाए और न भी कहा जाए । पृथग्-भिन्न पड़ा हुआ भाग जिसमें से छूटा पड़ा हुआ है, वह वस्तु-पदार्थ की अपेक्षा विचार करने में आ जाए तो वह देश कहा जाए। क्योंकि, वह जो वस्तु-पदार्थ में से छूटा पड़ा है वह वस्तु-पदार्थ का एक विभाग है । परन्तु मूल वस्तु पदार्थ की अपेक्षा बिना समस्त द्रव्यों में से विभाग - भाग जुदा पड़ता नहीं है । सिर्फ पुद्गलास्तिकाय में से ही विभाग-भाग छूटा पड़ता है । यह विचारणा पुद्गलास्तिकाय को प्राश्रय करके ही है । क्योंकि पुद्गलास्तिकाय के भिन्न-भिन्न विभागों में भी स्कन्ध रूप छूटे पड़े हुए विभाग को स्वतन्त्र वस्तु पदार्थ मानने से ही होता है ।
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५१
]
पञ्चमोऽध्यायः
* प्रदेश-यानी वस्तु-पदार्थ के साथ प्रतिबद्ध वस्तु-पदार्थ का निविभाज्य एक भाग है। निविभाज्य भाग भी जिसका सर्वज्ञविभु केवलीभगवन्त से भी दो विभाग न हो सके, ऐसा अन्तिम सूक्ष्म अंश है।
* परमाणु-यानी मूल वस्तु-पदार्थ से छूटा पड़ा हुआ निविभाज्य भाग है ।
* प्रदेश और परमाणु में भिन्नता–सर्वज्ञविभु केवली भगवन्त की दृष्टि से भी जिसके दो विभाग-भाग न हो सके, ऐसा अन्तिम सूक्ष्म अंश प्रदेश भी कहा जाता है और परमाणु भी कहा जाता है।
इन दोनों में भिन्नता-जदाई इतनी ही है कि ये सूक्ष्म अंश जो वस्तू-पदार्थ स्कन्ध के साथ प्रतिबद्ध हों तो उनको प्रदेश कहते हैं, और छटा पड़ा हुआ हो तो उसको परमाणु कहते हैं। यह प्रदेश ही छूटा पड़ के परमाणु का नाम धारण करता है।
अजीव तत्त्व के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन चार द्रव्यों के स्कन्ध, देश और प्रदेश इस तरह तीन विभाग हैं; किन्तु परमाणु रूप चतुर्थ-चौथा विभाग नहीं है। क्योंकि इन चार द्रव्यों का निज समस्त प्रदेशों के साथ शाश्वत सम्बन्ध है।
इन चार द्रव्यों में से एक भी प्रदेश किसी भी काल में पृथक्-छटा नहीं पड़ता। पुद्गल के स्कन्ध में से ही प्रदेश पृथग्-छूटा पड़ते हैं ।
पुद्गल के स्कन्ध में से पृथग्-छुटे पड़े हुए प्रदेश ही परमाणु का नाम धारण करते हैं। इस तरह परमाणु यानी पुद्गल स्कन्ध में से पृथग्-छूटा पड़ा हुआ प्रदेश ।
प्रदेश और परमाणु का कद भी समान ही होता है। क्योंकि दोनों वस्तु-पदार्थ के निविभाज्य अन्तिम सूक्ष्म अंश हैं ।
विशेष-निरूपण पद्धति के अनुसार पहले लक्षण कहने के बाद भेद-निरूपण कहना चाहिए, तथापि सूत्रकार ने नियम का उल्लंघन कर पहले भेदनिरूपण किया है। जिसका कारण यह है कि अजीव के लक्षण का ज्ञान जीव के लक्षण से ही हो सकता है। जैसे-अजीव। अर्थात् जीव नहीं वही अजीव है। उपयोग जीव का लक्षण है। जिसमें उपयोग न हो उसे 'अजीव तत्त्व' कहते हैं। उपयोग का अभाव ही अजीव तत्त्व का लक्षण है ।
अजीव है वह जीव का विरोधी भावात्मक तत्त्व है, किन्तु वह केवल अभावात्मक नहीं है। धर्मादि चार अजीव तत्त्वों को अस्तिकाय कहा। जिसका अभिप्राय यह है कि वे मात्र एक प्रदेश रूप अथवा एक अवयव रूप नहीं हैं, किन्तु समूह रूप हैं, तथा पुद्गल अवयव रूप एवं अवयव प्रचयसमूह रूप है।
__ अजीव तत्त्व के भेदों में काल की गणना नहीं की। जिसका कारण यह है कि इस विषय में मतभेद हैं। कोई काल को तत्त्व रूप मानते हैं, तो कोई नहीं भी मानते ।
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४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५२
जो तत्त्वरूप मानने वाले हैं, वे भी केवल प्रदेशात्मक मानते हैं, किन्तु प्रदेश प्रचय- समूहरूप नहीं मानते। इसलिए काल की गणना अस्तिकायों के साथ नहीं हो सकती है । तथा जो काल को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानने वाले हैं, उनके मतानुसार काल तत्त्वरूप भेदों में हो ही नहीं सकता ।
* प्रश्न – क्या उपर्युक्त धर्मास्तिकायादि चारों तत्त्व अन्य दर्शनों को मान्य हैं ?
उत्तर - नहीं, केवल प्रकाश और पुद्गल इन दो तत्त्वों को न्याय, वैशेषिक तथा साङ्ख्यादिक अन्य दर्शन मानते हैं । किन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, इन दो तत्त्वों को श्री जैनदर्शन के अलावा अन्य कोई भी दर्शन वाले नहीं मानते ।
जैनदर्शन जिसको आकाशास्तिकाय कहता है, उसको दूसरे दर्शन वाले आकाश कहते हैं । तथा पुद्गलास्तिकाय यह संज्ञा भी केवल जैनशास्त्रों में ही है ।
अन्य दर्शन तत्त्वस्थान में इसका प्रकृति या परमाणु शब्द से उपयोग करते हैं ।। ( ५-१ )
5 मूलसूत्रम्
* मूलद्रव्यकथनम्
धर्मास्तिकायादितत्त्वानां विशेषसंज्ञा
द्रव्यारिण जीवाश्च ॥ ५-२ ॥
* सुबोधिका टीका *
वैशेषिकास्तु द्रव्यशब्देन द्रव्यत्वं जातित्वं गृह पन्ति । जातीति सामान्यं पदार्थं अतः द्रव्यत्वमपि सामान्यपदार्थम् । एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पञ्चद्रव्याणि च भवन्ति । मति श्रुतयोनिबन्धो द्रव्येष्वसर्व पर्यायेषु सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवल
स्येति ।। ५-२ ।।
* सूत्रार्थ - उपर्युक्त धर्मास्तिकायादि चार और जीव इन पाँचों की द्रव्य संज्ञा है ।। ५-२ ।।
5 विवेचनामृत 5
श्रीजैन दर्शन - जैनदृष्टि के अनुसार विश्व जगत् केवल पर्याय अर्थात् परिवर्तन रूप ही नहीं है, किन्तु परिवर्तनशील होते हुए भी अनादिनिधन है ।
श्रीजैन मतानुसार विश्व जगत् में मुख्य पाँच द्रव्य हैं तथा उन्हीं के नाम इन दो सूत्रों में
बताये हैं |
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५॥३ ]
पञ्चमोऽध्यायः प्रस्तुत सूत्र से आगे कितनेक सूत्रों तक द्रव्य के सामान्य तथा विशेष धर्मों का वर्णन करने के बाद पुनः इनके पारस्परिक साधर्म्य एवं वैधर्म्य भाव को बताया है। साधर्म्य का अर्थ होता है सामान्यधर्म-समानता एवं वैधर्म्य का अर्थ होता है विरुद्ध धर्म-असमानता।
प्रस्तुत सूत्र में जो द्रव्यत्व का विधान है, वह धर्मास्तिकायादि पाँच पदार्थों का द्रव्यत्व रूप से साधर्म्य है; और उसी में वैधर्म्य भाव गुण-पर्यायापेक्षी है।
इसीलिए तो कहा है कि- "गुरणानामाश्रयोः द्रव्यम्" और पर्याय पलटन स्वभावी है। [द्रव्य का लक्षण इस अध्याय के ३७ वे सूत्र में कहेंगे।] ॥ ५-२ ॥
* धर्मास्तिकायाविद्रव्येषु साधर्म्य-समानता * 卐 सूत्रम्
नित्याऽवस्थितान्यरूपाणि च ॥ ५-३ ॥
* सुबोधिका टीका * एतानि पूर्वोक्तानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति । तद् भावाव्ययं नित्यमिति । वक्ष्यते अवस्थितानि च। अरूपाणि च । न हि कदाचित् पञ्चत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति । नैषां रूपमस्ति । रूपं मूति - मूश्रियाश्च स्पर्शादय इति ॥ ५-३ ॥
* सूत्रार्थ-पूर्वोक्त द्रव्य नित्य, अवस्थित और अरूपी हैं। अर्थात्-सूत्रों के द्वारा जो पूर्व विवेचन किये गये हैं, वे द्रव्य नित्य, अवस्थित तथा अरूपी हैं तथा व्यय नहीं होने से नित्य हैं ॥ ५-३ ॥
卐 विवेचनामृत 卐 धर्मास्तिकाय इत्यादि पाँच द्रव्य नित्य और अवस्थित-स्थिर हैं, तथा पुद्गल के अतिरिक्त चार द्रव्य अरूपी हैं। धर्मास्तिकायादि पाँच द्रव्यों में नित्यता तथा अवस्थितता का एवं पुद्गल बिना चार द्रव्यों में अरूपीपने का साधर्म्य यानी समानता है ।
___ * नित्यता-जिन धर्मों का विनाश न हो वे नित्य हैं। अस्तित्वादि सामान्य धर्मों का तथा प्रतिहेतुतादि विशेष धर्मों का कभी विनाश नहीं होने से धर्मास्तिकायादि पाँच द्रव्य नित्य हैं।
* अवस्थितता-जिन धर्मों का परावर्तन यानी संक्रमण नहीं होता वे अवस्थित हैं। जीव-आत्मा में जड़ के गुणों का और जड़ में जीव-आत्मा के गुणों का कभी परिवर्तन यानी संक्रमण नहीं होता है। वे द्रव्य अपने-अपने गुणों से अवस्थित रहते हैं। अथवा अवस्थान यानी
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५॥४ संख्या की वृद्धि या हानि का अभाव समझना। धर्मास्तिकायादि पाँच द्रव्य नित्य रहते हैं। वे द्रव्य पाँच की संख्या को छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि ये पाँच द्रव्य कम होकर कभी चार नहीं होते हैं, तथा बढ़कर छह भी नहीं होते हैं। अर्थात्-जितने हैं, इतने पाँच ही रहते हैं ।
* अरूपोपना-अरूपीपना यानी रूप का अभाव समझना। यहाँ अरूपीपना के उपलक्षण से रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शादि गुणों का भी प्रभाव जानना। पुद्गल के अलावा चार द्रव्य अरूपी हैं। अर्थात्-रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि गुणों से रहित हैं ।
इसलिए इन चार द्रव्यों का चक्षु आदि इन्द्रियों से ज्ञान नहीं होता है। कर्मों के प्रावरण से रहित आत्मा ही इन चार द्रव्यों का प्रत्यक्ष ज्ञान कर सकता है।
सारांश यह है कि-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-प्रात्मा ये पाँच द्रव्य नित्य हैं । अर्थात् –ये अपने-अपने सामान्य-विशेषत्व धर्म से कदापि च्युत नहीं होते हैं ।
"तभावाव्ययं नित्यम्" [अ. ५ सू. ३०] यह वही है, ऐसे प्रत्यभिज्ञान हेतुरूप भाव को नित्य कहते हैं। तथा उक्त पाँचों द्रव्य अवस्थित रूप हैं, वे अपनी पंचत्व संख्या से न्यूनाधिक नहीं होते हैं।
ये पाँचों द्रव्य अवस्थित हैं। किसी दिन भी पाँच की संख्या घटती नहीं। अर्थात्-ये पाँचों अनादिकाल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे। इसलिए इनका कोई भी कर्ता नहीं है। क्योंकि ये कभी उत्पन्न हुए नहीं, तो फिर उनके उत्पादक की बात ही कहाँ रही ? ॥ ५-३ ॥
* रूपीद्रव्याणि * ॥ सूत्रम्
रूपिणः पुद्गलाः ॥५-४ ॥
* सुबोधिका टीका * धर्मादिकेषु पञ्चद्रव्येषु पुद्गल एवैकः रूपी। पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । रूपम्-एषाम् अस्ति एषु वा इति रूपिणः। रूपस्य व्युत्पत्तिः द्विविधा, सम्बन्धापेक्षयकान्यधिकरणापेक्षा ।
वैशेषिका मन्यन्ते यत् रूपादिरहितपुद्गलाः इति । यथा उत्पत्तिक्षणे द्रव्यं निर्गुणं निष्क्रियं च तिष्ठति एतद् । तेषां मते पृथिव्यां चत्वारः गुणाः, जले त्रयो गुणाः अग्नी द्वौ गुणौ वायौ च एकैव गुणः भवन्ति । किन्तु अस्य निराकरणं कृतं यत् न कोऽपि एतादृशः पुदृगलः यः रूपरसगन्धस्पर्शयुक्तो नैव । सर्वेषु चत्वारो गुणाः विद्यन्ते । अवनयमेव व्यक्तमव्यक्त क्वचित् ।। ५-४ ॥
* सूत्रार्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है, अर्थात् मूर्तिमान है ।। ५-४ ।।
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५।५ ]
पञ्चमोऽध्यायः
विवेचनामृत
धर्मादिक पाँच द्रव्यों में से एक पुद्गल द्रव्य ही ऐसा है जो रूपी है । रूपी शब्द से तात्पर्य है स्वरूप वाला । यह सम्बन्ध की अपेक्षा तथा अधिकरण की अपेक्षा दो प्रकार का होता है ।
पाँच द्रव्यों में मात्र पुद्गल द्रव्य ही रूपी है । चक्षु प्रादि इन्द्रियों द्वारा पुद्गल के गुणों का ही प्रत्यक्षज्ञान कर सकते हैं । अपने को चक्षु प्राँख द्वारा जो कुछ भी दिखाई देता है, वह पुद्गल ही है ।
जहाँ पर रूप होता है वहाँ रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुण भी अवश्य ही होते हैं । * श्राकाशपर्यन्तद्रव्याणां एकता
5 सूत्रम् -
[ ७
श्राssकाशादेकद्रव्याणि ।। ५-५ । * सुबोधिका टीका *
as धर्मादिकारिणद्रव्याणि तेषु धर्मादाकाशपर्यन्तं, धर्माधर्माकाशानि त्रीणि यानि द्रव्याणि तानि एकमेकमेव । शेषास्तु पुद्गलजीवाः अनेकद्रव्याणि । प्रकाशाद् धर्मादीन्येकद्रव्याणि एव भवन्ति ।
पुद्गलजीवास्तु भनेक
द्रव्याणि ।
सामान्यतः श्राकाशमखण्डमनन्तप्रदेशी वर्तते । लोकाकाशालोकाकाशे इति । असंख्य प्रदेशी
प्रदेशीति ।
विशेषापेक्षया द्वौ भेदौ लोकाकाशम्, श्रलोकाकाशानन्त
वस्तुतस्तूपचारेण एतौ द्वौ भेदौ । परन्तु श्राकाशन्तु प्रखण्डैकमेव द्रव्यम् । किन्तु नैव जीवपुद्गलेषु एवं यत् अनन्ताः जीवाः पुद्गलाः अपि अनन्तास्तथा प्रतिजीवपुद्गलसत्ताऽपि भिन्ना स्वतन्त्रा च ।। ५-५ ।।
* सूत्रार्थ - धर्म से श्राकाश पर्यन्त अर्थात् - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा श्राकाशास्तिकाय एक-एक द्रव्य है ।। ५-५ ।।
विवेचनामृत
विश्व में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा जीव अनेक हैं । तथा भिन्न-भिन्न स्कन्ध आदि की अपेक्षा पुद्गल अनेक हैं । किन्तु घर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाश ए तीन द्रव्य एक-एक ही है ।
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५६
धर्मास्तिका आदि के स्कन्ध आदि
भेद बुद्धि की कल्पना से भिन्न-भिन्न अपेक्षा से एक ही द्रव्य के हैं । उन भेदों को मूलद्रव्य से कभी पृथक् - भिन्न नहीं कर सकते हैं । जीव द्रव्य अनेक व्यक्तिरूप अनन्त हैं उसी प्रमाण पुद्गल द्रव्य भी अनन्त हैं ।
८
विशेष - इन तीनद्रव्यों में एक द्रव्यत्व का साधर्म्य है । संख्या की बाबत इनका जीव और पुद्गलों के साथ वैधर्म्य है । जीव और पुद्गल में अनेक द्रव्यत्व का साधर्म्य है । धर्म, अधर्म और आकाश के साथ अनेकत्व का वैधर्म्य है ।। ५-५ ।।
* श्राकाशादिद्रव्येषु निष्क्रियता
5 मूलसूत्रम्
निष्क्रियाणि च ॥ ५-६ ॥
* सुबोधिका टीका *
श्रा आकाशादेव धर्मादीनि निष्क्रियाणि भवन्ति । क्रियाशीलाः क्रियेति गतिकर्माह ।
पुद्गल - जीवास्तु
क्रियापि द्विविधा |
परिणामलक्षणा परिस्पन्दलक्षणेति ।
अस्ति भवति क्रिये
वस्तुनः परिणमनमात्रं दर्शयतः । क्षेत्रात् क्षेत्रपर्यन्तवस्तुनयनमाकारान्तरकरणं वा
परिस्पन्दलक्षरणा ।
जीवपुद्गलाः क्रियावन्ताः गतिमन्ताश्च । एषामाकाररूपाणां परिणमनं भवत्येव । धर्मादिकानामाकाराणि श्रनादिकालतः अनन्तकाल पर्यन्तं समानानि । अर्थात् जीवपुद्गलवत् धर्माधर्माकाशद्रव्याणि न तु श्राकारान्तरयुक्तानि न च क्षेत्रान्तरगमनयोग्यानि भवन्ति ।
अन्यच्च प्रदेशावयवबहुत्वं कायसंज्ञमिति शङ्कयते । प्रदेशावयवनियमावधारणा ।
क एषः धर्मादीनां
श्रत्रोच्यते - सर्वेषां प्रदेशाः भवन्ति श्रन्यत्र परमाणोः । अवयवास्तु स्कन्धानामेव । यत् “अरणवः स्कन्धाश्च । सङ्घातभेदेभ्यः उद्भवन्ति " ।। ५-६ ।।
* सूत्रार्थ - उक्त तीनों ही द्रव्य निष्क्रिय हैं । अर्थात् " धर्माधर्माकाश" तीनों द्रव्य निष्क्रिय हैं । किन्तु पुद्गल और जीव ये दोनों क्रियावान हैं ।। ५-६ ।।
विवेचनामृत 5
आकाशादि द्रव्यों में निष्क्रियता अर्थात् ये द्रव्य निष्क्रिय क्रियारहित हैं । यहाँ पर सामान्यक्रिया का निषेध नहीं है, किन्तु गतिरूप विशेषक्रिया का निषेध है ।
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[६
५।६ ]
पञ्चमोऽध्यायः ... जैसे-जीव और पुद्गल एक स्थान से अन्य स्थान पर गमनागमन करते हैं अर्थात् जातेआते रहते हैं वैसे ये धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्य नहीं करते हैं ।
इसलिए धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों में गमनागमन रूप क्रिया का अभाव होता है। किन्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप क्रिया तो इन तीनों में भी होती है। क्योंकि श्रीजैनदर्शन वस्तु-पदार्थ मात्र में पर्यायों की अपेक्षा उत्पाद और व्यय दोनों मानता है ।
विशेष-"धर्माधर्माकाश" तीनों द्रव्यों का निष्क्रियत्व साधर्म्य भी है। उनका इस बाबत जब जीव और पुद्गल के साथ वैधर्म्य है, तब जीव और पुद्गल में परस्पर सक्रियत्व धर्म का साधर्म्य है तथा प्रथम के तीन द्रव्यों के साथ इस सम्बन्ध में वैधर्म्य है।
* साधर्म्य-वैधर्म्य सम्बन्ध में तोसरे सूत्र से छठे सूत्र तक जो कहा है उसको अब प्रश्नोत्तर के रूप में कहा जाता है ।
प्रश्न-नित्यत्व और अवस्थितत्व के शब्दार्थ में क्या विशेषता आती है ?
उत्तर-अपने-अपने सामान्य और विशेष स्वरूप से च्युत नहीं होना ही नित्यत्व है। तथा स्व-स्वरूप में कायम रहते हुए भी अन्य स्वरूप को प्राप्त नहीं होना अवस्थित धर्म है।
जैसे-जीवतत्त्व अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप का और चेतनात्मक विशेष रूप का कभी त्याग नहीं करता, यह नित्यत्व है। तथा उक्त स्वरूप को छोड़े बिना अजीवतत्त्व के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता, यह अवस्थितत्व है।
नित्यत्व कथन से विश्व की शाश्वतता सचित होती है और अवस्थितत्व कथन से असंकरता सूचित होती है। विश्व अनादिनिधन है और मूल तत्त्वों की संख्या अपरिवर्तनशील है। * प्रश्न-धर्मास्तिकायादि अजीवतत्त्व यदि द्रव्य और तत्त्व हैं तो इनका कोई स्वरूप तो
अवश्य ही स्वीकारना पड़ेगा? तो फिर वे अरूपी कैसे ? उत्तर-अरूपीपन से स्वरूप का निषेध नहीं होता । धर्मास्तिकायादि समस्त तत्त्वों का स्वरूप अवश्य है, क्योंकि बिना स्वरूप के वस्तु-पदार्थ सिद्ध नहीं होता है।
जैसे-ससिशृङ्गवत् या आकाशपुष्पवत् अरूपीत्व कहने से रूप अर्थात् मूत्तिपने का निषेध है। यहाँ रूप का अर्थ मूत्तित्व है। रूप आकार विशेष या रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के समुदाय को मत्ति कहते हैं। इस मत्तित्व का धर्मास्तिकायादिक चार तत्त्वों में प्रभाव माना है । किन्तु स्वरूप मानने में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती एवं न वह अरूपीत्व का बाधक है। रूप, मूर्त्तत्व, मूत्ति ये शब्द समानार्थक हैं। रूप-रसादि जो गुण इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये जाएं तो ये इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्त हैं और वे रूप-रसादि पुद्गल में पाये जाते हैं, इसलिए ( गल हो रूपी है।
इसके अलावा अन्य कोई द्रव्य मूतिमान नहीं है। क्योंकि वे "धर्माधर्माकाशजीव" इन्द्रियअग्राह्य हैं। रूपीत्व के कारण पुद्गल तथा धर्मास्तिकायादि चार तत्त्वों की असमानता होने से परस्पर वैधर्म्य भाव उत्पन्न होता है। अर्थात् असमानता को ही वैधर्म्य कहते हैं ।
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१० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५७ उपर्युक्त पाँच द्रव्यों में से तीन द्रव्य “धर्माधर्माकाश" एक-एक व्यक्तिरूप हैं, अर्थात् एकएक स्वतन्त्र पिण्डरूप हैं। वे पृथक्-भिन्न रूप से दो, तीन इत्यादि नहीं हैं। तथा निष्क्रिय यानी क्रियारहित हैं।
एक व्यक्तित्व तथा निष्क्रियत्व इन दोनों धर्मों का उक्त तीन द्रव्यों में साधर्म्य है। जीव तथा पुद्गल अनेक व्यक्तिरूप हैं और क्रियाशील भी हैं ।
धर्मास्तिकायादिक तीनों द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है सो वे जीव, पुद्गल के समान चल भाव को प्राप्त होकर के प्रदेशान्तर रूप गमन क्रिया नहीं करते हैं। परन्तु वे अपने चलन सहायादि गुणों से सक्रिय कहे जा सकते हैं। क्योंकि, वे गुण अपनी-अपनी क्रिया में नित्य प्रवर्तनशील हैं।
जीव-आत्मा के विषय में अन्य दार्शनिकों का जिस तरह मन्तव्य है उसी तरह श्रीजैनदर्शन नहीं मानता है।
जैसे-वेदान्तदर्शन आत्मद्रव्य को एक व्यक्तिरूप मानता है। साङ्खयदर्शन तथा वैशेषिकादि भी वेदान्त के समान एक द्रव्य मानकर उसे निष्क्रिय नहीं मानते हैं। जैनदर्शन जीव को अनेक तथा क्रियाशील मानता है।
* प्रश्न-जैनदर्शन पर्याय परिणमन रूप उत्पाद-व्यय समस्त द्रव्यों में मानता है।
यह परिणमन क्रियाशील द्रव्यों में हो सकता है, किन्तु निष्क्रिय द्रव्यों में कैसे
मानते हो? उत्तर-यहाँ पर निष्क्रियत्व से गति क्रिया का निषेध है। किन्तु क्रियामात्र का नहीं, अर्थात् निष्क्रिय “धर्माधर्माकाश" द्रव्य का अर्थ जैनदर्शन में मात्र गतिशून्य द्रव्य माना है तथा उन धर्मास्तिकायादिक गतिशून्य द्रव्यों में भी चलन सहायादि गुण अपने-अपने विषय का उत्पादव्यय रूप माना है। जैनदर्शन "उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्" इसे द्रव्य का लक्षण मानता
* प्रदेशसंख्याविचारः *
धर्मादिद्रव्येषु प्रदेशानां परिमाणः 卐 मूलसूत्रम्
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मयोः ॥ ५-७ ।।
* सुबोधिका टीका * परमनिरुद्धनिरवयवं देशं प्रदेश मिति । द्रव्यपरमाणु-अपेक्षया स्वरूपं ज्ञायते । प्रदेशो नामापेक्षिकः सर्वसूक्ष्मस्तु परमाणोरवगाहेति । न कोऽपि परमाणु यत् द्वयोः
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५।८ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ११ प्रदेशयोः प्रवगाहेते । अन्यच्च धर्माधर्माकाशजीवानां प्रदेशाः प्रापेक्षिकाऽपि सूक्ष्माः न स्थूलाः । अत्रतदपि सत्यं यत् प्रदेशस्वरूपज्ञानात् तेषामियत्ताज्ञानमपि ।। ५-७ ।। * सूत्रार्थ-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य असंख्यप्रदेशी हैं ॥ ५-७ ।।
ॐ विवेचनामृत धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय प्रत्येक के असंख्यात प्रदेश हैं। वस्तु-पदार्थ के साथ प्रतिबद्ध निविभाज्य सूक्ष्म अंश प्रदेश कहलाता है। ऐसे प्रदेश धर्मास्तिकाय के और अधर्मास्तिकाय के असंख्यात-असंख्यात होते हैं।
विशेष-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन दोनों के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं। प्रदेश द्रव्य के सूक्ष्म अंश को कहते हैं। जिसके विभाग की कल्पना सर्वज्ञ-श्री केवली भगवन्त की बुद्धि से भी नहीं हो सकती है। ऐसे अविभाज्य सूक्ष्म अंश को निरंश अंश भी कहने में आता है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों एक-एक व्यक्तिरूप हैं। इनके प्रदेश "अविभाज्य अंश" असंख्यात-असंख्यात हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उक्त दोनों द्रव्य एक ऐसे अखंड स्कन्ध रूप द्रव्य हैं कि जिसके असंख्यात अविभाज्य सूक्ष्म अंश केवल बुद्धि से कल्पित किये जाते हैं। वे वस्तु-पदार्थभूत स्कन्ध से पृथक् भिन्न नहीं होते हैं। परन्तु बुद्धि की अपेक्षा से उसका माप समझने का होता है ।। (५-७)
* प्रत्येकजीवस्यप्रदेशानां परिमारणः *
के मूलसूत्रम्
जीवस्य च ॥५-८॥
* सुबोधिका टीका * __ज्ञान-दर्शनरूपोपयोगस्वभावाः जीवद्रव्याः अनन्ताः, एकजीवस्य चासङ्घय याः प्रदेशाः भवन्ति । धर्माधर्मद्रव्यप्रदेशाः लोकेषु सततविस्तारयुक्ताः भवन्ति । यादृशाः तादृशाः एव, न घटन्ते न च वर्धन्ते । किन्तु जीवस्य प्रदेशाः संकुचनविस्तरणयुक्ताः । जीवस्य शरीरप्रामाण्यात् । यथा गजे जीवः वर्तते तदा तस्य समग्रप्रदेशाः गजहुत्याः, किन्तु सैव जीवः गजात् पिपीलिकायां प्रविशति उत्पद्यते वा तर्हि तस्याकारप्रमाणाः तयुक्ताः ।। ५-८ ।।
* सूत्रार्थ-प्रत्येक जीव भी असंख्यातप्रदेशी है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश संख्या में समान हैं ।। ५-८ ॥ ..
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१२]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
विवेचनामृत 5
ज्ञानदर्शनरूप उपयोग स्वभाव बाले जीवद्रव्य अनन्त होते हैं । जितने प्रदेश लोकाकाश और धर्म एवं अधर्म के हैं, उतने ही प्रदेश एक-एक जीवद्रव्य के भी हैं ।
विशेष - जीव अनन्त हैं । के जितने असंख्यात प्रदेश हैं, इतने समस्त जीवों के भी असंख्यात प्रदेश काय और अधर्मास्तिकाय के भी इतने ही प्रदेश असंख्यात होते हैं ।
[ ५६
5 मूलसूत्रम्
प्रत्येक जीव के प्रदेश समान असंख्यात हैं । अर्थात् एक जीव ही प्रसंख्यात प्रदेश दूसरे जीव के हैं । इतना ही नहीं किन्तु होते हैं । किसी जीव के कम या अधिक भी नहीं । धर्मास्ति
सारांश यह है कि - जीव द्रव्य व्यक्तिरूप से अनन्त हैं और प्रत्येक जीव व्यक्तिगत एक अखण्ड वस्तु धर्मास्तिकाय के समान असंख्यात प्रदेश परिमाण वाला है ।। ५-८ ।।
* श्राकाशप्रदेशानां परिमाणः
श्राकाशस्यानन्ताः ॥ ५-६ ॥
* सुबोधिका टीका *
वर्त्तते ।
विशेषदृष्ट्या जीवाजीवद्रव्याणामा माधारभूतं लोकाकाशम संख्यातप्रदेशवर्त्ती शेषमलोकाकाशमनन्तापर्यवसानम् । यदनन्तादसंख्यातानां न्यूनत्वादनन्तमेव धर्माधर्मैकजीवद्रव्यलोकाकाशानां प्रदेशाः समानाः । लोकालोकाकाशस्यानन्ताप्रदेशाः ; लोकाकाशस्य तु धर्माधर्मैकजीवैः तुल्याः ।। ५-६ ।।
शेषः ।
* सूत्रार्थ - श्राकाश ( लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों को मिलाकर ) अनन्तप्रदेशी है ।। ५-६ ।।
5 विवेचनामृत 5
वास्तव में, जीव और अजीव का आधारभूत लोकाकाश श्रसंख्यातप्रदेशी होता है । क्योंकि अनन्त में से असंख्यात कम होने पर भी अनन्त ही शेष रहता है ।
सारांश यह है कि-आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेद हैं । यहाँ पर आकाश के अनन्तप्रदेशों का कथन लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों के सम्मिलित प्रदेशों की अपेक्षा है । प्रत्येक के प्रदेशों की विचारणा करने में आये तो लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात हैं और अलोकाकाश के प्रदेश अनन्त हैं ।। ५-६ ।।
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५०१० ]
पञ्चमोऽध्यायः
* पुद्गलप्रदेशानां परिमाणः *
ॐ मूलसूत्रम्संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ ५-१०॥
* सुबोधिका टीका * पुद्गलानां संख्येया, प्रसंख्येया, अनन्ताश्च प्रदेशाः भवन्ति । अनन्ता इति वर्तन्ते ।
अन्यच्च पूरण-गलनस्वभावः पुद्गलः, अस्य परमाणुतः महास्कन्ध पर्यन्तानेकविचित्रावस्थाः। संख्यातपरमाणूनां स्कन्धः संख्यातप्रदेशी, असंख्यातपरमाणूनां स्कन्धः असंख्यातप्रदेशी अनन्तपरमाणूनाञ्च स्कन्ध अनन्तप्रदेशी भवति । अणुस्कन्धौ तु पुद्गलस्य द्वौ भेदौ, यदपि अणुरपि पुद्गलम्, पुद्गलमपि पूरणगलन स्वभाव युक्तम्, अत अस्यापि प्रदेशाः असंख्यातकाः ? किन्तु अत्र स्कन्धानां प्रदेशा एव कथिताः ।
अत्रोच्यते अनेकद्रव्यपरमाणूनां यथा घटादिकाः पुद्गलस्कन्ध-समप्रदेशाः तथा परमाणुभिः नैव ॥ ५-१० ।।
* सूत्रार्थ-पुद्गल द्रव्य के प्रदेश संख्यात, असंख्यात और अनन्त भी होते हैं ।। ५-१० ॥
विवेचनामृत है पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं।
जीव की भांति पुद्गल द्रव्य भी अनन्त हैं। किसी पुद्गल द्रव्य के संख्यात प्रदेश होते हैं । किसी पुद्गल द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं तथा किसी पुद्गल द्रव्य के अनन्तप्रदेश होते हैं । संख्यात प्रदेश वाले पुद्गल द्रव्यों में भी अनेक प्रकार की तरतमता होती है। जैसे-किसी पुद्गल द्रव्य में दो प्रदेश, किसी में तीन प्रदेश, किसी में चार प्रदेश, किसी में सौ, किसी में हजार, किसी में लाख, किसी में करोड़ तथा किसी में उससे भी अतिघने प्रदेश होते हैं। इस तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेश वाले पुद्गलों में भी अनेक प्रकार की तरतमता-भिन्नता होती है।
.....धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के प्रदेश संकोच तथा विकास की क्रिया से रहित हैं। नित्य विस्तृत ही रहे हुए हैं। जीव-आत्मा के और पुद्गल के प्रदेश संकोच तथा विकास पामते हैं।
जब जीव-आत्मा हाथी के शरीर में से निकलकर कीड़ी के शरीर में आता है तब आत्मप्रदेशों का संकोच होने से समस्त प्रात्मप्रदेश कीड़ी के शरीर में ही समा जाते हैं।
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१४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१० इसी तरह छोटा शरीर भी ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों आत्मप्रदेशों का विस्तार होता जाता है। आत्मप्रदेश देह-शरीर के बाहर रह जाँय ऐसा होता नहीं है तथा देह-शरीर के अमुक भाग में न हो ऐसा भी नहीं होता है ।
पुदगलों का भी संकोच और विस्तार होता है। यह तो सब प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। जैसे-एक बड़े कमरे में प्रसरित दीपक-दीवा के प्रकाश के प्रदेश एक छोटे कक्ष में रखने में प्रा जाय तो भी संकोच पाकर इतने ही विभाग में सिमट जाते हैं। दोपक को बाहर निकालने पर प्रकाश के प्रदेश विकसित होने से वे सम्पूर्ण बड़े कमरे में प्रसरित हो जाते हैं ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय के प्रदेश मूल द्रव्य से कभी पृथग नहीं होते हैं अर्थात् अलग-भिन्न होते नहीं हैं। क्योंकि धर्मास्तिकाय आदि अरूपी हैं । अरूपी द्रव्यों में संश्लेष का और विश्लेष का अभाव होता है ।
पुद्गल द्रव्य के प्रदेश तो मूल द्रव्य से पृथग-छूटे पड़ते हैं तथा फिर मिल भी जाते हैं। एक स्कन्ध के प्रदेश उस स्कन्ध में से पृथग-छटे होकर अन्य स्कन्ध में जुड़ जाते हैं। इसलिए द्रव्य के स्कन्धों के प्रदेशों की संख्या अनियत ही रहती है। एक ही स्कन्ध में कई बार संख्यात, तो कई बार असंख्यात, तो कई बार अनन्त प्रदेश भी होते हैं। अर्थात्-पुद्गल द्रव्य के स्कन्ध धर्मास्तिकायादि चार द्रव्यों के समान नियत रूप नहीं हैं। वे कोई संख्यात, कोई असंख्यात, कोई अनन्तप्रदेशी हैं तथा कई अनन्तानन्त प्रदेशी भी हैं ।
पुद्गल तथा अन्य द्रव्यों के प्रदेशों में परस्पर यह भिन्नता है कि पुद्गल के प्रदेश अपने स्कन्ध से भिन्न-जुदे हो सकते हैं। किन्तु धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यों के प्रदेश अपने स्कन्धों से पृथक्-जुदे नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वे अमूर्त हैं और अखण्डित रहना ही उनका स्वभाव है।
मिलने की और बिखरने की क्रिया तो केवल पुद्गल स्कन्धों में ही होती है तथा उनके छोटे-बड़े अंशों को अवयव कहते हैं। अवयव का अर्थ स्कन्ध से पृथक् होने वाला अंश है। वह धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्यों और परमाणु के नहीं होता है।
मूत्तिमान एक परमाणु पुद्गलरूप द्रव्य है। उसका आदि, मध्य और प्रदेश नहीं है । वह अविभाज्य द्रव्य है। उसके अंश की कल्पना बुद्धि से भी नहीं होती। यह पुद्गल का वास्तविक स्वरूप है तथा द्वयणुकादि स्कन्धों की उत्पत्ति भी इसी से होती है।
कहा गया है कि "कारणमेव सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः" यह परमाणु का लक्षण है। द्वयणुकादिक से यावत् अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धों का कारण परमाणु है। यह होते हुए भी परमाणु का कोई कारण नहीं है।
यह द्रव्य व्यक्ति रूप से निरंश है तथा नित्यरूप है। किन्तु पर्यायरूप से ऐसा नहीं कह सकते हैं क्योंकि एक परमाणु में भी वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शादिक अनेक पर्याय पाये जाते हैं। इसलिए पर्याय से उसके अंश की भी कल्पना की गई है।
वे परमाणु 'द्रव्य' के भाव रूप अंश हैं। एक व्यक्तिगत द्रव्य परमाणु में वर्णादिक भावपरमाणु अनेक माने गये हैं।
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५।११ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ १५ * प्रश्न-धर्मास्तिकायादिक के प्रदेश तथा पुद्गल के परमाणु में क्या भिन्नता है ?
उत्तर–परिमाण की दृष्टि से किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है, इतना ही नहीं किन्तु क्षेत्र प्रमाण भी दोनों का समान है तथा वे अविभाज्य अंश हैं, तो भी एक आकाशप्रदेश के अवगाह में भी जैसे अनन्त परमाणु समा सकते हैं, ऐसा स्वभाव धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों का नहीं है।
जैसे-परमाणु अपने द्वयणुकादि स्कन्ध से पृथक्-जुदा रहता है, वैसे प्रदेश अपने स्कन्ध से पृथक्-अलग नहीं होते हैं। परिमाण की दृष्टि से प्रदेश तथा परमाणु समान हैं, तो भी भिन्न स्वभावी हैं ।। ५-१० ।।
* परमाणौ प्रदेशानां प्रभावः *
卐 मूलसूत्रम्
नारणोः ॥५-११॥
* सुबोधिका टोका * परमाणोः प्रदेशाः नैव जायन्ते। अनादिरमध्योऽप्रदेशो हि परमाणुः । प्रत्राणोः प्रदेशानां निषेधः कृतः तत् द्रव्यरूपप्रदेशानामेव । अर्थात् परमाणुः स्वयमपि प्रदेशरूपैकप्रदेशवानपि । द्वितीयादिकप्रदेशाभावात् । निश्चयनयेन तु सर्वाणि द्रव्याणि प्रात्मप्रतिष्ठितानि आधारापेक्षाभावात्। अतः धर्माधर्मपुद्गलजीवद्रव्याणि अपि वस्तुतः स्वाधारवन्ताः ।। ५-११ ।।
* सूत्रार्थ-परमाणु के प्रदेश नहीं होते हैं ।। ५-११ ।।
卐 विवेचनामृत परमाणु के प्रदेश नहीं होते हैं। उसके आदि, मध्य और प्रदेश इनमें से कुछ भी नहीं होता क्योंकि जो अनेकप्रदेशी होगा उसी में आदि मध्य विभाग हो सकते हैं। जो एकप्रदेशी है वह तो अपना स्वयं का एक प्रदेश ही रखता है। अत: उसमें मध्य का विभाग नहीं हो सकता।
अणु “परमाणु" अप्रदेशी है। अर्थात्-अणु के-परमाणु के प्रदेश नहीं होते हैं ।
अणु स्वयं ही अविभाज्य अन्तिम अंश है। अणु के भी प्रदेश होवे तो वह अणु नहीं कहला सकता क्योंकि अणु को आँख से कदापि नहीं देख सकते हैं। उसे तो विशिष्ट ज्ञान के बल से ही जाना जाता है। अणु निरवयव है। उसके आदि, मध्य और अन्तिम कोई भी अवयव नहीं है।
आज के युग में वैज्ञानिकों ने माना हुआ है कि अणु यह वास्तविक अणु नहीं है, किन्तु असंख्यात प्रदेशात्मक वा अनन्त प्रदेशात्मक एक स्कन्ध है।
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१६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१२ * प्रश्न -- पुद्गल द्रव्य के लिए अनन्त पद की आवृत्ति पूर्वसूत्र से ले सकते हो, किन्तु
अनन्तानन्त पद की व्याख्या किस सूत्र के आधार पर है ? उत्तर---अनन्त पद सामान्य है। वह समस्त प्रकार के अनन्तों का बोध करा सकता है । इसलिए वर्तमान अध्याय के हवें सूत्र की अनुवृत्ति द्वारा उक्त अर्थ किया गया है ।। ५-११ ।।
* धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां आधारक्षेत्रः *
卐 मूलसूत्रम्
लोकाकाशेऽवगाहः ॥५-१२॥
* सुबोधिका टीका * प्रवेशकानां पुद्गलादीनामवगाहिनामवगाहो लोकाकाशे भवति अवगाह्यते इति अवगाहः । सर्वाणि द्रव्याणि लोकाकाशे वर्तन्ते । सादि, अनादिभेदाभ्याम् द्विविधम् तेषां प्रतिष्ठापनम् । सामान्यतः सर्वाणि द्रव्याणि अनादितः लोकाकाशे एव समाविष्टानि, किन्तु विशेषतः जोवपुद्गलानां अवगाहः सादीति उच्यते । यत् द्वेऽपि द्रव्ये सक्रिय क्रियाशीले, अनयोः क्षेत्राद् क्षेत्रान्तरं भवतः । अतएव एषां लोकाकाशाभ्यन्तरमेव क्वचिदपि अवगाहनं भवति । किन्तु धर्माधर्मद्रव्याणि नेदृशानि । तानि तु नित्यव्यापिनि अतः लोकेषु तेषामवगाहः सदैव तदवस्थं नित्यञ्च ।। ५-१२ ।।
* सूत्रार्थ-धर्मादि चारों द्रव्यों का अवगाह-प्रवेश लोकाकाश में ही है। जो अवगाही अर्थात् रहने वाले द्रव्य हैं, उनका अवगाह 'स्थिति स्थान' समस्त लोकाकाश है ।। ५-१२ ।।
ॐ विवेचनामृत प्रवेश करने वाले पुद्गल आदि का अवगाह लोकाकाश में ही होता है। अवगाह सम्पूर्ण लोक में सदा तदवस्थ रहता है, नित्य है।
आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इस तरह दो भेद हैं। जितने प्रकाश में धर्मास्तिकायादि द्रव्य रहे हुए हैं उतना आकाश लोकाकाश है तथा शेष आकाश अलोकाकाश है । इस तरह लोकाकाश की व्याख्या से ही धर्मास्तिकायादिक द्रव्य लोकाकाश में रहे हुए हैं, यह सिद्ध होता है। लोकाकाश में अन्य-दूसरे द्रव्य को अवगाह-जगह देने का स्वभाव है। इससे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही रहे हुए होने से जीव और पुद्गल भी लोकाकाश में ही रहते हैं। क्योंकि, जीवों को तथा पुद्गलों को गति करने में धर्मास्तिकाय की और स्थिति करने में अधर्मास्तिकाय की सहायता लेनी पड़ती है। जहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय होते हैं, वहाँ ही जीव और पुद्गल गति-स्थिति कर सकते हैं ।
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५॥१३ ]
पञ्चमोऽध्यायः
अलोकाकाश का अन्य द्रव्यों को अवगाह-जगह देने का स्वभाव होते हुए भी वहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नहीं होने से जीव और पुद्गल गति-स्थिति नहीं कर सकते हैं। आकाश का कोई आधार नहीं। वह तो स्वप्रतिष्ठित है ।
* विशेष यह है कि-इस विश्व-संसार में पाँच द्रव्य अस्तिकाय रूप हैं। इनमें आधारआधेयभाव किस प्रकार है ?
क्या इनके आधार के लिए इनसे कोई भिन्न द्रव्य है ? या इन पाँचों में ही कोई एक द्रव्य आधार रूप है ? इस प्रकार के उत्तर के लिए ही प्रस्तुत सूत्र है। स्थिति करने वाले द्रव्यों को आधेय कहते हैं और वे जिसमें स्थित हों वह आधार है। उक्त पाँच द्रव्यों में आकाश आधार रूप है तथा शेष चार द्रव्य प्राधेय हैं। यह प्रत्युत्तर केवल व्यवहार दृष्टि से है, निश्चयदृष्टि से नहीं।
निश्चयदृष्टि से तो समस्त द्रव्य स्वप्रतिष्ठित ही हैं। अर्थात् अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं, कोई किसी में नहीं रहता है। * प्रश्न-व्यवहार दृष्टि से धर्मास्तिकायादि चार द्रव्यों का आधार आकाश माना जाता
है तो आकाश का आधार क्या है ? उत्तर-आकाश को किसी द्रव्य का आधार नहीं है, क्योंकि इससे विस्तीर्ण अथवा इसके बराबर परिमाणवाला कोई पदार्थ नहीं है। इसलिए व्यवहार और निश्चय दृष्टि से प्राकाश स्वप्रतिष्ठित ही है। अन्य धर्मास्तिकायादिक द्रव्य इससे न्यून परिमाण वाले हैं।
आकाश के एक देश-तुल्य समान है। इस हेतु से आधाराधेय "अवगाहावगाही" भाव माना गया है। आकाश सबसे बड़ा द्रव्य है ।। ५-१२ ।।
* धर्मास्तिकायादीनां स्थितिक्षेत्रस्य मर्यादा *
卐 मूलसूत्रम्
धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ ५-१३ ॥
-- * सुबोधिका टीका * अवगाहः द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां सम्भवति । प्रथमस्तु जनस्य मनसः इव द्वितीयस्तु नीरक्षीरवत् । धर्माधर्मयोः कृत्स्ने लोकाकाशेऽवगाहः भवति। नीरक्षीरावगाहः प्रकृताभीष्टः, कृत्स्नेनेति विवक्षितम् । तथा च यथा प्रात्मनः शरीरे व्याप्तिः तथैव धर्माधर्मयोः अनादिकालेन व्याप्तिः । तद् कोऽपि लोकस्य प्रदेशः यत्र धर्माधर्मद्रव्ययोरभावः ।। ५-१३ ॥
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१४
* सूत्रार्थ - धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का भवगाह सम्पूर्ण लोकाकाश
में है ।। ५-१३ ।।
१८]
विवेचनामृत
धर्मास्तिकाय द्रव्य और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अवगाह सम्पूर्ण लोकाकाश में ही है । अवगाह की सम्भावना दो प्रकार से होती है । एक तो पुरुष के मन के समान और दूसरे दूध- पानी की तरह । इनमें दूध-पानी का सा अवगाह प्रकृत में वांछित है । यह कृत्स्न शब्द से व्यक्त होता है ।
जिस प्रकार जीव- श्रात्मा देह शरीर में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय भी लोकाकाश में व्याप्त होकर अनादिकाल से हैं ।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं । लोकाकाश का एक भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय न हों ।
अतः धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश इन तीनों के प्रदेश समान ही हैं । जितने प्रदेश धर्मास्तिकाय के हैं, इतने ही प्रदेश अधर्मास्तिकाय के हैं । इतना ही नहीं किन्तु लोकश के भी उतने ही प्रदेश हैं ।
5 मूलसूत्रम्
एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ।। ५- १४ ॥
* सुबोधिका टीका *
प्रप्रदेशसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशानां पुद्गलानापुद्गलद्रव्यस्य चत्वारो भेदाः । कादिष्वाकाशप्रदेशेषु भाज्योऽवगाहः । भाज्य विभाज्य विकल्प्य इत्यनर्थान्तरम् । तद्यथा परमाणोरेकस्मिन्नेव प्रदेशे, द्वयणुकस्यैकस्मिन् द्वयोश्च । त्र्यणुकस्यैकस्मिन्द्वयोस्त्रिषु च एवं चरमाणुकादीनां संख्येयासंख्येय प्रदेशस्यैकादिषु संख्येयेषु असंख्येयेषु च, अनन्तप्रदेशस्य च ।
पुद्गलद्रव्ये यदणुद्रव्यं तस्यैकप्रदेशे किन्तु स्कन्धानां योग्यतानुसारं एकतरसंख्यातप्रदेशेषु श्रवगाहनं सम्भवति । नात्र शङ्का कार्या, परिणमनविशेषेणैतादृशंमपि सम्भवति । यथा शतकिलो प्रमाणकार्पासस्थाने शतायत् तनुषु अधिकप्रमारणी वस्तुनां लयः । धिकलोहप्रस्तरायतं सम्भवति । यथैककक्षे अनेकदीपप्रकाश: समायोजयितुं सम्भवं तथैव प्रकृतेऽपि ।। ५-१४ ।।
-
-
* सूत्रार्थ - एक से लेकर प्रसंख्यात पर्यन्त जितने प्रदेशों के भेद सम्भव हैं तथा प्रदेश से लेकर अनन्त प्रदेश तक जितने स्कन्धों के भेद सम्भव हैं, उनका यथायोग्य श्रवगाह होता है ।। ५-१४ ।।
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५।१४ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ १६
ॐ विवेचनामृत ॥ पुद्गलद्रव्य में जो अणुद्रव्य है, उसका एक ही प्रदेश में किन्तु स्कन्धों की योग्यतानुसार एक से लेकर असंख्यात प्रदेशों में अवगाहन होता है। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध असंख्यात प्रदेशों में अवगाहन नहीं कर सकते, क्योंकि लोक के प्रदेश असंख्यात ही हैं, न कि अनन्त । पुद्गल के सम्बन्ध में यह तथ्य विस्तार पूर्वक नीचे प्रमाणे विचारिये ।
पुद्गल द्रव्य व्यक्ति रूप में अनेक हैं। प्रत्येक पुद्गल द्रव्य के अवगाह क्षेत्र का अर्थात् स्थितिक्षेत्र का प्रमाण भिन्न-भिन्न होता है। कोई पुद्गल द्रव्य लोकाकाश के एक प्रदेश में रहता है, कोई पुद्गलद्रव्य लोकाकाश के दो प्रदेशों में रहता है, कोई पुद्गलद्रव्य लोकाकाश के तीन प्रदेशों में रहता है, यावत् कोई पुद्गलद्रव्य लोकाकाश के असंख्यप्रदेशों में भी रहते हैं ।
__ जैसे-परमाणु एक प्रदेश में ही रहता है। 'द्वयणुक' (दो परमाणुओं का स्कन्ध) एक प्रदेश में कि दो प्रदेश में रहता है। 'व्यणुक' (तीन परमाणुओं का स्कन्ध) एक, दो या तीन प्रदेशों में रहता है। इस तरह संख्यात प्रदेशवाला स्कन्ध एक, दो, तीन, यावत् संख्यात प्रदेशों में भी रह सकता है। असंख्य प्रदेशवाला स्कन्ध एक, दो, तीन, यावत् असंख्यातप्रदेशों में भी रह सकता है।
___ अनन्तप्रदेशवाला स्कन्ध एक, दो, तीन, यावत् संख्यात अथवा असंख्यातप्रदेशों में भी रह सकता है।
जिस तरह पुद्गलद्रव्य व्यक्ति रूपे अनेक होने से प्रत्येक के अवगाह क्षेत्र का प्रमाण भिन्नभिन्न होता है, उसी तरह पुद्गलद्रव्य के परिणमन में विविधता-विचित्रता होने से एक ही पुद्गलद्रव्य के अवगाह क्षेत्र का प्रमाण भी भिन्न-भिन्न काल की अपेक्षा भिन्न-भिन्न होता है ।
विवक्षित समय में एकप्रदेश में रहे हुए अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कालान्तर में दो-तीन यावत् असंख्यातप्रदेशों में भी रहते हैं ।
इस तरह विवक्षित समय में असंख्यातप्रदेशों में रहा हुआ स्कन्ध कालान्तर में एकादि प्रदेश में भी रहता है । सामान्य जो स्कन्ध जितने प्रदेशों का है वह उतने प्रदेशों में अथवा उससे अल्प प्रदेशों में भी रह सकता है, किन्तु कदापि उससे अधिक प्रदेशों में नहीं रहता है।
पुद्गल द्रव्य का अवगाहक्षेत्र न्यून में न्यून अर्थात् कम-से-कम एकप्रदेश और अधिक से अधिक लोकाकाश जितना असंख्यातप्रदेश होता है। चाहे जितने विशाल पुद्गल स्कन्ध हों वे भी लोकाकाश में सब समा जाते हैं।
* प्रश्न-एक प्रदेश में अनन्तप्रदेशी स्कन्ध किस तरह रह सकते हैं ?
उत्तर-जैसे पुद्गलों का अत्यन्त सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होने का स्वभाव है, वैसा आकाश का पुद्गलों को उसी माफिक अवगाह देने का स्वभाव है। अतः अनन्तप्रदेशी एक स्कन्ध तो क्या, किन्तु अनन्तप्रदेशी अनन्त स्कन्ध भी एक प्रदेश में अवश्य ही रह सकते हैं।
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२० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५१५ जैसे-* एक रूम-ओरड़ा के एक-एक प्रदेश में तेज के हजारों पुद्गल रहते हैं।
* बारह इंच लम्बी रुई की पूणी को संकेली लेने में आ जाय तो एक इंच से छोटीनन्ही हो जाती है।
* दुग्ध-दूध से पूर्ण भरे हुए प्याले में जगह नहीं होते हुए भी उसमें शक्कर डालने में आ जाय तो भी वह समा जाती है। आग, जैसे-अग्नि का जलाने का स्वभाव है और तृण-घास का जलने का स्वभाव है, वैसे पुद्गलों का अत्यन्त सूक्ष्म रूप में परिणमन कर एकादि प्रदेशों में रहने का स्वभाव है तथा आकाश का भी उसी माफिक अवगाह देने का स्वभाव है।
आधेयभूत धर्मादि चारों द्रव्य समस्त आकाशव्यापी नहीं हैं। वे आकाश के एक परिमित भाग में स्थित हैं। जितने विभाग में वे स्थित हैं उस आकाश विभाग का नाम लोक है ।
पांच अस्तिकाय रूप ही लोक है, इसके परे केवल आकाश अनन्त रूप है, उसको ही 'अलोकाकाश' कहते हैं।
जहाँ अन्य द्रव्यों का अभाव हो, वह अलोक कहलाता है और उक्त कारणों से आधाराधेय भाव भी होता है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्ति काय ये दोनों अखण्ड द्रव्य हैं, इतना ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण लोक में स्थित हैं। वास्तविक रूप से देखा जाय तो आकाशद्रव्य के दो विभागों की कल्पनाबुद्धि उन्हीं धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दो द्रव्यों से होती है तथा लोकालोक की मर्यादा का सम्बन्ध भी इन्हीं से प्रसिद्ध है ।। ५-१४ ।। ॐ मूलसूत्रम्
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ ५-१५ ॥
* सुबोधिका टीका * जीवानामवगाहो लोकाकाशप्रदेशानामसंख्येयभागादिषु भवति । प्रा सर्वलोकादिव। प्रतिजीवापेक्षण इदमपि। यथा अङ्गष्ठस्यासंख्येयभागप्रमाणं शरीरजघन्यावगाहना।
कृत्स्नेऽपि लोके समुद्घातापेक्षया व्याप्तिः । यत् केवलिनः भगवन्तः समुद्घातयन्ति तदा तेषामात्मप्रदेशाः क्रमेण दण्डकपाटप्रतरलोकपर्णेषु भवन्ति ॥ ५-१५ ।।
* सूत्रार्थ-लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकपर्यन्त जीवों का अवगाह हुमा करता है ।। ५-१५ ।।
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पञ्चमोऽध्यायः
विवेचनामृत 5
लोकाकाश के अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग से प्रारम्भ करके सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव
रहते हैं।
“लोकाकाशेऽवगाहः (५ - १२ ) " इस सूत्र में धर्मास्तिकायादिक द्रव्य लोकाकाश में रहते हैं ऐसा कहा है, तो भी सम्पूर्ण लोकाकाश में रहते हैं कि उसके अमुक भाग में रहते हैं, इस तरह कहा नहीं है । इसीलिए इन तीन (५-१३, ५-१४, ५-१५) सूत्रों में यह कहने में आया है ।
५।१६ ]
[ २१
लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उनके असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाशपर्यन्त जीवों का अवगाह हुआ करता है ।
सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्ति समुद्घात की अपेक्षा से है । क्योंकि जब केवली भगवन्त समुद्घात करते हैं, उस समय उनकी आत्मा के प्रदेश क्रम से दंड, कपाट, प्रतर एवं लोकपर्यन्त हुआ करते हैं । उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि पुद्गल के माफिक जीव भी व्यक्ति रूप में अनेक होते हुए भी प्रत्येक जीव के अवगाह क्षेत्र का प्रमाण भिन्न-भिन्न होता है । जीवद्रव्य के श्रवगाह क्षेत्र का प्रमारण कम में कम अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग जितना और अधिक में अधिक सम्पूर्ण लोक है । कोई जीव अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग में रहता है, कोई जीव दो प्रसंख्यातवें भाग में रहता है, कोई जीव तीन असंख्यातवें भाग में रहता है, इस तरह यावत् कोई जीव सम्पूर्ण लोक में रहता है ।
जब केवल भगवन्त समुद्घात करते हैं तब उनके प्रात्मप्रदेश सम्पूर्ण लोकव्यापी बन जाते हैं । समुद्घात समय में जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होकर रहते हैं। शेष समय में तो अपने शरीर प्रमाण आकाशप्रदेश में रहते हैं । ज्यों-ज्यों शरीर बड़ा होता है त्यों-त्यों अधिक-अधिक आकाशप्रदेशों में रहते हैं तथा ज्यों-ज्यों शरीर छोटा होता है त्यों-त्यों कम-कम सीमित प्रकाशप्रदेशों में रहते हैं ।
जैसे समकाल में अनेक जीवों के अवगाह के क्षेत्र में प्रमारण भिन्न-भिन्न होता है वैसे ही भिन्नभिन्न काल की अपेक्षा एक ही जीव के अवगाह के क्षेत्र का प्रमाण भिन्न होता है । हाथी के भव को पाया हुआ जीव हाथीप्रमाण शरीर में रहता है। वही जीव कीड़ी के भव को पाते हुए कीड़ीप्रमाण शरीर में रहता है । वही जीव पुनः अन्य भव में अन्य अन्यभव के शरीर में रहता है ।। ५- १५ ।।
* जीवस्य भिन्नावगाहनासु हेतुः
5 मूलसूत्रम्
प्रदेशसंहार - विसर्गाभ्यां - प्रदीपवत् ॥ ५-१६ ॥
* सुबोधिका टीका *
प्रदीपवत् जीवस्य प्रदेशानां संहारविसर्गाविष्टो । यथा तैलवर्त्यग्न्युपादानवृद्धः प्रदीपः बृहतीमपि कूटागारशालामण्वीमपि प्रकाशयति ।
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२२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५११६ _माणिकावृतः माणिकां द्रोणावृतो द्रोणमाढकावृतः पाढकं प्रस्थावृतः प्रस्थं पाण्यावृतः पाणिम् यथा एवमेव प्रदेशानां संहार-विसर्गाभ्यां जीवः महान्तं अणु वा पञ्चविधं वपुस्कन्धं धर्माधर्माकाश-अणु वा पञ्चविधं वपुस्कन्धं धर्माधर्माकाश-पुद्गलजीवप्रदेशसमुदायं व्याप्नोति इति। धर्माधर्माकाशजीवानां परस्परेण पुद्गलेषु च वृत्तिनं अमूर्तत्वात् विरुद्ध्यते ।
दीपकस्य दृष्टान्तमत्रसंकोचविस्तारस्वभावप्रतिपादयितुमेव । नेतद् यत् यथा दीपः कृत्स्नं लोकं नैव व्याप्नोति तथैवात्मापि । वा दीपकोऽनित्यः तथैवात्माऽपि अनित्यम् । दृष्टान्तदाष्र्टान्ते सर्वथा समानतायाः मभावो वर्त्तते । अन्यथा दृष्टान्तदार्टान्तेन कोऽपि भेदः एवञ्च स्याद्वानुसारं दीपकादिनः अपि अनित्यैवेति कथितुमशक्याः । यथा सर्वथाकाशम् न नित्यम् । तथैव दीपकोऽपि नैवानित्यः । यत् श्रीजैनसिद्धान्तानुसारं वस्तुनः उत्पादादित्रयात्मका स्थितिः मान्या । अत्र सति प्रदेशसंहारविसर्गसम्भवेकस्मादसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति नैकप्रदेशादिष्विति ?
समाधानं क्रियते यत् सयोगत्वात् संसारिणाम, चरमशरीरत्रिभागहीनावगाहित्वाच्च सिद्धानाम् । यत् सिद्धाः कर्मनोकर्मविषये सर्वथा हीनाः वर्तन्ते ।
प्रतः तेषां विषये संकोचविस्तारस्याभावः ।। ५-१६ ।। * सूत्रार्थ-जीव के प्रदेश दीपक की तरह संकोच और विस्तार स्वभाव वाले
ॐ विवेचनामृत दीपक के समान जीवद्रव्य के प्रदेश संकोच और विस्तार स्वभाव वाले होते हैं। जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अवगाह के योग्य जितने बड़े शरीरानुसार क्षेत्र प्राप्त करता है उतने में ही वह अवगाहन करता है एवं जीव जब शरीर रहित हो जाता है तब उसी का प्रमाण अन्त्य शरीर से तीसरे भाग कम रहता है। किन्तु सशरीर अवस्था में असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक में निमित्त के अनुसार व्याप्त रहता है ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि जैसे प्रदीप का संकोच और विकास होता है वैसे जीवप्रदेशों का भी संकोच-विकास होता है । * प्रश्न-पुद्गल और जीव इन दोनों को संकोच-विकास पामने का स्वभाव होते हुए भी
पुद्गलद्रव्य एकप्रदेश में रह सकता है तथा जीवद्रव्य एक प्रदेश में नहीं रह सकता है। जीवद्रव्य का कम-से-कम अवगाहना क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग अर्थात अंगूल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशप्रदेश हैं। इसका क्या कारण है ?
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५।१७ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ २३
उत्तर-जीवों का संकोच-विकास स्वतन्त्रपने नहीं होता, किन्तु सूक्ष्म शरीर के अर्थात् कार्मण शरीर के अनुसार होता है। जितना संकोच-विकास कार्मण शरीर का होता है उतना ही संकोच-विकास जीव का होता है। कार्मण शरीर अनन्तानन्त पुद्गल का समूहरूप है। उसके अवगाहन का क्षेत्र कम-से-कम अंगुल के असंख्यातवें भाग होने से जीव-प्रात्मा का भी कम-से-कम अवगाहना क्षेत्र अंगुल का असंख्यातवाँ भाग होता है। * प्रश्न–सिद्ध भगवन्तों (के जीवों) की अवगाहना पूर्व के शरीर प्रमाण नहीं होती
अपितु पूर्व के शरीर से दो तृतीयांश (3) भाग क्यों रहती है ? उत्तर-देह शरीर का तीसरा भाग खोखला पोलवाला होता है। योगनिरोध काल में यह भाग पुराइ जाने से जीव-आत्मा के तीसरे भाग का संकोच हो जाता है। अत: सिद्धावस्था में जीव-आत्मा की अवगाहना पूर्व के देह-शरीर से 3 भाग ही रहती है ॥ ५-१६ ॥
* धर्मास्तिकायस्य अधर्मास्तिकायस्य च लक्षणः *
卐 मूलसूत्रम्गति-स्थित्युपग्रही धर्माऽधर्मयोरुपकारः ॥५-१७ ॥
* सुबोधिका टीका * गतिमतां पदार्थानां गतेः स्थितिमतां पदार्थानां स्थितेः उपग्रहः धर्माधर्मयोरुपकारो यथासंख्यम् । उपग्रहो निमित्तमपेक्षाकारणम् हेतुरिति अनर्थानन्तरम् । उपकारः प्रयोजनं गुणोऽर्थः इत्यनर्थान्तरम् । जीव-पुद्गलौ गतिमन्तौ। यदा एतानि द्रव्याणि गतियुक्तानि गमनरूपक्रियायां परिणतानि भवन्ति, तदा तेषां बाह्यनिमित्तहेतु धर्मद्रव्यं भवति । यथा द्रव्यसंग्रहे
गइ परिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं, अच्छताणेव सो णेई ॥ १८ ॥ ठाणजुदाण अधम्मो, पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं, गच्छन्ता व सो धरई ॥ १६ ॥ धर्माधर्मद्रव्याण्यतीन्द्रियाणि तथापि
तस्योपकार - प्रदर्शनेन तेषामस्तित्वं सिद्धम् ॥ ५-१७ ॥
* सूत्रार्थ-गतिमान पदार्थों की गति में और स्थितिमान पदार्थों की स्थिति में सहायता करना क्रम से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का उपकार 'गुण' है ॥ ५-१७ ॥
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२४ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
विवेचनामृत 5
गतिमान पदार्थों की गति में और स्थितिमान पदार्थों की स्थिति में उपग्रह करना, निमित्त बनना, सहयोग करना क्रमशः धर्मास्तिकाय द्रव्य का तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्य का उपकार है ।
[ ५।१७
उपग्रह, निमित्त अपेक्षा, कारण और हेतु ये पर्याय हैं । अर्थात् – यहाँ उपग्रह का अर्थ निमित्तकारण है तथा उपकार का अर्थ कार्य है । जीव और पुद्गलों में गति और स्थिति करने का स्वभाव है ।
जब जीव और पुद्गल गति करते हैं तब धर्मास्तिकाय द्रव्य गति में उनकी सहायता करता है तथा स्थिति करते हैं तब अधर्मास्तिकाय द्रव्य स्थिति में उनकी सहायता करता है । जीव- पुद्गल गतिस्थिति में सहायता करनी यही क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का कार्य है ।
जैसे - मत्स्य - मछली में चलने की और स्थिर रहने की शक्ति होते हुए भी उसको चलने में जल - पानी की और स्थिर रहने में बेट तथा जमीन आदि किसी अन्य पदार्थ की सहायता की अपेक्षा रहती है, नेत्र चक्षु में देखने की शक्ति होते हुए भी उसे प्रकाश की अपेक्षा रहती है, वैसे जीव- श्रात्मा को तथा पुद्गल को गति और स्थिति करने में क्रमश: धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय की सहायता लेनी ही पड़ती है। कारण कि धर्मास्तिकाय बिना गति नहीं हो सकती है और अधर्मास्तिकाय बिना स्थिति नहीं हो सकती है ।
* प्रश्न - जीव आत्मा और पुद्गल की गति और स्थिति केवल स्व-शक्ति से होती है । उसमें अन्य कोई कारण मानने की जरूरत नहीं। इसलिए ही नैयायिक तथा वैशेषिकादि दर्शनकार धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय इन दो द्रव्यों को नहीं मानते हैं ?
उत्तर - जो जीव- श्रात्मा और पुद्गल की गति तथा स्थिति केवल स्वशक्ति से होती हो तो लोकाकाश में उनकी गति एवं स्थिति क्यों नहीं होती ? लोकाकाश में ही क्यों होती है ? इसलिये गति स्थिति में स्वशक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई निमित्त कारण अवश्य ही होना चाहिए ।
बाह्य
स्वशक्ति अन्तरंग कारण है । केवल अन्तरंग कारण से कार्य नहीं होता । अन्तरंग तथा ये दोनों कारण मिलें तो ही कार्य होता है । जैसे- पक्षी में उड़ने की शक्ति है, किन्तु पंखों के पवन हवा न हो तो वह पक्षी नहीं उड़ सकता वैसे ही जीव और पुद्गल में गति स्थिति करने की शक्ति होते हुए भी जो बाह्य कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय न हो तो गति स्थिति न हो सके। इसलिए जीव और पुद्गल की गति के कारण तरीके धर्मास्तिकाय की तथा स्थिति के कारण तरीके अधर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है ।
* प्रश्न - जीव- प्रात्मा और पुद्गल की गति तथा स्थिति के बाह्य कारण तरीके आकाश को मानने से गति और स्थिति हो सकती है। जैसे – जल पानी, मत्स्य- मछली का आधार होते हुए भी तदुपरान्त गति स्थिति में भी कारण बनता है, वैसे प्रकाश को ही जीव- पुद्गल के आधार रूप में तथा गति स्थिति के कारण तरीके मानने से इष्ट की सिद्धि हो जाती है । अधर्मास्तिकाय को मानने की जरूरत नहीं ?
अतः धर्मास्तिकाय और
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५।१८ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ २५
उत्तर- जो प्रकाश ही गति स्थिति में कारण हो तो अलोकाकाश में गति स्थिति क्यों नहीं होती ? अलोकाकाश भी प्रकाश ही है । अलोकाकाश में जीव, पुद्गल की गति स्थिति नहीं होने से आकाश बिना अन्य कोई ऐसा द्रव्य होना चाहिए जो जीव- पुद्गल की गति स्थिति में कारण हो । तथा जो गति में कारण हो वह गति में कारण हो, वह स्थिति में कारण न हो सके। जो
स्थिति में कारण हो वह गति में कारण नहीं हो सके । कारण रूप में दो द्रव्य अवश्य होने ही चाहिये। धर्मास्तिकाय |
अतः गति और स्थिति के भिन्न-भिन्न वे दो द्रव्य हैं - धर्मास्तिकाय और
"गतिरूपे परिणत जीव - पुद्गलों की गति में सहायक बनना" यह धर्मास्तिकाय का लक्षण है तथा "स्थितिरूपे परिणत जीब- पुद्गलों की स्थिति में सहायक बनना " यह अधर्मास्तिकाय का लक्षण है । [ लक्षण यानी वस्तु को प्रोलखाण कराने वाला असाधारण ( अन्य वस्तु में न रहे वैसा ) धर्म ] ।। ५- १७ ।।
5 मूलसूत्रम् -
श्राकाशस्यावगाहः ॥ ५- १८ ॥
* सुबोधिका टीका * धर्माधर्मद्रव्ये कृत्स्ने लोके नित्यव्याप्ते तयोः प्रदेशानां लोकाकाशस्य प्रदेशैः विभागमशक्यम् । श्रतः प्रवगाहिनां धर्माधर्मपुद्गलजीवानामवगाहः श्राकाशस्योपकारः धर्माधर्मयोरन्तः प्रवेशसम्भवेन पुद्गल - जीवानां संयोग-विभागैश्चेति । बहवस्तु " शब्दगुणकमाकाशम्" इति मन्यन्ते । किन्तु मिथ्यैतद्, यत्शब्दस्तु पुद्गलस्य पर्याय:, स्वभावेन सिद्धम् । यदि शब्दः श्राकाशस्य गुणं भवेत्, तर्हि इन्द्रियैः नोपलब्धं भवेत् न मूर्त्तपदार्थेन रोद्धम् शक्यं भवेत् । श्रत श्राकाशमपि पुद्गलस्य पर्यायम् । अत्रावगाह द्विष्ठधर्मेति शंकापि प्रयोग्या यत् प्रधानता प्राधेयस्य नैव श्राधारस्यैव वर्त्तते ।। ५- १८ ॥
* सूत्रार्थ - श्रवगाही द्रव्यों को अवगाह देना आकाश का उपकार है ।। ५-१८ ।।
विवेचनामृत 5
अवगाह के लिए निमित्त होना आकाशद्रव्य का कार्य है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीव और पुद्गल इन चार द्रव्यों को प्राकाश अवगाह ( जगह ) देता है । आकाश का यह आर्य लक्षण रूप है । " धर्मास्तिकायादि द्रव्यों को अवगाह ( जगह ) प्रदान करना" यही प्रकाश का लक्षण है । अवगाह करने वाले धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य हैं । इनको अवगाह देना आकाश का उपकार है । इनमें से धर्म और अधर्म के अवगाह में उपकार अन्तः अवकाश द्वारा किया जाता है ।
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२६ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५१५
बहुत से लोग आकाश का लक्षरण शब्द मानते हैं । “शब्दगुणकमाकाशम् " ( वैशेषिका : ) जो मिथ्या है ।
प्रस्तुत सत्तरह और अठारह सूत्र के सम्बन्ध में विशेष विवेचन के रूप में कहा है किधर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय ये तीनों द्रव्य अमूर्तिक होने से इन्द्रिय प्रगोचर हैं । अर्थात् इनकी सिद्धि लौकिक प्रत्यक्ष " इन्द्रियों" द्वारा नहीं हो सकती ।
आगमप्रमाण से अस्तित्व माना जाता है । वह आगमप्रमाण युक्तिशः तर्क की कसौटी पर चढ़े हुए अस्तित्व को सिद्ध करता कि संसार में गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गल दो द्रव्य हैं । गति और स्थिति ये दोनों धर्म उक्त दो द्रव्यों के परिणमन तथा कार्य होने से उत्पन्न होते हैं । अर्थात् - गति और स्थिति का उपादान कारण जीव आत्मा तथा पुद्गल ही है । ऐसा होते हुए भी कार्य की उत्पत्ति के लिए निमित्त कारण की अपेक्षा रहती है तथा वह उपादान कारण से पृथग् होना चाहिए । इसलिए जीव- श्रात्मा और पुद्गल की गति के लिए निमित्त रूप धर्मास्तिकाय तथा स्थिति में निमित्त रूप श्रधर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है ।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय ये चारों द्रव्य किसी-नकिसी जगह स्थित हैं । अर्थात् प्राधेय होना श्रवगाह लेना इनका काम है, किन्तु अवगाह स्थान देना यह प्रकाशास्तिकाय का ही काम माना गया है ।
* प्रश्न – सांख्यदर्शन वाले, न्यायदर्शनवाले तथा वैशेषिकादि दर्शन वाले आकाश द्रव्य को मानते हैं; किन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को वे नहीं मानते हैं । तथापि जैनदर्शन इन्हें किसलिए स्वीकार करता है ?
उत्तर - दृश्य और अदृश्य रूप जड़ और चेतन ये दोनों विश्व के मुख्य अंग माने गये हैं । इनमें गतिशीलता तो अनुभवसिद्ध ही है । इसलिए कोई नियमित 'गतिशील ' तत्त्व सहायक न हो तो वे द्रव्य अपनी गतिशीलता के कारण अनन्ताकाश में किसी भी जगह स्थान न रुकते हुए चलते ही रहें तो इस दृश्यादृश्य विश्व जगत् का नियत स्थान "लोक का मान" जो सामान्य रूप से एक सरीखा माना गया है, वह नहीं घट सकता । अनन्त जीव और अनन्त पुद्गल व्यक्तितः अनन्त परिमाण वाले विस्तृत - विशाल आकाशक्षेत्र में रुकावट बिना संचार करते रहेंगे, तो वे ऐसे पृथक्भिन्न हो जायेंगे कि उनका पुनः मिलना कठिन हो जाएगा। इसलिए गतिशील द्रव्यों की गतिमर्यादा को नियन्त्रित करने वाले तत्त्व को श्रीजैनदर्शन स्वीकार करता है ।
उपर्युक्त गतिनियामक "चलन सहायक" तत्त्व स्वीकार करने पर उसके प्रतिपक्षी की भी आवश्यकता रहती है । इसलिए ही स्थिति मर्यादा के नियामक रूप अधर्मास्तिकाय को तत्त्वरूप स्वीकार करते हैं ।
* वर्तमानकाल के वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि इस संसार में एक ऐसा शक्तिशाली पदार्थ है जो चलनादि क्रिया में सबको ही सहायक रूप है । जिसे जैनदर्शन की परिभाषा में 'धर्मास्तिकाय' कहते हैं ।
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५।१६ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ २७ जनेतरदर्शन पूर्व और पश्चिमादि का व्यवहार जो दिगद्रव्य के कार्यरूप मानते हैं, वह आकाशद्रव्य से पृथक् नहीं है। उसको उत्पत्ति आकाश द्वारा होती है। इसलिए कहते हैं कि जैसे दिग्द्रव्य को आकाश से पृथक् मानना अनावश्यक है, वैसे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्य का कार्य केवल आकाशद्रव्य से सिद्ध नहीं हो सकता।
यदि अाकाश ही को गति, स्थिति का नियामक "प्रेरक" माना जाय तो वह अनन्त अखण्ड द्रव्य है। जड़ चेतन को सर्वत्र गति एवं स्थिति करते रोक नहीं सकता । तथा विश्व के नियत संस्थान की अनुपपत्ति हो जाएगी। इसलिए धर्मास्तिकाय द्रव्य को तथा अधर्मास्तिकाय द्रव्य को आकाशास्तिकाय द्रव्य से स्वतन्त्र मानना अर्थात् स्वीकार करना न्याय-संयुक्त है। जड़ और चेतन गतिशील हैं, तो भी मर्यादित क्षेत्र में उनकी गति नियामक बिना अपने स्वभाव से मर्यादित नहीं मानी जा सकती है। इसलिये धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय द्रव्य का अस्तित्व युक्तिपूर्वक सिद्ध होता है।
आकाशास्तिकाय द्रव्य का कार्य अवगाह-दान है। अर्थात् जो अवगाही धर्माधर्मपुद्गलजीव" द्रव्य हैं, उनको अवगाह देने का उपकार प्राकाशास्तिकाय द्रव्य का है ।। ५-१८ ।।
* पुद्गलानामुपकारः *
卐 मूलसूत्रम्शरीर-वाङ्-मनः-प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ ५-१६ ॥
* सुबोधिका टीका * पुद्गलद्रव्यानां सामान्यतया द्विविंशतिभेदाः। तेषु पञ्चभेदाः जीवग्रहणे प्रावश्यकाः। तेऽपि पञ्चभेदाः द्विभागे विभक्ताः। कार्मण-वर्गणा, नोकर्मवर्गणा च । यैस्तु ज्ञानावरणादिकाष्टकर्मणि भवन्ति ते कार्मणवर्गणा । यैस्तु शरीरपर्याप्तिप्राणास्ते नोकर्मवर्गणा। तस्यापि चत्वारः भेदाः प्राहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, तेजसवर्गणेति च पञ्चविधानि शरीराण्यौदारिकादीनि वाङ्मनः प्राणापानाविति पुद्गलानामुपकारः। तत्र-तत्र शरीराणि यथोक्तानि । प्राणापानौ च नामकर्माणि व्याख्यातौ। द्वीन्द्रियादयो जिहन्द्रियसंयोगात् भाषात्वेन गृह णन्ति नान्ये । संज्ञिनश्च मनसतत्त्वेन गृह णन्ति नान्ये ।
उच्यतेऽत्र सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते ।।
ऊष्मगुणः सन् दीपः स्नेहवा यथा समादत्ते । प्रादाय शरीरतया परिणमति चाथ तं स्नेहम् । तद्वत् रागादिगुणः स्वयोगवात्मदीप प्रादत्ते। स्कन्धानादाय
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२८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।१६ तथा परिणमयति तांश्च कर्मतया। नोकर्मणः विषये प्रौदारिक-वैक्रियिकाहारककर्मणां प्राधान्यं वर्तते ।
एतानि त्रीणि शरीराणि पाहारवर्गणा एव रचयति ।। ५-१६ ।।
* सूत्रार्थ-शरीर, वचन, मन और प्राणापान-श्वासोच्छ्वास यह पुद्गलों का उपकार-कार्य है ।। ५-१६ ॥
विवेचनामृत , यहाँ जीव की अपेक्षा पुद्गलों का उपकार कहने में आया है। पुद्गलों का लक्षण तो "स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः" इस सूत्र में कहने में पायेगा।
(१) औदारिक आदि शरीर पांच हैं। शरीर का वर्णन दूसरे अध्याय के ३७वें सूत्र में आ गया है।
औदारिक आदि पांचों शरीर पुद्गल के परिणामरूप होने से पौद्गलिक हैं ।
(२) वाणी--यानी भाषा भी पौद्गलिक है। जब जीव बोलता है तब भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। पश्चाद् वे पुद्गल प्रयत्न विशेष से भाषा रूप में परिणमित होते हैं। बाद में वे पुद्गलों को प्रयत्नविशेष से छोड़ देते हैं।
इस तरह भाषा रूप में परिणमित पुद्गल ही 'शब्द' हैं। अर्थात्-भाषा रूप में परिणमित शब्दों को छोड़ने से-बोलने से इन पुद्गलों में 'ध्वनि' उत्पन्न होती है। वाणी (शब्द) भाषावर्गणा के पुद्गलों का परिणाम होने से पौद्गलिक द्रव्य है ।
कितनेक वाणी को गुण रूप में मानते हैं, किन्तु यह असत्य है। भाषा का यानी शब्द का ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है। भाषा भी रसनेन्द्रिय आदि की सहायता से उत्पन्न होती है तथा श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से उसे जान सकते हैं। उक्त कथन का सारांश यह है कि-शरीर, वचन, मन और प्राणापान यह पुद्गल द्रव्य का उपकार है।
औदारिक आदि शरीर पाँच प्रकार के हैं। पुद्गल स्कन्धों के सामान्यतया २२ भेद हैं । प्राणापान को नामकर्म के प्रकरण में बताया गया है।
द्वीन्द्रियादि जीव जिह्वा इन्द्रिय के द्वारा भाषारूप से पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। संज्ञी जीव हैं वे मनरूप से ग्रहण करते हैं। सकषायता के कारण जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण किया करता है ।। ५-१६ ॥
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५।२० ]
5 मूलसूत्रम्
पञ्चमोऽध्यायः
[ २६
सुख-दुःख- जीवित-मरणोपग्रहाश्च ।। ५-२० ।।
* सुबोधिका टीका *
जगति कस्यापि न कोपीष्टः नानिष्टः नैतद्, एकमेव द्रव्यं कस्मै रोचते एकस्यै नैव रोचते, कालान्तरे वा रुचिकरे व्यज्यते श्ररुचिकरं ग्राह्यते । अतः स्वभावेन सिद्धं यत् न कोऽपि इष्टं न कोऽपि अनिष्टमिति । तानेवार्थान् द्विषतस्तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं न विद्यते किञ्चिदिष्टं वा ।। [ प्रशमरति ] सुखोपग्रहो, दुःखोपग्रहो, जोवितोपग्रहो मरणोपग्रहश्चेति पुद्गलानामुपकारः । तद्यथा इष्टाः स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णशब्दाः सुखस्योपकाराः श्रनिष्टाः दुःखस्य ।
वस्तुतः यः पदार्थः रागस्य विषयभूतमिष्टम्, तदेव प्रविधिसेवनेन अनिष्टम्
भवति । यदि स्नानादयः विधिना न सेव्यन्ते कदाचित् ते अपायकारणानि अपि सम्भाव्यन्ते । किन्तु देशकालमात्रा - स्वप्रकृत्यानुरूपं श्राहार-विहार- शयनानि वासनानि प्राणधारणोपकारकारिण जायन्ते । अतः जीवनोपग्रहारिण भवन्ति ।
श्रायुष्यकर्मणः दीर्घस्थितिर्विष- शस्त्राग्नि प्रहारमन्त्रप्रयोगादिभिः न्यूना भवति अपवर्तनमुच्यते । यस्यायुबन्धस्थ विशेषतया अपवर्तनं प्रसम्भाव्यम्, तदपि पुद्गल - द्रव्यस्योपकारः ।
कर्मणः न्यूनाधिकमशक्यम्, तर्हि पुद्गलद्रव्यस्य किमुपकारम् ?
अन्यच्च उपपन्नं तावदेतत् सोपक्रमाणामपवर्तनीयायुषाम्, प्रथानपवर्त्यायुषां कथमिति ?
तेषामपि जीवितमरणोपग्रहः पुद्गलानां उपकारः कथमिति ? तदुच्यते कर्मणः स्थितिक्षयाभ्यां कर्म हि पौद्गलमिति । श्राहारश्च त्रिविधः सर्वेषामेवोपकुरुते । किं कारणम् ? शरीरस्थिति उपचयबलवृद्धि प्रीत्यर्थं ह्याहारः ।
वस्तुतः जीवामूर्तः संसारीणामेक क्षेत्रावगाह - कर्मनो कर्मरूपपुद्गलैः सह भूयते । तन्निमित्तं सर्व भवति । पूर्वमुक्तं यत् शरीरस्थिति रसवृद्धि - बलवृद्धि - प्रीत्यादयः प्रहारेणैव सिध्यन्ति । तत्र च प्रोजः - प्राहारलोमाहार प्रक्षेपाहाराणि । यथा घृतापूपः घृतं कर्षति तथैव गत्यन्तरेण गर्भजीवोऽपि अपर्याप्तावस्थायां जन्मकाले च सर्वैः
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५२० प्रदेशः शरीरयोग्यानि पुद्गल - द्रव्याणि गृह्णाति । अन्यच्च त्वगीन्द्रः ग्रहणं प्रक्षेपाहारः ॥ ५-२० ॥
* सूत्रार्थ-सुख तथा दुःख, जीवित और मरण में निमित्त बनना भी पुद्गल द्रव्य का ही उपकार-कार्य है ।। ५-२० ।।
5 विवेचनामृत संसार में कोई भी पदार्थ इष्ट ही हो या अनिष्ट ही हो ऐसा नहीं है। सुख में निमित्त बनना, दुःख एवं जीवित और मरण में निमित्त बनना यह सब पुद्गल का उपकार है। एक पदार्थ किसी को इष्ट होता है। कालान्तर में वही अनिष्ट भी हो सकता है। इष्ट वह है-जो राग से अभिभूत है। द्वष से विषयीभूत होता है, वह अनिष्ट होता है ।
भाषा का-शब्द का ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है। भाषा रसनेन्द्रिय आदि की सहायता से उत्पन्न होती है, तथा श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से जान सकते हैं । .प्रश्न-ऐसा पूर्व में कहा है, तो प्रश्न यह होता है कि
एक बार शब्द सुनने के बाद वही शब्द फिर क्यों नहीं सुन पाते हैं ? उत्तर - जैसे एक बार देखी हुई बिजली की चमक (उसके पुद्गल चारों तरफ बिखर जाने से) दूसरी बार देखने में नहीं आती है, वैसे ही एक बार सुने हुए शब्द (उसके पुद्गल चारों तरफ बिखर जाने से) दूसरी बार नहीं सुन पाते हैं। * प्रश्न -ग्रामोफोन के रेकर्ड में ये ही शब्द बारम्बार सुनने में आते हैं, उसका क्या
कारण है? उत्तर-ग्रामोफोन के रेकर्ड में शब्द रूप पुद्गल संस्कारित करने में आते हैं। संस्कारित किये हए शब्द अपन सब बारम्बार सुन सकते हैं। जैसे बिजली का फोटो लेने में आये तो बिजली भी बारम्बार देखी जा सकती है। * प्रश्न-तो फिर प्रश्न होगा कि भाषा यानी शब्द जो पुद्गल द्रव्य है तो उन्हें देह-शरीर
की भाँति नेत्र से क्यों नहीं देख सकते ? उत्तर-शब्द के पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म होने से उन्हें नयनों से नहीं देखा जा सकता। कारण कि शब्द केवल श्रोत्रेन्द्रिय से ही ग्राह्य बनते हैं। * प्रश्न -भाषा आँखों से नहीं देखी जा सकती है, इसलिए भाषा-शब्द को अरूपी मानने
में क्या बाधा है ? उत्तर-भाषा-शब्द को अरूपी मानने में अनेक प्रकार के विरोध उत्पन्न होते हैं, इसलिए भाषा-शब्द को प्ररूपी नहीं मानना चाहिए।
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५।२० 1
पञ्चमोऽध्यायः
* प्रश्न - भाषा - शब्द को प्ररूपी मानने में कौन-कौनसे विरोध उत्पन्न होते हैं ?
उत्तर - निम्नलिखित विरोध क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं
(१) जो अरूपी वस्तु-पदार्थ हैं, उसे रूपी वस्तु-पदार्थ की सहायता से नहीं जान सकते हैं जबकि शब्द रूपी श्रोत्रेन्द्रिय की सहायता से मदद से जाने जा सकते हैं ।
[ ३१
(२) अरूपी वस्तु - पदार्थ को रूपी वस्तु-पदार्थ प्रेरणा नहीं कर सकता, जबकि भाषा-शब्द को रूपी पवन-वायु प्रेरणा कर सकती है। इसलिए ही अपन पवन-वायु अनुकूल हो तो दूर के भी शब्दों को सुन सकते हैं, और पवन-वायु प्रतिकूल हो तो समीप के भी शब्द सुनाई नहीं देते ।
(३) अरूपी वस्तु - पदार्थ को नहीं पकड़ा जा सकता किन्तु शब्दों को तो पकड़ सकते हैंसंस्कारित कर सकते हैं, रेडियो, ग्रामोफोन, टेपरेकार्डर इत्यादि में पकड़ सकते हैं- संस्कारित कर
सकते हैं ।
* मन भी पुद्गल के परिणाम रूप होने से पौद्गलिक है । जब जीव आत्मा विचार करता है तब प्रथम आकाश में रहे हुए मनोवर्गरणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है । पश्चाद् वे पुद्गल मन रूप में परिणमते हैं। बाद में उन्हीं पुद्गलों को छोड़ देते हैं । यहाँ पर मन रूप में परिमित पुद्गलों को छोड़ देना यह विचारणीय है ।
इस तरह मन रूप में परिगमित पुद्गल ही मन है । मन के दो भेद हैं- द्रव्यमन और भावमन ।
भावमन के भी दो भेद हैं- लब्धिभावमन, उपयोग भावमन । उसमें जो विचार करने की शक्ति वह लब्धिरूप भावमन है, तथा विचार ही उपयोगरूप भावमन है एवं विचार करने में जो सहायक मन रूप में परिणमित मनोवर्गरणा के पुद्गल ही द्रव्यमन है । इसीलिए तो यहाँ पर द्रव्यमन को ही पौद्गलिक कहने में आया है । भावमन भी तो उपचार से ही पौद्गलिक कहने में आया है ।
(४) प्राणापान - ( यानी श्वासोच्छ्वास ) जीव आत्मा जब श्वासोच्छ्वास लेता है तब प्रथम श्वासोच्छ्वास वर्गरणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है । पश्चाद् उन्हें श्वासोच्छ्वास रूप में परिमाता है । बाद में श्वासोच्छ्वास रूप में परिणमित पुद्गलों को छोड़ देते हैं ।
श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत पुद्गलों को छोड़ देना यही प्राणापान की यानी श्वासोच्छ्वास की क्रिया करनी । इसलिए श्वासोच्छ्वास भी पुद्गल के परिणामरूप है ।
हस्तादिक से वदन - मुख और नासिका नाक को बन्द करने से श्वासोच्छ्वास का प्रतिघात हो जाने से तथा कण्ठ में कफ भर जाने से अभिभव होने से श्वासोच्छ्वास पुद्गल द्रव्य है । यही निश्चित सिद्ध होता है ।
(१) सुख - इष्ट स्त्री, इष्ट भोजन तथा इष्ट वस्त्रादिक द्वारा उत्पन्न हुई प्रसन्नता प्रानन्द इत्यादि सातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता है। इस सुख में बाह्य तथा अभ्यन्तर ये दोनों
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३२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५२१
कारण हैं। उसमें सातावेदनीय कर्म का उदय अभ्यन्तर-अन्तरङ्ग कारण है तथा इष्ट भोजनादिक की प्राप्ति यह बाह्य कारण है। ये दोनों कारण पौद्गलिक रूप होने से सुख पुद्गल का उपकारकार्य है।
(२) दुःख- अनिष्ट भोजन तथा अनिष्ट वस्त्रादिक द्वारा उत्पन्न मानसिक संक्लेश असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होता है । असातावेदनीय कर्म के उदय रूप प्रान्तर कारण और अनिष्ट भोजनादिक की प्राप्ति रूप बाह्य कारण से मानसिक संक्लेश यानी दुःख होता है। ये दोनों कारण भी पौद्गलिक होने से दुःख पुद्गल का उपकार-कार्य है।
(३) जीवित- इस भवस्थिति में कारण आयुष्यकर्म के उदय से प्राण का टिका रहना. यही जीवित यानी जीवन है। यह जीवन आयुष्यकर्म, भोजन तथा प्राणापान (श्वासोच्छ्वास) इत्यादि प्राभ्यन्तर एवं बाह्य कारणों से चलता है। ये कारण पौद्गलिक होने से जीवित (जीवन) पुद्गल का उपकार-कार्य है।
(४) मरण (यानी मृत्यु)-यह वर्तमान जीवन का अन्त है एवं आयुष्यकर्म का भी क्षय है। मरण आयुष्यकर्म के क्षय तथा विषभक्षण आदि प्राभ्यन्तर और बाह्य पुद्गल की सहायता से होता है। इसलिए मरण (मृत्यु) पुद्गल का उपकार-कार्य है।
सबका सारांश यह है कि-भाषा, मन, प्राण और अपान ये सब व्याघात तथा अभिभव अर्थात् उत्पत्ति एवं विनाशवाले हैं। इसलिए शरीर के समान पौद्गलिक हैं। जीव-प्रात्मा की प्रीति ‘रति' रूप परिणाम ही सुख है। उसका आभ्यन्तर-अन्तरङ्ग कारण सातावेदनीयकर्म का उदय है और बाह्य कारण द्रव्य, क्षेत्रादिक से उत्पन्न होता है ।
इससे विपरीत अनिष्ट भाव दुःख है, किन्तु बाह्य कारण इसका भी द्रव्य क्षेत्रादि ही है ।
आयुष्यकर्म से युक्त देह-शरीरधारी जीवों का श्वासोच्छ्वास ही जीवन है। उसके उच्छेद को मरण कहते हैं। पूर्वोक्त सुख-दुःखादि पर्याय जीवों के उत्पन्न होते हैं परन्तु इनकी उत्पत्ति पुद्गल द्वारा होती है। इसलिए जीवों पर पुद्गल का उपकार माना गया है ।। ५-२० ।।
* जीवानां परस्परोपकारः *
卐 मूलसूत्रम्
परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ ५-२१ ।।
* सुबोधिका टीका * भविष्ये-वर्तमाने च यद् शक्यं युक्त न्याय्यं तत्-हितम् । विपरीतमहितम् । उपकारस्यार्थः हेतु अतएव अहितोपदेशः वा अहितानुष्ठानमपि उपकारेण व्यवह्रियते । परस्परस्य हिताहितोपदेशाभ्यां उपग्रहो जीवानाम् ।। ५-२१ ।।
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५।२२ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[
३३
* सूत्रार्थ-जीवों का उपकार परस्पर एक-दूसरे के लिए हित-अहित का उपदेश देने आदि द्वारा होता है। अर्थात्-परस्पर हिताहित के उपदेश द्वारा सहायक होना रूप जीवों का प्रयोजन है ॥ ५-२१ ।।
+ विवेचनामृत जीव-आत्मा का लक्षण "उपयोगो लक्षणम्" इस सूत्र में कह दिया है। प्रस्तुत सूत्र में जीवों के पारस्परिक उपकार का वर्णन है। एक जीव अन्य जीवों के लिए उपदेश द्वारा अथवा हिताहित द्वारा उपकार करता है। जैसे-जीव स्वामी-सेवक, गुरु-शिष्य, वैरभाव आदि द्वारा परस्पर एक-दूसरे के कार्य में निमित्त बनकर परस्पर उपकार करते हैं। गुरु हितोपदेश तथा सद्अनुष्ठान के आचरण द्वारा शिष्य पर उपकार करता है। शिष्य गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा गुरु पर उपकार करता है। स्वामी धनादिक द्वारा सेवक पर उपकार करता है। सेवक अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा स्वामी पर उपकार करता है। व्यक्ति शत्रुभाव से लड़कर भी परस्पर उपकार करते हैं। * प्रश्न-वैरभाव से तो एक-दूसरे का अपमान ही होता है, उसमें उपकार होता है,
ऐसा कैसे ? उत्तर-यहाँ उपकार का अर्थ अन्य का हित करना ऐसा नहीं है, किन्तु निमित्त अर्थ है ।
जीव एक-दूसरे के हित-अहित, सुख-दु:ख इत्यादि में निमित्त बनने से परस्पर उपकार करते हैं, ऐसा समझना ।। ५-२१ ।।
* कालस्योपकारः * 卐 मूलसूत्रम्वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥५-२२ ॥
* सुबोधिका टीका * सर्वे पदार्थाः स्व-स्वस्वभावानुसारं वर्तन्ते। सर्वभावानां वर्तना कालाश्रयावृत्तिः । वर्तना उत्पत्तिः। स्थितिरथगतिः। प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः। परिणामो द्विविधः अनादिरादिमांश्च । अत्र क्रियाशब्देन गतिर्गाह्या। सा त्रिविधा, प्राद्या प्रयोगगतिः, द्वितीया विस्रसा गतिः तृतीया च मिश्रिका। परत्वापरत्वेऽपि त्रिविधे प्रशंसाकृते, क्षेत्रकृते, कालकृते इति ।
तत्र च प्रशंसाकृते परोधर्मः, परं ज्ञानं, अपरोऽधर्मः प्रपरमज्ञानम् । क्षेत्रकृते एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्टः परो भवति, सन्निकृष्टोऽपरः । कामकृते द्विरष्टवर्षाद् वर्षशतिक: परोभवति । वर्षशतिकाद् द्विरष्टवर्षोऽपरो भवति ।
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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५२२२ तदेवं प्रशंसाक्षेत्रकृते परत्वापरत्वे वर्जयित्वा वर्तनादीनि कालकृतानि कालस्योपकारः ।
वर्तन्ते पदार्थाः तेषां वर्तयिता कालः । स्वयमेव वर्तमाना: पदार्थाः वर्त्तन्ते यया सा कालाश्रया प्रयोजिका वृत्तिः वर्तना। वृतुधातोः “ण्याश्रयोयुच् सूत्रेण युच । अथवा वृत्तिवर्तनशीलता अनुदात्तेतश्च हलादेः" सूत्रेण युच् । अर्थात् प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीक समयस्वसत्तानुभूतिः वर्तनेति। वर्तनादिका कालोपकाराः, असाधारणलक्षणम् । यत् कालो न स्यात् वर्तना द्रव्याणामपि असम्भवा। नैव च तेषां परिणमनमपि, न च गतिः, न च परत्वापरत्वव्यवहारोऽपि ।
प्रोदनाय तण्डुलाः स्थाल्यां निक्षिप्ताः, स्थाल्यामुदकमपि अस्ति, अग्निना पच्यतेऽपि सर्वैः कारणः प्रस्तुतैरपि प्रोदनपाकं प्रथमक्षणे एव नैव सिद्धयति, योग्यसमयापेक्षा तत्र अपेक्षते, तथापि प्रथमक्षणे तस्य पाकस्य किञ्चिदंशं न सिद्ध तहि द्वितीय क्षणेऽपि प्रसिद्धमेव भवति। अतः पाकस्य वर्तना प्रथमक्षणेनैव जायते। अतः वर्तना प्रथमसमयाश्रया भवति । इत्थं प्रतिक्षणवर्तना विषयेऽपि ज्ञातव्यम् । केचिदत्र पुद्गलशब्देन जीवेति गृह्णन्ति सर्वशून्यवादिनः नास्तिका वा बार्हस्पत्याः ।। ५-२२ ।।
* सूत्रार्थ-वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व (पहला-पिछला) यह काल का उपकार है ।। ५-२२॥
_ विवेचनामृत ॥ यद्यपि श्रीतत्त्वार्थकार के मत में कालद्रव्य नहीं है तो भी अन्य के मत में कालद्रव्य है। इस तरह आगे कहने वाले हैं। नयचक्रादि अन्य ग्रन्थों में काल को उपचार मात्र से द्रव्य माना है, वास्तव में यह पंचास्तिकाय के अन्तर्भूत पर्यायरूप है। यथा
___ "पंचास्तिकायान्तर्भूतपर्यायरूप नैवास्य। तत्र काल उपचारतव द्रव्यं न तु वस्तुवत्या ॥" तथापि यहाँ काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर उसका उपकार बताते हैं। यहाँ उपकार के प्रकरण में काल के वर्तनादि उपकार कहने में आया है। जैसे अपने-अपने पर्याय की उत्पत्ति में स्वयमेव प्रवर्त्तमान द्रव्यों के लिए धर्मादि द्रव्य उदासीन कारण हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य भी उदासीन प्रयोजक है।
__ इस सूत्र में वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल का उपकार हैं, ऐसा कहा है।
(१) वर्तना-प्रतिसमय उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप स्वसत्ता से युक्त द्रव्य का वर्तना यानी होना वह वर्तना है। जो द्रव्य स्वयं वर्त्त रहे हैं, उनमें काल निमित्त बनता है।
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५।२२ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ३५ _ अर्थात्-समस्त द्रव्य स्वयं ध्रौव्यरूप में प्रत्येक समय वर्त्त रहे हैं-विद्यमान हैं और इन द्रव्यों में उत्पाद तथा व्यय भी प्रत्येक समय में हो रहे हैं। उसमें काल, मात्र निमित्त होता है। यह वर्तना प्रति समय प्रत्येक पदार्थ में होती ही है। वह सूक्ष्म होने से उसको प्रत्येक समय हम नहीं जान सकते, किन्तु अधिक समय हो जाने पर जान सकते हैं।
जैसे-अग्नियुक्त चल्हे पर रखे हुए भाजन में मिश्रित दाल-चावल आधे घण्टे में रंध कर खिचड़ी हो जाते हैं तो क्या यहाँ पर २६ मिनट तक दाल-चावल रंधकर खिचड़ी नहीं बनी और ३०वें मिनट में रंधकर खिचड़ी हुई, ऐसा नहीं। पहले समय से ही सूक्ष्म रूप में दाल-चावल पक रहे थे । जो वे पहले समय में ही पकना शुरू नहीं करते तो दूसरे समय में भी नहीं पकते । इस तरह तीसरे समय में भी नहीं पकते, यावत अन्तिम चरम समय में भी नहीं पकते. किन्त प्रथम समय उसमें पकने की क्रिया शुरू हो गई। इसलिए अवश्य ही मानना चाहिए कि पहले समय से ही उसमें पकने की क्रिया हो रही थी।
(२) परिणाम-स्वजाति का बिना परित्याग किये द्रव्य का अपरिस्पंद रूप (अचल) पर्याय जो पूर्वावस्था की निवृत्ति और उत्तरावस्था की उत्पत्ति रूप है उसको परिणाम कहते हैं। अर्थात्-अपनी सत्ता का त्याग किये बिना द्रव्य में होता हुआ फेरफार । अर्थात्-मूल द्रव्य में पूर्व पर्याय का विनाश और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति, वह परिणाम कहा जाता है । - द्रव्य के परिणमन में काल महत्त्व का भाग अदा करता है। जैसे—अमुक-अमुक ऋतु आने पर अमुक-अमुक फल, फूल और धान्यादिक की उत्पत्ति होती है। ठंडी, गर्मी तथा मेह इत्यादि फेरफार होते रहते हैं। काल से बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्थादिक अवस्थाएँ होती रहती हैं। यह उत्पत्ति और विनाश नियतपणे क्रमशः होता रहता है। किन्तु यदि काल को इसमें कारण नहीं माना जाय तो वे सभी फेरफार [उत्पत्ति-विनाश एक ही साथ में होने की आपत्ति आ जाये।]
उक्त परिणाम जीव में ज्ञानादि तथा क्रोधादि रूप हैं, पुद्गल में नील, पीत वर्णादि और शेष धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में अगुरुलघुगुण की हानि-वृद्धि रूप हैं। फिर भी इसके सादि-अनादि भेदों का कथन इस अध्याय के 'तद्भावः परिणामः ।। ५-४१ ।। सूत्र में करेंगे।
(३) क्रिया यानी गतिः-गति रूप क्रिया यह काल का ही उपकार है। (१) प्रयोगगति (२) विनसा गति, 'स्वाभाविक परिपाक जन्य' (३) मिश्रगति ।
जीव के प्रयत्न से होती हुई गति वह प्रयोग गति है। जीव के प्रयत्न बिना स्वाभाविक होती गति वह विनसा गति है तथा जीव के प्रयत्न से और स्वाभाविक इन दोनों रीतियों से होती गति वह मिश्रगति है। ----
(४) परत्वापरत्व-परत्व और अपरत्व ये परस्पर सापेक्ष हैं। परत्व, अपरत्व तीन प्रकार का है-प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत ।
यथा-प्रशंसाकृत-धर्मश्रेष्ठ है और अधर्म निकृष्ट है एवं ज्ञान महान् है, अज्ञान निकृष्ट है, इत्यादि।
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३६ ] श्रीतत्त्वार्याधिगमसूत्रे
[ ५।२३ क्षेत्रकृत-एक देशस्थित दो पदार्थों के विषय जो दूर हैं वे पर हैं और निकट हैं वे अपर हैं।
___ कालकृत-बीस वर्षों की अपेक्षा पच्चीस वर्ष वाला पर है तथा पच्चीस वर्ष की अपेक्षा बीस वर्ष वाला अपर है।
उक्त वर्तनादि कार्य यथासम्भवपने धर्मास्तिकायादिक द्रव्यों का ही है तथापि काल समस्त में निमित्तरूप कारण होने से उपकार रूप माना हुआ है। अर्थात्-तीन प्रकार के परत्वापरत्व में से यहाँ पर कालकृत परापरत्व की विवक्षा है ।। ५-२२ ।।
* पुद्गलस्य लक्षणम् * 卐 मूलसूत्रम्स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥५-२३ ॥
* सुबोधिका टीका * पुद्गलाः स्पर्शः रसः गन्धः वर्ण इत्येवं लक्षणाः। तत्र स्पर्शो अष्टविधः अनुक्रमेण कठिनोमृदुर्गुरु-लघुःशीतोष्णः स्निग्धोरूक्षः । पञ्चविधः रसः तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुरेति । गन्धो द्विविधः सुरभिरसुरभिश्च । वर्णः पञ्चविधः कृष्णो नोलो लोहितः पीतः शुक्लेति ।
एवं चतुर्णां गुणानां विंशः भेदाः । प्रतिक्षणं चतुर्णां गुणानां यथासम्भवभेदाः प्रतिपुद्गलद्रव्ये प्राप्ताः । कठिनादिकानामथं प्रसिद्धम् ।। ५-२३ ॥ * सूत्रार्थ-पुद्गलद्रव्य स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण युक्त होता है ।। ५-२३ ।।
_ विवेचनामृतक पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले होते हैं। बौद्धदर्शन वाले 'पुद्गल' शब्द का जीव अर्थ में व्यवहार करते हैं तथा वैशेषिकादि दर्शनवाले पृथिव्यादि मूत्तिमान द्रव्यों में समान रूप से चारों गुण "स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण" नहीं मानते हैं; किन्तु पृथ्वी चारों गुण, जल गन्ध रहित तीन गुण, तेजस गन्ध, रसरहित द्विगुण तथा वायु को मात्र एक स्पर्श गुण वाला ही मानते हैं। मन को स्पर्शादि चतुःगुण रहित मानते हैं। इसलिए अन्य दार्शनिकों से पृथग्-भिन्नता प्रकट करनी, यही इस प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य है ।
वर्तमान सूत्र द्वारा यह सूचित होता है कि जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य-पदार्थ भिन्न स्वरूपी हैं। परन्तु पुद्गल शब्द का व्यवहार जीव तत्त्व में नहीं होता। पृथ्वी, जल, तेज, वायु सब पुद्गल रूप से समान हैं। अर्थात्-ये सब स्पर्शादि चारों गुण युक्त हैं। वे पुद्गल स्कन्ध पाठ स्पर्शवाले नहीं होते हैं, किन्तु चार स्पर्शवाले सूक्ष्म इन्द्रिय अगोचर होते हैं।
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]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ३७
इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप में कहा है कि-स्पर्श, रस, गन्ध भौर वर्ण ये चार जिस द्रव्य में होते हैं, वह द्रव्य पुद्गल है । स्पर्शादिक चारों गुण साथ ही रहते हैं । स्पर्श आदि कोई एक गुण होते हुए वहाँ अन्य तीन गुण भी अवश्य ही होते हैं । अन्य गुरण अव्यक्त हों, ऐसा भी होता है । किन्तु होते ही नहीं ऐसा कभी नहीं होता है । जैसे- वायु, वायु के स्पर्श को अपन जान सकते हैं, परन्तु रूप को नहीं जान सकते हैं क्योंकि वायु का रूप इतना सूक्ष्म है कि अपने नेत्र - चक्षु में उसको देखने की शक्ति नहीं है । ऐसा होते हुए भी जब यही वायु वैज्ञानिक पद्धति से विश्लेषित होकर हाइड्रोजन और प्रॉक्सीजन इन दो वायु के मिश्रण से जल-पानी स्वरूप बन जाते हैं तब उसमें रूप देख सकते हैं । कारण कि दो वायु के मिश्रण से वे अणुपने सूक्ष्मपने का त्याग करके स्थूल बन जाते हैं ।
५।२३
(१) स्पर्श - प्राठ । अर्थात् - स्पर्श के आठ प्रकार-भेद हैं
(१) कठिन, (२) मृदु, (३) गुरु, (४) लघु, (५) शीत, (६) उष्ण, (७) स्निग्ध और (८) रूक्ष |
* जिस द्रव्य को नहीं नमा सकें उस द्रव्य का स्पर्श कठोर कठिन है । कठिन स्पर्श से विपरीत स्पर्श मृदु (कोमल) है ।
* जिसके योग से द्रव्य नीचे जाता है वह गुरु स्पर्श है तथा जिसके योग से द्रव्य प्रायः तिर्च्छा कि ऊपर जाता है वह स्पर्श लघु है ।
* जिसके योग से दो वस्तुएँ चिपट जाँय वह स्पर्श स्निग्ध है तथा स्निग्ध से विपरीत स्पर्श रूक्ष है ।
* शीत यानी ठंडा स्पर्श तथा उष्ण यानी गरम स्पर्श जानना ।
(२) रस के पाँच प्रकार-भेद हैं- (१) तिक्त, (२) कटु, (३) कसैला - कषाय, (४) अम्ल - खट्टा और (५) मधुर ।
* कितनेक विद्वान् पण्डित खारा रस युक्त छह रस गिनते हैं ।
कोई विद्वानादिक खारा रस को मधुर रस में अन्तर्भाव करते हैं । कोई-कोई दो रसों के संसर्ग से ही खारा रस उत्पन्न होता है, ऐसा भी कहते हैं ।
(३) गन्ध - दो । अर्थात् गन्ध के दो प्रकार-भेद हैं । सुरभि और दुरभि अर्थात्सुगन्ध भौर दुर्गन्ध ।
जैसे - चन्दनादिक की गन्ध सुरभि है- सुगन्ध है तथा लहसुन आदि की गन्ध दुरभि हैहै।
(४) वर्ण पाँच । अर्थात् वर्ण के पाँच प्रकार-भेद हैं ।
(१) कृष्ण - काला, (२) नील- नीला, (३) लोहित - लाल, (५) श्वेत-सफेद ।
(४) पीत - पीला और
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३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।२४ ये स्पर्शादि उक्त बीस भेद इन्द्रियगोचर बादर पुद्गल के स्कन्धों में पाये जाते हैं तथा जो सूक्ष्म इन्द्रिय अगोचर हैं, उनमें पूर्व के चार स्पर्श "गुरु, लघु, मृदु, खर" नहीं होते हैं। शेष सोलह भेद पाये जाते हैं तथा जो एक अणु रूप “परमाणु" पुद्गल है, उसमें अन्त के चार स्पर्शों में से दो प्रतिपक्षी छोड़ के शेष कोई भी दो स्पर्श, एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण होते हैं।
उपर्युक्त जो स्पर्शादि के बोस भेद कहे हैं प्रत्येक तारतम्यत्व भाव से संख्यात, असंख्यात •तथा अनन्त हैं। जैसे-मृदु स्पर्शवाले जितने स्कन्ध हैं, वे सभी समान रूप नहीं हैं। किन्तु उनकी मृदुता में तारतम्य भाव अवश्य है। मृदुत्व गुण समान रूप होते हुए भी उनकी तरतमता पर दृष्टिपात करने से अनेक भेद होते हैं; इत्यादि स्पर्शादिक वीस भेदों के अनेक प्रभेद होते हैं ।। ५-२३ ॥
* पुद्गलानां शब्दादिपरिणामानां वर्णनम् * 卐 मूलसूत्रम्
शब्द-बन्ध-सौम्य - स्थौल्य - संस्थान-भेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥ ५-२४ ॥
* सुबोधिका टीका * रूपादिकानि पुद्गलस्य लक्षणानि । ये ये पुद्गलाः ते ते रूपादिवन्ताः । ये ये च रूपादिवन्ताः ते ते पुद्गलाश्च । शब्दः बन्धः सौक्ष्म्यम्, स्थौल्यम्, संस्थानं भेदः, तमश्छाया, पातपः, उद्योतं एतानि दशोऽपि पुद्गलद्रव्यस्य धर्माणि । तत्र च शब्दः षड्विधः ततो विततो घनः शुषिरः संघर्षो भाषेति ।
बन्धस्त्रिविधः-प्रयोगबन्धः विस्रसाबन्धो मिश्रबन्धः । स्निग्धरूक्षत्वात् भवति । सौक्षम्यं द्विविधं अन्त्यं प्रापेक्षिकं च । अन्त्यं परमाणुषु एव, आपेक्षिकं च द्वयणुकादिषु च सङ्घातपरिणामापेक्षम् भवति । यथा प्रामलकात् बदरमिति । द्विविधम् स्थौल्यम् अन्त्यमापेक्षिकम् च । संघातपरिणामापेक्षमेव भवति। तत्रान्त्यम् सर्वलोकव्यापिनि महास्कन्धे भवति । प्रापेक्षिकं बदरादिभ्यः आमलकादिषु इति । संस्थानमनेकविधम् दीर्घह्रस्वाद्यनित्थन्त्वपर्यन्तम् ।
भेदः पञ्चविधः प्रौत्कारिकः चौरिणकः खण्डः प्रतरः अनुतट इति । तमश्छाया तपोद्योताश्च परिणामजाः ।
सर्व एवैते स्पर्शादयः पुद्गलेष्वेव भवन्ति । अतः पुद्गलास्तद्वन्तः। संस्थान नाम प्राकृतेरिति । तस्य अपि द्वौ भेदौ, प्रात्मपरिग्रहानात्मपरिग्रहश्चेति । प्रात्मपरिग्रहसंस्थानस्यानेकप्रकाराः, यथा पृथिवीकायिकारणां जीवानां शरीरं मसूरवत् ।
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५।२४
]
पञ्चमोऽध्यायः
[
३६
श्रीतत्त्वार्थसारे-“मसूराम्बुपृषत् सूचोकलापध्वजसंनिभाः, धराप्तेजो मरुत् कायाः नानाकारास्तरुत्रसाः ।" षट्संस्थानानां लक्षणम्
तुल्लं, वित्थडबहुलं, उस्सेहबहुं च मडहकोठं च ।
हिछिल्लकायमडह, सव्वत्था - संठियं हुंडं ॥ किमर्थं शब्दादीनां स्पर्शादीनाञ्च पृथक् सूत्रस्य कथनम् ? अत्रोच्यते-स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति । शब्दादयस्तु स्कन्धेष्वेव भवन्त्यनेकनिमित्ताश्चेत्यतः पृथक्करणम् । ते एते पुद्गलाः समामतो द्विविधा भवन्ति ।। ५-२४ ।।
* सूत्रार्थ-शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तम, छाया, पातप और उद्योत ये दस पुद्गल द्रव्य के धर्म हैं ।। ५-२४ ।।
विवेचनामृत है पुद्गल-शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, पातप और उद्योतवाले भी हैं।
अर्थात् शब्द आदि पुद्गल के परिणाम हैं। जैसे वैशेषिक तथा नैयायिकादि दर्शन वाले शब्द को गुणरूप मानते हैं, वैसा मन्तव्य श्रीजैनदर्शन का नहीं है। जैनदर्शन तो शब्द को भाषावर्गणा के पुद्गलों का एक परिणाम विशिष्ट मानता है। वे निमित्तभिन्नता से अनेक प्रकार के होते हैं।
आत्म-प्रयत्न द्वारा उत्पन्न होने वाले शब्द को 'प्रयोगज' कहते हैं तथा जो स्वतः प्रयत्न बिना के शब्द हैं, उसे 'विस्रसा' कहते हैं। जैसे-बादलों की गर्जना।
* विशेष-शब्द प्रादि पुद्गल के परिणामों के सम्बन्ध में विशेष रूप में युक्तिपूर्वक नीचे प्रमाणे कहा है(१) बजते हुए ढोल पर पैसा पड़े तो वह आवाज करने के बाद दूर फेंक दिया जाता है । (२) बुलन्द आवाज–जोरदार शब्द कर्णेन्द्रिय-कान से टकरावे तो कान फूट जाय अथवा बहरा
हो जाय । ------- जिस तरह पत्थर आदि से पर्वतादि का प्रतिघात होता है, उसी तरह शब्द का भी कूपादि
में प्रतिघात होता है तथा उसकी प्रतिध्वनि होती है। (४) शब्द, वायु द्वारा तृण-घास की तरह दूर-दूर ले जाया जाता है । (५) शब्द-प्रदीप के प्रकाश की भाँति सर्वत्र चारों तरफ फैलता है।
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४. ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ श२४ (६) एक शब्द अन्य शब्द का अभिभव कर सकता है। अर्थात्-बड़े मोटे शब्द से छोटे लघु
शब्द का अभिभव हो जाता है। इसलिए ही तो दूर से बड़े शब्द को आवाज कान से टकराती हो तो समीप-नजदीक के भी शब्द सुनने में नहीं पाते हैं। प्रथम सौधर्म देवलोक में सौधर्मसभा में रही हुई सुघोषा घंटा बजने से उसी प्रकार की विशिष्ट रचना से समस्त विमानों में रही घंटाएं बजने लगती हैं। यदि शब्द को पुद्गल न मानें तो ऐसा नहीं हो सकता। इस प्रकार अनेक रीतियों से युक्तिपूर्वक 'शब्द पुद्गल ही है' यही सिद्ध होता है।
शब्द की उत्पत्ति विनसा से और प्रयोग से इस प्रकार दो प्रकार से होती है। बादल और बिजली आदि की आवाज किसी भी प्रकार के जीवप्रयोग के बिना स्वाभाविक रूप से (f उत्पन्न होती है।
* प्रयोगज शब्द के छह भेद * (१) तत-हाथ के प्रतिघात से उत्पन्न हुए ढोल आदि के शब्द। (मुरज, मृदंग, पटह आदि)।
(२) वितत-वीणादि तांत-तारवाले वाजिन्त्रों से। अर्थात्-तार की सहायता से उत्पन्न होते हुए वीणा आदि के शब्द ।
(३) घन-कांसी, झालर, घंट-घंटड़ी आदि वाजिन्त्रों के परस्पर टकराने से उत्पन्न शब्द । . (४) शुषिर-पवन-वायु पूरने से बाँसुरी, पावा और शंखादि द्वारा उत्पन्न होते हुए शब्द ।
(५) संघर्ष-काष्ठ आदि के परस्पर संघर्षण से उत्पन्न ध्वनि । अर्थात्-रगड़ने से उत्पन्न होने वाले शब्द ।
(६) भाषा-यानी जीव के मुख के प्रयत्न द्वारा उत्पन्न होने वाले शब्द ।
भाषा दो प्रकार की होती है। व्यक्त और अव्यक्त। उसमें बेइन्द्रियादि जीवों की भाषा अव्यक्त (अस्पष्ट) होती है तथा मनुष्य आदि की भाषा व्यक्त (स्पष्ट) होती है ।
वर्ण, पद तथा वाक्य स्वरूप भाषा व्यक्त भाषा है। अ, प्रा इत्यादि । चौदह स्वर तथा क, ख, इत्यादि तेंतीस व्यंजन एवं अनुस्वार-विसर्गादि सभी वर्ण हैं। विभक्ति युक्त वर्णों का समुदाय पद है तथा पदों का समुदाय वाक्य है । * प्रश्न-शब्द का ज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होता है। श्रोत्रेन्द्रिय रहित प्राणी शब्द का
श्रवण नहीं कर सकते हैं, अर्थात् वे सुन नहीं सकते हैं। ऐसा होने पर भी खेत में उगी हुई हरियाली वनस्पति इत्यादि पर बैठे हुए जीव-जन्तु ढोल प्रादि की आवाज से उड़ जाते हैं, उसका क्या कारण है ?
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५।२४ ]
मोऽध्यायः
[ ४१
उत्तर - एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय प्रारणी सभी श्रोत्रेन्द्रिय (कान) रहित हैं । इसलिए ढोल की आवाज को नहीं सुन सकते हैं। परन्तु शब्द पुद्गल रूप हैं-ढोल द्वारा उत्पन्न होने वाली आवाज के पुद्गल सर्वत्र चारों तरफ फैल जाते हैं । वे फैले हुए शब्द पुद्गल उन जीव-जन्तुनों के शरीर पर प्रहार रूप असर करते हैं । यह प्रहार सहन नहीं होने के कारण वे जीव-जन्तु उड़ जाते हैं ।
जैसे शब्द रूप पुद्गलों के प्रहार प्रादि से प्रतिकूल अनुकूल असर भी होता है । इसी कारण अमुक-अमुक से शीघ्र-जल्दी और विशेष विकसित कर सकते हैं । सुनाने में आ जाय तो गायें अधिक विशेष दूध देती हैं तथा रोगियों के से दूर कर सकते हैं ।
असर होता है वैसे संगीत आदि द्वारा वनस्पति- वृक्षों आदि को संगीत के प्रयोग गौ-गायों का दूध दुहते समय जो संगीत रोगों को विशेष शब्दप्रयोग
इस हकीकत को आज वैज्ञानिकों ने प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिया है । संयोग - मिलन |
(२)
बन्ध - यानी परस्पर दो वस्तुओंों का प्रयोगबन्ध और विलसा बन्ध ।
बन्ध के दो प्रकार-भेद हैं ।
( अ ) जीव- श्रात्मा के प्रयत्न से होता हुआ बन्ध 'प्रयोगबन्ध' कहा जाता है । जीवमात्मा के साथ देह शरीर का, जीव- श्रात्मा के साथ कर्मों का, लाख और लकड़ेकाष्ठादि का बन्ध प्रयोगबन्ध है ।
( श्रा) जीव- श्रात्मा के प्रयत्न बिना होने वाला बन्ध विस्रसा बन्ध है ।
बिजली और मेघादिक का बन्ध विस्रसाबन्ध है ।
अमुक प्रकार के पुद्गलों के मिलन से बिजली तथा मेघ आदि उत्पन्न होते हैं । पुद्गलों का मिलन किसी जीव आत्मा के प्रयत्न से नहीं होता, किन्तु स्वाभाविकपने होता है । जीव- श्रात्मा के साथ कर्मों का बन्ध शास्त्रों में भिन्न-भिन्न दृष्टियों द्वारा अनेक प्रकार से बताने में आया है । उसमें फल की अपेक्षा कर्मबन्ध के चार प्रकार कहने में आये हैं- (१) स्पृष्ट, (२) बद्ध, (३) निघत्त और ( ४ ) निकाचित ।
(१) स्पृष्टबन्ध - परस्पर घड़ी हुई सुइयों के समान है । जैसे परस्पर सटा कर रखी हुई सुइयों को जुदा करनी हो तो छूने मात्र से ही जुदा कर सके, बिखेर भी सके; तैसे कर्म विशेष फल दिये बिना सामान्य से प्रदेशोदय से भोग कर जीव आत्मा से छूटे पड़ जाँय जुदे पड़ जाँय; ऐसा जो बन्ध वह 'स्पृष्ट बन्ध' कहा जाता है ।
(२) बद्ध बन्ध - यह धागे से बंधी हुई सुइयों के समान है । जैसे धागे से बँधी हुई सुइयों को जुदा करना हो तो डोरे / धागे को छोड़ने-जुदा करने की जरा मेहनत-यत्न करना पड़ता है; वैसे कर्म भी अल्प फल देकर ही जो छूटे-जुदे पड़ें, ऐसा बन्ध 'बद्धबन्ध' कहा जाता है ।
(३) निघत्तबन्ध - डोरे-धागे से बांधी हुई और उपयोग के बिना अधिक समय तक पड़ी रहने से काठ में आई हुई सुइयों के समान । जैसे- ऐसी सुइयों को अलग-अलग कर उपयोग में
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गगापिसभापणास..
४२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।२४ लेने के लिए अधिक मेहनत करनी पड़ती है, वैसे जो कर्म भी अपना अधिक फल देकर ही अलग होते हैं, उस बन्ध को ही 'निधत्तबन्ध' कहा जाता है ।
(४) निकाचित बन्ध-घरण से कूट करके परस्पर एकमेक बनी हुई सुइयों के समान 'निकाचित बन्ध' कहा जाता है। जैसे ऐसी सुइयों को उपयोग में नहीं ले सकते हैं, किन्तु उसमें से फिर नूतन-नवी सुइयाँ बनाने के लिए विशेष प्रयत्न-मेहनत करनी पड़ती है, वैसे ही ये कर्म अपना पूर्ण फल दिये बिना छूटे-जुदे पड़ते ही नहीं हैं; पूर्ण फल देकर ही अलग होते हैं, ऐसे बन्ध को 'निकाचित बन्ध' कहा
(३) सूक्ष्मता-इसके दो भेद हैं-अन्त्य और प्रापेक्षिक ।
जो परमाणु रूप है वह अन्त्य सूक्ष्म है तथा द्वयणुकादि स्कन्ध हैं वे सापेक्ष सूक्ष्म हैं। अर्थात-परमाण की सक्षमता अन्त्य सक्षमता कही जाती है। इस विश्व-जगत में परमाण से अधिक सूक्ष्म कोई नहीं है। इसलिए परमाणु में रही हुई सूक्ष्मता अत्यन्त अन्तिम ही है। अन्तिम में अन्तिम है।
अन्य वस्तु-पदार्थ की अपेक्षा होती हुई सूक्ष्मता आपेक्षिक सूक्ष्मता है। जैसे--आँवले की अपेक्षा बेर-बोर सूक्ष्म है और ग्राम की अपेक्षा आँवला सूक्ष्म है।
चतुरणुक स्कन्ध की अपेक्षा त्र्यणुक स्कन्ध सूक्ष्म है इत्यादि ।
(४) स्थूलता-इसके भी दो भेद हैं-अन्त्य और प्रापेक्षिक । सम्पूर्ण लोकव्यापी स्कन्ध की जो स्थलता है, वह 'अन्त्य स्थलता' कही जाती है। कारण कि. बडे में बड़ा पदगल द्रव्य लोक समान है जो अचिन्त्य महास्कन्ध सर्वलोकव्यापी है। अलोक में तो किसी भी द्रव्य की गति नहीं होने से लोक के प्रमाण से बड़ा कोई पुद्गल द्रव्य नहीं है।
___ अन्य वस्तु की अपेक्षा होती स्थूलता प्रापेक्षिक स्थूलता है। जैसे-बेर से आँवला और आँवले से आम स्थूल है इत्यादि ।
आपेक्षिक वचन को ही अनेकान्तवाद-स्याद्वाद कहते हैं। एक ही वस्तु में स्थूलत्व और सूक्ष्मत्व सदृश दो विरोधी पर्यायों का अस्तित्व ही अनेकान्तवाद कहलाता है।
(५) संस्थान-यानी आकृति । अवयव रचना विशेष । वह अनेक प्रकार की है। तथापि उसके दो भेद बताये हैं-इत्थंभूत और अनित्थंभूत ।
जिस आकार-प्राकृति की किसी अन्य प्राकार-आकृति के साथ तुलना की जाय उसे 'इत्थंभूत' कहते हैं तथा जिसकी तुलना अन्य किसी के साथ नहीं हो सकती उसे 'अनित्थंभूत' कहते हैं ।
जैसे- मेघ आदि का संस्थान यानी रचना विशेष करके अनित्यरूप होने से किसी भी एक प्रकार से उनका निरूपण नहीं कर सकते हैं, इसलिए वह 'अनित्थंभूत' रूप है तथा फल, फूल-पुष्प, वस्त्र एवं पत्रादि वस्तुएँ इत्थंभूत रूप हैं। कारण कि, इनका आकार गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, इत्यादि तुलनात्मक अनेक प्रकार का है।
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५।२४ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ४३ (६) भेद-एकत्वरूप स्थित पुद्गलों के जो विश्लेष यानी विभाग हैं, उन्हीं को 'भेद' कहते हैं। अर्थात् -एक वस्तु-पदार्थ के भाग पड़ना सो 'भेद' है ।
___ इसके पाँच प्रकार हैं, जिनके नाम नीचे प्रमाणे हैं-(१) प्रौत्कारिक, (२) चौणिक, (३) खण्ड, (४) प्रतर और (५) अनुतट । * काष्ठादि यानी लकड़ी आदि को आरादिक से चीरना-काटना, 'पौत्कारिक भेद' कहा जाता है । * वस्तु-पदार्थ को पूर्ण करके महीन करना। अर्थात्-गेहूँ आदि का दलनादिक से होता हुआ
भेद, वह 'चौणिक भेद' कहा जाता है। जैसे दाल, आटा इत्यादि । * काष्ठ-लकड़ी आदि के खण्ड-टुकड़े करना, सो 'खण्ड भेद' कहा जाता है । * अभ्रक-भोडल आदि के परत पड़ल-पड़ 'प्रतर भेद' कहे जाते हैं । * बाँस, शेरड़ी, छाल, चामड़ी आदि को छेदने से होने वाला भेद 'अनुतट भेद' कहा जाता है। यह अनुत्तदवलकल विशेष नाम से भी कहा जाता है ।
(७) तम-अन्धकार को कहते हैं जो प्रकाश का विरोधी भाव है। यह अन्धकार के काले रंग में परिणमित पुद्गलों का समूह है, प्रकाश के अभाव रूप है। कारण कि उससे दृष्टि का प्रतिबन्ध होता है। जैसे एक वस्तु-पदार्थ से अन्य वस्तु ढक दी जावे तो अन्य वस्तु नहीं दिखाई देतो है वैसे ही यहाँ भी तिमिर-अन्धकार वस्तुओं को ढक देता है। जिससे वस्तु नेत्र-अाँख के सामने होते हुए भी दिखाई नहीं देती । जब अन्धकार पुद्गल स्वरूप हो तभी उससे दृष्टि का प्रतिबन्ध हो सकता है।
अन्धकार के पुद्गलों पर जब प्रकाश के किरण फैल जाते हैं तब अन्धकार के अणु वस्तुओं को आच्छादित नहीं कर सकते हैं। जब प्रकाश की किरणें दूर हो जाती हैं तब अन्धकार के पुद्गलों का प्रावरण आ जाने से अपन वस्तु-पदार्थ को नहीं देख सकते हैं।
(८) छाया-जो प्रकाश पर का आवरण है, वह छाया कही जाती है। छाया दो प्रकार की है।
(१) तद् वर्ण परिणत छाया और (२) प्राकार-प्राकृति रूप छाया। दर्पण आदि स्वच्छ द्रव्यों में देह-शरीर आदि के पुद्गल शरीर आदि के वर्णादि रूप में परिणाम पाते हैं। स्वच्छ द्रव्यों में मूल वस्तु-पदार्थ के वर्णादि रूप में परिणाम पाये हुए पुद्गलों को तद्वर्ण परिणत छाया के प्रतिबिम्ब कहा जाता है।
अस्वच्छ द्रव्य पर देह-शरीर आदि के पुद्गलों के मात्र आकार-प्राकृति प्रमाणे होते हुए परिणाम को जोधप-तडका में दिखाता है, वह प्राकार-प्राकृति रूप 'छाया' है। तद तथा प्राकार-प्राकृति ये दोनों छाया रूप होते हुए भी व्यवहार में अपन तद्वर्ण परिणाम रूप छाया को प्रतिबिम्ब तरीके पहिचानते हैं। जो प्रतिबिम्ब में आकार-प्राकृति और वर्ण ये दोनों स्पष्ट होते हैं, जबकि छाया में अस्पष्ट होते हैं।
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४४
]
बीतत्वाधिगमसूत्रे
[
१२४
प्रत्येक पदार्थ में से प्रतिसमय नल-पानी के फब्बारे की भांति स्कन्ध बहा करते हैं। वहीं रहे हुए पुद्गल प्रति सूक्ष्म होने से अपने देखने में नहीं पाते हैं। प्रति समय बहते वे पुद्गल प्रकाश आदि के द्वारा वर्तमान युग में वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा तदाकार पिंडित हो जाते हैं। तदाकार पिंडित हुए उन पुद्गलों को प्रपन सब प्रतिबिम्ब या छाया रूप में पहिचान सकते हैं ।
सारांश यह है कि छाया प्रकाश पर का आवरण है। जैसे-मेघाच्छादित सूर्य या मनुष्यादि की छाया। दर्पणादि स्वच्छ पदार्थों में जो मुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह प्रतिबिम्ब रूप छाया ही है।
(८) प्रातप-सूर्यादिक से होने वाले उष्ण प्रकाश को 'प्रातप' कहते हैं। तथा चन्द्रादिक से होने वाले शीतल प्रकाश को 'उद्योत' कहते हैं ।
ये सब पुद्गल स्वभावी या पुद्गल पर्याय रूप होने से पौद्गलिक हैं ।
विशेष-सूर्य के प्रकाश को जो 'पातप' कहने में पाया है, उसका कारण यह है कि-जो सूर्य है, वह ज्योतिष्क जाति के देवों का विमान है। उसमें देव रहते हैं। यह विमान अति मूल्यवान रत्नों का बना हुआ है। इसलिए उसमें से प्रकाश फैलता है। यह प्रकाश प्रातप तरीके प्राप्त होता है। इसलिए आतप अग्नि की भांति उष्ण होने से पुद्गल है। आतप उष्ण और श्वेत रंग में परिणमित पुद्गलों का समूह ही है । * प्रश्न-इतनी दूर रहने वाले सूर्य का प्रकाश भी यहां पृथ्वी को तथा अन्य वस्तुओं को
उष्ण-गरम बना देता है, तो वहाँ देव उसमें किस तरह रह सकते हैं ? उत्तर-सूर्य का प्रकाश पृथ्वी पर उष्ण-गरम होता है, किन्तु सूर्य विमान का स्पर्श शीत होता है। अग्नि के और सूर्य के प्रकाश में इतनी ही भिन्नता है। क्योंकि अग्नि आदि का स्पर्श भी उष्ण होता है और प्रकाश भी उष्ण होता है। जबकि सूर्य में ऐसा नहीं है। सूर्य का केवल प्रकाश ही उष्ण होता है, स्पर्श तो शीत होता है। सूर्य के प्रकाश को उष्णता ज्यों-ज्यों दूर जाती है, त्यों-त्यों अधिक हो जाती है। इससे वहां रहने वाले देवों को किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है।
(१०) उद्योत-चन्द्र, चन्द्रकान्त मणि, कितने ही रत्न तथा औषधियों आदि के प्रकाश को 'उद्योत' कहने में आता है। उद्योत और प्रकाश ये दोनों प्रकाश स्वरूप ही हैं। उसमें शीत वस्तु के उष्ण प्रकाश को 'प्रातप' कहते हैं तथा अनुष्ण प्रकाश को 'उद्योत' कहने में आता है। * प्रश्न-जब सूत्र २३ में और सूत्र २४ में बताये हुए स्पर्शादि तथा शब्दादि दोनों ही
पुद्गल के पर्याय हैं तो इनके लिए पृथक् सूत्र रचने की क्या आवश्यकता है ?
एक ही सूत्र से कार्य चल सकता है ? उत्तर-२३ वें सूत्र में कहे हुए स्पर्श, रसादि पर्याय प्रणु और स्कन्ध दोनों में होते हैं । जबकि २४ वें सूत्र में कहे हुए शब्द आदि पर्याय सिर्फ स्कन्ध में ही होते हैं। परमाणु में रहे हुए स्पर्शादि के साथ उनका सम्बन्ध नहीं होता है तथा शब्द, बन्ध आदि पर्याय अनेक निमित्तभूत होने
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२५]
पञ्चमोऽध्यावः
[ ४५
से स्कन्धों में ही पाये जाते हैं । सूक्ष्मतम पर्याय परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में है, तो भी इसके प्रतिपक्षी स्थूलत्व पर्याय की सहचरिता होने से स्पर्शादि के साथ परिगणना नहीं करके शब्दादि में सम्मिलित किया है ।
पूर्वोक्त दोनों सूत्रों में निमित्त भेद ही कारणभूत है। इसलिये ही ये ( २३-२४) सूत्र पृथक् किये गये हैं ।
* प्रश्न - स्पर्शादि की भाँति सूक्ष्मता भी अणु और स्कन्ध दोनों में है । इसलिए सूक्ष्मता का निरूपण स्पर्शादि के साथ २३ वें सूत्र में करना चाहिए ?
उत्तर - स्थूलता केवल स्कन्धों में ही है । अतः स्थूलता का निरूपण इसी सूत्र में करना चाहिए । सूक्ष्मता स्थूलता के प्रतिपक्ष तरीके है और लोकव्यापी प्रचित्त महास्कन्धादि में होती नहीं । यह बताने के लिए स्थूलता के साथ सूक्ष्मता का भी निरूपण इस सूत्र में करने में आया है ।। ५-२४ ।।
5 मूलसूत्रम्
* पुद्गलस्य मुख्यभेदाः *
श्ररणवः स्कन्धाश्च ।। ५-२५ ।
* सुबोधिका टीका *
पुद्गलस्य द्वौ भेदौ । तद्यथा प्रणवः स्कन्धाश्चेति । प्रणोः लक्षणम् "कारणमेव तदन्त्यम् सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो द्विःस्पर्शः कार्य-लिङ्गश्च ।” इति तत्राणवोऽबद्धाः, स्कन्धास्तु बद्धा एव । पदार्थः द्विधा विभज्यते कार्यरूपेण कारणरूपेण, यद्भावे तद्भावम् कारणम् । किन्तु तद्विपरीतम् कार्यम् । इत्थं परमाणुकार्यरूपमेव । यत् तेषां भावे एव स्कन्धानां उत्पत्तिः नान्यथा ।। ५-२५ ।।
* सूत्रार्थ - प्रणु श्रौर स्कन्ध के भेद से पुद्गल दो प्रकार के हैं ।। ५-२५ ।।
विवेचनामृत
पुद्गल के परमाणु और स्कन्ध इस तरह मुख्य दो भेद हैं । व्यक्तिरूप से पुद्गल अनन्त हैं और उनकी विविधता भी अपरिमित है, तथापि पूर्वोक्त सूत्र २३ र २४ में पुद्गल परिणाम की उत्पत्ति के लिए भिन्न-भिन्न कारण कहे गये हैं । उनकी उपयोगिता के लिए संक्षेप से प्रवर्तमान सूत्र द्वारा पुद्गल के दो विभाग किये हैं । एक है अणु अर्थात् परमाणु और दूसरा है स्कन्ध | उक्त दो विभागों में सम्पूर्ण समस्त पुद्गल राशि का समावेश हो जाता है । इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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श्रीतस्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।२५
परमाणु यानी पुद्गल का अन्तिम में अन्तिम अंश । इसलिए ही उसको परम अन्तिम अणु-अंश = परमाणु कहने में आता है । परमाणु पुद्गल का अविभाज्य अन्तिम विभाग है । जिसका सर्वज्ञ श्री केवली भगवन्त भी दो विभाग नहीं कर सके, ऐसा ही चरम अंश है । उसकी आदि, मध्य और अन्त भी वह स्वयमेव ही है । अर्थात् सदा ही अबद्ध = छूटा ही होता है । यह स्वयमेव ही एकप्रदेशरूप है । परमाणु कारणरूप होने से अन्य द्वयणुक आदि कार्य होते हैं । इससे वह कारण बनता है किन्तु वह किसी में से उत्पन्न नहीं होने से कभी भी कार्यरूप नहीं होता = नहीं बनता । वह सूक्ष्म होता है । उसका कदापि विनाश नहीं होता है । भले उसके पर्याय बदलते रहते हैं, तो भी उसका सर्वथा विनाश कभी नहीं होता है । उसमें कोई भी एक रस, कोई भी एक गन्ध तथा कोई भी एक वर्ण और दो स्पर्श अवश्य होते हैं । वे भी स्निग्ध-शीत, स्निग्धउष्ण, रूक्ष- शीत, रूक्ष-उष्ण इन चार विकल्पों में से किसी भी एक विकल्प के दो स्पर्श जानना ।
४६ ]
एकाकी परमाणु कभी नेत्र-नयन से देखने में आता नहीं है, इतना ही नहीं किन्तु अनुमान आदि से भी नहीं जाने जाते हैं । जब अनेक परमाणु एकत्र होकर कार्य रूप में परिणमते हैं, तभी अनुमान द्वारा एकाकी परमाणु का ज्ञान होता है । दृश्यमान घट-पट इत्यादि कार्यों में परम्परा से अनेक कारण होते हैं । उनमें अन्तिम जो कारण है, वह 'परमाणु' ही है ।
अन्य कारिकाओं द्वारा परमाणु का लक्षण बताते हुए भी कहा है कि
कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो, नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगन्धवर्णो, द्विस्पर्श: कार्यलिङ्गश्च ॥
स्कन्ध - परस्पर संयुक्त दो इत्यादि परमाणुत्रों के समूह को 'स्कन्ध' कहते हैं । प्रकार के हैं । सूक्ष्मपरिणामवाले और बादरपरिणामवाले ।
स्कन्ध दो
सूक्ष्म परिणाम वाले स्कन्ध आँखों से देखने में नहीं आते हैं । बादर परिणामवाले स्कन्ध हाँखों से देखने में आते हैं । अतः दृश्यमान घंटादि सभी स्कन्ध बादरपरिणामी ही हैं ।
बादर परिणाम वाले स्कन्धों में आठों स्पर्श होते हैं तथा सूक्ष्म परिणाम वाले स्कन्धों में चार स्पर्श होते हैं । मृदु और लघु ये दो स्पर्श नियत होते हैं । अन्य दो प्रकार के स्पर्श अनियत होते हैं ।
[ 'स्निग्ध-उष्ण, स्निग्ध-शीत, रूक्ष-उष्ण, रूक्ष- शीत' इन चार विकल्पों में से कोई भी दो स्पर्श होते हैं ] रस, गन्ध और वर्ण दोनों प्रकार के स्कन्धों में सर्व प्रकार के होते हैं । परमाणु और स्कन्ध दोनों पुद्गल रूप में समान होते हुए भी दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न होने से वे भिन्न हैं । इन दोनों की उत्पत्ति किस तरह से होती है, यह श्रागे के सूत्र में वर्णन करते हैं ।। ५-२५ ।।
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५।२६ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ४७
* स्कन्धस्योत्पत्तिकारणानि * . ॐ मूलसूत्रम्
संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥५-२६ ॥
* सुबोधिका टीका * स्कन्धाः त्रिभ्यः कारणेभ्यः उद्भवन्ति, संघाताद्, भेदात्, संघातभेदात् द्विप्रदेशादयः स्कन्धानामुत्पत्तिः जायते । तद्यथा-द्वयोः परमाण्वोः संघाताद् द्विप्रदेशः द्विप्रदेशस्याणोश्च संघातात् त्रिप्रदेशः एवं संख्येयानामसंख्येयानां च प्रदेशानां संघातात् तावत् प्रदेशाः । एषामेवभेदात् द्विप्रदेशपर्यन्ताः। एत एव च संघातभेदाभ्यां एकसामयिकाभ्यां द्विप्रदेशादयः स्कन्धा उद्भवन्ति, अन्यसंघातेन अन्यतो भेदेन च ॥ ५-२६ ।।
* सूत्रार्थ-स्कन्धों की उत्पत्ति संघात, भेद और संघातभेद से होती है । अर्थात्-संघात से, भेद से तथा संघात भेद से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं ।। ५-२६ ।।
卐 विवेचनामृत ॥ संघात, भेद और संघातभेद इन तीन कारणों में से किसी भी एक कारण से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। इन तीन कारणों से स्कन्ध की उत्पत्ति कैसे होती है ? इसका दिग्दर्शन नीचे प्रमाणे है
स्कन्ध अर्थात् अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति तीन प्रकार से होती है। उनमें (१) पहला जो स्कन्ध एकत्व रूप परिणति से उत्पन्न होता है उसको संघात कहते हैं। जैसे-द्विपरमाणु सम्मिलित होकर के स्कन्धपने को प्राप्त होते हैं एवं तीन, चार, यावत् संख्यात, असंख्यात, अनन्त और
नन्त प्रण सम्मिलित होकर के स्कन्ध रूप में परिणत होते हैं, वह 'संघातजन्य स्कन्ध' है।
(२) जो स्कन्ध किसी एक वस्तु-पदार्थ के खण्डरूप होता है उसे भेद कहते हैं। जैसेकिसी बड़ी वस्तु या पदार्थ के टूट जाने से उसके छोटे-छोटे टुकड़े हो जाते हैं, वे 'भेदस्कन्ध' कहलाते हैं।
(३) उपर्यक्त भेद और संघात दोनों से उत्पन्न होने वाला स्कन्ध है। जैसे किसी वस्तपदार्थ के टूटे हुए टुकड़े के साथ अन्य द्रव्य सम्मिलित होकर के उसी समय नूतन-नवीन स्कन्ध बनता है, वह भेदसंघातजन्य स्कन्ध कहलाता है ।
उपर्युक्त स्कन्ध द्विप्रदेशी से यावत् अनन्तानन्तप्रदेशी पर्यन्त होते हैं। वे ही (१) संघात, (२) भेद और (३) संघातभेद कहलाते हैं ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि
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भीतस्वाधिषमसूत्रे
[
१२६
(१) संघात-दो अणुषों के संघात से अर्थात् परस्पर जोड़ने से द्वयणुक स्कन्ध उत्पन्न होता है। दो अणुओं में एक अणु जोड़ने से व्यणुकस्कन्ध उत्पन्न होता है। तीन अणुओं में एक अणु जोड़ने से चतुरणुकस्कन्ध उत्पन्न होता है। इस तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त अणु के संघात से क्रमश: संख्याताणुक, असंख्याताणुक और अनंताणुक स्कन्ध उत्पन्न होते हैं।
यहाँ पर क्रमशः एक-एक अणु जुड़े ऐसा नियम नहीं है। कारण कि द्वयणुक स्कन्ध में एक साथ दो आदि अणु जुड़े तो भी व्यणुक स्कन्ध बने बिना भी सीधे चतुरणुक आदि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। उसी तरह पृथक-पृथक् तीन-चार आदि भी परमाणु एक साथ जुड़ें तो भी द्वयणुक बने बिना सीधे ही त्र्यणुक, चतुरणुक प्रादि स्कन्ध उत्पन्न होते हैं। कभी-कभी संख्यात परमाणु एक साथ में जुड़ जाने से द्वयणुकादि स्कन्ध बने बिना भी संख्याताणुक स्कन्ध बन जाता है। इस तरह असंख्याताणुक स्कन्ध और अनन्ताणुक स्कन्ध के लिए भी अवश्य जानना।
(२) भेद-अनन्ताणक स्कन्ध में से एक अण छट जाय तो एक अण न्यून अनन्ताणक स्कन्ध बनता है तथा दो परमाणु छुट जाँय तो दो परमाणु न्यून अनन्ताणुक स्कन्ध बनता है। इस तरह परमाणु छूटे पड़ते-पड़ते अनन्ताणक स्कन्ध असंख्याताणुक बन जाय तो इस असंख्याताणुक स्कन्ध की उत्पत्ति भेद से हुई, ऐसा कहा जाता है। असंख्याताणुक स्कन्ध में से ऊपर प्रमाणे परमाणु छूटे पड़ते-पड़ते संख्याताणुक बन जाय तो इस संख्याताणुक स्कन्ध की उत्पत्ति भेद से हुई, कहा जायेगा। संख्याताणुक स्कन्ध में से भी एक दो इत्यादि परमाणु छटे पड़ते-पड़ते यावत् मात्र दो ही परमाणु रहें तो, वह द्वयणुक स्कन्ध बन जाता है। जिस तरह संघात में एक साथ में एक-एक अणु ही जोड़ा जाय ऐसा नियम नहीं है, वैसे ही भेद में भी एक अणु ही छूटे, ऐसा भी नियम नहीं है।
अनन्ताणुक आदि स्कन्धों में से कई बार एक, कई बार दो, कई बार तीन, इस प्रकार यावत् कई बार एक साथ में मात्र दो अणुओं को छोड़कर सर्व ही अणु छूटे पड़ जॉय, तो वह स्कन्ध द्वयणुक बन जाता है।
(३) संघातभेद-एक ही समय में पृथक् होना और संयुक्त होना। अर्थात्-स्कन्ध में से एक दो इत्यादि परमाणु छूटे पड़ें तथा उसी समय में अन्य एक, दो इत्यादि परमाणु मिल भी जाँय, तो ऐसे स्कन्ध की उत्पत्ति संघात भेद से होती है। जैसे–चतुरणुक स्कन्ध में से एक परमाणु छूटा पड़ा और उसी समय में दो परमाणु आकर जुड़े तो यह चतुरणुक स्कन्ध, पंचाणुक यानी पाँच अणुवाला स्कन्ध बना। यहाँ पर पंचाणुक स्कन्ध की उत्पत्ति संघातभेद से हुई ।
इस तरह चतुरणुक स्कन्ध में एक परमाणु जुड़ा और उसी समय में उसमें से दो परमाणु छुटे पड़ गए तो यहाँ व्यणुक स्कन्ध की उत्पत्ति संघात भेद से हुई ।
आम स्कन्ध में अमुक परमाणु जुड़े और उसी समय में उसमें से जितने जुड़े उतने ही न्यूनाधिक अणु छुटे पड़ जाए तो नूतन जो स्कन्ध बने उनकी उत्पत्ति संघात, भेद से ही होती है । ऐसा समझना चाहिए ।। ५-२६ ।।
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५।२७ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ४६ * परमाणोः उत्पत्तिः * ॐ मूलसूत्रम्
भेदावणुः ॥५-२७॥
* सुबोधिका टोका * स्कन्धोत्पत्तिभ्यः यानि त्रीणि कारणानि निर्दिष्टानि तेषु परमाणत्पत्तिः भेदादेव न तु संघातात् । पूर्व परमाणुः कारणरूपेणोक्तः किन्तु द्रव्यास्तिकनयेनैवेतद् । पर्याय नयापेक्षया तु कार्यरूपमेव भवति । यत् तस्य द्वयणकादिकः अपि उत्पत्तिः प्रतः पूर्वापरेण हेतुना नैव विरोधः। संघातभेदेभ्यः उत्पद्यन्ते। अनेन सूत्रेण त्रीणि कारणानि निर्दिष्टानि, किन्तु स्कन्धस्य द्वौ प्रकारौ। चाक्षुषाचाक्षुषो। द्वयोः स्कन्धप्रकारयोः कारणता साम्यं वा असाम्यं तदुच्यते ।। ५-२७ ।।
* सूत्रार्थ-परमाणु की उत्पत्ति भेद से ही होती है। भेद से ही अर्थात् वस्तु के खण्ड से अणु की उत्पत्ति है ।। ५-२७ ।।
विवेचनामृत परमाणु स्कन्ध के भेद से ही उत्पन्न होता है। कारण कि, परमाणु पुद्गल का अन्तिम अंश है। संघात होते ही वह अन्तिम अंश तरीके मिट कर स्कन्ध रूप में बनता है ।
अणु की उत्पत्ति संघात से होती ही नहीं। इसकी संघात भेद से भी उत्पत्ति नहीं होती। जब स्कन्ध में से परमाणु पृथक् निकलता है तभी परमाणु की उत्पत्ति होती है ।
परमाणु के लिए जो यह उपर्युक्त सूत्र "भेदादणुः" कहा है, वह विस्खलित अवस्था अर्थात् स्कन्ध के अवयव में समूह रूप से रहे हुए या उससे निकलकर पृथग् हुए परमाणु अवस्था विषयी हैं। विस्खलित अवस्था स्कन्ध भेद से ही उत्पन्न होती है। इसलिए इसी अभिप्राय से "भेदादणुः" यह सूत्र कहा है। किन्तु विशुद्ध परमाणु की अपेक्षा नहीं है, पर्याय भेद अवस्थाजन्य है।
वास्तविकता में परमाणु अन्य किसी द्रव्य का कार्य नहीं है। तथा न अन्य द्रव्य के संघात से सम्भव है, किन्तु वह स्वाभाविक स्वतन्त्र अनादिकालीन नित्य द्रव्य है।
* प्रश्न -परमाणु नित्य है और वह कारण रूप ही है, कार्य रूप नहीं है। इस तरह से कहा हुआ है, परन्तु यहाँ तो भेद से अणु उत्पन्न होता है, ऐसा कहा है, तो फिर उसका अर्थ यह हुआ कि परमाणु नित्य है, इतना ही नहीं किन्तु कार्यरूप भी है ?
उत्तर-सर्वज्ञविभुभाषित श्री जैनदर्शन कभी किसी काल में वस्तु-पदार्थ को एकान्त रूप से नित्य या अनित्य मानता ही नहीं। वह प्रत्येक वस्तु-पदार्थ को अपेक्षाभेद से नित्य और अपेक्षाभेद से अनित्य उभयस्वरूप मानता है।
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५० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ २८ जैनदर्शन वस्तु मात्र को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य मानता है, तथा पर्यायाथिक नय की अपेक्षा अनित्य मानता है। अतः जब वह किसी वस्तु को नित्य या अनित्य कहे तो वह वस्तु नित्य ही है, या अनित्य ही है ऐसा नहीं समझे। पूर्व में परमाणु को नित्य कहने में आया है, वह द्रव्याथिक नय की दृष्टि से, परमाणु पूर्व में नहीं ही था और नया ही द्रव्यरूप में उत्पन्न हुआ है, ऐसा नहीं। इस द्रव्यरूप में वह नित्य है। किन्तु अमुक पर्याय रूप में वह नया ही उत्पन्न होता है ।
जब परमाणु स्कन्ध में से निकल जाता है, तब उसके स्कन्धबद्ध अस्तित्वपर्याय का विनाश होता है। तथा स्वतन्त्र अस्तित्व रूप पर्याय उत्पन्न होती है। पर्यायाथिक नय से स्वतन्त्र अस्तित्व पर्यायरूप में परमाणु की उत्पत्ति होती है। कोई नया ही परमाणु उत्पन्न होता हो ऐसा नहीं। यहाँ पर भेद से परमाणु उत्पन्न होता है। उसका अर्थ इतना ही है कि परमाणु स्कन्ध में जो परस्पर बन्ध था वह छूटकर परमाणु स्वतन्त्र होता है।
परमाणु के स्वतन्त्र अस्तित्व रूप पर्याय की उत्पत्ति को उपचार से परमाणु की उत्पत्ति कहने में आती है। इस तरह द्रव्याथिक दृष्टि से वह (उत्पन्न न होने से) कारण रूप है, और पर्यायाथिक दृष्टि से (उत्पन्न होने से) कार्य रूप भी है ।। ५-२७ ।।
* स्कन्धः चक्षुग्राह्याग्राह्ययोः विषयः ॐ + मूलसूत्रम्
भेव-सङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः ॥५-२८ ॥
* सुबोधिका टीका * चक्षुष इमे चाक्षुषाः । ये च चक्षुरिन्द्रियविषयाः ते चाक्षुषाः ।
भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषा उत्पद्यन्ते। अचाक्षुषाः तु यथोक्तात् सङ्घातात् भेदात् सङ्घातभेदाच्च ।
अत्र चक्षुष इमे चाक्षुषाः इति सर्वथा नैव नियमः ।
यदनन्तानन्तपरमाणुसंयोगविशेषैः बद्धा अचाक्षुषारपि स्कन्धाः भवन्ति । येषाञ्चोत्पत्ति भेदसङ्घाताभ्यां भवन्ति । अतः स्वतः सिद्धं यत् स्वतः परिणमनविशेषैः चाक्षुषस्वरूपपरिणमनकारकाः बादरस्कन्धाः भेदसङ्घातेनोत्पद्यन्ते ।। ५-२८ ।।
* सूत्रार्थ-चक्षुरिन्द्रिय के विषय हो सकने वाले स्कन्धों की उत्पत्ति भेद और संघात से होती है।
अर्थात्-भेद और संघात दोनों से चाक्षुष स्कन्ध बनते है ।। ५-२८ ॥
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पञ्चमोऽध्यायः
5 विवेचनामृत 5
भेद तथा संघात उभय से उत्पन्न हुए स्कन्ध ही अर्थात् उन्हें चक्षु से देख सकते हैं ।
५२८ ]
५१
1
वर्तमान सूत्र द्वारा सिद्ध करते हैं कि अचाक्षुष स्कन्ध भी हैं । वे निमित्त लेकर चक्षु ग्राह्य बन जाते हैं । पुद्गल विविध परिणामी होते हुए भी यहाँ मुख्यपने दो भेद प्रतिपाद्यरूप होने से उन्हीं का कथन करते हैं
( १ ) अचाक्षुष यानी चक्षु इन्द्रिय अग्राह्य ।
तथा (२) चाक्षुष यानी चक्षु इन्द्रिय ग्राह्य । प्रथमावस्था के पुद्गल स्कन्ध प्रचाक्षुष हैं, किन्तु वे निमित्तवश सूक्ष्मत्व परिणाम का परित्याग कर बादर (स्थूल) परिणाम विशिष्टत्व द्वारा चक्षुग्राही बन जाते हैं। इसके लिए भेद और संघात दोनों अपेक्षाएँ युक्त हैं । जब स्कन्ध सूक्ष्मत्व परिणाम का परित्याग करके बादर परिणाम विषयी होता है, तब उस समय कितनेक नूतन परमाणु स्कन्ध में अवश्य सम्मिलित होते हैं एवं पूर्ववर्ती कितने ही अणु उससे पृथग् भी होते हैं । सूक्ष्म परिणाम की निवृत्ति तथा बादर परिणाम की उत्पत्ति केवल संघात प्रणुत्रों के सम्मिलन मात्र से या भेद-खण्ड मात्र से नहीं है । किन्तु जब तक स्कन्ध सूक्ष्मभाववर्ती है, उसमें कितने ही अधिक अणु सम्मिलित क्यों न हों, वह चक्षुग्राह्य नहीं हो सकता है । स्कन्ध जब सूक्ष्मत्व भाव को छोड़ करके बादर (स्थूल) स्वभाव वाला होता है, उस समय चाहे वह अधिकाधिक अणुत्रों से न्यून अणुवाला भी हो तो चक्षुग्राह्य होता है ।
बादरत्व परिणाम के बिना स्कन्ध चक्षुग्राह्य नहीं हो सकता है । इसलिए चाक्षुष स्कन्ध Satara र्वक संघात तथा भेद की ही आवश्यकता रहती है ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि — प्रत्यन्त स्थूल परिणाम वाले स्कन्धों को ही नेत्र-नयनों से देख सकते हैं । वे स्कन्ध केवल भेद या केवल संघात से उत्पन्न नहीं होते हैं, किन्तु भेद और संघात दोनों से निष्पन्न होते हैं ।
भेद-संघात से उत्पन्न हुए समस्त स्कन्धों को देख सकते हैं, ऐसा नियम नहीं है । किन्तु जो स्कन्ध देखे जा सकते हैं, वे स्कन्ध भेद-संघात से ही उत्पन्न होते हैं, ऐसा नियम है ।
यहाँ चक्षु से ग्राह्य बनते हैं, यह उपलक्षण होने से पाँचों इन्द्रियों से ग्राह्य बनते हैं, ऐसा समझना चाहिए । अर्थात् भेद-संघात से उत्पन्न हुए स्कन्ध इन्द्रियग्राह्य बनते हैं ।
. भेद शब्द के दो अर्थ हैं
(१) स्कन्ध के टुकड़े अर्थात् खण्ड हो के अणुत्रों का पृथक् होना । तथा (२) पूर्व परिणाम की निवृत्ति और उत्तर परिणाम की उत्पत्ति ।
किन्तु अचाक्षुष स्कन्ध से चाक्षुष स्कन्ध बनने के लिए उपर्युक्त दोनों भेदों (परिणाम भेदसंघात ) की आवश्यकता रहती है ।
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५२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।२६ प्रस्तुत वर्तमान सूत्र में चाक्षुष शब्द ही विधानरूप है। अर्थात् यह चक्षुग्राह्य स्कन्धों का ही बोधक है, तो भी यहाँ पर उसको सर्वेन्द्रिय लाक्षणिक माना है ।
भेद, संघात का निमित्त पाकर वे ऐन्द्रिय बन जाते हैं। तथा वे ही स्थल से सूक्ष्म और विशेष इन्द्रियग्राह्य से एक इन्द्रियग्राही हो जाते हैं।
जैसे-नमक तथा हींग इत्यादि पदार्थों का स्पर्श, रस, घ्राण तथा नेत्र इन चारों इन्द्रियों द्वारा ज्ञान हो सकता है। अर्थात् वे चतुष्केन्द्रियग्राही हैं, तथापि उनको यदि जल-पानी में घोल दिया जाय तो वही वस्तु केवल घ्राणेन्द्रिय (नाक) और रसनेन्द्रिय (जीभ) ग्राही बन जायेगी। * प्रश्न–चाक्षुष स्कन्ध बनने के लिए दो कारण बताये, किन्तु अचाक्षुष के लिए भेदविधान
__ क्यों नहीं ? उत्तर–वर्तमान अध्याय के २६ वें सूत्र में सामान्यरूप से स्कन्ध मात्र की उत्पत्ति के लिए तीन हेतु कहे गये हैं। यहाँ पर तो केवल विशेष स्कन्ध की उत्पत्ति अर्थात् अचाक्षुष स्कन्ध से चाक्षुष स्कन्ध बनने के हेतु कहे गये हैं ।
सामान्य विधान अर्थात् सूत्र २६ के कथनानुसार अचाक्षुष स्कन्ध बनने के लिए संघात, भेद तथा संघातभेद ये तीनों कारण हैं। * प्रश्न-वर्तमान अध्याय के सूत्र १-२ में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का कथन है, किन्तु
वे किस प्रकार से जाने जाते हैं ? उत्तर-वे सब सत् लक्षण से जाने जाते हैं। इसलिए सत् लक्षण की व्याख्या करते हैं । अर्थात्-यहाँ तक धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र लक्षण तथा स्वरूप कहा। इससे यह सिद्ध हुआ कि धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य सत् हैं--विद्यमान हैं।
अब इन पाँचों द्रव्यों का सत् तरीके क्या एक ही लक्षण है ? अर्थात्-सत् किसे कहते हैं, वह बताते हैं ।। ५-२८ ।।
* सतलक्षणः * ॐ मूलसूत्रम्
उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्त सत् ॥५-२६ ॥
* सुबोधिका टीका * सतो लक्षणमुत्पादव्ययौ ध्रौव्यञ्च । अर्थात् यत्र त्रयाणां समवायः जायते तत् सत् । यदिह मनुष्यत्वादिना पर्यायेण व्ययतश्च प्रात्मनो देवत्वादिना पर्यायेणोत्पादः एकान्त ध्रौव्ये प्रात्मनि तत् तथैकस्वभावतयाऽवस्थाभेदानुपपत्तेः । अतः उत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः युक्तः सत् ।
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[ ५३
घटपर्यायव्ययेन मृत्तिकायाः एव कपालरूपेणोत्पत्तिः । अत एव घटस्य व्ययकपालोदय मृत्तिका धौव्यमेकमेवेकस्मिन्क्षणे जायते । श्रतः सत् युगपत् उत्पादव्यय - ध्रौव्यात्मकत्वं सिद्धमेव ।
५।२६ ]
पञ्चमोऽध्यायः
एवं च संसारापवर्गभेदाभावः । कल्पितत्वेऽस्य निःस्वभावतयानुपलब्धिप्रसङ्गात् । सस्वभावत्वे त्वेकान्त ध्रौव्याभावस्तस्यैव तथा भवनादिति । तत् तत् स्वभावतया विरोधाभावात् तथोपलब्धिसिद्धेः । तद्भ्रान्तत्वे प्रमाणाभावः । योगिज्ञानप्रमारणाभ्युपगमे त्वभ्रान्तस्तदवस्थाभेदः । अन्यथा न मनुष्यादेर्देवत्वम् ।
एवं यमादिपालनानर्थक्यम् । एवं च सति " अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।" " शौच संतोषतपः स्वाध्यायेश्वर - प्रणिधानानि नियमाः । " इति श्रागमवचनं वचनमात्रम् ।
यदि पदार्थध्रौव्यस्वरूपम् तर्हि प्रात्मनः अवस्थायावस्थाकारणं अशक्यं ततः यमादिनियमाः किम् ? प्रत एव श्रात्मनः ध्रौव्यमेव नैवोत्पादद्रव्यमपि । एवमेकान्ता - Satosपि सर्वथा तदभावापत्तेः तत्त्वतोऽहेतुकत्वमेवावस्थान्तरमिति । न हेतु स्वभावतयोर्ध्वं तद्भावः तत् स्वभावतयैकान्तेन धौव्यसिद्धेः । यदा हि हेतोरेवासौ स्वभावो यत् तदनन्तरं तद् भावस्तदा ध्रुवोऽन्वयस्तस्यैव तथाभवनात् । एवं च तुलोन्नामावनामवद्धेतुफलयोः युगपत् व्ययोत्पादसिद्धिरन्यथा तत् तत् हि प्रतिरिक्ततर विकल्पायामयोगात् । तन्न ।
एवञ्च सम्यग्दृष्टिः सम्यग् संकल्पः सम्यग्वाक्, सम्यग्मार्गः सम्यगार्जवः, सम्यग्व्यायामः, सम्यग् स्मृतिः, सम्यग् समाधिरिति वाग्वैयर्थ्यम् । एवं घटव्ययवत्या मृदः कपालोत्पादभावात् उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्त सदिति ।
क्षणे क्षणे सर्वव्यक्तिषु प्रन्यत्वं नियतं न च विशेषतः । पचित्योराकृतिजातिव्यवस्थानात् सम्भवति ।
एतद् सत्योश्चित्य
वस्तुस्वभावानुसारेणैव नरकादिगतिविभेदः संसार - मोक्षयोश्च भेदोऽपि सिद्धः । तद्धेतुः मुख्यतया क्रमेण हिंसादिः सम्यक्त्वादिश्च ।
वस्तुनि उत्पादादियुते एतदुपपद्यते । तद्रहिते नीत्या तद् प्रभावात् सर्वमपि न युज्यते । उपादानहेतुविना नोत्पादः भवति, न चास्य तावदवस्थ्ये । श्रतस्त्रयात्मकेऽस्मिन् उत्पादादिकसम्भवम् ।
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५४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।२६
____ एकसंसारीजीवोऽपि सिद्धपर्यायं धारयति । अत एव सिद्धत्वेनोत्पादोऽस्य संसारभावतः व्ययः ज्ञेयः। सर्वमेवं जीवत्वेन ध्रौव्यं त्रितययुतं ज्ञेयमिति ।
उत्पाद-व्ययौ ध्रौव्यं चैतद् त्रितययुतं सतो लक्षणम्, अथवा युक्त समाहितं वा त्रिस्वभावं सत् । यदुत्पद्यते यद् व्ययेति यच्च ध्र वं तत् सतम् । अत्राशङ्कते इदं तु वाच्यं सत् तत् किं नित्यं वाऽनित्यम् ? ।। ५-२६ ॥
* सूत्रार्थ-सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है। अर्थात्-जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो वह 'सत्' कहा जाता है ।। ५-२६ ।।
विवेचनामृत उत्पाद (उत्पत्ति), व्यय (विनाश) और ध्रौव्य (स्थिरता) युक्त अर्थात् वस्तु-पदार्थ का तदात्मकत्व भाव 'सत्' कहलाता है। उक्त ये तीन जिसमें न हों, वह वस्तु 'असत्' है। अर्थात् इस विश्व-जगत् में विद्यमान नहीं है।
वस्तू-पदार्थ मात्र में सदा उत्पादादि ये तीनों अवश्य ही होते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रतिसमय पर्याय रूप में उत्पन्न होती है और पर्याय रूप में ही विनाश पाती है; तथा द्रव्य रूप में स्थिर भी रहती है।
प्रत्येक वस्तु में दो अंश होते ही हैं--(१) द्रव्यांश और (२) पर्यायांश । उसमें द्रव्य रूप अंश स्थिर (ध्रुव) होता है तथा पर्याय रूप अंश अस्थिर (उत्पाद-व्ययशील) होता है। प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त होती है। यही कथन श्रीजैनदर्शन-जैनमत के सिद्धान्त-शास्त्र के अनुसार वास्तविक निःशङ्कपने अवश्य ही सिद्ध होता है। .
___ सत् स्वरूप के विषय में अन्य दर्शनकारों की मान्यता भिन्न-भिन्न प्रकार की है। उनके मत में सत् का लक्षण क्या है ? यह विचारना अति जरूरी है ।
(१) वेदान्त दर्शन वाले वेदान्ती सम्पूर्ण विश्व-जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही मानते हैं। चाहे चेतन हो कि जड हो-समस्त वस्तुएँ ब्रह्म के ही अंश हैं। जैसे—एक ही चित्र में भिन्न-भिन्न रंग और भिन्न-भिन्न आकार-आकृतियां होती हैं, परन्तु वे सभी एक ही चित्र के विभाग हैं। चित्र से कोई जुदे नहीं हैं, वैसे ही यह समस्त विश्व-जगत् ब्रह्म स्वरूप है। तथा ब्रह्म ध्रुव-नित्य है। इसलिए वेदान्त, प्रौपनिषद्, शंकरमतावलम्बी सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को ही केवल ध्रुव (नित्य) मानते हैं।
किन्तु एकान्त ही सर्वथा ध्रुव मानने से तथा ध्रौव्य रूप एक स्वभाव होने से जीव-आत्मा की अवस्थाओं का भेद युक्तियुक्त नहीं होगा अर्थात् प्रयुक्त होगा तथा जब जीव-यात्मा की अवस्था सदाकाल एक ही रही तो फिर संसार और मोक्ष के भेद का भी प्रभाव होगा। इतना ही नहीं किन्तु यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह) और नियम (तप, संतोष, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान) इत्यादि अनेक यत्न-प्रयत्न किये जाते हैं, वे सभी निष्फल हो जायेंगे।
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५।२६ ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ५५
यदि संसार अवस्था और मोक्ष अवस्था के भेद को केवल कल्पना मात्र मानते हो तो जीवआत्मा का संसारी स्वभाव नहीं होने से उसकी उपलब्धि का अर्थात् प्राप्ति के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा । एवं यदि जीव- श्रात्मा का मनुष्यत्व और देवत्वादि संसारी पर्याय मानते हैं, तो एकान्त व्य का अभाव ही हो जायेगा इत्यादि ।
(२) बौद्धदर्शन वाले - सत् पदार्थ को निरन्वय ( संतति विना ) क्षणिक मानते हैं । चेतन वा जड़, वस्तु मात्र को वे क्षणिक यानी क्षण-क्षणे सर्वथा नाश-विनाश होने वाली मानते हैं । उनके मत में सत् का लक्षण क्षणिकता है । " यत् सत् तत् क्षणिकम्” अर्थात् - जो जो सत् हैं वे सर्व क्षणिक हैं । अर्थात् — केवल उत्पाद व्ययशील ही मानते हैं ।
(३) सांख्यदर्शन वाले तथा योगदर्शन वाले - विश्व - जगत् को पुरुष और प्रकृति स्वरूप मानते हैं। पुरुष यानी श्रात्मा । प्रकृति के संयोग से पुरुष का संसार है । दृश्यमान जड़ वस्तुनों ( परंपरा से ) प्रकृति का परिणाम है । इस दर्शन के मत में पुरुष ध्रुव कूटस्थ नित्य है जबकि प्रकृति परिणामी नित्य = नित्यानित्य है ।
सारांश यह है कि - सांख्य मत वाले चैतन्य तत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव ( कूटस्थ नित्य ) मानते हैं ।
(४) न्यायदर्शन वाले तथा वैशेषिकदर्शन वाले - अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल तथा जीवात्मादि कई सत् पदार्थों को ध्रौव्य ( कूटस्थ नित्य ) मानते हैं और घट, वस्त्रादिक पदार्थों को केवल नित्य ( उत्पाद व्ययशील ) ही मानते हैं ।
इस सम्बन्ध में श्रीजैनदर्शन का सत् स्वरूप विषयक मन्तव्य भिन्न ही है । उसी की प्रस्तुत ' में व्याख्या करते हुए कहा है कि
सूत्र
जो सत् वस्तु है, वह केवल कूटस्थ नित्य नहीं है और न ही निरन्वय विनाशी ही है । एक भाग कूटस्थ नित्य और एक भाग परिणामी नित्य है । या कोई भाग केवल नित्य और कोई भाग अनित्य भी नहीं हो सकता । सर्वज्ञ विभु श्री तीर्थंकर भगवन्त भाषित श्री जैनदर्शन का मन्तव्य यह है कि प्रत्येक वस्तु चाहे चेतन हो या जड़ हो, मूर्त्त हो या अमूर्त हो, सूक्ष्म हो या बादर हो; समस्त उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन त्रिपदीरूप हैं ।
प्रत्येक वस्तु अनन्त पर्यायात्मक है, तो भी उनमें से नित्य और अनित्य दो पर्याय मुख्यपने सभी में पाई जाती हैं। सारे विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं है कि जिसमें उक्त दोनों पर्याय नहीं हो । अर्थात् - प्रत्येक वस्तु का एक अंश ऐसा है जो तीनों कालों में शाश्वतरूप से अवस्थित है और अन्य दूसरा अंश प्रशाश्वत रूप है । जो जगत् में शाश्वत है वह ध्रौव्यात्मक ( स्थिर ) है और स्थिर अंश से वस्तु पदार्थ उत्पाद तथा व्ययात्मक है । जैसे—घट पर्याय व्यय, कपाल पर्याय का उत्पाद, यह वस्तु-पदार्थ का अनित्य स्वभाव है एवं मृत्तिका रूप से वस्तु ध्रुव है । विश्व की प्रत्येक वस्तु में उत्पाद, व्यय समकाल होता है । जैसे- किसी व्यक्ति ने कहा कि तराजू की डंडी जिस समय एक ओर नीची होती है उसी समय दूसरी ओर ऊँची होती है, किन्तु एक अंश पर दृष्टिपात होने से वस्तु पदार्थ केवल ध्रौव्य अथवा अध्रौव्य ही जान पड़ते हैं । वास्तविकपने उपादान
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५६ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
कारण के बिना केवल एक ध्रौव्यरूप वस्तु में उत्पाद नहीं होता है । इसी माफिक सर्वदा भी उत्पाद का प्रभाव ही है ।
[ ५/३०
अध्रुव से
इसलिए वस्तु-पदार्थ को उत्पाद, व्यय, ध्रुवशील माने बिना उसका पर्यायबोध नहीं कर सकते हैं, यही सत् का लक्षण है । अन्यथा असत् रूप है ।
अब यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उपर्युक्त सूत्र द्वारा माना हुआ सत् नित्य है या अनित्य है ।
इसके उत्तर के लिए ही यह सूत्र है, ऐसा ही जानना ।
वस्तु स्थिर रहती है, इसलिए नित्य है तथा वस्तु उत्पन्न होती है और विनाश पामती है, इसलिए अनित्य है । यह एक ही वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। यह कथन स्थूल दृष्टि से विचारते हुए निश्चय नहीं होता है, इसलिए विशेष स्पष्ट करने की आवश्यकता होने से अब नित्यता व्याख्या आगे के सूत्र में सूत्रकार करते हैं ।। ५-२६ ।।
* नित्यस्य लक्षणः
5 मूलसूत्रम्
तद्भावाव्ययं नित्यम् ।। ५-३० ॥
* सुबोधिका टीका *
"नेवेत्यप् " [ सि. अ. ६ पा. ३ सूत्र - १७ ] स चासौ भावश्च तद् भावस्तस्याव्ययम् । अथवा प्रयो- गमनं, विरुद्धोऽयो व्ययः न व्ययोऽव्ययः । सतो भावात् यो न नष्टः, न च नष्टं भविष्यति नित्यं वा, यत् सतो भावान्न व्येति न व्येष्यति तन्नित्यम्
।। ५-३० ।।
* सूत्रार्थ - जो सत् के भाव से नष्ट नहीं हुआ है और न होगा, उसको 'नित्य' कहते हैं । अर्थात् जो अपने स्वभाव ( सत्) से च्युत नहीं, वह नित्य है ।। ५-३० ।। 5 विवेचनामृत फ
जो वस्तु उसके अपने भाव से अव्यय रहे, अर्थात् अपने भाव से रहित न बने, वह 'नित्य' है ।
पूर्व सूत्र में यह कह आये हैं कि वस्तु उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक है । अर्थात् स्थिर तथा अस्थिर उभयरूप है । किन्तु यहाँ पर शंका होती है कि जो वस्तु स्थिर है वह अस्थिर कैसे हो सकती है ? और जो वस्तु प्रस्थिर है वह भी स्थिर कैसे हो सकती है ? क्योंकि एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी भाव कैसे रह सकता है । जैसे- शीत और उष्ण दोनों विरोधी भाव एक वस्तु में एक समय हो ही नहीं सकता । इस विरोधी भाव का परिहार करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है । 'जो वस्तु अपने भाव से रहित न बने, वह नित्य है ।'
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]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ५७
नित्यता की यह व्याख्या प्रत्येक सत् वस्तु में घटती है । समस्त सत् वस्तु परिवर्तन पामते हुए भी अपने भाव को अर्थात् मूल स्वरूप को त्यजती नहीं है । प्रत्येक सत् वस्तु परिवर्तन पामती है, इसलिए अनित्य है और परिवर्तन पामते हुए भी अपने मूल स्वरूप को त्यजती नहीं है, इसलिए नित्य है । उसको परिणामी नित्य कहने में आता है। परिणाम यानी परिवर्तन पामते हुए भी वह परिणामी नित्य है ।
५।३०
यह कथन सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने में श्रा जाय तो अपने को ख्याल आये बिना न रहे कि कोई भी वस्तु प्रत्येक क्षण में परिवर्तन पाये बिना नहीं रहती । समस्त वस्तु में प्रत्येक क्षण में न्यूनाधिक परिवर्तन अवश्य होता ही है । प्रतिक्षरण होता हुआ यह परिवर्तन प्रति ही सूक्ष्म होने से छद्मस्थता के कारण अपने ख्याल में नहीं आता है । किन्तु यह सूक्ष्म परिवर्तन सर्वज्ञ विभु केवली भगवन्त ही हथेली में रखे हुए आँवले की माफिक प्रत्यक्ष देख सकते हैं - जोह सकते 1 अपन तो मात्र स्थूल-स्थूल परिवर्तन को ही देख सकते हैं - जोह सकते हैं ।
प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में सूक्ष्म रूप में वा स्थूल रूप में परिवर्तन होते हुए भी वह अपने स्वरूप को ( द्रव्यत्व को ) कभी भी त्यजती नहीं है । अतः समस्त वस्तुओं को परिणामी नित्य कहते हैं । सर्वज्ञ विभु कथित श्रीजैनदर्शनसम्मत नित्यत्व स्वरूप को प्रदर्शित करते हुए विरोधी भाव का निवारण नीचे प्रमाणे करते हैं
अन्य दार्शनिकों के समान जैनदर्शन विश्व ( वस्तु) के स्वरूप को अपरिवर्तनशील अर्थात् किसी प्रकार का परिवर्तन किये बिना सदा एक रूप रहने वाला नहीं मानता है । जिसमें अनित्य का सम्भव ही नहीं होता है, ऐसी कूटस्थ नित्यता जैन नहीं मानते । जिससे वस्तु पदार्थ में स्थिरत्व और अस्थिरत्व जैसे विरोधी भाव उत्पन्न न हों । तथा न ही जैनदर्शन वस्तु पदार्थ को एकान्त क्षणिक ही मानते हैं । यदि वस्तु को प्रत्येक क्षरण में उत्पत्ति तथा विनाश होने वाली मानकर, उसमें स्थिराधार नहीं मानें तो उक्त दोष प्राप्त हो सकता । अर्थात् - अनित्य परिणाम में नित्यता का सम्भव ही नहीं होता । किन्तु श्रीजैनदर्शन का यह मन्तव्य नहीं है । वे तो किसी भी वस्तु पदार्थ में एकान्त कूटस्थ नित्य या मात्र परिणामित्व भाव नहीं मानकर परिणामी नित्य अर्थात् परिवर्तनशील मानते हैं ।
जैसे -- कपड़े की दुकान से कापड़ का ताका लाये । ताका को काप करके पहनने के लिए दर्जी के द्वारा कोट, पतलून, कमीज इत्यादि वस्त्र बनाये । इससे क्या हुआ कि कापड़के ताके का विनाश हुआ और कोट, पतलून, कमीज श्रादि वस्त्र की उत्पत्ति हुई तो भी मूल द्रव्य में ( कापड़पणे में) किसी भी प्रकार का फेरफार नहीं हुआ । यहाँ तो कापड़ ताका रूपे विनाश पाकर कोटपतलून-कमीज आदि वस्त्र रूप में उत्पन्न होते हुए भी कापड़ रूपे कायम नित्य रहता है ।
इसी माफिक एक घट घड़े का उदाहरण लीजिए
पहिले स्थूल दृष्टि से विचार करते हुए दीर्घकाल पर्यन्त अपन को घट-घड़ा जैसा है वैसा ही देखने में आता है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचारिये तो उसी घट घड़े में प्रतिसमय परिवर्तन हो रहा है ऐसा अवश्य ही लगेगा। लेकिन वह परिवर्तन अत्यन्त सूक्ष्म होने से अपने ख्याल में नहीं आता ।
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५८ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३१
जब कोई स्थूल परिवर्तन होता है, तब ही अपन को ख्याल में आता है । आम, प्रत्येक समय में घट-घड़ा में परिवर्तन होते हुए भी वह घट रूप में कायम रहता है। अतः घट घड़ा रूप में परिणामी नित्य है । इसी तरह विश्व के सर्व वस्तु-पदार्थ में समझना ।
जैनदर्शन जैसे एक ही वस्तु पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व इन दोनों परस्पर विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करता है, वैसे अन्य भी सामान्य- विशेष, भेद-प्रभेद, सत्त्व असत्त्व तथा एकत्व - अनेकत्व इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्मों को भी स्वीकार करता है । क्योंकि, इसके पीछे एक दिव्यदृष्टि रही हुई है । जो दिव्यदृष्टि रही है, वह है श्री जैनदर्शन का अद्वितीय अनेकान्तवाद - स्याद्वादअपेक्षावाद ।
एक ही वस्तु में नित्यत्व और अनित्यत्व इत्यादि परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि स्याद्वाददृष्टि से ही होती है ।
सूत्रकार भगवन्त अब स्याद्वाद अनेकान्तवाद को आगे के सूत्र द्वारा बताते हैं ।। ५-३० ।। * श्रनेकान्त समर्थनम्
5 मूलसूत्रम् -
पिताऽनपित सिद्ध ेः ॥ ५-३१ ॥
* सुबोधिका टीका *
अर्पितानपित सिद्धेः, सच्च त्रिविधम्, 'उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यम्' । नित्यं चोभे श्रपि अर्पितानपितसिद्धेः । अर्पितव्यावहारिक मनपितव्यावहारिकञ्च । तत्र सच्चतुर्विधम् । तद्यथा - द्रव्यास्तिकं, मातृका पदास्तिकं, उत्पन्नास्तिकं, पर्यायास्तिकम् - इति । एषामर्थ पदानि द्रव्यं वा द्रव्ये वा द्रव्याणि वा सत् । प्रसन्नाम नास्त्येव द्रव्यास्तिकस्य । अतः द्रव्यमस्ति शुद्धप्रकृतिकम् ।
किन्तु नैगमनयमपि गृह्णाति एतद् तथा च नैगमे संग्रह-व्यवहारयोः प्रवेशः । अतः शुद्धाशुद्धप्रकृतिकमिदम् । मातृकापदास्तिकस्यापि मातृकापदं वा मातृकामातृकापदं वा मातृकापदानि वा सत् । प्रमातृकापदं वा श्रमातृकापदे वा श्रमातृकापदानि वाऽसत् उत्पन्नास्तिकस्य उत्पन्नं वा उत्पन्ने वा उत्पन्नानि वा सत् । श्रनुत्पन्नं वाऽनुत्पन्ने वाऽनुत्पन्नानि वाऽसत् ।
अर्पितेऽनुपनीते न वाच्यं सदित्यसदिति वा । पर्यायास्तिकस्य सद्भावपर्याये वा । सद्भावपर्याययोर्वा सद्भावपर्यायेषु वा श्रादिष्टं द्रव्यं वा, द्रव्ये वा द्रव्याणि वा सत् । श्रसद्भावपर्याये वा, प्रसद्भावपर्याययोर्वा, प्रसद्भावपर्यायेषु वा श्रादिष्टं द्रव्यं
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५।३१ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ५६ वा, द्रव्ये वा, द्रव्याणि वाऽसत् । तदुभयपर्याये वा, तदुभयपर्याययोर्वा, तदुभयपर्यायेषु वा, अादिष्टं द्रव्यं वा, द्रव्ये वा, द्रव्याणि वा, न वाच्यं सदसदिति वा, देशादेशेन विकल्पयितव्यमिति ।
'स्यात्' निपातशब्दः अनेकान्तवादं सूचयति । यथा "अनेकान्ते च विद्यादौ स्यान्निपातः शुचे क्वचित्'' [धनञ्जयनाममालायाम्] धर्मादिकं द्रव्यं स्यात् सत् स्यादसत्, स्यानित्यं स्यादनित्यं सर्वमेतद् द्रव्यार्थपर्यायार्थ-नयमुख्यतया गौणतया विवक्षा सिद्धम् ।
यस्य नयस्य विवक्षा वर्तते तन्नयञ्च तद् विषयं सत्, सप्तभंगे तृतीयं विकल्पमवक्तव्यप्रवृत्तं भवति । तस्यापेक्षया वस्तुस्वरूपमवक्तव्यम् । "प्रश्नवशादेक स्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी"
[श्रीतत्त्वार्थराजवातिकम्] एवं सप्तभङ्ग त्रयविकल्पाः सदसदवक्तव्याः। त्रयोऽपि विकल्पाः द्रव्यपर्यायोभयापेक्षया घटन्ते। सप्तभङ्गः त्रयाणां स्वरूपं सकलादेशापेक्षया एव भवति । शेषाः चत्वारः विकल्पाः विकलादेशापेक्षया ।
___ यथा सकलादेशः प्रमाणाधीनः एकगुणमुख्येनाशेषवस्तु-कथनं सकलादेशः । विकलादेशो नयाधीनः । सप्तभङ्गः द्वौ प्रकारौ, प्रमाणसप्तभङ्गी द्वितीयप्रकारः नयसप्तभङ्गी। इयमपि त्रिधा प्रवर्तते, ज्ञानरूपेण वचनरूपेण चार्थरूपेण । चत्वारः विकल्पाः अपि पूर्वत्रयविकल्पसंयोगादेव ।
यथा (१) स्यादस्ति नास्ति, (२) स्यादस्त्यविकल्पः, (३) स्यान्नास्त्यवक्तव्यः, (४) स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यः ।। ५-३१ ।।
* सूत्रार्थ-गौण और मुख्य की अपेक्षात्रों से सत् तथा असत् की सिद्धि होती है। अर्थात्-पदार्थों की सिद्धि मुख्यता और गौणता से होती है ।। ५-३१ ।।
विवेचनामृत एक ही वस्तु में नित्यत्व तथा अनित्यत्व इत्यादि परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि अर्पित से यानी अपेक्षा से एवं अनर्पित से यानी अपेक्षा के प्रभाव से होती है ।
प्रत्येक वस्तु-पदार्थ अनेकधर्मात्मक है तथा उसमें परस्पर विरोधाभावी धर्म भी रहे हुए हैं। उन विरोधाभावी धर्मों का एक ही वस्तु में प्रमाणयुक्त समन्वय कराना तथा विद्यमान अनेक धर्मों में
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६० ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३१
से किसी भी समय अन्य दूसरे का प्रतिपादन कैसे हो इसका अवबोध करना, इस सूत्र का
उद्देश्य है ।
आत्मा सत् है । इस प्रतीति या कथन से जिस सत् सत्यता का भास होता है वह समस्त प्रकार से घटित नहीं है, किन्तु वह निजस्वरूप से ही सत् है । यदि ऐसा नहीं हो तो श्रात्मा चेतनादि स्वरूप के समान घटादि पर रूप में भी सत्यता सिद्ध होनी चाहिए और घट में भी चैतन्य भाव होगा । इससे विशिष्ट स्वरूप सिद्ध होता नहीं। क्योंकि जो निजस्वरूप से सत् है वह पर रूप में नहीं ।
इस तरह आत्मादि प्रत्येक वस्तु में जो विरोधाभावी धर्म रहा हुआ है वह सापेक्ष है । इसी तरह वस्तु में नित्य एवं अनित्य धर्म भी रहा हुआ है। जो वस्तु सामान्य दृष्टि ( द्रव्य ) से नित्य है वही वस्तु विशेष दृष्टि (पर्याय ) से अनित्य सिद्ध होती है । तथा अन्य दूसरे एकत्व तथा अनेकत्वादि अनेक धर्मों का समन्वय जीव आत्मादि समस्त वस्तु- पदार्थों में अबाधित रूप से है । इसीलिए सर्व पदार्थ अनेक धर्मात्मक माने गए हैं ।
वस्तु में अनेक धर्म होते हैं। जिस समय में जिस धर्म की अपेक्षा होती है उसी समय में उस धर्म को आगे करके अपन वस्तु-पदार्थ को पहिचान सकते हैं । जैसे- एक व्यक्ति पिता भी है और पुत्र भी है । उस व्यक्ति में पितृत्व और पुत्रत्व ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म रहे हुए हैं । उसी में से कभी पितृत्व धर्म को आगे करके - पितृत्व धर्म की अपेक्षा से उसको पिता कहते हैं । जब कभी पुत्रत्व धर्म को आगे करके पुत्रत्व धर्म की अपेक्षा से उसको पुत्र कहते हैं । जब पितृत्व धर्म की अपेक्षा होती है, तब पुत्रत्व घर्म की अपेक्षा नहीं होती । जब पुत्रत्व धर्म की अपेक्षा होती है, तब पितृत्व धर्म की अपेक्षा नहीं होती । जब उस व्यक्ति की ओलखाण कराने में आती है, तब कितनेक लोग उसके पिता को प्रोलखते होने से यह अमुक व्यक्ति का ही पुत्र है, ऐसा कहकर के उसकी ओलखाण कराने में आती है । तथा कितनेक उसके पिता को प्रोलखते नहीं, किन्तु उसके पुत्र को लखते हैं । अतः उसको ये अमुक व्यक्ति के पिता हैं, ऐसा कहकर के उसकी प्रोलखाण कराते हैं । एक ही व्यक्ति में पितृत्व और पुत्रत्व ये दोनों धर्म परस्पर विरुद्ध होते हुए भी रह सकते हैं । जब जिस धर्म की अपेक्षा होती है तब उस धर्म को आगे करने में आता है ।
उसी तरह प्रस्तुत में नित्यत्व-अनित्यत्वादि धर्मों को भी घटाया जा सकता है ।
अपेक्षा भेद से सिद्ध होने वाले अनेक धर्मों में से वस्तु का व्यवहार किसी एक धर्म द्वारा होता है । वह धर्म अप्रामाणिक या बाधित नहीं कहलाता, क्योंकि वस्तु पदार्थ के विद्यमान समस्त धर्म एक साथ विवक्षित नहीं होते हैं । अर्थात् उनका व्यवहार या कथन एक साथ नहीं होता । प्रयोजन के अनुसार उनकी विवक्षा होती है ।
जिस धर्म की विवक्षा की जाए वह मुख्य है और शेष धर्म गौणरूप होते हैं । जैसे- जीवआत्मा में अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों धर्म रहे हुए हैं । वह द्रव्यदृष्टि अपेक्षा से नित्य है। क्योंकि कर्म का कर्ता है, वही फल का भी भोक्ता है । कर्म तथा तत्जन्य फल का समन्वय नित्यत्व धर्म से ही होता है । उस समय पर्यायदृष्टि अनित्यत्व विवक्षित नहीं होने के कारण गौरूप होती है ।
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५॥३१
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पञ्चमोऽध्यायः
कर्तृत्व काल की अपेक्षा भोक्तृत्व काल में जीव-आत्मा की अवस्था बदल जाती है, इसलिए कर्म और फल के समय का अवस्थाभेद बताने का हो तब पर्यायदृष्टि से अनित्यत्व प्रतिपादन करते समय पर्यायदृष्टि की मुख्यता रहेगी तथा द्रव्यदृष्टि नित्यत्व की भी गौणता रहेगी।
___ इसी तरह विवक्षा के और अविवक्षा के कारण किसी समय जीव-आत्मा को नित्य कह सकते हैं तथा किसी समय अनित्य भी कह सकते हैं। एवं जब दोनों धर्म नित्य और अनित्य एक साथ कहने की इच्छा हो उस समय दोनों धर्मों को युगपत् यानी एक साथ कहने के लिए वाच्य शब्द न होने से जीव-प्रात्मा को प्रवक्तव्य कहते हैं।
उपर्युक्त नित्य, अनित्य, और प्रवक्तव्य तीन प्रकार की वाक्य रचनाओं के मिश्रण से अन्य चार वाक्य रचनाएँ और बनती हैं। जैसे- (१) नित्य, (२) अनित्य, (३) नित्यानित्य, (४) प्रवक्तव्य, (५) नित्य प्रवक्तव्य, (६) अनित्य प्रवक्तव्य, तथा (७) नित्यानित्य प्रवक्तव्य । इसी सप्त वाक्य रचना को सप्तभंगी कहते हैं ।
* सप्तभङ्गी * अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की दृष्टि से वस्तु को वास्तविकपने पहिचानना हो तो सात वाक्यों से पहचान सकते हैं।
प्रश्न-प्रात्मा कैसी है ? वह नित्य है कि अनित्य है ?
उत्तर-'प्रात्मा नित्य है' ऐसा कहने में जो आए तो, यह उत्तर अपूर्ण-अधूरा होने से यथार्थ नहीं है। क्योंकि प्रात्मा नित्य भी है और अनित्य भी है।
प्रत्येक वस्तु-पदार्थ में अनेक धर्म रहे हुए हैं। इसलिए हमें वस्तु के पहचानने में यह ख्याल रखना चाहिए कि जिस धर्म को आगे करके हम वस्तु को पहचानते हैं, उसके अतिरिक्त भी वस्तु में अनेक धर्म हैं।
___ यहाँ 'आत्मा नित्य है' ऐसा कहने में आत्मा में अनित्यता धर्म का निषेध होता है। इससे समझने वाला व्यक्ति यह समझता है कि प्रात्मा केवल नित्य है, अनित्य नहीं। अत: "अात्मा नित्य है" ऐसा वाक्य अपूर्ण-अधरा होने से अयथार्थ है। "अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है" ऐसा कहने में या जाए तो यहाँ 'अपेक्षा' शब्द पाने से अनित्यता का निषेध नहीं होता है। "अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है" ऐसा बोध होने के साथ ही मन में प्रश्न होता है कि, आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य भी होना चाहिए। इस प्रश्न के समाधान के लिए अन्य-दूसरा वाक्य कहना पड़ता है कि-"प्रात्मा अपेक्षा से अनित्य भी है।"
ये दोनों वाक्य अपूर्ण-अधूरे हैं। क्योंकि, जिस अपेक्षा से प्रात्मा नित्य है उस अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, यह नहीं कि इसी अपेक्षा अनित्य भी है।
इसी भाँति जिस अपेक्षा से आत्मा अनित्य है, उस अपेक्षा से तो अनित्य ही है, यह नहीं कि उस अपेक्षा से नित्य भी है। इन दोनों वाक्यों में 'ज' कार जोड़ने की जरूरत है। अर्थात् - (१) “प्रात्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है।" तथा (२) "प्रात्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है।"
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६२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३१
+
इस तरह दो वाक्य हुए। यहाँ प्रथम वाक्य का अर्थ यह हुआ कि आत्मा अपेक्षा से नित्य है और जिस अपेक्षा से नित्य है उस अपेक्षा से नित्य ही है। तथा अन्य दूसरे वाक्य का अर्थ यह हुआ किआत्मा अपेक्षा से अनित्य है, और जिस अपेक्षा से अनित्य है उस अपेक्षा से अनित्य ही है ।
उक्त दोनों वाक्यों के अनुसन्धान में तीसरा वाक्य भी नीचे प्रमाणे है -
(३) "आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से अनित्य भी है ।" इस वाक्य से क्रमश: आत्मा की नित्यता का तथा श्रनित्यता का प्रतिपादन होता है ।
पूर्व के दो वाक्यों से हुई जानकारी इस तीसरे वाक्य से दृढ़ बनती है ।
अब कोई कहता है कि, "आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है ।" इस तरह आत्मा के नित्यत्व और अनित्यत्व इन दो धर्मों का क्रमशः प्रतिपादन किया; किन्तु युगपत् क्रमबिना, एकसाथ में आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है, ऐसा जानना ।
-
इस सम्बन्ध में कहना पड़ेगा कि - क्रमबिना एकसाथ में है" इस तरह नहीं समझाया जा सकता। क्योंकि जगत्- विश्व जिससे नित्यता और अनित्यता इन दोनों धर्मों का युगपत् - एकसाथ में बोध हो सके ।
"आत्मा नित्य भी है, अनित्य भी में ऐसा एक भी शब्द नहीं है कि,
इसलिए क्रमश: नित्य और अनित्य ये दो शब्द वापरने ही पड़ते हैं । और अनित्य रूप में एक साथ नहीं कही जा सकती ।
आत्मा नित्य रूप में
इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि अपेक्षा से [अर्थात् – नित्य और अनित्य इन उभय स्वरूपों में एकसाथ में पहचाने जाने की अपेक्षा से ] आत्मा प्रवक्तव्य ही है । इस तरह चौथा वाक्य (४) "आत्मा अपेक्षा से अवक्तव्य ही है" ऐसा बनता है । प्रत्येक वाक्य में जकार का ही अर्थ पूर्व में हुए माफिक ही है ।
1
उक्त इन चार वाक्यों में प्रथम के दो प्रधान मुख्य हैं। प्रथम दो वाक्यों के अर्थ को सुदृढ़ रीति से समझने के लिए तीसरा वाक्य है । तीसरे वाक्य का अर्थ एक साथ नहीं कह सकते हैं । इसलिए इसे समझाने के लिए चौथा वाक्य है। इन चार वाक्यों के मिश्रण से अन्य तीन वाक्य बनते हैं ।
नित्य पद तथा प्रवक्तव्य पद से पाँचवाँ पद, अनित्य पद और प्रवक्तव्य पद से छठा पद, एवं नित्यपद, अनित्यपद तथा अवक्तव्यपद इन तीन पदों से सातवाँ वाक्य बनता है । वे सब क्रमशः नीचे प्रमाणे हैं
(५)
"आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।" इस तरह यह पाँचवाँ वाक्य । उसका श्रर्य यह है कि--जैसे अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, तथा एक अपेक्षा से आत्मा नित्य ही है, अन्य अपेक्षा से अनित्य ही है; किन्तु इन दोनों को एक ही साथ कह सके ऐसा नहीं ही है । अब आगे के दो वाक्यों में भी प्रवक्तव्य का यही अर्थ समझना ।
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पञ्चमोऽध्यायः
[ ६३
(६) 'आत्मा अपेक्षा से अनित्य ही है और अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।" इस तरह यह छठा वाक्य है ।
(७) "आत्मा अपेक्षा से नित्य ही है, अपेक्षा से अनित्य ही है, तथा अपेक्षा से प्रवक्तव्य
५।३१
ही है ।"
उक्त इन सात वाक्यों में सात भंग यानी सात प्रकारों के होने से इन सात वाक्यों को 'सप्तभङ्गी' कहने में आता है । इन सात वाक्यों की रचना क्रमशः नीचे प्रमाणे है -
यथा - ( १ ) ' स्यात् नित्य' यहाँ स्यात् शब्द कहने का तात्पर्य यह है कि, नित्य धर्म सापेक्ष है, उसी को सूचित करने के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है। इसके प्रयोग से शेष धर्मों का उच्छेद नहीं होता है । ( २ ) स्यात् अनित्य, (३) स्यात् अवक्तव्य, (४) स्यात् नित्यानित्य, (५) स्यात् नित्य प्रवक्तव्य, (६) स्यात् अनित्य प्रवक्तव्य, ( ७ ) स्यात् नित्यानित्य प्रवक्तव्य ।
इनमें प्रथम के तीन भंग 'सकलादेशी' कहलाते हैं । उसमें भी आदि के दो वाक्य मुख्य हैं । उन्हीं (नित्य और अनित्य) दो धर्मों को ग्रहण करके भिन्न दृष्टि से शेष विकल्प कहे गए हैं। उन्हें विकलादेशी कहते हैं । इसी तरह अस्ति नास्ति, एकत्व अनेकत्व, भेद प्रभेद, इत्यादि युगपत् धर्मों से प्रत्येक वस्तु में सप्तभङ्गी घटायी जा सकती है। जैसे - आत्मा में घटती सप्तभङ्गी नीचे प्रमाणे है -
( १ )
( २ )
' श्रात्मा स्यान्नित्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है ।
' श्रात्मा स्यादनित्य एव - आत्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है ।
(३) 'आत्मा स्यान्नित्य एव स्यादनित्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है, किसी अपेक्षा से अनित्य ही है ।
(४) 'श्रात्मा स्यादवक्तव्य एव'- - श्रात्मा किसी अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।
(५) 'आत्मा स्यान्नित्य एव स्यादवक्तव्य एव - आत्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।
(६) 'आत्मा स्यादनित्य एव स्यादवक्तव्य एव' - श्रात्मा किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है ।
( ७ ) श्रात्मा स्यान्नित्य एव स्यादनित्य एव स्यादवक्तव्य एव' - आत्मा किसी अपेक्षा से नित्य ही है, किसी अपेक्षा से अनित्य ही है, किसी अपेक्षा से प्रवक्तव्य ही है ।
इस तरह प्रत्येक वस्तु में परस्पर विरुद्ध होते हुए भी भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सिद्ध होते हुए एकत्व तथा अनेकत्व इत्यादि धर्मद्वय आश्रय करके विधि और निषेध रूप से सप्तभङ्गी होती है ।
प्रत्येक वस्तु में सामान्य और विशेष धर्म स्वीकार करना ही 'स्याद्वाद् दर्शन' है । इसी को कान्तवाद भी कहते हैं । इसी से एक वस्तु अनेकधर्मात्मक और अनेक व्यवहार विषयी मानी जाती है। जो यहाँ सप्तभंगी के सातों भङ्गों में अपेक्षा भेद से घटती है ।। ५-३१ ।।
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६४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।३२. * पौद्गलिकबन्धहेतुः * 卐 मूलसूत्रम्
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥५-३२ ॥
* सुबोधिका टीका * स्निग्ध-रूक्षयोः पुद्गलयोः परस्परं स्पृष्टयोः बन्ध: जायते तदा तस्य बन्धरूपपरिणमनं भवति ।
विशेषेणोच्यते चिक्कणता एव स्नेहः तद्विपरीतं रूक्षं तथा पूरण-गलनमयं पुद्गलम् । पूरणधर्मापेक्षया संघातम्, गलनधर्मापेक्षया भेदं भवति । एवं परिणतिसर्वात्मसंयोगस्वरूपं बन्धम् एव तस्य संघातम् ।। ५.३२ ।।
* सूत्रार्थ-स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों का आपस में स्पर्श होने पर उनका बन्ध रूप परिणमन होता है। अर्थात्-स्निग्ध और रूक्ष हेतु से बन्ध होता है ।। ५-३२ ।।
ॐ विवेचनामृत स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श से पुद्गलों का बन्ध होता है। बन्ध यानी पुद्गलों का परस्पर एकमेक संश्लेष, जुड़ाव। अर्थात् भिन्न-भिन्न पुद्गल [स्कन्ध या परमाणु] परस्पर जुड़कर एक हो जाए वह बन्ध है। यह संश्लेष पुद्गल में रहे हुए स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श गुण से होता है। स्निग्ध स्पर्शवाले पुदगलों का स्निग्ध एवं रूक्ष स्पर्शवाले इन दोनों प्रकार के पुद्गलों के साथ बन्ध होता है। उसी तरह रूक्ष स्पर्शवाले पुद्गलों के लिए भी जानना।
विशेष स्पष्टीकरण-पुद्गल स्कन्ध की उत्पत्ति के लिए इसी अध्याय में छब्बीसवाँ (२६) सूत्र 'संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते' कह आये हैं। पुन: उसी का स्पष्टीकरण करते हैं कि यह केवल अवयवभूत परमाणु प्रमुख के पारस्परिक संयोगमात्र से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु अन्य गुण की भी आवश्यकता रहती है। यहाँ पर प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य यह है कि, अवयवों के पारस्परिक संयोग के बिना स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुण के सिवाय बन्ध नहीं हो सकता, पुद्गल का एकत्व परिणाम जो बन्ध है, वह उपरोक्त गुण से होता है। अर्थात्-द्वयणुकादि स्कन्धों का एकत्व परिणाम रूप बन्ध स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुण से ही होता है।
स्निग्ध और रूक्ष अवयवों का श्लेष दो प्रकार से होता है। एक सजातीय के साथ अर्थात स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ और अन्य-दूसरा विजातीय के साथ अर्थात् स्निग्ध का रूक्ष के साथ और रूक्ष का स्निग्ध के साथ ।
___ श्लेष का अर्थ है सन्धि, संयोग या मेल । उनका बन्ध कैसे गुण वाले अवयवों से होता है तथा किससे नहीं होता है, इसका विधान आगे के सूत्र में करते हैं ।। ५-३२ ।।
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५॥३३ ]
पञ्चमोऽध्यायः
* बन्धविषये प्रथमोऽपवादः *
+ मूलसूत्रम्
न जघन्यगुणानाम् ॥ ५-३३ ॥
* सुबोधिका टीका * ये पुद्गलाः जघन्यगुण स्निग्धाः जघन्यगुणरूक्षाश्च तेषां परस्परेण बन्धो न भवति । जघन्यशब्देनैकसंख्या गुणशब्देन च शक्तिरंशः ग्राह्यः ।। ५-३३ ॥
* सूत्रार्थ-स्निग्ध और रूक्ष के जघन्य गुण युक्त पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता है ।। ५-३३ ।।
ॐ विवेचनामृत जघन्य गुण वाले स्निग्ध और रूक्ष अवयवों का परस्पर बन्ध नहीं होता है ।
प्रस्तुत सूत्र में बन्ध-निषेध है। तदनुसार यदि परमाणुषों में स्निग्धत्व और रूक्षत्व के अश जघन्य हों ऐसी अवस्था में उनका परस्पर बन्ध नहीं होता। इस प्रकार निषेधार्थक सूत्र से यह फलित होता है कि, जिन परमाणुओं का स्निग्ध तथा रूक्षत्व अंश मध्यम और उत्कृष्ट संख्यावाला हो उनका परस्पर बन्ध होता है। किन्तु आगे माने वाले ३४ वें सूत्र में इसका भी अपवाद है कि समान अंश वाले अर्थात् जिन तुल्य अवयवों का स्निग्धत्व और रूक्षत्व का गुण समान हो, उनका भी परस्पर बन्ध नहीं होता है।
इस कथन से यह सिद्ध होता है कि, असमान गुण वाले तुल्य अवयवों का बन्ध होता है । परन्तु इस फलितार्थ में भी मर्यादा रही हुई है, जिसे (३५ वें) सूत्र में प्रगट करते हैं, कि यदि असमान अंशवाले समान अवयवों में भी जिन अवयवों का स्निग्धत्व, रूक्षत्व गुणांश, दो अंश, तीन अंश, चार अंश इत्यादि अधिक हो तो उनका परस्पर बन्ध हो सकता है।
अन्यथा अन्य-दूसरे की अपेक्षा जिसका गुण एक ही अंश अधिक है उनका परस्पर बन्ध नहीं होता।
[प्रस्तुत 'न जघन्यगुणानाम् (५-३३)' इस सूत्र का प्रागे के दो सूत्रों के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ पर साधारण निर्देश किया है]
* विशेष स्पष्टीकरण-कुछ पुद्गलों में रूक्ष स्पर्श तो कुछ पुद्गलों में स्निग्ध स्पर्श होता है। अब जिन-जिन पुद्गलों में जो-जो स्निग्ध व रूक्ष के गुण होते हैं, उन-उन समस्त पुद्गलों के वे गुण समान ही हों, ऐसा नियम नहीं है; न्यूनाधिक भी होते हैं।
जैसे कि-(१) जल-पानी, बकरी का दूध, भैंस का दूध। इन प्रत्येक में स्निग्ध गुण होते हुए भी समस्त में समानता नहीं है। (१) जल-पानी से बकरी के दूध में स्निग्धता विशेष होती है। उससे भी अधिक भैंस के दूध में स्निग्धता होती है।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
५॥३३
(२) धल, धान्य के फोंतरे और रेती। इन सबमें रूक्षता गुण होते हुए भी सर्व में समान नहीं है। जो घल में रूक्षता है, उससे अधिक रूक्षता घान्य के फोंतरे में है। उससे भी अधिक रूक्षता रेती में है। अर्थात् - इन तीनों में रूक्षता उत्तरोत्तर अधिक-अधिक है।
उक्त दोनों उदाहरण-दृष्टान्त से जान सकते हैं कि सर्वपुद्गलों में स्निग्धता और रूक्षता गुण न्यूनाधिक अर्थात् कम-ज्यादा भी होते हैं। यहाँ पर समस्त पुद्गलों में स्निग्ध और रूक्ष गुण समान भी होते हैं तथा न्यूनाधिक अर्थात् कम-ज्यादा भी होते हैं; यही विचारणा करने में पाई है।
अब मूलसूत्र के अर्थ को विशेष रूप में समझने के लिए कहा है कि -जिस गुण का [स्निग्ध वा रूक्ष का] श्री केवली भगवन्त की दृष्टि से भी जिसके दो विभाग न हो सके, ऐसे सबसे छोटे भाग की कल्पना अपन करें। गुण का ऐसा भाग जिस पुद्गल में हो, वह एक गुण पुद्गल कहा जाता है। इस तरह दो भाग जिसमें हों वे द्विगुण पुद्गल तथा तोन भाग जिसमें हों वे त्रिगुण पुद्गल कहे जाते हैं। ऐसे आगे बढ़ते चतुर्गुण, पञ्चगुण, संख्यातगुण, असंख्यातगुण, यावत् अनन्तगुण पुद्गल होते हैं।
इसमें सबसे कम गुण एकगुणपुद्गल में होता है। द्विगुण पुद्गल में उससे अधिक होता है। त्रिगुण पुदगल में उससे अधिक होता है। चतुर्गुण पुदगल में उससे भी अधिक होता है, इस तरह बढ़ते-बढ़ते अनन्तगुणपुद्गल में सबसे अधिक गुण होते हैं ।
___ इस तरह गुण की तरतमता की दृष्टि से पुद्गलों में अनेक भेद पड़ते हैं। इन सभी भेदों को तीन भेदों में समावेश कर सकते हैं-(१) जघन्य गुण, (२) मध्यम गुण, और (३) उत्कृष्ट गुण।
उसमें सबसे कम गुण जिस पुद्गल में हो वह 'जघन्य गुण' वाला कहा जाता है। तथा जिस पुद्गल में सबसे अधिक गुण होते हैं वह 'उत्कृष्ट गुण' वाला कहा जाता है ।
जघन्य और उत्कृष्ट को छोड़कर शेष समस्त पुद्गलों के गुण 'मध्यम गुण' कहे जाते हैं ।
जघन्यगुणपुद्गल में और एकगुणपुद्गल में सबसे अधिक न्यूनगुण होता है। और ये दोनों समान ही होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में जघन्य [ =एक गुण ] पुद्गल में परस्पर बन्ध का निषेध कहने में आया है।
इसलिए जघन्यगुण स्निग्ध पुद्गल का जघन्य गुण रूक्ष वा जघन्यगुण स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है।
उसी प्रमाणे जघन्यगुण रूक्ष पुद्गल का जघन्यगुण स्निग्ध वा जघन्यगुण रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है ।। ५-३३ ॥
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५।३४ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ६७ * बन्धविषये द्वितीयोपवादः * ॐ मूलसूत्रम्
गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ५-३४ ॥
* सुबोधिका टीका * प्रत्र सदशताक्रियाकृतसमतापेक्षया नैव किन्तु गुणकृतसमतापेक्षयैव ज्ञातव्या । गुणसाम्ये सति सदृशानां बन्धो न भवति तद्यथा तुल्यगुणस्निग्धस्य तुल्यगुणस्निग्धेन, तुल्यगुणरूक्षस्य तुल्यगुणरूक्षेणेति ।। ५-३४ ।।
* सूत्रार्थ-स्निग्ध प्रौर रूक्षगुणों की समानता के द्वारा जो सदृश हैं, उनका भी बन्ध नहीं हुमा करता ।। ५-३४ ।।
विवेचनामृत गुण की सामान्यता होने पर सदृश पुद्गलों के अवयवों का अर्थात् रूक्ष का रूक्ष के साथ तथा स्निग्ध का स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता है।
अर्थात्-गुण साम्य हो ( =गुण की समानता हो ) तो सदृश पुद्गलों में बन्ध नहीं होता।
यहाँ सदशता स्निग्ध या रूक्ष गुण की अपेक्षा से समझनी। क्योंकि, स्निग्ध गुणवाला पुद्गल अन्य स्निग्धगुणवाले पुद्गलों की अपेक्षा समान है। ऐसे ही रूक्षगुणवाला पुद्गल अन्य रूक्षगुणवाले पुद्गलों की अपेक्षा समान है। स्निग्धगुणवाला पुद्गल रूक्षगुणपुद्गलकी अपेक्षा असदृश है। तथा रूक्षगुणवाला पुद्गल स्निग्ध गुण पुद्गल की अपेक्षा असदृश है।
गुणसाम्य यानी गुण की तरतमता का अभाव। जैसे एक लाख की मूड़ी वाले सभी व्यक्तियों में मूड़ी की संख्या की दृष्टि से समानता है, एक कोड़ की मूड़ीवाले सभी व्यक्तियों में मूड़ी की संख्या की दृष्टि से समानता है, वैसे समान गुण वाले सभी पुद्गलों में गुण की दृष्टि से समानता है।
जितने पुद्गलों में एक गुण (स्निग्ध या रूक्ष) स्पर्श हो, उन सभी पुद्गलों में गुणसाम्य है। स्पर्शना गुण की दृष्टि से वे सभी समान हैं। जिन पुद्गलों में द्विगुण स्पर्श हो वे सभी परस्पर समान हैं। किन्तु एक गुण पुद्गल और द्विगुण पुद्गल में परस्पर गुण साम्य का अभाव है, पीछे भले उन दोनों में स्निग्ध स्पर्श हो। उन दोनों में (एक गुण पुद्गल में तथा द्विगुण पुद्गल में) स्निग्ध स्पर्श हो, तो वे सदृश कहलाते हैं, किन्तु समान नहीं होते। .
इस सूत्र में पुद्गल सदृश हों और गुण समान भी हों, अर्थात् उनमें गुण साम्य भी हो, तो उनमें परस्पर बन्ध होता नहीं इस तरह बताने में आया है। अब उन्हीं में कौन-कौन सदृश हैं ?, कौन-कौन गुण समान हैं ? तथा किस-किस का परस्पर बन्ध नहीं होता है ? इन सभी को नीचे बताये हए कोष्ठक से समझा जायेगा।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
५१३५
__ण बन्धविषयक-कोष्ठक "
* सदश कि |卐 गुण समान कि | $ बन्ध होता है ) पुदगल 卐
असदृश * | अगुण समान 卐 | कि नहीं होता है * पंचगुण स्निग्ध तथा
अगुणसमान बन्ध होता है सप्तगुण स्निग्ध (२) चतुर्गुण स्निग्ध तथा
__ सदृश । अगुणसमान बन्ध होता है दशगुरण स्निग्ध
सदृश
पंचगुण रुक्ष तथा सप्तगुरण रुक्ष
सदृश
अगुणसमान
बन्ध होता है
(४) चतुर्गुण रुक्ष तथा
सदृश अगुणसमान बन्ध होता है दशगुरण रुक्ष (५) पंचगुण स्निग्ध तथा
असदृश गुणसमान बन्ध होता है पंचगुण रुक्ष (६) चतुर्गुण स्निग्ध तथा
गुगसमान
असदृश चतुर्गुण रुक्ष
बन्ध होता है (७) पंचगुण स्निग्ध तथा
| सदृश । गुणसमान । बन्ध नहीं होता है पंचगुण स्निग्ध (८) पंचगुण रुक्ष तथा
सदृश पंचगुण रुक्ष
गुणसमान बन्ध नहीं होता है।
* बन्धविषये तृतीयोपवादः * ॐ मूलसूत्रम्
द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ५-३५ ॥
* सुबोधिका टीका * बन्धप्रतिषेधस्यनिषेधमत्र। द्वयधिकादि-गुणानां तु सदृशानां बन्धः भवति । यथा स्निग्धस्य द्विगुणाद्यधिकस्निग्धेन, द्विगुणाद्यधिकस्निग्धस्य स्निग्धेन एवं च रुक्षस्यापिरुक्षेण। एकादिगुणाधिकयोः तु सदृशयोः बन्ध नैव जायते ॥ ५-३५ ।।
* सूत्रार्थ-जो सदृश पुद्गल दो अधिक गुण वाले हुआ करते हैं, उनका बन्ध हुआ करता है। अर्थात्-दो आदि से अधिक गुणवाले अवयवों का सजातीय तथा विजातीय से बन्ध होता है ।। ५-३५ ।।
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५१३५
]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ६६
+ विवेचनामृत सदृश पुद्गलों में गुणवैषम्य होते हुए भी उपरान्त द्विगुणादिक स्पर्श से अधिक हों तो परस्पर बन्ध होता है।
अब पूर्व सूत्र में सदृश पुद्गलों में गुण साम्य जो हो तो बन्ध नहीं होता है, ऐसा कहा है।
उसका अर्थ यह होता है कि-सदृश पुद्गलों में गुणवैषम्य हो तो बन्ध होता है । इस सूत्र से सदृश पुद्गलों में गुणवैषम्य हो तो भी बन्ध का निषेध करने में आया है। वह इस प्रमाणे
सदृश पुद्गलों में मात्रएक गुण वैषम्य हो तो बन्ध नहीं होता है। जैसे--चतुर्गुणस्निग्धपुद्गल का पंचगुणस्निग्धपुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता। चतुर्गुणरूक्षपुद्गल का पंचगुण स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता। चतुर्गुणरूक्षपुद्गल का पंचगुणरूक्षपुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता। कारण कि, यहाँ मात्र एकगुणवैषम्य है ।
___इसलिए सदृश पुद्गलों में द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण इत्यादि गुणवैषम्य हो तो बन्ध होता है। जैसे कि चतुर्गुण स्निग्ध पुद्गल का षड्गुणस्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होता है ।
यहाँ द्विगुण वैषम्य है। चतुर्गुणस्निग्ध पुद्गल का सप्तगुणस्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होता है। यहाँ त्रिगुण वैषम्य है। इस तरह रूक्ष स्पर्श में भी समझना।
"न जघन्यगुणानाम् ॥ ५-३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ५-३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ५-३५ ॥"
उक्त तीन सूत्रों में श्री जैन श्वेताम्बरीय तथा दिगम्बरीय परम्परा के अनुसार पाठभेद तो नहीं है, किन्तु अर्थभेद है। खास करके उनमें मुख्य तीन बातें ध्यान में रखने योग्य हैं। वे नीचे प्रमाणे हैं
* प्रश्न-[१] जघन्य गुणपरमाणु एक संख्या वाला हो, उसका बन्ध हो सकता है या नहीं?
___[२] 'द्वयधिकादिगुणानां तु' पैंतीसवें (३५) सूत्र के आदि शब्द से तीन आदि की संख्या लेनी या नहीं?
__ [३] पैंतीसवें (३५) सूत्र से बन्ध-विधान केवल सदृश-सदृश अवयवों का मानना या नहीं?
उत्तर-[१] भाष्यवृत्ति के अनुसार जघन्य गुण वाले परमाणुओं के बन्ध का निषेध है । एक परमाणु जघन्य गुण वाला हो और दूसरा जघन्य गुणवाला नहीं हो तो भाष्यवृत्ति के अनुसार बन्ध हो सकता है। परन्तु 'सर्वार्थसिद्धि' आदि दिगम्बरीय व्याख्या के अनुसार जघन्यगुरणयुक्त दो
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७० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ५।३५ परमाणुओं के पारस्परिक बन्ध के समान एक जघन्य गुण परमाणु का अन्य-दूसरे अजघन्य गुण परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता।
[२] भाष्यवृत्ति के अनुसार पैंतीसवें (३५) सूत्र के आदि पद द्वारा एक अवयव से अन्य-दूसरे अवयव का स्निग्ध, रूक्षत्व अंश तीन, चार यावत् संख्याता; असंख्याता, अनंता भी अधिक होता हो तो बन्ध हो सकता है। मात्र एक ही अंश अधिक होने से बन्ध निषेध है। किन्तु दिगम्बरीय आम्नायकी सभी व्याख्यानों में सिर्फ दो अंश अधिक हों, उसी का परस्पर बन्ध माना है । एक अंश के समान तीन, चार से यावत् संख्याता, असंख्याता, अनंता अंश अधिक वाले अवयवों के भी बन्ध का निषेध माना है।।
[३] पैतीसवें सूत्र की भाष्यवृत्ति से दो, तीन इत्यादि अंश अधिक होने पर जो बन्ध विधान कहा हुआ है वह सदृश अवयवों के लिए है, किन्तु दिगम्बरीय व्याख्यानों में वह विधान सदृश, असदृश दोनों के लिए है।
इस अर्थभेद के कारण दोनों परम्परागों में बन्धविषयक जो विधि-निषेध फलितार्थ होता है उसको कोष्ठक द्वारा बताते हैं ।
* कोष्ठक * (१) जघन्य X जघन्य.....
असदृश | सदृश असदृश (२) जघन्य X एकाधिक.... (३) जघन्य x दो अधिक (४) जघन्य x तीन आदि अधिक..... (५) जघन्येतर समजघन्येतर..... (६) जघन्येतर - एकाधिक जघन्येतर.... (७) जघन्येतर x दो अधिक जघन्येतर.... | है। (८) जघन्येतर - तीन आदि जघन्येतर.... | नहीं
the
The te
ho
as
the
me te lehet me
to
the
है
to
* सारांश-स्निग्धत्व और रूक्षत्व दोनों स्पर्श अपनी-अपनी जाति की अपेक्षा एक-एक रूप हैं। तथापि परिणाम की तारतम्यता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं। जघन्य स्निग्धत्व और जघन्यरूक्षत्व तथा उत्कृष्ट स्निग्धत्व तथा उत्कृष्ट रूक्षत्व के बीच अनन्त अंशों का तारतम्य भाव रहा हुआ है । जैसे-गाय, बकरी भेड़ और ऊँटनी के दूध में स्निग्धत्व का न्यूनाधिकपना रहता है। स्निग्धत्व भाव सब में है, किन्तु वह न्यूनाधिक रूप से है। सबसे न्यून अविभाज्य रूप अंश को जघन्य कहते हैं। स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व के परिणामों का अविभाज्य अंश जघन्य कहलाता है तथा शेष जघन्येतर कहलाते हैं। इसमें मध्यम और उत्कृष्ट संख्या का समावेश है। जघन्य से
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५१३६
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पञ्चमोऽध्यायः
[
७१
एक अंश अधिक और उत्कृष्ट से एक अंश न्यून मध्यम संख्या कहलाती है। जघन्य की अपेक्षा उत्कृष्ट अनन्तगुणाधिक है। इसलिए स्निग्धत्व और रूक्षत्व परिणाम के तारतम्य के अनन्त भेद होते हैं।
* प्रश्न-पूर्वोक्त परमाणु तथा स्कन्धों के जो स्पर्श, रसादि गुण हैं वे व्यवस्थित रूप से रहते हैं या अव्यवस्थित रूप से ?
उत्तर-वे परिणामी होने से अव्यवस्थित रहते हैं, तथापि बध्यमान अवस्था में किसी भी गुण के साथ किस अवस्था में परिणमन होते हैं, उसको आगे के सूत्र द्वारा बताते हैं ।। ३३-३५ ॥
* परिणाम-स्वरूपम् *
卐 मूलसूत्रम्
बन्धे समाधिको पारिणामिकौ ॥५-३६ ॥
* सुबोधिका टीका * गुणसाम्ये तु सदृशानां बन्धप्रतिषेधः । इमौ तु विसदृशावेको द्विगुण स्निग्धो अन्यो द्विगुणरुक्षः स्नेहरुक्षयोश्च भिन्नजातीयत्वात् नास्ति सादृश्यम् ।
अतएव बन्धे सति समगुणस्य समगुणः परिणामको भवति । अधिकगुणो हीनस्येति ।। ५-३६ ।।
* सूत्रार्थ-बन्ध होने पर समान गुण वाला अपने समान गुणवाले का परिणामक हुमा करता है तथा अधिक गुणवाला अपने से हीन गुणवाले का परिणामक हुआ करता है। अर्थात्-बन्ध के समय समगुण का समगुण के साथ और हीनगुण अधिक गुण के साथ परिणमन करने वाला होता है ।। ५-३६ ॥
ॐ विवेचनामृत पुद्गलों में बन्ध होने के बाद सम और अधिक गुण क्रमशः सम तथा हीन गुण को अपने रूप में परिणमाते हैं।
बन्ध के विधि और निषेध का स्वरूप पूर्व के सूत्र में कह पाये हैं। वहाँ पर सदश और असदृश परमाणुओं का परस्पर बन्ध होता है। उनमें कौनसे गुण के परमाणु किस गुण में परिणत होते हैं, उसका इस प्रस्तुत सूत्र द्वारा वर्णन करते हैं ।
जब समान गुण रुक्ष का और स्निग्ध का बन्ध होता है तब कभी रुक्ष गुण स्निग्धगुण को रुक्षरूप में परिणमाता है-रुक्ष रूप में करता है तो कभी स्निग्ध गुण रुक्ष को स्निग्ध रूप में परिणमाता है।
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७२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
५॥३७
जैसे-द्विगणरुक्ष का द्विगुण स्निग्ध के साथ बन्ध होते हए कभी द्विगुण रुक्ष द्विगुण स्निग्ध को द्विगुण रुक्ष रूप में परिणमाते हैं। अर्थात् द्विगुण रुक्ष रूप में करते हैं तथा कभी द्विगुण स्निग्ध, द्विगुण रुक्ष को द्विगुण स्निग्ध रूप में परिणमाते हैं। अर्थात् - द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के अनुसार किसी समय स्निग्ध, रुक्षपने और रुक्ष स्निग्धपने में बदल जाता है। परन्तु अधिकांश स्थल में हीनांश अधिक अंश में सम्मिलित होता है। जैसे-पंचांश स्निग्धत्व तीन अंश स्निग्धत्व को अपने स्वरूप में परिणत करता है। इसी माफिक पाँच अंश स्निग्धत्व तीन रुक्ष को भी स्वरूप में बदल लेता है। अर्थात-रूक्षत्व स्निग्धत्व रूप में बदल जाता है; और जिस समय रूक्षत्व गुण की अधिकता होती है उस समय स्निग्धत्व रूक्षत्व स्वरूप बन जाता है। उसका तात्पर्य यह है कि हीन गुणपने में परिणत होता है।
पूर्व प्रकरण (अध्याय ५ सूत्र दो) में धर्मादि चार और जीव द्रव्य का कथन करके आए हैं । उनकी सिद्धि क्या केवल उद्देश मात्र (नामसंकीर्तन) से ही है ? नहीं, नहीं लक्षण से भी सिद्ध है। यही बात आगे के सूत्र में बता रहे हैं ।। ५-३६ ।।
* द्रव्यस्य लक्षरणम् *
卐 मूलसूत्रम्
गुरणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ५-३७॥
* सुबोधिका टीका * शक्तिविशेषाः हि गुणाः । “द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" अनेन सूत्रेण वक्ष्यामः । भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः, तदुभयं यत्र विद्यते तद् द्रव्यम् । गुणपर्याया अस्य सन्ति अस्मिन् वा सन्तीति गुणपर्यायवत्, गुणपर्यायमपि भेदं प्रागमे व्यवहारनया पेक्षयैव वस्तुतस्तु पर्यायगुणौ एकमेव । द्रव्यपरिणति विशेषमेव गुणः पर्याय वा। [आवश्यकेऽपि गाथा ६४] "दो पज्जवे दुगुणिए लभति उ एगानो दव्वानो' तथा "तं तह जाणाति जिणो अपज्जवे जाणणा नत्थि" [प्रा. नि. गाथा १६४] एवञ्च दव्वपभवा य गुणा न गुणप्पभवाइं दव्वाइं" [प्रा. नि. गाथा १६३] ।। ५-३७ ॥
* सूत्रार्थ-गुण और पर्याय जिसमें हों उसको 'द्रव्य' समझना चाहिए । अर्थात्-जिसमें गुण और पर्याय हों वह 'द्रव्य' है ।। ५-३७ ॥
+ विवेचनामृत 5 । द्रव्य का उल्लेख पूर्व में कई सूत्रों द्वारा करके पाए हैं। अब इस सूत्र से उसका लक्षण कहते हैं
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पञ्चमोऽध्यायः
[ ७३
जिसमें गुरण [ नित्य रहने वाले ज्ञानादि तथा स्पर्शादि धर्म ] और पर्याय [उत्पन्न होने वाला तथा विनाश पामनेवाला ज्ञानोपयोग इत्यादि एवं शुक्लरूपादि धर्म] होते हों, वह 'द्रव्य ' कहलाता है ।
५।३७
प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणामी स्वभाव के कारण निमित्त पाकर पृथक्-पृथक् यानी भिन्न-भिन्न रूप को प्राप्त करता है । अर्थात् विविध प्रकार के परिणाम प्राप्त करने की जो शक्ति है, उसी को 'गुण' कहते हैं तथा गुरणजन्य परिणाम को 'पर्याय' कहते हैं ।
उसमें गुरण कारण है तथा पर्याय कार्य है । प्रत्येक द्रव्य में शक्ति रूप से अनन्त गुरण रहते हैं । वे द्रव्य के आश्रयभूत अविभाज्य रूप हैं । प्रत्येक गुरण के पृथक् -भिन्न समय सम्प्राप्य कालिक पर्याय अनन्त हैं । द्रव्य और उसकी अंश रूप शक्ति उत्पन्न तथा विनष्ट नहीं होती है, इसलिए वह अनादिअनन्त है अर्थात् नित्य है । किन्तु पर्याय प्रतिक्षरण उत्पन्न और विनष्ट होने के कारण व्यक्तिश: सादि सान्त है, अर्थात् अनित्य है । एवं प्रवाह की अपेक्षा से वह भी अनादिग्रनन्त ( नित्य ) है । किसी भी कारणभूत एक शक्ति से द्रव्य में होने वाले त्रैकालिक पर्यायप्रवाह सजातीय कहलाते हैं ।
एवं द्रव्य में अनन्त शक्ति है । तद्जन्य पर्याय भी अनन्त हैं । वे एक द्रव्य में प्रति समय पृथक्-पृथक् भिन्न-भिन्न शक्ति द्वारा उत्पन्न होने वाले विजातीय पर्यायपेक्षा एक साथ प्रवाह रूप से अनन्त हैं । किन्तु एक समय में एक शक्तिजन्य सजातीय पर्याय एक ही होता है, अनेक हो सकते नहीं ।
जीव आत्मा और पुद्गल ये दो द्रव्य ऐसे हैं कि वे अपनी शक्ति द्वारा अनेक-अनेक रूपों में परिणत होते हैं । आत्मा चेतनादि अनन्त गुण और ज्ञान दर्शनादि अनेक उपयोगों वाला है । पुद्गल में रूपादि अनन्तगुरण तथा नील-पीतादि अनन्त पर्याय रहे हुए हैं । जीव- श्रात्मा चैतन्यादि शक्ति द्वारा उपयोग रूप में तथा पुद्गल रूप शक्ति द्वारा अनेक प्रकार और नीलपीतादि रूप में परिणत हुआ करता है । आत्मद्रव्य की चेतना शक्ति श्रात्मद्रव्य से तथा उसकी अन्य दूसरी शक्तियों से पृथक् भिन्न नहीं हो सकती है । इसी माफिक रूपत्वादि शक्ति पुद्गल द्रव्य से तथा तद्गत अन्य दूसरी शक्तियों से पृथक् भिन्न नहीं हो सकती है ।
ज्ञान, दर्शनादि भिन्न-भिन्न समयवर्त्ती विविध उपयोगी के त्रैकालिक प्रवाह का कारण एक चेतना शक्ति है । इस चेतनाशक्ति के द्वारा पर्याय प्रवाह से उपयोग रूप कार्य होता है । इसी माफिक पुद्गल द्रव्य में रूपत्व शक्ति कारणभूत तथा नील-पीतादि विविध वर्ण पर्याय प्रवाह उस शक्ति का कार्य है । आत्मद्रव्य में उपयोगात्मक पर्याय के प्रवाह के तुल्य सुख और दुःख वेदनात्मक पर्यायप्रवाह, प्रत्यात्मक पर्यायप्रवाह इत्यादि अनन्त पर्याय के प्रवाह एक साथ प्रवाहित होते हैं । उस कार्य को भूतपर्याय प्रवाहों की काररणभूत शक्ति भिन्न-भिन्न मानने से अनन्त शक्ति सिद्ध हो जाती है ।
इसी माफिक पुद्गल द्रव्य में भी रूपी पर्याय प्रवाह के सदृश गन्ध, रस तथा स्पर्श इत्यादि अनन्त पर्याय के प्रवाह अहर्निश प्रवाहित रहते हैं । प्रत्येक प्रवाह की कारणभूत शक्ति भिन्न-भिन्न मानने से पुद्गल में भी रूप शक्ति के तुल्य गन्ध, रस तथा स्पर्शादिक अनन्त शक्तियाँ सिद्ध हो जाती हैं ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[
५।३७
जीव-आत्मा में चेतना तथा प्रानन्द-वीर्यादिक शक्तियों के स्वरूप की विविध अनेक पर्याय प्रतिसमय प्रवाहित रहती हैं। किन्तु एक चेतना शक्ति या एक आनन्द शक्ति की उपयोग या वेदना पर्याय एक समय अनेक प्रवाहित नहीं रहती हैं। कारण कि, एक ही समय में प्रत्येक शक्ति की एक ही पर्याय प्रगट होती है। इसी तरह पुद्गल में भी नील, पीत इत्यादि अनेक पर्यायों में एकैक शक्ति की एकेक पर्याय एक समय रहा करती है। जैसे-आत्मा और पुद्गल नित्य हैं वैसे चेतना और रूप इत्यादि शक्तियाँ भी नित्य हैं। किन्तु चेतनाजन्य उपयोग पर्याय तथा रूपशक्तिजन्य नील और पीत इत्यादि पर्याय नित्य नहीं हैं। परन्तु उत्पाद, व्ययशील होने से व्यक्तिश: अनित्य है तो भी प्रवाह की अपेक्षा वह नित्य है।
* सारांश-प्रत्येक द्रव्य में अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न धर्म-परिणाम होते हैं। वे धर्म परिणाम दो प्रकार के हैं। कितनेक धर्म, द्रव्य में सदा रहते हैं। कभी भी द्रव्य में उन धर्मों का अभाव देखने में नहीं आता है। जब से द्रव्य की सत्ता है, तभी से उन धर्मों की द्रव्य में सत्ता है ।
अर्थात् द्रव्य के सहभावी यानी सदा द्रव्य के साथ रहने वाले हैं। उन्हीं धर्मों को गुण कहने
में आता है।
जैसे-आत्मद्रव्य का चैतन्य धर्म। यह धर्म प्रात्मा के साथ ही रहता है। आत्मद्रव्य में चैतन्य धर्म न हो ऐसा कभी होता नहीं है। प्रात्मा और चैतन्य सूर्य के प्रकाश की भाँति सदा साथ ही रहते हैं। इससे चैतन्य आत्मा का गुण है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इत्यादि पुद्गल द्रव्य के गुण हैं। कारण कि, निरन्तर पुद्गल के साथ ही रहते हैं। इससे यह निष्कर्ष आता है कि जो धर्म द्रव्य के सहभावी अर्थात् सतत साथ रहते हों, वे धर्म द्रव्य के गुण हैं।
अब, अपन अन्य प्रकार के धर्मों का भी विचार करें। कितनेक धर्म द्रव्य में नित्य रहते नहीं हैं, किन्तु कुछ एक होते हैं और कुछ नहीं भी होते हैं ।
अर्थात्-कितनेक धर्म क्रमभावी (उत्पन्न होने वाले और विनाश पामने वाले) होते हैं । कमभावी [यानी उत्पाद-विनाशशील] ऐसे धर्मों को पर्याय कहने में आता है। जैसे - प्रात्मा के ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग इत्यादि धर्म। जब आत्मा में ज्ञानोपयोग होता है तब दर्शनोपयोग नहीं होता है तथा दर्शनोपयोग जब होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं होता है। आम ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों धर्म क्रमभावी अर्थात् विनाश पाने वाला और उत्पन्न होने वाला होने से आत्मा के पर्याय हैं। इस तरह कृष्ण तथा श्वेत इत्यादि वर्ण, तिक्त आदि रस, सुरभि आदि गन्ध, कठिन स्पर्श इत्यादि पुद्गलों के पर्याय हैं। कारण कि, कालान्तरे ये धर्म विनाश पामते हैं और पुनः उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर इतना ख्याल रखने का है कि, सामान्य से वर्ण एक गुण है। जबकि कृष्णवर्ण श्वेतवर्ण ये पर्याय हैं। इस तरह रसादि में भी जानना। प्रत्येक द्रव्य में अनन्तगुण और अनन्त पर्यायें हैं। द्रव्य तथा गुण उत्पन्न नहीं होने से नित्य हैं अर्थात् अनादि-अनंत हैं।
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५।३७ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ७५ पर्याय प्रतिसमय उत्पन्न होते हैं और विनाश पाते हैं। इससे अनित्य अर्थात् सादि-सांत हैं। पर्यायों को अनित्यता व्यक्ति की अपेक्षा है; प्रवाह की अपेक्षा तो पर्यायें भी नित्य हैं।
प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय अमुक पर्याय विनाश पाते हैं और अमुक पर्याय उत्पन्न होते हैं । ऐसी पर्यायों के प्रवाह नित्य चलते ही रहते हैं ।
पर्याय के प्रवाह का प्रारम्भ अथवा अन्त नहीं होने से प्रवाह की अपेक्षा ये पर्याय अनादिअनंत हैं। द्रव्यों की भाँति कभी भी गुणों से रहित नहीं होते हैं, वैसे ही कभी पर्याय से भी रहित नहीं होते हैं। द्रव्यों में गुण व्यक्ति की अपेक्षा नित्य रहते हैं, जबकि पर्यायों में प्रवाह की अपेक्षा नित्य रहते हैं; किन्तु दोनों रहते हैं तो सर्वदा ।
आत्मा अनन्त गुणों के समुदाय का एक अखण्ड द्रव्य है। किन्तु छद्मस्थ जीव-आत्मा की कल्पना में इसके चैतन्य, चारित्र एवं वीर्यादि परिमित गुण ही ग्राह्य होते हैं। सम्पूर्ण गुणों का अवबोध छद्मस्थ जीव-आत्मा को नहीं होता है। इसी तरह पुद्गल के भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि परिमित गुण ही अवबोधित होते हैं ।
आत्मा तथा पुद्गल के समस्त पर्यायों का प्रवाह विशिष्ट ज्ञान यानी केवलज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता है। जिन-जिन पर्याय-प्रवाहों को साधारण बुद्धि वाले भी जान सकते हैं, उनके कारणभूत गुणों का व्यवहार होता है। जैसे–चैतन्यादि प्रात्मा के गुण कल्पना, विचार और वचन द्वारा प्रगट किये जा सकते हैं ।
इसी तरह पुद्गल द्रव्य के भी रूप इत्यादि गुण प्रगटरूप हैं। शेष अकल्पनीय गुण हैं, वे तो सर्वज्ञविभु केवलीगम्य हैं। अनन्तगुण, अनन्तपर्याय के समुदाय को द्रव्य माना है ।
इस प्रकार का कथनभेद सापेक्ष-अपेक्षा सहित है। अभेद दृष्टि से जो पर्याय है वह गुण स्वरूप है। गुण द्रव्य स्वरूप है, अर्थात् गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है। द्रव्य में गुण दो प्रकार के होते हैं। एक साधारण (सामान्य) और दूसरे असाधारण (विशेष)। साधारण जो गुण हैं, वे समस्त द्रव्यों में सामान्य रूप से होते हैं। जैसे-अस्तित्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्वादि और जो विशेष गुण हैं वे किसी द्रव्य में होते हैं और किसी में नहीं भी होते हैं। जैसे-चैतन्य (जीव) रूपत्वादि (पुद्गल) ये असाधारण गुण हैं। तज्जन्य पर्याय के कारण ही प्रत्येक द्रव्य की पृथक्ता है-भिन्नता है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्य के भी गुण, पर्याय की व्याख्या पूर्ववत् जीव, पुद्गल के समान कर लेनी। विशेषता यही है कि पुद्गल द्रव्य रूपी है और शेष अरूपी हैं । तथा पुद्गल द्रव्य गुरुलघुगुणवाला है एवं शेष द्रव्यों का प्रगुरुलघु गुण है ।। ५-३७ ।।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५॥३८
* कालस्य निरूपणम् *
卐मूलसूत्रम्
कालश्चेत्येके ॥५-३८ ॥
* सुबोधिका टीका * केऽपि प्राचार्याः कालोऽपि द्रव्यमिति उच्यन्ते । पूर्व वर्तनादि-उपकाराणि व्याचक्षितानि तानि उपकारकाभावे नैव व्याक्षितुम्समर्थाः ।
पदार्थानां परिणमने क्रमवर्तित्वस्य हेतुः । अतः कालोऽपि द्रव्यमिति व्याचक्षते ।। ५-३८ ॥
* सूत्रार्थ-कोई-कोई प्राचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं ।। ५-३८ ।।
क विवेचनामृत कितनेक प्राचार्य काल को भी द्रव्य तरीके मानते हैं। पहले इसी अध्याय के सूत्र “वर्तना परिणामः क्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य" [५-२२] में काल के वर्तनादि पर्यायों का वर्णन करके आये हैं, किन्तु वहाँ द्रव्यत्व विधान नहीं है ।
द्रव्यत्व विधानविषयी तो प्रस्तुत सूत्र है। तथा उसके विवेचन में [धर्माधर्माकाशजीव पुद्गल] पाँच पदार्थों के द्रव्यत्व विषय समस्त की एक मान्यता होने से एक ही सूत्र से उनकी व्याख्या की गई है। तथा काल के द्रव्यत्व विषय में मतभेद होने से सूत्रकार यथानुक्रम पृथक् सूत्र से उसकी व्याख्या करते हैं।
सूत्रकार का कथन यह है कि, कई आचार्य काल को द्रव्य रूप में मानते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि, वास्तविक रूप से केवल स्वतन्त्र द्रव्य रूप सर्वसम्मत नहीं है ।
यहाँ सूत्रकार ने काल को पृथक् द्रव्य मानने वाले आचार्यों के मत का निराकरण नहीं किया, किन्तु काल में द्रव्य का लक्षण घटता नहीं होने से सूत्रकार को काल द्रव्यतरीके इष्ट नहीं है। विश्व-जगत् की सत्ता, विश्व-जगत् में होते हुए फेरफार, क्रम से कार्य की पूर्णता तथा छोटेबड़े का व्यवहार इत्यादि काल बिना नहीं घट सकते हैं। इसलिए ही वर्तना, परिणाम इत्यादि काल के उपकार हैं, इस अध्ययन को २२ वें सूत्र में कहा है। अर्थात् काल जैसी वस्तु विश्व-जगत् में विद्यमान है। कोई भी काल का निषेध नहीं कर सकते हैं। किन्तु काल द्रव्यरूप है कि गुणपर्याय रूप है ? इसी में मतभेद है। इसलिए इस सूत्र में निर्देश किया है ।। ५-३८ ।।
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५:३६ ]
मूलसूत्रम्
पञ्चमोऽध्यायः
* कालस्य विशेषस्वरूपम्
[ ७७
सोऽनन्तसमयः ॥ ५-३६ ॥
* सुबोधिका टीका *
स च कालोऽनन्तसमयः । तत्रैक एव वर्त्तमान समयः प्रतीतानागतयोस्त्वानन्त्यम् । अनंतशब्दः संख्यावाची, तथा समयशब्दः परिणमनं व्याचक्षते ।
अतएव कालद्रव्यानन्तरपरिणामी किन्तु वर्तमानसमयोऽथवा परिणमनमेकमेव । भूत-भविष्यदनन्ता:, भूतोऽनादि सान्तश्च भविष्यद् स्याद्यनन्तः । गुण-पर्यायवद् उक्त द्रव्यमिति । अत्र के च ते गुणा: ? ।। ५-३६ ।।
* सूत्रार्थ - वह काल अनन्त समय रूप है । अर्थात् वह अनन्त समय वाला है ।। ५-३६ ।।
-
5 विवेचनामृत
काल अनन्त समय प्रमाण है ।
समय यानी काल का अन्तिम अविभाज्य सूक्ष्म अंश । काल के तीन भेद हैं । (१) वर्तमान, (२) भूत, और (३) भविष्यत् । उसमें वर्तमान काल एक समय का है । भूत और भविष्यत् ये दोनों काल अनन्त समय के हैं । यहाँ भूत और भविष्यत् काल को श्राश्रय करके काल को अनन्त समय प्रमारण कहा है ।
जैसे- पुद्गल के अविभाज्य [ जिसके दो विभाग नहीं हो सके ऐसे अन्तिम ] अंश प्रदेश को परमाणु कहा जाता है । वैसे काल के अविभाज्य [ जिसके दो विभाग न हो सकें, ऐसे अन्तिम सूक्ष्म ] अंश को समय कहा जाता है। नेत्र - प्राँख का एक पलकारा हो, उसमें असंख्यात समय हो जाते हैं । दृष्टांत तरीके कहा है कि
जैसे कोई एक सशक्त युवक अपने सम्पूर्ण बल का उपयोग करके भाले की तीव्र अरणीद्वारा कमल के सौ पत्रों को एक साथ में भेदे । उसमें प्रत्येक पत्र के भेद में असंख्याता - प्रसंख्याता समय हो जाते हैं ।
वैसे दूसरे दृष्टान्त से भी कहते हैं कि, कोई सशक्त युवक जीर्णशीर्ण वस्त्र को एक साथ फाड़ देवे, उसमें वस्त्र के प्रत्येक तांतरणा को तूटते हुए असंख्याता समय हो जाते हैं ।
उक्त दोनों दृष्टान्तों से समय कितना सूक्ष्म है, उसका ख्याल आ जाता है । अब समय से लगाकर के एक पुद्गल परावर्त पर्यन्त तक भेद नीचे प्रमाणे हैं
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७८
]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमस्त्रे
[
५।३६
* श्रीजनदर्शन के अनुसार काल प्रमाण * निविभाज्य काल
१ समय असंख्यात समय
१ प्रावलिका (३) २५६ प्रावलिका
१ क्षुल्लक भव (४) साधिक १७॥ क्षुल्लक भव = १ श्वासोच्छ्वास (प्राण) (५) ७ श्वासोच्छ्वास (प्राण)
१ स्तोक(६) ७ स्तोक
१ लव ३८॥ लव
१ घड़ी २ घड़ी
१ मुहूत्त १६७७७२१६ प्रावलिका
१ मुहूर्त * ३७७३ श्वासोच्छ्वास
१ मुहूत्तं ६५५३६ क्षुल्लकभव
१ मुहूर्त एक समय न्यून मुहूर्त
१ अन्तर्मुहूर्त (उत्कृष्ट) दो समय
१ अन्तर्मुहूर्त (जघन्य) (६) ३० मुहूर्त
१ दिवस (अहोरात्र) (१०) १५ दिवस (अहोरात्र)
१ शुक्लपक्ष * १५ दिवस (अहोरात्र)
१ कृष्णपक्ष (११) ३० अहोरात्र
= १ मास (महीना) (१२) २ मास
१ ऋतु (१३) ३ ऋतु
१ अयन * ६ मास
१ अयन (उत्तरायण, दक्षिणायन) (१४) २ अयन
१ वर्ष (१२ मास) (१५) पाँच वर्ष
१ युग (१६) ८४ लाख वर्ष
१ पूर्वांग (१७) ८४ लाख पूर्वांग
१ पूर्व * पूर्वांग X पूर्वांग
१ पूर्व [अथवा ७०५६०००००००००० वर्ष] =
१ पूर्व [अर्थात्-७० लाख ५६ हजार क्रोड़ वर्ष का एक पूर्व] (१८) ८४ पूर्व
१ त्रुटितांग (१६) ८४ त्रुटितांग
= १ त्रुटित (२०) ८४ त्रुटित
१ अडडांग (२१) ८४ अडडांग
१ अडड ८४ अडड
१ अववांग ८४ अववांग
१ अवव ८४ अवव
१हूहूप्रांग (२५) ८४ हूहूप्रांग
१ हूहून (२६) ८४ हूहून
१ उत्पलांग
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५॥३६
]
पञ्चमोऽध्यायः
[
७९
(२७) ८४ उत्पलांग
१ उत्पल (२८) ८४ उत्पल
१ पद्मांग (२६) ८४ पद्मांग
१ पद्म (३०) ८४ पद्म
१ नलिनांग (३१) ८४ नलिनांग
१ नलिन ८४ नलिन
१ अर्थनिउरांग ८४ अर्थनिउरांग
१ अर्थनिउर (३४) ८४ अर्थनिउर
१ अयुतांग (३५) ८४ अयुतांग
१ अयुत (३६) ८४ अयुत
१ प्रयुतांग (३७) ८४ प्रयुतांग
१ प्रयुत (३८) ८४ प्रयुत
१ नयुतांग ८४ नयुतांग
१ नयुत (४०) ८४ नयुत
१ चलिकांग (४१) ८४ चलिकांग
१ चालका (४२) ८४ चलिका
१ शीर्षप्रहेलिकांग (४३) ८४ शीर्षप्रहेलिकांग
१ शीर्षप्रहेलिका (४४) असंख्य वर्ष
१ पल्योपम (४५) १० कोड़ाकोड़ी पल्योपम
१ सागरोपम (४६) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ उत्सपिणीकाल (४७) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ अवसर्पिणीकाल (४८) १० कोड़ाकोड़ी सागरोपम
१ कालचक्र (४६) अनंतकालचक्र
१ पुद्गल परावर्तकाल * काल के दो भेद हैं। नैश्चयिक और व्यावहारिक ।
इस अध्याय के २२ वें सूत्र में काल के उपकार रूपे कहे हुए वर्तना इत्यादि पर्याय नैश्चयिक काल हैं।
यहाँ पर कहे हुए समय से प्रारम्भ करके पुद्गल परावर्त तक समस्त काल व्यावहारिक काल है। नैश्चयिक काल लोक और अलोक दोनों में वर्तता है। क्योंकि वर्तनादि पर्याय जैसे लोक में है वैसे अलोक में भी है। व्यावहारिक काल तो मात्र लोक में ही है। लोक में भी सिर्फ ढाई द्वीप में ही है। कारण कि व्यावहारिक काल ज्योतिषचक्र के परिभ्रमण से उत्पन्न होता है। ज्योतिषचक्र का भी परिभ्रमण मात्र ढाई द्वीप में ही होता है ।
अब ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा विचारिये तो वर्तमान समयरूप काल नैश्चयिक काल है। तथा भूत-भविष्यत व्यावहारिक काल हैं। क्योंकि ऋजूसूत्र वर्तमान अवस्थान को ही तात्त्विक मानता है। अर्थात्-ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा वर्तमान समय विद्यमान होने से नैश्चयिक मुख्य (तात्त्विक) काल है। भूतकाल विनष्ट होने से और भविष्यत्काल अब तक उत्पन्न नहीं होने से व्यावहारिकगौण (अतात्त्विक) काल हैं ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५४०
वास्तविक सूक्ष्मदृष्टि द्वारा जो विचारणा करने में आ जाय तो काल द्रव्य नहीं है, किन्तु द्रव्य के वर्तनादि पर्याय स्वरूप है। जीव इत्यादि द्रव्यों में होने वाले वर्तनादि पर्यायों में काल उपकारक होने से उसको पर्याय तथा पर्यायी के अभेद की विवक्षा से प्रौपचारिक यानी उपचार से द्रव्य कहने में आता है।
वर्तना काल का समय रूप पर्याय तो एक ही है। तथापि अतीत, अनागत समय पर्याय अनन्त हैं। इसलिए काल को अनन्त पर्याय वाला कहा है। * प्रश्न-पर्याय और पर्यायी (द्रव्य) के अभेद की विवक्षा से जो काल को द्रव्य कहने में
आ जाय तो वर्तनादि पर्याय जिस तरह अजीव के हैं, उसी तरह जीव के भी हैं । अर्थात-काल को जीव और अजीव उभय स्वरूप कहना चाहिए; जबकि आगम शास्त्रों में काल को अजीव स्वरूप कहने में आया है। उसका क्या
कारण ? * उत्तर-यद्यपि यह नैश्चयिक काल जीव और अजीव उभय स्वरूप है किन्तु जीव द्रव्य से अजीव द्रव्य की संख्या अनंत गुणी होने से अजीव द्रव्य की बहुलता का आश्रय ले काल को सामान्य से अजीव तरीके अोलखाने में आया है ।। ५-३६ ।।
* गुणस्य लक्षणम् * ॐ मूलसूत्रम्
द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः ॥ ५-४० ॥
* सुबोधिका टीका * एषामाश्रय इति द्रव्यम्, इति द्रव्याश्रयाः न एषां गुणाः सन्ति इति निर्गुणाः । प्रत्राश्रयशब्देनाधारो न ज्ञेयः परिणामीति ज्ञेयः । स्थित्यंशरूपद्रव्यपरिणामीति परिणाम विशेषकारणेभ्यः । द्रव्यं परिणमनं करोति अतः गुण-पर्यायौ परिणामश्च द्रव्यं परिणामी। गुणस्तु स्वयं निर्गुणः ।
बन्धे समाधिको पारिणामिको इति कस्तत्र परिणामः ? ।। ५-४० ।। * सूत्रार्थ-जो द्रव्य में रहते हैं और स्वयं निर्गुण हैं, उनको 'गुण' कहते हैं । अर्थात-जो द्रव्य के आश्रय में रहे और स्वयं निर्गुण हो वह गुण है ॥ ५-४० ।।
+ विवेचनामृत जो द्रव्य में सदा रहे और (स्वयं) गुणों से रहित हो वह 'गुण' है ।
द्रव्य के लक्षण और गुण का कथन इसी पाँचवें अध्ययन के सूत्र ३७ में आ गया है । इसलिए अब गुण का स्वरूप बताते हैं, जो नीचे प्रमाणे है
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५१४१ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ८१ यद्यपि पर्याय भी द्रव्य के प्राश्रित ही है और निर्गुण भी है, तथापि वह उत्पाद और विनाशशोल होने से सर्वदा अवस्थित रूप नहीं है। तथा गुण सर्वदा अवस्थित रूप से रहता है। यही गुण और पर्याय में अन्तर-भेद है।
द्रव्य की सदा वर्तमान शक्ति, जो पर्याय की उत्पादक रूप है, उसे ही गुण कहते हैं। गुण से अलावा अन्य गुण मानने पर अनवस्था नामक दोष उपस्थित होता है। इसलिए द्रव्यनिष्ठ अर्थात् द्रव्य में रहे हुए शक्ति रूप गुण को निर्गुण माना है। जीव-आत्मा के चैतन्य, सम्यक्त्व, चारित्र, आनन्द, वीर्यादि तथा पुद्गल के रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श इत्यादि अनन्त गुण हैं।
उक्त कथन का सारांश यह है कि-पर्याय भी द्रव्य में रहते हैं और गुण से रहित होते हैं, ऐसा होने पर भी वे द्रव्य में सदा रहते नहीं हैं, जबकि गुण सर्वदाही रहते हैं। अस्तित्व एवं ज्ञानदर्शनादिक जीव-प्रात्मा के गुण हैं ।
अस्तित्व, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्श इत्यादि पुद्गल के गुण हैं। घटज्ञानादिक जीव-प्रात्मा के पर्याय हैं। तथा शुक्ल रूपादिक पुद्गल के पर्याय हैं।
इस सम्बन्ध में 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक ग्रन्थ में गुणों का तथा पर्यायों का लक्षण इस प्रकार कहा है। 'सहभाविनो गुणाः' द्रव्य के सहभावी (अर्थात्-सर्वदा द्रव्य के साथ रहने वाले) धर्म गुण कहने में आते हैं। तथा 'क्रमभाविनो पर्यायाः' द्रव्य के क्रमभावी (अर्थात्-क्रमशः उत्पन्न होने वाला तथा विनाश पामने वाला) धर्म पर्याय कहने में आते हैं ॥५-४० ।।
* परिणामस्य लक्षणम् * 卐 मूलसूत्रम्
तभावः परिणामः ॥५-४१ ॥
* सुबोधिका टीका * धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां स्वभावः स्वतत्त्वं परिणामः । स द्विविधः । क्वी भेदो परिणामस्य द्वौ ? ॥ ५-४१ ।।
* सूत्रार्थ-धर्मादि द्रव्यों के स्वभाव को परिणाम कहते हैं। अर्थात्-उत्पाद व्यययुक्त स्वरूप में स्थित रहना परिणाम है ॥ ५-४१ ।।
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८२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५४१
विवेचनामृत द्रव्यों के और गुणों के स्वभाव स्वतत्त्व को परिणाम कहते हैं ।
प्रस्तुत वर्तमान पञ्चम अध्याय के सूत्र २२-३६ इत्यादि से परिणाम शब्द कहकर आए। हैं। उसका वास्तविक अर्थ क्या होता है। उसको शास्त्रकार नीचे प्रमाणे समझाते हैं
* बौद्धदर्शन क्षणिकवादी होने से वस्तु-पदार्थ मात्र को क्षणस्थायी (निरन्वय विनाशी, क्षणविनाशी) मानता है। इसलिए इनके मन्तव्यानुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर के सर्वथा विनष्ट-नष्ट होना है। विनाश-नाश के पश्चात् उस वस्तु-पदार्थ का कोई भी तत्त्व अवस्थित रूप नहीं रहता है। अर्थात्-बौद्धदर्शन प्रत्येक वस्तु को क्षणविनाशी मानता है ।
* नैयायिक इत्यादि दर्शनवाले गुण तथा द्रव्य को एकान्त भेदरूप से ही मानते हैं। अर्थात्-द्रव्य और गुण को सर्वथा भिन्न मानने वाले न्यायदर्शन इत्यादि भेदवादी दर्शनों के मत में अविकृत द्रव्य में गुणों की उत्पत्ति वा विनाश वे परिणाम हैं।
____ उस परिणाम का फलितार्थ सर्वथा अविकारी (विकार भाव को नहीं होने वाले) द्रव्य में गुण का उत्पाद तथा व्यय होना है ।
उक्त दोनों पक्ष तथा श्रीजैनदर्शन के मन्तव्यानुसार परिणामस्वरूप के सम्बन्ध में क्या विशिष्टता-विशेषता है, उसको इस सूत्र द्वारा नीचे प्रमाणे बताते हैं ।
श्रीजैनदर्शन भेदाभेदवादी होने से परिणाम का अर्थ उक्त दोनों प्रकार के अर्थों से भिन्न ही कहता है।
श्रीजनदर्शन की दृष्टि से परिणाम यानी स्वजाति के स्वरूप के त्याग बिना वस्तु में (द्रव्य में या गुण में) होता हुआ विकार द्रव्य के गुण प्रतिसमय विकार को (अवस्थान्तर को) पाते हुए भी उसके मूलस्वरूप में किसी प्रकार का फेरफार नहीं होता है।
अर्थात्-किसी भी द्रव्य का गुण ऐसा नहीं है कि जो सर्वथा अविकृत रह सके। विकृत अर्थात्-अन्य दूसरी अवस्था को प्राप्त करता हुआ कोई भी द्रव्य या गुण अपनी मूल जाति का (अर्थात्-स्वभाव का) परित्याग नहीं करता है।
किन्तु निमित्त पाकर के पृथग्-भिन्न अवस्था को प्राप्त हो, यही द्रव्य और गुण का परिणाम है।
जीव-आत्मा मनुष्य, देव, पशु, पक्षी आदि किसी भी अवस्था में हो किन्तु वह अपने प्रात्मत्व (चैतन्य) का परित्याग नहीं करता है।
इसी माफिक उसके गुण तथा पर्याय में भी चेतनत्व भाव रहता है ।
ज्ञानरूप साकार उपयोग हो या दर्शनरूप निराकार उपयोग हो, घटविषयकज्ञान हो या पटविषयकज्ञान हो, किन्तु परिवर्तन कदापि नहीं होता है। इसलिए वह अपरिवर्तनशील है। एवं
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१४२
]
पञ्चमोऽध्यायः
द्वयणक तथा व्यणुकादि किसी भी अवस्था में हो और भिन्न अवस्था में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि पर्याय भी परिवर्तित हुआ करते हैं; तो भी वह अपने जड़त्व, मूत्तित्व स्वभाव का परित्याग नहीं करता है।
इस तरह प्रत्येक द्रव्य की अपने द्रव्यत्व और गुणत्व से च्यूत नहीं होते हए भी पर्याय परिवर्तनशील अवस्था को परिणाम कहते हैं। पुद्गल के द्वयणुक, त्र्यणुक, चतुरणुक इत्यादि अनन्त परिणाम हैं। उन सर्व में पुद्गलत्व (पुद्गल जाति) कायम रहते हैं। रूप इत्यादि गुण के श्वेत तथा नील इत्यादि अनेक परिणाम हैं। वे सर्व में रूपत्व इत्यादि कायम रहते हैं। इस तरह धर्मास्तिकाय इत्यादि द्रव्य विष भी समझना ।। ५-४१ ।।
* परिणामस्य द्वौ भेदौ * 卐 मूलसूत्रम्
प्रनादिरादिमांश्च ॥ ५-४२॥
* सुबोधिका टीका * धर्माधर्माकाशपुद्गलजीवकालानां द्रव्याणां चतुर्णा प्ररूपीद्रव्याणां परिणामः अनादीति । अर्थात् तत्रानादि-रूपेषु धर्माधर्माकाशादिषु इति । रूपी-मूर्तानां पदार्थानां परिणामानादि इति उच्यते ॥ ५-४२ ।।
* सूत्रार्थ-ये परिणाम अनादि और प्रादि दो प्रकार के हुमा करते हैं। अर्थात्-परिणाम के दो भेद हैं। अनादि और प्रादिमान ।। ५.४२ ॥
विवेचनामृत ॥ परिणाम अनादि और आदिमान (नूतन बनता) दो प्रकार के हैं। जिस काल की पूर्वकोटी जानी न जाय उसको अनादि कहते हैं, तथा जिसकी पूर्वकोटी जानी जाय उसको प्राविमान काल कहते हैं। जिसकी प्रादि नहीं, अर्थात् अमुक काले प्रारम्भ-शुरुआत हुई इस तरह जिसके लिए न कहा जा सकेगा वह अनादि है। तथा जिसकी आदि है, अर्थात् अमुक काले प्रारम्भशुरुआत हुई, इस तरह जिसके लिए कहा जा सके वह मादिमान काल है।
परिणामी स्वभाव के दो भेद हैं। एक अनादि परिणामी स्वभाव, और दूसरा आदिमान परिणामी स्वभाव। जिसमें अरूपी द्रव्य (धर्माधर्माकाश-जीव) अनादि परिणाम वाले होते हैं । किन्तु जीवों में उक्त दोनों भेद पाये जाते हैं ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि-द्रव्यों के रूपी और प्ररूपी इस तरह दो भेद हैं। उसमें अरूपी द्रव्यों के परिणाम अनादि हैं।
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८४ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५।४३
धर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशवत्व, लोकाकाशव्यापित्व, गति अपेक्षाकारणत्व, तथा अगुरुलघुत्व इत्यादि ।
धर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशवत्व, लोकाकाशव्यापित्व, स्थिति अपेक्षाकाररणत्व, तथा अगुरुलघुत्व इत्यादि ।
आकाश के अनन्तप्रदेशवत्व तथा अवगाह देना इत्यादि । जीव के जीवत्व इत्यादि । तथा काल के वर्तनादि परिणाम अनादि हैं ।
जगत्
इन परिणामों से कोई अमुक-काल उत्पन्न हुआ ऐसा नहीं होता है । किन्तु जबसे में द्रव्य हैं तब से ही है ।
उसका निष्कर्ष यह आया है कि - विश्व अनादि है, तो द्रव्य अनादि हैं। इसलिए उसके परिणाम भी अनादि हैं ।। ५-४२ ।।
* श्रादिमान - परिणामम्
5 मूलसूत्रम् -
रूपिण्वादिमान् ॥ ५-४३ ॥
* सुबोधिका टीका
येषु रूप-रस- गन्ध-स्पर्शादि प्राप्यन्ते ते रूपीति । रूपिषु तु द्रव्येषु श्रादिमान् परिणामोऽनेकविधः स्पर्शपरिणामादिरिति । स्पर्शस्याष्टभेदाः, रसस्य पञ्चभेदाः, द्वौ भेद गन्धस्य, पञ्चविधः वर्णश्चेति वर्णितं पूर्वमेव ।। ५-४३ ।।
* सूत्रार्थ - रूपी पदार्थों के परिणाम प्रादिमान हुआ करते हैं । रूपी धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल के परिणाम अनादि हैं । अर्थात्-रूपी द्रव्य श्रादिमान परिणाम वाले होते हैं ।। ५-४३ ।।
5 विवेचनामृत 5
रूपी द्रव्यों में प्रादिमान परिणाम होते हैं । पुद्गल रूपी द्रव्य है । उसमें रहे हुए श्वेत रूप आदि परिणाम आदिमान हैं। क्योंकि, उसमें प्रतिक्षणरूप आदि का परिवर्तन होता है ।
विवक्षित समय में हुए परिणाम पूर्व समय में नहीं होने से आदिमान हैं । प्रवाह की अपेक्षा तोरूपी द्रव्यों में भी अनादि परिणाम हैं । रूपी द्रव्यों में श्रादिमान परिणाम का कथन व्यक्ति की अपेक्षा है । रूपी पुद्गल द्रव्य प्रादिमान ( सादि) परिणाम वाले होते हैं । उनके अनेक भेद हैं। जैसे - स्पर्शपरिणाम, रसपरिणाम, गन्धपरिणाम इत्यादि ।
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8188 ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ८५
उक्त कथन पर यदि जरा सूक्ष्म दृष्टि से विचार करेंगे तो ज्ञात होगा कि, जैसे रूपी द्रव्यों में प्रवाह की अपेक्षा अनादि एवं व्यक्ति की अपेक्षा श्रादिमान परिणाम हैं, वैसे अरूपी द्रव्यों में भी दोनों प्रकार के परिणाम रहे हुए हैं ।
उदाहरण तरीके, गति करने में प्रवृत्त हुए पदार्थ को धर्मास्तिकाय सहायता करता है । विवक्षित समय में किसी वस्तु पदार्थ की गति हुई तो उस समय धर्मास्तिकाय में उस वस्तु पदार्थ सम्बन्धी उपग्राहकत्व रूप पर्याय उत्पन्न हुआ। इससे पहले उसमें उस वस्तु पदार्थ की अपेक्षा उपग्राहकत्व रूप परिणाम नहीं था । अब ज्योंही वह पदार्थ स्थिर बनता है तब उपग्राहकत्व रूप परिणाम विनश जाता है। इसलिए वह उपग्राहकत्व रूप परिणाम आदिमान हुआ । किन्तु प्रवाह की अपेक्षा अनादिकाल से उपग्राहकत्व रूप परिणाम उसमें रहता है ।
इस तरह समस्त प्ररूपी द्रव्यों में भी दोनों प्रकार के परिणाम घट सकते हैं ।
ऐसा होते हुए भी यहाँ पर श्रीतत्त्वार्थसूत्रकार वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति महाराज ने अरूपी में अनादि और रूपी में आदिमान परिणाम होता है; ऐसा क्यों कहा ?
इस प्रश्न पर विचार करते हुए लगता है कि - यहाँ श्रीतत्त्वार्थकार वाचकप्रवरश्री ने प्रस्तुत प्रतिपादन शिशुबाल जीवों की स्थूलबुद्धि को लक्ष्य में रख करके ही किया होगा । अथवा रूपी द्रव्यों में सादि परिणाम की प्रधानता और प्ररूपीद्रव्यों में अनादि परिणाम की मुख्यता को लक्ष्य में रखकर भी उपर्युक्त उल्लेख किया होगा, ऐसी सम्भावना है । अथवा अनादि और आदि ar कोई भिन्न- जुदा ही अर्थ हो, ऐसा भी सम्भावित है । इस विषय में तो 'तत्त्वं तु केवलिनो वदन्ति' अर्थात् तत्त्व ( सत्य हकीकत) क्या है ? यह तो सर्वज्ञ- केवली भगवन्तों पर या बहुश्रुत ज्ञानियों पर छोड़ना ही हितावह है ।। ५-४३ ।।
* जीवेषु श्रादिमान - परिणामः
5 मूलसूत्रम्
योगोपयोगी जीवेषु ॥ ५-४४ ॥
* सुबोधिका टीका *
यद्यपि जोवोऽरूपी, तथापि तत्र योगोपयोगरूपादिमान् परिणामः सम्भवः वर्तते । जीवेषु रूपषु श्रपि सत्सु योगोपयोगी परिणामावादिमन्तौ भवतः । स च पश्चदशभेद:, द्वादशविधश्व स ।
योगोऽपि द्विविधः भावद्रव्ययोगौ । आत्मशक्ति विशिष्टो भावः, मन-वचनकायनिमित्तात् श्रात्मप्रदेश - परिस्पन्दनं द्रव्ययोगश्च । पञ्चदशभेदाश्चानुक्रमतः प्रौदारिक काययोगः, प्रौदारिकमिश्रकाययोगः, वैक्रियिककाययोगः, वैक्रियिक मिश्रकाययोगः,
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८६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ५४४ पाहारककाययोगः, प्राहारकमिश्रकाययोगः, कार्मणकाययोगः एवं सप्तकाययोगान् च चत्वारश्च वचनयोगाश्च सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगाः । द्वादशविधः उपयोगः ।
यथा-पञ्चसम्यग्ज्ञानानि त्रीणि मिथ्याज्ञानानि, कुमति कुश्रुत विभङ्गादीनि, चतुर्विधं दर्शनम् चक्षुदर्शनं प्रचक्षुदर्शनं अवधिदर्शनं केवलदर्शनञ्चेति ।। ५-४४ ।।
* सूत्रार्थ-जीव द्रव्य अरूपी होते हुए भी उसके पन्द्रह योग और बारह उपयोग रूप आदिमान् परिणाम हैं। अर्थात्-जीवों में योग और उपयोग आदिमान हैं ।। ५-४४ ॥
विवेचनामृत जीवों में योग और उपयोग ये दो परिणाम आदिमान हैं।
प्रस्तुत सूत्र से सूचित होता है कि-रूपीद्रव्य के बिना जो अरूपीद्रव्य हैं, उन सभी में अनादि परिणाम होते हैं। किन्तु इस सूत्र में उसका निराकरण करते हुए कहते हैं कि-जीव यद्यपि अरूपी है, तथापि उसके योग तथा उपयोग हैं। वे आदिमान (सादि) परिणाम वाले हैं तथा शेष स्वभाव अनादि परिणाम हैं। जिसमें उपयोग का स्वरूप श्रीतत्त्वार्थ सूत्र के अध्याय-२ सूत्र १७ में कह चुके हैं। अब योग का स्वरूप आगे अध्याय-६ सूत्र १ में कहेंगे।
इस सूत्र का सारांश यह है कि-पुद्गल के सम्बन्ध से प्रात्मा में उत्पन्न होता हुआ वीर्य का परिणामविशेष योग है। तथा ज्ञान एवं दर्शन उपयोग हैं। ये दोनों परिणाम आदिमान हैं। क्योंकि वे परिणाम उत्पन्न होते हैं, तथा विनाश भी पाते हैं। पूर्व की माफिक यहाँ भी प्रवाह और व्यक्ति की अपेक्षा क्रमशः अनादि और आदि विचारणा कर लेनी चाहिए ॥ ५-४४ ।।
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[ ८७
सारांश ]
पञ्चमोऽध्यायः Aamaanaanaamaanadaaram..damadis
ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य पञ्चमाध्यायस्य सारांशः 5
वक्ष्यामः पञ्चमेऽजीवान, उक्ताः जीवाश्चतुर्थ के । पञ्चैवाजीवकायाश्च, धर्माधर्मस्वपुद्गलाः ॥ १ ॥
द्रव्याणि किं स्वभावाद्धि, च्युतानि स्वस्वभावतः । संख्या पञ्च विघटति, मूर्ताभूतानि सन्ति किम् ? ॥ २ ॥
नित्यान्येतानि द्रव्याणि, अवस्थितान्यरूपिणि । पुद्गलाऽरूपिणः ख्याताः, तनिषेधोऽपि वर्णितः ॥ ३ ॥ धर्मादिकस्य संख्येयाः, तेषां संख्याऽपि दर्शिता । जीवस्यापि तथैवास्ति, यथा धर्मस्य वरिणतम् ।। ४ ।। आकाशोऽनन्तप्रदेशी, संख्येयासंख्य पुद्गलः । प्रणोः प्रदेशाः नाख्याता, लोकाकाशेऽवगाह हि ॥ ५ ॥
Allamaadimaal Aadi.damadadhiadiaddamaadimanabadlianadaadadMAN
पुद्गलस्यावगाहम-वगाह जीवानामवगाहोऽपि,
किं क्षेत्रेषु
प्रमाणतः । कति वर्तते ॥ ६ ॥
धर्मादीनास्तिकायानां, लक्षणं लक्षितं खलु । आकाशस्योपकारञ्च, पुद्गलस्योपकार हि ।। ७ ।। सुख-दुःखादि सर्व हि, जीवितं मरणमपि । परस्परोपग्रहोऽपि, जीवानां वरिणतः यथा ॥ ८ ॥ किं कालस्योपकारो हि, पुद्गलानां गुणाश्च के ? । स्पर्श-रसश्च गन्धादि-पुद्गलानां गुणाः स्मृताः ॥ ६ ॥ शब्दं बन्धञ्च सौम्यञ्च, स्थौल्यसंस्थान भेद हि ।
तमच्छाया तपोद्योता-धर्मा द्रव्यस्य पुद्गलः ।। १० ॥ སྤུ་དང་བཤད་སྤྱད་ནས་སྤར་ཀྱང་སྤྱད་དང་སྤྱད་དང་སྤྱད་སྤྱད་པ་སྤྱད་དང་སྤྱང་སྤང་ཀྱང་ངས་ཀྱང་དང་སྤ་དང་སྤངས་ཀྱང་དངོས་
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८८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ सारांश AAMANANAMAALAAMANANAMANANAMMAMALAMAAMAN
पुद्गलाः द्विविधा सन्ति, संघातादिभ्यः जायते । वणितोत्पत्ति - स्कन्धानां, परमाणूत्पद्यते कथम् ।। ११ ॥ उत्पद्यन्ते च ये भेद-संघाताभ्यां हि चाक्षुषाः । शेषाऽचा क्षुषा प्रोक्ता, भूता पूर्वत्रिकारणैः ।। १२ ।। सदुत्पाद-व्यय-ध्रौव्यं, नित्यं तदभावमव्ययम् । किमनेकान्तस्वरूपं, सप्तभङ्गः प्ररूपणम् ।। १३ ।। पुद्गलानां हि बन्धेषु, स्निग्धरूक्षत्वकारणम् । किमेकान्तमिदं नास्ति, गुणा यत्र च बन्धनम् ।। १४ ।। न जघन्यगुणानां हि, गुणसाम्ये न सदृशाम् । सदृशगुणवैषम्ये, बन्धो भवति निश्चितम् ।। १५ ।। बन्ध सति समगुणस्य, समगुणः परिणामकः । गुण-पर्यायवद्रव्यं, कालोऽपि द्रव्यमेव च ।। १६ ।। स कालोऽनन्तसमयः, तत्रकोऽस्तिपूर्वतमान् । .. द्रव्याश्रया निर्गुणा हि, गुणाः सन्तीति वक्षितम् ।। १७ ॥ धर्मादीनाञ्च द्रव्याणां, गुणानामपि यथोक्तित । तद्भावः परिणामोऽस्ति, अनादिरादिमांश्च हि ।। १८ ।। रूपिषु खलु द्रव्येषु, परिणामादिमान्निति । योगोपयोगजीवेषु, पञ्चमे वक्षितं खलु ॥ १६ ।।
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प्रशस्तिः
]
पञ्चमोऽध्यायः
[
८९
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India
इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवति-तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति-महाप्रभावशालि-प्रखण्डब्रह्मतेजोमूत्ति - श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीन - तोर्णोद्धारक - श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकल्प - वचनसिद्ध महापुरुष-सर्वतन्त्रस्वतन्त्र - प्रातःस्मरणीय-परमोपकारि-परमपूज्याचार्य - महाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद - कविरत्न-साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतन - संस्कृत - साहित्यसर्जक - परमशासनप्रभावक - बालब्रह्मचारि - परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर - धर्मप्रभावक - शास्त्रविशारद कविदिवाकर - व्याकरणरत्न - स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेकग्रन्थकारक - बालब्रह्मचारि परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्धपट्टधर-जैनधर्मदिवाकर - तोर्थप्रभावक - राजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक - शास्त्रविशारद - साहित्यरत्नकविभूषण - बालब्रह्मचारि - श्रीमद्विजयसुशीलसूरिणा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य पञ्चमोऽध्यायस्योपरि विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं तस्य सरल हिन्दीभाषायां 'विवेचनामृतमम्'।
AalhalALAnamadilandana
Aamdanimlamandalliamlilahabhashaalamaal
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5 मूलसूत्रम्
编
ॐ ह्रीँ अहं नमः ॐ
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के पञ्चमाध्याय का * हिन्दी पद्यानुवाद
मूलसूत्रकार- पूर्वधर महर्षि पूज्य वाचकप्रवर श्रीउमास्वाति जी महाराज फ पञ्चमोऽध्यायः
जीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ।। ५- १ ।। द्रव्याणि जीवाश्च ।। ५-२ ।। नित्याऽवस्थितान्यरूपाणि च ।। ५-३ ।।
* हिन्दी पद्यानुवाद
रूपिणः पुद्गलाः ।। ५-४ ।।
श्राssकाशादेकद्रव्याणि ।। ५-५ ।। निष्क्रियाणि च ॥ ५-६ ।।
प्रजीवकायिक चार वस्तु धर्म से धर्म फिर आकाश पुद्गल चार मानो सूत्र का यह अर्थ फिर ॥ ये चार वस्तु अस्तिकाय जानिये नाम पूरे अर्थ में है सुज्ञ !
अध्याय में ।
जानो सूत्र में ।। १ ॥
जीव अस्तिकाय जोड़ो द्रव्य पंच ही धारिये । नित्य के साथ भाव से ही सारे अरूपी मानिये ॥
द्रव्य पुद्गल मात्र रूपी सूत्र का सारांश है । प्रथम के ये तीन द्रव्य एक प्रक्रिय अंश है ।। २ ।।
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हिन्दी पद्यानुवाद ]
पञ्चमोऽध्यायः
ॐ मूलसूत्रम्
असंख्येयाः प्रदेशाः धर्माधर्मयोः ॥ ५-७ ॥ जीवस्य ॥ ५-८ ॥ आकाशस्यानन्ताः ॥ ५-६ ॥ संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ ५-१० ॥
नारणोः ॥ ५-११ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
धर्म अधर्म जीवद्रव्य प्रदेश से असंख्य है। आकाश लोकालोकव्यापी प्रदेश से अनन्त है ।। पुद्गलों के भेद ये संख्य - असंख्य - अनन्त है ।
परमाणु तो है अप्रदेशी सूत्र से अभिव्यक्त है ॥ ३ ॥ 卐 मूलसूत्रम्
लोकाकाशेऽवगाहः ॥ ५-१२ ॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ ५-१३ ॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥ ५-१४ ॥ असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ ५-१५ ॥ प्रदेशसंहार-विसर्गाभ्यां-प्रदीपवत् ॥ ५-१६ ॥
गति-स्थित्युपग्रहौ धर्माऽधर्मयोरुपकारः ॥ ५-१७ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
द्रव्य सारे हैं ऽवगाहित व्याप्त लोकाकाश में । पर धर्म एवं अधर्म द्रव्य पूर्ण लोकाकाश में । एक आदि प्रदेश में है पुद्गल प्रवगाहना । असंख्येय भागों में रही है जीव की प्रवगाहना ।। ४ ॥ प्रदेश का संकोच होता दीप सम विस्तार से । देहव्यापी जीव देशित यही निर्णय तत्त्व से ।। जीवादि के संचार में ही गतिसहायक धर्म है । और स्थिरता में सहायक द्रव्य वह अधर्म है ॥ ५ ॥
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२]
25 मूलसूत्रम् -
श्राकाशस्यावगाहः ।। ५- १८ ।।
शरीर - वाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ ५-१६ ॥ सुख-दुःख- जीवित-मरणोपग्रहाश्च ।। ५-२० ।। परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।। ५-२१ ।।
* हिन्दी पद्यानुवाद
5 मूलसूत्रम्
प्रकाश ही अवकाश देता तन वचन मन श्वास को । सुख दुःख जीवित मरण उपकार पुद्गल वास को || उपकार एक से एक सह है जीवद्रव्य की भावना । छोड़ो हित हित साध लो सुशील की सद्भावना ।। ६ ।।
श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे
वन्तश्च ।। ५-२४ ॥
वर्तना परिणामः क्रिया-परत्वापरत्वे च कालस्य ।। ५-२२ ।
स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ।। ५-२३ ॥
शब्द - बन्ध सौक्ष्म्य स्थौल्य संस्थान भेद तमश्छायाऽऽतपोद्योत
-
* हिन्दी पद्यानुवाद
-
प्रणवः स्कन्धाश्च ।। ५-२५ ॥
-
[ हिन्दी पद्यानुवाद
-
वर्तना परिणाम क्रिया परत्व अरु अपरत्व से । काल के ये पाँच कर्म कहे भेद प्रभेद से ।।
काल की व्याख्या करे जब सूत्र का सारांश है । सूत्र बाईस पूर्ण हो तब पुद्गलों का अर्थ है ।। ७ ।।
स्पर्श रस गन्ध वर्णी पुद्गलों को जानिये । नः शब्द बन्ध सूक्ष्म स्थौल्य संस्थान भेद मानिये || अन्धकार छाया श्रातप श्रौर जाणो उद्योत से । अणु तथा फिर स्कन्ध भावित कहे भेद ये श्रुत से ।। ८ ।।
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हिन्दी पद्यानुवाद ]
पञ्चमोऽध्यायः
[ ६३
ॐ मूलसूत्रम्
संघातमेदेभ्य उत्पद्यते ॥ ५-२६ ॥ भेदावणुः ॥ ५-२७ ॥
भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ॥ ५-२८ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
संघात एवं भेद से फिर संघात-भेद मानिए । फिर भेद से अणु उद्भव गुह्यार्थ को पहचानिए ।। भेद और संघात से स्कन्ध उत्पन्न जानिए ।
नेत्र से ये दृष्ट निर्मल शास्त्र मर्म विचारिए ॥ ६ ॥ ॐ मूलसूत्रम्
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ५-२६ ॥ तभावाव्ययं नित्यम् ॥ ५-३० ॥
अर्पिताऽनपितसिद्धः ॥ ५-३१ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
उत्पाद व्यय अरु ध्रौव्यता हो उसे 'सत्' मानिए । स्वरूप को अक्षुण्ण रखे नित्य उसको जानिए । है सिद्ध अर्पित धर्म से एवं अनर्पित धर्म से ।
विश्व में नहीं शुद्ध कोई बिन स्याद्वादी मर्म से ॥ १० ॥ 卐 मूलसूत्रम्
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ॥ ५.३२ ॥ न जघन्यगुणानाम् ॥ ५-३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ५-३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ५-३५ ॥ बन्धे समाधिको पारिणामिको ॥ ५-३६ ॥ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ५-३७ ॥ कालश्चेत्येके ॥ ५-३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ५-३६ ॥
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६४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ हिन्दी पद्यानुवाद * हिन्दी पद्यानुवाद
स्निग्धत्व एवं रूक्षता का बन्ध पुद्गल का यही । . जघन्य गुण से उन उभय का बन्ध होता है नहीं ॥ स्निग्ध के संग स्निग्ध मिलता रूक्ष के संग रूक्षता । लेते न पुद्गल बन्ध है सूत्रार्थ की यह स्पष्टता ।। ११ ॥ दो अधिक गुण अंश बढ़ते बन्ध पुद्गल प्राप्यता । सम अधिक परिणाम पाते अंश न्यून अधिकता ।। गुण तथा पर्यायवाला द्रव्य जिनमत सर्वदा ।
काल कोई द्रव्य कहता आदि से ही सर्वथा ।। १२ ।। 卐 मूलसूत्रम्
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।। ५-४० ॥ तद्भावः परिणामः ॥ ५-४१ ॥ अनादिरादिमांश्च ॥ ५-४२ ॥ रूपिष्वादिमान् ॥ ५-४३ ॥
योगोपयोगी जीवेषु ॥ ५-४४ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
द्रव्य का प्राश्रय करे जो निर्गणी नामीकरण । .. गुण यही षड्द्रव्य का भाववर्ती परिणमन ।। प्रादि प्रनादि रूप दो परिणाम की है कामना । रूपी अरूपी वस्तुओं की प्रादि अनादि भावना ।। १३ ।। जीव के ये योगवर्ती उपयोग में है सहचरी । फिर वही ये परिणाम प्रादि शास्त्र के भी अनुसरी ॥ अध्याय पंचम के चवालीस सूत्र को एकाग्र से । जो अर्थ करते हैं सदा सब सिद्धता को वेल से । १४ ।। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र को सानुवाद विवेचना । अध्याय पंचम पूर्ण कर की द्रव्यभेद विबोधना ॥ पद्य हिन्दी में रचे हैं सरल भावों में भरे ।
स्वाध्याय करता जो सुशील भव महासागर तरे ॥ १५ ॥ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के पंचमाध्याय का हिन्दी पद्यानुवाद समाप्त ॥
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परिशिष्ट - १
imam
* श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य जैनागमप्रमाणरूपश्राधारस्थानानि * ॐ पञ्चमोऽध्यायः फ्र
5 मूलसूत्रम्
॥ नमो नमः श्रीजिनागमाय ॥
जीवकाया धर्माधर्माऽऽकाश पुद्गलाः ।। ५-१ ॥
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
चत्तारि श्रत्थिकाया प्रजीवकाया पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, श्रधम्मत्थिकाए, श्रागासत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए ।
द्रव्याणि जीवाश्च ।। ५-२ ॥
woman
मूलसूत्रम्
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ७, उद्देश - १०, सूत्र - ३०५ । श्रीस्थानाङ्ग स्थान ४, उद्देश - १, सूत्र - २५१]
* तस्याधारस्थानम् -
कइविहाणं भंते ? दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता । " जीवदव्वा य जीवदव्वा य"
नित्यावस्थितान्यरूपाणि च ।। ५-३ ।। रूपिणः पुद्गलाः ।। ५-४ ।।
तं जहा
[ श्री अनुयोगद्वार सूत्र - १४१]
* तस्याधारस्थानम् -
पंचfत्थकाए न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ भुवि च भव भविस्स प्रधुवे नियए सासए प्रक्खए श्रव्वए श्रवट्टिए, निच्चे प्ररुवी ।
[श्रीनंदिसूत्र० सूत्र - ५८ ]
पोग्गलत्थिकायं रूविकायं ।
[ श्रीस्थानाङ्गसूत्र स्थान -५, उद्देश-३, सूत्र -१ । श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-७, उद्देश - १०]
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६]
मूलसूत्रम्
श्राssकाशादेकद्रव्याणि ।। ५-५ ।।
निष्क्रियाणि च ।। ५-६ ।।
* तस्याधारस्थानम्
धम्मो श्रधम्मो श्रागासं, दव्वं इक्किक्कमाहियं । प्रताणि यदव्वाणि, कालो पुग्गलजंतवो ॥
प्रवट्टिए निच्चे ।
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
मूलसूत्रम्
श्रसंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ।। ५-७ ॥
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
चतारि पएसग्गेणं तुल्ला श्रसंखेज्जा पण्णत्ता । तं जहा - धम्मत्थिकाए, धम्मfत्थकाए, लोगागासे, एगजीवे ।
[ स्थानाङ्ग स्थान- ४, उद्देश - ३, सूत्र - ३३४]
श्राकाशस्याऽनन्ताः ।। ५-६ ।।
* तस्याधारस्थानम्
गासत्थिकाए पसट्टयाए प्रणंतगुणे ।
मूलसूत्रम् -
संख्येया संख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।। ५-१० ।। नाणोः ।। ५- ११ ॥
* तस्याधारस्थानम्
[ परिशिष्ट-१
[ श्री उत्तराध्ययन अध्य. २८, गाथा-८ ]
[ नन्दि. द्वादशाङ्गी अधिकार, सूत्र- ५८ ]
[ प्रज्ञापना पद - ३, सूत्र - १४]
रूवी जीवदव्वाणं भंते ! कहविहा पण्णत्ता ?
गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - "खंधा, खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला, .... श्रणंता परमाणुपग्गला, श्रणंता दुप्पएसिया खंधा जाव प्रणंता दसपएसिया खंधा, प्रांता संखिज्जपएसिया खंधा, श्रणंता प्रसंखिज्जपएसिया खंधा, प्रांता प्रांत एसिया खंधा ।
[ प्रज्ञापना व पद ]
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परिशिष्ट-१ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ ६६ * तस्याधारस्थानम्
धम्मत्थिकाए णं जीवाणं प्रागमणगमणभासुम्मेसमणजोगा वइजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चलाभावा सव्वे ते धम्मत्थिकाए पवत्तंति। गइ लक्खणे णं धम्मत्थिकाए।
- अहम्मत्थिकाए णं जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! अहम्मत्थिकाएणं जीवाणं ठाणनिसीयण तुय?णमणस्स य एगत्तीभावकरणता जे यावन्न तहप्पगारा थिरा भावा सव्वे ते अहम्मत्थिकाए पवत्तंति । ठाणलक्खणे णं अहम्मस्थिकाए ।
__ अागासत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं अजीवाणय किं पवत्तति ? गोयमा ! आगासत्थिकाएणं जीवदव्वाण य अजीवदव्वाण य भायणभूए एगेण विसे पुन्ने दोहिवि पुन्ने सयंपि माएज्जा। कोडिसएणविपुन्ने कोडिसहस्सं वि माएज्जा ॥१॥
अवगाहणालक्खणेणं प्रागासत्थिकाए जीवत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ? गोयमा ! जीवत्थिकाएणं जीवे अणंताणं प्राभिणिबोहियनाणपज्जवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं, एवं जहा वितियसए अत्थिकायउद्देसए जाव उवयोगं गच्छति, उवयोगलक्खणे णं जीवे ।
[व्या. प्र. शतक १३, उ. ४, सूत्र-४८१] जीवेणं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं एवं सुयनारणपज्जवाणं प्रोहिनाणपज्जवारणं मरणपज्जवनाणपज्जवाणं केवलनारणपज्जवाणं मइअन्नाणपज्जवाणं सुयप्रन्नारणपज्जवाणं विभंगणाणपज्जवाणं चक्खुदंसणपज्जवाणं अचक्खुदंसणपज्जवाणं प्रोहिदसणपज्जवाणं केवलदंसरणपज्जवाणं उपयोगं गच्छइ० ।
[व्या. प्र. शतक १३, उ. ४, सूत्र-४८१] 卐 मूलसूत्रम्
वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ॥ ५-२२ ॥ * तस्याधारस्थानम्वर्तनालक्खणो कालो० ।
[उत्तराध्ययन अध्ययन-२८, गाथा-१०]
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१०० ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-१
+ मूलसूत्रम्
स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥५-२३ ॥ * तस्याधारस्थानम्पोग्गले पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे पण्णत्ते ।।
[व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १२, उ. ५, सूत्र-४५०] न मूलसूत्रम्
शब्द-बंध-सौम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥५-२४ ॥ * तस्याधारस्थानम्
सद्वन्धयार-उज्जोरो पभा छाया तवो इवा । वण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥ १२ ॥ एगत्तं च पुहुत्तं च संखा संठाणमेव च । संजोगा य विभागा य पज्जवाणं तु लक्खणं ॥ १३ ॥
[श्री उत्तराध्ययन अध्ययन-२८]
' मूलसूत्रम्
प्रणवः स्कन्धाश्च ॥ ५-२५ ॥
* तस्याधारस्थानम्दुविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा-परमाणुपोग्गला, नोपरमाणुपोग्गला चेव ।
[स्था. स्थान २, उ. २, सूत्र-८२] 卐 मूलसूत्रम्
संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ ५-२६ ॥
भेदादणुः ॥५-२७ ॥ * तस्याधारस्थानम्
दोहि ठाणेहि पोग्गला साहणंति, तं जहा-सई वा पोग्गला साहणंति परेण वा पोग्गला साहणंति । सई वा पोग्गला भिज्जंति परेण वा पोग्गला भिज्जंति ।
[स्था. स्थान २, उ. ३, सूत्र-८२]
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परिशिष्ट-१ ]
पञ्चमोऽध्यायः
एगत्तेण पुहत्तेण खंधाय परमाणु य ।
[श्री उत्तराध्ययन अध्ययन ३६, गाथा-११] 卐 मूलसूत्रम्
भेदसङ्घाताभ्यां चाक्षुषाः ॥५-२८ ॥ * तस्याधारस्थानम्चक्खुदसणं चक्खुदंसरिणस्स घड पड कड रहाइएसु सव्वेसु ।
[अनुयोग. दर्शन गुणप्रमाण सूत्र-१४४] 卐 मूलसूत्रम्
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ५-२६ ॥ * तस्याधारस्थानम्माउयाणुप्रोगे (उपन्ने वा विगए वा धुवे वा)।
[स्थानाङ्ग स्थान-१०] 卐 मूलसूत्रम्
तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ५-३० ॥ * तस्याधारस्थानम्. परमाणुपोग्गलेणं भंते ! कि सासए प्रसासए ? गोयमा ! दवट्टयाए सासए वन्नपज्जवेहिं जाव फास-पज्जवेहि प्रसासए ।
[व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक १४, उ. ४, सूत्र-५१२]
[जीवा. प्र. ३, उ. १, सूत्र-७७] जीवाणं भंते ! कि सासया प्रसासया ? गोयमा ! जीवा सियसासया सियप्रसासया से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-जीवा सियसासया सियप्रसासया ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासया भावट्ठयाए असासया से तेरण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ सियसासया, सियप्रसासया। नेरइयाणं भंते ! कि सासया असासया ? एवं जहा जीवा तहा नेरइयावि एवं जाव वेमाणिया जाव सियसासया सियप्रसासया । सेवं भंते ! सेवं भंते !
[व्या. श. ७, उ. २, सूत्र-२७४]
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१०२ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-१
卐 मूलसूत्रम्
अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः ।। ५-३१ ॥ * तस्याधारस्थानम्
अप्पितणप्पिते ।
[स्था. स्थान १०, सूत्र-७२७]
卐 मूलसूत्रम्
स्निग्धरूक्षत्वाबन्धः ॥५-३२॥ न जघन्यगुणानाम् ॥ ५-३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ५-३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ५-३५॥
बन्धे समाधिको पारिणामिको ॥ ५-३६ ॥ * तस्याधारस्थानम्
बंधणपरिणामेणं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिद्धबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे लुक्खबंधणपरिणामे य- ..
समणिद्धयाए बंधो न होति, समलुक्खयाएवि ण होति । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥ णिद्धस्स णिद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहएणवज्जो विसमो समो वा ॥२॥
[प्रज्ञा. परि. पद १३, सूत्र-१८५] 卐 मूलसूत्रम्
गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ५-३७ ॥ * तस्याधारस्थानम्
गुणाणमासमो दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा। लक्खणं पज्जवाणं तु, उभनो अस्सिया भवे ॥
[श्रीउत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८, गाथा-६]
Page #137
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परिशिष्ट-१ ]
पञ्चमोऽध्यायः
卐 मूलसूत्रम्
कालश्चेत्येके ॥ ५-३८ ॥ * तस्याधारस्थानम्
छविहे दव्वे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, पागासस्थिकाए, जीवत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, श्रद्धासमये अ, सेतं दवणामे ।
[श्री अनुयोग. द्रव्यगुण. सू. १२४] मूलसूत्रम्
सोऽनन्तसमयः ॥५-३६ ॥ * तस्याधारस्थानम्प्रणेता समया।
[व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक २५, उ. ५, सूत्र-७४७] ॐ मूलसूत्रम्
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ५-४० ॥ * तस्याधारस्थानम्दव्वस्सिया गुणा।
[श्री उत्तराध्ययन, अध्ययन-२८, गाथा-६]
卐 मूलसूत्रम्
तद्भावः परिणामः ॥ ५-४१ ॥ * तस्याधारस्थानम्दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तं जहा-जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य ।
[श्रीप्रज्ञापना परिणाम पद १३, सूत्र-१८१] ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य पञ्चमाऽध्याये संगृहीते श्रीजैनागमप्रमाण
रूपाधारस्थानानि समाप्तम् ॥
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परिशिष्ट-२
पञ्चमाध्यायस्य ।। है * सूत्रानुक्रमणिका *
पृष्ठ संख्या
सूत्राङ्क सूत्र १. अजीवकाया धर्माधर्माऽऽकाशपुद्गलाः ।। ५-१ ॥ २. द्रव्याणि जीवाश्च ॥ ५-२ ।। ३. नित्याऽवस्थितान्यरूपाणि च ।। ५-३ ॥ ४. रूपिणः पुद्गलाः ।। ५-४ ।। ५. प्राऽऽकाशादेकद्रव्याणि ॥ ५-५ ।। ६. निष्क्रियाणि च ।। ५-६ ॥ ७. असंख्येयाः प्रदेशा धर्माऽधर्मयोः ।। ५-७ ।। ८. जीवस्य च ।। ५-८ ॥
प्राकाशस्यानन्ताः ।। ५-६ ।। १०. संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ।। ५-१० ।।
नाणोः ।। ५-११॥ १२. लोकाकाशेऽवगाहः ।। ५-१२ ॥ १३. धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । ५-१३ ।। १४. एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ।। ५-१४ ।। १५. असंख्येयभागादिषु जीवानाम् ।। ५-१५ ।। १६. प्रदेशसंहार-विसर्गाभ्यां ।। ५-१६ ।। १७. गति-स्थित्युपग्रही धर्माऽधर्मयोरुपकारः ।। ५-१७ ।। १८. आकाशस्यावगाहः ।। ५-१८ ।। १६. शरीर-वाङ्-मनः-प्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। ५-१६ ॥ २०. सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च ।। ५-२० ।।
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सूत्र
mr
mr
२६.
२८. २६.
Xxxx
परिशिष्ट-२ ] पञ्चमोऽध्यायः
[ १०५ सूत्राङ्क
पृष्ठ संख्या २१. परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।। ५-२१ ।। २२. वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य ।। ५-२२ ॥ २३. स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ।। ५-२३ ।। २४. शब्द-बन्ध-सौम्य-स्थौल्य-संस्थान-भेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ।। ५-२४ ॥
३८ २५. प्रणवः स्कन्धाश्च ।। ५-२५ ।।
संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ ५-२६ ॥ २७. . भेदादणुः ॥ ५-२७ ॥
भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ॥ ५-२८ ।।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् ।। ५-२६ ।। ३०. तद्भावाव्ययं नित्यम् ।। ५-३० ॥ ३१. अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः ।। ५-३१ ।।
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः ।। ५-३२ ॥ ३३. न जघन्यगुणानाम् ॥ ५-३३ ।।
गुणसाम्ये सदृशानाम् ।। ५-३४ ।। ३५. द्वयधिकादिगुणानां तु ।। ५-३५ ॥
बन्धे समाधिको पारिणामिको ।। ५-३६ ।। गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ।। ५-३७ ।।
कालश्चेत्येके ।। ५-३८ ।। ३६. सोऽनन्तसमयः ।। ५-३६ ।। ४०. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ।। ५-४० ।। ४१. तद्भावः परिणामः ।। ५-४१ ॥ ४२. अनादिरादिमांश्च ।। ५-४२ ।। ४३. रूपिष्वादिमान् ।। ५-४३ ।। ४४. योगोपयोगी जीवेषु ।। ५-४४ ॥
॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य पञ्चमाध्याये सूत्रानुक्रमणिका समाप्ता ॥
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परिशिष्ट-३
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पञ्चमाध्यायस्य अकारादिसूत्रानुक्रमणिका ७१..
पृष्ठ सं.
सूत्राङ्क
५-१ ५-२५ ५-४२ ५-३१
५८
५-१५
२०
५-७
५-६
१२
५-१८
सूत्र १. अजीवकाया धर्माधर्माकाश पुद्गलाः।
प्रणवः स्कन्धाश्च । ३. अनादिरादिमांश्च । ४. अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः।
असंख्येयभागादिषु जीवानाम् । ६. असंख्येयाःप्रदेशा धर्माऽधर्मयोः । ७. आकाशस्यानन्ताः। ८. आकाशस्यावगाहः । ६. प्राऽऽकाशादेकद्रव्याणि । १०. उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् । ११. एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् । १२. कालश्चेत्येके। १३. गति-स्थित्युपग्रही धर्माऽधर्मयोरुपकारः । १४. गुणपर्यायवद् द्रव्यम् । १५. गुणसाम्ये सदृशानाम् । १६. जीवस्य च । १७. तद्भावः परिणामः । १८. तद्भावाव्ययं नित्यम् । १६. द्वयधिकादिगुणानां तु । २०. द्रव्याणि जीवाश्च ।
५-२६
५
५-१४
१८
५-३८
७६ २३
५-१७
५-३७
७२
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५-८
५-४१ ५-३०
६
५-३५
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पूर्वधर-परमर्षि-श्रीउमास्वातिवाचकपप्रवरेण
विरचितम्
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श्री उमास्वातिंजीयन
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्
६) (षष्ठोध्यायः)
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की महत्ता है। धमलामि
जैनागमरहस्यवेत्ता पूर्वधर वाचकप्रवर श्री उमास्वाति महाराज ने अपने संयमजीवन के काल में पंचशत (५००) ग्रन्थों की अनुपम रचना की है। वर्तमान काल में इन पंचशत (५००) ग्रन्थों में से श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, प्रशमरतिप्रकरण, जम्बूद्वीपसमासप्रकरण, क्षेत्रसमास, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा पूजाप्रकरण इतने ही ग्रन्थ उपलब्ध
हैं।
पूर्वधर - वाचकप्रवरश्री की अनमोल ग्रन्थराशिरूप विशाल आकाशमण्डल में चन्द्रमा की भाँति सुशोभित ऐसा सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है। इसकी महत्ता इसके नाम से ही सुप्रसिद्ध है।
पूर्वधर-वाचकप्रवरश्रीउमास्वाति महाराज जैन आगम सिद्धान्तों के प्रखर विद्वान् और प्रकाण्ड ज्ञाता थे। इन्होंने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर के जीवजीवादि तत्त्वों को लोकप्रिय बनाने के लिए अतिगहन और गम्भीर दृष्टि से नवनीत रूप में इसकी अति सुन्दर रचना की है। यह श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्र संस्कृत भाषा का सूत्ररूप से रचित सबसे पहला अत्युत्तम, सर्वश्रेष्ठ महान् ग्रन्थरत्न है।
यह ग्रन्थ ज्ञानी पुरुषों को, साधु-महात्माओं को, विद्वद्वर्ग को और मुमुक्षु जीवों को निर्मल आत्मप्रकाश के लिए दर्पण के सदृश देदीप्यमान है और अहर्निश स्वाध्याय करने लायक तथा मनन करने योग्य है। पूर्व के महापुरुषों ने इस तत्त्वार्थसूत्र को अर्हत् प्रवचनसंग्रह रूप में भी जाना है।
पुरोवचन है छठे अध्याय के कुल सूत्रों की संख्या २६ है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मोक्षमार्ग-रत्नत्रय के विषयभूत सात तत्त्व गिनाये थे। जीव और अजीव तत्त्व का वर्णन पिछले अध्यायों में हो चुका है। इस अध्याय में तीसरे आस्रव तत्त्व का वर्णन है। इसमें आस्रव का लक्षण, भेद तथा आठों कर्मों के आस्रव हेतु कारणों का विशद वर्णन है।
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॥ अहम् ॥
ॐ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥
आस्रव-तत्त्वम् nonammomonymommmmon
षष्ठोऽध्यायः
पूर्व पञ्चमाध्यायपर्यन्तं जीवादिकं तत्त्वं दर्शितम् । अत्र षष्ठाध्याये प्रास्रवतत्त्वस्य निरूपणं कृते सूत्रारम्भः क्रियते ।
* योगस्वरूपम् * ॐ सूत्रम्
काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः ॥ ६-१॥
* सुबोधिका टीका * कायिकं वाचिकं वा मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । सस्तु एकशो द्विविधः। शुभश्चाशुभश्च । तत्राऽशुभो हिंसास्तेयाब्रह्मादीनि कायिकः । सावद्यानृतपरुषपिशुनादीनि वाचिकः । अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः ततो विपरीतः शुभ इति । यथा च पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं स्तुतिः परमेष्ठीनिरूपिततत्त्वचिन्तनमादि ।। ६-१ ॥
* सूत्रार्थ-काया (शरीर), वचन और मन की क्रिया को 'योग' कहते
5 विवेचनामृत जीवादि सात तत्त्वों में से जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व का विविध वर्णन पूर्व के सूत्रों में पा गया है। इसलिए अब तीसरे प्रास्रव तत्त्व का निरूपण इस सूत्र से करते हैं। प्रास्रव का मुख्य कारण 'योग' है। अत: पहले योग का स्वरूप नीचे प्रमाणे कहते हैं
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१
योग शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । यहाँ पर योग शब्द श्रात्मवीर्य के अर्थ में है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादिक से और पुद्गल के आलम्बन से प्रवर्तमान आत्मवीर्य - प्रात्मशक्ति । अर्थात् - वीर्यान्तराय के क्षयोपशम या क्षय से अथवा पुद्गलों के श्रालम्बन से श्रात्मप्रदेशों का परिस्पन्द अर्थात् रचना विशेष 'योग' कहलाता है ।
२
संसारी प्रत्येक जीव आत्मा को वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादिक से प्रगटी हुई आत्मशक्ति का उपयोग करने के लिए पुद्गल के श्रालम्बन की अवश्य जरूरत पड़ती है । जैसे- नदी आदि में रहे हुए जल-पानी का नहर आदि से उपयोग होता है, वैसे प्रत्येक संसारी जीव आत्मा में रही हुई शक्ति का उपयोग मन, वचन और काया के आलम्बन से होता है । अर्थात् - आलम्बन भेद से उसके मुख्य तीन भेद होते हैं । (१) काययोग, (२) वचनयोग, और ( ३ ) मनोयोग | जीवआत्मा में रही हुई शक्ति एक ही होते हुए भी उसका उपयोग करने में मन, वचन और काया ये तीन साधन होने से उसके तीन भेद हैं ।
(१) प्रदारिक आदि वर्गरणा योग्य पुद्गलों के आलम्बन से प्रवर्तमान होने वाले योगों को काययोग कहते हैं । अर्थात् -- काया के आलम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग काययोग है ।
(२) मतिज्ञानावरण तथा अक्षरश्रुतावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से आन्तरिक (भाव) वाग्लब्ध उत्पन्न होते ही वचनवर्गरणा के श्रालम्बन से भाषा परिणाम की ओर अभिमुख आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन यानी प्रकम्प होता है, उसे वचनयोग कहते हैं । अर्थात् - वचन के प्रालम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग वचनयोग है ।
(३) नोइन्द्रियजन्य मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम रूप प्रान्तरिक लब्धि प्राप्त होते ही मनोवर्गरणा के आलम्बन से मनपरिणाम की ओर आत्मा का जो प्रदेश प्रकम्प होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । अर्थात् - मन के आलम्बन से होने वाला शक्ति का उपयोग मनोयोग है ।
उक्त तीन प्रकार के योगों के कुल पन्द्रह (१५) भेद हैं । उनमें काययोग के सात, वचनयोग के चार तथा मनोयोग के चार भेद हैं ।
(३) वैक्रिय,
* काययोग के भेद - (१) श्रदारिक,
(२) दारिकमिश्र,
(४) वैक्रियमिश्र, (५) आहारक, (६) आहारकमिश्र और ( ७ ) कार्मण काययोग ।
दारिकाया द्वारा होने वाला शक्ति का जो उपयोग, वह 'श्रदारिक काययोग' है । इस तरह प्रदारिकमिश्र आदि में भी जानना । काया के औदारिक आदि सात भेद हैं, इसलिए काययोग के भी सात भेद समझना ।
दारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मरण इन चारों का अर्थ इस श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के दूसरे अध्याय के ३७ वें सूत्र में कहा गया है ।
यद्यपि वहाँ पर पाँचों शरीरों का वर्णन है, तो भी यहाँ तैजसशरीर सदा कार्मणशरीर के साथ ही रहने वाला होने से कार्मरणकाय में तैजसशरीर का समावेश करने में आया है । इसलिए काययोग के भेद सात ही होते हैं ।
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षष्ठोऽध्यायः
दारिक मिश्र आदि तीन मिश्र योगों का अर्थ नीचे प्रमाणे है -
श्रदारिक मिश्र - परभव में उत्पन्न होने के साथ ही जीव- श्रात्मा श्रदारिक देह शरीर की रचना प्रारम्भ कर देता है । जब तक वह देह शरीर पूर्ण रूप से तैयार नहीं होता है तब तक काया की प्रवृत्ति केवल प्रदारिक से नहीं होती । इसलिए उसको कार्मरण काययोग की भी मदद - सहायता लेनी पड़ती है। यानी जब तक प्रौदारिक देह शरीरपूर्ण न हो तब तक प्रौदारिक और कारण इन दोनों का मिश्रयोग होता है । उसमें प्रौदारिक देह शरीर की मुख्यता होने से इस मिश्रयोग को 'दारिक मिश्रयोग' कहने में आता है । प्रौदारिक देह शरीर की पूर्णता हो जाने के बाद केवल औदारिक काययोग होता है । इसी तरह वैक्रियमिश्र तथा श्राहारकमिश्र दोनों में भी जानना । मात्र अल्प भिन्नता यह है कि - जबसे वैक्रिय शरीर अथवा श्राहारक शरीर रचने की शुरुप्रात हुई तब से प्रारम्भ कर जहाँ तक वैक्रिय अथवा प्रहारक शरीर पूर्ण न हो जाय वहां तक वैक्रियमिश्र अथवा श्राहारक मिश्रयोग होता है ।
६।१]
वैक्रियमिश्रयोग देवों के उपरान्त लब्धिधारी मुनि आदि के भी होते हैं । उसमें देवों के वैयमिश्रयोग में वैक्रिय और कार्मण ये दोनों मिश्रयोग होते हैं । तथा लब्धिधारी मुनि आदि के वैक्रिय और श्रदारिक ये दोनों मिश्रयोग होते हैं। दोनों में वैक्रिय की मुख्यता होने से मिश्रयोग कहने में आता है । आहारकमिश्र में आहारक और प्रौदारिक ये दोनों मिश्रयोग होते हैं । तथा प्रहारक की प्रधानता होने से आहारकमिश्र कहलाता है ।
( २ ) असत्य, (३) मिश्र, और ( ४ ) असत्यामृषा ।
* वचनयोग के भेद - ( १ ) सत्य,
[ ३
ये चार वचनयोग के भेद हैं । उसमें —
* सत्य वचन बोलना, वह 'सत्य' है । जैसे - पाप का त्याग करना चाहिए इत्यादि । * असत्य वचन बोलना, वह 'असत्य' है । जैसे- पाप जैसा विश्व में है ही नहीं ।
* अल्प सत्य और अल्प असत्य वचन बोलना, वह पुरुष दोनों जाते हों तब पुरुष जाते हैं, ऐसा कहना ( इत्यादि) । है, किन्तु उनमें स्त्रियाँ भी होने से यह वचन असत्य भी है । सत्यमृषा है ।
'मिश्र' है । जैसे—जब स्त्री और
यहाँ पुरुष जाते हैं, यह अंश सत्य इसलिए यह वचन मिश्र यानी
* सत्य ( सच्चा ) भी नहीं और असत्य ( झूठा ) भी नहीं, ऐसा जो वचन बोलना, वह । जैसे - गाँव जा, इत्यादि । असत्यामृषा वचन
वही है ।
उक्त ये चार जैसे वचनयोग के भेद हैं, वैसे ही ये चार मनोयोग के भी भेद हैं । अर्थ भी मात्र कहने के बोलने के स्थान में विचार करना, ऐसा ही समझना है ।। ६-१ ।। अत्रास्रवतत्त्वव्याख्यानाय प्रकरणमारम्भितं किन्तु तमनुक्त्वा योगमेवाह, अतः प्रास्रवनिरूपणार्थं सूत्रम् –
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[
६।२
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * प्रास्रव-निरूपणम् *
卐 मूलसूत्रम्
स प्रास्त्रवः ॥ ६-२॥
* सुबोधिका टीका * त्रिविधोऽपि योगः भवत्यास्रवसंज्ञः । कर्माणामागमद्वारं प्रास्रवश्च बन्धकारणमास्रवोऽपि । उपर्युक्तत्रियोगः कर्मणि आगच्छन्ति बन्धमपि प्राप्नुवन्ति प्रतएव योगा एवास्रवाः । शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवरणादास्रवः सरःसलिलावाहि - निर्वाहि स्रोतोवत् ।
प्रथममत्र सूत्रेण योगस्वरूपं व्याख्या तदा चान्येनसूत्रेण तं योगमास्रवाहुः किमिति ? नात्र शङ्का कार्या। सर्वे योगा नैवास्रवाः कायादिवर्गणालम्बनेन य योगः सेवास्रवः । अन्यथा केवलिसमुद्घातमपि प्रास्रवं स्यात् ।। ६-२ ।।
* सूत्रार्थ-उक्त काय, वाङ् और मन इन तीनों ही प्रकार का योग 'प्रास्त्रव' कहा जाता है ।। ६-२ ।।
ॐ विवेचनामृत उक्त तीनों योग 'मानव' कहलाते हैं। योगों को आस्रव कहने का कारण यह है कि, इनके द्वारा कर्म का बन्ध होता है। आस्रव यानी कर्मों का आगमन । जैसे—व्यवहार में प्राण का कारण बनने वाले अन्न को (उपचार से) प्राण कहने में आता है, वैसे यहाँ कर्मों के आगमन के कारण को भी प्रास्रव कहने में आता है। जिस तरह जलाशय में पानी का आगमन नाली या किसी स्रोत द्वारा होता है, इसी तरह कर्मों का आगमन योग नैमित्तिक होने से इनको आस्रव कहते हैं। जैसे बारी द्वारा घर में-मकान में कचरा पाता है, वैसे ही योग द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं, इसलिए योग भी आस्रव है। जैसे पवन-वायु से आती हुई रज्ज-धल जल से भीगे कपड़े में एकमेक रूप चिपक जाती है, वैसे ही पवन-वायु रूप योग द्वारा आती हुई कर्म रूपी रज कषाय रूपी जल से भीगी प्रात्मा के समस्त प्रदेशों में एकमेक चिपक जाती है।
योग से कर्म का आस्रव, कर्म के आस्रव से बन्ध, बन्ध से कर्म का उदय तथा कर्म के उदय से संसार। इसलिए आत्मा को संसार से मुक्ति प्राप्त करने की अभिलाषा-इच्छा हो तो आस्रव का त्याग अवश्य ही करना चाहिए।
जैसे-छिद्रों द्वारा नौका-होड़ी में जल का प्रवेश होते वह समुद्र में डब जाती है, वैसे योगरूपी छिद्रों के द्वारा जीव-आत्मा रूपी नौका-होड़ी में कर्मरूपी जल का प्रवेश होने से वह संसाररूप सागर में डब जाती है।
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६।३ ]
षष्ठोऽध्यायः इस आस्रव का द्रव्य और भाव की दृष्टि से विचार करने में आये तो मन, वचन और काया ये तीन योग द्रव्य प्रास्रव हैं। जीव-प्रात्मा के शुभ-अशुभ अध्यवसाय भाव आस्रव हैं। द्रव्य अप्रधान-गौण है, और भाव प्रधान मुख्य है।
इस आस्रव में मुख्य कारण जीव-आत्मा के शुभ अथवा अशुभ अध्यवसाय हैं। क्योंकि, योग की अस्तिता होते हुए शुभ अथवा अशुभ अध्यवसाय जो न होवें तो कर्म का आस्रव होता नहीं है। जैसे कि तेरहवें गुणस्थानक में वर्तमान श्री केवली भगवन्त को काय इत्यादि योग होते हुए केवल साता वेदनीय कर्म का ही आस्रव होता है तथा आगे के दो सूत्रों में आयेगा कि शुभ योग पुण्य का कारण है और अशुभ योग पाप का कारण है। योग की शुभता और अशुभता जीव-आत्मा के अध्यवसायों के आधार पर होती है। शुभ अध्यवसाय से योग शुभ बनता है तथा अशुभ अध्यवसाय से योग अशुभ बनता है। इसलिए इस आस्रव में योग गौण कारण है तथा जीव-आत्मा के अध्यवसाय मुख्य कारण हैं ।। ६२ ।।
* योगाना भेदस्तथा कार्यम् *
ॐ मूलसूत्रम्
शुभः पुण्यस्य ॥ ६-३ ॥
* सुबोधिका टोका * ज्ञानावरणादिषु अष्टसु कर्मसु पुण्य-पापो द्वौ भेदौ। जीवाभीष्टकर्मफलपुण्यम्, जीवानिष्टफलपापमिति । शुभो योगः पुण्यस्यास्रवो भवति । कर्महेतुत्वात् प्रास्रवस्यापि द्वौ भेदौ । हिंसादिपापरहितप्रवृत्तिः, सत्यवचनं च शुभमनोयोगेन पुण्यकर्मबन्धो भवति । सातावेदनीय-नरकातिरिक्तत्रिभरायु-उच्चगोत्रञ्च शुभनामकर्म मनुष्यगति-देवगति-पञ्चेन्द्रिय-जात्यादि सप्तत्रिंशत् एवं द्विचत्वारिंशत् पुण्यप्रकृतयः भवन्ति ।। ६-३ ॥
* सूत्रार्थ-शुभ योग पुण्य का प्रास्रव है। अर्थात् शुभ योग पुण्यबन्धक हेतु है ॥ ६-३ ॥
5 विवेचनामृतक उक्त मन, वचन और काय ये तीनों योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। योगों के शुभत्व का और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता पर निर्भर है। अर्थात् शुभ उद्देश्य की प्रवृत्ति शुभयोग है, तथा अशुभ उद्देश्य की प्रवृत्ति अशुभयोग है। किन्तु कर्मबन्ध की शुभाशुभता पर योग की शुभाशुभता अवलम्बित नहीं होती है। शुभयोग प्रवृत्तमान होते हुए भी अशुभज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध होता है। इसके लिए दूसरे और चौथे हिन्दी कर्मग्रन्थ में गुणस्थानक पर बन्ध विचारणीय है।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६३
प्रास्रव के भी पुण्य और पाप ऐसे दो भेद हैं। शुभ कर्मों का आस्रव पुण्य है, तथा अशुभ कर्मों का आस्रव पाप है। कौनसे कर्म पुण्य हैं ? और कौनसे कर्म पाप हैं ? यह वर्णन इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के आठवें अध्याय के अन्तिम सूत्र में पायेगा।
* अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, देव-गुरुभक्ति, दया, दान इत्यादि शुभ काययोग हैं । * सत्य और हितकर वाणी, देव-गुरु इत्यादिक की स्तुति, तथा गुण-गुणो की प्रशंसा
इत्यादि शुभ वचनयोग हैं। * अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, देव-गुरु की भक्ति, दया तथा दान इत्यादि के शुभ
विचार शुभ मनोयोग हैं।
प्रस्तुत सूत्र का यह विधान अपेक्षायुक्त समझना चाहिए। क्योंकि कषाय की मंदता के समय योग शभ हैं तथा उसकी तीव्रता में योग प्रशभ कहलाते हैं। जैसे-अशुभयोग के समय भी प्रथमादि गुणस्थानकों में ज्ञानावरणीयादि पाप तथा पुण्य प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता है । उसी तरह छठे इत्यादि गुणस्थानकों में शुभ योग के समय भी पुण्य और पाप दोनों प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध है।
प्रश्न-पुण्य बन्ध का शुभ योग और पाप बन्ध का अशुभ योग जो कारण कहा है, वह
असंगत है ? उत्तर-प्रस्तुत विधान में प्रधानता अनुभाग (रस) बंध की अपेक्षा समझनी चाहिए ।
शुभयोग की तीव्रता के समय पुण्य प्रकृति के अनुभाग की मात्रा अधिक होती है तथा पाप प्रकृति के अनुभाग की मात्रा न्यून-कम होती है। इसी तरह अशुभयोग की तीव्रता के समय पाप प्रकृति के अनुभाग की मात्रा अधिक होती है तथा पुण्य प्रकृति के अनुभाग की मात्रा कम-न्यून होती है। किन्तु दोनों पुण्य-पाप की प्रकृतियों का बन्ध प्रति समय होता ही रहता है। इसलिए सूत्रकार ने अधिकांश ग्रहण करके सूत्र का विधान किया है, किन्तु हीन मात्रा की विवक्षा नहीं की है। * विशेषप्रश्न-शुभ योग से निर्जरा भी होती है, तो यहां पर उसको केवल पुण्य के कारण तरीके
क्यों कहा है ? उत्तर-शुभ योग से पुण्य ही होता है, निर्जरा नहीं होती। कारण कि, निर्जरा तो शुभ आत्मपरिणाम से होती है। जितने अंश में शुभ आत्मपरिणाम होता है उतने अंश में निर्जरा होती है तथा जितने अंश में शुभयोग होता है उतने अंश में पुण्य का बन्ध होता है ।
* प्रश्न-शुभ योग के समय में ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों का भी प्रास्रव होता है।
घाती कर्म आत्मा के गुणों को रोकने वाले होने से अशुभ हैं। अतः शुभयोग से पुण्य का प्रास्रव होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है ?
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६।४ ]
[ ७
उत्तर - शुभयोग के समय में ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्मों का भी आस्रव होने पर उसमें रसप्रति अल्प होने से उसका फल नहींवत् मिलता है । वस्तु-पदार्थ होते हुए जो अल्प हो तो, 'नहीं है' ऐसा कह सकते हैं ।
षष्ठोऽध्यायः
जैसे कि - जिसके पास मात्र बीस पच्चीस रुपये हों तो वह भी निर्धन कहा जाता है, वैसे प्रस्तुत में भी शुभयोग के समय बँधने वाले ज्ञानावरणीय इत्यादि कर्मों में अल्प रस होने से वे निज कार्य करने के लिए समर्थ नहीं हो सकते । अतः यहाँ पर निषेध करना, यह अंश मात्र भी प्रयोग्य नहीं है । या यहाँ पर पुण्य और पाप का निर्देश श्रघाती कर्मों की अपेक्षा से है । अथवा पूर्वे जो कहा है कि "शुभ योग से ही पुण्य का प्रस्रव होता है ।" वैसे इस सूत्र का अर्थ करने से शुभयोग के समय में होने वाले ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों के प्रास्रव का निषेध नहीं होता ।
शुभयोग के समय में घाती कर्मों का बन्ध, पुण्य और निर्जरा ये तीनों होते हैं । किन्तु घाती कर्म में रस प्रतिमन्द, पुण्य में तीव्र रस और अधिक निर्जरा होती है ।। ६-३ ।।
* शुभयोगः पापकर्मणोः श्रात्रवस्य निर्देशः
5 मूलसूत्रम्
अशुभः पापस्य ॥ ६-४ ॥
* सुबोधिका टीका *
योगस्य शुभाशुभौ भेदौ स्वरूपभेदापेक्षया भवति । किन्तु स्वामिभेदापेक्षयाऽपि शेषं पापमिति । अशुभयोगः
तस्य भेदाः भवन्ति । तत्र सद्वद्यादि पुण्यं वक्ष्यते ।
पापस्यास्रवः ।। ६-४ ।।
* सूत्रार्थ - प्रशुभयोग पाप का श्रास्रव है ।। ६-४ ।।
विवेचनामृत
अशुभ योग पापबन्धक हेतु है । अर्थात् अशुभ योग पाप का प्रस्रव है। हिंसा, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह आदि की प्रवृत्ति अशुभ काययोग है । असत्य वचन, कठोर तथा अहितकर वचन, पैशून्य, तथा निन्दा इत्यादि अशुभ वचनयोग हैं ।
हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह इत्यादि के विचारों तथा राग, द्वेष, मोह, एवं शुभ मनायोग हैं ।। ६-४ ।।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६५
* प्रास्रवस्य द्वौ भेदौ *
卐 मूलसूत्रम्सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥ ६-५ ॥..
* सुबोधिका टीका * युगपत् कर्मणां बन्धः चतुर्विधः । प्रकृतिस्थितिरनुभागप्रदेशाः एतेषु प्रकृतिबंधप्रदेशबंधयोः कारणं योगः। स्थितिबंधानुभागबन्धहेतुकषायः । ये च सकषायाः तेषां योगोऽपि सकषायः । सैष त्रिविधोऽपि योगः सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोरास्रवो भवति । यथासङ्ख्यं यथासम्भवं च । सकषायस्य योगः साम्परायिकस्य प्रकषायस्य ईर्यापथस्यैवेकसमयस्थितेः ।
अत्र जघन्योत्कृष्टस्थितिरुच्यते । कर्ममिथ्यादगादीनां प्रार्द्रचर्मणि रेणुवत् । कषायपिच्छिले जीवे स्थितिमायुवदुच्यते। किन्तु ये चाकषायाः तेषां योगोऽपि कषायरहितो भवति । अतएव स्थितिबन्धस्य हेतुरभावः ॥ ६-५ ।।
* सूत्रार्थ-सकषाय जीव-प्रात्मा के साम्परायिक प्रास्रव कहा जाता है, तथा अकषाय जीव-आत्मा के ईर्यापथ प्रास्रव कहा जाता है ॥ ६-५ ।।
विवेचनामृत कषायसहित और कषायरहित जीव-आत्मा को साम्परायिक और ईर्यापथ की क्रिया हेतु से कर्मबन्ध (प्रास्रव) होता है। अर्थात्-सकषाय (कषायसहित) जीव-आत्मा का योग साम्परायिक कर्म का प्रास्रव बनता है, तथा अकषाय (कषायरहित) जीव-प्रात्मा का योग ईर्यापथ (रसरहित) कर्म का प्रास्रव बनता है।
जिसमें क्रोध तथा लोभादि कषायों का उदय हो वह सकषाय, और जिसमें उक्त क्रोधलोभादिकषाय न हों उसे कषायरहित कहते हैं ।
प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानक से यावत् दसवें गुणस्थानक पर्यन्त जीव-आत्मा न्यूनाधिक प्रमाणों से सकषाय होते हैं, तथा शेष ग्यारहवें गुणस्थानक से चौदहवें गुणस्थानक पर्यन्त अकषाय होते हैं।
___सम्पराय अर्थात् संसार। जिससे संसार में परिभ्रमण हो वह साम्परायिक कर्म है। कषाय के सहयोग से होता हुआ शुभ या अशुभ प्रास्रव भव-संसार का हेतु बनता है। क्योंकि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, तथा रस इन चारों प्रकार के बन्ध में स्थिति और रस प्रधान मुख्य हैं । इसलिए कषाय से शुभ या अशुभ स्थिति तथा रस का बन्ध अधिक होता है। इस भव-संसार का मुख्य कारण कषाय राग-द्वेष हैं।
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६।५
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षष्ठोऽध्यायः
प्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला कर्मबन्ध शुभ होता है, तथा अप्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला कर्मबन्ध अशुभ होता है। दोनों प्रकार के कर्मबन्ध भव-संसार के हेतु बनते हैं। किन्तु प्रशस्त कषाय के सहयोग से होने वाला शुभ कर्मबन्ध परिणाम में भव-संसार से मुक्त कराने वाला होता है।
ईर्या अर्थात् गमन । गमन के उपलक्षण से कषाय बिना की मन, वचन, और काया की प्रत्येक प्रवृत्ति जाननी। पथ-द्वारा, केवल कषाय रहित योग से होता हुआ आस्रव अर्थात् बन्ध ईर्यापथ है।
कषायरहित जीव-आत्मा में आस्रव अर्थात् कर्मबन्ध केवल योग से ही होता है। इसलिए वह ईर्यापथ प्रास्त्रव कहा जाता है। इस मानव से होने वाला बन्ध रसरहित होता है तथा उसकी स्थिति भी एक समय की होती है। ईर्यापथ में जो कर्म पहले समय में बंधाते हैं, दूसरे समय में रहते हुए भोगवाते हैं तथा तीसरे समय में तो वे जीव-आत्मा से पृथग्-विखूटे पड़ जाते हैं। जैसेशुष्क-चिकनाई रहित भीत पर पत्थर फेंकने में आ जाय तो भी वह पत्थर भींत के साथ चिपके बिना अथड़ा करके तत्काल नीचे गिर पड़ता है, वैसे ईर्यापथ में कर्म तत्काल एक ही समय में जीव-प्रात्मा से विखूटे पड़ जाते हैं।
सकषायपने से होने वाले साम्परायिक बन्ध में कर्म जीव-आत्मा के साथ चिकनाई वाली भींत पर रज जैसे चिपकती है वैसे चिपक जाते हैं, तथा दीर्घ-लम्बे काल तक स्थिति प्रमाणे रहते हैं। आबाघाकाल पूर्ण होते अपना फल देते हैं ।
__ इस सूत्र का सारांश यह है कि-जीव-आत्मा का पराभव करने वाले कर्म साम्परायिक कर्म कहलाते हैं। जैसे-चिकनाई के कारण देह-शरीर पर या घड़े पर पड़ी हुई रज चिपक जाती है, उसी तरह योग से आकृष्ट कर्म, कषायोदय के कारण जीव-आत्मा के साथ सम्बन्धित हो करके
। हैं, उसी को साम्परायिक कर्म कहते हैं, तथा बिना चिकनाई वाले घड़े पर रही हुई रज-धूल हिलाने से तत्काल गिर जाती है। इसी तरह कषाय के अभाव में केवल योगाकृष्ट कर्म जीव-आत्मा से तत्काल अलग हो जाते हैं। उसको ईर्यापथ कर्म कहते हैं। इसकी स्थिति केवल दो समय की मानी हुई है।
सकषाय जीव-प्रात्मा कायिकादि तीन प्रकार के योगों से शुभ या अशुभ कर्म बाँधते हैं। उसकी न्यूनाधिक स्थिति का अाधार कषाय की तीव्रता या मन्दता पर निर्भर है एवं यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी होता है। कषायमुक्तात्मा तीनों प्रकार के योगों से कर्म बाँधते हैं। वे कषायाभाव के कारण विपाकजन्य नहीं होते हैं। तथा उसका बन्ध काल दो समय से अधिक नहीं होता। इसको ईर्यापथिक कहने का कारण यह है कि, केवल ईर्या = गमनादिक योग प्रवृत्ति द्वारा ही कर्म का बन्ध होता है।
यद्यपि सभी जगह तीनों प्रकार के योगों की सामान्यता है, तो भी कषायजन्य न होने से उपार्जित कर्मों का स्थितिबन्ध नहीं होता है। अर्थात् -गमनागमनयोगप्रवृत्ति कर्म को ईर्यापथिककर्म कहते हैं। स्थिति तथा रस बन्ध का कारण कषाय है, और यही संसार की जड़ है ।
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१० ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ६६ पहले गुणस्थानक से दसवें गुणस्थानक पर्यन्त कषायोदय होने से साम्परायिक आस्रव है, तथा ग्यारहवें गुणस्थानक, तेरहवें गुणस्थानक पर्यन्त ईर्यापथ आस्रव है। एवं चौदहवें गुणस्थानक में योग का भी प्रभाव होने से आस्रव का सर्वथा अभाव होता है ।। ६-५॥
* साम्परायिक-प्रास्रवभेदाः *
卐 मूलसूत्रम्अवतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्च-चतुः-पञ्च-पञ्चविंशतिसंख्याः
पूर्वस्य भेदाः ॥ ६-६ ॥
* सुबोधिका टीका * येऽपि कार्याणि देव-गुरु-शास्त्राणां पूजास्तुतिअर्थे कृतानि सन्ति तथा च सम्यक्त्वोत्पत्तिवृद्धिकारकानि सन्ति ते सम्यक्त्वक्रियेति व्यवह्रीयन्ते । तद् विपरीतं कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र पूजा-स्तुतिप्रतिष्ठाकारकानि मिथ्यात्वक्रियेति । सूत्रानुसारं प्रथमास्रव साम्परायिकः । साम्परायिकस्यास्रवभेदाः पञ्च चत्वारः पञ्च पञ्चविंशतिरिति भवन्ति ।
पञ्च हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाः। "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा" । इत्येवमादयो वक्ष्यन्ते । चत्वारः क्रोधमानमायालोभाः अनन्तानुबन्ध्यादयो वक्ष्यन्ते । पञ्च प्रमत्तस्येन्द्रियाणि । पञ्चविंशतिः क्रिया। तत्रमे क्रियाप्रत्यया यथासंख्यं प्रत्येतव्याः। तद्यथा-सम्यक्त्व-मिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथाः, कायाधिकरणप्रदोपरितापनप्राणातिपाताः, दर्शनस्पर्शनप्रत्ययसमन्तानुपातानाभोगाः । स्वहस्तनिसर्गविदारणानयनानवकाङ्क्षा प्रारम्भपरिग्रहमायामिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रिया इति । साम्परायिकस्येमाः भेदाः, शुभाशुभ-भेदाभ्यां द्विविधाः । शुभात् पुण्यमशुभात् पापबन्धं भवति ।। ६-६ ॥
* सूत्रार्थ-साम्परायिक प्रास्रव के पांच अवत, चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, और पच्चीस क्रिया ये कुल ३६ उत्तर भेद हैं ।। ६-६ ॥
ॐ विवेचनामृत ॥ प्रथम (साम्परायिक) प्रास्रव के चार भेद हैं। अव्रत, कषाय, इन्द्रिय और क्रिया। इनके उत्तरभेदों की संख्या क्रमशः पाँच, चार, पाँच और पच्चीस हैं। अर्थात्-५ इन्द्रियाँ, ४ कषाय, ५ अव्रत, एवं २५ क्रिया। इस तरह कुल ३६ भेद साम्परायिक प्रास्रव के हैं।
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षष्ठोऽध्यायः
[ ११ पाँचवें सूत्रपाठ के अनुक्रम से पहले साम्परायिक प्रास्रव के भेद-प्रभेदों का इस सूत्र से वर्णन करते हैं। उस साम्परायिक कर्म प्रास्रव के मुख्य चार भेद तथा उत्तर उनचालीस (३६) भेद हैं, और तीन योगों को पूर्व सूत्र (एक) में कहकर आये हैं। कुल मिलाकर बयालीस (४२) भेद आस्रव के हैं।
(१) हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पाँच अव्रत हैं। इनका वर्णन इस श्रीतत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अध्याय ५ सूत्र ८ से १२ तक है ।
(२) क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं। इनका विशेष वर्णन अध्याय ८ सूत्र १० में किया है।
(३) स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों का वर्णन अध्याय २ सूत्र २० में किया है।
इस सूत्र में इन्द्रियों का अर्थ रागद्वेष युक्त प्रवृत्ति है, बिना राग-द्वेष के आकार मात्र से ही कर्म का बन्धन नहीं होता है। सिर्फ राग-द्वेष की प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण है।
(४) * पच्चीस क्रियाओं के नाम और लक्षण * (१) सम्यक्त्व क्रिया-सम्यक्त्व-समकित युक्त जीव-आत्मा की देव-गुरु सम्बन्धी नमस्कार, पूजा, स्तुति, सत्कार, सन्मान, दान, विनय, तथा वैयावच्च इत्यादि क्रिया। यह क्रिया सम्यक्त्व-समकित की पुष्टि तथा शुद्धि करती है। इस क्रिया से सातावेदनीय तथा देवगति इत्यादि पुण्यकर्म का प्रास्रव होता है, यह सम्यक्त्व क्रिया कही जाती है।
(२) मिथ्यात्व क्रिया-मिथ्यात्व मोहनीय प्रवर्द्धक सरागता अर्थात्-मिथ्यादृष्टि जीवमा की स्वमान्य देवगुरु सम्बन्धी नमस्कार, पूजा, स्तुति, सत्कार, सन्मान, दान, विनय तथा वैयावच्चादिक क्रिया। इस क्रिया से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है, यह मिथ्यात्व क्रिया कही जाती है।
(३) प्रयोग क्रिया-शरीरादिक द्वारा उत्थानादि सकषाय प्रवृत्ति । अर्थात्-जीवआत्मा को अशुभ कर्म बन्ध हो जाय ऐसी मन, वचन और काया की क्रिया, यह प्रयोगक्रिया कही जाती है।
(४) समादान क्रिया-त्यागी हो करके भववृत्ति की ओर प्रवर्त्तमान होना। अर्थात्जिससे कर्मबन्ध हो जाय, संयमी याने साधु की ऐसी सावध क्रिया। यह समादान क्रिया कही जाती है।
(५) ईर्यापथिक-ईर्यापथ क्रिया-चलने की क्रिया। जिस क्रिया से दो ही समय की स्थिति का कर्मबन्ध होता है। सकषाय की चलने की क्रिया साम्परायिक कर्म का आस्रव बनती है तथा कषायरहित के चलने की क्रिया ईर्यापथ कर्म का आस्रव बनती है।
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१२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६६ (६) काय क्रिया-कायिकी क्रिया। इसके अनुपरत और दुष्प्रयुक्त ऐसे दो भेद होते हैं । मिथ्यादृष्टि की कायिक क्रिया अनुपरत कायक्रिया है। प्रमत्तसंयमी की दुष्प्रयुक्त (समिति आदि से रहित) कायिक क्रिया दुष्प्रयुक्त कायक्रिया है। दुष्टभाव सहित प्रयत्नशील होना कायिकी क्रिया कही जाती है।
(७) अधिकरण क्रिया-हिंसाकारी साधनों को ग्रहण करना। अर्थात्-हिंसा के साधन बनाना तथा सुधारना इत्यादि ।
(८) प्रादोषिकी क्रिया-क्रोध के आवेश से होने वाली क्रिया। यह प्रादोषिकी या प्रदोष क्रिया कही जाती है।
(8) पारितापिकी क्रिया अन्य को या अपने को परिताप यानी संताप होवे ऐसी क्रिया। अर्थात्-प्राणियों को सन्ताप देना। यह पारितापिकी या परितापन क्रिया कही जाती है ।
(१०) प्राणातिपात क्रिया-आयु, इन्द्रिय आदि प्राणों के विनाश करने को प्राणातिपात क्रिया कहते हैं। अर्थात्-प्राणियों के प्राणों (पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, कायाबल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य ये दश प्राण हैं), इनका हनन करना ।
(११) दर्शन क्रिया-रागवश रूपादि देखने की प्रवृत्ति । अर्थात्-राग से स्त्री/पुरुष आदि का दर्शन-निरीक्षण करना। यह दर्शन क्रिया कही जाती है।
(१२) स्पर्शन क्रिया-प्रमादवश स्पर्शन करने योग्य वस्तु के स्पर्शन का अनुभव करना। अर्थात्-राग से स्त्री आदि का स्पर्श करना। यही स्पर्शन क्रिया कही जाती है।
(१३) प्रत्यय क्रिया-प्राणिघात के अपूर्व उपकरण, नूतन-नवीन शस्त्रादि बनाना, यह प्रत्यय क्रिया कही जाती है।
(१४) समन्तानुपात क्रिया-मनुष्य तथा पशु आदि के गमनागमन (आवागमनादि) स्थान पर मल-मूत्रादि अशुचि पदार्थ का त्याग करना। यह समन्तानुपात क्रिया कही जाती है ।
: (१५) अनाभोग क्रिया-बिना देखी, शोधी भूमि पर शरीर या किसी वस्तु को स्थापित करना। अर्थात् जोये बिना और प्रमार्जित किये बिना वस्तु मूकनी-रखनी। यही अनाभोग क्रिया कही जाती है।
(१६) स्वहस्त क्रिया-अन्य-दूसरे के करने योग्य क्रिया को स्वयं अपने हाथ से करना। यह स्वहस्त क्रिया कही जाती है ।
(१७) निसर्ग क्रिया-पाप की प्रवृत्ति के लिए अनुमति देना। अर्थात्-पापकार्यों में सम्मति देनी-स्वीकार करना। यह निसर्ग क्रिया कही जाती है।
(१८) विदारण क्रिया-अन्य-दूसरे के किये हुए पाप को प्रकाशित करना। अर्थात्अन्य-दूसरे के गुप्त पापकार्य को लोक में प्रकट करना। यही विदारण क्रिया कही जाती है।
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६।६
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षष्ठोऽध्यायः
[ १३
(१६) आनयन क्रिया - स्वयं पालन करने की शक्ति नहीं होने से शास्त्रोक्त आज्ञा के विपरीत प्ररूपण करना। यह प्रानयन या प्राज्ञाव्यापाद क्रिया कही जाती है ।
(२०) अनाकांक्षा क्रिया-धर्तता या आलस्य वश शास्त्रोक्त विधि का अनादर करना। अर्थात्-प्रमाद से जिनोक्त विधि का अनादर करना। यही अनाकांक्षा क्रिया कही जाती है ।
(२१) प्रारम्भ क्रिया-प्रारम्भ-समारम्भ में रत होना। अर्थात्-पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा हो ऐसी क्रिया। यह प्रारम्भ क्रिया कही जाती है।
(२२) पारिग्राहिकी क्रिया-परिग्रह की वृद्धि एवं संरक्षण हेतु की जाने वाली क्रिया। अर्थात्-चेतन-अचेतन परिग्रह के न छूटने के लिए प्रयत्न करने को पारिग्राहिको-परिग्रह को क्रिया कहा जाता है।
(२३) माया क्रिया- ठगी करना। अर्थात्-विनयरत्न आदि की भाँति माया से मोक्षमार्ग की आराधना करनी। यह माया क्रिया कही जाती है।
(२४) मिथ्यादर्शन क्रिया--मिथ्यात्व परिसेवन। इहलौकिकादिक सांसारिक फल की इच्छा से मिथ्यादर्शन की साधना करनी। यह मिथ्यादर्शन क्रिया कही जाती है ।
(२५) अप्रत्याख्यान क्रिया-पाप व्यापार से अनिवृत्त होना। अर्थात्-पापकार्यों के प्रत्याख्यान से (नियम से) रहित जीव की क्रिया। यह अप्रत्याख्यान क्रिया कही जाती है ।
उपर्युक्त पच्चीस क्रियाओं में ईर्यापथ की क्रिया है, वह साम्परायिक आस्रव नहीं है। यहाँ पर समस्त क्रियायें कषायप्रेरित होने के कारण साम्परायिक प्रास्रव कहा गया है। वास्तव में तो, ईर्यापथ की क्रिया कषायप्रेरित नहीं है, क्योंकि वह अकषायी अवस्था है। किन्तु यहाँ कषायप्रेरित कहा, वह ग्यारहवें गुणस्थानक से पतित होने के अन्तसमय की अपेक्षा से है। वास्तविकपने समस्त क्रियाएँ मात्र कर्मग्रहण सापेक्ष जाननी चाहिए। उक्त साम्परायिक क्रियाओं के बन्ध का कारण मुख्यता से राग-द्वेष (कषाय) ही हैं। तथापि कषाय से पृथक् अव्रतादि बन्ध कारणरूप सूत्र में उनमें कतिपय प्रवत्तियाँ मुख्यतापने व्यवहार में दिखाई देती हैं। उन प्रवृत्तियों को साम्पराया भिलाषी यथाशक्ति समझकर रोकने की चेष्टा करें। इस हेतु से ही उपर्युक्त (३६) भेद किये गये हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ पर श्लोकवात्तिक आदि के प्राधारे प्रश्नोत्तरी नीचे प्रमाणे है
* प्रश्न-जहाँ इन्द्रियाँ, कषाय और अव्रत हैं वहाँ क्रिया अवश्य ही रहने की है। अतः केवल क्रिया के निर्देश-प्रास्रव का विधान करना चाहिए, इन्द्रिय आदि का निर्देश करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-पापका कथन सत्य है। क्योंकि, केवल पच्चीस क्रियाओं के ग्रहण से प्रास्रव हेत का विधान हो सकता है। किन्तु उक्त कथित पच्चोस क्रियाओं में इन्द्रिय, कषाय, तथा अव्रत कारण हैं। यह बताने के लिए इन्द्रिय आदि का ग्रहण किया है। जैसे-पारिग्राहिकी क्रिया में परिग्रह रूप अव्रत कारण है। परिग्रह में लोभ रूप कषाय कारण है। स्पर्शनक्रिया में स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति कारण है। स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति में राग कारण है। माया क्रिया में माया कारण है। पाम अन्य क्रियानों में भी कार्य-कारण भाव जानना।
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१४ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * प्रश्न केवल इन्द्रियों के निर्देश से अन्य कषाय आदि का भी ग्रहण हो जाएगा। क्योंकि कषाय आदि की मूल इन्द्रियाँ हैं। जीव इन्द्रियों द्वारा वस्तु का ज्ञान करके उसके विषय में विचारणा करके कषायों में, अव्रतों में तथा क्रियाओं में प्रवर्तते हैं। इसलिए यहाँ पर कषाय आदि का निर्देश करने की जरूरत नहीं है।
उत्तर -जो केवल यहाँ पर इन्द्रियाँ ही ग्रहण करने में आवे तो प्रमत्त जीव के ही प्रास्रवों का कथन होता है; अप्रमत्त जीव के प्रास्रवों का कथन रह जाता है। क्योंकि अप्रमत्त जीव के इन्द्रियों द्वारा कर्मों का प्रास्रव नहीं होता है। उसके तो कषाय और योग से ही प्रास्रव होता है । अन्य एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय. चउरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के यथासम्भव पूर्ण इन्द्रियाँ और मन नहीं होते हुए भी कषाय आदि से आस्रव होता है। समस्त जीवों में सर्वसामान्य आस्रव का विधान हो, इसलिए इन्द्रिय आदि चारों का सूत्र में विधान-ग्रहण करना जरूरी है।
* प्रश्न -केवल कषाय का ग्रहण करने से इन्द्रिय आदि का ग्रहण हो ही जाता है । क्योंकि, साम्परायिक आस्रव में मुख्यपने कषाय ही कारण हैं। इस तरह इसी अध्याय के पांचवें सूत्र में कहने में आया है कि, कषाय से रहित इन्द्रिय आदि साम्परायिक प्रास्रव नहीं होते हैं। इसमें इन्द्रिय आदि के ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-आपका कथन सत्य है। कषाय के योग से जीव-प्रात्मा आस्रव की कैसी-कैसी प्रवृत्ति करता है, उसका स्पष्टपने बोध हो और इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए वह प्रयत्न करे, इसलिए यहाँ इन्द्रिय प्रादि पृथक् ग्रहण किये हैं ।
* प्रश्न - केवल अव्रत का ग्रहण करने से भी इन्द्रिय तथा कषाय आदि का ग्रहण हो जाता है। क्योंकि, इन्द्रिय आदि के परिणाम अव्रत में प्रवृत्ति हुए बिना होते नहीं हैं। अतः यहाँ पर इन्द्रिय आदि के ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-आपका कथन सत्य है। किन्तु अव्रत में इन्द्रिय आदि के परिणाम कारण हैं । यही जताने के लिए इन्द्रिय आदि का ग्रहण किया है।
* सारांश-उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि- इन्द्रिय आदि चार में से कोई भी एक का ग्रहण करे तो भी अन्य प्रास्रवों का उसमें समावेश हो जाता है। इस तरह होते हुए भी इन्द्रिय इत्यादि एक दूसरे में किस तरह निमित्त रूप बनते हैं, और उसके योग से कैसी-कैसी प्रवृत्ति होती है, इत्यादि कथन का स्पष्ट बोध हो जाए इस दृष्टि को रख करके यहाँ पर चारों आस्रवों का ग्रहण किया है, इन चार में भी कषाय की मुख्यता है। शेष तीनों का इसमें समावेश हो जाता है।
जैसे पूर्व में योग शुभ और अशुभ दो प्रकार के कहे हैं, उसमें शुभ योग पुण्य कर्म का प्रास्रव है और अशुभ योग पापकर्म का आस्रव है, इस तरह कहा हुआ है। वैसे ही यहाँ पर इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति भी प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार की है। उसमें प्रशस्त इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति पुण्य कर्म का प्रास्रव है, तथा अप्रशस्त इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति पापकर्म का आस्रव है।
पौद्गलिक सुख के लिए इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति अप्रशस्त है। प्रात्मकल्याण के उद्देश्य से इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति प्रशस्त है। स्त्री के अंगोपांग तथा नाटक इत्यादि देखने में चक्षुइन्द्रिय की
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६७ ]
षष्ठोऽध्यायः
प्रवृत्ति अप्रशस्त है। श्रीवीतराग देव तथा गुरु आदि के दर्शन में चक्षुइन्द्रिय की प्रवृत्ति प्रशस्त है। अपना अपमान करने वाले के प्रति अहंकार आदि के वशीभूत होकर क्रोध करना यह अप्रशस्त क्रोध है। अविनीत शिष्यादिक को सन्मार्ग में लाने के शुभ इरादे से उसके प्रति क्रोध करना वह प्रशस्त क्रोध है।
इस तरह अन्य इन्द्रियों आदि में भी यथायोग्य प्रशस्त-अप्रशस्त को घटित करना। इस सम्बन्ध में संक्षेप में जो कहा जाए तो सर्वज्ञविभु श्रीजिनेश्वर देव की आज्ञा (जिनाज्ञा) के अनुसार होने वाली इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति प्रशस्त है, तथा श्रीजिनाज्ञा को उल्लंघन करके होने वाली इन्द्रिय आदि की प्रवृत्ति अप्रशस्त है ।। ६-६ ॥
* बन्ध-कारणसमाने सति कर्मबन्धे विशेषता *
मूलसूत्रम्तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ऽज्ञातभाव-वीर्या-ऽधिकरणविशेषेभ्य
स्तद्विशेषः ॥६-७॥
* सुबोधिका टीका * सकषायजीवानामव्रतादिस्वरूपमनवचनकायाभिः या प्रवृत्तिः भवति नैषा सर्वेषु समाना। "द्वन्द्वादी द्वन्द्वान्ते च श्रूयमाणं पदं प्रत्येक परिसमाप्यते ।" तदनुसारं तोत्रादिभिः चतुभिः सह भावशब्दं योज्यम् ।
साम्परायिकास्रवाणामेषामेकोनचत्वारिंशत् साम्परायिकाणां तीव्रभावात् मन्दभावात् ज्ञातभावात् अज्ञातभावात् वीर्यविशेषात् अधिकरण विशेषात् च विशेषो भवति । लघुर्लघुतरोलघुतमस्तीवस्तीव्रतरस्तीव्रतम इति ।
तद् विशेषाच्च बन्धविशेषो भवति । क्रोधादिककषायोद्रेक परिणामाः तीव्रभावास्तद्विपरीताः मन्दभावाः ।
ज्ञानं, ज्ञात्वा च प्रवृत्तिकरणं ज्ञातभावं तद्विपरीतमज्ञातभावं भवति ॥ ६-७ ॥
___ * सूत्रार्थ-साम्परायिक कषाय के उक्त ३६ भेदों के भी तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, प्रज्ञातभाव और वीर्य तथा अधिकरण की विशेषता से विशेष भेद हुमा करते हैं ।। ६-७ ।।
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१६]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
15 विवेचनामृत 5
तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, प्रज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण भेद विशेष से "तत्" उपर्युक्त उनचालीस ( ३६ ) भेद सहित साम्परायिकास्रव के कर्मबन्ध में विशेषता होती है । अर्थात् - तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण भेद से ( परिणाम में भेद पड़ने से ) कर्म के बन्ध में भेद पड़ते हैं ।
[ ६।७
प्रारणातिपात, इन्द्रियव्यापार तथा सम्यक्त्वक्रिया आदि उपर्युक्त सूत्र ६ में बन्धकारण समान होते हुए भी तद्जन्य कर्मबन्ध में किन-किन कारणों से विशेषता होती है, उसी को प्रस्तुत सूत्र द्वारा कहते हैं । बाह्य बन्धकारण समान होते हुए भी परिणामों की तीव्रता, मन्दता के कारण कर्मबन्ध में भिन्नता होती है । जैसे- कोई एक चीज वस्तु को तीव्र तथा मन्द प्रासक्तिपूर्वक जोहने वाले का विषय तीव्र तथा मन्द होता है। वैसे ही परिणामों की तीव्रता से तीव्रबन्ध तथा मन्दता से मन्दबन्ध होता है ।
पुन:, इरादापूर्वक जो क्रिया की जाए उसको ज्ञातभाव कहते हैं । कोई भी क्रिया चाहे ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञात भाव से हो, किन्तु कर्म का बन्ध अवश्य ही होता है । तथा उसमें व्यापार हिंसादि प्रवृत्ति समान रूप होते हुए भी तद्जन्य कर्मबन्ध में न्यूनाधिकता होती है । अर्थात् - [- प्रज्ञातभाव से ज्ञातभाववाले का कर्म का बन्ध उत्कृष्ट होता है ।
जैसे - कोई धनुर्धारी व्यक्ति मृग- हरिण को हरिण जानकर बाण से मारता है, तथा दूसरा व्यक्ति निर्जीव पदार्थ पर निशाना मारते हुए भूल से मृग-हरिण को लग जाता है । इन दोनों में भूल से मारने वाले को जो कर्मबन्ध होता है, उससे जान बूझकर मारने वाले को कर्मबन्ध ज्यादा होता है ।
तीव्र-मन्द भाव तथा ज्ञात-अज्ञात भाव एवं वीर्य अधिकरण के सम्बन्ध में विशेष वर्णन करते हुए क्रमश: कहते हैं कि
* तीव्र-मन्द भाव - तीव्रभाव यानी अधिक परिणाम | तथा मन्द भाव यानी अल्पपरिणाम | जैसे – दोषित तथा निर्दोष व्यक्ति के प्रारण को विनाश करने में प्राणातिपातिकी क्रिया समान होते हुए भी दोषित व्यक्ति की हिंसा में हिंसा के परिणाम मन्द होते हैं तथा निर्दोष व्यक्ति की हिंसा में हिंसा के परिणाम अधिक तीव्र होते हैं ।
राजा की या अन्य किसी की आज्ञा से जीव की हिंसा करने में और अपने सांसारिक स्वार्थ के कारण जीव की हिंसा करने में क्रिया समान होते हुए भी हिंसा के परिणाम में अत्यन्त भेद होता है । कारण कि एक क्रिया में मन्द भाव होता है और दूसरी क्रिया में तीव्रभाव होता है इससे कर्मबन्ध में भेद पड़ता है ।
एक व्यक्ति प्रति उल्लासभावपूर्वक श्रीजिनेश्वर भगवान की वाणी सुनता है और अन्य दूसरा व्यक्ति प्रति मन्दभाव से जिनवाणी सुनता है ।
यहाँ पर जिनवाणी सुनने की क्रिया समान होते हुए भी परिणाम में भेद है । इसलिए पुण्य में भी भेद पड़ता है। अति उल्लासभावपूर्वक जिनवाणी सुनने वाले को अधिक पुण्य का बन्ध
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६७ ] षष्ठोऽध्यायः
[ १७ होता है, तथा मन्दभावे जिनवाणी सुनने वाले को सामान्य पुण्य का बन्ध होता है। इसलिए तीव्रभाव तथा मंदभाव के भेद से कर्मबन्ध में भेद पड़ता है ।
* ज्ञात-अज्ञात भाव-ज्ञातभाव यानी जानकर इरादापूर्वक प्रास्रव की प्रवृत्ति । तथा अज्ञातभाव यानी अज्ञानता से इरादा सिवाय प्रास्रव की प्रवृत्ति ।
जैसे–शिकारी जानकर इरादापूर्वक निजबाण से मृग-हरिण को हनता है, जब अन्य स्तम्भ इत्यादि को बींधने के लिए इरादापूर्वक अपना बाण फेंकता है, किन्तु बाण किसी प्राणी को लगने से वह मृत्यु को प्राप्त होता है।
यहाँ प्रथम जीवहिंसा करता है, जब अन्य जीवहिंसा करता नहीं है, किन्तु उससे हिंसा हो जाती है, इसलिए यह भेद है। अतः दोनों के हिंसा के परिणाम में भेद है। परिणाम के भेद से कर्मबन्ध में भेद पड़ता है।
* वीर्य -वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमादिक से प्राप्त शक्ति । जैसे-जैसे वीर्य=शक्ति विशेष होती है वैसे-वैसे आत्मा के परिणाम विशेष तीव्र होते हैं। तथा जैसे-जैसे वीर्य =शक्ति कम-अल्प होती है वैसे-वैसे परिणाम विशेष मन्द होते हैं ।
तीव्र शक्ति वाले तथा मन्द शक्ति वाले के एक ही प्रकार की हिंसा की क्रिया करते हुए भी वीर्य के भेद के कारण परिणाम में भेद पड़ते हैं। इसलिए ही छठे संघयण वाला जीव सातवीं नरक में जाना पड़े, ऐसा पाए नहीं कर सकता है। जबकि प्रथम (अत्यन्त बल युक्त) संघयण वाला जीव-पात्मा ऐसा पाप कर सकता है।
जैसे हीन संघयण वाला जीव-प्रात्मा प्रबल पाप नहीं कर सकता, वैसे प्रबल पूण्य भी नहीं कर सकता। हीन संघयण वाला जीव-आत्मा चाहे कितना भी उत्कृष्ट धर्म करे तो भी वह चौथे माहेन्द्र देवलोक से ऊपर नहीं जा सकता है। वीर्य का आधार देह-शरीर के संघयण पर ही है। अतः ज्यों-ज्यों संघयण मजबूत होता है, त्यों-त्यों पुण्य व पाप भी अधिक होते हैं ।
कौनसे-कौनसे संघयण वाला जीव-पात्मा अधिक में अधिक कितना पुण्य-पाप कर सकता है, यह जानने के लिए कौनसे-कौनसे संघयण वाला जीव-प्रात्मा कौनसे-कौनसे देवलोक तक, तथा कौनसो-कौनसी नरक भूमि तक जाता है, यह जानना चाहिए
(१) प्रथम वज्रऋषभनाराच संघयण वाले जीव-आत्मा ऊपर मोक्ष तक तथा नीचे
- सातवीं तमस्तमःप्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं । द्वितीय ऋषभनाराच संघयण वाले जीव-आत्मा ऊपर बारहवें अच्युत देवलोक तक
तथा नीचे छठी तम:प्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं । (३) तृतीय नाराच संघयण वाले जीव-आत्मा ऊपर दसवें प्राणत देवलोक तक तथा
नीचे पाँचवीं धूमःप्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं।
(२)
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१८]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।७
(४) चतुर्थं अर्धनाराच संघयण वाले जीव-प्रात्मा ऊपर आठवें सहस्रार देवलोक तक तथा नीचे चौथी पंकप्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं ।
:' :
(५) पंचम कीलिका संघयरण वाले जीव आत्मा ऊपर छठे लांतक देवलोक तक तथा तीसरी वालुकाप्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं ।
(६) छठे सेवार्त संघयरण वाले जीव - प्रात्मा ऊपर में चौथे माहेन्द्र देवलोक तक तथा नीचे दूसरी शर्कराप्रभा नरक भूमि तक जा सकते हैं ।
विशेष - भरत क्षेत्र में वर्त्तमान काल में छठा ही सेवार्त संघयण होने से जीव आत्मा ऊपर चौथे माहेन्द्र देवलोक तक तथा नीचे दूसरी शर्कराप्रभा नरक भूमि तक ही जा सकते हैं ।
* श्रधिकरण - प्रधिकरण यानी प्रस्रव क्रिया के साधन । अधिकरण के भेद से भी कर्मबंध में भेद पड़ते हैं । जैसे - एक व्यक्ति के पास तलवार तीक्ष्ण है, तथा दूसरे व्यक्ति के पास तलवार भोथरी, भोटी है । इसलिए तो इन दोनों के हिंसा की क्रिया समान होते हुए भी परिणाम में भेद पड़ता है ।
* प्रश्न - अधिकरण आदि के भेद से कर्मबन्ध में भेद पड़ता है, ऐसा नियम नहीं है । कितनेक को अधिकरण आदि नहीं होते हुए भी तीव्र कर्मबन्ध होते हैं । जैसे – स्वयंभूरमण समुद्र
उत्पन्न होने वाला तंदुलमत्स्य । उसके पास हिंसा के साधन नहीं होते हैं । वासुदेव श्रादि जैसा बल भी नहीं होता है, तो भी वह मृत्यु पा करके सातवीं तमस्तमः प्रभा नरक में चला जाता है ?
उत्तर
- यहाँ पर किये हुए
तीव्रभाव आदि 'छह' में तीव्रभाव तथा मन्दभाव की ही मुख्यता है । ज्ञातभाव आदि चार तीव्रभाव और मन्दभाव में निमित्त होने से कारण की दृष्टि से इन चार ग्रहण किया है।
ज्ञातभाव आदि की विशेषता से कर्मबन्ध में विशेषता आती है ऐसा एकान्ते नियम नहीं है ।
यहाँ पर तो ज्ञातभाव आदि की विशेषता से कर्मबन्ध में विशेषता प्राती है, ऐसा कथन बहुलता की दृष्टि से है । तन्दुलमत्स्य इत्यादि के अपवादभूत उदाहरण- दृष्टान्तों को छोड़कर के मोटे भागे ज्ञातभाव आदि की विशेषता से कर्मबन्ध में विशेषता होती है ।
अथवा अधिकरण अब आगे के सूत्र में कहा जायेगा। वह दो प्रकार का है । तलवार इत्यादि बाह्य अधिकरण हैं । कषायादिक की तीव्रता तथा मन्दता इत्यादि इस अध्याय के नौवें सूत्र में बतायेंगे । वह प्रमाणे १०८ प्रकार का अभ्यन्तर अधिकरण है ।
तन्दुलिया मत्स्यादिक तलवारादिक बाह्य अधिकरण का प्रभाव होने पर भी रौद्रध्यान स्वरूप मन तथा कषायादिक अभ्यन्तर अधिकरण अत्यन्त ही भयंकर होने से सातवीं नरक भूमि में जा सकते हैं ।। ६-७ ।।
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६८ ]
षष्ठोऽध्यायः
[
१६
* अधिकरणस्य भेदाः *
+ मूलसूत्रम्
प्रधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥ ६-८ ॥
* सुबोधिका टीका * द्रव्याधिकरणभावाधिकरणी द्वी भेदी अधिकरणस्य । तत्र च द्रव्याधिकरणं छेदनभेदनादि-शस्त्रं च दशविधम् । भावाधिकरणं अष्टोत्तर-शतविधम्, एतदुभयं जीवाधिकरणं अजीवाधिकरणञ्च ।
___अधिकरणस्यार्थ प्रयोजनस्याश्रयम् । जीवाजीवी द्वौ भेदो तस्य । सामान्यजीवद्रव्यं अजीवद्रव्यं वा हिंसादिकोपकरणहेतुत्वात् साम्परायिकासवहेतु । अतः तमेव जीवाधिकरणं वा अजीवाधिकरणं ज्ञेयम् । नैतदुचितम् प्रकृते बहुवचनप्रयोगः । पर्यायापेक्षयाऽधिकरणमभीष्टम् ।। ६-८ ।।
* सूत्रार्थ-अधिकरण के दो भेद हैं। (१) जीवाधिकरण तथा (२) अजीवाधिकरण ।। ६-८ ॥
5 विवेचनामृत अधिकरण के जीव और अजीव ऐसे दो भेद हैं। जिसके आधार से कार्य होता है उसको 'अधिकरण' कहते हैं। जितने शुभाशुभ कार्य हैं वे जीवाजीव उभयपक्ष द्वारा सिद्ध होते हैं । अकेले जीव या अजीव से सिद्ध नहीं होते हैं। इसलिये कर्मबन्ध के साधन जीव और अजीव दोनों अधिकरण शस्त्ररूप हैं, तथा वे द्रव्य और भाव रूप दो, दो प्रकार के हैं।
व्यक्तिगत जीव और वस्तु रूप अजीव-पुद्गल स्कन्ध को द्रव्य अधिकरण कहते हैं। तथा जीवगत कषायादिक परिणाम तथा वस्तुगत अर्थात् तलवार की तीक्ष्णता रूप शक्ति आदि को भाव अधिकरण कहते हैं। इस सूत्र का सारांश यह समझना कि-केवल जीव से या केवल अजीव से आस्रव (कर्मबन्ध) होता ही नहीं। जीव और अजीव दोनों होवे, तो ही आस्रव होता है । इसलिए यहाँ जोव और अजोव इन दोनों को आस्रव के अधिकरण कहा है। जीव प्रास्रव का कर्ता है तथा अजीव प्रास्रव में सहायक है। अतः जीव भाव (मुख्य) अधिकरण है। तथा अजीव द्रव्य ( = गौरण) अधिकरण है।
* आद्यं च जीवविषयत्वाद् भावाधिकरणमुक्त, कर्मबन्धहेतुमुख्यतः । इदं तु द्रव्याधिकरणमुच्यते, परममुख्यं, निमित्तमात्रत्वाद् ।
[प्र. ६ सू. १० की वृत्ति-टीका] १. भावः तीव्रादिपरिणाम प्रात्मनः स एवाधिकरणम् ।
[ अ. ६ सू. ८ की वृत्ति-टीका ]
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२० ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६६
यद्यपि तीव्रभाव और मन्दभाव में जीव अधिकरण का समावेश हो जाता है, तो भी उसके विशेष भेद बताने के लिए यहाँ पर भाव अधिकरण रूप में जीव का ग्रहण किया है ।। ६-८ ।।
* जीवाधिकरणस्य अष्टोत्तरशतभेदाः
मूलसूत्रम्
श्राद्यं संरम्भ-समारम्भा -ऽऽरम्भ- योगकृत-कारिताऽनुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ।। ६-६ ॥
* सुबोधिका टीका *
प्राणव्यपरोपणादि कर्मणि कृतावेश: संरम्भः, तत्क्रिया साधनाभ्यासः समारम्भः, क्रियाद्याप्रवृत्तिरारम्भः । श्राद्यसूत्रेऽधिकरणस्य द्वौ भेदो इत्याह, तत्समासतस्त्रिविधम् ।
तच्च
संरम्भः, समारम्भः, प्रारम्भः, एतत् पुनः एकशः कायवाक्मनोयोगविशेषात् त्रिविधं भवति । यथा कायसंरम्भः, वाक्संरम्भः, मनः संरम्भः, कायसमारम्भ:, वाक्समारम्भः, मनः समारम्भ:, कायारम्भः, वागारम्भः मनप्रारम्भ इति ।
एतदपि एकशः कृतकारितानुमतविशेषात् त्रिविधं भवति । तद्यथा - कृतकायसंरम्भः, कारितकाय संरम्भः, अनुमतकायसंरम्भः कृतवाक्संरम्भः कारितवाक्संरम्भः, अनुमतवाक्संरम्भः कृतमनः संरम्भः कारितमनः संरम्भः अनुमतमनः संरम्भ:, एवं समारम्भारम्भावपि । तदपि पुनः एकशः कषायविशेषात् चतुविधम्, यथाक्रमेणेतिक्रोधकृत काय संरम्भः, मानकृतकायसंरम्भः, मायाकृतकायसंरम्भः, लोभकृतकायसंरम्भः, क्रोधकारितकायसंरम्भः, मानकारितकाय संरम्भः, मायाकारितकायसंरम्भः, लोभकारितकायसंरम्भः क्रोधानुमतकायसंरम्भः, मानानुमतकायसंरम्भः, मायानुमतकाय संरम्भः, लोभानुमतकायसंरम्भः, एवं वाङ्मनोयोगाभ्यामपि ज्ञातव्यम् । तथा समारम्भारम्भौ । तदेवं जीवाधिकरणं समासेनैकशः षट्त्रिंशत् विकल्पं भवति ।
त्रिविधमपि भ्रष्टोत्तरशतविकल्पानि भवन्ति ।
संरम्भः सकषायः, परितापनया भवेत् समारम्भः । प्रारम्भः प्राणिवधः, त्रिविधो योगस्ततो ज्ञेयः ॥
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६।६ ]
षष्ठोऽध्यायः
[ २१
साम्परायिकास्रवभेदेषु जीवाधिकरणभेदाः कथिताः किन्तु अधिकरणस्य द्वितीयमजीवरूपं न जातम् । प्रथाजोवाधिकरणं किमिति ? ।। ६-६ ।।
=
* सूत्रार्थ - प्रथम जीवाधिकरण के संक्षेप से मूल में तीन भेद हैं-संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ | ये तीनों भाव मन, वचन और काया के द्वारा ही हो सकते हैं । अतः ३ x ३ ६ हुए । ये नवों भेद कृत, कारित और अनुमोदना इस तरह तोन प्रकार से सम्भव होने से ६ x ३ २७ भेद हुए । ये सत्ताइस भेद क्रोधादि चार कषायों द्वारा होने से २७ x ४ = १०८ भेद जीवाधिकरण के हुए ।। ६-६ ।।
विवेचनामृत 5
संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, तीन योग, कृत, कारित, अनुमत, चार कषाय । इन समस्त के संयोग से जीवाधिकरण के १०८ भेद होते हैं ।
१०८ भेद
संरम्भ, समारम्भ और प्रारम्भ । ये तीन मन, वचन तथा काया द्वारा होते हैं, इसलिए ३×३=६ । इन नौ भेदों को जीव आत्मा स्वयं करता है, कराता है और अनुमोदता है, इसलिए ε×३=२७। इन २७ भेदों में क्रोधादिक चार कषाय निमित्त बनते हैं, इसलिए २७×४=१०८ भेद जीवाधिकरण के होते हैं ।
संरम्भादि का अर्थ
संरंभ' = हिंसा आदि क्रिया का संकल्प ।
करनी ।
समारंभ = हिंसा आदि के संकल्प को पूर्ण करने के लिए आवश्यक सामग्री इकट्ठी करनी ।
प्रारंभ = हिंसा आदि की क्रिया करनी । मन-वचन-काया इन तीन योगों का स्वरूप इस अध्याय के प्रथम सूत्र में पहले आ गया है ।
कृत = स्वयं हिंसा आदि की क्रिया करनी ।
कारित = = अन्य दूसरे के पास हिंसा आदि की क्रिया करानी ।
=
अनुमत= अन्य दूसरे के
द्वारा होने वाली हिंसा आदि क्रिया की अनुमोदना करनी- प्रशंसा
१. संरंभो संकष्पो, परितापकरो भवे समारंभो । प्रारंभ उद्दवतो, शुद्ध नयाणं तु सव्वेसि ॥
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२२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ६।१० क्रोधादि चार कषाय प्रसिद्ध ही हैं। उनका विशेष वर्णन आगे अष्टमाध्याय के दसवें सूत्र में करेंगे।
संसारी जीव-आत्मा दानादि शुभ कार्य एवं हिंसादि अशुभ कार्य करते हैं। उस समय क्रोधादिक चार कषायों में से किसी एक कषाय प्रेरित अवश्य होते हैं। पश्चात् चिन्तवनादि संरंभ, समारंभ, प्रारंभ को मन, वचन और काया से स्वयं करते हैं या कराते हैं अथवा किये हुए कार्य में सहमत होते हैं। इसी के १०८ विकल्प होते हैं ।। ६-६ ।।
* अजीवाधिकरणस्य भेदाः * + मूलसूत्रम्निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतु-द्वि-त्रिभेदाः परम् ॥ ६-१० ॥
* सुबोधिका टीका * निर्वर्तना शब्दस्यार्थं रचना, क्रिया, उत्पत्तिः वा, शरीरमनवचनश्वासोच्छ्वासोत्पत्ति क्रिया मूलगुणनिर्वर्तना। काष्ठादिषु प्राकृतिश्च वा मृदप्रस्तरादिमूत्तिरचना वा वस्त्रादिषु चित्ररचना उत्तरगुण-निर्वर्तना। निर्वर्तनायाः द्वौ भेदौ, यथा(१) दुःप्रयुक्त-निर्वर्तना, (२) उपकरण-निर्वर्तना। परमिति सूत्रक्रमप्रामाण्यादजीवाधिकरणमाह। तत्समासतश्च चतुर्विधम् । यथा-निर्वर्तना निक्षेपः संयोगो निसर्ग इति । तत्र निर्वर्तनाधिकरणं द्विविधम् । मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणं उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरणं च। तत्र मूलगुणनिर्वर्तनाः पञ्च-शरीराणि वाङ्मनः प्राणापानाश्च । उत्तरगुणनिर्वर्तना काष्ठ-पुस्त-चित्र कर्मादीनि । निक्षेपाधिकरणं चतुर्विधम् । तद्यथा अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरणं दुःप्रमाजित निःक्षेपाधिकरणं सहसा निक्षेपाधिकरणमनाभोगनिक्षेपाधिकरण मिति । संयोगाधिकरणं द्विविधम् । भक्तपानसंयोजनाधिकरण मुपकरणसंयोजनाधिकरणं च । निसर्गाधिकरणं त्रिविधम् । कायनिसर्गाधिकरणं वाङ्निसर्गाधिकरणं मनोनिसर्गाधिकरणञ्च । निसर्गनाम स्वभावस्य हि, मनवचनकायभिः यथा-स्वाभाविका प्रवृत्तिः जायते, तद्विरुद्ध-दूषितरीतिप्रवर्तनं कायवाङ्मनोनिसर्गाधिकरणानि । सामान्यतया सर्वे योगाः समानाः विशेषदृष्ट्या तस्योत्तरभेदारपि, यद् अनेककर्मप्रकृतिषु बन्धरेव हेतुः ।। ६-१० ।।
* सूत्रार्थ-प्रजीवाधिकरण के निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग चार मूलभेद हैं। जिनके क्रमशः दो, चार, दो और तीन उत्तरभेद हैं ।। ६-१० ॥
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६१० ] षष्ठोऽध्यायः
[ २३ 卐 विवेचनामृत है निर्वर्तना, निक्षप, संयोग और निसर्ग ये चार प्रकार के अजीवाधिकरण हैं। इनके अनुक्रम से दो, चार, दो और तीन भेद हैं। परमाणु इत्यादि मूत्तिमान वस्तु द्रव्य अजीव अधिकरण है तथा जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति में उपयोगित मूर्तद्रव्य जिस अवस्था में वर्तमान हो, उसे भाव अजीव अधिकरण कहते हैं ।
प्रस्तुत सूत्र में जो अजीव अधिकरण के मुख्य निर्वर्तनादि चार भेद बताये हैं, वे भाव अजीव अधिकरण के जानने चाहिए।
निर्वर्तनादि चार भेदों का स्वरूप क्रमशः नीचे प्रमाणे है
(१) निर्वर्तना-रचना विशेष को कहते हैं। इसके मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना रूप दो भेद हैं। मूलगुणनिर्वर्तना अधिकरण के पाँच प्रकार हैं। पुद्गल द्रव्य की औदारिक आदिदेह-शरीर रूप रचना तथा जीव-प्रात्मा की शुभाशुभ प्रवृत्तियों में अन्तरंग साधनपने उपयोगी होने वाले मन, वचन और प्राण तथा अपान हैं ।
उत्तरगुणनिर्वर्तना अधिकरण में काष्ठ, पुस्त तथा चित्रकर्मादिक जो रचना बहिरंग साधनपने जीव-आत्मा की शुभाशुभप्रवृत्ति में उपयोगी होती है।
* यहाँ पर मूल का अर्थ मुख्य अथवा अभ्यन्तर है, तथा उत्तर का अर्थ अमुख्य अथवा बाह्य है। हिंसा इत्यादि क्रिया करने में देह-शरीर आदि मुख्य-अभ्यन्तर साधन हैं तथा तलवार
आदि गौरण-बाह्य साधन हैं। मूलगुण की तथा उत्तरगुण की रचना में हिंसा इत्यादि होने से यह रचना स्वयं अधिकरण रूप है, एवं अन्य अधिकरण में कारण रूप बनती है।
(२) निक्षेप-यानी स्थापित करना। इसके मुख्य चार भेद हैं१. अप्रत्यवेक्षित, २. दुष्प्रमाजित, ३. सहसा और ४. अनाभोग ।
(१) अप्रत्यवेक्षित निक्षेप-भूमि का अन्वेषण किये बिना अर्थात् भूमि को दृष्टि से देखे बिना किसी चीज-वस्तु को कहीं स्थापित करना। वह 'अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण' है ।
(२) दुष्प्रमाजित निक्षेप-भूमि को देख करके भी चीज-वस्तु को वास्तविक रूप से बिना प्रमार्जन किये इधर-उधर रख देना। वह 'दुष्प्रमाजितनिक्षेपाधिकरण' है।
(३) सहसा निक्षेप-प्रशक्ति प्रादि के कारण देखी हुई और प्रमाजित की हुई चीज-वस्तु को भी नहीं देखी अप्रमार्जित भूमि पर शीघ्रतापूर्वक रखना, वह 'सहसानिक्षेपाधिकरण' है।
(४) अनाभोग निक्षेप- अर्थात् विस्मृति होने से उपयोग के अभाव में भूमि को देखे बिना और प्रमार्जित भी किए बिना चीज-वस्तु रखनी। वह 'अनाभोगनिक्षेपाधिकरण' है।
यहाँ पर निक्षेपाधिकरण के चार भेद कारण के भेद से कहे हैं। किसी भी चीज-वस्तु को जहाँ रखनी हो तो प्रथम दृष्टि से निरीक्षण करना-देखना उचित है। जिससे चीज-वस्तु रखने पर कोई जीव मरे नहीं। कारण कि, सूक्ष्म जीव ऐसे भी हैं कि बराबर देखते हुए भी दृष्टि में
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२४ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१०
श्राते नहीं | इसे नेत्र-नयन से बराबर देखने के बाद भी रजोहररण इत्यादि जीवरक्षा के साधन से भूमि का प्रमार्जन करना चाहिए। जिससे वहाँ पर रहे हुए सूक्ष्म जीव दूर हो जाते हैं । अर्थात् - जो चीज वस्तु जहाँ रखनी हो, तो वहां पर दृष्टि से निरीक्षण तथा रजोहरणादिक से भूमि का प्रमार्जन नहीं करने में आए, करने में आए, तो भी बराबर करने में न आए, तो वहाँ पर निक्षेप श्रधिकररण बनता है । उसमें भी जो दृष्टि से बराबर निरीक्षण करने में नहीं आये तो प्रत्यवेक्षित तथा रजोहरण इत्यादिक से बराबर प्रमार्जन करने में नहीं आए तो दुष्प्रमार्जित ऐसे दो निक्षेप अधिकरण बनते हैं । बाद में सहसा और अनाभोग निक्षेप भी निरीक्षण तथा प्रमार्जन नहीं करने से अथवा बराबर नहीं करने से ही बनते हैं ।
प्रथम के दो (प्रत्यवेक्षित और दुष्प्रमार्जित) बेदरकारी प्रमाद से बनते हैं, जबकि सहसा और अनाभोग बेदरकारी- प्रमाद से नहीं बनते हैं, किन्तु क्रमशः सहसा तथा विस्मृति से बनते हैं । अनाभोग में बेदरकारी तो है, किन्तु प्रथम के अप्रत्यवेक्षित तथा दुष्प्रमार्जित जितनी नहीं है । आम कारणभेद के कारण से एक ही निक्षेप के चार भेद पड़ते हैं ।
(३) संयोग - यानी एकत्र करना अर्थात् भेली करना- जोड़ना ।
इसके मुख्य दो भेद हैं ।
[१] भक्तपान संयोगाधिकरण अर्थात् - अन्न जलादि भोजन सामग्री का संयोग करना । जैसे भोजन को स्वादिष्ट बनाने के लिए रोटी आदि के साथ गुड़, मुरब्बा तथा सब्जी-शाक इत्यादि का संयोग करना । एवं दुग्ध-दूध आदि में शक्कर डालनी इत्यादि ।
[२] उपकरण संयोगाधिकरण - अर्थात् - अन्न-जलादि भोजन से भिन्न सामग्री वस्त्र तथा प्राभूषण आदि का संयोग करना इत्यादि । वेश-भूषा के उद्देश्य से पहरने का एक वस्त्र नवा हो और एक वस्त्र जूना हो, तो जूना वस्त्र निकाल करके दूसरा भी नवा वस्त्र पहरना इत्यादि ।
( ४ ) निसर्ग - यानी त्याग | निसर्ग अधिकरण प्रवर्तमान होना । इसके मुख्य तीन भेद हैं । मन, वचन और काया । इन तीनों की प्रवर्तना से इसको क्रमश: मनोनिसर्ग, वचननिसर्ग और कार्यनिसर्ग कहते हैं ।
* मनोनिसर्ग - अर्थात् - शास्त्रविरुद्ध विचार करना । यहाँ मन का त्याग यानी मन रूप से परिमित मनोवर्गरणा के पुद्गलों का त्याग ।
* वचननिसर्ग - (भाषानिसर्ग ) अर्थात् - शास्त्र से विरुद्ध बोलना । यहाँ पर भाषा का त्याग यानी भाषा रूप में परिगमित भाषा वर्गणा के पुद्गलों का त्याग करना ।
* कायनिसर्ग - शस्त्र, श्रग्निप्रवेश, जलप्रवेश तथा पाशबन्धन इत्यादिक से काया- शरीर का त्याग करना ।
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६।११ ] षष्ठोऽध्यायः
[ २५ इसी अध्याय के पांचवें सूत्र में सकषायिक योग से साम्परायिकास्रव तथा अकषायिक योग से ईर्यापथिकास्रव कहा है।
इसकी मूल प्रकृति तथा उत्तर प्रकृति का विस्तारयुक्त वर्णन पाठवें अध्याय में कहेंगे । यहाँ तो केवल इतना ही समझाते हैं कि-कौनसे-कौनसे साम्परायिक प्रास्रवों से कौनसा-कौनसा कर्मबन्ध होता है, बन्धहेतुओं की भिन्नता से कर्मों की भिन्नता होती है। इसलिए उनके बन्धहेतुओं का वर्णन आगे आते हुए सूत्र से करते हैं।
[विशेष सूचना-यहां तक सामान्य से आस्रव का और आस्रव में होने वाली विशेषता के कारण का वर्णन किया है। अब ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के आश्रय से उस-उस कर्मसम्बन्धी विशेष प्रास्रवों का क्रमशः वर्णन प्रारम्भ होता है। ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों का वर्णन आठवें अध्याय के तीसरे सूत्र से शुरू होगा] ।। ६-१० ।।
* ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्मणोः प्रास्रवाः * 卐 मूलसूत्रम्तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्या-ऽन्तराया-ऽऽसादनोपघाता
ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥६-११॥
* सुबोधिका टीका * प्रदोषादिषड्कारणानि ईदृशानि यः ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीयकर्मणां बन्धो भवति । प्रास्रवो ज्ञानस्य ज्ञानवतां ज्ञानसाधनानां च प्रदोषो, निह्नवो मात्सर्यमन्तराय प्रासादन उपघात इति ज्ञानावरणास्रवा भवन्ति । एतैर्हि ज्ञानावरणं कर्म बध्यते । एवमेव दर्शनावरणस्येति । तत्त्वज्ञानप्रशस्त कथनीं श्रुत्वा ईर्ष्णया मौनाचरणं आदिदूषितं । परिणाम प्रदोषम् । ज्ञानगोपनं निह्नवम् । ज्ञानाभ्यासान्तरायं गुरुद्रोहणं च ज्ञानप्रसारविच्छेदोऽन्तरायः ।
अन्यप्रकाशितज्ञानान्तरायमासादनम् । प्रशस्तेऽपि ज्ञाने दूषणदृष्टिः उपघातः ।। ६-११ ।।
* सूत्रार्थ-ज्ञान और दर्शन के साधनों का प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात करने से ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६-११ ॥
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२६ ]
तत्प्रदोष, निह्नव, मत्सर, दर्शनावरण कर्म के बन्धहेतु हैं ।
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
विवेचनामृत 5
अन्तराय, आशातना और उपघात आस्रव ज्ञानावरण,
[ ६।११
अर्थात् - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों सम्बन्धी यथासम्भव प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, प्रासादन और उपघात ये 'छह' ज्ञानावरणीय कर्म के तथा दर्शन, दर्शनी एवं दर्शन के साधनों में यथासम्भव प्रदोष आदि 'छह' दर्शनावरणीय कर्म के आस्रव हैं ।
( १ ) तत्प्रदोष - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष करना इसको 'तत्प्रदोष' कहते हैं । अर्थात् - वांचना के, व्याख्यान आदि के समय पर प्रकाशित होते हुए तत्त्वज्ञान के प्रति अरुचि होनी | ज्ञान पढ़ते कंटाला होना । ज्ञानी की प्रशंसा इत्यादि सहन नहीं होने से या अन्य कारण से उनके प्रति द्वेष-वैरभाव रखना । ज्ञान के साधनों को देखकर उनके प्रति भी रुचि प्रेम नहीं होना इत्यादि तत्प्रदोष जानना ।
(२) निह्नव - कलुषित भाव से ज्ञान की प्रवज्ञा करनी या ज्ञानादि को छिपाना, इसको 'वि' कहते हैं । अर्थात् प्रपने पास ज्ञान होते हुए भी कोई पढ़ने के लिए आ जाय तो ( कंटाला तथा प्रमाद आदि के कारण ) 'मैं जानता नहीं हूँ' ऐसा कहकर के नहीं पढ़ाना । जिनके पास पढ़े हों, अभ्यास किये हों उनको ज्ञानगुरु तरीके नहीं मानना । तथा ज्ञान के साधन अपने पास होते हुए भी ना कहना इत्यादि । उसको 'निह्नव' जानना ।
(३) मात्सर्य - - ज्ञान को योग्यतापूर्वक ग्रहण करने वाले पर कलुषित वृत्ति रखनी, उसे 'मात्सर्य' कहते हैं । अर्थात् - अपने पास ज्ञान हो और अन्य योग्य व्यक्ति पढ़ने को जब आ जाय तब यह पढ़ करके मेरे जैसा विद्वान् हो जायेगा, या मेरे से भी आगे बढ़ जायेगा, इस तरह ईर्ष्या से उसे ज्ञान का दान नहीं देना तथा ज्ञानी के प्रति ईर्ष्या धारण करनी, उसे मात्सर्य जानना |
( ४ ) अन्तराय - ज्ञानाभ्यास में विघ्न करना या उसके साधनों का विच्छेद करना, उसको अन्तराय कहते हैं । अर्थात् - अन्य - दूसरे को पढ़ने आदि में विघ्न खड़ा करना । स्वाध्याय हो रहा हो तब निरर्थक उसे ( स्वाध्याय करने वाले को ) बुलाना, कार्य सौंपना, उसके स्वाध्याय में विक्षेप हो जाय, ऐसा बोलना या वर्त्तना तथा व्याख्यानादिक में बातचीत करनी, शोरगुल करना । व्याख्यान में जाते हुए किसी को रोकना । अपने पास ज्ञान के साधन होते हुए भी नहीं देना, इत्यादि अन्तराय जानना ।
( ५ ) श्रासादन - दूसरे के द्वारा प्रकाशित होते हुए ज्ञान को रोकना, उसे प्रासादन कहते हैं । अर्थात् - ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति अनादर से वर्त्तना, विनय तथा बहुमान इत्यादि नहीं करना । उपेक्षा सेवनी तथा प्रविधि से पढ़ना पढ़ाना इत्यादि जानना ।'
१. इसके सम्बन्ध में कहा है कि
"प्रासादना श्रविध्यादिग्रहणादिना, उपघातो मतिमोहेनाहाराद्यदानेन ।”
[ श्री हरिभद्रसूरि की वृत्ति ]
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* वत्तमा
६।११ ] षष्ठोऽध्यायः
[ २७ (६) उपघात-प्रशस्त ज्ञान में भी दोष लगाना। अर्थात्-अज्ञानता आदि से 'यह कथन असत्य है', इत्यादि रूप में ज्ञान में दूषण लगाना। 'इस तरह नहीं ही होता' इत्यादि रूप में ज्ञानी भगवन्त के वचनों को असत्य मानना, तथा ज्ञानी को आहारादिक के दान से सहायता नहीं करनी एवं ज्ञान के साधनों का विनाश करना इत्यादि। यह सब उपघात कहलाता है। ये ज्ञानावरणोय कर्म के प्रास्रव हैं। इन्हीं कारणों से दर्शनावरणीय कर्म का भी बन्ध
* यद्यपि प्रासादन और उपघात इन दोनों का अर्थ विनाश होता है, परन्तु प्रासादन में ज्ञानादिक के प्रति अनादर की मुख्यता है और उपघात में दूषण की मुख्यता है। इस तरह प्रासादन और उपघात में भिन्नता है। 'सर्वार्थसिद्धि नामक वत्ति' में भी ऐसा ही कहा है।
विशेष-ज्ञानी के प्रतिकूल वर्तना, ज्ञानी के वचन पर श्रद्धा नहीं रखनी, ज्ञानी का अपमान करना, ज्ञान का गर्व करना, अकाल में अध्ययन करना, पठन-पाठन-अभ्यास में प्रमाद करना, स्वाध्याय तथा व्याख्यान श्रवणादिक अनादर से करना, असत्य-झठा उपदेश देना, सूत्रादिक से विरुद्ध बोलना एवं अर्थोपार्जन के हेतु से शास्त्रादि बेचना। इन सबका 'प्रदोष' इत्यादिक में समावेश हो जाता है।
* वर्तमान काल में ज्ञान की पाशातना * वर्तमान काल में ज्ञान की आशातना अधिकतम हो रही है। जैसे(१) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को नीचे जमीन-भूमि पर रखना। (२) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को जहाँ-तहाँ फेंक देना।
(३) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को मलिन वस्त्रों के साथ या देह-शरीरादिक अशुद्ध वस्तु के साथ स्पर्श करना।
(४) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को बगल में अथवा खीसे में रखना।
(५) पोथी-पुस्तक इत्यादिक ज्ञान के साधनों को पास में रखकर के झाड़ा तथा पेशाब आदि करना।
(६) भोजनादिक करते-करते जूठे मुंह से बोलना, गाना और पढ़ना-पढ़ाना।
(७) अक्षर वाली दवा की गोली आदि खानी, अक्षर वाले पेड़ा इत्यादि खाना, अक्षर वाले कागज-थाली इत्यादि में भोजन जीमना तथा प्याला-प्याली इत्यादिक से जल-पानी आदि पीना।
(८) अक्षर वाले कपड़े, साबुन आदि का उपयोग करना। (8) अक्षर वाले कागज में खाने आदि की चीज-वस्तु बांधनी तथा खानी ।
१. 'मतो ज्ञानस्य विनयप्रदानादिगुणकीत्त नानुष्ठानमासादनम्, उपघातस्तु ज्ञानमज्ञानमेवेति ज्ञाननाशाभिप्राय: इत्यनयोरयं भेदः ।'
[सर्वार्थसिद्धि टीकायाम्]
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२८ j
श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रे
(१०)
कागजों को इधर-उधर फेंक देना, पाँव लगाना तथा जलाना ।
( ११ ) चरवला, प्रोघा तथा मुहपत्ति प्रादि के साथ पोथी-पुस्तक इत्यादि रखना ।
[ ६।१२
उक्त प्रस्रवों से भवान्तर में ज्ञान न चढ़े ऐसे अशुभ कर्मों का बन्ध होता है । इसी तरह दर्शन गुरण के आश्रय से भी समझना । यहाँ दर्शन यानी तात्त्विक पदार्थों की श्रद्धा जानना । क्योंकि, विशिष्ट प्राचार्यादिक दर्शनी हैं । विशिष्ट ज्ञान के ग्रन्थ तथा जिनमन्दिरादिक दर्शन के साधन हैं । इसके समर्थन में कहा है कि
" नवरं दर्शनस्य तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणस्य दर्शनिनां विशिष्टाचार्याणां दर्शनसाधनानां च सम्मत्यादि पुस्तकानामिति वाच्यम् ।" [ श्री हरिभद्रसूरि टीका ] ॥। ६-११ ॥
* सातावेदनीयकर्मणः श्रास्रवाः
मूलसूत्रम्
दुःख-शोक-त क- तापा -ऽऽक्रन्दन-वध- परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ।। ६-१२ ॥
* सुबोधिका टीका *
कारणहेतुभिरेव असाता वेदनीय कर्मबन्धोः जायते । दुःखं शोकस्तापः, श्राक्रन्दनं वधः परिदेवनमित्यात्मसंस्थानि परस्य क्रियमाणानि उभयोश्च क्रियमाणानि असद्वेद्यस्यास्रवा भवन्ति ।
पीडापरिणामैः सुखशान्त्याभावैः श्राकुलं व्यग्रं मानसं दुःखमनुभवति । इष्टवियोगो शोकः । कृतकर्मपश्चातापः तापः । परितापविलापादिक्रिया श्राक्रन्दनम् । हननं वधः परिदेवनया रोदनं परिदेवनम् ।। ६-१२ ।।
* सूत्रार्थ - दुःख, शोक, ताप, प्राक्रन्दन, वध और परिदेवन स्वयं करने, अन्य को कराने या दोनों में किए जाने से असातावेदनीय का बन्ध होता है ।। ६-१२ ।।
विवेचनामृत 5
दुःख, शोक, संताप, आक्रंदन, वध और परिदेवन स्वयं अनुभवे अथवा अन्य को करावे तथा स्वयं भी अनुभवे और अन्य को भी करावे; इन तीनों रीतियों से असातावेदनीय कर्म का आस्रव बनता है ।
(१) दुःख - बाह्य तथा आन्तरिक पीड़ा रूप परिणाम उसे 'दुःख' कहते हैं । अर्थात्दुःख यानी अनिष्ट वस्तु का संयोग और इष्ट वस्तु का वियोग इत्यादि बाह्य के तथा राग इत्यादि अभ्यन्तर निमित्तों से असातावेदनीय कर्म के उदय से होती हुई पीड़ा जानना ।
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६।१२ ] षष्ठोऽध्यायः
[ २६ (२) शोक-इष्ट वस्तु का वियोग होने पर चित्त में उत्पन्न हुई मलिनता या खेद को 'शोक' कहते हैं। अर्थात्-अनुग्रह करने वाले बन्धु आदि के वियोग से बारम्बार उसके वियोग के विचारों द्वारा मानसिक चिन्ता-खेद इत्यादि जानना।
(३) ताप-यानी पश्चात्ताप करना। अर्थात्-कठोर वचन श्रवण, ठपका, पराभव इत्यादिक से अन्तःकरण-हृदय में संताप करना इत्यादि जानना ।
(४) प्राक्रन्दन-शोकादिक से व्यक्तरूप रोदन उसको 'प्राक्रन्दन' कहते हैं। अर्थात्हृदय में परिताप (मानसिक संताप) होने से शिर-मस्तक पछाड़ना, छाती कूटना, हाथ-पांव पछाड़ना तथा अश्रुपात करने पूर्वक रुदन करना-रड़ना, इत्यादि जानना।
(५) वध-यानी प्राणों का वियोग करना, उसको 'वध' कहते हैं। अर्थात्-सोटी इत्यादिक से मारना।
(६) परिदेवन–वियुक्त के गुणों का स्मरण करके करुणाजनक रुदन करना, उसको 'परिदेवन' कहते हैं। अर्थात्-अनुग्रह करने वाले बन्धु आदि के वियोग से विलाप करना । तथा अन्य-दूसरे को दया आ जाए, इस तरह दीन बन करके उसके वियोग का दुःख प्रगट करना इत्यादि जानना।
उपर्युक्त दुःखादि 'छह' तथा अन्य ताड़न, तर्जनादि अनेक प्रकार के निमित्त स्व तथा पर में उत्पन्न करने से असाता वेदनीयकर्म का बन्ध होता है ।
शोक इत्यादि भी दुःख रूप ही हैं। वे असाता वेदनीयकर्म के उदय से जीवों को किस-किस प्रकार के दुःखों के अनुभव कराते हैं, यह कहने के लिए यहाँ शोकादिक को भिन्न-भिन्न बताया है। शोक में अपने मन में चिन्ता, खेद इत्यादि होते हैं, जबकि परिदेवन में अन्तःकरण-हृदय में रही हुई चिन्ता इत्यादि करुण शब्दों से बाहर प्रगट होती है। इस तरह शोक और परिदेवन में भिन्नता है । अनीति, विश्वासघात, त्रास, तिरस्कार, ठपका, चुगली-चाड़ी, परपराभव, परनिन्दा, आत्मश्लाघा, निर्दयता, महापारम्भ तथा महापरिग्रह इत्यादि भी असाता वेदनीय के प्रास्रव हैं। इन आस्रवों से भवान्तर में भी और इस भव में भी दुःख मिले, ऐसे अशुभकर्मों का बन्ध होता है ।
* प्रश्न-दुःखादिक कारणों को स्व तथा पर में उत्पन्न करने से यदि असातावेदनीय कर्म का ही बन्ध होता है तो केशलुचन तथा उपवासादिक तपश्चर्या और आसन, आतापनादिक से आत्मा को दुःखित करना भी असाता वेदनीयकर्म का बंधक होगा। इसलिए तो व्रत, नियम तथा अनुष्ठानादिक करना भी पापबन्ध के हेतु होते हैं ।
उत्तर-जीव-प्रात्मा को क्रोधादिक के आवेश से उत्पन्न होने वाले दुःखादि निमित्त प्रास्रव रूप होते हैं। अन्यथा सामान्यतया समस्त प्रकार से त्याज्यरूप नहीं हैं। वास्तविक यथार्थ त्यागी तथा तपस्वियों के लिए वे आस्रवरूप नहीं होते हैं और असाता वेदनीयकर्म के भी बन्धक नहीं होते हैं। इसके मुख्य दो कारण हैं। प्रथम कारण तो यह है कि-उत्कृष्ट त्यागवृत्ति वाले जीव कितने ही कठिन से कठिन नियम-प्रतिज्ञा, अनुष्ठान इत्यादि करें तो भी वे सद्वृत्ति तथा सद्बुद्धि के
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१३ कारण कठिन ऐसे दुःखादि संयोग प्राप्त होने पर भी क्रोध तथा सन्तापादि कषायों को प्राप्त नहीं होते हैं और कषाय बिना, आस्रव भी नहीं होता है।
द्वितीय कारण यह है कि-वास्तविक त्यागवृत्ति वालों की चित्तवृत्ति नित्य प्रसन्नचित्त रहती है। उनके कठोर व्रत, नियम परिपालन में भी प्रसन्नता ही रहती है। दुःख शोकादिक का प्रसंग कभी उपस्थित नहीं होता है। कदाचित् कर्मवशात् किसी प्रसंग में दुःखी हो जाए तो भी व्रतपालन करने में जिनकी अतिरुचि है, उनको ये दुःखरूप नहीं होते, किन्तु सुखरूप होते हैं । जैसे-कोई व्यक्ति व्याधि-रोगग्रस्त है। उसके देह-शरीर की डॉक्टर या वैद्य चीरफाड़ करता है,
और रोगी को दुःख का अनुभव भी होता है। इसके लिए वे निमित्त रूप हैं, तो भी करुणाजनक सद्वृत्ति के कारण ये पाप के भागी नहीं होते हैं। इसी तरह सांसारिक दुःख दूर करने के उपायों को प्रानन्द-प्रसन्नतापूर्वक अंगीकार करते हुए संयमी-त्यागी भी सवृत्ति के कारण पापबन्धक नहीं होते हैं।
* इस सूत्र का सारांश यह है कि-- दुःख असाता वेदनीय कर्म का प्रास्रव है। उसका अर्थ होता है कि, क्रोधादि कषाय के आवेश से दीनतापूर्वक उत्पन्न होता हुआ दुःख असातावेदनीयकर्म का प्रास्रव है। किन्तु प्रात्मशुद्धि के ध्येय से स्वेच्छापूर्वक स्वीकारने में आते हुए दु:ख के उसी प्रकार के कर्मों के उदय से स्वयं आया हुआ दुःख भी आत्मशुद्धि के ध्येय से समभाव से सहन करने पर असातावेदनीयकर्म का आस्रव नहीं है ।
अध्यात्मप्रेमी जीव आत्मशुद्धि के ध्येय से स्वेच्छा से तप आदि के दुःख सहन करते हैं। दुःख में क्रोधादि कषाय का प्रावेश नहीं होने से और मन की प्रसन्नता होने से उनको असातावेदनीय कर्म का बन्ध नहीं होता है, किन्तु अतिनिर्जरा होती है। अर्थात् पूर्व में बाँधे हुए अशुभ कर्म का क्षय होता है।
अध्यात्मप्रेमी जीवों को तप इत्यादि में होने वाला दुःख दुःखरूप नहीं लगता है ।
आध्यात्मिक मार्ग में कष्ट का विधान भावी सुख को लक्ष्य में रखकर करने में आया है ।। ६-१२॥
* सातावेदनीयकर्मणः बन्धहेतु * ॐ मूलसूत्रम्
भूत-व्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य ॥ ६-१३ ॥
* सुबोधिका टीका * सर्वजीवानुकम्पा वा सर्वभूतानुकम्पा अगारिषु अनगारिषु च व्रतिषु अनुकम्पाविशेषः दानं सरागसंयमः संयमासंयमोऽकामनिर्जरा बालतपो योगः क्षान्ति शौचमिति
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६।१३ ]
षष्ठोऽध्यायः सवेद्यस्यास्रवा भवन्ति । एतेषु कारणेषु वा एकादिषु अपि सत्सु सातावेदनीयकर्मबन्धः । मूलसूत्रे षड्कारणानि निर्दिष्टानि-भूतवृत्यनुकम्पा दानं, सराग-संयमादि, योगः क्षान्तिश्च शौचमिति ।। ६-१३ ।।
* सूत्रार्थ-प्राणिमात्र पर दया, व्रतियों की भक्ति, दान, सराग-संयम अकामनिर्जरा, योग, क्षान्ति और शौच ये सब कारण या इनमें से एकादिक के होने पर सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६-१३ ।।
ॐ विवेचनामृत भूत-प्रनुकम्पा (समस्त प्राणियों पर दया), व्रतियों पर अनुकम्पा, दान, सराग-संयमादि तथा योग, क्षान्ति और शौच, सातावेदनीय कर्मबन्ध हेतु आस्रव हैं। अर्थात्-भूत-अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सराग-संयम, संयमासंयम, अकाम-निर्जरा, बालतप, क्षान्ति तथा शौच ये सभी सातावेदनीय कर्म के प्रास्रव हैं।
(१) भूत-अनुकम्पा-समस्त जीवों पर दया व कृपा। अर्थात्-भूत यानी जीव । सर्वजीवों के प्रति अनुकम्पा-दया के परिणाम रखना, यह 'भूत-अनुकम्पा' है ।
(२) व्रती-अनुकम्पा-अल्पांश व्रतधारी गृहस्थ और सर्वांग व्रतधारी त्यागी दोनों पर विशेष दया। अर्थात्-व्रती के अगारी और अरणगार इस तरह दो भेद हैं। गृहस्थ अवस्था में रहकर स्थूल प्राणातिपातादिक पापों को त्याग करने वाले ऐसे देशविरति श्रावक 'अगारी व्रती हैं तथा समस्त प्रकार के पापों को त्याग करने वाले पंचमहाव्रतधारी साधु 'अणगार' व्रती हैं ।
दोनों प्रकार के व्रतियों की भक्तपान, वस्त्र, पात्र, आश्रय, औषध इत्यादि से अनुकम्पा करनी यानी भक्ति करनी, यह 'व्रती अनुकम्पा' है ।
(३) दान-अपनी चीज-वस्तु किसी को नम्रता से अर्पण करना-देना। अर्थात्-स्व-पर के प्रति अनुग्रह बुद्धि से अपनी चीज-वस्तु पर को देना, यह दान है ।
(४) सरागसंयम-सराग संयमादि योग अर्थात् संसार से विरक्त भाव, तृष्णा हटाने में तत्पर हो के संयम स्वीकार करने पर भी जब तक मन के रागादिक संस्कार क्षीण नहीं होते हैं, उसे 'सराग संयम' कहते हैं।
__सरागसंयम (संज्वलन) लोभादिक कषाय राग हैं। राग युक्त वह सराग। संयम यानी प्राणातिपातादिक से निवृत्ति । राग युक्त संयम वह सराग संयम अथवा सराग यानी राग सहित व्यक्ति का संयम सरागसंयम । अर्थात् संज्वलन कषाय के उदय वाले मुनियों का संयम, वे सरागसंयम हैं।
(५) संयमासंयम-जिसमें प्रांशिक संयम हो और प्रांशिक असंयम हो, वह संयमासंयम अर्थात् देशविरति कहा जाता है ।
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३२ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१३ (६) अकामनिर्जरा-काम यानी इच्छा। निर्जरा यानी कर्म का क्षय। स्वेच्छा से कर्मों का विनाश वह सकामनिर्जरा है तथा इच्छा बिना कर्मों का विनाश वह अकामनिर्जरा है। इच्छा नहीं होते हुए परतन्त्रता, अनुरोध, साधना का अभाव, व्याधि-रोगादिक के कारण पाप की प्रवृत्ति नहीं करें, विषयसुख का सेवन नहीं करें तथा आये हुए कष्ट-संकट शान्ति से सहन करें, इत्यादिक कारणों से अकाम-निर्जरा होती है। परतन्त्रता से भी अकाम-निर्जरा होती है ।
-जेल में गये हए मनुष्य तथा नौकर प्रमख, परतन्त्रता के कारण इष्ट-वियोग का और अनिष्ट संयोग का दुःख सहन करें। आहार एवं उत्तम वस्त्रादिक के भोग-उपभोग नहीं करें, आई हुई परिस्थिति को शान्ति से सहन करें। उक्त सभी को सहन करने से अकाम-निर्जरा होती है। तदुपरान्त
* अनुरोध-(दाक्षिण्य अथवा प्रीति) से अकाम निर्जरा होती है। जैसे - स्वजन या मित्रादिक जब आपत्ति में आ जायें तब दाक्षिण्य अथवा प्रीति से उनकी सहायता करने के लिए कष्ट सहन करना। व्यवहार की खातिर मिष्टान्न आदि का त्याग करना आदि ।
* साधन के प्रभाव से अकामनिर्जरा होती है। जैसे-भिखारी, निर्धन-गरीब मनुष्यों तथा तिर्यंच प्राणियों आदि के शीत-ताप इत्यादि कष्ट से अकामनिर्जरा होती है ।
* रोग के कारण मिष्टान्न आदि का त्याग करें, वैद्य-डॉक्टर आदि की परतन्त्रता सहन करें तथा ताप इत्यादि के दुःख को सहन करें। सहन करने के इरादे बिना भी सहन करे। इत्यादि अनेक कारणों से 'प्रकामनिर्जरा होती है।
(७) बालतप-विना ज्ञान के अग्निप्रवेश, जलपतन तथा अनशनादिक तप को बालतप कहते हैं। अर्थात् अज्ञानता से (विवेक बिना) अग्निप्रवेश, पंचाग्नि तप तथा भृगुपात प्रमुख तप बालतप है।
(८) क्षमा (क्षान्ति)-धर्मदृष्टि से क्रोधादिक दोषों का दमन करना क्षमा (क्षान्ति) कही जाती है। अर्थात्-क्रोध कषाय के उदय को रोकना, या उदय में आये हुए कषाय को निष्फल बनाना, यह क्षमा-शान्ति है।
(६) शौच-लोभ कषाय का त्याग करना। अर्थात् संतोष रखना।
पूर्वोक्त कारणों से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। ये सभी सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
* तदुपरान्त विशेष-धर्म का अनुराग, तप का सेवन, बाल-ग्लान-तपस्वी आदि की वैयावच्च, देव-गुरु भक्ति, तथा माता-पिता की सेवा इत्यादि के शुभपरिणाम भी सातावेदनीयकर्म के प्रास्रव हैं। इन प्रास्रवों से भवान्तर में तथा इस भव में भी सुख मिले, ऐसे शुभ कर्मों का बन्ध होता है ।। ६-१३ ॥
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६।१४
]
षष्ठोऽध्यायः
[ ३३
* दर्शनमोहनीयकर्मणः प्रास्रवाः *
卐 मूलसूत्रम्केवलि-श्रुत-सङ्घ-धर्म-देवाऽवर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ ६-१४ ॥
* सुबोधिका टोका * रेषणात्क्लेशराशीनामषिमाहुः मनीषिणः । त्रयोदशगुणस्थानवर्ती परमात्मा परमर्षिः, भगवतां परमर्षीणां केवलिनां, अर्हत्प्रोक्तस्य च साङ्गोपाङ्गस्य श्रुतस्य, चातुर्वर्ण्यस्य संघस्य, पञ्चमहाव्रतसाधनस्य धर्मस्य, चतुर्विधानां च देवानामवर्णवादो दर्शनमोहस्यास्रवाः भवन्ति ।
भगशब्दस्यानेकार्थाः यथा ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । वैराग्यस्यावबोधस्य षण्णां भग इतिस्मृतः [धनंजय] भगे यस्यास्तीति भगवान् । भगवन्त हि समग्रेश्वर्यवैराग्यादिगुणान् धारयन्ति । केवली येषु कैवल्यज्ञानं उद्भूतम् । येषाञ्च घातिकर्माणि विनष्टानि तेर्हन्तः । दिव्यध्वनिनोपदिष्टं मोक्षमार्ग श्रुतम् । श्रुतस्य द्वौ भेदौ-अङ्गोपाङ्गो। अङ्गस्य द्वादशभेदाः। प्राचाराङ्गादि । अङ्गशेषाक्षराश्रयैः अङ्गा उद्धृताचार्यशास्त्राणि उपाङ्गः। ऋषिः मुनिश्च यतिश्चानगाराः वा मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका एते चातुर्वर्ण्यति भाष्यन्ते । पञ्चमहापापानां त्यागः अनुष्ठानः ।। ६-१४ ।।
* सूत्रार्थ-केवलज्ञानी, श्रुतज्ञान, चतुर्विध संघ, संयमरूप धर्म तथा चारों प्रकार के देव, इनका अवर्णवाद करना दर्शनमोह कर्म के बन्ध का कारण है । (असद्भूत दोषों का प्रारोपण करने को 'अवर्णवाद' कहते हैं ।) ॥ ६-१४ ।।
ॐ विवेचनामृतक केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद करना दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध हेतु पात्रव हैं।
(१) केवली-राग-द्वेष रहित तथा केवलज्ञान से युक्त हो, वह केवली है। केवली-परमर्षि का अवर्णवाद अर्थात्-असत्य दोषारोपण करना।
___ जैसे-केवली लज्जारहित हैं क्योंकि वे नग्न फिरते हैं। समवसरण में होती अप्काय आदि की हिंसा का अनुमोदन करते हैं। कारण कि, हिंसा से तैयार हुए समवसरण का उपयोग करते हैं ।
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३४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।१४ सर्वज्ञ होने से मोक्ष के समस्त प्रकार के उपायों को जानते हुए तप-त्याग आदि क्लिष्टकठिन उपाय बताते हैं। तथा निगोद के स्थान में अनंत जीव नहीं हो सकते इत्यादि रूप में केवली भगवन्त का प्रवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का प्रास्रव है।
(२) श्रुत-धर्मशास्त्रों को द्वेषबुद्धि से असंगत कह उनका अवर्णवाद करना। जैसेअर्थ से सर्वज्ञविभु श्रीतीर्थंकर-जिनेश्वर भाषित तथा सूत्र से श्रीगणधर भगवान गुम्फित श्रीपाचारांग इत्यादि अंगसूत्र, श्रीग्रौपपातिक आदि उपांग सूत्र तथा छेद ग्रन्थ इत्यादि श्रुत हैं। ये सूत्र प्राकृत भाषा में-सामान्य भाषा में रचे हुए हैं। इनमें एक ही एक वस्तु का निरर्थक वर्णन बार-बार प्राता है। व्रत, षट्जीवनिकाय तथा प्रमाद प्रमुख का निरर्थक पुनः पुनः उपदेश पाता है। अनेक प्रकार के अयोग्य अपवाद भी बताए हैं। इत्यादि रूप में श्रुत का अवर्णवाद दर्शन मोहनीय का आस्रव है।
(३) संघ-साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका यह चार प्रकार का संघ है। साधु एवं साध्वी अपने देह-शरीर आदि की पवित्रता नहीं रखते हैं। कभी स्नान भी करते नहीं हैं। समाज को भाररूप होते हैं। समाज का अन्न खाने पर भी समाज की सेवा करते नहीं हैं। श्रावक और श्राविकाएँ स्नान को धर्म मानते नहीं, ब्राह्मणों को दान देते नहीं, तथा हॉस्पिटल इत्यादि आरोग्य के साधन बनाते नहीं। इत्यादि रूप में चतुर्विध संघ पर मिथ्या दोषारोपण करके अवर्णवाद बोलना वह दर्शनमोहनीय का प्रास्रव है ।
(४) धर्म-अहिंसादि स्याद्वादमयी परमोत्कृष्ट सद्धर्म का बिना जाने-समझे अवर्णवाद बोलना। अर्थात्-पंचमहाव्रत इत्यादि अनेक प्रकार के धर्म हैं। धर्म का प्रत्यक्ष फल दिखाई देता नहीं, इसलिए धर्म हंबक है। धर्म से ही सुख मिलता है, ऐसा नहीं है। क्योंकि धर्म करते हुए भी दुःखी और धर्म नहीं करते हुए भी सुखी देखे जाते हैं। इत्यादि रूप में धर्म का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय का प्रास्रव है।
(५) देव-भवनपत्यादि देवों का अवर्णवाद (निन्दा) करना। यहां देव शब्द से भवनपति इत्यादि देव विवक्षित हैं। 'देव हैं नहीं।' 'जो देव होते यहाँ क्यों नहीं पाते हैं ? 'देव मद्य-मांस का सेवन करते हैं।' इत्यादि रूप से देवों का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का प्रास्रव है।
तदुपरान्त भी कहा है कि -मिथ्यात्व के तीव्र परिणाम रखना, उन्मार्ग की देशना देनासुनना, धार्मिक लोक के दूषण देखना, असद् अभिनिवेश (कदाग्रह) करना तथा कूदेव आदि का सेवन इत्यादि भी दर्शनमोहनीय के प्रास्रव हैं। इन पास्रवों से भवान्तर में सद्धर्म नहीं मिले ऐसे कर्मों का बन्ध होता है।
* अति आवश्यक सूचना-जैसे दुःख का मूल संसार है, वैसे संसार का मूल दर्शनमोहनीयमिथ्यात्व है। इसलिए साधक जीव-प्रात्मा को जाने-अनजाने, भूले-चके भी सर्वज्ञविभु श्री केवली भगवन्त आदि का भी अवर्णवाद अपने से न हो जाय, उसकी सावधानी अवश्य रखनी चाहिए । देव इत्यादिक के विषय में बोलने से पहले पूरा विचार करना चाहिए। किसी का भी अवर्णवाद
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६।१५ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ३५ बोलना-लिखना महापाप है। इसलिए स्वयं अवर्णवाद नहीं बोले-लिखे। अन्य-दूसरे बोलें या लिखें तो उसमें भी हाँजी-हाँजी नहीं करनी। इतना ही नहीं उसको सुनना भी महापाप है। इसलिए उसके सुनने-वांचने में भी अधिक ही सावधानी रखने की जरूरत है ।। (६-१४)
* चारित्रमोहनीयकर्मणः प्रास्रवाः *
ॐ मूलसूत्रम्__ कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ ६-१५॥
* सुबोधिका टीका * राग-द्वेष-क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः वशीभूतः जीवः यदा-कदा तद्परिणामे परिणमति येन तस्य धर्मसाधनानि विनश्यन्ति, साधनेऽन्तरायाणि उद्भवन्ति; व्रतिनः व्रते शिथिलाः भवन्ति । कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्यास्रवो भवति ॥ ६-१५ ।।
* सूत्रार्थ-कषाय के उदय से प्रात्मा के जो तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे चारित्र मोहकर्म का बन्ध हुआ करता है ।। ६-१५ ।।
ॐ विवेचनामृत कषायोदयी तीव्र आत्मपरिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के बन्ध हेतु प्रास्रव हैं। अर्थात्कषाय के उदय से आत्मा के अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के प्रास्रव हैं।
(१) स्व तथा पर में कषाय उत्पन्न करने की चेष्टा करनी या कषाय के वश हो करके तुच्छ प्रवृत्ति करनी, वह कषाय मोहनीयकर्म के बन्ध का कारण है।
(२) सत्यधर्म का अथवा गरीब या दीन मनुष्य का उपहास करना, इत्यादि हास्यकारी वृत्ति से हास्य मोहनीय कर्म का बन्ध होता है ।
(३) अनेक प्रकार की क्रीड़ादिक में मग्न-लीन रहना, वह रति मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है।
(४) अन्य दूसरे को कष्ट पहुँचाना, किसी की शान्ति में बाधा डालनी इत्यादि अरति मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है।
(५) स्वयं शोकातुर रहना या शोकवृत्ति को उत्तेजित करना, वह शोक मोहनीयकर्म के बन्ध का कारण है।
(६) अपने में या अन्य में भय उपाजित करना, वह भय-मोहनीयकर्म का बन्ध हेतु है ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ ६।१६ (७) अहितकारी क्रिया तथा अहितकर आचरण जुगुप्सा-मोहनीयकर्म का बन्धहेतु होता है ।
(८-६-१०) ठगी अथवा परदोषदर्शन के स्वभाव से स्त्रीवेद और स्त्री-जाति योग्य या पुरुष जाति योग्य या नपुंसक जाति योग्य संस्कारों के अभ्यास से स्त्री, पुरुष, नपुसक वेद का यथाक्रम बन्ध होता है। ये सब चारित्र-मोहनीयकर्म के बन्ध हेतु प्रास्रव हैं। उक्त कथन का सारांश यह है कि
सम्यग्दर्शनादि गुण-सम्पन्न साधु-साध्वियों की तथा श्रावक-श्राविकाओं की निन्दा करनी, उन पर असत्य-झूठे आरोप लगाना, उनकी साधना में विघ्न खड़े करना-डालना उनके दोष-दूषणों को ही देखते रहना, स्वयं कषाय करना और अन्य-दूसरे को कषाय में प्रवृत्त करना इत्यादि संक्लिष्ट परिणामों से भवान्तर में चारित्र-दीक्षा की प्राप्ति न हो; ऐसे कर्मों का बन्ध होता है ।। (६-१५)
* नरकगतेः प्रायुष्यस्य प्रास्रवाः *
卐 मूलसूत्रम्बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥ ६-१६ ॥
* सुबोधिका टीका * बहुत्वं द्विविधं संख्यारूपं वैपुल्यरूपञ्च । 'मदियमिति' ममकाररूप संकल्पः परिग्रहः भवति । अनेन च संकल्पेन अनेकानेकभोगसामग्री - परिग्रहः प्रारम्भः । अस्यात्यधिकत्वं नरकायुषः बन्धनम् । बह्वारम्भता, बहुपरिग्रहता च नरकस्यायुष प्रास्रवो भवति ।। ६-१६ ।।
* सूत्रार्थ-अति प्रारम्भ और अति परिग्रह धारण करने से नरकायुष्य का प्रास्रव होता है ।। ६-१६ ।।
+ विवेचनामृत ॥ अतिशय प्रारम्भ और अतिशय परिग्रह नरकायु के प्रास्रव हैं । (१) 'जीवों को दु:ख हो' इस प्रकार की कषायपूर्वक प्रवृत्ति से महारम्भ करना । (२) धन तथा कुटुम्बादि पर ममत्व रख करके महापरिग्रह को बढ़ाने के लिए तीव्र अभिलाषा
इच्छा करनी। (३) पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा करना, अर्थात् उनका घात करना ।
मांसभक्षण इत्यादि कारण नरकायुष्य कर्मबन्ध के हेतु हैं ।
उक्त कथन का सारांश यह है कि-मांसाहार, पंचेन्द्रिय वध, कृष्णलेश्या के परिणाम, रौद्रध्यान तथा तीव्र कषाय प्रादि नरकगति के प्रास्रव हैं। इन पासवों से भवान्तर में नरक में जाना पड़े, ऐसे कर्मों के बन्ध होते हैं ।। ६-१६ ।।
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६।१७-१८ ]
षष्ठोऽध्यायः
[
३७
* तिर्यञ्चगतेः प्रायुष्यस्य प्रास्रवाः *
卐 मूलसूत्रम्
माया तैर्यग्योनस्य ॥६-१७॥
* सुबोधिका टीका * मायाचारं तैर्यग्योनस्यास्रवो भवति ॥ ६-१७ ।। * सूत्रार्थ-मायाचार करने से तिर्यग् आयुष्य का प्रास्रव होता है ।। ६-१७ ॥
+ विवेचनामृत माया-तिर्यंच योनि के आयुष्य का बन्ध हेतु प्रास्रव है । तियंचायुष्य
(१) माया-छल-कपट के भावों से पर को ठगना। (२) गूढ़माया-माया में माया। (३) कूड़तौलमाप।
(४) असत्य लेखादि का लिखना। ये सब तिर्यंच आयुष्यबन्ध के हेतु हैं ।
विशेष-कुधर्मदेशना, प्रारम्भ, परिग्रह, असत्य, अति अनीति, बहुकूट-कपट, नीललेश्या तथा कापोतलेश्या के परिणाम, एवं प्रार्तध्यानादिक भी तिर्यंच आयुष्य के प्रास्रव हैं। इन प्रास्रवों से भवान्तर में तियंचगति में, उत्पन्न होना पड़े, ऐसे अशुभ कर्मों का बन्ध होता है ।। ६-१७ ।।
* मनुष्यगतेः प्रायुष्यस्यास्त्रवाः * म मूलसूत्रम्अल्पाऽऽरम्भ-परिग्रहत्वं-स्वभावमार्दवाऽऽर्जवं च मानुषस्य ॥ ६-१८ ॥
* सुबोधिका टीका * अत्र अल्पशब्दः प्रयोजनीभूतार्थे प्रयुक्तः । येन स्वप्रयोजनं सिद्धयति तादृशारम्भः तावद् एव परिग्रहणम् । मनुष्यायुषः प्रास्रवस्य हेतू एवमेव मार्दवार्जवी अपि तद् हेतू । मानाभावम् मार्दवम्, मायाचाराभावं प्रार्जवम् । स्वल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्यायुष प्रास्रवो भवन्ति ॥ ६-१८ ।।
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३८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६१६ * सूत्रार्थ-अल्प प्रारम्भ, अल्प परिग्रह तथा स्वभाव की कोमलता और सरलता से मनुष्य-प्रायुष्य का प्रास्रव होता है ।। ६-१८ ।।
ॐ विवेचनामृत अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, मृदुता तथा लघुता ये मनुष्यायु के बन्ध हेतु आस्रव हैं । (१) स्वभाव से ही भद्रिक= सरल परिणामी होना। (२) मृदुता-नम्रता, गुणीजनों का विनयभाव करना। (३) दीन-दुःखियों पर दयाभाव लाना।
(४) अन्य-दूसरों को सम्पत्ति देखकर मत्सरता नहीं लाना। तथा अल्पारम्भ अल्पपरिग्रह अर्थात्-अपनी अपनी अभिलाषा-इच्छाओं को संयमित रखना। ये मनुष्यायुष्य बन्ध के हेतु हैं ।। ६-१८ ।।
* नरकायुष्यादित्रयाणां समुदितास्रवः * 卐 मूलसूत्रम्
निःशील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् ॥ ६-१६ ॥
* सुबोधिका टीका * स्वशीलाद् व्रतत्वाच्च च्युतः निःशीलवतं कथ्यते । नरक-तिर्यंच-मनुष्यायुष्याणां सर्वेषां बन्धहेतुरिति ।। ६-१६ ।।
* सूत्रार्थ-शीलरहित और व्रतरहितपने से सभी आयुष्यों का प्रास्रव होता है ।। ६-१६ ॥
विवेचनामृत ___निःशील और व्रतरहित होना सब आयुष्यों का बन्ध हेतु है। अर्थात्-शील और व्रत के परिणामों का प्रभाव नरक, तिथंच तथा मनुष्य इन तीनों आयुष्यों का प्रास्रव है। उपर्युक्त सूत्र १६-१७-१८ में उक्तायुषों के भिन्न-भिन्न बन्धहेतु बताए हैं ।
तथापि प्रस्तुत सूत्र में तीनों प्रायुषों का सामान्य बन्ध हेतु बताया गया है । (१) अहिंसा, सत्यादि पांच नियम हैं, वे व्रत कहलाते हैं ।
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६।२० ] षष्ठोऽध्यायः
[ ३६ (२) उनकी पुष्टि के लिए तीन गुणवत, चार शिक्षाव्रत तथा क्रोध, लोभादि का त्याग शील कहलाता है। इससे विपरीत होना ही निःशीलवत है, और इन बन्ध हेतुओं की तीनों आयुषों में सामान्यता पाई जाती है ।
पूर्वोक्त तद्-तद् आयुष्य के तद्-तद् आस्रव तो हैं ही। तदुपरान्त शीलव्रत के परिणाम का प्रभाव भी इन तीन प्रकार की आयुष्य का प्रास्रव है। * प्रश्न-शीलव्रत के परिणाम का अभाव जैसे नरकादि आयुष्य का आस्रव है, वैसे
देवगति के आयुष्य का भी आस्रव है। क्योंकि भोगभूमि में उत्पन्न हुए युगलिक जीव नियम से देवलोक में उत्पन्न होते हैं। उनके शीलव्रत के परिणाम का अभाव होता है। तो फिर यहाँ शीलव्रत के अभाव को तीन ही आयुष्य के
आस्रव तरीके क्यों कहा? । उत्तर-इस सूत्र में 'सर्वेषां' पद है। उस पद से तीन आयुष्य लेते हुए यह विरोध प्राता है। इसलिए इस 'सर्वेषां' पद से चारों आयुष्य ग्रहण करने में आ जाय तो यह विरोध न रहे । परन्तु प्रस्तुत सूत्र के भाष्य में 'सर्वेषां' पद से 'नरक, तिर्यंच और मनुष्य' ये तीन आयुष्य ही ग्रहण किये गये हैं। खुद सूत्रकार ही स्वयं भाष्यकार पूर्वधर महर्षि है। 'तत्त्वं तु केवलिनो ज्ञेयः' । अर्थात्-तत्त्व तो केवली भगवन्त जाने ।। ६-१६ ।।
* देवगतेरायुष्यस्य प्रास्रवाः * 卐 मूलसूत्रम्सरागसंयम-संयमासंयमा-ऽकामनिर्जरा बालतपांसि देवस्य ॥ ६-२० ॥
* सुबोधिका टीका * संयमविरतिव्रतशब्दाः पर्यायाः। अस्य लक्षणं हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव॑तम् ।
संयमासंयमौ देशविरतिर णुव्रतमित्यनर्थान्तरम् । देशसर्वतोऽणुमहती। इत्यपि वक्ष्यते। अकामनिर्जरा पराधीनतयानुरोधाच्चाकुशलनिवृत्तिराहारादिनिरोधश्च बालतपः । बालो मूढ इत्यनान्तरम्, तस्य तपो बालतपः ।
*
श्रमण-श्रमणीवर्ग के पांच महाव्रत हैं। इन महाव्रतों के पालन के लिए अवश्य पिण्डविशुद्धि, गुप्ति, समिति तथा भावना इत्यादि शील हैं। श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए पंच अणुव्रत हैं। उनके पालन के लिए भी अवश्य चार गुणव्रत, तीन शिक्षाव्रत, तथा अभिग्रह इत्यादि शील हैं। व्रतों का निरूपण इस तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के अ. ७ सू. १ में आयेगा। गुप्ति आदि का निरूपण अ.६ सू. २ से प्रारम्भ होगा। गुणवतों तथा शिक्षाव्रतों का वर्णन अ. ७ सू. १६ में आयेगा ।
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४०
]
श्रोतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६२
तच्चाग्निप्रवेशमरुत्प्रपातजलप्रवेशादि । तदेवं सरागसंयमः संयमासंयमादीनि च देवस्यायुष प्रास्रवा भवन्ति ।। ६-२० ।।
* सूत्रार्थ-सरागसंयम, देशविरति, अकामनिर्जरा तथा बालतप- देवायु के प्रास्रव हैं ॥ ६-२० ।।
विवेचनामृत सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुष्य के प्रास्रव होते हैं ।
(१) हिंसा तथा असत्यादि महत् दोषों के विरमण अर्थात् त्याग को संयम कहते हैं । संयम, विरति, व्रत ये सभी एकार्थवाची शब्द हैं। उसके होते हुए भी कषाय के अंश का जहाँ तक सम्पूर्ण रूप से प्रभाव नहीं हो वहाँ तक उसे 'सराग संयम' कहते हैं।
(२) अहिंसादिक व्रतों का यत्किञ्चिद् रूप से पालन करने को 'संयमासंयम' कहते हैं। संयमासंयम, देशविरति तथा अणुव्रत ये भी एकार्थवाची शब्द हैं ।
(३) स्वच्छन्दता या पराधीनता के कारण भोगवृत्ति से निवृत्त होना या कर्मों के भोग को 'प्रकाम-निर्जरा' कहते हैं ।
(४) बालतप-अर्थात् अविवेक अथवा मूढ़ भाव से जो तपश्चर्या की जाय। जैसे-अग्नि या जल में प्रवेश करना, पर्वत पर से झपापात करना अर्थात् नीचे गिरना। इस तरह मिथ्यात्व भाव से की हुई क्रियाओं को 'बालतप' कहते हैं। इत्यादि जो पास्रव हैं, वे देवायुष्यबन्ध के कारण हैं।
तदुपरान्त-कल्याणमित्र का सम्पर्क, धर्मश्रवण, दान, शील, तप, भावना, शुभ लेश्यापरिणाम, अव्यक्त सामायिक तथा विराधित सम्यग्दर्शन इत्यादिक भी देव आयुष्य के प्रावव हैं ।। ६-२० ॥
* अशुभनामकर्मणः प्रानवाः * ॐ मूलसूत्रम्योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ ६-२१॥
* सुबोधिका टीका * "मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद्धि पापिनाम्" मन-वचन-कायाभिः यस्य क्रिया एकत्वं नैव धारयति कथनेऽन्यत् मनसि अन्यत् कायभिरन्यत् कुटिलाः पापिनः भवन्ति । कायवाङ् मनोयोगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्न प्रास्रवो भवति ।
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[ ४१
एतादृशा: विसंवादिनः साधर्मिकैः सह कलहं श्रन्यद् वाऽन्यथा प्रवृत्तिभिः
अशुभनामकर्म बध्नन्ति ।। ६-२१ ।।
६।२१]
* सूत्रार्थ - योग हैं ।। ६-२१ ।।
षष्ठोऽध्यायः
की वक्रता और विसंवाद ये अशुभ नामकर्म के बन्धहेतु
5 विवेचनामृत 5
मन, वचन तथा काया इन तीन योगों की वक्रता - कुटिल प्रवृत्ति तथा विसंवादन अशुभ नामकर्म के प्रास्रव हैं ।
वक्रता है ।
( १ ) काययोग वक्रता - काया के रूपान्तर करके अन्य दूसरे को ठगना । यह काययोग
(२) वचनयोग वक्रता - सत्य - झूठ बोलना । वह वचनयोग वक्रता है ।
(३) मनोयोग वक्रता - मन में अन्य ही होते हुए भी लोकपूजा, सत्कार और सन्मान इत्यादि की खातिर बाह्य काया की तथा वचन की प्रवृत्ति भिन्न हो करनी, यह मनोयोग वक्रता है । (४) विसंवादन - पूर्वे स्वीकार की हुई हकीकत में कालान्तरे फेरफार करना इत्यादि । यह विसंवादन है ।
यद्यपि सामान्य से विसंवादन तथा वचनयोग वक्रता का अर्थ एक ही है । किन्तु सूक्ष्मदृष्टि से दोनों के अर्थ में भिन्नता यानी भेद है । केवल निज की मन, वचन तथा काया की प्रवृत्ति भिन्न पड़ती होवे तब तो योग्रवक्रता कहा जाता है, और अन्य-दूसरे के विषय में भी ऐसा हो तो वह विसंवादन कहा जाता है । अर्थात् - केवल अपनी विरुद्ध प्रवृत्ति वह योगवऋता है । तथा अपनी योग प्रवृत्ति के कारण अन्य दूसरे की भी विरुद्ध प्रवृत्ति हो तो वह विसंवादन कहा जाता है । जैसे- - भय आदि के कारण जो असत्य झूठ बोले तो वह वचनयोग वक्रता है । परन्तु एक को कुछ कहे और अन्य दूसरे को कुछ कहे, ऐसा कह करके एक-दूसरे को लड़ावे तो वह विसंवादन है । तथा नीति से चलने वाले को भी श्राड़ा, अवला, समझा कर अनीति करानी इत्यादि भी विसंवादन है । अर्थात् बचनयोग वक्रता में अपनी ही प्रवृत्ति विरुद्ध होती है, जबकि विसंवादन में अपनी और पर की भी प्रवृत्ति विरुद्ध बनती है ।
विशेष - मिथ्यादर्शन, पैशून्य, अस्थिर चित्त, खोटा माप-तौल रखना, असली चीज वस्तु में नकली चीज वस्तु का मिश्रण करना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्यहरण, महाप्रारम्भ, महापरिग्रह, कठोर वचन, असभ्य वचन ( व्यर्थ बक-बक करना), वशीकरण प्रयोग, सौभाग्योपघात इत्यादि भी अशुभ नाम करके आस्रव हैं ।। ६-२१ ।।
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[ ६।२२
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे * शुभनामकर्मणः प्रानवाः *
मूलसूत्रम्
तविपरीतं शुभस्य ॥ ६-२२॥
* सुबोधिका टीका *एतदुभयं विपरीतं शुभस्य नाम्न प्रास्रवो भवति । अर्थात् मन-वचन-कायभिः विसंवादिनी प्रवृत्तिश्च प्रशुभप्रवृत्तेरभावः शुभनामकर्मास्रवो भवति । अत्र शुभाऽशुभनामकर्मण व्याख्या कृता, किन्तु नामकर्मप्रवृत्तिषु तीर्थङ्करकर्म सर्वेषु उत्कृष्टतमः प्रधानतमश्च यस्योदयात् अर्हन्तभगवन्तः मोक्षमार्गे प्रवृत्ताः भवन्ति । अत एव तद् कर्मोत्कृष्टं वणितु बन्धकारणानि अपि ज्ञातव्यानि ।। ६-२२ ।।
* सूत्रार्थ-इनके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभ नामकर्म के बन्ध हेतु हैं ।। ६-२२ ।।
9 विवेचनामृत ॥ अशुभनामकर्म के प्रास्रवों से विपरीत भाव शुभनामकर्म के प्रास्रव हैं।
(१) योगवक्रता-मन, वचन, काय की कुटिलता (२) विसंवाद-अन्यथा प्रवर्तन करना ये अशुभ नामकर्म के बन्ध हेतु हैं ।
* प्रश्न-उपर्युक्त दोनों कारणों में क्या अन्तर है ?
उत्तर-योगवक्रता है, वह स्व विषयी है। अर्थात् अपने मन, वचन, काय की वक्रतापने प्रवृत्ति करनी तथा विसंवाद परविषयी है। अर्थात् अन्य-दूसरे को अन्य रास्ते प्रेरित करना।
उपर्युक्त कारणों की विपरीतता अर्थात्-मन, वचन और काय की सरलता तथा यथार्थ प्रवर्तन शुभ नामकर्म के बन्धहेतु हैं ।
विशेष-मन, वचन और काया की सरलता तथा प्रविसंवाद ये चार शुभ नामकर्म के मुख्य मास्रव हैं। तदुपरान्त धर्मीजीव-प्रात्मा के प्रति आदरभाव, संसारभय, तथा अप्रमाद इत्यादि भी शुभ नामकर्म के आस्रव हैं ।। ६-२२ ।।
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६।२३
]
षष्ठोऽध्यायः
[ ४३ * तीर्थङ्करनामकर्मणः प्रास्रवाः * के मूलसूत्रम्दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी संघ-साधुसमाधि-वैयावृत्त्यकरण
महदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहारिणमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ ६-२३ ॥
* सुबोधिका टीका * एतानि षोडशकारणानि षोडशकारणभावनानि कथ्यन्ते । अनेन निमित्तेनैव तोर्थङ्करप्रकृतेः बन्धो जायते। अत्राद्यकारणं दर्शनविशुद्धिः । दर्शनविशुद्धिगुणं विना न कोऽपि हेतु-गुणतीर्थङ्करकर्मबन्धहेतुर्भवति । यत् सम्यग्दृष्टि जीव एव तस्य बन्ध-प्रारम्भ-कारणं मन्यते । परमप्रकृष्टा दर्शनविशुद्धिः, विनयसम्पन्नता च, शीलवतेष्वात्यन्तिको भृशमप्रमादाऽनतिचारः, अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगः संवेगश्च । यथाशक्तितस्त्यागस्तपश्च, संघस्य साधूनां च समाधिवैयावृत्त्यकरणम्, अर्हस्वाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च परमभावविशुद्धियुक्ता भक्तिः सामायिकादीनामावश्यकानां भावतोऽनुष्ठानस्यापरिहाणिः, सम्यग्दर्शनादेः मोक्षमार्गस्य निहत्य मानं, करणोपदेशाभ्यां प्रभावना, श्रीअर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल-वृद्ध-तपस्वि-शक्ष-ग्लानादीनां च सङ्ग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति । एते गुणाः समस्ता व्यस्ता वा श्रोतीर्थकरनाम्न प्रास्रवा भवन्ति इति ।। ६-२३ ।।
* सूत्रार्थ-सम्यग्दर्शन की विशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अत्यन्त अप्रमाद, ज्ञान में सतत उपयोग, तथा सतत संवेग गुण का धारण, यथाशक्ति त्याग और तप, संघ और साधु मुनिराजों की समाधि तथा वैयावच्च करना, श्रीअरिहन्त, प्राचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन की विशुद्ध भाव से भक्ति, षड़ावश्यकों का भावपूर्वक अनुष्ठान, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य । इन समस्त कारणों से या दर्शनविशुद्धि सहित अन्य न्यूनाधिक कारणों से तीर्थंकर नामकर्म का प्रास्रव होता है ।। ६-२३ ।।
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४ [
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६।२३
ॐ विवेचनामृत दर्शनविशुद्धि, विनय, शीलव्रत में अप्रमाद, पुनः पुनः ज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्तित्याग और तप, संघ और साधुओं की समाधि तथा वैयावच्च, अरिहन्त, प्राचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन की भक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मोक्षमार्ग की प्रभावना एवं प्रवचन-वात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव हैं।
[१] दर्शनविशुद्धि-श्रीवीतरागविभु कथित तत्त्वों पर दृढ़ रुचि रखना। अर्थात्-शङ्कादिक पाँच अतिचारों से रहित सम्यग्दर्शन का पालन करना। यह 'दर्शनविशुद्धि' कही जाती है।
[२] विनयसम्पन्नता-ज्ञानादि मोक्षमार्ग का तथा उनके साधनों का बहुमान करना। अर्थात्--सम्यग्ज्ञान इत्यादि मोक्ष के साधनों का तथा उपकारी प्राचार्य आदि का योग्य सत्कार, सन्मान तथा बहुमान इत्यादि करना, यह विनयसम्पन्नता है।
(३) शीलवतादि-अपने नियमों को निरतिचार (दोषरहित) पने सेवन करना। अर्थात्---शील और व्रतों का प्रमाद रहित निरतिचारपने पालन करना, यह शीलवतादि है।
(४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-वारंवार-प्रतिक्षण वाचना आदि पाँच प्रकार के स्वाध्याय में रत रहना, वह अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।
(५) वारंवार संवेग-सांसारिक सुख से उदासीन भाव। अर्थात्- संसार के सुख भी दुःख रूप लगने से मोक्षसुख प्राप्त करने की इच्छा से उत्पन्न होते हुए शुभ आत्मपरिणाम, यह वारंवार संवेग है।
(६) यथाशक्ति त्याग–अपनी शक्ति के अनुसार न्यायोपार्जित वस्त्र-पात्र का सुपात्र में दान देना, यह यथाशक्ति त्याग है ।
(७) यथाशक्ति तप-अपनी शक्ति के माफिक बाह्य-अभ्यन्तर तप-तपश्चर्या का सेवन करना, वह यथाशक्ति तप है।
(८) संघ-साधु की समाधि-संघ में और साधुनों में शान्ति रहे ऐसा वर्तना। संघ में कभी भी अपने निमित्त से अशान्ति न हो ऐसा ध्यान रखना। और अन्य-दूसरे से हुई अशान्ति को दूर करने के लिए यत्न-प्रयत्न करना। श्रावक-श्राविकाओं को सद्धर्म में जोड़ना तथा साधुसाध्वी जी संयम का सुन्दर पालन कर सकें, इसके लिए सब शक्य करना इत्यादि । साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ है। साधुओं का संघ में समावेश हो जाने पर भी यहाँ साधुओं का अलग निर्देश संघ में श्रमण-साधुओं की मुख्यता-प्रधानता बताने के लिए है। अर्थात्"श्रमण प्रधान चतुर्विध संघ है।"
(8) संघ-साधनों का वैयावच्च-आर्थिक परिस्थिति में या अन्य कोई आपत्ति-विपत्तिसंकट में आये हुए सार्मिक श्रावक-श्राविकाओं को किसी भी प्रकार से सही रूप में अनुकूलता करनी । तथा त्यागी साधु-साध्वियों को आहार-पानी आदि का दान देना एवं शारीरिक अस्वस्थतामांदगी में औषधादिक से सेवा-भक्ति करनी इत्यादि । वह संघ-साधुओं का वैयावच्च (सेवाशुश्रूषा) है।
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६।२३ ]
षष्ठोऽध्यायः (१०) अरिहन्त भक्ति-रागादिक अठारह दोषों से जो रहित हैं, वे अरिहन्त कहलाते हैं। उनके गुणों की स्तुति, वन्दना तथा पुष्पादिक से पूजा इत्यादि अरिहन्त भगवान की भक्ति है।
(११) प्राचार्य भक्ति -पाँच इन्द्रियों का जय इत्यादि छत्तीस गुणों से जो युक्त हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। जब प्राचार्य महाराज पधारें तब बहुमानपूर्वक सामने जाना, वन्दन करना, तथा प्रवेश महोत्सव भी करना; इत्यादिक से प्राचार्य महाराज की भक्ति करनी।
(१२) बहुश्रुत-भक्ति-अनेक श्रुत को अर्थात् शास्त्रों को जानने वाला जो होता है, वह बहुश्रुत कहलाता है। उनके पास विधिपूर्वक अभ्यास करना, विनय करना, उनके बहुश्रुतपने की प्रशंसा-अनुमोदना करनी इत्यादि बहुश्रुत-भक्ति है।
(१३) प्रवचनभक्ति -प्रवचन यानी आगमशास्त्र इत्यादि श्रुत । नित्य नवीन-नवीन श्रुत का अभ्यास करना, अभ्यस्त श्रुत का प्रतिदिन परावर्तन करना, अन्य-दूसरे को श्रुत पढ़ाना तथा श्रुत का सर्वत्र प्रचार करना इत्यादि अनेक रीतियों से श्रुत की भक्ति हो सकती है ।
(१४) आवश्यक अपरिहारिण- जो अवश्य ही करना चाहिए; जिसके किये बिना नहीं चल सकता है, वह प्रावश्यक कहा जाता है। सामान्य से सामायिक इत्यादि 'छह' आवश्यक हैं । किन्तु यहाँ आवश्यक शब्द से संयम-निर्वाह के लिए जरूरी समस्त क्रियायें समझनी। संयम की सर्व प्रकार की क्रियाओं को भाव से समयसर विधिपूर्वक करना, 'प्रावश्यक अपरिहाणि' है ।
___ भाव से अर्थात् मानसिक उपयोगपूर्वक । उपयोग सिवाय के सभी धार्मिक अनुष्ठान द्रव्य अनुष्ठान हैं। ऐसे द्रव्यानुष्ठानों से आत्मकल्याण नहीं होता है।
(१५) मार्गप्रभावना-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ये तीन मोक्ष के मार्ग हैं। अर्थात् ये मोक्ष-प्राप्ति के उपाय हैं। मोक्षमार्ग की प्रभावना अर्थात् स्वयं मोक्षमार्ग का पालन करने के साथ अन्य दूसरे जीव भी मोक्ष का मार्ग पा सकें, इसलिए धर्मोपदेश आदि द्वारा मोक्षमार्ग का ही प्रचार करना; वह मार्गप्रभावना है।
(१६) प्रवचनवात्सल्य–यहाँ प्रवचन शब्द से श्रुतधर बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, शैक्ष्य तथा गण इत्यादि मुनि भगवन्त जानना। उन पर संग्रह, उपग्रह और अनुग्रह से वात्सल्यभाव रखना, वह प्रवचनवात्सल्य है।
संग्रह यानी ज्ञानाभ्यास आदि के लिए आये हुए पर समुदाय के साधु को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक स्वीकार करना, अपने पास रखकर के ज्ञानाभ्यास प्रादि कराना। उपग्रह या को जरूरी वस्त्र, पात्र तथा वसतिका आदि प्राप्त कराना। अनुग्रह यानी शास्त्रोक्त विधि प्रमाणे साधुओं को भक्त-पान आदि लाकर देना। अथवा प्रवचन यानी प्रवचन की श्रीजिनशासन-धर्म की आराधना करने वाला आराधक सामिक जानना।
जैसे-माता अपने पुत्र पर अकृत्रिम प्रेम-स्नेह धारण करती है, वैसे सार्मिक पर अकृत्रिम प्रम-स्नेह रखना वह प्रवचन वात्सल्य है। प्रवचन वात्सल्य धर्म के साध्य, साधकों पर अनुग्रह
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
६।२४
(उपकार) निष्काम स्नेह रखना इत्यादि कारण श्रीतीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करने के लिए बन्ध हेतु हैं। श्री अरिहन्तादिक वीश स्थानक पदों की आराधना से श्रीतीर्थकर नामकर्म बंधता है ।
श्री अरिहन्तादिक वीश पदों का प्रस्तुत सूत्र में कहे हुए प्रास्रवों में यथायोग्य समावेश हो जाता है। ये आस्रव समुदाय रूप से अथवा एक, एक, दो तीन इत्यादि भी तीर्थंकर नामकर्म के प्रास्रव हैं। इन आस्रवों के सेवन के साथ में जब विश्व-जगत के समस्त जीवों के प्रति विशिष्ट प्रकार की करुणा जगती है, तब श्रीतीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बन्ध होता है।
श्रीतीर्थंकर परमात्मा के जीव तीर्थंकर के भाव से तीसरे भव में श्रीअरिहन्त आदि (वोशस्थानक के) पदों की आराधना करते हैं। तथा अपने हृदय में शुभ विचार करते हैं कि"समस्त गुणसम्पन्न सर्वज्ञविभु श्री तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित स्फुरायमान दिव्यप्रकाश करने वाला प्रवचन होते हुए भी महामोह के तिमिर-अन्धकार से शाश्वत सुख की सच्ची राह नहीं दिखाने से अत्यन्त ही दुःखी और विवेक से रहित जीव अतिगहन महाभयंकर इस संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं। इसलिए "मैं इन जीवों को पुनीत प्रवचन अर्थात् श्री जैनशासन प्राप्त करा करके इस संसार-सागर से यथायोग्य पार उतारू।"
इस तरह विश्व के समस्त जीवों के प्रति सर्वोत्कृष्ट करुणा भावना भाते हैं। सर्वदा परार्थव्यसनी तथा करुणादिक अनेक गुणों से समलंकृत वे जीव मात्र के प्रति ऐसी शुभ भावमा भाकर के बैठे नहीं रहते हैं। किन्तु जिस-जिस रीति से जीवों का कल्याण होवे उसी-उसी रीति से शक्य यत्न-प्रयत्न करते हैं। इससे वे श्रीतीर्थकर नामकर्म का निकाचित बन्ध करते हैं ।। ६-२३ ॥
* नीचगोत्रस्य प्रास्रवाः * + मूलसूत्रम्परात्मनिंदाप्रशंसेसदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचर्गोत्रस्य ॥ ६-२४ ॥
* सुबोधिका टीका * परनिन्दात्मप्रशंसा सद्गुणाच्छादनमसद्गुणोद्भावनं चात्मपरोभयस्थं नीचैर्गोत्रस्यास्रवाः भवन्ति ।। ६.२४ ।।
* सूत्रार्थ-अन्य-दूसरे की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अन्य-दूसरे के सद्गुणों का पाच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन (प्रगट) करने से नीच गोत्रकर्म का प्रास्रव होता है ॥ ६-२४ ।।
विवेचनामृत [१] परनिन्दा--अन्य-दूसरे की निन्दा करना। अर्थात्-अन्य-दूसरे के विद्यमान वा अविद्यमान दोषों को कुबुद्धि से प्रगट करना, वह परनिन्दा है ।
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६।२५ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ४७ [२] प्रात्मप्रशंसा-अपनी बड़ाई करना। अर्थात्-स्व के विद्यमान अथवा अविद्यमान गुणों का स्वोत्कर्ष प्रगट करना, यह प्रात्मप्रशंसा है।
[३] सद्गुणाच्छादन- सद्गुणों को आच्छादित करना-ढकना। अर्थात्-पर के विद्यमान गुणों को ढकना, प्रसंगवशाद पर के गुणों को प्रकाश में लाने की जरूरत होते हुए भी ईर्ष्या इत्यादिक से प्रकाशित नहीं करना, वह सद्गुणाच्छावन है ।
[४] प्रसवगुणोद्भावन-अपने अविद्यमान गुणों को प्रगट करना। अर्थात्-अपने में गुण न होते हुए भी स्वोत्कर्ष साधने के लिए गुण हैं, ऐसा दिखावा करना, वह प्रसद्गुणोद्भावन है।
* तदुपरान्त-जाति आदि का मद, पर की अवज्ञा (तिरस्कार), पर की मसखरी, धार्मिकजन का उपहास, मिथ्याकीत्ति प्राप्त करनी, वडिलों का पराभव करना, इत्यादि भी नीच गोत्र कर्म के आस्रव हैं। अर्थात्-नीच गोत्र [नीच कुल] कर्म के बन्ध हेतु हैं ।। ६-२४ ।।
* उच्चगोत्रस्य प्रास्रवाः * ॐ मूलसूत्रम्तद्विपर्ययो नीचैवत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ ६-२५ ॥
* सुबोधिका टीका * स्वनिन्दा, परगुणप्रशंसा, परासद्गुणाच्छादनं च स्वसद्भूतगुणगोपनं अन्यसद्भूतगुणप्रकटनं नययुक्तव्यवहारः गर्वराहित्यव्यवहारादि गुणाः उच्चैर्गोत्रकर्मणः बन्धकारणानि भवन्ति ।
उत्तरस्येति सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चेर्गोत्रस्यास्रवा भवन्ति ।। ६-२५ ।।
* सूत्रार्थ-पूर्व सूत्र में बताये हुए भावों से विपरीत भाव अर्थात् प्रात्मनिन्दा, अन्य-दूसरे की प्रशंसा, अपने विद्यमान गुणों का प्राच्छादन, दूसरे के दुर्गुणों का आच्छादन तथा सद्गुणों का उद्भावन, नम्रतापूर्ण व्यवहार तथा गर्व रहित प्रवृत्ति उच्च गोत्रकर्म के प्रास्रव हैं ।। ६-२५ ।।।
+ विवेचनामृत) नीचगोत्र के उपर्युक्त कारणों से विपरीत कारण, अर्थात् स्वनिन्दा, परप्रशंसा, स्वसद्गुणाच्छादन और असद्गुणोद्भावन तथा नम्रवृत्ति एवं अनुत्सेक ; ये छह उच्च गोत्रकर्म के प्रास्रव हैं।
(१) स्वनिन्दा-अपने दोषों को प्रगट करना। (२) परप्रशंसा–पर के गुणों को प्रगट करना।
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श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ६ २६
(३) सद्गुणाच्छादन - स्वोत्कर्ष से बचने के लिए अपने विद्यमान गुणों को ढकना ।
(४) सद्गुणोद्भावन - अपने दुर्गुणों को प्रगट करना ।
यहाँ स्वनिन्दा और असद्गुणोद्भावन का अर्थ समान होते हुए भी अपनी लघुता बताने के लिए विद्यमान वा श्रविद्यमान अपने दोषों को प्रगट करना, ऐसा अर्थ जब करने में आ जाय तब और असद्गुणोद्भावन से विद्यमान दुर्गुणों को प्रगट करना ऐसा अर्थ करने में आ जाय तो दोनों के अर्थ में कंइक फेर पड़ जाय । अथवा आत्मनिंदा अर्थात् अपने में केवल दोष जोना- देखना, प्रगट नहीं करना तथा सद्गुणोद्भावन अर्थात् अपने दुर्गुणों-दोषों को बाहर प्रगट करना । ऐसा अर्थ करने में प्राये तो इन दोनों के अर्थ में भेद पड़ता है । अथवा पर के गुणों का प्रकाशन यह 'सद्गुणोद्भावन' है तथा पर के दोषों को ढांकना यह 'प्रसद्गुणाच्छादन' है ।
४८
इस अर्थ में परप्रशंसा तथा सद्गुण उद्भावन का अर्थ समान है। इससे विपरीत अर्थ करने में आ जाय तो स्वनिन्दा प्रादि चारों के अर्थ में भिन्नता होगी ।
(५) नम्रवृत्ति - गुणी पुरुषों के प्रति नम्रता तथा विनयपूर्वक वर्त्तना, वह नम्रवृत्ति है । (६) अनुत्सेक - विशिष्ट श्रुत आदि की प्राप्ति होते हुए भी गर्व अभिमान नहीं करना, यह सेक है ।
* तदुपरान्त - जाति आदि का मदश्रभिमान नहीं करना, पर की अवज्ञा नहीं करनी, मसखरी नहीं करनी, तथा घर्मीजीवों की प्रशंसा करनी, इत्यादि भी उच्चगोत्र कर्म के प्रास्रव हैं ।। (६-२५)
15 मूलसूत्रम् -
* अन्तरायकर्मरणः श्रास्रवाः
विघ्नकररणमन्तरायस्य ॥ ६-२६ ॥
* सुबोधिका टीका *
पञ्चविधोऽन्तरायकर्म । दानान्तरायं, लाभान्तरायं, भोगान्तरायं, उपभोगान्तरायं वीर्यान्तरायञ्च । दानलाभभोगोपभोगवीर्येषु यस्य कर्मरण: उदयेन साफल्यं नैव भवति अन्तरायं तच्च । दानादीनां विघ्नकरणमन्तरायस्यास्रवो भवति इति ।
१. जैसे स्वोत्कर्षं से बचने के लिए विद्यमान भी अपने गुणों को छिपाना यह दोष रूप नहीं है, किन्तु गुणरूप है; वैसे अपनी लघुता दिखाने के लिए अपने में अविद्यमान दोषों को भी कहना वह दोष रूप नहीं है, किन्तु गुणरूप है।
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६।२६ ] षष्ठोऽध्यायः
[ ४६ एते साम्परायिकास्रवस्य अष्टविधकर्मणः पृथक् पृथगास्रवविशेषाः भवन्ति । कार्माणवर्गणानां प्रात्मना सहकक्षेत्रावगाहो भूत्वा कर्मरूपपरिणमनं भवति। तस्य हेतु योगः कषायश्च । योगकषायाभ्यां जीवस्य मन-वचन-कायप्रवृत्तिः यादृशी भवति तादृशी परिणतिः भवति । सा हि स्वयोग्यतानुसाराष्टकर्मभिः यस्य यस्य बन्धस्य योग्यः जायते, तस्य तस्य कर्मणः बन्धोऽपि भवति ॥ ६-२६ ।।
* सूत्रार्थ-दान इत्यादि में विघ्न करने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है ॥ ६-२६ ।।
विवेचनामृत , दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय, ऐसे पाँच प्रकार का अन्तराय कर्म है। किसी को भोग, उपभोगादिक क्रियाओं में या दानादि देते हुए को रोकना अथवा उसमें विघ्न करना यह अन्तराय कर्म का बन्धहेतु है।
अर्थात्-दान-स्वपर के अनुग्रह की बुद्धि से स्व-वस्तु पर को देनी, यह दान कहा जाता है। लाभ-वस्तु की प्राप्ति होना, इसे लाभ कहा जाता है। भोग-एक ही बार भोग कर सके, ऐसे शब्दादि विषयों का उपयोग करना, यह भोग कहा जाता है। उपभोग-अनेक बार भोग कर सके. ऐसी स्त्री तथा वस्त्रादिक पदार्थों का भोग करना, यह उपभोग कहा जाता है। तथा वीर्यआत्मिक शक्ति को वीर्य कहा जाता है। इन पाँचों का अन्तराय करना क्रमशः दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्त राय कहे जाते हैं ।
(१) दानान्तराय-दान देने वाला दान नहीं दे सके ऐसे प्रयत्नपूर्वक दान में अन्तराय (विघ्न) करना। ज्ञानदान इत्यादि अनेक प्रकार के दान हैं। जिस-जिस दान में विघ्न करने में आवे, वह-वह दानान्तराय कर्म बांधता है। जैसे-ज्ञानदान में अन्तराय करने से ज्ञान दानान्तराय कर्म का बन्ध होता है। उस कर्म के उदय में आने पर ज्ञान होते हुए भी अन्य-दूसरे को ज्ञान नहीं दे सकते हैं।
किसी के सत्कार-सम्मान के दान में अन्तराय करने से गुणीजन को सत्कार-सम्मान इत्यादि का दान नहीं कर सके ऐसे कर्मों का बन्ध होता है। इसी माफिक सुपात्रदान तथा अभयदान आदि में भी जानना।
(२) लाभान्तराय--ज्ञान तथा धन इत्यादिक की प्राप्ति में अन्य-दूसरे को विघ्न करने से ज्ञान और धन इत्यादिक का लाभान्तराय कर्म बँधता है। जैसे-दूसरे को ज्ञान की प्राप्ति में विघ्न करना, चोरी तथा अनीति इत्यादि करके अन्य-दूसरे के धनलाभ में अन्तराय करना इत्यादि ।
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[
६।२६
(३) भोगान्तराय-चाकर-नौकर इत्यादिक को समयसर खाना न देना, या समयसर खा न सके ऐसे कार्य बताना इत्यादि कारणों से दूसरे के भोग में अन्तराय करने से भोगान्तराय कर्म का बन्ध होता है।
(४) उपभोगान्तराय-परस्त्री का अपहरण करना तथा क्लेश-कंकास कराना इत्यादि कारणों से स्त्री आदि के उपभोग में विघ्न करने से उपभोगान्तराय कर्म का बन्ध होता है ।
(५) वीर्यातराय-अन्य-दूसरे की शक्ति का विनाश करना, धार्मिक कार्यों में शक्ति के अनुसार प्रवृत्ति नहीं करनी, किसी के तप इत्यादि के उत्साह को निरुत्साहित करना, तथा अन्य के तप आदि में अन्तराय करना इत्यादि कारणों से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है ।
प्रत्येक मूल कर्म के साम्परायिक प्रास्रव, जो सूत्र ११ से २६ तक भिन्न-भिन्न रूप से कहे गए हैं, वे तो उपलक्षण मात्र हैं। इसके सिवाय अन्य और भी बहुत से प्रास्रव हैं, जिनका निर्देश यहाँ नहीं किया है। जैसे-आलस्य, प्रमाद, मिथ्या उपदेशादि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय के तथा वध, बन्धन और ताड़नादि अशुभ प्रयोग असातावेदनीय इत्यादि प्रत्येक कर्म के और भी प्रास्रव हैं। * प्रश्न-इन सूत्रों में प्रत्येक मूलप्रकृति के जो पृथक् रूप से प्रास्रव कहे गये हैं, उन ज्ञान
प्रदोष इत्यादि प्रास्रव में मात्र अपने-अपने ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध होता है कि एक ज्ञानप्रदोष आस्रव से ज्ञानावरणीय कर्म के उपरान्त अन्य समस्त कर्मों का भी बन्ध होता है ? यदि एक कर्म-प्रकृति के प्रास्रव समस्त कर्मप्रकृतियों के बन्धक हैं, ऐसा कहेंगे तो पृथग्-भिन्नरूप से आस्रवों का कथन करना व्यर्थ है ? क्योंकि, वह समस्त कर्म-प्रकृतियों का बन्धक होता है, और यदि ज्ञानप्रदोषादि प्रास्रव अपनी ही प्रकृति के बन्धक हैं, इस तरह कहेंगे तो शास्त्रकथित नियम से विरोध पाता है ? समस्त शास्त्रों का तो मन्तव्य यह है कि-आयुष्य कर्म को छोड़ करके शेष ज्ञानावरणीयादि सातों प्रकृतियों का बन्ध प्रति समय हुअा ही करता है। इस नियम के अनुसार ज्ञानावरणीय कर्म बांधता हुवा शेष 'छह' कर्मों का बन्धक है। क्योंकि-केवल आयुष्य कर्म का बन्ध ही जीवनभर में एक ही बार होता है, और वह भी एक समयवर्ती रहता है। ऐसा मानते हैं तो एक समय में एक कर्म-प्रकृति का आस्रव एक ही कर्म का बन्धक होता है। वह शास्त्रीय नियम से बाधित होता है क्योंकि वहाँ प्रकृति के अनुसार प्रास्रव करने का क्या हेतु है ? और किस उद्देश्य से ये विभाग करने में आये हैं ?
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६।२६ ]
षष्ठोऽध्यायः उत्तर-कर्म का बन्ध चार प्रकार से होता है। प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध और प्रदेशबन्ध। इनका विस्तारपूर्वक वर्णन तो कम्मपयडी में या कर्मग्रन्थ में मिलेगा।
यहाँ तो केवल रसबन्ध को लक्ष्य में लेकर ही उक्त विभाग किये गये हैं। एक प्रकृति के आस्रव को सेवन करते समय अन्य-दूसरी प्रकृतियों का जो बन्ध होता है, वह बहुधा प्रदेशबन्ध की अपेक्षा से जानना चाहिए। अर्थात्-शास्त्रकथित सात, आठ कर्म का बन्ध जो प्रति समय मानने में आया है, उसमें प्रायः करके प्रदेशबन्ध की मुख्यता ही युक्त है। ऐसा मानने से शास्त्रीय नियम में भी बाधा नहीं आती है। कारण कि, प्रस्तुत आस्रव का विभाग तथा शास्त्रोक्त नियम अबाधित रूप से रह सकते हैं। किन्तु अनुभाग यानी रसबन्ध की मुख्यता है और शेष प्रकृति, स्थिति तथा प्रदेशबन्ध की गौणता है तथा अन्य प्रकृतियों के अनुभाग (रस) बन्ध की गौणता रहती है। अर्थात्-ज्ञानावरणीय कर्म के प्रदोष आदि आस्रव सेवन करते समय ज्ञानावरणीय कर्म के अनुभाग बन्ध की मुख्यता और शेष सात कर्म के रसबन्ध की गौणता रहती है किन्तु इसमें यह नहीं समझना कि एक समय एक प्रकृति का रसबन्ध होते समय अन्य प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है। उसी समय में कषाय द्वारा उन प्रकृतियों का अनुभाग (रस) बन्ध भी सम्भवित है ।
प्रस्तुत आस्रव विभाग में अनुभाग बन्ध की ही मुख्यता, अपेक्षा युक्त है ।। (६-२६)
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५२ ]
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
5 श्रोतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य षष्ठाध्यायस्य सारांश: फ्र
१ ।।
कायिकं वाचिकं कर्म मानसं वा कृतं क्वचित् । इत्येषस्त्रिविधोयोगः, तस्य भेदौ शुभाशुभौ || यो हि एषस्त्रिविधोऽपि संज्ञरास्रव जायते । शुभं वाऽप्यशुभं कर्म तेषामास्रवणाऽऽस्रवः ।। २ ।। पुण्यास्रवः सुयोगश्च पापस्याऽशुभमुच्यते । सकषायाऽकषाययोः, तथा वै साम्परायिकम् ।। ३ ।। श्रा सम्यग् वै पराभूतिः, सम्परायः पराभवः । जीवानां कर्मभिश्चोक्तं, तदर्थं साम्परायिकम् ।। ४ ।। भेदा साम्परायिकस्य, नवस्त्रिशद् हि संख्यकाः । पंचहिंसाऽनृतस्तेया, अन्या ब्रह्मपरिग्रहाः ॥ ५ ॥ साम्परायिकभेदेषु, हेतु वैशिष्यवर्णनम् । श्रधिकरणमप्युक्तं, तस्य भेदाऽपि दर्शिताः ।। ६ ।। भावाधिकरणं रूपं, जीवाधिकरणमपि । अजीवाधिकरणानां भेदाः सर्वे प्रकीर्तिताः ।। ७ ।। ज्ञानावरण कर्मणः, दर्शनावरणस्य च । हेतुभूतास्रवाभेदाः, सविशेषा विमर्शिता ॥ ८ ॥ खल्वसद्वेद्यबन्धस्य, बन्धसद्वेद्यकर्मणोः ।
कारणानि समस्तानि, व्याख्यातानि विशेषतः ।। ६ ।। तैर्यग्योनस्य माया हि मानुषस्यास्रवोऽपि च ।
निःशीलव्रतः सर्वेषां श्रास्रवो जायते ध्रुवम् ।। १० ।। सरागसंयमश्चापि, संयमासंयमौ खलु । देवायुषरास्रवा हि जायन्ते इति निश्चितम् ।। ११ ।। तीर्थकृत्वस्य कर्मणः, षोडशहेतुरावा | येऽपि दर्शनविशुद्धाः, गुणाः सर्वे प्रकीर्तिताः ।। १२ ।। नीचोच्चकर्मणोः प्राहुः, आस्रवाणां हि कारणम् ।
भवति चान्तरायस्य, विघ्नमात्रवकारणम् ।। १३ ।।
[ सारांश
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प्रशस्ति: ]
षष्ठोऽध्यायः
ANANDAMANASAMAadamaadaadamadam.indiadiamamal
इति श्रीशासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति-भारतीयभव्यविभूति-महाप्रभावशाली-अखण्डब्रह्मतेजोमूत्ति -श्रीकदम्बगिरिप्रमुखानेकप्राचीनतीर्थोद्धारक- श्रीवलभीपुरनरेशाद्यनेकनृपतिप्रतिबोधक - चिरन्तनयुगप्रधानकल्पवचनसिद्धमहापुरुष - सर्वतन्त्रस्वतन्त्र-प्रातःस्मरणीय -परमोपकारि- परमपूज्याचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वराणां दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद-कविरत्न - साधिकसप्तलक्षश्लोकप्रमाणनूतनसंस्कृतसाहित्यसर्जक-परमशासनप्रभावक - बाल ब्रह्मचारी-परमपूज्याचार्यप्रवर - श्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वराणां प्रधानपट्टधर-धर्मप्रभावक-शास्त्रविशारद-कविदिवाकर-व्याकरणरत्न-स्याद्यन्तरत्नाकराद्यनेक -ग्रन्थकारक-बालब्रह्मचारो-परमपूज्याचार्यवर्य - श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वराणां सुप्रसिद्ध - पट्टधरजैनधर्मदिवाकर-तीर्थप्रभावक-राजस्थानदीपक-मरुधरदेशोद्धारक-शास्त्रविशारदसाहित्यरत्न-कविभूषण-बालब्रह्मचारि-श्रीमद्विजयसुशीलसूरिणां श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य षष्ठोऽध्यायस्योपरि विरचिता 'सुबोधिका टीका' एवं तस्य सरलहिन्दीभाषायां 'विवेचनामृतम् ।'
AndMAMALAMANANAMAMAN
Amalabadal AMMMMMMMS MastramAnandamadamaadha
rrrrrrrrrrrrr
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मूलसूत्रकार- पूर्वघर महर्षि पूज्य वाचकप्रवर श्री उमास्वाति जी महाराज हिन्दी पद्यानुवादक - शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण - पूज्याचार्य श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वर जी महाराज
5 मूलसूत्रम् -
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के छठे अध्याय का * हिन्दी पद्यानुवाद
* प्रात्रव की व्याख्या तथा भेद-प्रभेद
कायवाङ्मनः कर्मयोगः ॥ १ ॥
स प्रस्रवः ॥ २ ॥
शुभः पुण्यस्य ॥ ३॥
अशुभः पापस्य ॥ ४॥
सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ५ ॥
व्रत- कषायेन्द्रिय-क्रिया: पंच चतुः - पंच-पंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ६॥ तीव्रमन्द-ज्ञाताज्ञातभाव- वीर्य्याधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।। ७ ।।
* हिन्दी पद्यानुवाद
काय वचन मनथकी जो, कर्म वह योग ही कहूँ ।
वे ही प्रास्रव सूत्र पाठे, समझकर मैं सद्दहूँ || पुण्य के प्रास्रव जो हैं, उत्तम उनको वर्णव्या । पाप के प्रास्रव जो हैं, अशुभ उनको पाठव्या ॥ १ ॥ साम्परायिक प्रास्रव कहा, सकषायी योग के । ईर्यापथिक भी प्रास्रव कहा, प्रकषायी योग के ॥ साम्परायिक श्रास्रव के भी, उनचालीस प्रभेद हैं ।
तथा ईर्यापथिक प्रस्रव का
एक ही प्रभेद है ।। २ ।।
"
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हिन्दी पद्यानुवाद ]
षष्ठोऽध्यायः
प्रथम भेदे प्रतिभेद संख्या, उनचालीस की कही। उसकी गणना मैं करूं, सुनिए स्थिरता ग्रही ।। अव्रत के भेद पाँच हैं, कषाय के भी चार हैं। इन्द्रिय के भेद पाँच हैं, तथा क्रिया के पच्चीस हैं ।। ३ ।। यों मिलकर सभी ए, उनचालीस भेद हैं। इन प्रत्येक के षट् कारणे, तरतमता रहती है ।। तीव्रभावे मंदभावे, ज्ञात और अज्ञानता । वीर्य अरु अधिकरण धरते, कर्मबन्ध विशेषता ।। ४ ।।
* अधिकरण का वर्णन * ॐ मूलसूत्रम्
अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥ ८ ॥ प्राद्यं संरम्भसमारम्भारम्भ-योग-कृतकारितानुमतकषाय-विशेषस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ।। ६ ॥
निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्विचतुर्वित्रिभेदाः परम् ॥ १०॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
अधिकरण के भेद दो हैं, जीव और अजीव से । आद्य जीव अधिकरण जाण, अष्टोत्तर शत भेद से ।। उसकी रीत प्रब वदतां, सुनिये भविक एकमना । सूत्र नवमे उस गणना, की धरो हे भविजना ! ।। ५ ।। समरम्भ समारम्भ और प्रारम्भ तीसरा कहा । मन-वचन-काय योगे, गिनते भेद नव कहा ॥ कृत कारित अनुमति से, होते सत्तावीस खरा । कषाय चार से अष्टोत्तर-शतभेद कहा श्रुतधरा ।। ६ ।। तथा अजीव अधिकरण के, चार भेद ही जानना। प्रतिभेद दो और चार से, तथा भेद दो-तीन मानना ।। निवर्त्तना है भेद दोय से, निक्षेप होते चार से । संयोग के दो भेद साधी, निसर्ग तीन विचार से ।। ७ ।।
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५६ ]
5 मूलसूत्रम्
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
* पहली चार कर्मप्रकृतियों के श्रात्रव
* हिन्दी पद्यानुवाद
तत्प्रदोष-निह्नव मात्सर्यान्तराया - सादनोपघाता ज्ञान- दर्शनावरणयोः ॥ ११ ॥ दुःख-शोक- तापाक्रन्दन-वध- परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥ १२ ॥ भूतव्रत्यनुकम्पादानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ॥ १३ ॥ केवलि - श्रुत-संघ - धर्म -देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥ १४ ॥ कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ १५ ॥
प्रदोष निह्नव किये ईर्ष्या, अन्तराय आशातना । उपघात करते कर्म बाँधे, जीव ज्ञानावरणका || दर्शनावरणीय बँधे, पूर्व कारण जानना । कर्म तीसरा क्यों बँधे, सुनो भविजन एकमना ।। ८ ।।
कृत और कारित दुःख, शोक संताप प्राक्रंदन तथा ।
वध एवं परिदेवनादि, स्वयं और अन्य तथा ।। कर्म अशातावेदनीय को, बाँधते हैं जीव बहु । उससे विपरीत रीत को, अन्य कारण हैं बहु ॥। ९ ॥
[ हिन्दी पद्यानुवाद
दिल में दया जीव को व्रती की, दान धर्मे स्थिरता ।
सराग संयम योग आदि, कर्म शाता वेदनीय को, मोहनीयद्वय किम बँधे,
क्षमा शुचिता धारता ।। बाँधते इम भविजना । सुनो कारण कर्म का ।। १० ।। केवली श्रुत संघ धर्म, देव की निंदा करते । दर्शनमोहनीय बँधे, भवविटम्बन विस्तरे || कषाय उदये तीव्र भावे, चारित्रमोहज बाँधता । सर्वशिरोमणि मोह बढ़ता, भव परम्परा साधता ।। ११ ॥
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हिन्दी पद्यानुवाद ] षष्ठोऽध्यायः
[ ५७ * प्रायु और नामकर्म के प्रास्रव * 卐 मूलसूत्रम्
बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ॥ १६ ॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥ १७ ॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुषस्य ॥ १८ ॥ निःशीलवतत्वं च सर्वेषाम् ॥ १६ ॥ सराग संयम-संयमासंयमा-कामनिर्जरा बालतपांसि देवस्य ॥ २० ॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ २१ ।।
विपरीतं शुभस्य ॥ २२ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
बहु प्रारम्भी परिग्रहों को, ग्रहण करते कर्म से । नरक गति की आयु बँधती, शास्त्र समझना मर्म से ।। कपट भाव से आयु बँधती, गति तिर्यंच जाति की। तथा मनुष्यायु बँधती, कहता हूँ भली-भाँति की ।। १२ ।। प्रारम्भ परिग्रह अल्प धरता, मदुता तथा सरलता । मनुष्य गति की आयु बँधे, सुनो मनधर एकता । शील रहित से सर्व प्रायु, बाँधते जीव सर्वदा । देवायुबन्धन हेतु को, सुनी हनना सर्व प्रापदा ॥ १३ ।। सरागसंयम देशविरति, अकामनिर्जरा भावना । बालतप आदि सर्व ए, आयुष्य बाँधे देव के ।। वक्रता धरे योग की तथा, विसंवाद धारते । बँधता अशुभ नामकर्म, - शुभ नाम विपरीत वास्ते ॥ १४ ।।
. * तीर्थकर नामकर्म के बन्ध हेतु * ॐ मूलसूत्रम्
दर्शनविशुद्धि-विनयसम्पन्नता - शीलवतेष्वनतिचारो-ऽभीक्षणं ज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी संघ-साधुसमाधि-वैयावृत्यकरण-महंदाचार्य - बहुश्रुत - प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणि-मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २३ ॥
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५८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
[ हिन्दी पद्यानुवाद * हिन्दी पद्यानुवाद
दर्शनविशुद्धि विनय और, निरतिचारी शीलधरा। ज्ञानोपयोग संवेग शक्ति, त्याग तप धरता नरा। संघ तथा साधुसमाधि, नहीं वैयावच्च त्यजता । अरिहंतसूरि बहुश्रुतों की, भक्ति प्रवचन करता ॥ १५ ।। अवश्य करणी षट्प्रकारी, निरन्तर धरता जना। मोक्षमार्ग प्रकाश भावे, आदर अति शासन का ।। जिननाम कर्म उत्तम धर्म, पुण्य की उत्कृष्टता । जीव बाँधे उदय आये, पद तीर्थंकर साधता ॥ १६ ॥
* गोत्र और अन्तराय कर्मप्रकृति के प्रास्रव के
ॐ मूलसूत्रम्
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥ तद्विपर्ययो नीचर्वत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥ २५ ॥
विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २६ ॥ * हिन्दी पद्यानुवाद
परकी निन्दा आत्मश्लाघा, परसद्गुण को ढांकते । गुण नहीं हैं, मुझ महीं, ऐसे वह नित्य प्रकाशते । नीच गोत्र बन्धे अशुभ भावे, जीव बहुविध जात के । वह बन्धन तुम छोड़ने को, यत्न करना विशेष से ।। १७ ।। इससे विपरीत भावे, नम्रता घरता सदा। अभिमान तजतां गोत्र बन्धे, उच्च के भवि जीव सदा ।। दान लाभ ही भोगोपभोगे, वीर्यगुण की विघ्नता । करतां थकां अन्तराय बन्धे, सुनो मन कर एकता ।। १८ ।।
तत्त्वार्थाधिगमे सूत्रे, हिन्दीपद्यानुवादके ।
पूर्णः षष्ठोऽयमध्याय, प्रास्रवतत्त्वबोधकः ॥ ६ ॥ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र के षष्ठाध्याय का हिन्दी पद्यानुवाद पूर्ण हुआ ॥
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परिशिष्ट-१
mommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmen । * श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य षष्ठाध्यायस्य जैनागमप्रमारणारूप
आधारस्थानानि * ॐ षष्ठोऽध्यायः ॥
卐 मूलसूत्रम्
काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः ॥ ६-१ ॥ ॐ तस्याधारस्थानम्तिविहे जोएपण्णत्ते। तं जहा-मणजोए, वइजोए, कायजोए ।
[ श्री व्याख्या प्रज्ञप्ति, शतक १६, उद्दे. १ सूत्र ५६४ ] 卐 मूलसूत्रम्
स प्रास्रवः ॥ ६-२॥ * तस्याधारस्थानम्
पंच पासवदारा पण्णत्ता। तं जहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया, जोगा।
[ श्रीसमवायाङ्ग सूत्र, समवाय ५ ] ॐ मूलसूत्रम्
शुभः पुण्यस्य ॥ ६-३ ॥
अशुभः पापस्य ॥ ६-४ ॥ * तस्याधारस्थानम्पुण्णं पावासयो तहा।
[श्रीउत्तराध्ययन-२८ गाथा-१४ ] 卐 मूलसूत्रम्
सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥६-५॥ * तस्याधारस्थानम्
जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोह-माण-माया-लोभावोच्छिन्ना अवोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं संपराय किरिया कज्जइ नो ईरियावहिया।।
[श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-७ उद्दे. १ सूत्र २६७ ]
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६० ].
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-१
卐 मूलसूत्रम्_अवत-कषायेन्द्रियकियाः पञ्चचतुः पञ्च पञ्च पञ्चविंशति-संख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ६-६॥ * तस्याधारस्थानम्
पंचिदिया पण्णत्ता....चत्तारि कसाया पण्णत्ता....पंच अविरय पण्णत्ता....पंचवीसा किरिया पण्णत्ता.... ।
[श्रीस्थानाङ्ग स्थान २ उद्देश्य १ सूत्र ६० ] ॥ इन्दिय १ कषाय २ अव्यय ३ जोगा ६ पंच १ चऊ २ पंच ३ तिन्नि कसाया किरियानो पणवीस इमानो अणुक्कमसो।।
[नवतत्त्व प्रकरण गाथा १४ ] 卐 मूलसूत्रम्
तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ऽज्ञातभाव-वीर्या-ऽधिकरण-विशेषेभ्यस्तविशेषः ॥ ६-७ ॥ * तस्याधारस्थानम्
जे केइ खद्दका पाणा, अदु वा संति महालया । सरिसं तेहिं वेरंति, असरिसं ती व वदे ॥६॥ एएहि दोहि ठाणेहि, ववहारो ण विज्जई । एएहि दोहिं ठाणेहि, प्रणायारं तु जाणए* ॥७॥
___ [ श्रीसूत्रकृताङ्ग श्रुतस्कन्ध २ अ. ५ गाथा ६-७ ] * व्याख्या
ये केचन क्षुद्रकाः सत्त्वाः प्राणिनः एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रीयादयोऽल्पकाया या पञ्चेन्द्रिया अथवा महालया महाकायाः संति विद्यन्ते, तेषां च क्षुद्रकाणामल्पकायानां कुन्थ्वादीनां महानालयाः शरीरं येषां ते महालयाः हस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने, सदृशं, वैरमिति, वज्र कर्मविरोधलक्षणं वा वैरं तत् सदृशं समानम्, अल्पप्रदेशत्वात्सर्वजंतूनामित्येवमेकान्तेन नो वदेत् । तथा विसदृशम् असदृशं तद्व्यापत्तौ वैरं कर्मबन्धो विरोधो वा इन्द्रियविज्ञानकायानां विसदृशत्वात् सत्यपि प्रदेश अल्पत्वेन सदृशं वैरमित्येवमपि नो वदेत् । यदि हि वध्यापेक्ष एव कर्मबन्धः स्यात् तदा तत् तद्वशात् कर्मणोऽपि सादृश्यमसादृश्यं वा वक्तुयुज्यते । न च तद्वशाद् एव बंधः, अपित्वध्यवसायादपि । ततश्च तीव्राध्यवसायिनोऽल्पकाय-सत्त्वव्यापादनेऽपि महद्वैरम् । अकामस्य तु महाकायसत्त्वव्यापादनेऽपि स्वल्पमिति ।। ६ ।।
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परिशिष्ट-१ ]
षष्ठोऽध्यायः ___ एतदेव सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-प्राभ्यामनन्तरोक्ताभ्यां स्थानाभ्यामनयर्वा स्थानयोरल्पकायमहाकायव्यापादनापादितकर्मबन्धसदृशत्वयो र्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्नयुज्यते ।
तथाहि-न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव । कर्मबन्धस्य कारणं । अपि तु वधकस्य तीवभावो मन्दभावो ज्ञातभावोऽज्ञातभावो महावीर्यत्वमल्पवीर्यत्वं चेत्येतदपि ।
तदेवं वध्य-वधकयोविशेषात्कर्मबन्धविशेष इत्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य, सदृशत्वासदृशत्वव्यवहारो न विद्यते इति । तथाऽनयोरेव स्थानयोः प्रवृत्तस्यानाचार, विजानीयादिति ।
तथाहि-यज्जीवसाम्यात् कर्मबन्धसदृशत्वमुच्यते, तद् अयुक्तम् ।
यतो न हि जीवव्यापत्त्या हिंसोच्यते, तस्य शाश्वतत्वेन व्यापादयितुमशक्यत्वात् । अपि त्विद्रियादिव्यापत्त्या तथा चोक्तम्-पञ्चेन्द्रियाणि, त्रिविधं बलं च उच्छ्वासनिः श्वासमथान्यदायुः ।
प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ।। १ ।। इत्यादि । अपि च भावसव्यपेक्षस्यैव, कर्मबन्धोऽभ्यपेतुयुक्तः ।
तथाहि-वैद्यस्यागमसव्यपेक्षस्य, सम्यक् क्रियां कुर्वतो, यद्यप्यातुरविपत्तिर्भवति, तथापि न वैराषङ्गो भावदोषाभावाद् । अपरस्य तु सर्पबुद्धया रज्जुमपि घ्नतो भावदोषात् कर्मबन्धः ।
तद् रहितस्य तु न बन्ध इति । उक्त चागमे, उच्चालयमिपाए। इत्यादि तण्डुलमत्स्याख्यानकं तु सुप्रसिद्धमेव तदेवं विधवध्यवधकभावापेक्षया स्यात् । सदृशं स्याद् असदृशत्वमिति । अन्यथाऽनाचार इति ।। ७ ।।
[ श्रीशीलाङ्काचार्यकृत वृत्तिः ] 卐 मूलसूत्रम्
अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥ ६-८ ।। * तस्याधारस्थानम्जिवे अधिकरणं ।
[श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-१६, उद्देश-१] एवं अजीवमवि ।
[श्री स्थानांग स्थान २, उ. १, सूत्र ६०]
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६२ ]
-
मूलसूत्रम्
श्राद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारिताऽनुमत कषायविशेषैस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चं
कशः ।। ६ ।
* तस्याधारस्थानम्
0
संरम्भसमारम्भे प्रारम्भे य तहेव य ।
O
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ श्रीउत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन - २४, गाथा - २१]
तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायणं न करेमि न कारवेमि करतं पि श्रन्नं न समणुजाणामि ।
* तस्याधारस्थानम्
[ श्रीदशवैकालिक सूत्र अध्ययन - ४ ] जस्स णं कोह- माण- माया लोभा श्रवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया । [ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक - ७, उद्देश - १, सूत्र - १८ ]
मूलसूत्रम्
निर्वर्तना निक्षेप संयोग निसर्गाद्विचतुद्वत्रिभेदाः परम् ।। ६-१० ।।
0 श्राइयेनिक्खिवेज्जा ।
[ परिशिष्ट-१
वित्तणाधिकरणिया चैव संजोयणाधिकरणिया चेव ।
पवत्तमारणं ।
[ श्रीस्थानाङ्ग स्थान- २, सूत्र- ६० ]
[ श्रीउत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन- २५, गाथा - १४ ]
[श्रीउत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन- २४, गाथा - २१-२३]
मूलसूत्रम्
तत्प्रदोष-निह्नव मात्सर्या ऽन्तरायाऽऽसादनोपघाता ज्ञान- दर्शनावरणयोः ॥ ६-११॥ * तस्याधारस्थानम्—
णाणावर णिज्जकम्मासरीप्पोगबंधेगं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! नाणपणीयाए णागनिन्हवणयाए गाणंतराए णं णाणप्पदोसेणं णाणच्चासायणाएणाणविसंवादरगा जोगेणं.. .. एवं जहा णाणावर णिज्जं नवरं दंसणनाम घेतव्वं । [ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८, उ. ६, सूत्र- ७५-७६ ]
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परिशिष्ट- १]
मूलसूत्रम्
षष्ठोऽध्यायः
दुःख-शोक-तापाऽऽक्रन्दन-वध- परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यस द्वेद्यस्य ।। ६-१२॥
* तस्याधारस्थानम्
परदुक्खरणयाए परसोयरणयाए परजूरणयाए परतिप्पणयाए पर पिट्टणयाए परपरियावणयाए बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, सोघणयाए जावपरियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं श्रस्साया वेयणिज्जा कम्मा किज्जन्ते ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक - ७, उद्द ेश- ६, सूत्र - २८६ ]
शौचमिति सवेद्यस्य
मूलसूत्रम्
भूत - व्रत्यनुकम्पादानं सरागसंयमादियोगः
।। ६-१३ ।।
क्षान्तिः
* तस्याधारस्थानम्
पाणाणुकंपाए भूयाणुकंपाए जीवाणुकंपाए सत्ताणुकंपाए, बहूणं पारणाए जाव सत्ताणं दुक्खणयाए प्रसोयगाए प्रजूरणयाए प्रतिष्पणयाए पिट्टणयाए अपरियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा किज्जंति ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक - ७, उद्देश- ६, सूत्र - २८६]
मूलसूत्रम्
केवलि - श्रुत-सङ्घ-धर्मदेवाऽवर्णवादी दर्शनमोहस्य ।। ६-१४ ।।
६३
* तस्याधारस्थानम्
* तस्याधारस्थानम्
पंचहि ठाणेह जीवा दुल्लभवोधियत्ताए कम्मं पकरेंति । तं जहा - अरहंताणं अन्नं वदमाणे १, अरहंतपन्नतस्स धमस्स प्रवन्नं वदमारणे २, प्रायरिय-उवज्झायाणं श्रवन्नं वदमाणे ३, चउवण्णस्स संघस्स श्रवण्णं वदमाणे ४, विवक्कत बंभत्राणं देवाणं अवन्नं वदमाणे ।
[श्रीठारणाङ्गसूत्र स्थानक - ५, उद्देश - २, सूत्र ४२६]
मूलसूत्रम्
कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ।। ६-१५ ।।
मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोगपुच्छा, गोयमा ! तिव्वकोहयाए तिथ्वमारण्याए तिव्वमायाए तिव्वलोभाए तिव्वदंसणमोहरिगज्जयाए तिव्वचारितमोह रिगज्जयाए । [ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८, उद्द ेश- ६, सूत्र - ३५१]
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६४ ]
मूलसूत्रम्
बह्वारंभ- परिग्रहत्वं च मारकस्यायुषः ।। ६-१६॥
मूलसूत्रम्
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
* तस्याधारस्थानम्
चहि ठाणेह जीवा रतियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - महारम्भताते महापरिग्गहयाते पंचिदियवहेणं कुणिमाहारेणं ।
[ श्री ठाणांगसूत्र स्थान. ४, उद्देश - ४, सूत्र - ३७३ ]
माया तैर्यग्योनस्य ॥ ६-१७ ॥
* तस्याधारस्थानम्
चउहि ठाणेह जीवा तिरिक्खजोरिणयत्ताए कम्मं पगति । माइल्लाते रिडिल्ल ताते श्रलियवयरणेरणं कूडतुलकूडमाणेणं ।
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
अल्पाऽरम्भ-परिग्रहत्वं स्वभावमार्दवा ऽऽर्जवं च मानुषस्य ।। ६-१८ ।।
[ परिशिष्ट-१
[ श्री ठाणांगसूत्र स्थान. ४, उद्देश-४, सूत्र - ३७३ ]
पारंभा अपपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया ।
चउहि ठाणेहिं जीवामणुस्सत्ताते कम्मं पगरेंति । पगतिविणीययाए साणुक्कोसयाते श्रमच्छरिताते ।
तं जहा
मूलसूत्रम्
निःशील - व्रतत्वं च सर्वेषाम् ।। ६-११ ।।
[ श्री पपातिकसूत्र संख्या - १२४ तं जहा - पगतिभद्दताते
[ श्री ठाणांगसूत्र स्थान. ४, उद्देश ४, सू. ३७३ ] मायाहि सिक्खाहि जे नरा गिहिसुव्वया उवेति माणुस जोणि कम्मसच्चाहु पाणिणो ।
[ श्रीउत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ७, गाथा २० ]
* तस्याधारस्थानम्
एगंतवाले णं मणुस्से नेरइयाउयंपि पकरेइ तिरिया उयंपि पकरेइ देवाउयंपि
पकरेइ |
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक - १, उद्देश - ८, सूत्र - ६३ ]
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परिशिष्ट-१ ]
षष्ठोऽध्यायः
卐 मूलसूत्रम्
सरागसंयम-संयमासंयमा-ऽकामनिर्जरा-बालतपांसि देवस्य ॥ ६-२० ॥ * तस्याधारस्थानम्
चउहि ठाणेहि जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति । तं जहा-सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिज्जराए ।
___ [श्रीठाणांगसूत्र स्थान ४ उद्देश ४ सूत्र ३७३ ] ॐ मूलसूत्रम्
योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ॥ ६-२१॥
तद्विपरीतं शुभस्य ॥ ६-२२ ॥ * तस्याधारस्थानम्
सुभनामकम्म सरीरपुच्छा, गोयमा ! काय उज्जुययाए भावुज्जुययाए भासुज्जुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मा सरीरजावप्पयोगबन्धे, प्रसुभनामकम्मा सरीरपुच्छा, गोयमा ! कायप्रणुज्जवयाए जाव विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्मा जावपयोग बन्धे ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८, उद्देश ६ ] ॐ मूलसूत्रम्
दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शील-व्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तितस्त्याग - तपसी, संघ - साधुसमाधि - वैयावृत्त्यकरणमहंदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणि-मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ ६-२३ ॥ * तस्याधारस्थानम्
अरहतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुए तवस्सीसु। वच्छलतया य तेसि अभिक्ख गाणोववोगे य ॥१॥ दसण विणए प्रापास्सए य सीलव्वए निरइयारं । खणलब तव च्चियाए वेयावच्चे समाहीय ॥२॥ अप्पुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावरणया। एएहि कारणेहि, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ३॥
[ श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग अध्ययन ८ सूत्र ६४ ]
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६६
श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
मूलसूत्रम् -
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ २४ ॥
* तस्याधारस्थानम्
जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जावइस्सरियम देणं णीयागोयकम्मासरीर जावपयोगबन्धे ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८ उद्देश & सूत्र ३५१ ]
मूलसूत्रम्
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।। ६-२५ ।।
[ परिशिष्ट-१
मूलसूत्रम्
* तस्याधारस्थानम्
जातिश्रमदेणं कुलश्रमदेणं बलप्रमदेणं स्वप्रमदेणं तवप्रमदेणं सुयप्रमदेणं लाभश्रमदेणं इस्सरियं श्रमदेणं उच्चागोयकम्मा सरीरजावपयोगबंधे ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८ उद्देश & सूत्र ३५१ ]
विघ्नकरणमन्तरायस्य ।। ६-२६ ।।
* तस्याधारस्थानम् -
दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगंतराएणं उवभोगंतराएणं वीरियंतराएणं अंतराइयकम्मा सरीरप्पयोगबन्धे ।
[ श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति शतक ८ उद्देश εसूत्र ३५१ ] ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रस्य षष्ठाध्यायस्य जैनागमप्रमारणरूप श्राधारस्थानानि ॥
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परिशिष्ट-२
षष्ठाध्यायस्य * सूत्रानुक्रमणिका * है
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सूत्राङ्क
सूत्र काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः ।। ६-१ ॥ २. स प्रास्रवः ॥ ६-२ ।।
शुभः पुण्यस्य ॥ ६-३ ॥
अशुभः पापस्य ।। ६-४ ।। ५. सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ॥ ६-५ ।। ६. प्रव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्च-चतुः-पञ्च-पञ्चविंशति
संख्याः पूर्वस्य भेदाः ।। ६-६ ।। ७. तीव्र-मन्द-ज्ञाता-ऽज्ञातभाव-वीर्या
ऽधिकरण-विशेषेभ्यस्तद् विशेषः ॥ ६-७ ॥ प्रधिकरणं जीवाऽजीवाः ।। ६-८ ।। ६. पाद्यं संरम्भ-समारम्भाऽऽरम्भ-योग-कृत-कारिता-ऽनुमत
____ कषाय-विशेषस्त्रिस्त्रि-स्त्रिश्चतुश्चैकशः ।। ६-६ ।। निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा
द्वि-चतु-द्वि-त्रिभेदाः परम् ॥ ६-१० ।। ११. तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्या-ऽन्तराया
ऽऽसादनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयोः ।। ६-११ ॥ दुःख-शोक-तापा-ऽऽक्रन्दन-वध
परिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसवेद्यस्य ।। ६-१२ ।। १३. भूत-व्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः
क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ।। ६-१३ ॥ केवलि-श्रुत-सङ्घ-धर्म-देवाऽवर्णवादो दर्शनमोहस्य ।। ६-१४ ॥
१२.
दुःख-श
१४.
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६८ ]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-२
पृष्ठसं.
३५
३६
३७
३६
४०
सूत्राङ्क
सूत्र कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥ ६.१५ ।। १६. बह्वारम्भ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ।। ६-१६ ॥ १७. माया तर्यग्योनस्य ।। ६-१७ ।। अल्पाऽऽरम्भ-परिग्रहत्व-स्वभावमार्दवा-ऽर्जवं
च मानुषस्य ॥ ६-१८ ।। १६. निःशील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् ।। ६-१६ ।। २०. सरागसंयम-संयमासंयमा-ऽकामनिर्जरा
बालतपांसि देवस्य ॥ ६-२० ।। २१. योगवक्रता विसंवादनं चाऽशुभस्य नाम्नः ।। ६-२१ ।। २२. तद्विपरीतं शुभस्य ।। ६-२२ ॥ २३. दर्शनविशुद्धि-विनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं
ज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी-संघ-साधुसमाधि-वैयावृत्त्यकरण-महंदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणि - मार्गप्रभावना प्रवचन
वत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ।। ६-२३ ।। २४. परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छाद
नोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥ ६-२४ ।। २५. तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।। ६-२५ ॥ २६. विघ्नकरणमन्तरायस्य ।। ६-२६ ॥
॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमस्य षष्ठाध्याये सूत्रानुक्रमणिका ॥
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परिशिष्ट-३
क्रम
सूत्र
१.
अधिकरणं जीवाऽजीवाः ।। ६-८ ।।
२. अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च
मानुषस्य ।। ६-१८ ।।
३. अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुः पञ्च पञ्चविंशति
संख्याः पूर्वस्य भेदाः ।। ६-६ ।।
४.
५.
षष्ठाध्यायस्य
* प्रकारादिसूत्रानुक्रमणिका *
७.
८.
प्रशुभः पापस्य ।। ६-४ ।।
श्राद्यं संरम्भ-समारम्भाऽऽरम्भयोग-कृत-कारिता
Sनुमत - कषाय- विशेषैस्त्रि-स्त्रि-स्त्रि
श्चतुश्चैकशः ।। ६-६ ।।
कषायोदयात् तीव्रात्मपरिणामश्चारित्रमोहस्य ।। ६-१५ ।।
काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः ।। ६-१ ।।
केवल श्रुत-सङ्घ- धर्म - देवाऽवर्णवादो दर्शन मोहस्य ।। ६-१४ ।।
६. तत् प्रदोष-निह्नव मात्सर्या ऽन्तरायाऽऽसादनोपघाताज्ञानदर्शनावरणयोः ।। ६-११ ।।
१०. तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।। ६-२५ ।।
११. तद्विपरीतं शुभस्य ।। ६-२२ ।।
१२.
तीव्र - मन्द-ज्ञाता ज्ञातभाव- वीर्याऽधिकररणविशेषेभ्यस्तद् विशेषः ।। ६-७ ।।
पृष्ठ सं. १६
३७
१०
७
२०
३५
१
३३
२५
४७
४२
१५
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-३
७० ]
पृष्ठ सं.
क्रम सूत्र १३. दर्शनविशुद्धि-विनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनति
चारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग-संवेगौ शक्तितस्त्याग-तपसी-संघ-साधु-समाधि-वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य-बहुश्रुत-प्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहारिण-मार्गप्रभावना प्रवचन
वत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ।। ६-२३ ।। १४. दुःख-शोक-तापा-ऽऽक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्मपरोभय
स्थान्यसवेद्यस्य ।। ६-१२ ॥ १५. निर्वर्तना-निक्षेप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतु-द्वि-त्रिभेदाः
परम् ।। ६-१० ॥ १६. निःशील-व्रतत्वं च सर्वेषाम् ।। ६-१६ ॥ १७. परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने
च नीचर्गोत्रस्य ।। ६-२४ ।। १८. बह्वारंभ-परिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः ।। ६-१६ ।। १६. भूत-वृत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः
शौचमिति सवेद्यस्य ।। ६-१३ ।। २०. माया तैर्यग्योनस्य ।। ६-१७ ॥ २१. योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।। ६-२१ ।। २२. विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ ६-२६ ॥ २३. शुभः पुण्यस्य ।। ६-३ ।। २४. स प्रास्रवः ॥ ६-२ ॥ २५. सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ६-५ ।। २६. सरागसंयम-संयमासंयमा-ऽकामनिर्जरा-बालतपांसि
देवस्य ॥ ६-२० ॥ ॥ इति श्रीतत्त्वार्थाधिगमस्य षष्ठाध्यायेऽकाराद्यनुक्रमणिका ॥
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परिशिष्ट-४
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र
षष्ठोध्यायस्य श्रीजैनश्वेताम्बर-दिगम्बरयोः सूत्रपाठ-भेदः
श्रीदिगम्बर ग्रन्थस्य सूत्रपाठः *
5 सूत्राणिक
* श्रीश्वेताम्बरग्रन्थस्य सूत्रपाठः * |
5 सूत्राणि ॥ सूत्र सं.
३. शुभः पुण्यस्य ।। ६-३ ।।
सूत्र सं.
३. शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ।।६-३।।
४. अशुभः पापस्य ।। ६-४ ॥
५. इन्द्रियकषायावतक्रियाः पञ्चचतुः
पञ्चपञ्चविंशति संख्या पूर्वस्य भेदाः ॥ ६-५ ।।
६. अवतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्च
चतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ।। ६-५ ।।
६. तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरण
वीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ।। ६-६।।
७. तीवमंदज्ञाताज्ञातभाववीर्याधिकरण
विशेषेभ्यस्तद् विशेषः ॥ ६-७ ।।
१७. अल्पारम्भपरिग्रहत्वं
मानुषस्य ।। ६-१७ ॥
१८. अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभाव
मार्दवार्जवं च मानुषस्य ।। ६-१८ ॥
१८. स्वभावमार्दवं च ॥ ६-१८ ।।
२२. विपरीतं शुभस्य ।। ६-२२ ॥
। २१. सम्यक्त्वं च ॥ ६-२१ ॥
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७२
]
श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ परिशिष्ट-४
सूत्र सं.
२३. दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शील-
व्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णंज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्याग-तपसी, सङ्घसाधुसमाधि - वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्य -बहुश्रुत - प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहारिणर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्त्वस्य ॥ ६.२३ ।।
सूत्र सं. २३. तद्विपरीतं शुभस्य ।। ६-२३ ।। २४. दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शील
व्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी-साधुसमाधिःयावृत्यकरणमर्हदाचार्य - बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरि - हाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमितितीर्थकरत्वस्य ।। ६-२४ ।।
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।। ॐ ह्री अर्ह नमः ॥ %%% %
写实
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अष्टक-समुच्चय छ
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* रचयिता * शास्त्रविशारद - साहित्यरत्न - कविभूषण
परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज
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फ्र श्रीनमस्कार - महामन्त्राष्टकम्
[ अनुष्टुप् छन्दः ]
नमस्कार महामन्त्रं सनातनं च शाश्वतम् । प्रोक्त ं जिनेश्वरैर्देवैः, प्रख्यातं भुवनत्रये ।। १ ।।
-
मन्त्रेषु मुख्यमन्त्रं वै न कोऽपि तुल्यकं तथा । निखिलमङ्गलेष्वेव, प्रथमं मङ्गलं वरम् ।। २ ।।
श्रीमद्भ्यो नमो नित्यं, श्रीसिद्धेभ्यो नमः पुनः । प्राचार्येभ्यो नमो भक्त्या, वाचकेभ्यो नमस्तथा ॥ ३ ॥
लोके समस्तसाधुभ्यो नमो नित्यं पुनः पुनः ।
एतद्
सर्वविघ्नहरं
नित्यं,
सर्वदुःखहरं चैव,
महाश्रुतस्कन्धं, श्रीपञ्चपरमेष्ठिनम् ॥ ४ ॥
सर्वपापप्रणाशकम् ।
सर्वकर्म विनाशकम् ॥ ५ ॥
सकलऋद्धिदातारं,
कामदं मोक्षदं चैव
सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
मनोवाञ्छितपूरकम् ।। ६ ।।
एतद् मन्त्रं स्मरेत् देवाः, दानवाश्च नृपाः नराः । योगिनो भोगिनश्चैव, रंकादयोऽपि सर्वदा ।। ७ ।।
तदेतस्मिन्नपि ।
जिनेन्द्र - द्वादशाङ्गीनां, रहस्यं श्री चतुर्दश पूर्वाणां पूर्णसारं हि
इदं मन्त्राष्टकं नित्यं पठनात् स्मरणात् तथा ।
जापाच्च सोऽपि प्राप्नोति, सुशीलपदमव्ययम् ।। ६ ।।
品
मन्त्र के ॥ ८ ॥
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* श्रीजिनप्रतिमाष्टकम् *
OXXX
卐K
[ शार्दूलविक्रीडित - वृत्तम् ] मूत्तिः स्फूतिमयी सदा सुखमयी, लालित्यलीलामयी । दिव्यानन्दमयी प्रतापतरणी, सद्भावशोभामयी ।। नित्यं सद्वचनामृतः सुललितः, सिद्धा च सिद्धान्ततः । अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ १ ॥ सौम्या रम्यतरा गुणकवसतिः, सारस्वतीयं पुनः । गम्भीरा च समुद्रमुद्रमधुरा, माधुर्यधुर्यं - भृता ।। सद्भिस्से वितपादपद्ममनघा, द्रव्यादिभाव - मुंदा । प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ।। २ ॥ सन्नामाऽऽकृति-द्रव्य-भावभरितः, शास्त्रानुग/धनैः । पौनः पुण्यमयैश्च सुष्ठुवचनैः, सद्रूपस्वीकारिता ॥ मूत्तिः श्रीजिनराज - राजमुकुटालङ्काररूपा सती। प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ३ ॥ येषामत्र सुजीवनं सुललितं, लब्धञ्च पुण्यैः पर्णः । पूजालग्नमभूत्परैः सुखकरैर्भावः स्वभावैः परम् ।। तेषां धन्यतमत्वतत्त्वमगमत्, संमन्यतां मानुजं । अज्ञानावृतचेतसां - तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ४ ॥ यैरेषा भगवत्-प्रतापललिता, मूतिर्न सम्पूजिता । स्वान्तान्तमय-र्धरापि बहुधा, भारीकृता भूरिशः ।। क्लिष्टं क्लिष्टतरञ्च वञ्चकमयं, सज्जीवनं यापितं । प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ५ ॥
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[ अष्टक-समुच्चय
प्रज्ञानान्धतमो विनाशनविधौ, चञ्चत् प्रभाभासुरा। भास्वद् भास्करतोऽधिकाद्युतिमयी, श्रीकल्पवृक्षोपमा । संसाराब्धिसुपारगन्तुमनसां, पोतायमानाऽनिशं । प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ६ ॥ अर्हन्मूतिरहो विबोध - तरणी, स्नेहाम्बुवर्षी झरी । उत्फुल्लश्च नितान्तकान्तनय निर्धान्त शान्तिप्रदा ।। सिद्धान्तागमसूक्तिमुक्तिवचनैनित्यं प्रमाणीकृता । अज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ॥ ७ ॥ अर्हन्मूत्तिरहनिशं हृदि गता, संराजते यस्य च । तच्चित्तानुगताः समस्तविषयाः, सम्भ्रान्ति निर्धान्तितः ।। तस्मात् तां समुपास्य शुद्धहृदयैर्भाव्यं सदा सज्जनः । प्रज्ञानावृतचेतसां तनुजुषां, दृष्टिर्न तत्रेङ्गते ।। ८ ।। अर्हन्मूत्तिसमर्थकं गुणकर, सत्तत्त्वसन्दर्शकं । नित्यानन्दकरं सुशान्तिसुरनदं, सौहार्दसम्भावकम् ।। सत्यं शाश्वतमप्रमेयमनघं, माहात्म्यमालामयं । यावच्चन्द्रदिवाकरौ च वसुधा संराजतामष्टकम् ।। ६ ।।
___ ( वसन्ततिलका - वृत्तम् ) श्रीनेमिसूरिप्रवरस्य गुरोः सुशिष्यः ।
लावण्यसूरिरभवन्निखिलागमज्ञः ।। तद् दक्षसूरिप्रवरस्य सुशीलसूरिः । शिष्यो भवन् रचितवान् प्रतिमाष्टकञ्च ।। १० ।।
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चाणस्मानगर मण्डन
ॐ श्रीभटेवापार्श्वनाथजिनाष्टकम्
[ शिखरिणी-वृत्तम् ]
चिरं गेहे - गेहे, भरतभुवि सर्वत्रप्रथितं,
गुणाख्यानं मानं, सुरनरजनैर्यस्य कथितम् । चमत्कारान्वितं वरदमतुलं, निर्भयकरं,
भटेवापार्श्वशं सततमभिवन्दे सविनयम् ।। १ ।।
स्थितं
श्रीचाणस्मानगरजन संस्थापित-महा
शुभाभे प्रासादे, मणिमुकुटवन्तं प्रमुदितम् । श्रवः शोभावन्तं, कनककृतभूषाभिरभितो,
भटेवापार्श्वशं सततमभिवन्दे सविनयम् ।। २ ।।
स्वभक्तानां पार्श्व, प्रमुदितमनोरक्षण परं,
प्रभावत्या राज्ञ्या, तदनुसुरचन्द्राचितपदम् । मनःस्थं सर्वस्वं सकलमिह दित्सु जिनवरं,
भटेवापाशं, सततमभिवन्दे सविनयम् ।। ३ ।।
सदा शान्ताकारं, हृतसुजनभारं प्रभुवरं, त्रिलोकी सन्नाथं, समैः देवैर्जाते, समवसरणे भटेवापार्श्वशं
गुणगणनाथं गतमदम् । पूजितपदं,
सततमभिवन्दे सविनयम् ।। ४ ।।
जगत् सर्वं स्वीयैर्महितचरितैरत्र सुखिनं,
विधातु ं सन्नद्धं, कमठसदृशे वै हितप्रदम् ।
स्थितं तं श्रीशङ्खश्वरजिनसमीपेऽनवरतं, भटेवापार्श्वशं सततमभिवन्दे
सविनयम् ।। ५ ।।
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७८ ]
दधानं सद्ध्यानं विगतसममानं सुरपति, प्रहारे मोहानामभिमुखमतुल्यं गुणश्रेष्ठं प्रेष्टं निखिलमनुजातामुपकृते,
भटेवापार्श्वशं
ददानं सम्पत्ति सुजनसुरचन्दाय निखिलां,
विमानं कुर्वन्तं खलदल समूहाय निभृतम् । निजाङ्घ्र सत्सेवानिरतनरघोषस्य मतिदं,
सुकी सुप्रीतं जिनमुनिसुमीतं कलुषहं,
सुरनरैः ।
सततमभिवन्दे सविनयम् ।। ६ ।।
इत्यष्टकं
भटेवा पार्श्वशं सततमभिवन्दे सविनयम् ।। ७ ।।
सदा हृष्टं दृष्टं स्थितमतिसमीपे भवभृतां
पुनीतं सज्ज्ञानैरखिलजनसंमानितगिरम् ।
सोऽयं
[ वसन्ततिलका-वृत्तम् ]
विरचितं जिन पार्श्वनाथदेवस्य भक्तिसुहितेन श्रीसूरिणाऽनवरतं प्रपठन्तु भक्ताः, भवन्तु
शक्ता
श्री पार्श्वनाथ जिनमन्दिरतः
"
भटेवापार्श्वशं सततमभिवन्दे सविनयम् ।। ८ ।।
卐
[ अष्टक - समुच्चय
सुशील- नाम्ना ।
प्रशस्ता 1
चाणस्मनामनगरी जनिकास्ति स्वदक्षगुरु- पट्टधरात्मतुष्टय, पार्श्वस्तवं शिखरिणी
मुदमङ्गलमाप्नुवन्तु ॥ ॥
यस्य ।
पदतो व्यतानीत् ॥ १० ॥
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है ० क्षमापनाष्टकम्
।
यानि कान्यपराधानि, वर्षेऽस्मिन् हि कृतानि च । संवत्सरीमहापर्वे, क्षमामि च क्षमन्तु मे ।। १ ।। कषायैर्दू षितश्याम, कृतं वैरेण मानसम् । संवत्सरी महापर्वे, क्षमामि च क्षमन्तु मे ॥ २ ॥ कदाचित् कोपितः श्रीमन् ! बाधितं यदि वत्तिषु । कृतोपसर्गो भवतां, क्षमामि च क्षमन्तु मे ॥ ३ ।। व्यवहार प्रवृत्ति वै, सर्वेषां जीवजन्मनाम् । तदर्थे दूषितं चित्तं, क्षमामि च क्षमन्तु मे ।। ४ ।। यत् यद्याचरितं पापं, प्रतिज्ञाभङ्गहेतुकम् । विधातु प्रात्मशुद्धिं हि, क्षमामि च क्षमन्तु वै ।। ५ ।। वक्ष्यमाणं महापापं, युष्माभिः गृहितं यदि । नाशितं स्नेहसंभारं, क्षमामि च क्षमन्तु मे ।। ६ ।। वणितं देवदेवेशः, शाश्वतं जिनशासनम् । सुमङ्गलाय पर्वेऽस्मिन्, क्षमामि च क्षमन्तु वै ।। ७ ।। दुष्कृतं कर्मसंयोगात्, मनसा वाचा च कर्मणा । कारितं विहितं सर्वं, क्षमामि च क्षमन्तु वै ।। ८ ।। ये सर्वेऽत्र भवे स्वकर्मवशगा जीवाऽखिला आगताः । ते सर्वे क्षमिता क्षमन्तु सततं संवत्सरी पर्वणि ।। मे सर्वेषु सदा भवन्तु सुखदा मैत्री न वैरं क्वचित । दुश्चिन्त्यं कथितञ्च दुष्प्रविहितं मिथ्यास्तु तद् दुष्कृतम् ।। ६ ।।
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-
प्रात्मचिन्तनाष्टक x
(हरिगीत-छन्द में) ज्ञानादि तत्त्वों से भरी, इस प्रात्मनिधि को जानिये । द्रव्य से है नित्य पर्यायित्व अनित्य मानिये । विविध कर्मों को करे जो, कर्मफल को वो सहे । कर्मोदयी भटके भवान्तर, कर्मक्षय से शिव लहे ।। १ ।। संसारमय भी जीव जब हो, सिद्धपद की प्रातमा । तो स्फटिकसम निर्मल गुणों से, पूर्ण शुचि परमात्मा ।। कर्म के संयोग और वियोग के, भिन्न-भिन्न स्वरूप ही । कर्म हेतु छोड़ते जब, शिव मुक्ति पाते हैं वही ॥ २ ॥ हे जीव ! तुम हो कौन ! कैसे, है मिला नर भव तुझे । क्या सोचता? क्या बोलता? क्या कर्म ? क्या चिन्तन तुझे ।। । शुभगति को प्राप्त करने, शुभ साधना की क्या नहीं ? । निज गुणों में रमण करता, या परायों में सही ? ।। ३ ॥ ज्ञानादि सद्गुणवन्त तू, गुण पास तेरे हैं सभी । पर-वस्तु का संयोग देता, दुःख परम्पर नित अभी । ज्ञानादि गुण से भिन्न है, वे वस्तु पर ही मानिये ।
आत्मतत्त्व स्वरूपमय ही, श्रेष्ठ तत्त्व सुजानिये ।। ४ ॥ सच्चे गुरु की वाणी ही, करत पात्म प्रकाश है। कर्म निकन्दन से ही भविजन, जाते पथ निर्वाण हैं ।। हो परिमार्जितात्मा, त्रयरत्न सद्गुण खान है। मुक्त हो भव व्याधियों से, शिवनिधि संयुक्त है ।। ५ ।।
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अष्टक-समुच्चय ]
[
१
दुःखरूप इस निखिल विश्व का, करो त्याग हो पात्मोत्थान । होता है दुःखानुबन्ध ही, पापकर्ममय जब हो प्राण ॥ शुभ पुण्यों से मिलता उत्तम, जीवन में दुर्गति का नाश । पुण्यानुबन्धन कर्मोदय से, पाता जीवन मुक्ति प्रकाश ।। ६ ।। सांसारिक वैभव माया की, तृष्णा मृगमरीचिकाभास । त्यागी तीर्थकर वाणी यह, भौतिक सुख में दुःख का वास ॥ बन मिथ्यात्वी जीव मानता, राग-द्वष में स्नेह विधान । मोहमहाज्वर की व्याधि में, प्रात्म-तत्त्व का कुछ ना ज्ञान ।। ७ ।। सन्मार्गगामी प्रात्म तू, मित्र सम है इसलिए । विपरीत इसके है रिपु से, डिगना न पथ से तक जिये ।। शील समता संयमी बन, प्रात्मतत्त्व चिन्तवना । कहे महाज्ञानी नित्य यह, मुक्ति मन्दिर पहुँचना ।। ८ ।। निधि वेदाकाश नेत्र वर्षे विक्रमे लेटापुरे। स्थित चातुर्मास कार्तिक शुक्ल पंचमी भुगुवासरे ।। रविचन्द्र विजय प्रशिष्य की, विज्ञप्ति से प्रतिरम्य यह । किया आत्मचिन्तनाष्टक, जगहितार्थ सुशील सूरि यह ।। ६ ।।
॥ इति प्रात्मचिन्तनाष्टक समाप्त ॥
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ॐ श्रीजिनेन्द्रस्तुति-याचनाष्टकम् 5
जिनेन्द्र ! तमारां दर्शन करवा, श्राव्यो छु अाजे तमारी पासे हुं । भक्तिभावे दोनों हाथ जोड़ीने, सु-स्नेहथी शिर झुकाव हुं ॥ १ ॥ दादा तमारी मनोहर मूर्ति, मुखमुद्राने निहाली रह्यो । निर्विकारी तारा नयनोमांथी, भरतु तेज हुं भीली रह्यो ॥ २ ॥ जन्म हमारो सफल थयो ने, नेत्र हमारा हर्षित थयां ए । प्रभो ! तमारां गातां गुणगणने, जीभ हमारी पवित्र थई ए ।। ३॥ प्रभो तमारी मीठी वाणी सुणतां, तथा तुम वचनामृत पीतां ।
कान हमारा पावन थया ए, प्रात्मिक आनंद
अनुभवतां ए ॥। ४ ॥
थयुं कृतारथ हृदय हमारु, ध्यातां जिनेश्वर ! तुम नामस्मरणनी लय लागी, ने पादस्पर्शनी ना जोवे हमारे सुर-नर ऋद्धि, संसारनी कोई सुख-समृद्धि | करू ं याचना प्रभो ! श्रापनी पासे, सिर्फ लेवा मोक्षसुख ज हांशे ।। ६ ।।
ध्यान तमारुं ।
भंखना जागी ।। ५ ।।
भवोभव ए जिनशासन सेवा, मलजो तुम चरणोंनी सेवा | पूर्ण करजो ए आशा मारी देवा ! देजो दासने मोक्षना मेवा ।। ७ ॥ ग्रहूं हूं |
नित्य सद्गुरु सेवूं हूँ ।। ८ ।।
उपकार आपनो भूलूँ नहीं हूँ, नेमि - लावण्यसूरीश वन्दू हूं,
शरण आप दक्ष-सुशील
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* सामायिक-शिक्षाष्टक
सामायिक संसार में, अमित अनुप विधान । कर्म-विशोधन के लिए, है अचूक वरदान ।। १ ।।
मानव ! ममता छोड़ के, बनता है निष्काम ।
सामायिक से नित्य ही, जग-मग प्रातमराम ।। २ ।। मद-मोहात्मक जाल में, फंसे न कोई जीव । सामायिक साधे यदि, सुदृढ़ हो सुख नींव ।। ३ ॥
सामायिक तो विश्वहित, विशद विकस्वर रूप ।
नव-नव ऊर्जस्विल विधा, उपजे नित्य अनूप ॥ ४ ॥ मन-वच-काया से करो, निशदिन सम व्यवहार । कुटिल कुटिलता त्याग के, चमकानो प्राचार ।। ५ ॥
मागम-निगम बखानते, सामायिक संसिद्धि ।
अगम अगोचर की छटा, दिखे मिले सम्बुद्धि ।। ६ ।। राग-द्वष ही शत्रु हैं, और शत्रु नहीं अन्य । सामायिक समतामयी, इन्हें मिटाती धन्य ।। ७ ॥
सामायिक सब काल में, रहती है जयवन्त । 'सूरि सुशील' सुसाधिये, बनिये बहुगुणवन्त ।। ८ ।।
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ॐ आत्महित-अष्टक 4
हे विश्वपूज्य ! सर्वज्ञदेव ! जिनेश्वर ! जगदीश्वर ! । वन्दन कर मैं करता विनती, भावयुक्त परमेश्वर ! ।। माया हूँ मैं तुम पास प्राशा, लेकर अति स्नेह से । वह प्रभो! परिपूर्ण करना, राव भी मेरी सुनके ॥ १॥
लख चौरासी योनि में मैं, अनादिकाल से फिर रहा । जन्म-मरणादि प्रवाह में, रात-दिन प्रति घूम रहा ।। उनमें ही पाया इस वक्त, मनुष्य-जन्म प्रति दुर्लभ । वह भी पूर्व पुण्य पसाय से, कर रहा हूँ अनुभव ।। २ ।। अद्यावधि मैंने सुदेव-गुरु-धर्म नहीं पहिचाना। अब क्या होगा मेरा प्रभो! तुम कृपा-करुणा बिना ।। रखड़ी रहा हूँ रंक पेरे, पाकर प्रति विडम्बना । संसार दावानल समा, अति दुःखयुक्त भरा हुआ ।। ३ ।।
इस भव में न दिया दान मैंने, सुपात्र में भाव से । तथा शियल भी पाला नहीं, आत्म विटम्ब्या काम से ।। तप तपा नहीं मैंने प्रभो! किसी निजात्म निमित्त से । अब विशेष मैं क्या कहूँ, तुझ सर्वज्ञ के पास में ।। ४ ।।
पूर्व विराधक भाव से ही, भाव मेरा नहीं विकसे । संयम को मलिन किया, कर्ममोहनीय वश से । पल-पल में अनेक बार, परिणाम की भिन्नता दीसे । किया जो कर्म मैंने अाज तक, छिपा नहीं है तुम से ॥ ५ ॥
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अष्टक-समुच्चय [
.
[
८५
गत काल मेरा अनादि, इस संसार में परिभ्रमतां । उसे सहा मैंने प्रभो !, दुर्गति दुःख अनन्ततां ।। प्रतिकष्ट से जिनराज ! तेरा, प्राज शुभ दर्शन हुमा । मुझ दुःख-दोहग-कष्ट-संकट, रोग-संतापादि टला ।। ६ ।। पूर्व पुण्य संयोग से, अनुपम कल्पवृक्ष फला। मुझ नयनों में से प्राज, अमीय के मेह उठा ।। अहो ! जाने गृहाङ्गण में, कामधेनु चलकर पायी। और उसने भर दी रत्न, चिन्तामणि हेम थाली ।। ७ ।। माया प्रभो ! तेरे शरणे, अब भक्त की लाज कीजे । किये अनेक प्रपराध मैंने, ते सभी मुझ खमीजे ।। मिलती रहे भवोभव प्रभो! तुम चरणों की सेवा शुभ । तथा मिले अन्तिम संयम, मम प्रात्म पावे शिवसुख ।। ८ ।। तपगच्छनायक नेमि - लावण्य - दक्ष सूरिराज के। पट्टधर सुशीलसूरि ने, रचा 'प्रात्महित-अष्टक' यह ॥ विक्रमाब्द दोय सहस, सुड़तालीस ज्येष्ठ वदि सातमे । कानाना नगरे पार्श्व-प्रतिष्ठा-महोत्सवे जनहिते ।। ६ ।।
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गुरु- प्रार्थना प्रष्टक
( ललित - छन्दमां )
[ अरर हे प्रभो ! अर्ज हुं करु - ए रागमां ]
सुगुरुराज छो विश्वमां तमे, विबुधनाथ छो ज्ञानमां तमे, शशि समा तमे शीतवंत छो, जलधि जीम गंभीर छो तमे, कनक मेरुनिष्कम्प धीर छो, तप ने दया मूर्ति छो तमे, नित छ कायना रक्षनार छो, समिति गुप्तिना पालनार छो । सकल कार्यमा दक्ष छो तमे, प्रणयथी नमीये सदा श्रमे ॥ ४॥
गुणनिधान छो प्रणयथी नमी रवि समा तथा तेजवंत छो । प्ररणयथी नमीये सदा श्रमे ।। २॥ शमदमादि ने त्यागवीर छो । प्रणयथी नमीये सदा श्रमे ।। ३ ।।
सर्वमां तमे । सदा श्रमे ।। १ ।।
मुगति मार्गना दाखनार छो । प्रणयथी नमी सदा प्रमे ।। ५ ।। विमल नारणथी प्रणयथी नमीये सदा प्रमे ॥ ६ ॥
दीपता तमे ।
भव अरण्यमां सार्थवाह छो, जग परोपकारी महातमे, दरशने करी निर्मला तमे, चरण रत्नथी शोभता तमे, मुगुट छो प्रमारा ज शीर्षना, विमलहार छो एज चित्तना । नयनना ज तारा तथा तमे, प्रणयथी नमीये मुज सुप्रात्मनो सत्य नाविक, परम योग ने सुजिन धर्मना संत छो तमे, प्रणयथी नमीये [हरिगीत - छन्दमां ]
तपगच्छस्वामी गुणधामी नेमिसूरि महाराजना
सदा श्रमे ।। ७ ।।
क्षेम अर्पक ।
सदा श्रमे ।। ८ ।।
पट्टाका सूर्य सरीखा
लावण्यसूरिराजना ।
शिष्य पंन्यासदक्षना पंन्यास सुशील साधु ए, 'गुरुप्रार्थना श्रष्टक' रच्युं वर्द्धमान शिष्य काज ए ॥ ६ ॥
5
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namannamriranamaanaamanariammamam
साहित्यसम्राट्-प्रगुरुदेव ॥ प्रार्थना श्रद्धाञ्जलि अष्टक m Laxmmsmmmmmmmmmwimmmmsammmmmm
_ [ललित-छन्दमां]
[अरर हे प्रभो ! अर्ज हुं करु....ए रागमां] अरर हे गुरो ! शुकयु तमे, क्षण महीं तजी कयां गया तमे । सुगुरुदेव ए स्वर्गमां गया, अमर कीत्ति ने राखता गया ।। १ ।। विरह आपनो सर्वने थतां, सहु जनो रडे प्रापना जतां । स्वपरिवार ने शीर्षछत्रना, विरह दुःखनी घोर वेदना ॥ २ ।। शरण आपनु लाभकारक, चरण शुद्धि ने ज्ञानवर्धक । परम योग ने क्षेमदायक, पुनीत पन्थमां ए सुरक्षक ।। ३ ।। सहु हता अमे नाथ युक्त ए, प्रम थया हवे नाथ शून्य ए। स्मरण प्रापनु सर्वदा रहो, विमल दर्शन स्वप्नमां जहो ।। ४ ।। तुम तणी अमे भक्ति ना करी, कथित धर्मनी सीख ना धरी। अम सवी गुनाह माफ ए करो, अम परे कृपादृष्टि ने धरो॥ ५ ॥ गुण निधान ने ज्ञानसिन्धु ए, श्रमण सन्त ने सूरि राज ए। चरणपात्र ने शीलवन्त ए, परमपूज्य ने शान्तमूत्ति ए ।। ६ ।। विविध शास्त्रना सर्जनार ए, मधुर देशना आपनार ए। जग जनोपकारी महान् ए, प्रगुरुदेव लावण्यसूरि ए ।। ७ ।। नमन हो गुरो ! आपने सदा, न अमने तमे भूलशो कदा । सुगुरु आशिष स्वर्गथी सदा, अम समस्त ने प्रापजो मुदा ।। ८ ।।
[शार्दूलविक्रीड़ित-छन्दमां] प्राजे सर्वमली अमे सहु जनो ए प्रार्थना ए करी ,
पूज्य श्रीगुरुदेव प्राज तुमने चित्ते उमंगे स्मरी। सुश्रद्धांजलि एज अर्पण करी प्राजे अमे भाव थी ,
तेने हे गुरुदेव ! आप हृदये स्वीकारजो स्नेहथी ॥ ६ ।।
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१० असार संसार की सज्झाय
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यह संसार अनादि से है, अनन्तकाल तक रहेगा। - नहीं उसकी प्रादि मिलती है, नहीं कभी अन्त मिलेगा ॥ १ ॥
यह संसार कर्मशाला है, भोग कर्म तू जायेगा।
लख चौरासी जीवा योनि में, भ्रमण करता रहेगा ।। २ ॥ इस जगत् का राग रंग सभी, यहीं पड़ा रह जायेगा। धन-दौलत और दुनिया सारी, नहीं साथ कोई पायेगा ॥ ३ ॥
पत्नी पुत्र और बन्धु मित्रादि, साथ कोई नहीं जायेगा।
जन्मे जब तुम आये अकेला, और अकेला ही जायेगा ।। ४ ।। स्वार्थ के हैं इस विश्व में बन्धु, नहीं सार कोई पायेगा। इसे कहा ये संसार प्रसार है, शास्त्रज्ञानी ऐसा कहेगा ॥ ५॥
हे जीव ! तू मनुष्य भव पाये हो, सफल कब ही करेगा।
संयम पाकर कर्म दूर कर, मोक्षसुख कब पायेगा ।। ६ ।। नाहीं भरोसा इस देहका ए, प्रात्मा कब चला जायेगा। मन की भावना मन में रहेगी, पीछे पश्चाताप रहेगा ।। ७ ।।
श्री सुशीलसूरि नित्य कहत है, भव्यात्मा ही पावेगा। सादि अनंत स्थिति मोक्ष में, शाश्वत सुख में म्हालेगा ।। ८ ।।
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编
सद्गुरुभ्यो नमो नमः ॐ
सदा स्मरणीय वन्दनीय - सुसंयमी - पूज्यपाद
* श्री वृद्धिविजय गुरु स्तुत्यष्टक *
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( हरिगीत - छन्द ) पंजाब - लाहोर
इसी देश भारते जिल्लामहीं, विख्यात रामनगर नामक शहर शुभ सोहे सही । कृष्णादेवी-धरमजस के शुभ पुत्र कृपाराम ए, वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। १ ।।
जिसने भ्रष्टादश वर्षे छोड़ा प्रसार संसार को, निज सम्पत्ति त्यागी सभी, किया ग्रहण चारित्र को । त्यजा स्थानक बने संवेगी हुए शिष्य बुद्धि गुरु के वन्दु उन्हें गुरुवृद्धिविजय वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। २ ।।
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शान्त दान्त त्यागी तथा ज्ञानी ध्यानी सन्त ए, वात्सल्य मूर्ति परोपकारी, सद्धर्म श्रद्धावन्त ए । सुसंयमी बालब्रह्मचारी, सद्गुणानुरागी ए, वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय - वृद्धिचन्द्र को भाव छोटे-बड़े सबही जन को मान देते प्रेम से, तथा मीठी वाणी से ही सब जन चित्ताकर्षते । जास चित्ते अचल निर्मल समदृष्टि सदा विभासे, वन्दु उन्हें गुरु वृद्धि विजय - वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ४ ।। निज शिष्यादि को विनयपद वृद्धिकृते सुबोध देते, तथा विद्याव्यसनकृतेऽपि शिष्य शिरे हस्त रखते । जास सब उत्कति सदा शास्त्रे शिष्य वृन्दे गवाशे, वन्दु ं उन्हें गुरु वृद्धिविजय - वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ५ ।।
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६.
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[ अष्टक-समुच्चय
विद्वानों की विद्वत्ता निहारी नित्य प्रानंद पाते , तथा पागमादि ग्रन्थ निरखि राजी अतिशय होते। जानी तत्त्व जैनागम के सद्ज्ञानदृष्टि प्रकाशे , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ६ ॥ देख उस महापुरुष को सब पूर्व के याद पाते , पवित्र होती प्रात्मा अपनी दोषादि दूर होते । जाये सदा कुमति सर्वथा सुमति प्रादि भी पाते , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ७ ॥ शान्त मुद्रा मनोहर मूत्ति भव्य है जिस गुरु की , सोहे सदा स्मितवदने निर्विकारी वृत्ति रही। सदा उसी के दर्शन करते प्रात्मा पवित्र होती है , वन्दु उन्हें गुरु वृद्धिविजय-वृद्धिचन्द्र को भाव से ।। ८ ।। इन्हीं श्री वृद्धिविजय गुरु के शिष्य श्री नेमिसूरि हैं , तस श्री लावण्यसूरि के बड़े शिष्य दक्षसूरि हैं। तस शिष्य सुशीलसूरि ने रचा अष्टक ये हर्ष से , गाये उसको मुनि हेम-जिन-संयमरत्न भाव से ।। ६ ।।
॥ इति श्रीपूज्यवृद्धिविजय गुरु-स्तुत्यष्टक समाप्त ॥
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परमगुरुभ्यो नमो नम.
* श्रीशासनसम्राट्-स्तुत्यष्टक * EwwwwWWWWWWWWWWWWWWWWW
-(मन्दाक्रान्ता-छन्दमां) जेणे जन्मी लघुवयथकी संयम श्रेष्ठ पाल्यु, ने शाताथी जीवन सघलु धर्मकार्ये ज गाल्यु। साध्या बंने विमल दिवसो जन्म ने मृत्यु केरा, वन्दु तेवा जग - गुरुवरा नेमिसूरीश हीरा ॥ १ ॥ जेनी कीत्ति प्रवर प्रसरी विश्वमांहे अनेरी , गावे ध्यावे जगत जनता पूज्यभावे भलेरी । जोतां जेने परम पुरुषो पूर्वना याद आवे , ने प्रानन्दे भविजन सदा भव्य उल्लास पावे ॥ २ ।।
मोटा ज्ञानी जगत भरना शास्त्रनो पार पाम्या , ने न्यायोना नयमितितरणा सार ग्रन्थो बनाव्या । वाणी जेनी अमृतसम ने गर्जना सिंह जेवी , ने तेजस्वी विमल प्रतिभा सूर्यना तेज जेवी ।। ३ ॥ जेणे बिम्बो बहु जिन तणां भव्य पासे भराव्याँ , ने धर्मोना बहु विषयना श्रेष्ठ शास्त्रो लखाव्यां । नाना ग्रन्थो अभिनव अने प्राच्य सारा छपाव्यां , ने तीर्थोना अनुपम महा कैक संघो कढाव्या ।। ४ ।। जीर्णोद्धारो जिनभवननां नव्य चैत्यो घणेरां , तीर्थोद्धारो जस सुवचने कैक दीपे अनेरा । प्रात्मोद्धारो भविक जनना खूब कीधा उमंगे , भूपोद्धारो जगत भरमां कीधला कैक रंगे ।। ५ ।।
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६२ ]
[ अष्टक-समुच्चय
सौराष्ट्रे श्रीमरुधर अने मेदपाट प्रदेशे , देशोदेशे सतत विचरी गुजरात प्रदेशे । सारां सारां अनुपम घणां धर्मना कार्य कीधां , सौए जेनां वचन कुसुमो शीघ्र जीली ज लीधां ॥ ६ ॥ जेना यत्ने थइ सफलता साधु संमेलने जे , जेथी लाध्यो सुयश विमलो विश्वमां प्रात्मतेजे। प्राचार्यादि प्रवर पदथी भूषिता कैक कीधा , रंगे जेणे जगतभरने योग ने क्षेम दीधां ।। ७ ।।
दीवालीनी विमल कुखने जेह दीपावनारा , लक्ष्मीचन्द्र-प्रवर कुल ने नित्य शोभावनारा । सौराष्ट्र श्री मधुपुर तणी कीत्ति विस्तारनारा , वन्दु छु ते विमलगुणना धामने प्रापनारा ।। ८ ।।
[हरिगीत-छन्दमां] तपगच्छनायक जगगुरु श्रीनेमिसूरीश्वर तणा , पट्टगगने भानु सम श्री लावण्यसूरीवर तणा । शिष्य दक्ष मुनीश केरा सुशील शिष्ये ए रच्यु, निज शिष्य श्रीविनोदनी विनति थकी जे उर जच्यं ।।
॥ इति श्रीशासनसम्राट्-स्तुत्यष्टक समाप्त ॥
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५ सद्गुरुभ्यो नमो नमः ॐ
धर्मप्रभावक-संयमसम्राट-शास्त्रविशारद-व्याकरणरत्न
कविदिवाकर-परमपूज्य-प्राचार्यगुरुदेव * श्रीमद्विजयदक्षसूरीश्वर-स्तुत्यष्टक *
[हरिगीत-छन्द] भारतदेश-गुजरात ख्यात प्रान्त महेसाणा महीं, पाया जन्म चतुर पिता-माता जास चंचल सही । धरी नाम दलपत अभ्यास किया चाणस्मा में रही , ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ॥ १ ॥
जिसने प्रात्मसाधन शुद्धकरणे नित्य उद्यम जो किया , बाल्यवय में गृहत्यागी बने मोह ममता को हरा । परदेश में भी हिम्मत धरी विविध वेश में फर्या , ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ।। २ ।। दीक्षा पाने के लिए कष्ट प्रति जिसने सहे , निज पिता के प्रवरोध को भी स्नेह से दूरे किये। पंन्यास अमृतगरिण हस्ते करेड़ा तीर्थे दीक्षा ग्रही , ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ।। ३ ॥ प्रवर्तक श्रीलावण्य गुरु के शिष्य दक्ष नामी हुए , अध्ययन किया श्रुत-सिन्धु का निजात्म प्रज्ञा बले । हुए दक्ष न्याय - व्याकृति - साहित्यागमादि महीं, ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ॥ ४ ॥ पाये पदवी गणि-पन्यास-वाचक-प्राचार्यपद की , शास्त्रविशारद-कविदिवाकर और व्याकरणरत्न की। ज्ञान-ध्यान-संयमाराधना की विविध तप-त्याग से , ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ।। ५ ॥
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ε४]
[ अष्टक - समुच्चय
जिनकी निश्रा में प्रतिष्ठा उपधान उजमरणादि हुए, तथा तीर्थसंघ - दीक्षादि कार्य अनेक रम्य हुए । गरिण-पंन्यास-वाचक-प्राचार्य पदवियाँ उत्तम हुईं, ऐसे गुरु श्रीवक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ॥ ६ ॥ ग्रन्थ संगीत - सरितादिके,
रचे जिसने व्याकरण
किये पद्यानुवाद जीव - विचार - नवतत्त्वादि के । कर्मग्रन्थ के भी किये रची स्तवन- स्तुति चौबीसी, ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ॥ ७ ॥।
विश्व पर उपकार करते भव्य जीवो उद्धरे, धर्म प्रभावक होते ही संयमसम्राट् भी बने । पाये समाधि अन्तिम वह संचरे स्वर्ग-महीं, ऐसे गुरु श्रीदक्षसूरि को वन्दना हो हमारी ॥ ८ ॥ मिसूरीश - शासन सम्राट् के,
तपगच्छ स्वामी पट्टालंकार लावण्यसूरि - साहित्यसम्राट्
के ।
पट्टधर श्रीदक्षसूरि के शिष्य सुशीलसूरि ने
रचा गुरु अष्टक यही वाचक विनोद विनंति से ।। ६ ।।
॥ इति श्रीमद् विजयदक्ष सूरीश्वर स्तुत्यष्टक समाप्त ॥
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श्रीतपोगच्छाधिपति - शासनसम्राट् - सूरिचक्रचक्रवर्ति - सर्वतन्त्रस्वतन्त्र - जगद्गुरुश्रीमद्विजयनेमिसूरीश्वरपट्टालंकार-व्याकरणवाचस्पति-शास्त्रविशारद-कविरत्नश्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरशिष्यरत्नविद्वद्वर्यमुनिश्रीदक्षविजयशिष्यरत्नविद्वद्वर्यबालमुनि
श्रीसुशीलविजयविरचितं ॥ श्रीनेमिसूरीश्वराष्टकम् ॥
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तानि) । यज्ज्ञानं च निबन्धसिन्धुतरणे, नौकानिभं वर्तते ।
यद्वाणी शुभमानसाम्बुजरवि - नानार्थसंबोधिनी ।। यत्कीत्तिः किल दिक्षु विस्तृततरा, चंद्रोज्ज्वला सर्वदा ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। १ ।। यस्य क्षान्तिरनल्पकोपशमने, धाराधराभा वरा ।
___ नानाशिष्यप्रशिष्यवृन्दसहितं, सद्बोधिरत्नप्रदम् ।। दुर्दान्तप्रतिवादिवादनिपुणं सम्राटपदालङ्कृतं ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। २ ।। नानातर्कपरायणं गुणयुतं, लावण्यलीलालयं ।
न्यायव्याकरणादिशास्त्ररचना-नैपुण्यभाजां वरम् ।। तीर्थोद्धारधुरन्धरं मुनिवरं, चारित्ररत्नाकरं ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। ३ ।। वैराग्यद्रुमवर्धने जलधरं, श्वेताम्बराग्रेसरं ।
भव्यानामुपकारकारकुशलं, सिद्धान्तपारंगतम् ।। नानादर्शनदर्शनामलधियं, ... सद्ब्रह्मचर्याञ्चितं ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। ४ ।। गीतार्थानुसृते तथाऽऽगमगते, पान्थं पथि प्रोद्यतं ।
विद्वद्वन्दसुवन्दितामलगुणं, विद्वद्सभाभासुरम् ।। यद्वाचा विमलाचलादिप्रभृतेः, संघा वरा निर्गता ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। ५ ।।
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६६ ]
[ अष्टक-समुच्चय
नन्दीवर्धनकारितप्रतिमया, श्रीवर्द्धमानप्रभो ।
रम्ये काननमण्डिते मधुपुरे, रत्नाकरालंकृते ।। वर्षारम्भदिने महोदयकरं, यज्जन्म जातं शुभं ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। ६ ।। लक्ष्मीचन्द्र इति श्रुतस्सुजनको, यस्यास्ति धर्मोद्यत
श्चार्वाचारविचारचारुचरिता, माता च दीपालिका । वाग्दक्षो हि सतां प्रियो गुणनिधिः, श्रीबालचन्द्रोऽनुजो।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ।। ७ ।। येषामीक्षणतोऽपि यान्ति विपुलं, भाग्योदयं सज्जना ।
भूपालावलिमौलिपूजितपदा-म्भोजं च दिव्याकृतिम् ।। सम्पूर्णेन्दुसुमण्डलाभवदनं, चन्द्रार्धभालस्थलं ।
वन्देऽहं शुभपादपद्मयुगलं, तं नेमिसूरीश्वरम् ॥ ८ ॥
___(स्रग्धरावृत्तम्) नानाविद्याब्धिदेवाचलविमलधिया- मुक्तिसौभाग्यभाजां।
श्रीमल्लावण्यसूरीश्वरप्रगुरुसतां, दक्षनाम्नो गुरोश्च ॥ प्रासाद्यानुग्रहं चाष्टकमिदममलं, श्रीसुशीलेन दृब्धं ।
नित्यं भव्यात्मनां वै श्रुतिपठनकृतां मोददानाय भूयात् ॥ १ ।। ॥ इति श्रीनेमिसूरीश्वराष्टकम् ॥
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卐 प्रगुरुदेवाय नमो नमः साहित्यसम्राट् - व्याकरणवाचस्पति - शास्त्रविशारद - कविरत्न * श्रीविजयलावण्यसूरीशाष्टकम् *
___ (शिखरिणीवृत्तम्) सुधाधारासाराऽतिमधुरसुवाण्यारचनया ,
___ सुभव्यानां चेतोऽम्बुजदलसुपङ्क्तोदिनमणिम् । सुशास्त्राब्धी देवाऽचल विमलधिष्णं बुधवर ,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ।। १ ।। सदाक्रीडन्तं स-च्चरणजलधौ नौ वरगुणः ,
सुशीलालंकारो - लसिततनुवल्लीसुललितम् । सविद्वद्वन्दालि-स्तुतविबुधतं सद्गुणयुतं ,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ।। २ ।। यशोभिर्यस्येदं . धवलमतिभूमण्डलतलं ,
क्षमावल्लीमाला-परिमलविकीर्णा दशदिशः । सुलेखेन श्रीमद्-बुधजनमनो मोदकुशलं ,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ।। ३ ।। वहन्तं योगं चाऽऽगममननपूर्वं च सकलं ,
गतं सूरीशान्तं सुगुणयुतप्रावर्तकपदात् । सभायां व्याख्याता शुभ भगवती येन निखिला ,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ॥ ४ ॥ अनल्पे ग्रन्थोघे सुनिपुणधिया शास्त्रनिपुणः ,
कवीनां रत्नं व्या-करणवरवाचस्पतिरिति । शुभा प्राप्ता येन त्रिविधपदवी श्रीगुरुवरात् ,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ।। ५ ।।
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5 ]
पयोध धातूनां गरणदशक रूपैरुपचितं,
ङ्गिन्तं सन्नन्तं यङिलुपिगतं नामजनितम् । सकृद्भावव्याप्यं वसुमितविभागान् विदधतं,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवर लावण्यमुनिपम् ॥ ६ ॥
प्रकुर्वाणं श्लिष्टां विवृतिकलितामष्टकत
त्रिसूत्री व्याख्याता शुभतिलकमञ्जर्यपि तथा । रतं न्यासोद्धारे स्वपरहित कारेऽतिरसिकं,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवर लावण्यमुनिपम् ।। ७ ।। ससुरगिरिसौराष्ट्रविषये,
पुरे बोट दाख्ये
यदीयं जन्माभूत् सुगुरणगरणभाग् 'जीवन' गृहे । सदा शीलाढ्यानां 'अमृत' जननीनां सदुदरे,
स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् ॥ ८ ॥
* वसन्ततिलका-वृत्तम् *
विख्यात राजनगरे
"
जिनचैत्ययुक्ते नन्दग्रहांक शशिविक्रमवर्ष माघे शुक्ले दले च प्रतिपत् तिथिशुक्रवारे, श्री मिसूरिवरपट्टप्रभावकस्य
[ अष्टक समुच्चय
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लावण्यसूरिपमणेर्बु' धदक्षसाधु
स्तस्यान्तिषत्कमुनिना सुशीलेन दृब्धम् । रम्यं किलाष्टकमिदं विबुधार्थमुच्चे
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पुष्पदन्तमनिशं पठतां मुदे स्तात् ॥ युग्मम् ।। २ ।। ॥ इति श्रीविजयलावण्यसूरीशाष्टकं समाप्तम् ॥
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।। अहम् ।।
* अष्टविध-जिनपूजाष्टकम् * Cromomommmmmmmmmmm
जलपूजा ॥ परमपावनशुद्ध मनाविलं, सकल - दोषहरं हितकारकम् । सुपयसा मनसात्मविशुद्धये, नतशिरा स्नपयामि जिनेश्वरम् ।। १ ।।
॥ चन्दनपूजा अखिल-दाहक-दाह-निवारकं, अतुल राग - कुनाग - विमर्दकम् ।। विमल-शीतल-केसर-चन्दनः, सहज - शान्तिकृते जिनमर्चये ।। २ ।।
पुष्पपूजाक सुरभितैः कुसुमैः सुमनोहरैः, विकसितैविविधैर्विधिसंयुतः ।। विशद - भावनयात्मविशुद्धये, जिनवरं सहसा च यजामहे ।। ३ ।।
॥ धूपपूजा के विकट-कर्कश-कर्म-विदाहनैः, सकल - दूषित - गन्ध-निवारकैः । अगरुधूपचयैश्च सुगन्धितः, सुमनसा मनसा च यजामहे ।। ४ ।।
॥ दीपकपूजा ॥ अयि जिनेश्वर ! कल्पमहीरुह, निखिल-नैश भिदेऽपि तमोपह । मम भवेच्च सदात्मविकासनं, इति विचिन्त्य सुदीपमहं यजे ।। ५ ।।
॥ अक्षतपूजा ॥ जिन ! जगत्सु सदैव विनाशिता, प्रतिपदं मयका च परीक्षिता । सततमक्षतमस्तु पदं मम, इति मतेन सदक्षतपूजनम् ॥ ६ ॥
+ नैवेद्यपूजा भव - भवार्णवमध्यगतोऽन्वहं, अनशनी पदवीमभिलाषुकः ।। निखिल निर्वृतिभावसमन्वितः, समनसा मधुरं च समर्पये ।। ७ ।।
के फलपूजा ॥ कनक-भास्वर-भाजन-संस्थितैः, ऋतुगतैविविधः सरसैः फलैः ।।
सहजमुक्तिफलाय च सस्पृहः, जिनवरं फलदञ्च मुदा यजे ।। ८ ।। ।। इत्यष्टोपचारिपूजाष्टकं साहित्यसुधाकरेण श्रीमद् विजयसुशीलसूरिणा विरचितं समाप्तम् ।।
卐 शुभं भूयात् ॥
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* सुप्रसिद्ध पञ्चजिनवन्दनात्मक स्तुति * Lwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwand
* श्रीऋषभदेव जिन-स्तुति * पादि तीर्थंकर आदि जिनेश्वर, प्रादि मुनि-योगी हो । नाभि-मरुदेवी के सुत ऋषभ, विनीतापुरी नृप हो । पूर्वनव्वाणु वार पधारे, सिद्धाचल तोर्थे हो । गये मोक्ष अष्टापद तीर्थे, ऐसे प्रभु को नमन हो ।। १ ॥
श्रीशान्तिनाथ जिन-स्तुति * हस्तिनापुरे जन्मी जिसने, शान्ति की निजदेश की । बचाया कपोत को बाज से, शान्ति चक्री ही बने ।। विश्वसेन-अचिरा सुत ने, त्यजी चक्री ऋद्धि जिन हुए । गये मोक्ष ऐसे शान्ति जिन को, भाव से वन्दन हो ।। २ ।।
* श्रीनेमिनाथ जिन-स्तुति * मत्यादि तीन ज्ञान युत ए, जन्मे शौरीपुरी में । समुद्रविजय - शिवादेवी के, सुत ब्रह्मचारी रहे ।। पशु की पुकार सुनी त्यजी, राजीमती नेमिनाथ ने । पाये दीक्षा - ज्ञान - मोक्ष, हो नमन रैवतगिरि परे ।। ३ ।।
* श्री पार्श्वनाथ जिन-स्तुति * पाये जन्म वाराणसी में, पुरुषादानी पार्श्व हो । अष्टोत्तर शत नाम जास, अश्वसेन-वामा सुत हो । कमठाग्नि-कुड काष्ठ से, निकला सुनाया सर्प को ।। देव बनाया नवकार से, नमन हो ऐसे पार्श्व को ॥ ४ ॥
___* श्री महावीर जिन-स्तुति * प्रभो ! प्रापने निज जन्म दिवसे, मेरु गिरि कम्पा दिये । सार्ध द्वादश वर्ष पर्यन्त, विविध तपश्चर्या किये ।। धर्मतीर्थ प्रवर्ताये, दिखाये मोक्ष - मार्ग को।
ऐसे प्रभु महावीर को, कोटि - कोटि वन्दन हो ।। ५ ।। ॥ इति श्रीमद् विजयसुशीलसूरिविरचिता श्रीपञ्चजिनवन्दनात्मक स्तुति समाप्ता ॥
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ॐ श्रीं नमः
शासन सम्राट् - तपोगच्छाधिपति परम पूज्य आचार्य - महाराजाधिराज श्रीमद् विजय नेमि - लावण्य - दक्ष -
सूरीश्वर जी महाराज साहब के पट्टधर - राजस्थानदीपक - तीर्थप्रभावक प्रतिष्ठाशिरोमणि श्री अष्टापद जैन तीर्थ के संस्थापक
-
परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज साहब
के
पावन चरणों में भावपूर्ण कोटिशः वन्दना
संक्षिप्त जीवन-परिचय
श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति साहित्य प्रकाशन योजना
क सुशील - सन्देश 5
(हिन्दी मासिक पत्र )
ਇਕਾਂ राजस्थान के गौरव
जैनाचार्य श्री जिनोत्तम सूरीश्वरजी म. 3
संक्षिप्त जीवन-परिचय
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TERI
* पट्टावली * (श्री सुधर्मास्वामी जी से पूज्य गुरुदेव तक) निर्ग्रन्थ गच्छ
--- स्वर्गवास वीर सं. १. पंचम गणधर श्री सुधर्मास्वामी जी २. चरम केवली श्री जम्बुस्वामी जी ३. श्रुतधरों की परम्परा में सर्वप्रथम श्री प्रभवस्वामी जी ४. चौदह विद्यानों के पारगामी श्री शय्यंभव सूरि जी ५. चौदह पूर्वधारी श्री यशोभद्र सूरि जी (प्रथम) ६. श्रुतकेवली श्री सम्भूति विजय सूरि जी ७. प्रागमरचनाकार श्री भद्रबाहु सूरि जी व
१७० दृष्टिवाद के अनुपम लब्धिकार श्री स्थूलिभद्र स्वामी जी ८. विशुद्धतमचारित्रपालक आर्यश्री महागिरि जी व
सम्राट् सम्प्रति प्रतिबोधक अार्यश्री सुहस्ति सूरि जी ___६. कोटिकगच्छ प्रारम्भ करने वाले प्रार्यश्री सुस्थित-सुप्रतिबद्ध सूरि जी ३३६
१
२१५
२४५
कोटिकगच्छ १०. सद्गुणों के स्वामी स्थविर श्री इन्द्रदिन्न सूरि जी ११. शासनप्रभावक स्थविर श्री दिन्न सूरि जी १२. ज्ञानसम्पन्न स्थविर श्री सिंहगिरि सूरि जी १३. लब्धिप्रभावक स्थविर श्री वज्रस्वामी जी १४. धर्मप्रभावक स्थविर श्री वज्रसेन सूरि जी
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५२२
५८८
६२०
चन्द्रगच्छ १५. चन्द्रगच्छ स्थापक स्थविर श्री चन्द्रसूरि जी
६४३ R::MIRMIRATRAINRIMIRMIRMIRMIRMIRENIMAR
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६५३
वनवासी गच्छ १६. वनवासो गच्छ स्थापक प्राचार्य श्री समन्तभद्र सूरि जी १७. शासनप्रभावक आचार्य श्री वृद्धदेव सूरि जी १८. शासनप्रभावक प्राचार्य श्री प्रद्योतन सूरि जी १६. लघुशान्ति रचयिता प्राचार्य श्री मानदेव सूरि जी (प्रथम) २०. भक्तामरस्तोत्र-रचयिता प्राचार्य श्री मानतुग सूरि जी २१. प्राचार्य श्री वीर (सेन) सूरि जी २२. प्राचार्य श्री जयदेव सूरि जी २३. प्राचार्य श्री देवानन्द सूरि जी २४. प्राचार्य श्री विक्रम सूरि जी २५. प्राचार्य श्री नरसिंह सूरि जी २६. प्राचार्य श्री समुद्र सूरि जी २७. प्राचार्य श्री मानदेव सूरि जी (द्वितीय) २८. प्राचार्य श्री विबुधप्रभ सूरि जी २६. प्राचार्यश्री जयानन्द सूरि जी ३०. प्राचार्य श्री रविप्रभ सूरि जी ३१. प्राचार्य श्री यशोदेव सूरि जी ३२. प्राचार्य श्री प्रद्युम्न सूरि जी ३३. प्राचार्य श्री मानदेव सूरि जी (तृतीय) ३४. प्राचार्य श्री विमलचन्द्र सूरि जी ३५. प्राचार्य श्री उद्योतन सूरि जी
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१४६५
बड़गच्छ ३६. बड़गच्छभूषण प्राचार्य श्री सर्वदेव सूरि जो (प्रथम) ३७. प्राचार्य श्री देव सूरि जी
१५२५
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+
१६०७ १६१८
१६४८
* ३८. प्राचार्य श्री सर्वदेव सूरि जी (द्वितीय)
३९. प्राचार्य श्री यशोभद्र सूरि जी (द्वितीय) ४०. प्राचार्य श्री मुनिचन्द्र सूरि जी ४१. प्राचार्य श्री अजितचन्द्र (देव) सूरि जी ४२. प्राचार्य श्री सिंह सूरि जी ४३. प्राचार्य श्री सोमप्रभ सूरिजी तथा प्राचार्य श्री मणिरत्न सूरिजी
(प्रथम)
१६६५
१६७८
१७११
तपगच्छ ४४. तपगच्छस्थापक तपस्वी हीरला प्राचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि जी १७५५ ४५. कर्मग्रन्थ रचनाकार आचार्य श्री देवेन्द्र सूरि जी ।
१७६७ ४६. पेथड़शाह प्रतिबोधक प्राचार्य श्री धर्मघोष सूरि जी
१८२७ ४७. ग्यारह अंग कण्ठस्थ करने वाले प्राचार्यश्री सोमप्रभ सूरि जी १८४३
(द्वितीय) ४८. शासनप्रभावक प्राचार्य श्री सोमतिलक सूरि जी
१८६४ ४६. मंत्र-तंत्र-निमित्तज्ञाता प्राचार्य श्री देवसुन्दर सूरि जी
१९३८ ५०. राणकपुर तीर्थ प्रतिष्ठाकारक प्राचार्य श्री सोमसुन्दर सूरि जी १९६६ ५१. 'संतिकरं' स्तोत्र रचयिता आचार्य श्री मुनिसुन्दर सूरि जी १६७३
'बाल सरस्वती' विरुद प्राप्त-'श्राद्धविधि' कर्ता प्राचार्य श्री रत्नशेखर सूरि जी
१९८७ ५३. शासनप्रभावक प्राचार्य श्री लक्ष्मीसागर सूरि जी
२००७ शासनप्रभावक प्राचार्य श्री सुमतिसाधु सूरि जी
२०२१ ५५. शुद्ध धर्म संरक्षक प्राचार्य श्री हेमविमल सूरि जी
२०५३ ५६. शासन प्रभावक प्राचार्य श्री प्रानन्द विमल सूरि जी
२०६६ ५७. प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य श्री दान सूरि जी
२०६२ ५८. जगद्गुरु अकबर-प्रतिबोधक प्राचार्य श्री विजय हीर सूरि जी २११२
० ० ० ० ० m
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२१४२
HAMARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR
५६. शासनप्रभावक प्राचार्य श्री विजय सेन सूरि जी ६०. देवसूरगच्छभूषण प्राचार्य श्री विजय देव सूरि जी
२१७३ ६१. शासन शणगार प्राचार्य श्री विजय सिंह सूरि जी (द्वितीय) २१७६ ६२. पंन्यास श्री सत्य विजय जी गणि
२२२६ ६३. पंन्यास श्री कर्पूर विजय जी गरिण
२२४५ ६४. पंन्यास श्री क्षमा विजय जी गणि
२२५६ ६५. पंन्यास श्री जिन विजय जी गणि
२२६६ ६६. पंन्यास श्री उत्तम विजय जी गरिण
२२६७ ६७. पंन्यास श्री पद्म विजय जी गणि
२३३२ ६८. पंन्यास श्री रूप विजय जी गणि
२३७५ ६६. पंन्यास श्री कीर्ति विजय जी गणि
२३८५ ७०. पंन्यास श्री कस्तूर विजय जी गरिण
२३६० ७१. पंन्यास श्री मरिण विजय जी गणि
२४०५ ७२. पंन्यास श्री बुद्धि विजय जी गरिण
२४०८ ७३. पूज्य श्री वृद्धि विजय जी महाराज
२४१६ ७४. शासनसम्राट् प्राचार्य श्री विजय नेमि सूरि जी
वि.सं. २००५ ७५. साहित्यसम्राट प्राचार्य श्री विजय लावण्य सूरि जी वि.सं. २०२६ ७६. संयमसम्राट प्राचार्य श्री विजय दक्ष सूरि जी
वि.सं. २०४८ ७७. जैनधर्म दिवाकर प्राचार्य श्री विजय सुशील सूरि जी
SARPAN
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महापुरुषों के विषय में महर्षि भर्तृहरि ने कहा है 'अलंकारः भुवः'। निस्सन्देह - वे धरती के अलंकार होते हैं । उनका समस्त जीवन लोक-कल्याण के लिए समर्पित होता है। ऐसी ही लोक-मंगल-विभूति जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री सुशील सूरि
जी हैं। उन्होंने अपना जीवन मानवीय मूल्यों को मानव समाज में प्रतिष्ठित करने * के लिए अपित किया है। पूज्य प्राचार्यश्री ने अपने उदात्त मिशन के क्रियान्वयन
हेतु पंचसूत्री कार्यक्रम बनाया है ।
* पंचसूत्री कार्यक्रम *
RNSEXSEXXXXXXXXXXXXX १. सप्त व्यसन-मुक्त समाज की रचना २. समाज की एकता
3. जिनमन्दिरों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार ४. सत् साहित्य-सृजन
५. चरित्र-निर्माण ____ सात व्यसन हैं-मदिरापान, मांसाहार, शिकार, जुआ (बूत क्रीड़ा), * परस्त्रीगमन, वेश्यागमन, चोरी। व्यसन-मुक्त मानव समाज धरती पर स्वर्ग की • कल्पना को साकार करता है। समाज की एकता के लिए जाति, धर्म, सम्प्रदाय
आदि से ऊपर उठना आवश्यक है। सभी मनुष्य समान हैं, प्राणिमात्र अपनी • आत्मा के समान है
'आत्मवत् सर्वभूतेषु' यह भारतीय संस्कृति का महान् सन्देश है।
आचार्यश्री ने 'श्रीमहादेवस्तोत्र काव्य' में ईश्वर को शिव-शंकर, ब्रह्मा, विष्णु, ईश्वर, बुद्ध, अल्लाह आदि बताकर करुणा-निधान, विश्व-वात्सल्य-मूर्ति * वीतराग परमात्मा का गुणगान किया है। उन्होंने कहा है कि प्राणिमात्र के प्रति - प्रेम रखना ही धर्म है, प्रभु-सेवा है। उन्होंने कहा-'धर्म फूल है जो सुगन्ध और - सुन्दरता से सबको सम्मोहित करता है, वह काँटा नहीं जो चुभकर किसी को दुःख * पहँचाए। अतः मानव को चाहिए कि वह प्रेम के सूत्र में गुम्फित होकर जगत्। सुख का निर्माण करे।
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पूज्य श्री सुशील गुरुदेवश्री संस्कृत, प्राकृत एवं गुजराती भाषाओं के मर्मज्ञ एवं अधिकारी विद्वान् हैं। स्वयं गुजराती भाषा-भाषी होते हुए भी वे हिन्दी में - साहित्य रचते हैं। उन्होंने लगभग १२५ पुस्तकें लिखी हैं जिनमें अधिकांश हिन्दी
भाषा में हैं।
उनकी दृष्टि में आधुनिक युग की नवपीढ़ी को सस्ते कामुक साहित्य से बचाने के लिए साहित्यकारों को सत् साहित्य का निर्माण करना चाहिए ।
प्राचार्यश्री स्वयं इस दिशा में विशेष योगदान कर रहे हैं। नवपीढ़ी को संस्कारित A करने के लिए समाज के अग्रगण्य, शिक्षक, व्यापारी, धर्माचार्य, नेतागण आदि स्वयं
उच्च एवम् प्रादर्श-जीवन-यापन करें।
जिन पडिमा जिन सारिखी संसार-समुद्र से तिरने के लिए एवं मुक्तिमन्दिर में पहुँचने के लिए जिनप्रतिमा अलौकिक एवं अद्वितीय नौका तुल्य है।
जिनमन्दिर के निर्माण एवं प्राचीन मन्दिरों के जीर्णोद्धार का पुनीत कार्य - सद्गृहस्थों को अवश्य करवाना चाहिए ।
पूज्य गुरुदेवश्री के वरद-करकमलों द्वारा अनेक प्रसिद्ध तीर्थों एवं जिनप्रासादों * की अंजनशलाका-प्रतिष्ठायें सम्पन्न हुई हैं ।
११८ जिनमन्दिरों को प्रतिष्ठायें एवं अंजनशलाका करवाने का महान् श्रेय * पूज्य श्री सुशील गुरुदेवश्री को प्राप्त है ।
प्राचार्यश्री का निर्मल, तपशील एवं निस्पृह जीवन कमल के समान निर्लेप पोक्खर पत्तं व निरुवलेवे और धरती के समान• क्षमाशील 'पुढवीसमोमुरणी हवेज्जा ' है।
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5 जीवन झलक फ्र
इन महर्षि का जन्म चाणस्मा (गुजरात) में वि. सं. १९७३ भाद्रपद शुक्ला १२ के शुभ दिन हुआ था । पिताजी का नाम चतुरभाई और माताजी का नाम चंचलबेन । माता-पिता के धार्मिक संस्कारों, ज्ञानी -महात्माओं के प्रवचनों एवं ज्ञान-वैराग्य की सत्पुस्तकों से इनकी वैराग्य-भावना परिपुष्ट हुई, फलस्वरूप १४ वर्ष की लघु आयु में इन्होंने वि. स. १६८८ में दीक्षा ग्रहण की। ये परम पूज्य शासनसम्राट् के समुदाय के प. पू. श्राचार्य श्री दक्षसूरिजी म. सा. के शिष्य हुए।
गौरवमय परिवार : चारणस्मा के श्रेष्ठिवर्य श्री चतुरभाई मेहता का सम्पूर्ण परिवार गौरवशाली है । इस परिवार के सभी सदस्य दीक्षित हुए। बड़े पुत्र दलपत भाई ( प. पू. प्राचार्यश्री दक्षसुरीश्वरजी म. ) सर्वप्रथम दीक्षित हुए । तत्पश्चात् लघुपुत्र श्री गोदड़ भाई ( प. पू. श्राचार्यश्री सुशील सूरीश्वरजी म. ) दीक्षित हुए। छोटे पुत्रवर विक्रम भाई की भी दीक्षा की पुनीत भावना थी, परन्तु वे समय स्वर्गवासी हुए । लघु पुत्री श्री तारा बहन ( पू. साध्वी श्री रवीन्दु प्रभाश्री जी म. ) भी दीक्षित हुई । स्वयं चतुर भाई ने भी पू. मुनिश्री चन्द्रप्रभ विजय जी म. के रूप में दीक्षित होकर आत्मकल्याण किया था ।
पू. श्री सुशील गुरुदेव श्रीजी साहित्यरत्न, कविभूषण आदि अलंकरणों से विभूषित हुए । साथ ही जैनधर्म दिवाकर, मरुधर - देशोद्धारक, तीर्थ-प्रभावक, राजस्थान- दीपक, शासनरत्न आदि अनेक विरुदों से विभूषित हुए । इन अलंकरणों को आपने केवल जनता के प्रेम के कारण स्वीकार किया है । श्राप ही के शब्दों
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HTRIANRAINRITERMIRMIRINTAMILINE • में "अलंकरण भार रूप हैं। मैं तो प्रभु के चरण-कमलों में समर्पित एक नन्हा
पुष्प पल्लव हूँ।"
प्रापश्री के पट्टधर पूज्य प्राचार्य श्री जिनोत्तम सूरीश्वरजी म. भी सुमधुर प्रवचनकार एवम् प्रभावशाली सन्त हैं। आपको प्रेरणा से सुशील-सन्देश मासिक पत्र का सुन्दर रूप से प्रकाशन हो रहा है। सर्वजनसुखाय की सत्प्रेरणा से प्रकाशित मासिक जन-जन के लिए अभिप्रेरक है।
सुशील वचनामृत
१. अनन्त शान्ति की प्राप्ति हेतु दूसरों का हित करो। २. सादा जीवन और उच्च विचार मानव का सिद्धान्त होना
चाहिए। इससे सफलता मिलती है । ३. पृथ्वी के तीन रत्न हैं-जल, अन्न और मधुर वाणी । ४. दयापूर्ण हृदय मनुष्य की अनन्त मूल्यवान सम्पत्ति है । ५. धर्म का अर्थ है प्रेम । ६. परोपकार करना प्रभु की सर्वोत्तम सेवा है । ७. चरित्रवान् व्यक्ति कुबेर के अनन्त कोषों से भी अधिक
मूल्यवान है।
भारतीय संस्कृति में निहित अहिंसा, प्रेम प्रादि सिद्धान्तों व जैन दर्शन की सहिष्णुता व
क्षमाशीलता का अमृत पिलाने वाली लोकमंगल-विभूति को अनन्त प्रणाम ।
卐 AMMMMMARRRRRRRRRRRRIER
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पूज्य श्री सुशील गुरुदेवश्री
की जीवन-झलक
* जन्म-वि. सं. १६७३, भाद्रपद शुक्ला द्वादशी,
चारणस्मा (उत्तर गुजरात) २८-६-१७ * दीक्षा -वि. सं. १९८८, कार्तिक (मृगशीर्ष ) कृष्ण २,
उदयपुर (राज. मेवाड़) २७-११-३१ गणि पदवी-वि. सं. २००७, कार्तिक (मृगशीर्ष) कृष्ण ६,
वेरावल (गुजरात) १-१२-५० पंन्यास पदवी-वि. सं. २००७, वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया)
___ अहमदाबाद (गुजरात) ६-५-५१ उपाध्याय पद-वि. सं. २०२१, माघ शुक्ला ३,
मुडारा (राजस्थान) ४-२-६५ * प्राचार्य पद-वि. सं. २०२१, माघ शुक्ला ५ (बसन्त पंचमी)
मुडारा ६-२-६५
* अलंकरण के
साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद एवं कविभूषण अलंकरण--श्री चरित्रनायक को मूडारा में पूज्यपाद प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजयदक्ष सूरीश्वरजी म. सा. के वरदहस्त से अर्पित हैं।
२. जैनधर्मदिवाकर -वि. सं. २०२७ में श्री जैसलमेर तीर्थ के प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ
द्वारा। ३. मरुधरदेशोद्धारक -वि. सं. २०२८ में रानी स्टेशन के प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ४. तीर्थप्रभावक -वि. सं. २०२६ में श्री चंवलेश्वर तीर्थ में संघमाला के भव्य प्रसंग पर
श्री केकड़ी संघ द्वारा।
५. राजस्थान-दीपक-वि. सं. २०३१ में पाली नगर में प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ६. शासनरत्न - वि. सं. २०३१ में जोधपुर नगर में प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ७. श्री जैन शासन शणगार-वि. सं. २०४६ मेड़ता शहर में श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा
महोत्सव के प्रसंग पर । ८. प्रतिष्ठा शिरोमणि-वि. सं. २०५० श्री नाकोड़ा तीर्थ में चातुर्मास के प्रसंग पर ।
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श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति
का सप्रेम निवेदन
मान्यवर श्री........
साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब कहा जाता है, जिसमें मौलिक साहित्य का महत्त्व सर्वाधिक है।
मौलिक साहित्य के पठन से आपके परिवार में अच्छे संस्कारों का सिंचन होगा, जिससे जीवन में प्रेम और शान्ति के फूल खिलेंगे । * प्राध्यात्मिक विकास के लिए तत्त्व-चिन्तन का साहित्य । * स्वस्थ जीवन के लिए मौलिक चिन्तन का साहित्य । ॐ जीवन के शाश्वत मूल्यों को उजागर करने वाला कथासाहित्य ।
के भीतरी समस्या को सुलझाने वाला प्रेरक साहित्य । यह सब प्राप्त करने के लिए पाप श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति (रजि.) द्वारा प्रकाशित धार्मिक साहित्य पढ़िये ।।
* सुन्दर - सरल - सरस * सुरुचिपोषक - सुसंस्कारवर्धक * शुभ और शुद्ध विचारों से समृद्ध ऐसे साहित्य को नियमित प्राप्ति हेतु
आप आजीवन सदस्य अवश्य बनें । सम्यक् साहित्य के प्रचार और प्रसार में सहभागी बनने हेतु
हमारा सप्रेम भावपूर्ण निमन्त्रण है ।
आजीवन सदस्यता शुल्क-२७११ रुपये
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प्राचार्य श्री सुशील सूरि जी जैन ज्ञान मन्दिर, सिरोही
श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर भूत, भावी तमाम उपलब्ध प्रकाशनों की एक-एक प्रति
निःशुल्क भेजी जायेगी। भावी तमाम प्रकाशनों में आजीवन सदस्य के रूप में नाम छपेगा
व एक-एक प्रति निःशुल्क प्रेषित की जायेगी। श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति, जोधपुर के नाम का चैक ड्राफ्ट/रोकड़ से निम्न पते पर 2711/- रुपये भेजें।
श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति
c/o श्री गुणदयालचन्द जी भण्डारी राइकाबाग, पुरानी पुलिस लाइन के पास,
मु. जोधपुर (राज.) फोन नं. : 623829, 436821
दानवीर महानुभाव आजीवन सदस्य बनकर सम्यग्ज्ञान के
प्रचार-प्रसार में सहयोगी बनें ।
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-विनीत
ट्रस्ट मण्डल श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति श्री गुणदयालचन्द जी भण्डारी, जोधपुर श्री मांगीलाल जो सो. जैन, तखतगढ़ (नेल्लोर) श्री गणपतराज जी चौपड़ा, पचपदरा (मुम्बई) श्री हुक्मीचन्द जी कटारिया, रूण (बैंगलोर) डॉ. जवाहरचन्द्र जी पटनी, कालन्द्री श्री नैनमल विनयचन्द्र जी सुराणा, सिरोही श्री मांगीलाल जी तातेड़, मेड़ता सिटी
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प्राचार्य श्री सुशीलसूरिजी जैन ज्ञान मन्दिर, शान्तिनगर सिरोही द्वारा
प्रकाशित उपलब्ध
प्राणवान-सरस-सुबोध-सरल साहित्य १. सुशील नाममाला (संस्कृत शब्दकोश) १६. श्री जैन सिद्धान्त प्रवेश मार्गदर्शिका २. श्रीषड्दर्शनदर्पणम् (संस्कृत ग्रन्थ ) (हिन्दी) ३. श्री तीर्थंकरचरित्रम् (संस्कृत ग्रन्थ) २०. श्री तीर्थयात्रा संघ की महत्ता (हिन्दी) ४. सुशील स्वाध्याय रत्नाकर (श्री पंच २१. मंगलाचरणम् (संस्कृत टीकायुक्त)
प्रतिक्रमण सूत्रादि संग्रह हिन्दी सरलार्थ २२. श्री सुशील गीत गँहुली संग्रह युक्त)
२३. दीक्षा का दिव्य प्रकाश ५. स्वाध्याय सुधा (नवस्मरण-त्रण भाष्य २४. मासिक धर्म अर्थात् ऋतु सम्बन्धी छः कर्म ग्रन्थ-तत्त्वार्थ सूत्र-दशवैकालिक
प्राचीन मर्यादा कूलकसंग्रह-ऋषिमण्डलादि स्तोत्रों का
२५. श्री गणधरवादकाव्यम् संग्रह) ६. श्री तीर्थंकर परमात्मानों के पांचों
२६. छन्दोरत्नमाला कल्याणकों की अलौकिकता
२७. मूर्ति की सिद्धि एवं प्राचीनता ७. शोलदूतम् (सुशीलाभिधावृत्ति सहितम) २८. पढ़ो और पायो ८. श्री सरस्वती स्तोत्रम् (सार्थ)
२६. श्रोतत्त्वार्थसूत्रम् (भाग-१-२) ६. विधियुक्त श्री पंच प्रतिक्रमण सूत्रादि ।
३०. सुशील विनोद कथा संग्रह संग्रह
३१. साहित्य-रत्नमंजुषा १०. सुशील जीवन सौरभ (सचित्र हिन्दी) ३२. जिनदर्शन-पूजन विधिसंग्रह ११. मंगलस्मरण
३३. जिन भक्ति भावना स्तोत्रम् १२. स्मरणिका (गुजराती)
३४. सुशील महाकाव्यम् १३. श्रीवीतरागस्तोत्रम् (हिन्दी)
३५. गुणस्थान-क्रमारोह का स्वरूप १४. सुशील गुरुवन्दना (हिन्दी)
३६. जिनमूर्ति पूजा सार्द्ध शतक १५. श्री सिद्धचक्र-नवपद स्वरूप दर्शन ३७. श्रीतिलक मञ्जरी (हिन्दी)
३८. धर्मोपदेशश्लोक १६. सार्थ श्री श्रमण क्रिया ना सूत्रो ३६. पर्युषण पर्व की महिमा १७. श्रीमहादेवस्तोत्रम् (संस्कृत टीका
युक्त) १८. श्री चौदह नियम मार्गदशिका (हिन्दी)
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* अवश्य पढ़ेंज
ॐ ह्रीं श्री नमो नाणस्स5
पढ़कर ज्ञान प्राप्त करें -
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सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय की सत्प्रेरणा से प्रकाशित मानव-जीवन में आध्यात्मिक चेतना का सजग प्रहरी, जीवन में सुसंस्कारों की सौरभ प्रवाहित करने वाला हिन्दी मासिक पत्र
सुशील-सन्देश (स्थापित सन् १९८७)
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प्रेरक : परम पूज्य प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय a सुशीलसूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्यरत्न
प.पू. प्राचार्य श्री विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म.सा. SAWWWWWWWWOWWWWWWWWWWWý
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मानद सम्पादक : नैनमल विनयचन्द्र सुराणा
सिरोही (राज.)
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Puccineeta
प्रकाशक : सुशील फाउण्डेशन (रजि.)
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HAMARIMIRRRRRRRRRRRRIMIRMIRMIRMIRE
सुशील सन्देश में आप क्या पढ़ेंगे ? जीवन में गुनगुनाहट कराने वाले गीत-संगीत-कविता
--काव्यकुञ्ज जैन संस्कृति की गौरव गाथा गाने वाली मधुर शिक्षाप्रद कहानियाँ --पढ़ो और पात्रो जैन तत्त्वज्ञान की विशद जानकारी हेतु स्वाध्याय-प्रश्नोत्तरी - समाधान के आयाम सुवचनों का अपूर्व संग्रह
-अनमोल मोती ज्ञान के साथ में विविध चुटकुलों का संग्रह
-प्रानो आनन्द करें प्रकाशित पुस्तकों/ग्रन्थों पर समीक्षात्मक टिप्पणी
-साहित्य समीक्षा विविध शासन-प्रभावना के अनुमोदनीय समाचार
-धन्य जिनशासन एवं
श्री वीतराग शासन-प्रभावना पाठकों के विविध विचार
___-प्रतिक्रिया-मत-सम्मत
- इन स्थायी स्तम्भों के अतिरिक्त विविध लेख, ऐतिहासिक कथाएँ, जीवन-निर्माण के उपयोगी लेख, तीर्थ महिमा, स्वास्थ्य चिन्तन पर लेख अादि का प्रकाशन होता है। सुशीलसन्देश के ८ वर्ष में १८ भव्य विशेषांक प्रकाशित हुए हैं ।
MOON
सदस्यता शुल्क : आजीवन : ७११/- रुपये - आजीवन स्थायी स्तम्भ : १५११/- रुपये
听听 监
कार्यालय व सम्पर्क सूत्र : - सुशील सन्देश प्रकाशन मन्दिर
सुराणा कुटीर, रूपाखान मार्ग, __ पुराने बस स्टेण्ड के पास, सिरोही-३०७००१ (राज.) STD - 02972
83330
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___ सुशील-सन्देश के विशेषांक ,
करीब १० वर्ष की अवधि में सुशील-सन्देश के १२० अंक प्रकाशित हुए हैं । इनमें १८ भव्य विशेषांक प्रकाशित किये गये हैं। (१), प्रतिष्ठा महोत्सव-विशेषांक
दिनांक 20-6-1987 (श्री जावली नगरी में श्री धर्मनाथ जिन मन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव की पावन
स्मृति में) (२) + ७१ वां जन्म-दिवस-विशेषांक
दिनांक 1-9-1987 (प. पू. आचार्य भगवन्त श्री सुशील सूरीश्वर जी म. सा. के ७१ वें जन्म-दिवस पर प्रकाशित) दीपावली विशेषांक
दिनांक 1-11-1987 (प. पू. शासनसम्राट् प्राचार्यश्री जो की ११५ वी जन्म जयन्ती व प. पू. प्राचार्य श्री
के ५३ वें दीक्षा-दिवस पर प्रकाशित) (४) प्राचार्य पद के २४ वें वर्ष में मंगल-प्रवेश विशेषांक दिनांक 1-2-1988
(योगिराज श्री आनन्दघन जी महाराज के जीवन-कवन की विशिष्ट सामग्री युक्त
प्रकाशित) (५) + ७२ वां जन्म-दिवस-विशेषांक
दिनांक 1-10-1988 (विविध लेख-कथा व जीवन-परिचय से युक्त प्रकाशन) (६), श्री पार्श्वनाथ भगवान की महिमा युक्त-विशेषांक दिनांक 1-3-1989
(सांचोड़ी नगर में श्री मनमोहन पार्श्वनाथ जिनमन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव की पावन स्मृति में ऑफसेट टाइटल व रंगीन चित्रों युक्त भव्य विशेषांक) बोधप्रद कथा-विशेषांक
दिनांक 1-6-1989 (श्री रामजी का गुड़ा नगर में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव की पावन स्मृति में ऑफसेट टाइटल व २ रंगीन चित्रयुक्त आकर्षक विशेषांक) पर्युषण-विशेषांक
दिनांक 1-9-1989 (E) सामायिक महिमा-विशेषांक
दिनांक 1-1-1990 (पू. गणिवर्य श्री जिनोत्तम विजयजी म. के गणिपद-प्रदान निमित्त भव्य स्मारिका) (१०) ॐ श्री नवकार-महिमा-विशेषांक
दिनांक 1-7-1990 (प. पू. प्राचार्य भगवन्तश्री के प्राचार्यपद के रजत महोत्सव के प्रसंग पर प्रकाशित)
(७)
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(११) जैन कथा-कुञ्ज विशेषांक
दिनांक 1-10-1990 (ऐतिहासिक ६ कहानियों का अपूर्व संग्रह) (१२) कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्यप्रवर श्री हेमचन्द्रसूरि विशेषांक दिनांक 1-9-1992
(श्री करमावास नगर में अंजनशलाका-प्रतिष्ठा पर प्रकाशित) १३) भगवान महावीर विशेषांक
दिनांक 1-1-1992 (श्री समदड़ी नगर में अंजनशलाका-प्रतिष्ठा पर प्रकाशित) जगद्गुरु आचार्य श्री हीरसूरीश्वर विशेषांक दिनांक 1-6-1993
(श्री पचपदरा प्रतिष्ठा पर प्रकाशित) (१५) श्री दीक्षा महोत्सव स्मारिका-विशेषांक
दिनांक 1-10-1993 (श्री अगवरी नगरी में सम्पन्न दीक्षा महोत्सव पर) (१६) श्री अष्टापद जैनतीर्थ परिचय विशेषांक
दिनांक 1-5-1994 (श्री अष्टापद जैन तीर्थ, सुशील विहार, रानी की निर्माण-योजना का परिचय) (१७) द्विवार्षिक जन्मशताब्दी महोत्सव विशेषांक दिनांक 1-10-1995
(पू. आ. श्री लावण्य सूरि जी म. के जीवन-कवन युक्त) (१८) नमस्कार सौरभ, उपाध्यायपद-प्रदान विशेषांक दिनांक 1-2-1997
(पूज्य पंन्यासप्रवर श्री जिनोत्तम विजय जी गणिवर्य के उपाध्यायपद-प्रदान महोत्सव निमित्त विशेषांक) (विशिष्ट धार्मिक प्रसंगों पर बुलेटिन का प्रकाशन) सूचना :卐 निशान वाले विशेषांक अप्राप्य हैं।
ॐ सुशील सन्देश के सदस्यों को भेंट पुस्तकें • पढ़ो और पायो (शिक्षाप्रद कहानियाँ) • श्री लावण्यकाव्यकीर्तिलता . नमो जिणाणं .
• जिनोत्तम दोहावली वीतराग वन्दना
• नमस्कार सौरभ • योगिराज श्री प्रानन्दघन जी एवं उनका काव्य . गूज उठी संयम शहनाई शाश्वत-सन्देश
• सूरिराज वन्दना • प्रवचन पीयूष
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राजस्थान के गौरव - जैनाचार्य श्री जिनोत्तम सूरीश्वरजी
राजस्थान की वीर भूमि की गोद में शूरवीरता, त्याग और बलिदान की गौरव गाथाएं गुजती रही हैं। इस प्रदेश का कण-करण शुरवीरता का अनोखा इतिहास अपने में मंजोये हुए है । वोर प्रसूता भूमि की गाद संत महात्मानों, त्यागी तपस्वियों, भक्तों ग्रादि से भो । भरी पड़ी है। प्रदेश का सम्भवत:सा कोई हिस्सा नहीं होगा जहां धर्म को अलख जगाने, मानव सेवा करने, जन-जन का एवं स्व का कल्याण करने वाले संत-महात्माओं, साधुमंन्यासियों, त्यागी-तपस्वियों, भक्तों की कमी रही हो। इस कारण शूरवीरता के लिए इतिहासप्रसिद्ध राजस्थान धर्म-भक्ति के क्षेत्र में भी विश्व में अपनी अनोखी पहचान बनाये हए है। धार्मिक क्षेत्र में तो राजस्थान धनाढ्य समझा जाता है; जिसकी छत्रछाया में विश्व के अदभुत एवं अनोखी शिल्प कलाकृतियों के बेजोड़ मन्दिरों तथा धार्मिक स्थलों की भरमार है; जिमफे दर्शन करने, निहारने एवं जिसको गोद में बैठकर प्राध्यात्मिक शांति प्राप्त करने के लिए विश्व का जन समुदाय उमड़ पड़ता है।
धार्मिक एवं ग्राध्यात्मिक क्षेत्र में जन-जन को उदबोधित करने वाले सभी धर्मों के धर्माचार्यो, साधु-साध्वियों, संन्यासियों, भक्तों ने राजस्थान को पवित्र एवं पतितपावन धरा । को अपनी कर्मभूमि माना है। इसी धर्मभुमि का सिरोही क्षेत्र अाज भी अपनी गोद में विभिन्न धार्मिक स्थलों. ज्ञान संस्थानों पावना-उपासना-पाराधना आदि स्थलों के लिए * जन-जन को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। इसी सिरोही जिले की पावन धरा जावाल में जैन धर्मावलम्बी श्री उत्तमचन्द प्रमोचन्दजो मड़िया के यहाँ वि. सं. 2018 चत्र वदी 6 को एक ऐसे गुणवान, ध्यानवान, भाग्यवान, कर्मवान पुत्र जयन्तीलाल का जन्म हया जो जैन साधु के सभी पदो से अलंकृत होते हए वि. सं. 2054 की वैशाख शुक्ला 6 मोमवार 12 मई 1997 को इसी प्रदेश के तीर्थों के लिए विख्यात पाली जिले के लाटाडा में जैन धमिक क्षेत्र के सबगे ऊंन पद जैनाचार्य की पदवी को प्रानकर इस प्रदेश की प्रार अधिक गरिमा नवा रहे हैं।
जैनमुनि श्री जिनोत्तम विजयजी ने सिरोही जिले के जाबाल के जैन श्री उत्तमचन्द अमीचन्द मरडिया के यहाँ जन्म लेने के बाद अपनी माता श्रीमती दाड़मी बाई को धर्म अाराधना, गुरुभक्ति, जैनधर्म के प्रति आस्था एवं विश्वास से प्रभावित होकर मात्र दस वर्ष को अल्पायु में जैनाचार्य श्रीमद् सुशील सूरीश्वरजी म. सा. के पास अपनी जन्मभूमि का मान व गौरव बढ़ाने के लिए जैन साधुत्व को वि. सं. 2).28 ज्येष्ठ वदो 5 को जावाल में हो - दीक्षा ग्रहण को।
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सिरोही जिले के जावाल के धरतीपुत्र जैनमुनि श्री जिनोत्तम विजयजी अब अपने आत्मकल्याण के साथ जन-जन का कल्याण करने के लिए अपने गुरु भगवन्त के साथ जैन साधुत्व के पंच महाव्रतों की पालना करते हुए डगर-डगर, गाँव-गाँव, ढाणी-ढाणी, नगर-नगर में पैदल विहार कर समाज में नैतिक जागरण का शंखनाद करते रहे । सदाचार और शिष्टाचार की महत्ता को जन-जन तक पहुँचाते रहे । जीओ और जीने दो की अलख जगाते रहे । सत्य, अहिंसा का प्रचार-प्रसार कर जन समुदाय को आपसी मंत्री भाव की माला में पिरोते रहे । जैन साधुत्व की दीक्षा लेने के अठारह वर्ष बाद इनके गुरु जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. ने इनकी परख कर राजस्थान की पावन धरा के सोजत सिटी में आपको वि. सं. 2046 मृगशीर्ष शुक्ला 6 को गरिणपद और वि. सं. 2046 की ज्येष्ठ शुक्ला 10 को इनकी जन्मभूमि जावाल में पंन्यास पद से विभूषित किया ।
पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी जैनधर्म की गहराई में ज्ञान ध्यान के साथ सभी प्रकार के धार्मिक क्रिया-कलापों में अपने गुरु भगवन्त के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जैन शासन की अनुपम सेवा करने में कदापि पीछे नहीं रहे । जैन शासन सेवा के साथ राष्ट्रीय जन जागरण, मैत्री भावना से जन-जन को आपस में जोड़ने, मानव सेवा के कई रचनात्मक कार्य करने, साहित्य-कला-संस्कृति को उजागर करने वाले पंन्यास श्री जिनोत्तम विजयजी को वि. सं. 2053 मार्गशीर्ष वदी 2 को पाली जिले के कोसेलाव में उपाध्याय पदवी से अलंकृत करने पर इनकी धार्मिक, नैतिक, समाज-सेवा आदि क्षेत्रों में कार्य करने की अधिक जिम्मेदारी बढ़ गई।
उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजय जी को जैनशासन, मानव समाज, जीव मात्र के प्रति इनकी लग्न, निष्ठा को देखकर हर व्यक्ति बड़ा प्रभावित हुआ । इनके सदाचार, शिष्टाचार, आत्मीय भाव मधुर व्यवहार, मिलनसारिता, शान्त स्वभाव, गम्भीर चिन्तन, उज्ज्वल भावनाओं के कारण जो कोई भी व्यक्ति इनके सम्पर्क में प्राया अथवा सत्संग में बैठा, निश्चित रूप से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । इनके मार्गदर्शन, उपदेशों, पीयूषवारणी से प्रभावित होकर कई हिंसक व्यक्तियों ने अहिंसा का पथ अपना लिया । नशेड़ियों ने नशा करना छोड़ दिया । असामाजिक गतिविधियों में लिप्त इन्सान भी आपका सान्निध्य प्राप्त कर सब अनीतियों को छोड़ समाज की ओर अग्रसर हो गये। ऐसे प्रभावशाली एवं भाग्यशाली उपाध्याय योजो के प्राचार - विचारों से प्रभावित होकर जैन समाज ने वि. सं. 2054 वैशाख शुक्ल 6, सोमवार, 12 मई 1997 को पाली जिले के लाटाड़ा में आपको जैनाचार्य की पदवी से अलंकृत किया है। आपके धर्मगुरु जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी अपनी 81 वर्ष की वृद्धावस्था में आपको प्राचार्य पदवी देकर जैनशासन मानवधर्म, सेवा करने की बागडोर सशक्त हाथों में सौंपकर अपने आपको संतोषी मानने लगे हैं, जबकि धर्मावलम्बी एवं धर्मप्रेमी उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजयजी को आचार्य पद पाने पर अपने आपको गौरवशाली एवं भाग्यशाली समझने लगे हैं ।
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सांसारिक नाम
माता का नाम
पिता का नाम
जन्मस्थान
जन्मतिथि
दीक्षातिथि
दीक्षादाता
दीक्षागुरु दीक्षास्थल दीक्षानाम बड़ी दीक्षास्थल बड़ी दीक्षा तिथि गणपद स्थल गरि पद तिथि पंन्यासपद स्थल पंन्यासपद तिथि उपाध्यायपद स्थल उपाध्यायपद तिथि जैनाचार्यपद तिथि जैनाचार्यपद स्थल
परिवार में दीक्षित :
दादा
दादी
माता
भुश्रा
भुश्रा
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संक्षिप्त जीवन-परिचय
श्री जयन्तीलाल मरड़िया श्रीमती दाड़मी बाई
श्री उत्तमचन्द ग्रमीचन्द जी मरड़िया जावाल, जि. सिरोही (राज.)
वि. सं. २०१८, चैत्र वदी ६, २७ मार्च १९६२
वि. सं. २०२८, ज्येष्ठ वदी ५, १५ मई १६७१
प. पू. प्राचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. प.पू. आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. जावाल, जि. सिरोही (राज.)
मुनि श्री जिनोत्तम विजय जी
उदयपुर (राजस्थान )
वि.सं. २०२८, आषाढ़ शुक्ला १०, ३ जून १६७१ सोजत सिटी ( राजस्थान )
वि. सं. २०४६, मगसर शुक्ला ६, ४ दिसम्बर १९८६ जावाल, जि. सिरोही (राज.)
वि. सं. २०४६, ज्येष्ठ शुक्ल १०, २ जून १६६० कोसेलाव, जि. पाली (राज.)
वि. सं. २०५३, मार्गशीर्ष वदी २, २७ नवम्बर १६६६ वि. सं २०५३, वैशाख शुक्ल ६, १२ मई १९६७, सोमवार लाटाड़ा, जि. पाली (राज.)
मुनि श्री अरिहंत विजय जी म साध्वी श्री भाग्यलता श्रीजी म. साध्वी श्री दिव्यप्रज्ञा श्रीजी म. साध्वी श्री स्नेहलता श्रीजी साध्वी श्री भव्यगुरणा
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सुमधुर प्रवचनकार पू. आचार्यदेव
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त्रातत्त्वाचायगमसूत्रम् श्रातत्वाचाधिगमसूत्रम् श्रातत्वाचायगमसूत्रम् श्रातत्त्वाथाधगमसूत्रम् श्रातत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्य श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाय श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वाथ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थी श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्था श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वा श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् 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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् श्रीतत्त्वार्थापि श्रीतत्त्वार्थाशिम श्रीतत्त्वार्थाधिगममत्रम श्रीतत्वार्थाशिरामसर शीतन्नानि श्रीमान
श्रीमद् विजय जिनोत्तम सूरीश्वरजी म. (प्रथम फ्लैप का शेष) को आपने विनय में समाविष्ट कर लिया है। तीर्थोद्धार में आपकी रुचि अद्वितीय है। आप कहते हैं- तीर्थ संस्कृति के अनुपम केन्द्र हैं। समाज को सप्तव्यसनों से मुक्त करने हेतु वे कर्मयोगी सतत जागरूक हैं। कवि महर्षि भर्तृहरि के शब्दों में वे 'अलंकरणं भवः' हैं। वे हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती आदि भाषाओं के पण्डित हैं, तथा साहित्यशिरोमणि सहृदय, महर्षि हैं। आपश्री जी की शुभनिश्रा में ११८ जिनमन्दिरों की अंजनशलाका-प्रतिष्ठायें सम्पन्न हुई हैं। करुणासागर को शत-शत प्रणाम।
* अलंकरण ॐ १. साहित्यरत्न, शास्त्रविशारद एवं कविभूषण अलंकरण -
श्री चरित्रनायक को मुंडारा में पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय-दक्ष सूरीश्वरजी म. सा. के वरद हस्त से
अर्पित है। २. जैनधर्मदिवाकर - वि. सं. २०२७ में श्री जैसलमेर तीर्थ
के प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ३. मरुधरदेशोद्धारक- वि.सं. २०२६ में रानी स्टेशन के
प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ४. तीर्थप्रभावक-वि. सं. २०२८ में श्री चंवलेश्वर तीर्थ में
संघमाला के भव्य प्रसंग पर श्री केकड़ी संघ द्वारा। ५. राजस्थान-दीपक-वि.सं. २०३१ में पाली नगर में
प्रतिष्ठा प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ६. शासनरल - वि.सं. २०३१ में जोधपुर नगर में
प्रतिष्ठा-प्रसंग पर श्रीसंघ द्वारा। ७. श्री जैन शासन शणगार - वि.सं. २०४६ मेड़ता शहर
में श्री अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रसंग पर।। ८. प्रतिष्ठा शिरोमणि - वि. सं. २०१० श्री नाकोड़ा तीर्थ
पर चातुर्मास के प्रसंग पर नाकोड़ा ट्रस्ट मण्डल द्वारा।
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________________ IIIIIIIII सिरोही ज्ञान मन्दिर श्री अष्टापद जैन तीर्थ पका HRUDELLOT OSTUAR-URHRT IIC THAT CURRH / / श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ | * प्रकाशन सौजन्य * श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ चान्दराई नगर (जि. जालोर-राज.) ज।। जैनं जयति शासनम / / मुद्रक : ताज प्रिण्टर्स, जालोरी गेट के अन्दर, जोधपुर 021435, 21853