Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 05 06
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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षष्ठोऽध्यायः
[ १३
(१६) आनयन क्रिया - स्वयं पालन करने की शक्ति नहीं होने से शास्त्रोक्त आज्ञा के विपरीत प्ररूपण करना। यह प्रानयन या प्राज्ञाव्यापाद क्रिया कही जाती है ।
(२०) अनाकांक्षा क्रिया-धर्तता या आलस्य वश शास्त्रोक्त विधि का अनादर करना। अर्थात्-प्रमाद से जिनोक्त विधि का अनादर करना। यही अनाकांक्षा क्रिया कही जाती है ।
(२१) प्रारम्भ क्रिया-प्रारम्भ-समारम्भ में रत होना। अर्थात्-पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा हो ऐसी क्रिया। यह प्रारम्भ क्रिया कही जाती है।
(२२) पारिग्राहिकी क्रिया-परिग्रह की वृद्धि एवं संरक्षण हेतु की जाने वाली क्रिया। अर्थात्-चेतन-अचेतन परिग्रह के न छूटने के लिए प्रयत्न करने को पारिग्राहिको-परिग्रह को क्रिया कहा जाता है।
(२३) माया क्रिया- ठगी करना। अर्थात्-विनयरत्न आदि की भाँति माया से मोक्षमार्ग की आराधना करनी। यह माया क्रिया कही जाती है।
(२४) मिथ्यादर्शन क्रिया--मिथ्यात्व परिसेवन। इहलौकिकादिक सांसारिक फल की इच्छा से मिथ्यादर्शन की साधना करनी। यह मिथ्यादर्शन क्रिया कही जाती है ।
(२५) अप्रत्याख्यान क्रिया-पाप व्यापार से अनिवृत्त होना। अर्थात्-पापकार्यों के प्रत्याख्यान से (नियम से) रहित जीव की क्रिया। यह अप्रत्याख्यान क्रिया कही जाती है ।
उपर्युक्त पच्चीस क्रियाओं में ईर्यापथ की क्रिया है, वह साम्परायिक आस्रव नहीं है। यहाँ पर समस्त क्रियायें कषायप्रेरित होने के कारण साम्परायिक प्रास्रव कहा गया है। वास्तव में तो, ईर्यापथ की क्रिया कषायप्रेरित नहीं है, क्योंकि वह अकषायी अवस्था है। किन्तु यहाँ कषायप्रेरित कहा, वह ग्यारहवें गुणस्थानक से पतित होने के अन्तसमय की अपेक्षा से है। वास्तविकपने समस्त क्रियाएँ मात्र कर्मग्रहण सापेक्ष जाननी चाहिए। उक्त साम्परायिक क्रियाओं के बन्ध का कारण मुख्यता से राग-द्वेष (कषाय) ही हैं। तथापि कषाय से पृथक् अव्रतादि बन्ध कारणरूप सूत्र में उनमें कतिपय प्रवत्तियाँ मुख्यतापने व्यवहार में दिखाई देती हैं। उन प्रवृत्तियों को साम्पराया भिलाषी यथाशक्ति समझकर रोकने की चेष्टा करें। इस हेतु से ही उपर्युक्त (३६) भेद किये गये हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ पर श्लोकवात्तिक आदि के प्राधारे प्रश्नोत्तरी नीचे प्रमाणे है
* प्रश्न-जहाँ इन्द्रियाँ, कषाय और अव्रत हैं वहाँ क्रिया अवश्य ही रहने की है। अतः केवल क्रिया के निर्देश-प्रास्रव का विधान करना चाहिए, इन्द्रिय आदि का निर्देश करने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-पापका कथन सत्य है। क्योंकि, केवल पच्चीस क्रियाओं के ग्रहण से प्रास्रव हेत का विधान हो सकता है। किन्तु उक्त कथित पच्चोस क्रियाओं में इन्द्रिय, कषाय, तथा अव्रत कारण हैं। यह बताने के लिए इन्द्रिय आदि का ग्रहण किया है। जैसे-पारिग्राहिकी क्रिया में परिग्रह रूप अव्रत कारण है। परिग्रह में लोभ रूप कषाय कारण है। स्पर्शनक्रिया में स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति कारण है। स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति में राग कारण है। माया क्रिया में माया कारण है। पाम अन्य क्रियानों में भी कार्य-कारण भाव जानना।