Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
योग
क्षमापना से जीव में आह्लाद-प्रह्लाद भाव की उत्पत्ति हृदय से राहत मिलेगी। अगर हमारा हृदय साफ है तो होती है। उसमें स्वाभाविक प्रसन्नता का उदय होता है। एक दिन दूसरे का कलुषित हृदय भी अवश्य शान्त और ऐसी प्रसन्नता जो जगत् के किसी पदार्थ से प्रात नहीं स्वच्छ हो जाएगा। वह स्वयं अनुभव करेगा कि मैं व्यर्थ होती है। क्षमापना से मैत्री भाव का विकास होता है। में ही गांठ बांधे बैठा हूँ। इस चिन्तन से वह गांठ से से "अप्प भूयस्स" संसार के जितने प्राणी हैं सब आत्मभूत मुक्त हो जाएगा और निर्ग्रन्थ हो जाएगा। ... है, आत्मवत् हैं। यह वृत्ति जब उत्पन्न होती है तो जगत के समस्त जीवों के साथ मैत्री संबंध स्थापित हो जाता है ।
___मन, वचन और काया को योग कहा गया है। मैत्री भाव - अर्थात् प्राणीमात्र की रक्षा करना, किसी
अर्थात् इनकी प्रवृति योग है। योग से ही कर्म का बन्ध का विनाश न करना, किसी को हानि न पहुंचाना। मैत्री होता है और योग से ही कर्म का क्षय भी होता है। योग भाव के उदय के साथ ही व्यक्ति के हृदय की गांठें खुल । जब संवर से जुड़ जाता है तो वह कर्मक्षय का निमित्त जाती हैं। प्रतिशोध की भावनाएं विलीन हो जाती हैं। बनता है और जब वह आश्रव से जुड़ जाता है तो बन्ध जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार शनैःशनैः वैसे ही विलीन हो का हेतु बन जाता है। जाते हैं जैसे सूर्योदय की वेला में आकाश के सितारे
इसी बात को निंदा के संदर्भ में समझें। निंदा से विलीन हो जाते हैं।
आदमी संसार सागर से तैर भी जाता है और उस से संसार क्षमापना से मैत्री और मैत्री से शत्रुता का भाव मिट सागर में डूब भी जाता है। आत्म-निन्दा से आत्मा हल्की जाता है। सहज आनन्द का उदय होता है। "मैं क्षमा
होती है, कर्म से मुक्त होती है और संसार सागर से पार कैसे मांगू.....मैं खमतखमावण कैसे करूं" आदि क्षद्र भाव हो जाती है। इसके विपरीत पर-निंदा से आत्मा भारी जड़मूल से खो जाते हैं। ...
होकर संसार सागर में डूब जाती है।
योग साधन हैं। कर्मबन्ध और कर्मक्षय योग के क्षमापना का आराधक उपयोग पर निर्भर है। इनके सदुपयोग से आप कर्ममुक्त जो क्षमापना करता है वह आराधक है। जो क्षमापना
कोमल हो सकते हैं औ और दुरुपयोग से बन्धनयुक्त हो सकते नहीं करता है वह विराधक है। हम दूसरों की चिन्ता क्यों करते हैं कि उसने क्षमापना नहीं की। उसकी आत्मा के वर्तमान पर चिन्तन कीजिए परिणाम वह जाने। जो सच्चे मन से क्षमापना करता है
___अक्सर हम दुहाई देते हैं - हमारे गुरुमहाराज ऐसे वही क्षमापना की आराधना करता है। संयम का सार ही
थे, हमारे दादा-परदादा ऐसे थे। बिल्कुल ठीक है, ऐसे ही उपशम है। यह प्रभु का प्रवचन है। इस ओर ध्यान दें। होंगे। हम पीढियों की बातें अक्सर करते हैं लेकिन सोचें हमें अपनी आत्मा को शांत करना चाहिए। हमें यह कि हम स्वयं कैसे हैं? क्या करते हैं? हमें वर्तमान देखना सोचने की आवश्यकता नहीं कि सामने वाला क्या सोचता है। इस समय अपनी जो हालत है वह कैसे सुधरे? हम है। हमारी शांति, हमारी सरलता, हमारी क्षमापना एक कैसे ऊपर उठें? कैसे गुजारा करें? किस ढंग से जीएं? दिन अवश्य रंग लाएगी। आज नहीं तो कल, कल नहीं। इस पर चिन्तन अपेक्षित है। इस पर चिन्तन करें तो हम तो परसों कोई न कोई दिन अवश्य आएगा जब हृदय को संकट से उबर सकते हैं। हमारा भविष्य संवर सकता है।
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प्रवचन-पीयूष-कण
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