Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
गिना है। वीर प्रभु ने सर्वदा और सर्वथा क्रोध के शमन अणाऽभोगणिवत्तिते पर बल दिया है।
उवसंते, अणुवसंते तम्हा अतिविज्जो नो
एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। तम्हा अतिविजो नो पडिसंजलिजासि ति बेमि। चार प्रकार का - आभोग निवर्तित - स्थिति को जानने विद्वान् पुरुष क्रोध से आत्मा को संज्वलित न करें।
__वाला, अनाभोग निवर्तित - स्थिति को न जानने पर, भगवान् महावीर का आदेश है -
उपशान्त (क्रोध की अनुदयावस्था) अनुपशान्त (क्रोध की
उदयावस्था) (४-८८)। अकहो होइ चरे भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले ।
क्रोध १८ दोषों में तृतीय दोष है – सांसारिक वासना सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खु न संजले ।।
का अभाव कषाय का क्षय करता है - केशीकुमार के यदि कोई भिक्षु को अपशब्द कहे तो भी वह क्रोध प्रश्न पर गणधर गौतम कहते हैं – “कसाय अग्गिणो वुत्ता न करे। क्रोधालु व्यक्ति अज्ञानी होता है। आक्रोश में भी सुय-सील-तवो जलं" क्रोध रूपी कषाय अग्नि को बुझाने संज्वलित न हो। “रखेन कोहं" क्रोध से अपनी रक्षा की श्रुत, शील, तप रूपी जल है। यही नहीं प्रभु तो यहां करे - यही धर्म श्रद्धा मार्ग है। देवेन्द्र नमिराजर्षि से तक कहते हैं कि क्रोधी को शिक्षा प्राप्त नहीं होती। चौदह कहते हैं - "अहो ते निजिओ कोहो" आश्चर्य है कि प्रकार से आचरण करने वाला संयत मुनि भी अविनीत तुमने क्रोध को जीत लिया।
है - यदि वह बार-बार क्रोध करता है, और लम्बी अवधि "प्रवचन माता" में भाषा समिति में भी कहा है।
तक उसे बनाए रखता है। महावीर स्वामी कहते हैं कि
क्रोध विजय से जीव शान्ति प्राप्त करता है। क्रोध मनुष्य कोहे माणे य मायाए लोभे य उवउत्तया
के पारस्परिक प्रेम और सौमनस्य को समाप्त करता है - कोहो हासे भए मोहरिए विकहासु तहेव य।
पीइं पणासेइ (वह आत्मस्थ दोष है - वैर का मूल, घृणा
(उत्तराध्ययन २४-६) का उपधान" । क्रोध के अनेक कारणों का भी आगमों में क्रोध विजय से जीव शांति को प्राप्त होता है।
उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति क्षेत्र, शरीर, वास्तु और उपधि क्रोध-विजय वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता। क्रोधादि
से होती है - क्षेत्र अधर्मत् भूमि की अपवित्रता, शरीर परिणाम आत्मा को कुगति में ले जाते हैं। क्रोध चार
अर्थात् कुरूप, अंग-दोष, वास्तु गृह से और उपधि का प्रकार का होता है - अनन्तानुबन्धी (अनन्त) अप्रत्याख्याना
अर्थ है उपकरणों के नष्ट होने से । अन्य प्रकार से उसके
दस हेतु हैं - मनोज्ञ का अपहरण, उसके अतीत व वर्तमान वरण (कषाय विरति से अवरोध के कारण) प्रत्याख्यानावरण
और भविष्य की आशंका । आचार्य और उपाध्याय से (सर्व विरति का अवरोध करने वाला) और संज्वलन
मिथ्यावर्तन का भय आदि। (ठाणं) भगवान बुद्ध ने तीन (पूर्ण चरित्र का अवरोध करने वाला) यह भी कहा है - "क्रोधः कोपश्च रोषश्च एष भेदस्त्रिधा मतः"। ठाणांग में
प्रकार के मनुष्यों का उल्लेख किया है - एक वे हैं,
जिनका क्रोध प्रस्तर पर उत्कीर्ण रेखा की भांति दीर्घ काल पुनः -
तक रहता है। दूसरे वे हैं, जिनका क्रोध पृथ्वी पर खिंची चउब्बिहे कोहे पण्णत्ते, तं जहा -
रेखा के समान अल्पकालीन होता है और तृतीय प्रकार के आभोगणिव्वत्तिते,
वे हैं जिनका क्रोध जल पर खिंची रेखा के सदृश होता
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कषाय : क्रोध तत्त्व
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