Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
View full book text
________________
साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
५. स्थिरा दृष्टि -
सर्वथा अपरितापकर है। स्थिरा दृष्टि का बोध भी किसी ___ स्थिरा दृष्टि को रत्न की प्रभा से उपमित किया गया
के लिए परितापकर नहीं होता। वह मृदुल और शीतल है। साधक की यह वह स्थिति है, जहाँ उसे प्राप्त बोध
होता है, क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषाय वहाँ ज्योति स्थिर हो जाती है। रत्न की प्रभा कभी मिटती
उपशान्त हो जाते हैं। नहीं। वह सहजतया प्रद्दीप्त रहती है। वैसे ही स्थिरा दृष्टि परिताप न देने की बात निषेधात्मक है। विध्यात्मक में प्राप्त बोधमय उद्योत स्थिर रहता है। क्योंकि तब तक
दृष्टि से स्थिरादृष्टि का बोधमय प्रकाश रत्न की प्रभा की साधक का ग्रन्थि-भेद हो चकता है। राग, द्वेष आदि तरह औरों के लिए प्रसादकर होता है। रन की कान्ति विभाव-ग्रथित दुरुह कर्म-ग्रंथि वहाँ खुल चुकती है। दृष्टि ।
को देखने से जैसे नेत्र शीतल होते है, चित्त उल्लसित सम्यक् हो जाती है। मिथ्या अध्यास मिट जाता है। यहाँ ।
होता है, उसी तरह स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध से आत्मा में से भेदविज्ञान की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। आत्मा और पर
परितोष होता है। प्रसन्नता होती है। जिस प्रकार रत्न पदार्थों की भिन्नता का साधक अनुभव करता है। पर में
को देख लेने वाला तुच्छ काच जैसी वस्तु की ओर आकृष्ट जो स्व की बुद्धि थी, उस पर सहसा एक चोट पड़ती है,
नहीं होता, उसी प्रकार स्थिरादृष्टि के बोध द्वारा जिसे साधक के अन्तरतम में आत्मोन्मुख भाव हिलोरें लेने लगते
आत्मदर्शन प्राप्त हो जाता है, फिर आत्मेतर - पर या बाह्य हैं। इतना ही नहीं, जैसे रत्न का प्रकाश पाषाण यंत्र
वस्तुओं में उसे विशेष औत्सुक्य रह नहीं जाता। आदि पर घर्षण, परिष्करण एवं परिमार्जन से और बढ़ जहाँ आभामय रत्न पड़ा है, उसके चारों ओर जो भी जाता है, उसी प्रकार सम्यक्दृष्टि साधक का बोध, सद् होता है, यथावत् एवं स्पष्ट दिखाई देता है। वैसे ही अभ्यास, आत्मानुभूति, सचिन्तन आदि द्वारा उज्ज्वल से स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध से आत्मदर्शन तो होता ही है, उज्ज्वलतर होता जाता है।
तदितर पदार्थ भी दृष्टिगोचर होते हैं। इससे द्रष्टा या रत्न का प्रकाश स्वावलम्बी होता है। उसे अपने
दर्शक दृश्यमान वस्तु का उपयोगिता, अनुपयोगिता की लिए अन्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं होती। तेल समाप्त हो
दृष्टि से यथार्थ मूल्यांकन कर पाता है । जाने पर जैसे दीपक बुझ जाता है, वैसी बात रत्न के साथ ६. कान्तादृष्टि - नहीं है। न उसे तैल चाहिए और न बाती। वह प्रकाश
ग्रंथकार ने कान्ता दृष्टि को तारे की प्रभा की उपमा निरपाय या निर्बाध है। वह अपाय या बाधा से प्रतिबद्ध
दी है। रत्न का प्रकाश हृद्य होता है, उत्तम होता है, पर एवं व्याहत नहीं होता। उसे दूसरा अवलम्बन नहीं चाहिए।
तारे के प्रकाश जैसी दीप्ति उसमें नहीं होती। तारे का यही स्थिति स्थिरादृष्टि की है। स्थिरादृष्टि का बोध परावलम्बी
प्रकाश रल के प्रकाश से अधिक उद्दीप्त होता है। उसी नहीं होता, स्वावलम्बी होता है। उसे कहीं से कोई हानि
तरह स्थिरादृष्टि में प्राप्त बोध की अपेक्षा कान्तादृष्टि का पहुँचने की आशंका नहीं रहती।
बोध अधिक प्रगाढ़ होता है। तारे की प्रभा आकाश में। तृण, कण्डे, काष्ठ और दीपक का प्रकाश दूसरों के । स्वाभाविक रूप में होती है, सुनिश्चित होती है, अखंडित लिए परिताप कारक भी हो सकता है। यदि ठीक से होती है। उसी प्रकार कान्तादृष्टि का बोध - उद्योत अविचल, उपयोग न किया जाए तो उनसे आग आदि लगकर हानि अखंडित और प्रगाढ़ रूप में चिन्मय आकाश में सहजरूपेण भी हो सकती है। रत्न के प्रकाश में ऐसा नहीं है। वह समुदित रहता है।
६०
जैन साधना एवं योग के क्षेत्र में आचार्य हरिभद्र सूरि की अनुपम देन : आठ योग द्रष्टियाँ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org