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(६) "उनके गुण-गान करने मे मैं अपनी वाणी को पवित्र बनाता हूँ" __ यह वाक्य परमात्मा के साथ एक-रूप बने साधक की अवधूत दशा का द्योतक
है; अर्थात् परमात्मा के दास बने साधक को अब परमात्मा की स्तुति, उनका स्मरण, उनके ही नाम का जाप, उनका ही ध्यान और उनके ही गुणो की अनुप्रेक्षा करने के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय मे आनन्द अथवा रस नही पाता।
"झील्या जे गगा-जले, ते छिल्लर जल नवि पेसे रे, जे मालती फूले मोहिया, ते बावल जई नवि बेसे रे ।"
उपर्युक्त स्तवन-पक्तियो का भाव उक्त वाक्य मे है ।
इस प्रकार इस वीतराग स्तोत्र के प्रथम प्रकाश मे प्रीति, भक्ति, वचन एव असग अनुष्ठानो के अराधना के सकेत के द्वारा परमात्मा को प्राप्त करने की अद्भुत कला स्पष्ट की गई है।
प्रस्तुत पुस्तक मे भी उक्त चार अनुष्ठानो को लक्ष्य मे रखकर भक्ति योग की साधना का मार्ग प्रदर्शित किया गया है जो साधक के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा।
परमात्मा का विशद स्वरूप और उनका विश्वोपकार
परमात्मा के दो स्वरूप है । (१) साकार (२) निराकार ।
श्री अरिहन्त साकार परमात्मा हैं ।
श्री सिद्ध निराकार परमात्मा हैं ।
परमात्मा के दोनो स्वरूप शुद्ध निज प्रात्म-स्वरूप की साधना मे अनन्य पालम्बन हैं । आत्मा के सत्य, शुद्ध, चिदानदमय स्वरूप की यथार्थ पहचान करा कर उसके प्रति श्रद्धा, रुचि उत्पन्न करके और उसमे ही रमण करा कर कर्म-जनित समस्त अशुद्धियो को दूर करने वाले हैं।
मिले मन भीतर भगवान