Book Title: Smarankala
Author(s): Dhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur

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Page 279
________________ पुरुषवर गंध हस्ती - समस्त हाथियो-मे गध हस्ती अपनी-लिराली गध के कारण भिन्न प्रतीत होता है, उस प्रकार से सब प्रकार के पुरुषो मे निराली वत्ति वाले। . । । । परमाप्त = प्राप्त पुरुषो मे श्रेष्ठ, परम आत्मीय । परम कारुणिक = करुणानिधि पुरुषो मे श्रेष्ठ । जिन = राग-द्वेष के विजेता। . ..: "- - - ; जिनेश्वर = समस्त केवली भगवन्तो से श्रेष्ठ, क्योकि सामान्य केवली भगवतो ___की अपेक्षा अनन्त गुणा उपकार श्री अरिहत परमात्मा करते हैं । जगदानद = जगत को आनन्द प्रदान करने वाले । च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान एव निर्वाण कल्याणको के द्वारा विश्व के समस्त जीवो को आनन्द प्रदान करने वाले । अपने परम ऐश्वर्य द्वारा मानन्द प्रदान करने वाले। जगत-पिता = पिता की तरह विश्व के समस्त जीवो की रक्षा एव पालन-पोषण करने वाले। जगदीश्वर = जगत् के सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यवान्. सामर्थ्यशाली । जगन्नाथ = जगत् को सनाथ करने वाले । जगच्चक्षु = विश्व की दिव्य आँख । लोकनाथ = त्रिलोक के नाथ । लोक-हित चिन्तक = लोक मे स्थित समस्त जीवो के उत्कृष्ट हित की रक्षा करने वाले। लोक-प्रदीप = लोक मे स्थित समस्त पदार्थों का यथार्थ दर्शन कराने मे दीपक तुल्य । राग, द्वेष एव मोह के अन्धकार को नष्ट कराने वाले भाव-दीपक । लोक प्रद्योतकारी = लोक के समस्त पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का केवल-ज्ञान • द्वारा प्रकाशन कराने वाले, लोक को भाव प्रकाशमय करने वाले । - - मिले मन भीतर भगवान १०९

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