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प्रत्येक विवेकी मनुष्य को यह प्रश्न स्वय को पूछना चाहिये और सम्यग्दृष्टि देव भी जिस जन्म की अभिलाषा करते हैं उप धर्म से युक्त मानवभव का परमात्मा की प्रीति एव भक्ति के द्वारा श्रेष्ठ मूल्याकन करना चाहिये।
(४) 'उनसे मैं कृतार्थता का अनुभव करता हूँ" यह वाक्य परमात्मदर्शन एव मिलन के पश्चात की साधक की अनुभूति का द्योतक है। इस वाक्य मे अमृत-भाव-सिक्त मन का प्रकट उल्लास है।
___ सरिता को कृतार्थता का अनुभव कब होता है ? जब वह सागर मे सर्वथा विलीन हो जाती है तब ।
जब इस प्रकार की कृतार्थता का अनुभव होता है तब 'कृतार्थोऽह' जैसे हृदय-स्पर्शी शब्द साधक के हृदय मे साकार होते हैं।
इस प्रकार का अनुभव तब होता है जब साधक साध्यमय बन जाता है।
साधक परमात्मामय तब बन सकता है जब त्रिलोक में अन्य कुछ भी साधना करने योग्य नही लगता, परन्तु एक आत्मा ही सचमुच साध्य समझी जाती है।
इस प्रकार की साधना से जीवन मे कृतार्थता का सूर्य उगना स्वाभाविक है।
(५) "मैं उनका दास हूँ" यह वाक्य स्व जीवन जिनसे कृतार्थ हुआ है, उन परमात्मा का दास बनने में ही जीवन को धन्य मानने वाले साधक के अपूर्व समर्पण-भाव, प्रीति एव भक्ति बताने वाला है, भक्ति-भाव के शिखर स्वरुप अहोभाव का द्योतक है ।
जिस व्यक्ति को चार गति के दुख सचमुच परेशान करते हैं, वह व्यक्ति वैद्यराज की शरण मे जाने वाले रोगी की तरह परमात्मा की शरण मे जाता है, उनका दासत्व स्वीकार करता है, उनका परम सेवक वन कर जीवन में गौरव अनुभव करता है।
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मिले मन भीतर भगवान