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ऋषभदेव का दीक्षाकल्याणक वैरागी राजा ऋषभदेव राज वैभव से विरक्त होकर सम्पूर्ण स्वतंत्रता का सुख प्राप्त करने के लिए वन में प्रवेश कर रहे थे। पिताश्री के दीक्षाकल्याणक के हर्ष के प्रसंग में महाराजा भरत किमिच्छिक दान दे रहे थे। यशस्वती और सुनन्दा महारानियाँ एवं सहस्त्रों राजा उनके पीछे चल रहे थे।
महाराज नाभिराज तथा माता मरुदेवी भी उनके साथ-साथ तपकल्याणक का उत्सव देखने के लिए पीछे-पीछे जा रहे थे। सम्राट भरत एवं बाहुबली कुमार भी वैरागी पिता के पीछे चल रहे थे। वैरागी राजा ऋषभदेव अयोध्या से थोड़ी ही दूर सिद्धार्थ वन में इन्द्र द्वारा निर्मित एक चन्द्रकान्त मणियों से बनी हुई पवित्र शिला पर जा विराजे । साथ चले रहे लोग सभा में परिवर्तित हो गये। दीक्षा से पूर्व राजा ऋषभदेव ने देवों तथा मनुष्यों की सभा को योग्य उपदेश द्वारा प्रशान्त एवं प्रसन्न किया और अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह का सर्वथा त्याग कर उपस्थित जनसमूह की साक्षीपूर्वक स्वत: ही दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली। पूर्वदिशा सन्मुख पद्मासन लगाकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करके पंचमुष्टि से केशलोंच किया। इन्द्र ने उन केशों को रत्नमयी मंजूषा में रखकर क्षीर सागर में प्रवाहित कर दिये । जिस चैत्र कृष्ण नवमी तिथि में वे जन्मे थे, उसी तिथि में उन्होंने मुनि दीक्षा ली थी। दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया। उन्होंने उसीसमय छह मास का उपवास ग्रहण कर लिया और खड़गासन में ध्यानस्थ हो गये।
यहाँ ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर ॐ नमः सिद्धेभ्यः कहकर स्वयं दीक्षित होते हैं, उनका कोई गुरु नहीं होता। वे किसी से दीक्षा लेते भी नहीं और किसी को दीक्षा देते भी नहीं हैं। वे दीक्षा लेते ही जीवन भर को मौन | धारण कर लेते हैं। वे किसी को साथ नहीं रखते। वे तो एकल विहारी ही होते हैं। केवलज्ञान होने के बाद |
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