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बहुत से लोगों को विरक्ति आई। उन सबने रतिवर मुनि के पास जाकर संयम धारण कर लिया। आयु के अन्त में संयम के प्रभाव से स्वर्ग गये।
स्वर्ग की आयु पूरी होने पर जयधाम का जीव यहाँ वसुपाल हुआ, जयमाला यहाँ वसुपाल की रानी हुई, सर्वदयित सेठ का जीव यहाँ श्रीपाल हुआ, इसीप्रकार उस समय के सभी जीव यहाँ आकर तेरे शत्रु व मित्र बने । तुमने अपनी बहन के पुत्र को अपनी बहन से अलग किया था, इसलिए तुझे इस भव में अपने परिवार से अलग होना पड़ा। तुमने उस भव में बहन के बालक की हिंसा नहीं की थी, इसलिए ही तेरा इस भव में अपने भाई-बन्धुओं से फिर मिलन हुआ है। तूने उस भव में जो तप किया था, उसी के फल से चक्री हुआ है। भगवान गुणपाल के कहे वचनों को सुनकर सबने अपना परस्पर का बैर छोड़ दिया।
जीवन के अनेक उतार-चढ़ावों को देखकर चक्रवर्ती श्रीपाल को वैराग्य हो गया और उन्होंने सबसे क्षमाभाव धारण करते हुए समस्त वैरभावों को त्याग कर जन्म-जरा-मृत्यु रोग का निवारण करने के लिए बुद्धिस्थिर कर धर्मामृत पान किया । चक्रवर्ती श्रीपाल विचार करने लगे - "इस चक्रवर्ती के साम्राज्य को धिक्कार है, यह आयु वायु के समान चंचल है। यह भोग मेघों के समान क्षण में विलीन हो जानेवाले हैं, इष्टजनों का संयोग नष्ट हो जानेवाला है। ये शरीर पापों का संयोग है, विभूतियाँ क्षणभंगुर हैं, यह यौवन पथभ्रष्ट कराने का प्रमुख कारण है। ये सब सुखाभास के साधन मिथ्यात्व के प्रभाव में ही मधुर लगते हैं, विवेक जागृत होते ही ये सब जहर से कटुक लगने लगते हैं। मैंने चिरकाल तक दसोंप्रकार के भोग भोगे; परन्तु इनसे रंचमात्र भी तृप्ति नहीं हुई।"
श्रीपाल चक्रवर्ती ने चक्ररत्नसहित समस्त परिग्रह का त्याग कर अपनी सुखावती से प्रसूत पुत्र नरपाल का राज्याभिषेक करके जयवती आदि रानियों और वसुपाल आदि राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। उग्र तपश्चरण करते हुए चारों घातिया कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया। महाराज श्रीपाल की पत्नियाँ भी अनेक प्रकार से तपश्चरण करके स्वर्ग सिधारीं।"
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