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१५३ | ध्यान प्रशान्तमोह क्षीणमोह और उपशम तथा क्षपक श्रेणियों के शेष आठवें, नौवें तथा दसवें गुणस्थान में |
भी हीनाधिक रूप से रहता है। | २. एकत्ववितर्क नाम का शुक्लध्यान भी पहले शुक्लध्यान के समान ही जानना चाहिए किन्तु विशेषता
इतनी है कि जिसका मोहनीय कर्म नष्ट हो गया हो, जो पूर्वो का जाननेवाला हो, जिसका आत्मतेज हो | ऐसे महामुनि को ही यह दूसरा शुक्लध्यान होता है। जिसकी कषाय नष्ट हो चुकी है और जो घातिया कर्मों
को नष्ट कर रहा है, ऐसा मुनि सवितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान सहित और अवीचार अर्थात् अर्थव्यंजन तथा योगों के संक्रमण से रहित दूसरे एकत्ववितर्क नाम के बलिष्ठ शुक्लध्यान का चिन्तवन करता है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होनेवाला तथा समस्त पदार्थों को जाननेवाला अविनाशीक ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान का उत्पन्न होना ही इस शुक्लध्यान का फल है।
पहला शुक्लध्यान तीनों योगों को धारण करनेवाले के होता है, परन्तु दूसरा शुक्लध्यान एक योग को धारण करनेवाले के होता है, भले ही वह एक तीन योगों में से कोई भी हो।
३. सूक्ष्मक्रियापति परम शुक्लध्यान केवली भगवान के ही होता है। वे केवलज्ञानी जिनेन्द्रदेव जब योगों का निरोध करने के लिए तत्पर होते हैं, तब वे उसके पहले स्वभाव से ही समुद्घात की विधि प्रकट करते हैं। उससमय वे केवली भगवान अघातिया कर्मों की स्थिति के असंख्यात भागों को नष्ट कर देते हैं और इसीप्रकार अशुभ कर्मों के अनुभाग अर्थात् फल देने की शक्ति के भी अनन्त भाग नष्ट कर देते हैं। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त में योगरूपी आस्रव का निरोध करते हुए काययोग के आश्रय से वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म करते हैं और फिर काययोग को भी सूक्ष्म कर उसके आश्रय से होनेवाले सूक्ष्म क्रियापाति नामक तीसरे शुक्लध्यान का चिन्तवन करते हैं।
४. तदनन्तर जिनके समस्त योगों का बिलकुल ही निरोध हो गया है ऐसे वे योगिराज हरप्रकार के आस्रवों से रहित होकर समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति नाम के चौथे शुक्लध्यान को प्राप्त होते हैं।
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