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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...63 28. धर्मचक्र तप
जैन-परम्परा में धर्मचक्र का अद्वितीय स्थान है। यह एक चिह्न विशेष है। ऐतिहासिक दृष्टि से धर्मचक्र तीर्थङ्कर परमात्मा का देवकृत अतिशय है। जब भगवान विचरण करते हैं तब आकाश में यह चक्र उनके साथ-साथ चलता है। ऐसे उत्तम धर्मचक्र की प्राप्ति के लिए यह तप किया जाता है। __षट्खण्ड की साधना करने वाला चक्रवर्ती पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि उसकी ऋद्धि-सिद्धि, वैभव-विलास, सत्ता-ऐश्वर्य की तुलना कोई नहीं कर सकता। यह अपार सम्पदा वह अपने चक्र की सहायता से हासिल करता है, परन्तु शास्त्रकारों का कथन है कि धर्मचक्र के समक्ष चक्रवर्ती का चक्र फीका पड़ जाता है, क्योंकि धर्मचक्र अक्षय सुख को देने वाला है। आचारदिनकर के मत से इस तप के द्वारा अतिचार रहित बोधि की प्राप्ति होती है। यह तप साधु एवं श्रावक दोनों के लिए करने योग्य है।
इस तप की चार विधियाँ निम्न हैंप्रथम विधि
कीरंति धम्मचक्के, तवंमि आयंबिलाणि पणवीसं । उज्जमणे जिणपुरओ, दायव्वं रूप्पमयचक्कं ।।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 29 प्रथम रीति के अनुसार धर्मचक्रं तप में निरन्तर पच्चीस आयंबिल किये जाते हैं तथा इस तप उद्यापन में जिन प्रतिमा के आगे रजतमय धर्मचक्र बनाकर रखना चाहिए। दूसरी रीति के अनुसार
दो चेव तिरत्ताई, सत्ततीसं तहा चउत्थाई। तं धम्मचक्कवालं, जिणगुरुपूया समत्तीए ।।
विधिमार्गप्रपा., पृ. 29 इस तप में प्रथम एक अट्ठम (तेला) करके पारणा, फिर एकान्तर सैंतीस उपवास फिर पुन: एक अट्ठम (तेला) किया जाता है। इस प्रकार 43 उपवास
और 38 पारणा कुल 81 दिनों में यह तप पूर्ण होता है। इस धर्मचक्र तप के पूर्ण होने पर जिनेश्वर प्रतिमा के आगे रजतमय चक्र चढ़ाना चाहिए और गुरु की