Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 684
________________ 6800-65-9649 S UP0026 300000000000000000003030 06: 06 %8D - ५५० Poo उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । 5960000 डॉक्टर आज ही बता देते हैं। एक ज्योतिषी ग्रह दशाओं की गणना । दिये रहती है। परन्तु इतनी ऊँचाई पर पहुँचना बहुत ही असाधारण 6:00.0.00 करके, रेखा शास्त्री हस्तरेखा व मस्तक रेखा देखकर, छाया । बात है, क्योंकि इसके लिये जरूरी है कि मनुष्य या कम से कम शास्त्री-छाया को माप कर हमारे साथ वर्तमान व भविष्य में होने । उसकी चेतना का कोई भाग, साधारण मन की उड़ान से बहुत वाले परिवर्तन को बता देते हैं। तब उसके निदान व उपचार के ऊँचा उड़ सके। 3000.00 लिये हम खोज करते हैं। मंत्र एक जीवन्त सत्ता है। सच्चा मंत्र एक सच्ची सृष्टि का रोग एक है कारण की खोज अनेक है और उपचार अलग- अमोघ विधान है। मंत्र आरोपित हो गया तो सिद्धि निश्चित है। अलग। आध्यात्मिक महापुरुष उपचार बतायेंगे-दया-दान-तपस्या- कोई इसे रोक नहीं सकता। यदि हम दृढ़ आस्था, विश्वास, निष्ठा ध्यान व शुभ भावना, डॉक्टर, वैद्य, हड्डी, एक्यूपंक्चर व मेगनेट व भक्ति के साथ अन्तर्मन से मंत्र जाप शुरू करते हैं तो मन की विशेषज्ञ अपने ढंग से निदान व उपचार बताएंगे। रेखा शास्त्री, एकाग्रता के अभाव में भी मंत्र की ग्रहणशीलता अत्यन्त प्रखर होती ज्योतिषी, मंत्र-तंत्र के ज्ञाता अपने तरीके से। BDDD है-वह अपना प्रभाव अवश्य दिखाती है। इसलिए चंचल चित्त से भी जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि किन पाप कर्म पुद्गलों का किया गया मंत्र-जाप कल्याणकारी ही होता है। ध्यान व मंत्र को उदय हुआ है या आगे होने वाला है। कौन से ग्रह अभी अनुकूल अलग नहीं किया जा सकता है। ध्यान व मंत्र जाप की एकाग्रता चल रहे हैं और कौन से प्रतिकूल और फिर कब कौन से द्वारा हम कार्मण शरीर यानि अतिसूक्ष्म शरीर तक पहुँचकर उन अनिष्टकारी होंगे तब हमें सोचना होता है कि किसका माध्यम लें- मलिन परमाणुओं तक पहुँच सकते हैं उन्हें प्रभावित कर सकते हैं, जिनके प्रयोग से इनसे छुटकारा मिल सके। अध्यात्म का, दवा का, उनमें प्रकंपन पैदाकर सकते हैं। सूक्ष्म शरीर तक पहुँचेंगे तो उससे याबरल व वनस्पति का या तंत्र-मंत्र का। यदि हम मंत्र-तंत्र का सहारा अनेक सिद्धियाँ मिलेंगी। जिस तरह का मंत्र ग्रहण करेंगे उसी तरह लेते हैं तो फिर वैसे मंत्रों की व उनके विधि विधान की व उनके की सिद्धि प्राप्त करेंगे। विशेषज्ञों की खोज करनी होगी। हम कोई भी चिंतन करें, कल्पना करें, विचार करें, उसका जैन मनीषियों ने पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करने के लिए- माध्यम शब्द होगा। सारा जगत शब्दमय है। मंत्र एक कवच है। एक पद्य की रचना की और वो बन गया मंत्र, मंत्र ही नहीं इससे ससार में होने वाले प्रकंपनों से बचाया जा सकता है। मंत्र के महामंत्र। इस महामंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है कि जब इसका शब्दों का जो संयोजन है-उसी पर सारा निर्भर है। जिन मनीषियों आत्मशोधन के लिए प्रयोग किया जाता है तब इसके साथ को यह ज्ञात है कि किस अक्षर की, शब्द की क्या ऊर्जा है, इससे बीजाक्षरों का प्रयोग नहीं किया जाता है और जब कोई सिद्धि की कौन से पुद्गल-परमाणु निकलेंगे वे ही शब्दों का संयोजन कर न दृष्टि से इसका जप किया जाता है तब इसके साथ बीजाक्षरों का । सकते हैं-मंत्र निर्माण कर सकते हैं। SD योग किया जाता है। __मुस्लिम चिन्तकों ने 'हु' शब्द को अपनाया-अल्हा 'हु' अकबर। आत्मशुद्धि के लिए, कर्म निर्जरा के लिए इस महामंत्र का जप बौद्ध विद्वानों ने हूँ' शब्द को ऊँ मणिपद्ये 'हूँ' और जैन मनीषियों आप जब चाहें-जिस दशा में हों शुरू कर सकते हैं। इसमें माला, ने ह्रीं शब्द को जिसमें वे चौबीस तीर्थंकरों का ही वास मानते हैं। वस्त्र, दिशा और किसी कर्मकाण्ड का कोई बन्धन नहीं-परन्तु आप इन तीनों का जप करके देखें-उनका सारा सम्बन्ध नाभिसमर्पण भाव होना चाहिए, कोई चाह व इच्छा नहीं। जब चाहें कमल (मणिपुर चक्र) से है। जब आप इनका जप करेंगे-पेट अन्दर स्मरण करना शुरू कर दें-अपने आपको समर्पित कर दें उस की और सिकुड़ता जावेगा-नाभि की ओर। परन्तु इन बीजाक्षरों के महामंत्र की आराधना में। यदि आपकी इच्छा-शक्ति, श्रद्धा व । शब्दों के परमाणु अलग-अलग हैं-उनकी ऊर्जा-अलग है। विश्वास उसके प्रति दृढ़ है। प्राणशक्ति के साथ इस महामंत्र की आभामंडल का, वलय का अलग तरह निर्माण होगा-अलग तरह आराधना जुड़ जाती है तो कर्मक्षय होगा-आत्मशुद्धि होगी-निश्चित की इनसे शक्ति पैदा होगी। वो अपना अलग-अलग कार्य करते हैं, रूप से आत्मा हलकी होगी। पर हैं अत्यन्त शक्तिशाली। मंत्र बहुत ऊपर का काव्य है उसकी प्रेरणा मन से ऊपर के शब्द में अनन्त शक्ति होती है। बड़ी अद्भुत शक्ति से वह भरा अधिमानस से आती है। उसकी भाषा बहुत अधिक गंभीर और हुआ होता है। वही बात चित्र व आकृतियों में होती है। जिस तरह सारगर्भित होती है। उसका अर्थ उसके वाहक शब्दों की अपेक्षा सांथिये चार प्रकार से लिखे जाते हैं और उनसे निकलने वाले बहुत अधिक विस्तृत और गंभीर होता है। उसके लय तथा छंद में परमाणु अलग-अलग होते हैं-अलग-अलग उनका काम है। ठाणांग शब्दों से भी अधिक शक्ति होती है। उसका मूल चेतना के किसी सूत्र में अष्ट मंगल का वर्णन मिलता है ये भगवान के आगे-आगे ऐसे स्तर में होता है जो हमारी ऊपरी चेतना को पीछे से सहारा चलते हैं लेकिन इनका कार्य क्या है-क्या फल देते हैं-किन अनिष्ट २ाका DDDDSome तप्त Saptayain weretopesabDDOOOD DDODDODOS.DODOD mPin

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