Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 712
________________ ५७६ वृक्षों का एक और महत्त्व भी है। वे भोजन के लिए अपनी जिन जड़ों के द्वारा भूमिगत जलग्रहण करते हैं, उन्हीं जड़ों के द्वारा भूमि को बांधने का भी काम करते हैं, जिससे भूमिक्षरण नही होता। फलतः भूमिक्षरण से होने वाले प्रदूषण से सुरक्षा हो जाती है। पीपल, बांस आदि वृक्ष इस दृष्टि से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। भूमि के कटाव को रोकने के लिए इनका योगदान अविस्मरणीय है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दृष्टि से वृक्षों का एक कार्य और महत्त्वपूर्ण है, यह है वायु की गति में अवरोध उत्पन्न करके बादलों को बरसने के लिए विवश करना। जहाँ वृष्टि से वृक्ष, वनस्पति बढ़ते हैं, फलते-फूलते हैं, वहीं उपर्युक्त प्रकार से वृक्ष वर्षा के प्रति कारण भी बनते हैं। इसके साथ ही वर्षा के माध्यम से भूमि पर आये हुए जल को सम्भाल कर रखने में भी वृक्षों और वनस्पतियों का बड़ा योगदान है। जीव-जन्तुओं को सुरक्षित रखने के क्रम में वृक्षों का महत्त्व सर्वाधिक है। वृक्षों से प्राप्त फल, बीज, पुष्प और पत्र आहार के रूप में तथा सूखे काष्ठ इंधन के रूप में मनुष्य के आहार का सम्पादन करते हैं। अनेक वृक्ष और वनस्पतियाँ अपने विविध अंगों | के माध्यम से शरीरगत रोगों के निवारण में अपूर्व योगदान करती हैं। प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति में तो लगभग ७५% से अधिक औषधियों वृक्षों वनस्पतियों से प्राप्त उपादानों से ही निर्मित होती हैं। रोगनिवारण के क्षेत्र में उत्तरकालीन हानिरहित जो योगदान वानस्पतिक उपादानों का है, उसकी तुलना में अन्य स्रोतों से प्राप्त उपादान अपना कोई महत्त्व नहीं रखते। विगत कुछ दशाब्दियों में वृक्षों का संहार करते हुए वनसम्पदा का जिस प्रकार दोहन विकसित कहे जाने वाले देशों द्वारा किया गया है, उस से आज पर्यावरण सम्बन्धी विभीषिका इतनी बढ़ गयी है कि मनुष्य को उसका कोई उपाय खोजने पर भी नहीं मिल रहा है। जैन परम्परा में इस यथार्थ को समझते हुए वृक्षों के प्रति आत्मीयता की ही नहीं, पूजनीयता की भावना प्रतिष्ठित की गयी है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस परम्परा में सर्वाधिक महनीय भगवान् के रूप में आदरणीय तीर्थंकरों की तीर्थंकरत्व (केवलज्ञान) की प्राप्ति में वृक्षों की छाया का अतिशय योगदान रहा है, जिसके फलस्वरूप तीर्थंकरों की चर्चा करते हुए उनके नाम के साथ उस वृक्ष विशेष का नाम सदा स्मरण किया जाता है। जिसके नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। ५ जैन परम्परा के अनुसार वृक्ष मानवजीवन की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। भोजन, वस्त्र, अलंकरण, आवास, मनोरंजन आदि सभी कुछ इनसे प्राप्त होता है। फल-फूल, पत्र, कन्द आदि के रूप में ये भोजन देते हैं, पत्र छाल और इनके Bucation internationa ste उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ रेशे कपास एवं आक आदि के फल से प्राप्त रुई से हमें वस्त्र आदि के रूप में आच्छादन प्राप्त कराते हैं। वृक्षों के पत्र और पुष्प तथा उन (वृक्षों) से उत्पन्न लाख शृंगार के उपादान बनकर मानव को विभूषित करते हैं। पेड़ों की टहनियों, शाखाओं और पत्तों आदि से मनुष्य अपना आवास बनाता है, तो उनके कोटरों में शुक आदि पक्षी और अनेक जीव-जन्तु वास करते हैं। कुछ पक्षी शाखाओं पर अपने नीड स्थापित करते हैं तथा अधिकांश वनचर जीव, अनेक बार मनुष्य भी वृक्षों की छाया में विश्राम प्राप्त करते हैं। सामान्य बांसों से निर्मित वंशी, असन (विजयसार) के काष्ठ से बने हुए मृदंग, तबले, वीणा आदि संगीत के साधन बनकर मनुष्य का मनोरंजन करते हैं। कीचक नामक बांस विशेष तो स्वयं ही वन में मधुर संगीत उत्पन्न करता हुआ मानव मन की व्यथा और श्रम का हरण करता है । ६ इस प्रकार वृक्ष मानव की दो-चार नहीं समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होते हैं इसीलिए जैन मनीषियों ने वृक्षों के कल्पवृक्ष स्वरूप को पहचानते हुए उन्हें प्रतिष्ठित किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अवसर्पिणी काल के सुषमा- सुषमा विभाग में केवल कल्पवृक्षों को ही मनुष्य की समस्त जरूरतों की पूर्ति करने वाला स्वीकार किया है और व्याख्या करते हुए मानव की दस प्रकार की आवश्यकताओं तथा उनके पूरक दस प्रकार के कल्पवृक्षों की कल्पना की है । ७ जैन आचार्यों की इस कल्पना को न केवल ब्राह्मण परम्परा के ग्रन्थों में स्वर्ग में कल्पवृक्ष की स्थिति का वर्णन किया गया है, अपितु कालिदास जैसे महाकवियों ने शकुन्तला जैसी नायिकाओं के शृंगार के लिए वृक्षों से ही अंगराग, क्षौमवसन एवं विविध प्रकार के आभरणों की प्राप्ति का भी वर्णन किया है। वृक्षों की इस महिमा को स्वीकार करते हुए ही जैन परम्परा में चैत्यवृक्षों के नाम से वृक्षों को अत्यन्त पूजनीय स्वीकार किया गया है। इन वृक्षों में आरोग्यदायी, आनन्ददायी भोजनदायी और अन्य प्रकार के इन्द्रिय सुख देने वाले अशोक, सप्तपर्ण, आम्र, चम्पक वृक्ष प्रतिनिधिभूत हैं। इन चैत्यवृक्षों के प्रति जैनपरम्परा में सर्वाधिक आदर है, केवल तीर्थंकर ही इनसे अधिक आदर के पात्र हो पाते हैं । १० जैन परम्परा में स्वीकृत वृक्षों के प्रति आदरपूर्ण प्रेम भारतीय संस्कृति का प्रधान अंग सा बन गया है। तभी कालिदास की शकुन्तला कण्व - आश्रम के वृक्षों के प्रति सोदर स्नेह रखती है११ और उनकी ही पार्वती वृक्षों को पुत्र के रूप में हेमघटों से स्तन्यपान कराती हैं। शिव भी उन वृक्षों में पुत्र भाव रखते हैं। १२ वृक्षों के प्रति अतिशय अनुराग के कारण नवयुवतियां अपना श्रृंगार छोड़ सकती हैं किन्तु उनके प्रति अनुराग में शिथिलता नहीं आने देती |१३ 9 वृक्षों के प्रति देव, मानव और सामान्य प्राणी इन तीनों के अनुराग की सूचना हमें जैन पुराणों में प्राप्त देवारण्य, देवरमण,

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