Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 783
________________ | संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला ६४३ । एक दाने को ही ग्रहण करें।१०१ इस प्रकार अनशन की स्थिति का त्याग किया जाता है। ग्यारहवें वर्ष में केवल आयंबिल किया पहुँचने पर साधक फिर पादपोपगमन अथवा इंगिणी मरण अनशन जाता है। बारहवें वर्ष में प्रथम छ: माह में अविकृष्ट तप, उपवास, व्रत ग्रहण कर समाधिमरण को प्राप्त होवे। बेला आदि किया जाता है।११६ बारहवें वर्ष के द्वितीय छः माह मेंEEDS उत्तराध्ययन वृत्ति के१०२ अनुसार संलेखना का क्रम इस विकृष्टतम तेला, चौला आदि तप किए जाते हैं। प्रकार है। प्रथम चार वर्ष में विकृति परित्याग अथवा आयंबिल, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में संलेखना के द्वितीय चार वर्ष में विचित्र तप, उपवास, छट्ठ आदि पारणे में । विषय में यत्किंचित् मतभेद है पर दोनों ही परम्पराओं का तात्पर्य 265069 यथेष्ट भोजन ०३ ग्रहण कर सकता है। नौवे और दसवें वर्ष में एक सदृश है। मूलाराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा हैएकान्तर उपवास और पारणे में आयंबिल किया जाता है। ग्यारहवें संलेखना का जो क्रम प्रतिपादित किया गया है, वही क्रम पूर्ण रूप वर्ष के प्रथम छः माह में अष्टम, दशम, द्वादश भक्त आदि की। से निश्चित हो, यह बात नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और शारीरिक तपस्या की जाती है, जिसे विकृष्ट कहा है। 0४ ग्यारहवें वर्ष में | संस्थान आदि की दृष्टि से उस क्रम में परिवर्तन भी किया जा पारणे के दिन आयंबिल तप किया जाता है। प्रथम छ: माह में | सकता है।११७ आयंबिल में ऊनोदरी तप करते हैं।१०५ और द्वितीय छः माह में । संलेखना में तपविधि का प्रतिपादन किया गया है, उससे यहO RDI आयंबिल के समय भर पेट आहार ग्रहण किया जाता है।१०६ नहीं समझना चाहिए कि तप ही संलेखना है। तप के साथ कषायों बारहवें वर्ष में कोटि-सहित आयंबिल अर्थात् निरन्तर आयंबिल की मन्दता आवश्यक है। विगयों से निवृत्ति अनिवार्य है। तपः कर्म किया जाता है या प्रथम दिन आयंबिल और दूसरे दिन अन्य कोई के साथ ही अप्रशस्त भावनाओं का परित्याग और प्रशस्त भावनाओं तप किया जाता है, पुनः तीसरे दिन आयंबिल किया जाता है।१०७ का चिन्तन परमावश्यक है। बारहवें वर्ष के अन्त में अर्धमासिक या मासिक अनशन भक्त, परिज्ञा आदि किया जाता है।१०८ आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि संलेखना व्रत ग्रहण करने के 6000 पूर्व संलेखना व्रतधारी को विचारों की विशुद्धि के लिए सभी जिनदास गणि क्षमाश्रमण के अभिमतानुसार संलेखना के सांसारिक संबंधों से संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए। यदि किसी के बारहवें वर्ष में धीरे-धीरे आहार की मात्रा न्यून की जाती है, प्रति मन में आक्रोश हो तो उससे क्षमायाचना कर लेनी चाहिए। जिससे आहार और आयु एक साथ पूर्ण हो सकें। उस वर्ष अन्तिम | मानसिक शान्ति के लिए साधक को सबसे पहले सद्गुरु के समक्ष 3000 चार महीनों में मुख-यन्त्र विसंवादी न हो अर्थात् नमस्कार महामंत्र निःशल्य होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना करते समय आदि के जप करने में असमर्थ न हो जाए, एतदर्थ कुछ समय के | मन में किंचित् मात्र भी संकोच नहीं रखना चाहिए। अपने जीवन में लिए मुँह में तेल भरकर रखा जा सकता है।१०९ तन से, मन से और वचन से जो पापकृत्य किए हों, करवाये हों या दिगम्बर आचार्य शिवकोटि ने अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, करने की प्रेरणा दी हो उनकी आलोचना कर हृदय को विशुद्ध रस-परित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता इन छ: बाह्य तपों को बाह्य बनाना चाहिए। यदि आचार्य या सद्गुरु का अभाव हो तो अपने संलेखना का साधन माना है।११० संलेखना का दूसरा क्रम यह भी दोषों को बहुश्रुत श्रावकों एवं साधर्मी भाइयों के समक्ष प्रकट कर है कि प्रथम दिन उपवास और द्वितीय दिन वृत्तिपरिसंख्यान तप देना चाहिए। पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए।११८ किया जाए।१११ बारह प्रकार की जो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं, उन्हें भी आचार्य वीरनन्दी ने अपने "आचारसार"११९ नामक ग्रन्थ में संलेखना का साधन माना गया है।११२ लिखा है कि साधक को संलेखना की सफलता के लिए योग्य स्थान काय संलेखना के इन विविध विकल्पों में आयंबिल तप उत्कृष्ट का चुनाव करना चाहिए जहाँ के राजा के मन में धार्मिक भावना साधन है। संलेखना करने वाला साधक छट्ठ अष्टम, दशम, द्वादश J हो, जहाँ की प्रजा के अन्तर्मानस में धर्म और आचार्य के प्रति आदि विविध तप करके पारणे में बहुत ही परिमित आहार ग्रहण गहरी निष्ठा हो, जहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से सुखी और DDDA करे, या तो पारणे में आयंबिल करे अथवा कांजी का आहार ग्रहण समृद्ध हों, जहाँ का वातावरण तपः साधना के लिए व्यवधानकारी करें।११३ न हो। साथ ही साधक को अपने शरीर तथा चेतन-अचेतन किसी 400000 भी वस्तु के प्रति मोह ममता न हो। यहाँ तक कि अपने शिष्यों के race मूलाराधना में भक्त परिज्ञा का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का प्रति भी मन में किंचित् मात्र भी आसक्ति न हो। यह परीषहों को माना है। उनकी दृष्टि से प्रथम चार वर्षों में विचित्र कायक्लेशों सहन करने में सक्षम हो। संलेखना की अवधि में पहले ठोस पदार्थों के द्वारा तन को कृश किया जाता है। उसमें कोई क्रम नहीं होता। का आहार में उपयोग करें। उसके पश्चात् पेय पदार्थ ग्रहण करे। Read दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को कृश आहार उस प्रकार का ग्रहण करना चाहिए जिससे शरीर के वात,05000 किया जाता है।११५ नौवें और दसवें वर्ष में आयंबिल और विगयों । पित्त, कफ विक्षब्ध न हों। GOPADHAO OSHO D 360 DD8% &00000000000002900-DoppirateshestBadroo DDCDRDOSED 20000 C00:00 29 2 90 295 1.0

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