Book Title: Pushkarmuni Smruti Granth
Author(s): Devendramuni, Dineshmuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 707
________________ DDDODG | जन-मंगल धर्म के चार चरण ५७१ । समग्र मानव जाति को पर्यावरण सुरक्षा के लिए अपनी सम्पन्न दिखाई देने वाला देश भीतर से खोखला है, त्रस्त है, संकटजीवन शैली बदलनी होगी ग्रस्त है, प्राकृतिक प्रकोपों के कारण भयाक्रान्त है। मानव बुद्धि की ___ मानव में आज मानवता और अन्य प्राणियों के प्रति हमदर्दी । यह कितनी घोर विडम्बना है। अगर यही क्रम लगातार चलता रहा लप्त होती जा रही है। जैनदर्शन के दो माला नत्य-अहिंसा और तो मानव जाति एक दिन विनाश के कगार पर पहुँच सकती है। अपरिग्रह ही पर्यावरण के वाह्य प्रदूषणों को रोकने में सक्षम हैं। यदि फिर आँखें मल-मल कर रोने-धोने के सिवाय कोई चारा न रहेगा। हमें मानवजगत् को विनाश से बचाना है तो जीवनयापन की अपनी इसीलिए महर्षियों ने मानवपुत्रों को निर्देश करते हुए कहाशैली और गलत पद्धति को बदलना होगा। हमें 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त पर अपनी जीवन शैली चलानी होगी। अपना जीवन 'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्यवरान् निबोधत' सादा, संयमी, अल्पतम आवश्यकताओं वााला बनाना होगा; अन्यथा, 'हे आर्यपुत्रो! तुम उठो, जागो और वरिष्ठ मानवों के पास इन सार्वभौमिक मूल्यों की उपेक्षा करने से और इन सार्वजनिक पहुँचकर बोध प्राप्त करो।' जीवन सिद्धान्तों का उल्लंघन करने से विश्व में पर्यावरण-प्रदूषण । इसी दृष्टि से भगवान् महावीर ने कहा-'उहिए, नो पमायए' 'हे बाह्यरूप से अधिकाधिक बढ़ता जाएगा। अगर हम अपने इस धर्म देवानुप्रियो! तुम स्वयं उत्थान करो (उठो) प्रमाद मत करो।' और कर्तव्य से मुँह मोडेंगे तो अपने हाथों से अपने और समाज के जीवन को नरक बना डालेंगे। यह कार्य अकर्मण्य बन कर सोते रहने आन्तरिक प्रदूषण मिटाना वैज्ञानिकों के बस की बात नहीं । से नहीं होगा। इस कार्य को करना सरकार के या समूह के बस की पर्यावरण के बाह्य प्रदूषण कदाचित् विविध वैज्ञानिक उपकरणों बात नहीं है, व्यक्ति को इसके लिए स्वयं ही कमर कसनी होगी। और साधनों से मिटाये भी जा सकें, किन्तु आन्तरिक प्रदूषणों को जल, वायु, भूमि, वनस्पति, आकाश आदि मानव के अभिन्न मित्रों मिटाना वैज्ञानिकों के बस की बात नहीं है। आन्तरिक प्रदूषण की हमें सदैव रक्षा करनी होगी। तभी पर्यावरण की रक्षा होगी। व्यक्ति, परिवार, राष्ट्र, धर्म-सम्प्रदाय, जाति, कौम आदि समाज के सभी घटकों में किसी न किसी रूप में व्याप्त है। आन्तरिक प्रदूषण बाह्य प्रदूषणों से जन-जीवन खतरे में मिटाये बिना केवल बाह्य प्रदूषण मिटाने भर से मानव जाति की हम देखते हैं, आज पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति से सख-शान्ति, समाधि और आध्यात्मिक समृद्धि की समस्या हल नहीं सम्बन्धित बाह्य प्रदूषणों से सभी राष्ट्रों का जनजीवन खतरे में पड़ हो सकती। गया है। जैनधर्म-दर्शन तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव मानता है। अतः इनके पर्यावरणों के बाह्य प्रदूषणों से | आन्तरिक प्रदूषणों में सर्वाधिक भयंकर : अहंता-ममता उन-उन जीवों की हानि तो होती ही है, साथ ही उनके आश्रित रहे आन्तरिक प्रदूषणों में सबसे भयंकर प्रदूषण है-अहंकार और हुए अनेक त्रस जीवों की हानि का तो कोई पार ही नहीं है। बाह्य ममकार। अहं और मम इन दो शब्दों ने जगत् को अन्धा कर रखा प्रदूषणों की इस विकट समस्या के कारण भारत ही नहीं, विश्व के है। अहंता-ममता के कारण ही राग, द्वेष, मोह, ममत्व, ईर्ष्या, घृणा, सभी देश चिन्तित और व्यथित हैं। विश्व की बड़ी-बड़ी शक्तियाँ। वैर-विरोध, भेदभाव, फूट, विषमता, क्रोध, मान, माया, लोभ, पर्यावरण शद्धि के लिए करोड़ों-अरबो रुपये व्यय कर रही हैं. मद-मत्सर, स्वार्थान्धता आदि एक-एक से बढ़कर आन्तरिक प्रदूषण इसके प्रचार-प्रसार के लिये जगह-जगह विचारगोष्ठियों और फैलाते हैं। कहीं धन को लेकर अहंकार-ममकार है, तो कहीं जाति, सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। फिर भी जगत के जाने-माने भाषा, धर्म-सम्प्रदाय, परिवार या अपने स्त्री-पुत्र को लेकर अहंकार, देवा नहीवीसी पटण में जी रहे हैं। बादा पटषण से ममकार है, स्वत्व मोह है, स्वार्थान्धता है, कहीं बलवान और होने वाली शारीरिक व्याधियों से आम जनता आज बहुत ही निर्बल, शिक्षित और अशिक्षित, निर्धन और धनवान्, सवर्ण और आक्रान्त है। बाह्य रोगों की चिकित्सा और रोग निवृत्ति के लिये असवर्ण, काले-गोरे, आदि द्वन्द्वों को लेकर विषमता है। एक ओर नई-नई खर्चीली पद्धतियाँ और नये-नये यंत्रों की आयोजना अपनाई । हीनता की ग्रन्थि है तो दूसरी ओर उच्चता की ग्रन्थि है। जा रही है, फिर भी नैसर्गिक आरोग्य प्राप्त नहीं होता। लाघवग्रन्थि और गौरवग्रन्थि को लेकर आये दिन कलह, सिर फुटोव्वल, दंगा-फिसाद आदि से आन्तरिक और बाह्य पर्यावरण आन्तरिक प्रदूषण बाह्य प्रदूषण से कई गुना भयंकर प्रदूषित होते रहते हैं। मनुष्य अपनी मानवता को भूलकर दानवता ख कारण है-आन्तरिक प्रदूषण, जिसकी और और पाशविकता पर उतर आता है। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों का ध्यान बहुत ही कम है। आन्तरिक प्रदुषण से आन्तरिक (मानसिक-बौद्धिक) रोगों की चिकित्सा की आन्तरिक प्रदूषण हृदय और मस्तिष्क पर कब्जा कर लेता है ओर बड़े-बड़े राष्ट्रों का भी ध्यान कम ही है। एक तरह से आधि किसी के पैर में कांटा चुभ जाए अथवा आँख में रजकण पड़ और उपाधि इन दोनों आन्तरिक प्रदूषणों से जनित समस्याओं को जाए तो जब तक निकाला न जाए, तब तक चैन नहीं पड़ता; इसी सुलझाने में प्रायः सभी देशों के नागरिक अक्षम हो रहे हैं। हिमालय प्रकार बाह्य प्रदूषण न होने पर भी इनमें से कोई भी आन्तरिक जितनी बड़ी भूल करते जा रहे हैं, वे लोग इसी कारण बाहर से प्रदूषण हो तो उसको चैन नहीं पड़ता, मन में अशान्ति, घुटन, MagODAY

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