Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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66 : प्राकृत व्याकरण
'पुनः' का रूप पक्ष में 'पुणाइ' भी होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १ - २२८ से 'न' का 'ण'; १-११ से विसर्ग अर्थात् 'र्' का लोप; और १-६५ से 'अ' को केवल 'आइ' आदेश की प्राप्ति होकर 'पुणाइ' रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-६५।। वालाब्वरण्ये लुक् ।। १-६६ ।।
अलाब्वरण्य शब्दयोरादेरस्य लुग् वा भवति । लाउं अलाउं। लाऊ, अलाऊ । रण्णं अरण्णं ।। अत इत्येव । आरण्ण- कुञ्जरो व्व वेल्लन्तो ॥
अर्थः-अलाबू और अरण्य शब्दों के आदि 'अ' का विकल्प से लोप होता है। जैसे- अलाबुम्-लाउं और अलाउं । अरण्यम्=रण्णं और अरण्णं ।। ' अरण्य' के आदि में 'अ' हो; तभी उस 'अ' का विकल्प से लोप होता है। यदि 'अ' नहीं होकर अन्य स्वर हो तो उसका लोप नहीं होगा। जैसे- आरण्य कुञ्जर- इव रममाणः- आरण्ण कुञ्जरो व्व वेल्लन्तो - इस दृष्टान्त में 'आरण' में 'आ' है; अतः इसका लोप नहीं हुआ।
'अलाबुम्' संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप 'लाउ' और 'अलाउ' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ब्' का लोप; १-६६ से आदि 'अ' का विकल्प से लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'लाउ' और 'अलाउं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अलाब: ' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'लाऊ' और 'अलाऊ' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ७९ से 'ब्' का लोप; १-६६ से आदि-अ-का विकल्प से लोप; और ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर क्रम से 'लाऊ' और 'अलाऊ' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'अरण्यम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'रण्णं' और 'अरण्णं' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'ण्ण'; १-६६ से आदि 'अ' का विकल्प से लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'रण्णं' और 'अरण्णं' रूप सिद्ध हो जाते हैं।
'आरण्य' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'आरण्ण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य्' का लोप; और २-८९ से 'ण' का द्वित्व 'ण्ण' होकर 'आरण्ण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'कुञ्जरः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'कुञ्जरो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'कुञ्जरो' रूप सिद्ध हो जाता है।
'व्व' की सिद्धि १-६ में की गई है।
'रममाणः' संस्कृत वर्तमान कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप 'वेल्लन्तो' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४- १६८ से रम् धातु को 'वेल्ल' आदेश; ३ - १८१ से माण याने आनश् प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'वेल्लन्तो' रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-६६ ।।
वाव्ययोत्खाता दावदातः
१-६७
अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्य अद् वा भवति ।। अव्ययम् । जह जहा । तह तहा अहव अहवा । व वा । ह हा । इत्यादि । । उत्खातादि । उक्खयं उक्खायं । चमरो चामरो । कलओ कालओ ठविओ ठाविओ । परिट्ठविओ परिट्ठाविओ । संठविओ संठाविओ । पययं पाययं । तलवेण्टं तालवेण्टं । तल वोण्टं ताल वोण्टं । हलिओ हालिओ । नराओ नाराओ । बलया बलाया । कुमरो कुमारो । खइरं खाइरं । । उत्खात । चामर । कालक। स्थापित । प्राकृत। ताल वृन्त। हालिका । नाराच। बलाका। कुमार। खादिर । इत्यादि । केचिद् ब्राह्मण पूर्वाह्वयोर - पीच्छन्ति । बम्हणो बाम्हणो । पुव्वण्हो पुव्वाण्हो । । दवग्गी। दावग्गी । चडू चाडू । इति शब्द - भेदात् सिद्धम् ॥
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