Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 75
'भोजन-मात्रम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'भोअणं-मेत्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८१ की वृत्ति से 'आ' का 'ए'; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'भोअण-मेत्तं रूप सिद्ध हो जाता है।।१-८१।।
उदोद्वा ।। १-८२ ।। आई शब्दे आदेरात उद् ओच्च वा भवतः।। उल्लं। ओल्लं।। पक्षे। अल्लं। अद्द।। बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ॥ __ अर्थः-आई शब्द में रहे हुए 'आ' का 'उ' और 'ओ' विकल्प से होते हैं। जैसे-आर्द्रम्-उल्लं ओल्लं पक्ष में अल्लं और अद्द। बाष्प-सलिल-प्रवाहेण आर्द्रयति-बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ।। अर्थात् अश्रुरुप जल के प्रवाह से गीला करता है।
'आर्द्रम्' संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप 'उल्लं' 'ओल्लं', 'अल्लं' और 'अई' होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८२ से आदि 'आ' का विकल्प से 'उ' और 'ओ'; २-७९ से उर्ध्व 'र' का लोप; २-७७ से 'द्' का लोप; १-२५४ से शेष 'र' का 'ल'; २-८९ से प्राप्त 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से 'उल्लं' और 'ओल्ल' रूप सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप में १-८४ से 'आ' का 'अ'; और शेष साधनिका ऊपर के समान ही जानना। यों अल्लं' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'आर्द्रम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अई' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७९ से दोनों 'र' का लोप; २-८९ शेष 'द' का द्वित्व 'द'; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अद्द रूप सिद्ध हो जाता है।
'बाष्पः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'बाह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७० से 'ष्य' का 'ह' होकर 'बाह' रूप सिद्ध हो जाता है।
'सलिलः' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'सलिल' ही होता है।
'प्रवाहेन' संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'पवहेण' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-६८ से 'आ' का 'अ'; ३-६ से तृतीया विभक्ति के पुल्लिंग में एकवचन के प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१४ से 'ण' प्रत्यय के पूर्व में रहे हुए 'ह' के 'अ' का 'ए' होकर पवहेण' रूप सिद्ध हो जाता है।
'आर्द्रयतिः' संस्कृत अकर्मक क्रिया पद है; इसका प्राकृत रूप 'उल्लेइ' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८२ से 'आ' का 'उ'; २-७७ से 'द्' का लोप; १-२५४ से 'र' का 'ल'; २-८९ से प्राप्त 'ल' का द्वित्व ल्ल'; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-१५८ से शेष विकरण 'अ' का 'ए'; ३-१३९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एकवचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर 'उल्लेइ' रूप सिद्ध हो जाता है।।१-८२।।
ओदाल्यां पंक्तौ ।। १-८३ ।। आली शब्दे पङ्क्तिवाचिनि आत ओत्वं भवति।। ओलो।। पङ्क्तावितिकिम्। आली सखी।।
अर्थः-'आली' शब्द का अर्थ जब पक्ति हो; तो उस समय में आली के 'आ' का 'ओ' होता है। जैसे आली= (पक्ति अर्थ में-) ओली। 'पक्ति' ऐसा उल्लेख क्यों किया? उत्तर-जब 'आली' शब्द का अर्थ पक्तिवाचक नहीं होकर 'सखी' वाचक होता है; तब उसमें 'आ' का 'ओ' नहीं होता है। जैसे-आली= (सखी अर्थ में) आली।।
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