Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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236 : प्राकृत व्याकरण
___ 'विज्ञानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'विण्णाणं' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'विण्णाण' रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-४२।।
पञ्चाशत्-पञ्चदश-दत्ते ।। २-४३।। एषु संयुक्तस्य णो भवति ॥ पण्णासा । पण्णरह । दिण्णं ॥
अथः- पञ्चाशत्, पंचदश और दत्त शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर अथवा 'त्त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है। जैसे:- पंचाशत्-पण्णासा।। पंचदश-पण्णरह और दत्तम् दिण्ण।।
"पंचाशत् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णासा' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १-१५ से प्राप्त 'स' में 'आ' स्वर की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर 'पण्णासा' रूप सिद्ध हो जाता है।
'पंचदश' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप 'पण्णरह' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ञ्च' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'पण' की प्राप्ति; १-२१९ से 'द' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और १-२१९ से 'श' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर 'पण्णरह' रूप सिद्ध हो जाता है। दिण्णं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है।। २-४३।।
मन्यौ न्तो वा ॥ २-४४॥ मन्यु शब्दे संयुक्तस्य न्तो वा भवति ।। मन्तू मन्नू।।
अर्थः- संस्कृत शब्द 'मन्यु' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'न्त्' की प्राप्ति होती है। जैसे:- मन्युः=मन्त अथवा मन्नू।। ___ 'मन्युः' संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मन्तू' और 'मन्नू' होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४४ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'न्त्' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में हस्व स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'मन्तू' सिद्ध हो जाता है। मन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या २-२५ में की गई है ।। २-४४।।
स्त्स्य थो समस्त-स्तम्बे ।। २-४५ ।। समस्त-स्तम्ब-वर्जिते स्तस्य थो भवति। हत्थो। थुई । थोत्तं । थोअं। पत्थरो पसत्थो। अत्थिा सत्थि ।। असमस्त स्तम्ब इति किम्। समत्तो। तम्बो।
अर्थः- समस्त और स्तम्ब शब्दों के अतिरिक्त अन्य संस्कृत शब्दों में यदि 'स्त' संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ है; तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-हस्तः-हत्थो।। स्तुतिः-थुई।। स्तोत्रम्-थोत्त। स्तोकम्-थो। प्रस्तरः-पत्थरो।। प्रशस्तः-पसत्थो। अस्ति-अत्थि।। स्वस्ति-सत्थि।।।
प्रश्नः- यदि अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति हो जाती है; तो फिर 'समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों में रहे हुए संयुकत व्यजन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? ___ उत्तरः- क्योंकि समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों का रूप प्राकृत रूप में समत्तो' और 'तम्बो' उपलब्ध है अतः ऐसी स्थिति में स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उदाहरण इस प्रकार है:- समाप्तः समत्तो और स्तम्बः तम्बो।
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