Book Title: Prakrit Sikhe
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Hirabhaiya Prakashan

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Page 60
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लगा तो उसने पुत्रों को बुलाकर कहा ) ; वीयरायेहिं जणेहि जसकामना ण कुणेअव्वा ( वीतरागों को यश की कामना नहीं करना चाहिये ) ; पाइयभासा अवस्सं पढिअव्वा ( प्राकृत भाषा अवश्य पढ़ना चाहिये ) ; पच्चू से भगवन्ताणं पत्थणा करणीआ ( प्रातः काल भगवान् की प्रार्थना करना चाहिये); तेण इदं पोत्थयं अवस्सं पढावितव्वं ( उससे यह पुस्तक अवश्य पढ़वाना चाहिये ) ; अकरणिज्जं न कायव्वं करणीयं च कज्जं न मोत्तव्वं ( अकरणीय कार्य न करने चाहिये और करने योग्य कार्य छोड़ना न चाहिये ) ; सव्वेजीवा जीविउं इच्छन्ति न मरित्तए तओ जीवा न हंतव्वा (सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं; अतः जीवों को नहीं मारना चाहिये); कहउ, जं अहुणा भवन्तो कि पढिउं इच्छइ ( कहिये, अब आप क्या पढ़ना चाहते हैं ) ; ते मंगलकाले रोविउंण उचियं (मंगल के समय में तुम्हारा रोना ठीक नहीं है); अप्पाणं पायासिउं अयं अवसरो ( अपने को प्रकट करने का यही अवसर है ) । हिन्दी में अनुवाद कीजिये पच्चूसे जिणं अच्चणिज्जं । बालओ पइदिणं पढिअव्वं । रत्तीए चिरं न जागरिअव्वं । सुच्छ जलं पिज्जेअव्वं । अप्पाण हेतव्वो । पाणिवहो मोत्तव्वो । अहियगामिणि भासं न भासेज्जा | सो एवं चितऊण कूडवेसं काऊ रयणी तत्थेव ठिओ । अवसरं लहिऊण तं अमयकूवयं गिण्हिऊण हत्थिणाउरे आगओ । तेण चितियं-- कि कुणेअव्वं मए । भाववाच्य एवं कर्मवाच्य प्राकृत में किसी भी धातु को भावप्रधान अथवा कर्मप्रधान बनाने के लिए 'अ', 'ई' और 'इज्ज' प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगाया जाता है; फिर पुरुषवाचक एवं कालवाचक प्रत्यय लगाये जाते हैं; यथा कह + ईअ== कहीअ + इ = कही अइ - कहा जाता है । = दा + इज्ज - दा इज्ज + इ = दाइज्जइ - दिया जाता है । हस + ई = हसीअ + इ = हसीअइ-हँसा जाता है । For Private and Personal Use Only प्राकृत सीखें: ५९

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