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प्राचीन भारतीय अभिलेख
1. सिद्ध हो। भगवान को प्रणाम जो देवराज के समान शक्त समर्थ है, जिन्हें
प्रबुद्ध बोध प्राप्त हुआ, जो सर्वज्ञ हैं, जो सारे प्राणियों पर दया करते हैं, जो राग (जनित) दोष, मोह से मुक्त हैं, अनेक वृषभों में जो गन्धहस्ती के समान हैं (अनेक शिष्य तथा महाचार्यों में प्रधान) जो सम्यक् सम्बुद्ध है तथा जिन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया है। इस महाचैत्य में विरूपाक्षपति महासेन के द्वारा परिगृहीत; एक करोड़ स्वर्ण (मुद्रा), एक लाख गो, एक लाख हल का दाता, सर्वत्र अबाध संकल्पशाली वासिष्ठीपुत्र इष्वाकु (वंश के)
श्रीशान्तमूल की सोदरा बहिन, राजा माठरीपुत्र श्री वीरपुरुषदत्त की 7. बुआ, महासेनापति महातलवर (राजा के द्वारा प्रदत्त पट्ट-बन्ध से विभूषित
राजस्थानीय) वासिष्ठीपुत्र, पूकीय वंश के स्कन्दश्री की भार्या, श्रमण-ब्राह्मण-दीन-दुर्गतिशील-दीनानुग्रह-वैलामिक (वेलामा नामक दानचातुरी सम्बद्ध) दान-प्रदान में धारा प्रवाहित करने वाली, सारे साधुजनों की स्नेहिल, महादानपति की पत्नी, महातलवर की पत्नी, स्कन्दसागर की माता शान्तिश्री ने अपने दोनों कुल का, भूत-भविष्य-वर्तमान (के कल्याण) के
उद्देश्य से 11. दोनों लोक के हित-सुख की प्रार्थना के लिये और 12. सब जनों के हित सुख की प्रार्थना के लिये अपने निर्वाण के सम्पादन कारक
इस स्तम्भ की प्रतिष्ठा करवायी। 13. राजा श्री वीरपुरुषदत्त के छठे वर्ष के वर्षा के छठे पक्ष (आश्विन शुक्ल
पक्ष) के दसवें दिन।
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