Book Title: Prachin Bharatiya Abhilekh
Author(s): Bhagwatilal Rajpurohit
Publisher: Shivalik Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। । चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक :१ जैन आराधना न कन्द्र महावीर कोबा. ॥ अमर्त तु विद्या श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 - - - For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख बी. एल. राजपुरोहित For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख डॉ० भगवतीलाल राजपुरोहित शिवालिक प्रकाशन दिल्ली (भारत) For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक: शिवालिक प्रकाशन 27/16, शक्तिनगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : 011-42351161, 9868561349 प्रथम संस्करण : 2007 :8188808-25-3 इस पुस्तक का कोई भी भाग किसी भी रूप में या किसी भी अर्थ में प्रकाशक की अनुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन हैं। © लेखक भारत में प्रकाशित : विरेन्द्र तिवारी द्वारा शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली-110007 के लियं प्रकाशित अक्षर संयोजन ए वन ग्राफिक्स. नई दिल्ली-110088, और नागरी प्रिन्टर्स दिल्ली द्वारा मुद्रिता मूल्य : 695 For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुप्रसिद्ध पुराविद् डॉ० सीतारामजी दुबे के लिए आत्मीयता पूर्वक For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम अभिलेखों के छायाचित्रों की सूची पूर्वरंग 1. पिपरवा बौद्ध पात्र अभिलेख (ई० पू० पांचवीं सदी) 2. अशोक-द्वितीय शिलालेख (गिरनार, ई० पू० तीसरी सदी) 3. अशोक-त्रयोदश शिलालेख (शाहबाजगढ़ी (ई० पू० तीसरी सदी) 4. अशोक-गुजर्रा शिलालेख (ई० पू० तीसरी सदी) अशोक-भाब्रू शिलालेख (ई० पू० तीसरी सदी) अशोक-सातवां स्तम्भलेख (दिल्ली तोपरा) (ई० पू० तीसरी सदी) 7. अशोक-लघु स्तम्भ लेख (सारनाथ) (ई० पू० तीसरी सदी) 8. अशोक-रुम्मनदेई स्तम्भ लेख (ई० पू० तीसरी सदी) 9. मिनांडर शिनकोट (बाजौर) शैलखेड़ी पेटिका लेख (ई०पू० दूसरी सदी) 10. बेसनगर गरुड़ स्तम्भ लेख (ई० पू० दूसरी सदी) 11. खारवेल का हाथी गुम्फा लेख (ई० पू० पहली सदी) 12. नागनिका का नानाघाट गुहालेख (ई० पू० पहली सदी) 13. कलवान का ताम्रपत्र (77 ई०) 14. पतिक का तक्षशिला ताम्रपत्र (78वां वर्ष) 15. धनदेव का अयोध्या शिलालेख (पहली सदी) For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (viii) 49 54 59 62 16. कुषाण राजा का तक्षशिला रजतवर्ति लेख (79 ई०) 17. कनिष्क प्रथम का सारनाथ बौद्ध प्रतिमा लेख (81 ई०) 18. वासिष्क का सांची बुद्धप्रतिमा लेख (भैरव 106 ई०) 19. हुविष्क का मथुरा शिलालेख (106 ई०) 20. कनिष्क द्वितीय का आर शिलालेख (119 ई०) । 21. उषवदात का नासिक गुहालेख वर्ष 45 (दूसरी सदी) 22. उषवदात का नासिक गुहालेख वर्ष 41-42, 45 (दूसरी सदी) 23. रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख (150 ई०) 24. वासिष्ठपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख (149 ई०) 25. वासिष्ठपुत्र पुलुमावि का नासिक गुहालेख (152 ई०) 26. मालव का नान्दसा यूपलेख (225 ई०) । 27. मौखरी सेनापति के पुत्रों के बड़वा यूपलेख (238 ई०) 28. वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोण्डा लेख (तृतीय शती) 29. विन्ध्यशक्ति द्वितीय का बेसिम ताम्रपत्र (चौथी सदी) 30. समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख (चौथी सदी) 31. समुद्रगुप्त का नालन्दा अभिलेख (चौथी सदी) 32. चन्द्र का मेहरौली स्तम्भलेख (गुप्त कालीन) 33. चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि लेख (401 ई०) 34. चन्द्रगुप्त द्वितीय का सांची शिलालेख (412 ई०) 35. प्रभावती गुप्ता का पूना ताम्रपत्र (पांचवीं सदी) 36. स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ शिलालेख (457-58 ई०) 37. स्कन्दगुप्त का भितरी शिलालेख (455-67 ई०) 38. कुमारगुप्त-बन्धुवर्मा का मन्दसौर शिलालेख (529 ई०) 39. बुधगुप्त का एरण स्तम्भलेख (484 ई०) 40. भानुगुप्त का एरण स्तम्भलेख (510 ई०) 85 100 103 107 117 122 132 134 For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (ix) 136 142 150 154 157 165 170 179 186 194 196 41. प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख (515 ई०) 42. यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख (532 ई०) 43. यशोधर्मा का मन्दसौर स्तम्भलेख (छठी शती) 44. मिहिरकुल का ग्वालियर शिलालेख (15वां वर्ष) 45. ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख (553-54 ई०) 46. हर्ष का बांसखेड़ा ताम्रपत्र (628 ई०) 47. चालुक्य पुलकेशी (द्वितीय) का ऐहोल शिलालेख (634 ई०) 48. बाउक का जोधपुर शिलालेख (650 ई०) 49. आदित्यसेन का अफसड़ शिलालेख (सातवीं सदी) 50. शंकरगण प्रथम का सागर शिलालेख (सातवीं सदी का उत्तरार्ध) 51. यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख (725 ई०) 52. धारावर्ष ध्रुवसेन का भोर-संग्रहालय ताम्रपत्र (780 ई०) 53. अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र (871 ई०) 54. धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र (नौवीं सदी) 55. मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति (880 ई०) . 56. धंगदेव का खजुराहो अभिलेख (954 ई०) 57. युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख (975 ई०) 58. परमार भोजदेव का बांसवाड़ा ताम्रलेख ( 1020 ई०) 59. उदयपुर प्रशस्ति (ग्यारहवीं सदी का उत्तरार्ध) 60. विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख (1वीं सदी का अंत) 61. कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख (12वीं सदी) संदर्भ-ग्रन्थ प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) शब्दानुक्रमणिका 202 215 233 244 252 266 287 292 298 310 318 319 351 For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिलेखों के छायाचित्रों की सूची 2. अशोक का सातवाँ स्तम्भ लेख (दिल्ली-तोपरा) हेलियोदोर का बेसनगर (विदिशा) स्तम्भलेख चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची शिलालेख अशोक का तेरहवाँ लेख (शाहबाजगढ़ी) 3. 4. For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वरंग विचारों को किसी भाषा में देश-कालातीत चिरस्थायित्व देकर सर्वव्यापी बना देने में लिपि ही सहयोगी होती रही है। अमेरिका सहित विश्व की प्राचीनतम सभ्यता में चित्रलिपि के अवशेष आज तक पाये देखे जा सकते हैं। पीरू में क्वीप नामक सूत्र लिपि के उदाहरण हैं। हिन्दी में गांठ बांधना मुहावरा प्रचलित है ही। स्मृति के लिए प्रतीकात्मक लिपि भी संकेत रूप में प्राप्त होती है। जैसे पीले चावल, हल्दी, लाल झंडी, हरी झंडी आदि। भावमूलक में दु:ख के लिए आंसू या प्रकाश के लिए सूर्य का अंकन। तिकोनी फिन्नी लिपि 4000 ई0 पू0 से विकसित बताई जाती है। मिस्र में गूढाक्षरिक अथवा हीरोग्लाइफिक लिपि स्याही से लिखी मिलती है। जैसे लकड़बग्घा लकड़ी व बाघ के चित्रों से बताया जाता है। गूढाक्षरिक से प्रभावित मिस्र के उत्तर में क्रीट द्वीप की लिपि है, चित्रात्मक भी और रेखात्मक भी। यह आज से 5 हजार वर्ष पूर्व प्रचलित थी। हित्ती लिपि एशिया माइनर में प्रचलित और पूर्वोक्त हीरोग्लाइफिक का अवशेष है। चीनी लिपि भी 5200 वर्ष पूर्व फू-हे द्वारा कल्पित है या 2700 ई0 पू0 में। भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में वर्तमान पाकिस्तान में सिन्धु लिपि 6000 वर्ष पूर्व की बतायी जाती है। एलामाइट, सुमेरी, मिस्री आदि का सहयोग-संयोग सिन्ध से ईरान-अफगानिस्तान तक तब व्याप्त था। यह भावमूलक और अक्षरमूलक का संधि रूप बताया जाता है। इसे पढ़ने के प्रयास अब भी हो रहे हैं। लिपियां ध्वनिमूलक होकर भी अक्षरात्मक या वर्णात्मक होती हैं। ध्वनिमूलक प्राचीन लिपियां संसार में नौ हैं। फीनीशियन, दक्षिण सामी, ग्रीक, लैटिन, आर्मेइक, हिब्रू, अरबी, खरोष्ठी और ब्राह्मी।। विश्व में भारतीय ऋग्वेद को सर्वप्राचीन माना जाता है। वह प्रौढ़ भाषा और विचारों से सम्पन्न है। परन्तु उसे श्रुति कहा जाता है। सुनकर उसे सीखा जाता था। स्मृति पर विश्वास किया जाता था। परन्तु उसमें अक्षसूक्त भी है। जुआघर में हिसाब रखने के लिए लिपि तो होगी ही। लिपि या लिबि रंग से लिखी जाती थी। अक्षर खोदने से बनते थे ताकि सरलता से क्षर होकर खिर न जाएं। आकृति बन जाने के For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख कारण ही मालवी में वर्ण को हरूप (स्वरूप) कहते हैं। रंग से लिखने के कारण वर्ण कहलाता है। वर्ण लिखने का साधन कलम वर्णक (कलम) कहलाता था। ये सब लिखने के साथ ही खोद कर लिखने का उल्लेख अथर्ववेद (715015) में स्पष्ट ही प्राप्त है। जुए के लिखे धन का संलिखित और बाजी के धन को संरूध कहते थे। अजैषं त्वा संलिखितमजैषमुत संरूधम्। इसमें संलिखित उकेरी गयी लिपि की ओर संकेत प्रतीत होता है। वाणी को उकेरने की बात ऋग्वेद (१।१३०६) में भी कही गयी है इमां वाचं..... सुम्नाय त्वामतक्षिषुः। ऋग्वेद ( 10134) में अक्षसूक्त है। अक्ष पर अंकन तो होता ही है। ऋग्वेद में अष्टकर्णा से तात्पर्य वे गायें बतायी गयी हैं जिनके कान पर आठ का अंकन हो, पहचान के लिए। रामायण में सीता को पहचाने के लिए हनुमान वह अंगूठी देते हैं जिस पर राम नाम लिखा था रामनामांकितं चेदं पश्य देव्यगुंलीयकम्। ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वेद काल में भी लेखन और लिपि उकेरने की प्रथा थी और वह परवर्ती काल में भी रही है। लिपि और लिबि की चर्चा पाणिनि ने की और वार्तिककार कात्यायन ने यवनानी लिपि की चर्चा की। कात्यायन मध्यदेश के निवासी थे। वे उस लिपि और भाषा के बारे में जानते ही थे। पुरातत्त्वीय प्रमाणों से यह तो ज्ञात होता है कि तत्कालीन पश्चिमी भारत में उत्कीर्ण करने की परम्परा अधिक मजबूत थी। सिन्धु-सभ्यता कालीन उत्कीर्ण लेखों को चाहे संतोषजनक रूप से अब तक न पढ़ा गया हो परन्तु यह तो स्पष्ट है कि उस समय उकेरने की प्रथा सुप्रचलित थी। ईरान में उत्कीर्ण लेख मिलते ही हैं। सर्वप्राचीन उकेरे गये लेखों के प्रमाण उधर ही मिलते हैं-भारत के शेष भागों में स्वल्प ही प्राप्त होते हैं। शेष भारत में उत्कीर्ण प्राग् अशोकीय स्वल्प प्राप्त होने से यह सिद्ध नहीं होता कि इधर के लोग लिखना नहीं जानते थे। उससे केवल यही सिद्ध किया जा सकता है कि भारत में उकेर कर लिखने की प्रथा लोकप्रिय नहीं थी और न प्रचलित थी। इसलिए पुरातन लेख नहीं मिलते हैं या स्वल्प ही मिलते हैं। वैदिक, उत्तर वैदिक, पौराणिक साहित्य के प्रमाण भारत में लेखन परम्परा को For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वरंग बार-बार रेखांकित करते हैं। अशोक पूर्व के उत्तरभाग में पिपरवा आदि से तो लेख मिले ही हैं, श्रीलंका के अनुराधापुर से भी प्राप्त हुए हैं और इनसे भी प्राचीन बेटद्वारका से प्राप्त हुए हैं जो अशोकीय लिपि और सैन्धवलिपि के सन्धिकाल का संकेत करते हैं। लिपिविद् ल० श्री० वाकणकर ने लिखा है कि लंदन संग्रहालय में ईसवी पूर्व सातवीं शताब्दी के अर्तेझरजीस के समय की इष्टिका पर संस्कृत स्वर-व्यंजनात्मक पंक्ति उत्कीर्ण सुलभ है। पेरिस संग्रहालय में ईसवी पूर्व 3000--2800 की जोखा मुद्रा पर उसी लिपि में 'म ऋ माल' अंकित है। ये अभिलेख अशोकपूर्व के हैं। लिपिविदों के अनुसार विश्व की नौ ध्वनिमूलक लिपियों भारत की लिपियां ध्वनिमूलक हैं। परवर्ती बौद्ध, जैन आदि विभिन्न ग्रन्थों में जो अनेक भारतीय लिपियों की चर्चा हैं वे या तो क्षेत्रिय हैं अथवा जातीय। खरोष्ठी का प्रचलन उत्तर पश्चिमी भारत में था। यह दायें से बायें लिखी जाती थी। ब्राह्मी बायें से दायें लिखी जाती थी और इसका प्रचलन पूरे भारत में था। दक्षिण भारत में कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं कि ब्राह्मी भी दायें से बायें लिखी गयीं। पर उन्हें अभी अपवाद ही माना जा सकता है। इस प्रकार भारत की प्राचीन तीन लिपियों के उदाहरण सुलभ हैं--सिन्धु लिपि, खरोष्ठी लिपि और ब्राह्मी लिपि। इनमें से सिन्धु लिपि का अभी सर्वमान्य पाठ तैयार नहीं हो पाया है। खरोष्ठी लिपि के अभिलेख उत्तर पश्चिम भारत या वर्तमान पाकिस्तान में मिलते हैं। शेष भारत में ब्राह्मी लिपि के लेख मिलते रहे। इस ब्राह्मी का विकास ही आधुनिक भारतीय विभिन्न लिपियां हैं। । वैसे तो जैन ग्रन्थ पन्नवणा सूत्र में 18 और बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तर में 64 लिपियों के नाम मिलते हैं। परन्तु उनमें से केवल ब्राह्मी और खरोष्ठी ही अब ज्ञात है। खरोष्ठी लिपि के लेख भी केवल उत्तर-पश्चिम भारत में ही मिले हैं। इसमें 37 वर्ण हैं तथा दीर्घ स्वरों के चिह्न नहीं मिलते। इसमें संयुक्त व्यंजन नहीं के बराबर हैं। यह एक कामचलाऊ लिपि है। जैसे भाषा में प्राकृत उच्चारण की सरलता को अपनाती है। उसी प्रकार खरोष्ठी लेखन की सरलता को अपनाती है। यह वर्तमान उर्दू के समान दायें से बायें लिखी जाती है। 1. डॉ. सीताराम दुबे, अभिलेखिक अध्ययन की प्रविधि एवं इतिहास लेखन। 2004, तथा डॉ शैलेन्द्रदुकुमार शर्मा, देवनागरी विमर्श, 2003 For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख ___ अब तक यह माना जाता रहा कि सिन्धु लिपि के अनन्तर अशोक से पहले कोई लिपि नहीं थी। इसलिए कुछ लोगों ने तो यह धारणा बना ली कि ब्राह्मी की परिकल्पना अशोक ने की और उसने ही उसका प्रसार किया। परन्तु अब द्वारका क्षेत्र से प्राप्त लेख, ब्राह्मी से पहले की लिपि का उदाहरण उपलब्ध है। इस लिपि के बाद लंका के लेखों की लिपि बतायी जाती है। तब पिपहरवा की ब्राह्मी और तब अशोक के लेखों की लिपि। इस प्रकार उसकी एक विकासधारा है। बेटद्वारका लेख के कुछ अक्षर सिन्धु लिपि जैसे प्रतीत हाने से ब्राह्मी और सिन्धु के बीच की कड़ी भी जुड़ जाती है और उससे यह भी प्रतीत होने लगता है कि सिन्धु लिपि का विकास क्रमशः होता गया और ब्राह्मी अस्तित्व में आयी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारत में चिरकाल से लिपि रही है, उसका विकास होता रहा है और ब्राह्मी का अचानक अवतार नहीं हो गया। उसके उत्कीर्ण लेख न मिलना यही सिद्ध करता है कि उत्कीर्ण कर लिखने की ओर तब भारत का रुझान नहीं के बराबर था। उससे लिपि का अभाव सिद्ध नहीं होता। उस स्थिति में जबकि अशोक पूर्व का अपार साहित्य भारत में आज भी सुलभ है। अशोक के शाहबाजगढ़ी आदि के लेख खरोष्ठी लिपि में मिलते हैं, शेष पूरे भारत में ब्राह्मी लिपि में ही लिखे गये। उनकी भाषा में भी विशेष अन्तर नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि ईसवी पूर्व तीसरी शताब्दी में पूरे भारत की एक राष्ट्रीय लिपि ब्राह्मी थी और पूरे देश में बहुधा एक जैसी प्राकृत को लोग समझ लेते थे। अतः तब की जनभाषा प्राकृत थी। ब्राह्मी सर्वांगपूर्ण ध्वनिबोधक लिपि है। वह क्रमशः विकसित होती गयी। गुप्तकालीन ब्राह्मी, कुटिल लिपि, शारदा लिपि, नागरी लिपि, बंगला आदि पूर्वी भारतीय लिपियां, दक्षिण की तामिलादि विभिन्न लिपियां, ग्रन्थ लिपि आदि समस्त भारतीय लिपियां ब्राह्मी के ही विकसित विभिन्न क्षेत्रिय रूप हैं। ___ अमरकोष में (ब्राह्मी तु भारती भाषा) भाषा का एक पर्याय ब्राह्मी बताने से स्पष्ट है कि भाषा ही ब्राह्मी है। इससे स्पष्ट है कि भाषा ब्राह्मी है पर लिपि का वहां नाम नहीं है। परन्तु अन्य परम्परा में वह लिपि ब्राह्मी है। अर्थात् भाषा और लिपि दोनों ही ब्राह्मी। भेद नहीं है। ब्राह्मी जिस लिपि में लिखी जाए वह भी ब्राह्मी। ब्राह्मी लिपि में लिखी जाती ब्राह्मी भाषा। ब्राह्मी लिपि में लिखी पुस्तकें तो अब सुरक्षित नहीं के बराबर हैं और न उस लिपि के वाचन की परम्परा ही रही। इस देश में पुरातन स्तम्भ लेख, शिलालेख, ताम्रलेखों को न पढ़ पाने के कारण देवलिपि, देवताओं For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वरंग की गूढ़ भाषा, खजानों के बीजक अर्थात् गुप्त खजानों के संकेतक आदि माने जाते रहे। उन लेखों के पाठक दुर्लभ ही थे। शिलालेखों की इस प्राचीन लिपि के वाचन को भोजप्रबन्ध में जतुपरीक्षा कहा गया है। जतुपरीक्षा के जानकार भी दुर्लभ ही होते थे। आज भी दुर्लभ हैं। जतुपरीक्षा से पुरालेख पढ़े जाते थे। नर्मदा से प्राप्त शिलाखण्ड 'ईषद् भ्रंशिताक्षर' था। राजा भोज ने पढ़वाया। वह हनुमन्नाटक का खण्ड निकला। कहते हैं कभी हनुमन्नाटक पूरा शिलांकित था। वह नर्मदा में नष्ट हो गया था। राजा भोज ने उसे प्राप्त कर उसका संपादन करवाया। वह लीला नाटक अब प्रकाशित और सुलभ है। धारा में एक पारिजातमंजरी नाटिका के दो शिलांकित अंक आ भी सुलभ हैं। अत: नाटक पत्थर पर उत्कीर्ण करने की परम्परा थी। उससे प्राचीन भी शिलांकित नाटक मिलते हैं। समुद्र में डूबे मन्दिर की भित्ति पर शिलालेख की चर्चा प्रबन्ध-चिन्तामणि (पृष्ठ 40) में है। उस पर मदनपट्टिका रखकर छापा ले लेने की पद्धति वर्णित है। मदनपट्टिका पर मिट्टी की पट्टी रखकर उसमें उभरे विपरीत अक्षरों को (जतु) पण्डितों ने पढ़ा। शरीर के उभरे चिह्नों का छापा पत्तनिका से लेने की बात भोज की शृंगारमंजरीकथा में भी कही गयी है। पत्तनिका को खोलकर छापा या प्रतिबिम्ब देखा जा सकता था। ___पूर्वोक्त विवरण से ज्ञात होता है कि परंपरा कहती है कि हनुमन्नाटक शिलांकित था। यह नाट्यालेख नाटक का सचमुच ही आरंभिक आलेखन जैसा ही प्रतीत होता है। इसी प्रकार दक्षिण के तेलंगाना के त्रैकूट पर्वत पर रावण का मूल व्याकरण आगम अंकित था। यह शिलांकित था। किसी ब्रह्मराक्षस ने वह चन्द्राचार्य, आचार्य वसुरात आदि को दिया। व्याकरण का यथावद् वैसा ही स्वरूप उससे प्राप्त कर उसे निरंतर शिष्यों के लिए व्याख्या करके बहुत सी शाखाएं कर दी गयीं और विस्तार कर दिया गया। यह बात भर्तृहरि के वाक्यपदीय (2/480) की टीका में पुण्यराज ने कही। यह उल्लेखनीय है कि रामायण के पात्रों के साथ अभिलेख की परंपरा जुड़ी हुई है। हनुमान ने सीता को लंका में जो राम की अंगूठी दी उस पर राम का नाम अंकित था। हनुमान का लिखा हनुमन्नाटक लीलानाटक है जो शिलांकित था। रावण का व्याकरण शिलांकित था। यह उल्लेखनीय है कि शिवताण्डव जैसे प्रौढ़ और लोकप्रिय स्तोत्र का रचयिता भी रावण ही बताया जाता है। परंपरानुसार रावण परम पंडित था। परवर्ती काल में तो कई नाटक और काव्य शिलांकित किये जाते रहे। जिनमें से कुछ पूर्ण अथवा खण्डित रूप में आज भी उपलब्ध हैं। अपनी वस्तुओं, अंगुठियों, शरों आदि पर नाम लिखने की परंपरा बड़ी For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 6 प्राचीन भारतीय अभिलेख समृद्ध थी। कालिदास, शूद्रक आदि का साहित्य प्रमाण है। मृच्छकटिक में तो चारुदत्त के दुशाले पर भी उसका नाम लिखा बताया गया है। पात्रों पर लिखे नामों के अवशेष तो चिरकाल से मिलते ही हैं और आज तक वह परंपरा सुप्रचलित है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र का आरंभ ही ब्राह्मी लिपि को प्रणाम के साथ होता है - नमो बंभीए लिविए । सम्राट् अशोक के समय ब्राह्मी लिपि का एक रूप प्रचलित था सारे देश में । परंतु कालान्तर में उसके उत्तरी और दक्षिणी भेद बढ़ते गये। देश - कालानुसार ब्राह्मी के रूप बदलते गये और वह अकेली कई रूप धारण करती हुई आज की भारतीय विभिन्न लिपियों के रूप में रूपांतरित हो गयी। जनता वर्तमान के साथ चलती है। पुरातन पद्धति प्रचलन से बाहर हो जाने पर कालान्तर में पहचान में नहीं आती है। भाषा के समान लिपि भी पुरातन हो जाने से नहीं पढ़ी जा रही थी। लोग पढ़ नहीं पा रहे थे। अतः उन लेखों को देख कर चकित थे। क्या हैं ये ? 1784 में विलियम जोन्स के प्रयास से कोलकाता में रायल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना के साथ भारतीय विद्या के अध्ययन की रुचियां पल्लवित होती गयीं। इसी समय से सिक्के, ताम्रपत्र, प्राचीन अभिलेख आदि पढ़े जाने लगे। प्रयास जारी रहे। परन्तु 1834-35 में वाचन शुरू किया और प्राय: पचास वर्ष तक वे निरंतर उसमें लगे रहे। इसके साथ ही खरोष्ठी के वाचन का प्रयास भी चलता रहा। तब तो निरंतर नये-नये लेखों का वाचन प्रकाशन होता गया। फिर 1877 में कनिंघम ने अशोक के और 1888 में फ्लीट ने गुप्त अभिलेखों का संकलन प्रकाशित करवा दिया। अभिलेखों से ही इतिहास के ये दोनों कालखण्ड प्रकाश में आ पाये। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 1894 में लिपिमाला और बूलर 1896 में इंडिरचे पेलिओग्राफी पुस्तकें प्रकाशित कीं। ओझा की पुस्तक आज भी लिपिविदों के लिए प्रमाण है। बहुधा विजेता की लिपि और भाषा का आरोप होता रहा। परन्तु विजेता होने पर भी उत्तरी लिपि महाराष्ट्र में प्रचलित रही। परन्तु गुजरात में 13-14वीं सदी से वह अन्य रूप लेती गयी। वास्तव में ब्राह्मी का ही विकार आज की भारतीय लिपियां हैं। बस धीरे धीरे वे अधिक वर्तुल होती गयीं। कोणों का वर्तुल हो जाने का मार्ग उसके उच्चारण में भी बढ़ता गया । फलतः कई वर्णों के उच्चारण भी धीरे-धीरे फिसलते गये। लृ का लोप । ऋ का रि बन जाना आदि ऐसे ही परिवर्तन हैं। लेखन के प्राचीन आधार थे - भूर्जपत्र, ताड़पत्र, कागज, कपड़ा, चमड़ा, काष्ठपट्टिका, प्रस्तर (शिलाखण्ड, स्तम्भ, शिलाफलक, सिंहासन या मूर्तियों की For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वरंग पीठ, पात्र या ढक्कन, मंदिर के स्तम्भ, दीवार, बरामदा, गुहाएं आदि पर लिखा जाता था। ये राजकीय प्रज्ञापन, प्रशस्ति, संधिलेख, समझौता लेख, समर्पण लेख, स्मृति लेख, दान लेख, अनुदान, काव्य, साहित्यिक रचनाएं या धर्मग्रन्थ हैं। आधार को टांकियों से समतल और चिकना कर लेते थे। किसी विद्वान्, कवि या राजकीय अधिकारी द्वारा तैयार किया गया लेख, सुन्दर अक्षर लिखने वाला लिपिकार शिला पर लिखता और सूत्रधार उसे खोदता। ईंटों, धातुओं (स्वर्ण, रजत, ताम्र, पीतल, कांसा, लोहा, टिन आदि) पर लिखा जाता था। हथौड़ा, टांकी आदि के साथ ही स्याही ही प्रधान होती जो सोने और चांदी के बरकों को घोटकर भी बनायी जाती है। लेखनी, वर्णक, वर्णिका, वर्णवर्तिका, तुली या तूलिका, शलाका (सलाई लोहे की) आदि के साथ ही लोहे के परकार, मानदण्ड, या रूल, रेखापाटी या समासपाटी का उपयोग होता था। जिनकी जीविका लेखन हो वो लेखक कहलाते थे। लेखक सब प्रकार के दस्तावेजों, सरकारी कागजपत्रों या पुस्तकों की नकल कागज, भोजपत्र, ताड़पत्र इत्यादि करने साथ ही वे ठोस आधारों पर उत्कीर्ण भी करते थे। सांची अभिलेख में प्रथम बार लेखक शब्द का उल्लेख हुआ है। अभिलेखों पर उत्कीर्ण करने वाले बहुधा लेखक ही कहलाते थे। पाणिनि ने लिपिकर या लिबिकर शब्दों का उपयोग किया है। अशोक के चौदहवें लेख में लिपिक अर्थ में ही इसका उपयोग किया गया है। सिद्धपुर और ब्रह्मगिरि लेखों में लिपिक को पड़ कहा गया है। सांची लेख के अनुसार राजा का लेखक राजलिपिकर कहलाता है। खोहताम्रपत्र का दिविरपति भी अशोक के दिपिकर का ही परवर्ती रूप बताया जाता है। क्षेमेन्द्र के लोकप्रकाश में ग्राम दिविर, नगर दिविर, गंज (बाजार) दिविर, रववास दिविर इत्यादि कई स्तर प्राप्त होते हैं। यह कार्य कायस्थ भी करते थे। ये लिपिक करण, करणि, करणिक, शासनी या धर्मलेखी भी कहलाते थे। इन्हें शिला तथा धातुपत्र पर शिल्पी, रूपकार, सूत्रधार या शिलाकूट सुंदर अक्षरों में उत्कीर्ण कर देता था। अभिलेखों के निर्माता महाराज, महासामन्त, महाक्षपट्टलाधिकरणाधिकृत, बलाधिकृत, सेनापति, सांधिविग्रहिक, अमात्य इत्यादि होते थे। अन्त में शासक के हस्ताक्षर के प्रतीक के रूप में 'स्वहस्तोयं भोजदेवस्य' इत्यादि लिखा रहता था। वररुचि का पत्रमंजरि, लेखपंचाशिका या क्षेमेन्द्र के लोकप्रकाश में पत्र लेखन, व्यावसायिक लेखन या राजकीय लेखन के रूप प्राप्त होते हैं। यूनानी लेखकों के अनुसार ई० पू० चौथी सदी में भारत में कागज पर लिखने का प्रचलन था। अभिलेखों पर कई बार शासक के अपने शासन वर्ष उत्कीर्ण किये गये हैं। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख अशोक, भागभद्र, खारवेल, गौतमीपुत्र शातकर्णी आदि के लेखों में यही पद्धति है। अनंतर दिन, ऋतु आदि के भी उल्लेख होने लगे। बाद में ईसवी पूर्व 58-57 में चले विक्रम संवत् या ईसवी 78-79 में प्रारम्भ हुए शक संवत् के उपयोग होने लगे। विक्रम संवत् का आरंभ में कोई नाम नहीं मिलता। बाद में उसे कृत या मालव कहा जाने लगा। फिर 8-9वीं सदी में विक्रमादित्य नाम के साथ उसके उल्लेख मिलते हैं। गुप्त संवत् या वलभी संवत् 319 ई० से प्रचलित हुआ। चेदि या कलचुरि संवत् 248-49 ई० में प्रचलित हुआ था। इनके अतिरिक्त भी कई राजाओं या राजवंशों के नाम से विभिन्न संवत् प्रचलित होते रहे जिनमें से बहुधा अल्पजीवी ही रहे। प्रामाणिक इतिहास ज्ञात करने में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। अभिलेखों से वंश-परम्परा, युद्ध, राज्यसीमा, समकालीन नरेश, शासन-व्यवस्था, शासनप्रणाली (राजतंत्र-प्रजातंत्र),सामाजिक स्थिति, आर्थिक दशा, धार्मिक व्यवस्थाएं, भाषिक विकास, साहित्यिक उपलब्धियां, शैक्षणिक स्थिति, कला इत्यादि के विषय में प्रामाणिक विवरण प्राप्त हो जाते हैं। अभिलेखों से विभिन्न लिपियों के विविध विकास का प्रामाणिक लेखा जोखा प्राप्त किया जा सकता है। अंकों का विकास भी इनसे स्पष्ट हो जाता है। अभिलेखों से भौगोलिक स्थितियां, मार्ग, सार्थवाह, बन्दरगाह, नगर, आक्रमण पथ, नदियां, पर्वत आदि की स्थिति का ज्ञान हो सकता है। इन लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मी से भारतीय विभिन्न लिपियां विकसित हुई हैं। ब्राह्मी, खरोष्ठी लिपि तथा संस्कृत-प्राकृत के लेख भारत के साथ ही मध्य एशिया, चीनी तुर्किस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, थाईलैण्ड, मलाया द्वीप, कम्बोडिया, दक्षिण अनाम (चम्पा) इत्यादि स्थानों से भी प्राप्त हुए हैं। अभिलेख धातुओं, ताम्रपत्रों, मूर्तियों, शिलाओं, प्रतिमाओं, स्तम्भों, भित्तियों, पात्रों, सिक्कों, मुहरों, गहनों इत्यादि विभिन्न आधारों पर प्राप्त हुए और होते जा रहे हैं। हर समय कहीं न कहीं से नया लेख प्राप्त हो जाता है। कहीं गुहाओं में भी मिल जाते हैं। ये लेख उत्कीर्ण भी हो सकते हैं और रंगों से लिखे हुए भी। ऐसे लेखों में कई लेख मन्दसौर (म०प्र०) जिले के भानपुरा क्षेत्र के चिब्बरनाला से प्राप्त हुए हैं। इनमें प्राथमिक वाचन के अनुसार बौद्ध परम्परा से सम्बद्ध हैं। ईसवी पूर्व के एक लेख में कालिदास तथा सिबि का भी उल्लेख है। मन्दसौर के पास अंवलेश्वर के ईसवी पूर्व के स्तम्भ लेख में विक्रमादित्य का उल्लेख है। मन्दसौर जिले के ही रिस्थल से औलिकर राजा प्रकाशधर्मा का 515 ई० का शिलालेख इसलिए For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्वरंग महत्त्वपूर्ण है कि उसमें प्रकाशधर्मा द्वारा हूण राजा तोरमाण की पराजय का उल्लेख है। इसी प्रकार राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष का ओझर ताम्रपत्र (822 ई0) भी महत्त्वपूर्ण है। मन्दसौर के कुमारवर्मा का शिलालेख भी प्राप्त हुआ है। मध्यभारत के ऐसे अनेक शिलालेख पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित हुए है। उन शिलालेखों से इतिहास लाभान्वित हुआ है। बाघ से गुप्तकालीन और प्राग्गुप्तकालीन ताम्रपत्रों का समूह प्राप्त हुआ जो उस क्षेत्र के राजवंश और वातावरण पर विशेष प्रकाश डालता है। उससे भुलुण्ड, स्वामिदास, रुद्रदास, भट्टारक, सुबन्धु आदि का परिचय प्राप्त होता है। सम्राट अशोक के सीहोर जिले से प्राप्त शिलालेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन अभिलेखों का साहित्यिक मूल्य भी आसाधारण है परन्तु साहित्य में उन्हें अपेक्षित मान नहीं मिल पाया। प्रस्तुत संकलन भारतीय प्राचीन कछ महत्त्वपूर्ण अभिलेखों का है। इस संकलन से भारतीय अभिलेख परम्परा, लेखन-परम्परा, लिपि विकास, भाषा विकास, साहित्य-प्रवाह, इतिहास-धारा और भारतीय संस्कृति की परिवर्तित होती परतें उभरती प्रतीत होती हैं। अभिलेखों-ताम्रपत्रों से स्थापत्य, कला, वैदिक शाखाओं का संचरण आदि के साथ ही जातियों, समूहों अथवा श्रेणियों का यात्रा-प्रवाह आदि भी प्रकट होता जाता है। यह संकलन भारतीय प्राचीन प्रतिनिधि अभिलेखों का होने से जिज्ञासुओं तथा अध्येताओं के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ तो यह श्रम सार्थक रहेगा। इस संकलन को तैयार करने की प्रेरणा प्रायः चार दशक पूर्व सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० भगवतशरणजी उपाध्याय से प्राप्त हुई थी। और अपेक्षित सामग्री जुटाने में अब विवुमविश्वविद्यालय, उज्जैन में प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभागाध्यक्ष डा० सीतारामजी दुबे का विशेष सहयोग रहा। मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ । प्रकाशन के लिए श्रीवीरेन्द्र तिवारीजी का साधुवाद। बिलोटीपुरा, उज्जैन -भगवतीलाल राजपुरोहित ___ कई नये शिलालेख-ताम्रपत्र 'भारतीय अभिलेख' में प्रकाशित। वाकणकर शोध संस्थान, उज्जैन, 2002 ई०। संपादन डा० भगवतीलाल राजपुरोहित एवं डॉ. जगन्नाथ दुबे। For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिपरवा बौद्ध पात्र अभिलेख पिपरवा-पिपरवा, जिला बस्ती (उ०प्र०) नेपाल सीमा से 1 किलोमीटर दक्षिण में स्थित। भाषा-प्राकृत, लिपि-ब्राह्मी (ई०पू० पांचवीं शती) सुकिति भतिनं स भगिनिकनं स पुतः दलनं (1) इयं सलिल निधने बुधस भगतवे सकियानं (॥) 1. बहिन तथा स्त्री-पुत्र की सुकीर्ति एवं भक्ति सहित शाक्य भगवान् बुद्ध का यह देहावशेष है। 1. सुल 1. एक भाण्ड की गर्दन पर उत्कीर्ण और डी.सी. सरकार के सेलेक्ट इन्स्क्रिप्शन्स, पृ.81 पर प्रकाशित। 10 For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. www. kobatirth.org अशोक का गिरनार द्वितीय शिलालेख' जूनागढ़ - गिरनार (गुजरात) भाषा - प्राकृत (पालि ) लिपि ब्राह्मी - ई०पू० तृतीय शती सवत विजितम्हि देवानंर्पि (प्रि ) यस पियदसिनो राञो एवमपि प ( प्र )चंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुत्तो केतलपुत्तो आ तंब पंणी अंतिय()को योन राजा ये वापि तस अंतिय ( ) ) कस सामीपा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजानो सर्वर्त (त्र ) देवानंर्पि (प्रि )यस र्पि (प्रि ) यदसिनो राज द्वे चिकीछ(T) कता - मनुस - चिकीछा च पसु चिकीछा च । ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च पसो ( प ) - गानि च यत तत नास्ति सर्वर्त (त्र) हारापितानि च रोपापितानि च । मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सवत हारापितानि च रोपापितानि च । 1. कार्पस, 1, पृष्ठ 2-4 8. पंथेसु कूपा च खानापितार्व (व्र ) छा च रोपापित (T) परिभोगाय पसु मनुसानं । 11 For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 2. देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पूरे राज्य में इसी प्रकार सीमावर्ती तक यथा-चोड़, पाण्ड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र, ताम्रपर्णी तक यवनराज अंतियोक और जो अंतियोक के पड़ौसी राजा हैं सब दूर देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने दो प्रकार की चिकित्सा (व्यवस्था) की है। मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। और जो औषधियां मनुष्योपयोगी और पशुओं के लिए उपयोगी जहां जहां नहीं हैं वे सर्वत्र ले जाई गयीं और रोपी गयीं। जहां जहां मूल और फल नहीं है वहां वहां ले जाये गये और रोपे गये। पशुओं और मनुष्यों के उपयोग लिए मार्गों पर कुए खुदवाये गये और वृक्ष रोपे गये। 8. For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेरहवां शिलालेख-शाहबाज़गढ़ी 1. 2. शाहबाजगढ़ी-पेशावर (पाकिस्तान), ई०पू० तृतीय शती भाषा-प्राकृत (पालि) लिपि-खरोष्ठी (अठ) वष अ (भि सि) त(स) (देवन) प्रि (अ) स प्रि (अ) द्रशिस (ओ) क (लिग) वि(िज)ता दिअढ- म(त्रे) प्रण-शत-(सह) से (ये) ततो अपवुढे शत-सहस्र-मत्रे तत्र हते बहु-तवत(के) (व) (मुटे) ततो प(च) अ(धु )न ल(धे )षु (कलिगेषु) (तिवे) (ध्रम-शिलन) ध्र(म-क) मत धमनुशस्ति च देवनं पियसा सो (अ)स्ति अनुसोचन देवन (प्रिअ)स विजिनिति कलिग(नि)। अविजितं (हि) (वि)जिनमनो यो त(त्र) वध व मरणं व अपवह व जनस तं बढं (वेदनि(य) मतं) गुरुमत (') च देवनंपियस। इदं पि चु (ततो) गुरुमततरं (देवनं) प्रियस ये तत्र वसति ब्रमण व श्रम(ण) व अ (') जे व प्रषंड ग्र (ह)थ व येसु विहित एष अग्रभुटि सुषुष मत-पितुषु सुश्रुष गुरुन सुश्रुष मित्र-संस्तुत-सहय अतिकेषु दसभटकनं सम्मप्रतिप(ति) द्रिढ-भतित तेष तत्र भोति (अ) प (ग्र) थो व वधो व अभिरतन व निक्रमणं। येष 3. 5. 1. कार्पस, 1, पृष्ठ 66--701 13 For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 6 व पि सुविहितनं (सि) ने हो अविग्रहिनो (ए) (ते) ष मित्र-संस्तुत-सहय-अतिक वसन प्रपुणति त(त्र) तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति। प्रतिभगं च (ए) तं सव-मनुशनं गुरुमत च देवनं प्रिय(स)। नस्ति च एकतरे पि प्रषडस्पि न नम पसदो। सो यमत्रो (ज)नो तद कलिगे (ह)तो च मु( टो)। च अप( वुढ) च ततो शतभगे व सहस्रभगं व (अ) ज गुरु-मतं (वो) देवनं प्रियस। यो पि च अपकरेयति क्षमितविय-मते व देवनं (प्रि )यस यं शको क्षमनये। य पि च अटवि देवनं प्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अपुनिजपेति अनुतपे पि च प्रभवे देवनं प्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च (ह) - ओयसु। इछति हि (देव)नं प्रियो सव-भुतन अक्षति स (') यम सम(च)रियं रभसिये। अयि च मुख-मुत विजये देवनंप्रिय (स) यो, ध्रम-विजयो। सो च पुन लधो देवनंप्रियस इह च सवेषु च अंतेषु (अ)षषु पि योजन श( ते )षु यत्र अंतियोको नम (यो)नरज परं च तेन अ (-)तियो(के)न चतुरे 4 रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निच चोड पंड अव त (-) बपं (णि) य। (ए)वमेव( हि )द रज-विषवस्पि योन क(-) बोयेषु नमक-नभितिन भोज-पितिनिकेषु अंध्र-पुलिदेषु सवत्र देवनंप्रियस धमनुशस्ति अनुवटंति। यत्र पि देवनंप्रियस दुत न वचंति ते पि श्रुतु देवनंप्रियस धम-वुटं विधनं धमनुशस्ति ध्रमं (अ)नुविधियंति अनुविधियिश(ति) च। यो (स)लधे एतकेन भो(ति) सवत्र विजयो सव(त्र) पु(न) विजयो प्रिति-रसो सो। लध (भोति) प्रिति ध्रम-विजयस्पि। लहुक तु खो स प्रिति। परत्रि(क)मेव मह-फल मेजति देवनं 10. 11. For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेरहवां शिलालेख-शाहबाज़गढ़ी ____ 15 (-) प्रियो। एतये च अठये अयि ध्रम-दिपि निपि( स्त)। कितिपुत्र पपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेत (f) वअ मजिषु। स्प (कस्पि ) यो विज(ये) (क्षं)ति च लहु-द (-) डत च रोचेतु। तं च यो विज(यं) मञ(तु) 12. यो ध्रमविजयो। सो हिदलोकिको परलोकिको। सव चतिरति भोतु य (धोम-रति। स हि हिदलोकिक परलोकिक। (राज्य) अभिषेक के आठ वर्ष बाद देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजाने कलिंग को जीता। डेढ़ लाख लोग (कैद कर) वहां से (बाहर) ले जाये गये। वहां एक लाख लोग मारे गये। उससे बहुत से वहां (बिमारी-महामारी से) मर गये। उसके बाद कलिंग देश प्राप्त होने पर अब देवों के प्रिय को तीव्र धर्मानुशीलन, धर्माभिमत और धर्मानुशासन (का भाव) हुआ। कलिंग-विजय का देवप्रिय को बड़ा अनुताप हुआ। अविजित देश को जीतने पर लोगों का वहां जो वध, मृत्यु या निष्कासन होता है वह देवों के प्रिय को अत्यन्त कष्टदायी है। देवप्रिय को इससे और भी अधिक दुःख हुआ कि वहां ब्राह्मण, श्रमण और अन्य सम्प्रदाय के लोग तथा गृहस्थ रहते हैं जिनमें अग्रणी लोगों की सेवा-सुश्रुषा, माता-पिता की सुश्रुषा, गुरुजनों की सुश्रुषा, मित्र, परिचित, सहायक जाति-सम्बन्धियों की, दास-सेवकों के प्रति समुचित व्यवहार तथा दृढ़ भक्ति पायी जाती है-उनका वहां विनाश, वध या प्रिय जनों से बरबस वियोग होता है। अथवा जो स्वयं सुरक्षित रहते हैं पर स्नेही मित्र आदि के भिन्न, परिचित, सहायक, सम्बन्धी विपदा में फंस जाते हैं तो वहां उन्हें भी वही पीड़ा होती है। इस विपदा के प्रतिभागी सब लोग होते हैं यह देवों के प्रिय का दृढ़ मत है। ऐसा कोई भी देश नहीं जहां कोई न कोई धर्म-संप्रदाय न हो। इसलिए कलिंग में जो लोग मारे गये, मर गये या वहां से निष्कासित किये (हटा दिये) गये उसका सौवां या हजारवां भाग भी आज देवप्रिय को भारी लग लगता है। अब जो कोई अपकार करता है, क्षमा के योग्य है तो देवों का प्रिय उसे क्षमा कर 7. For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 16 प्राचीन भारतीय अभिलेख सकता है। देवप्रिय के विजित राज्य में जो भी वनवासी हैं उन पर भी वह कृपा करता है, उन्हें बोध देता है। देवप्रिय का अनुताप और प्रभाव उन्हें बताया जाना चाहिए। क्योंकि वे (बुरे कर्म से) लज्जा करें और प्राणदण्ड से बचें। देवों का प्रिय चाहता है कि सब प्राणियों की अहिंसा (कल्याण) संयम, समानता और सौहार्द्र का व्यवहार हो। देवप्रिय धर्म-विजय को ही मुख्य विजय मानता है और देवों के प्रिय ने वह धर्म विजय प्राप्त की। समस्त सीमावर्ती (राज्यों) में 9. छ: सौ योजन तक जहां अन्तियोक नामक यवन राजा और उस अन्तियोक से परे चार 4 राजा तुरमय नामक, अंतकिनि नामक, मग नामक, अलिक सुंदर नामक और नीचे चोड, पाण्ड्य और ताम्रपर्णी तक। इसी प्रकार यहां राजा के राज्य में यवन, कम्बोज, नाभक, नाभक्ति, 10. भोज, पितनिक, आन्ध्र और पुलिंदों में सब दूर देवप्रिय का जहां तक भी धर्मानुशासन है और जहां देवप्रिय के दूत नहीं पहुंचते हैं वे भी देव के प्रिय का धर्म-वृत्त, विधान और धर्मानुशासन सुनकर धर्म का आचरण करते हैं और आचरण करेंगे। जो इस प्रकार सर्वत्र विजय उपलब्ध होती है-सर्वत्र पुनः 11. प्रीतिरस वाली वह विजय है। धर्म विजय में प्रीति प्राप्त होती है। परन्तु वह प्रीति बहुत लघु होती है। देवों का प्रिय पारलौकिक को ही महाफल मानता है। इसलिए यह धर्मलिपि लिखवाई गयी। क्योंकि मेरे पुत्र प्रपौत्र (तक) नयी विजय को भी विजय जैसी न माने। नयी विजय करें (भी) तो क्षमा और लघुदण्डता में रुचि लें और उसे ही विजय मानें। 12. जो धर्म विजय है। वह इहलौकिक है और पारलौकिक है और सब वही अतिरति हो जाए जो धर्मरति है। वही इहलौकिक और पारलौकिक है। For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 3. 4. 5. लिपि - ब्राह्मी, ई०पू० तृतीय शती 1. देवानं पियस असोकराजस । अडतियानि सवछरानि... उपासक (स्मि )... साधिके सवछरे य च मे संघे याते ती अहं बा ढं च परकंते ती आहा ( । ) एतेना अंतरेणा जंबुदीपसि देवानं पीयस अमिसं देवा संतो मुनिस मिसं देवा कटा । परकमस इयं फले (1) नो च इयं महतेनाति व 2. 1. www. kobatirth.org 2. गुजर्रा शिलालेख' गुजरी - जिला दतिया ( म०प्र०) भाषा - प्राकृत / पालि, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चकिये पापोतवे । खुदाकेण पी परकममीनेना धमं चरमीनेना पाने संयतेना विपुले पी स्वगे चकिये आराधयितवे । से एताये अठाये इयं सावणे। खुदाके च उडारे चा धमं चरंतू (यो ) गं युंजंतू । अंता पि जानंतू किंति च चिलथितिके धंम च. सिति च एनं वा धमं चरं अति यो ( 1 ) इयं च सावन विवुथेन 200 (+) 50 (+) 6 (1) देवों के प्रिय अशोक राजा का ( कहना है) - ढाई वर्ष उपासक रहा । ... मुझे संघ में गये को डेढ़ वर्ष हो गये । और अधिक पराक्रम किया। इस बीच जम्बूद्वीप में देवों के प्रिय ने जो अमिश्र देव थे वे देव मनुष्यों से मिश्र कर दिये। यह पराक्रम का फल है। यह न केवल महान् से ही 3. प्राप्त होना सम्भव है। पराक्रम करने वाले और धर्माचरण करने वाले क्षुद्र 1. ए०३० 31, पृ० 205 17 For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख (छोटे) भी संयम से विपुल स्वर्ग प्राप्त कर सकते हैं। इस लिए यह श्रावण किया। क्षुद्र और उदार धर्म का आचरण करें और योग प्राप्त करें। सीमावर्ती लोग भी जानें कि चिरस्थायी क्या है और धर्म क्या है. . . यह धर्माचरण अत्यन्त बढ़ेगा। यह श्रावण के 256वें पड़ाव में (कहा गया)। 5. For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाब्रू शिलालेख भाबू-जिला जयपुर (राजस्थान) भाषा-प्राकृत (पालि) लिपि-ब्राह्मी (ई०पू० तृतीय शती) र्पियदसि लाजा मागधे संघं अभिवादे (तू)नं आहा अप(1) बाधतं च फासु विहालतं चा (।) विदिते वे भंते आवतके हमा बुधसि धंमसि संघसी ति गालवे चं (च) र्प (प्र)सादे च। ए केचि भंते भगवता बुधे(न) भासिते सवे से सुभासिते वा। ए चु खो भंते हमियाये दिसेया हेवं सधंमे चिल( ठितीके होसती ति अलहामि हकं तं वातवे। इमानि भंते (धं )म पलियायानि विनयसमुकसे 5. अलियवसाणि अनागतभयानि मुनिगाथा मोनेयसूते उपतिसर्प (प्र) सिने ए चा लाघुलो6. वादे मुसावाद अधिगिच्य भगवता बुधेन भासिते एतानि भंते धंमपलियायानि इछामि 7. किं ति बहुके भिखु(प गये चा भिखुनिये चा अभिखिनं सु (ने)यु चा उपधालयेयू चा। 8. हेवं मे वा उपासका चा उपासिका चा। ऐतेनि भंते इमं लिखा (प)यामि अभिपेतं मे जानंतू ति॥ 1. कार्पस, 1, पृष्ठ 172-741 ___19 For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 1. लं + प्रियदर्शी राजा ने मागध संघ का अभिवादन करके अबाधता (निर्विघ्नता) और सुखविहार के बारे में कहा। हे भदन्तो आपको ज्ञात हो कि बुद्ध, धर्म और संघ में मेरी कितनी गहरी श्रद्धा और विश्वास है। जो कुछ भी भदन्तो, भगवान् बुद्ध ने कहा सब सुभाषित (अच्छा कहा) है। परन्तु भदन्तो जिसे समझता हूं कि सद्धर्म चिरस्थायी होगा उसे यहां लिखता हूं। हे भदन्त, ये धर्म पर्याय हैं-विनय समुत्कर्ष (विनय की महत्ता), आर्यवंश, अनागत भय, मुनिगाथा, मौनेय (मुनियों के) सूत्र, उपतिष्य का प्रश्न, राहुलावाद (राहुल का उपदेश) भगवान् बुद्ध ने जिसे झूठ बोलने के विषय में कहा। हे भदन्तो चाहता हूं कि धर्मपर्यायों कोक्योंकि बहुत से भिक्षु और भिक्षुणियां बारम्बार सुनें और धारण करें। इसी प्रकार उपासक और उपासिकाएं भी। हे भदन्तगण, यह (लेख) मैं इसलिए लिखवाता हूं कि लोग मेरा अभिप्राय जानें, समझें। 6 For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवाँ स्तम्भलेख 1. 2. 3. 4. तोपरा-जिला अम्बाला (हरियाणा) भाषा-प्राकृत (पालि) लिपि-ब्राह्मी (ई०पू० तीसरी सदी) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (1) ये अतिकंतं अंतलं लाजाने हुसु हेवं इछिसु कथं जने धेमवढिया वढेया (1) नो चु जने अनुलुपाया धंमवढिया वढिया (I) एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (।) एस मे हुथा (1) अतिकंतं च अंतलं हेवं इछिसु लाजाने कथं जने अनुलुपाया धंमवढिया वढेया ति(।)नो च जने अनुलुपाया धंमवढिया वढिआ (I) से किनसु जने अनु(प)टिपजेया 8. किनसु जने अनुलुपाया धंमवढिया वढेया ति (1) किनसु कानि 9. अम्युनामयेहं धमवढिया ति (1) एतं देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं 10. आहा(1) एस मे हुथा (1) धमसावनानि सावापयामि धंमानुसथिनि 11. अनुसासामि (1) एतं जने सुतु अनुपटीपजीसति अभ्युनमिसति (।) 12. धंमवढिया च (स्तम्भ की गोलाई में) बाढं वढिस (ति) एताये मे अठाये धंमसावनानि सावापितानि धंमानुसथिनि विविधानि आनापितानि य( था) (पुन्ति) म(1) पि बहुने जनसि आयता 1. कार्पस, 1, पृष्ठ 130-36 21 For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख ए ते पलियो वदिसंति पि पविथलिसंति पि (।) लजूका पि बहुकेसु पानसतसहसेसु आयता(1) ते पि मे आनपिता हेवं च हेवं च पलियोवदाथ 13. जनं धंमयु( तं) (देवानपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (1) एतमेव मे अनुवेखमाने धंमथभानि कटानि धंममहामाता कटा ध(म) (सावने )कटे (।) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (17) मगेसु पि मे निगोहानि लोपापितानि छायोपगानि होसंति पसुमुनिसानं अंबावडिक्या लोपापिता (1) अढकोसिक्यानि पि मे उदुपानानि 14. खानापापितानि निसिढया च कालापिता (1) आपानानि मे ब( हु )कानि तत तत (क)लापितानि पटीभोगाये पसुमुनिसानं (।) (लX हुके) (चु) एस पटीभोगे नाम। (।) विविधाया हि सुखायनाया पुलिमेहि पि लाजीहि ममया च सुखयिते लोके (।) इम चु धंमानुपटीपती अनुपटीपजंतु ति एतदथा मे एस कटे (1) देवानंपिये पियदसि हेवं आहा (1) धंममहामाता पि मे ते बहुविधेसु अठेसु आनुगहिकेसु वियापटासे पवजीतानं चैन (गे)हथानं च सव( पाखं) डेसु पि च वियापटासे (1) संघठसि पि मे कटे इमे वियापटा होहंति ति हेमेव बाभनेसु आजीविकेसु पि मे कटे 16. इमे वियापटा होहंति ति निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति नानापासंडेसु पि मे (क )टे इमे वियापटा होहंति ति पटिविसिठं पटीविसिठं तेसु तेसु (ते)(ते)(महा) माता (1) धंममहमाता तु मे एतेसु चेव विया(प)टा सवेसु च पासंडेसु (।) देवानंपिये पियदसि लाजा हेवं आहा (1) 17. एते च अंने च बहुका मुखा दान-विसगसि वियापटासे मम चेव देविनं च। सवसि च मे ओलोधनसि ते बहुविधेन आ(का)लेन तानि तानि तुठायतन()नि पटी( पादयंति) हिद-चेव दिसासु 15. ए For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0 सातंवा स्तम्भलेख च। दालकानां पि च मे कटे अंनानं च देविकुमालानं इमे दानविसगेसु वियापटा होहंति ति। 18. धंमापदानठाये धंमानुपटिपतिये (।) एस हि धमापदाने धंमपटीपति च या इयं दया दाने सचे सोचवे च मदवे (साध( वे) च लोकस हेवं वढिसति ति (।) देवानंपिये (पियदसि) लाजा हेवं आहा (1) यानि हि कानिचि मभिया साधवानि कटानि तं लोके अनूपटीपंने तं च अनुविधियंति (1) तेन वढिता च। 19. वढिसंति च मातापितुसु सुसुसाया गुलुसु सुसुसाया वयोमहालकानं अनुपटीपतिया बाभनसमनेसु कपनबलाकेसु आव दासभटकेसु संपटीपतिया (1) देवानंपि( ये पि) य)दसि लाजा हेवं आहा (1) मुनिसानं चु या इयं धंमवढि वढिता दुवेहि येव आकालेहि धमनियमेन च निझतिया च (।) तत चु लहु से धमनियमे निझतिया व भुये (1) धमनियमे चु खो एस ये मे इयं कटे इमानि च इमानि जातानि अवधियानि (।) अंनानि पि चु बहु( कानि) धमनियमानि यानि मे कटानि (1) निझतिया व चु भुये मुनिसानं धमवढि वढिता अविहिंसाये भुतानं . . अनालंभाये मानांन (1) से एताये ( थ गये इयंकटे पुतापपोतिके चंदमसुलियिके होतु ति तथा च अनुपटीपजंतु ति (1) हेवं हि अनपटीपजंतं हि(द)त (पाल )ते आलधे होति (1) सतविसतिव्रसाभिसितेन मे इयं धमलिबि लिखापापिता ति (1) एतं देवानंपिये आहा (1) इयं धमलिबि अत अथि सिलाथंभानि वा सिलाफलकानि वा तत कटविया एन एस चिलठितिके सिया (1) 1. देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा ऐसा कहता है। पहले जो सजा हुए उन्होंने ऐसी इच्छा की कि लोग कैसे 3. धर्मवृद्धि के द्वारा बढें। परन्तु लोग अनुरूप धर्मवृद्धि से नहीं 4. बढे। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा ने इन्हें ऐसा कहा-मुझे ऐसा For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Noo Il. प्राचीन भारतीय अभिलेख 5. लगा कि भूतकाल में राजा यह चाहते थे कि कैसे लोग अनुरूप धर्मवृद्धि से बढें। परन्तु लोगों में यथोचित धर्मवृद्धि नहीं बढ़ी। तो लोगों को कैसे प्रवृत्त किया जाय? लोगों में कैसे अनुरूप धर्मवृद्धि बढ़े? किस प्रकार कुछ लोगों का 9. धर्मवृद्धि से अभ्युदय हो? अतः देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार 10. बोला-मुझे यह हुआ। धर्म-श्रावण सुनवाऊं और धर्मानुशस्ति का आदेश दूं। लोग इसे सुनकर तदनुसार आचरण करे और उन्नति करे। 12. और धर्मवृद्धि से खूब बढ़ेंगे। इस निमित्त धर्मश्रुतियां सुनवायीं और विधि धर्मानुशासनों की आज्ञाएं दिलवाईं। जिसमें मेरे बहुत से पुरुष (कर्मचारी) जो बहुत से लोगों पर नियुक्त हैं, वे कहेंगे और विस्तार करेंगे। लाखों लोगों पर नियुक्त राजुकों को भी यह आज्ञा दी गयी कि इसी प्रकार उपदेश करें। जो लोग धर्मलीन हैं। देवों का प्रियदर्शी राजा इस प्रकार बोला। यही देखकर मैंने धर्मस्तम्भ बनाये, धर्म-महामात्र किये और धर्मशासन किये। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार बोला-मार्गों में मेरे द्वारा न्यग्रोध (वट वृक्ष) रोपे गये जो छाया के लिए उपयोगी होंगे। पशुओं और मनुष्यों के लिए। आम की वाटिकाएं रोपी गयीं। आठ-आठ कोस पर कुए 14. खोदे गये, विश्रामगृह बनवाये गये। मैंने जगह-जगह बहुत सी प्याऊएं करवायीं। पशुओं और मनुष्यों के उपयोग के लिए। परन्तु यह उपयोग की बात छोटी है। मैंने विभिन्न प्रकार के सुखों से लोगों को सुखी किया। लोग इस धर्माचरण का अनुसरण करें इसलिए मैंने 15. यह किया। देवों के प्रिय प्रियदर्शी ने ऐसा कहा कि वे धर्ममहामात्र भी मेरे बहुत प्रकार के प्रयोजनों में, उपकार के कार्यों में नियुक्त हैं, प्रवजितों में और गृहस्थों में और समस्त सम्प्रदायों में व्याप्त-लीन हैं। संघ में भी मैंने ऐसा किया। इस प्रकार ब्राह्मणों और आजीविकों में भी मैंने यह किया। 16. ये नियुक्त होंगे। निग्रन्थों में भी मैंने यही व्यापक (रूप से) जारी किया। विभिन्न सम्प्रदायों में भी मेरे ये ही (विचार) जारी रहेंगे। उनमें वे वे विशेष विशेष महामात्र हैं। मेरे धर्ममहामात्र इन सभी सम्प्रदायों में कार्यलीन हैं। देवताओं के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातंवा स्तम्भलेख 17. ये और अन्य बहुत से मुख्य (मुखिया) दान वितरण में लगे हैं, मेरे और देवियों (रानियों) के। वे मेरे समस्त अवरोधों (रनिवासों) में बहुत प्रकार और आकार से उन-उन तुष्टीकारक सम्पन्न करते हैं, यहां और (सब) दिशाओं में। मेरी (राज) स्त्रियों और अन्य देवी-कुमारों के दान वितरण में लगे रहेंगे। 18. धर्म के प्रसार और धर्म के अनुकरण के लिए है यह। धर्मप्रसार और धर्मानुकरणता ये हैं-दया, दान, सत्य, शुचिता, मृदुता और साधुता लोक में इस प्रकार बढ़ेगी। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने ऐसा कहा। मैंने जो भी कोई साधु (कर्म) किये उनको लोग प्राप्त करते रहें और लोग उनका अनुकरण करते रहें। उससे बढ़े और बढ़ते रहेंगे और माता-पिता की सेवा, गुरु की सेवा, वयोवृद्धों के अनुकरण से, ब्राह्मण-श्रमण, कृपण-वराक, दास-भृतक के प्रति सद्व्यवहार से। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा ने इस प्रकार कहा। मनुष्यों की यह धर्मवृद्धि दो प्रकार से बढ़ी-धर्मनियम और ध्यान से। 20. परन्तु वह धर्मनियम लघु है, बड़ा तो ध्यान है। और धर्मनियम ये जो मैंने (प्रसारित) किये। ये उत्पन्न (प्राणी) अवध्य हैं। मैंने अन्य भी बहुत से धर्मनियम जो किये हैं। ध्यान से मनुष्यों में प्रचुर धर्मवृद्धि बढ़ी। भूतों (जीवों) की अहिंसा के लिए। 21. प्राणियों के अवध (अहिंसा) के लिए। अतः इस प्रयोजन के लिए यह किया। पुत्र-प्रपौत्र के चन्द्र-सूर्य के (अवधि के लिए हो और (सब) अनुसरण करें। इस प्रकार के अनुकरण से इस लोक और परलोक का कल्याण होता है। अभिषेक के सत्ताईस वर्ष होने पर मैंने यह धर्म लिपि (धर्मलेख) लिखवाई। देवों के प्रिय ने यह कहा। यह 22. धर्मलिपि जहां शिलास्तम्भ हैं अथवा जहां शिलाफलक हैं वहां करवायी जिससे यह चिरस्थायी हो। For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारनाथ लघु स्तम्भ लेख सारनाथ (वाराणसी) तिथि 22-23वां शासनवर्ष (247-46 ई०पू०) भाषा-प्राकृत (पालि), लिपि-ब्राह्मी। देवा ..... 2. एल. ... 3. पाट....ये केनपि संघे भेतवे ए चुं खो भिखू वा भिखुनि वा संघ भाखति से ओदातानि दुसानि संनं धापयियो आनावाससि 5. आवाससिये हेवं इयं सासने भिखुसंघसि च भिखुनि संघसि च विनपयितविये। हेवं देवानंपिये आहा हेदिसा च इका लिपी तुफाकंतिकं हुवाति संसलनसि निखिता इकं च लिपिं हेदिसमेव उपासकानंतिकं निखिपाथ ते पि च पि च उपासका अनुपासेथ यावु 8. एतमेव सासनं विस्वसंयितवे अनुपोसथं च धुवाये इकिके महामाते पोसथाये 9. याति एतमेव सासनं विस्वंसयितवे आजनितवे च (।) आवते च तुफाकं आहाले। 1. कार्पस, 1, पृष्ठ XXI और 161-641 26 For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारनाथ लघु स्तम्भ लेख 27 10. उवत विवासयाथ तुफे एतेन वियंजनेन हेमेव सवेसु कोट विषवेसु एतेन। 11. वियंजनेन विवासापयाथा 1. देवों (के प्रिय).... 2. . . . . . 3. पाटलिपुत्र, किसी के द्वारा संघ में भेद के लिए। जो कोई भी 4. भिक्षु या भिक्षुणी संघ को भंग करेगा वह श्वेत वस्त्र पहनाकर अयोग्य स्थान पर बसाया जायगा। यह आज्ञा भिक्षु संघ और भिक्षुणी संघ में विज्ञप्त होनी चाहिए। इस प्रकार देवों के प्रिय ने कहा-ऐसी एक प्रति आप लोगों के पास संस्मरण के लिए सभा-चौपाल में रखी रहे। और एक प्रति इसी प्रकार उपासकों के पास रखी जाए और वे भी उपवास के लिए आएँ। इसी शासन में विश्वास के लिए उपवास के दिन अवश्य ही एक-एक महामात्र उपवास के लिए आवें। इसी शासन (आज्ञा) में विश्वास के लिए और जानने के लिए और जितना आप लोगों का आहार (कर्मक्षेत्र) है, 10. सब दूर भेजें-इस शासन में लिखे अनुसार। इसी प्रकार समस्त कोट्टों (दुर्गों-नगरों) और विषयों (प्रान्तों) में इसे 11. अक्षरशः भेजिये। For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुम्मिनदेई स्तम्भलेख भाषा-प्राकृत-पालि लिपि-ब्राह्मी (ई०पू० तीसरी शती) देवान पियेन पियदसिन लाजिन वीसति वसाभिसितेन 2. अतन आगा च महीयिते हिद बुधे जाते सक्य मुनी ति। 3. सिला-विगड-भीचा कालापित सिला-थभे च उसपापिते। 4. हिद भगव जाते ति लुमिनि गामे उबलिके कटे 5. अठ-भागिये च। रुम्मिनदेई स्तम्भ लेख देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा ने अभिषेक के बीस वर्ष होने पर स्वयं आकर गौरव प्रदान किया क्योंकि यहां शाक्य मुनि बुद्ध उत्पन्न हुए थे। पत्थर की मजबूत दीवार बनवाई और पाषाणस्तम्भ स्थापित करवाया गया। क्योंकि यहां लुम्बिनि ग्राम में भगवान् उत्पन्न हुए इसलिए (इस ग्राम को) बलि नामक कर से मुक्त कर दिया और (इसे छः भाग के स्थान पर)। 5. आठ भाग वाला कर दिया गया। 1. कार्पस, 1, पृष्ठ 164-65। टिप्पणी-रुम्मिनदेई (लुम्बिनीदेवी) बुद्ध का जन्मस्थान तथा बौद्धों का पवित्र तीर्थ। ह्वेनसांग ने लुम्बिनी उपवन में स्थित एक अश्वशीर्षक अशोकीय स्तम्भ का उल्लेख किया था। 28 For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिनांडर का शिंकाट (बाजौर ) शैल खड़ी पेटिका-लेख भाषा-प्राकृत लिपि-खरोष्ठी (ईसवी पूर्व द्वितीय शती) ...मिनेद्रस महरजस करिअस दिवस 4+4+4+1+1 (14) प्र (ण) (स) मे (द)...। (संस्कृत) (संवत्सरे ). . . मीनेन्द्रस्य महाराजस्य कार्तिकस्य (मासस्य) दिवसे 14 प्राणसमेतं (शरीरं) (मध्य में) ...(प्रति) (थवि)त= (भगवतः शाक्यमुनेः) प्रतिष्ठापितम्। (भीतर) प्रण-समे (द) (शरिर) (भगव) तो) शकमुनिस (संस्कृत) प्राणसमेतं शरीरं (देहावशेषः) भगवतः शाक्यमुनेः। (भीतर)-वियकमित्रस अप्रचरजस। (संस्कृत) वीर्यकमित्रस्य अप्रत्यग्राजस्य ( =महाराजासमराजस्य-सामन्तस्य यद्वा अपत्यराजस्य)। __ (मध्य में) 1. विजय( मित्रे )ण... 2. पते प्रदिथविदे (संस्कृत) विजयमित्रेण . . .पात्रं प्रतिष्ठापितम्। (भीतर) 1. इमे शरीर पलुग-भुद्रओ न सकरे अत्रित। स शरिअत्रि कलद्रे नो शधो न पिंडोयकेयि पित्रि ग्रिणयत्रि। 29 For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 30 2. प्राचीन भारतीय अभिलेख तस ये पत्रे अपोमु। वषये पंचमये 4+1 वेश्रखूस मसस दिवस पंचविश्रये इयो (3) प्रत्रिथवित्रे विजयमित्रेन अप्रचरजेन भगवतु शकिमुणिस सम संबुधस शरिर। (भीतर) विश्पिलेन अणंकतेन लिखित्रे। (संस्कृत) इदं शरीरं पुरुग्णभूतकं (भग्नंभूतं) न सत्कारेण आदृतम्। तत् शीर्य्यति कालतः, (अत्र कः अपि) न श्रद्धः ( = श्रद्धालुः ) न (च) पिण्डोदकानि पितॄन ग्राहयति। तस्य एतत् पात्रं अवमुक्तं ( यद्वा, अवमुच्य); वर्षके पञ्चमके 5 वैशाखस्य मासस्य दिवसे पञ्चविंशके इह( पुनः) प्रतिष्ठापितं (च) विजयमित्रेण अप्रत्यग्राजेन भगवतः शाक्यमुनेः सम्यक् सम्बुद्धस्य (नवं) शरीरं ( अस्मिन् पात्रे )। विश्विलेन आज्ञाकृता (आज्ञाकारिणा) लिखितम्। समूह-1 (अ) (वर्ष में) महाराज मीनेन्द्र का कार्तिक (मास) के चौदहवें दिन प्राण सहित (शरीर नष्ट हो गया) (आ) (भगवान् शाक्यमुनि के भस्मावशिष्ट शरीर की) प्रतिष्ठा करवायी गयी। भगवान् शाक्यमुनि के प्राणों के साथ शरीर (देहावशेष) (ब) अप्रत्यग्राज (अनधीन राजा, अप्रतिरथ अथवा अप्राच्य या पश्चिम के राजा) वीर्यकमित्र का। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिनांडर का शिनकोट (बाजौर) शैल खड़ी पेटिका-लेख 31 31 समूह-2 (स) (1) विजयमित्र ने (2) पात्र प्रतिष्ठित करवाया। (1) यह शरीर नष्ट हो गया परन्तु (उसका) सत्कारों से आदर नहीं हुआ। सो (अधिक) काल (व्यतीत होने) से नष्ट होता जा रहा है। सो पितर न तो श्राद्ध एवं न हि पिण्डोदक (तर्पण) ग्रहण करते (अथवा पितरों के लिये श्राद्ध एवं पिण्डोदक की व्यवस्था नहीं हो पाती) (2) उसका यह पात्र पांचवें वर्ष के वैशाख मास के पच्चीसवें दिन पुनः (3) अप्रत्यग्राज (अनादि-अजन्मा) विजयमित्र ने सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् शाक्यमुनि का (भस्मावशिष्ट) शरीर यहां (इस नये पात्र में) प्रतिष्ठित करवाया। (इ) आज्ञाकारी विश्विल ने (यह लेख) लिखा। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेसनगर गरुड-स्तम्भ लेख बेसनगर (विदिशा)-म०प्र० भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी समय-क्षेत्रिय वर्ष 14 (ईसवी पूर्व द्वितीय शती का उत्तरार्ध) प्रथम भाग 1. (दे) वदेवस वा (सुदे) वस गरुडध्वजे अयं 2. कारिते इ(अ) हेलिओदोरेण भाग 3. वतेन दियसपुत्रेण तख्खसिलाकेन 4. योनदूतेन (आ )गतेन महाराजस 5. अंतिलिकितस उप (-) ता सकासं रओ 6. (को)सीपु(त्र)स (भा )गभद्रस त्रातारस (वजमतवे) 7. वसेन च (तु) दसेन राजेन वधमानस। द्वितीय भाग 1. त्रिनि अमुत-पदानि (इअ) (सु) अनुठितानि2. नेयंति (स्वर्ग) दम चाग प्रमाद। 1. 2. सरकार, से० इ० 88-89 दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्। अहिंसा-सत्यमक्रोधं त्यागः शान्तिरपैशुनम्।। दमस्त्यागो ऽप्रमादश्चैतेष्वमृतम्।। -महाभारत, 12.5.43,22 32 For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बेसनगर गरुड-स्तम्भ लेख 1. 2. 3. 4. 5. 6. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 133 I देवों के देव वासुदेव का यह गरुडध्वज । यहां बनवाया, भागवत हेलियोदोर ने (जो ) तक्षशिलावासी दिय का पुत्र, तथा यवनदूत है, तथा जो महाराज अन्तलिकित के पास से का ( को? ) शीपुत्र (समर्थ) संरक्षक भागभद्र के पास आया ( जब उन्हें) राज्य (शासन) में उत्तरोत्तर वृद्धि करते चौदह वर्ष हो गये । For Private And Personal Use Only II 1-2. दम, त्याग तथा अप्रमाद-इन तीनों अमृतपदों का यहां समुचित अनुष्ठान किया गया; जो स्वर्ग ले जाते है (स्वर्ग का पथ प्रशस्त करते हैं) । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 3. 4. 1. www. kobatirth.org खारवेल का हाथीगुम्फा लेख ' हाथीगुम्फा ( भुवनेश्वर के निकट ) भाषा - प्राकृत, लिपि - ईसवी पूर्व की प्रथम शती की ब्राह्मी नमो अरहंतानं । नमो सवसिधानं । ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति राज व (') स वधनेन पसथ- सुभ- लखनेन चतुरंत लुठ (ग) गुण- उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरिखारवेलेन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (पं) दरस वसानि सीरि ( कडार ) - सरीर-वता कीडिता कुमार- कीडिका । ततो लेखरूप- गणना - ववहार - विधि-विसारदेन सव - विजावदातेन नव-वसानि योवराज ( प ) सासितं । संपुंण चतुवीसति वसो तदानि वधमानसेसयो वेनाभिविजयो ततिये कलिंग - राज - वसे पुरिस- युगे महाराजाभिसेचनं पापुनाति । अभिसितमतो च पथमे वसे वात-विहत- गोपुरपाकार-निवेसनं पटिसंखारयति कलिंगनगरिखिबी (रं)। सितल - तडाग - पाडियो च बंधापयति सबूयान- प ( टि) संथपनं च एपि० इ० 20, पृ० 71-89 कारयति पनति (सि? ) साहि सत - सहसेहि पकतियो च रंजयति । दुतिये च वसे अचितयिता सातकंनिं पछिमदिसं हय - गज-नर- रध - बहुलं दंडं पठापयति । कन्हबेंणा - गताय च सेनाय वितासिति असिकनगरं । ततिये पुन वसे 34 For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra खाखेल का हाथीगुम्फा लेख 5. 6. 7. 8. 9. www. kobatirth.org 11. गंधव-वेद - बुधो दप- नत-गीत-वादित - संदसना हे उसवसमाज- कारापनाहि च कीडापयति नगरिं । तथा चवथे वसे विजाधराधिवासं अहतपुवं कलिंग ( ? ) पुव - राज - (निवेसितं ) . वितध - म (कु) ट. च निखित- छत (?) .... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिंगारे (हि)त - रतन - सपतेये सव-रठिक-भोजके पादे बंदापयति । पंचमे च दानी वसे नंद-राज-ति-वस-सत ओ ( धा) टितं तनसुलियवाटा पणाडिं नगरं पवेस ( य )ति सो....। (अ) भिसित्तो च (छठे वसे) राजसे (सू) यं संदंसयंतो सवकर - वण अनुगह- अनेकानि सतसहसानि विसजति पोर - जानपदं । सतमं च वसं (पसा)सतो वजिर घर. . समतुक पद... (कु) म अठमे च वसे महता सेन ( । )... गोरधगिरिं घातापयिता राजगहं उपपीडपयति एतिन (T) च कंमपदान स ( - ) नादेन ... सेन - वाहने विपमुचितुं मधुरं अपयातो यवनरा(ज) (डिमित ? )... यछति. पलव • कपरुखे हय - गज-रथ- सह यति सवधरावास... सव- गहणं च कारमितुं ब्रह्मणानं ज (य) परिहारं ददाति । अरहत...( नवमे च वसे )... 10. महाविजय पासादं (दतिभिसरं ) ( कनिंघम: पठित ) कारयति अठतिसाय सत - सहसेहि । दसमे च वसे दंड - संधी सा( ममयो ) भरधवस - पठा ( ? )नं मह ( 7 ) जयनं ( ? ) . कारापयति । . प ( ) यातानं च म( नि ) रतनानि ( एकादसमे च वसे ). उपलभते ( ? ) 35 • . पुवं राजनिवेसितं पीथुडं गदभ-नंगलेन कासयति । जन(प )दभावनं च तेरस-वस-सत-कतं भि( )दति त्रमिर - दह (सह ) सेहि वितासयति (?) - संघातं । बारसमे च वसे उतरापध- राजानो... 12. म(T)गधानं च विपुलं भयं जनेतो हथसं गंगाय पाययति । म For Private And Personal Use Only - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 36 प्राचीन भारतीय अभिलेख (ग) ध (') च राजानं वहसतिमितं पादे वंदापयति। नंदराज-नीतं च का(लि) ग-जिनं संनिवेस. . . अंग-मगध-वसुं च नयति। 13 . . . (क)तु (') जठर-(लखिल-गोपु )राणि सिहराणि निवेसयति सत-विसिकनं (प)रिहारेहि। अभुतमछरियं च हथी-निवा (स)परिहर....हय-हथि-रतन-(मानिक) पंडराजा. . . . (मुत-मनि-रतनानि आहरापयति इध सत (सहसानि) 14 ... सिनो वसीकरोति। तेरसमे च वसे सुपवत-विजय-चके कुमारीपवते अरहते(हि) पखिन-सं( सितेहि कायनिसीदियाय यापूजावकेहि राजभितिनि चिनवतानि वास(TXसि )तानि पूजानुरत उवा( सग-खा)रवेलसिरिना जीवदेह(सयि )का परिखाता 15. . . सकत-समण सुविहितानं च सव-दिसानं ब (नि) नं (?) तपसि-इ(सि)न संघियनं अरहतनिसीदिया-समीपे पाभारे वराकार-समुथापिताहि अनेकयोजनाहिताहि. . . .सिलाहि... 16. चतरे च वेडुरिय-गभे थंभे पतिठापयति पानतरीय-सत-सहसेहि। मु(खि)य-कल-वोछिनं च चोया ठि)अंग संतिक (-) तुरियं उपादयति। खेम-राजा स वढराजा स भिखुराजा धम-राजा पसं(तो) सुन( तो) अनुभवा तो) कलानानि 17. ... गुण-विसेस-कुसलो सव-पासंड-पूजको सव-दे( वाय) तन-सकार-कारको अपतिहत-चक-वाहनबलोचकघरो गुतचको पवतचको राजसिवसु-कुल-विनिश्रितो महाविजयो राजा खारवेलसिरि। अर्हतों को प्रणाम। सब सिद्धों को प्रणाम। चेदी राजवंश की उन्नति (राजवंश को अलंकृत) करने वाले, अनेक शुभ लक्षणों से सम्पन्न, (चारों समुद्र पर्यन्त) सारी पृथवी पर जिसकी गुणकीर्ति फैल गयी है, कलिंग के अधिपति, पिंगल वर्ण की काया से शोभित आर्य इन महाराज, महामेघवाहन श्रीखारखेल ने For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खाखेल का हाथीगुम्फा लेख 37 5. पन्द्रह वर्ष तक कुमार (बाल) क्रीड़ा की। तब लेखनविद्या, रूपगणना (मुद्रापरिचय), गणित, व्यवहार-विधि (विवाद-मीमांसा) विद्या में निष्णात, सारी विद्याओं में पारंगत (होकर) नौ वर्ष तक युवराज पद से शासन किया। चौबीस वर्ष पूर्ण हो गये तब महाराज पृथु के समान बचपन से ही विजयों से समुन्नत होते हुए कलिंगराज के वंश की तीसरी पीढ़ी में महाराज-अभिषेक प्राप्त किया। अभिषेक होते ही पहले वर्ष कलिङ्ग की राजधानी खिबीर (?) में वातविहत (?) गोपुर, प्राकार, सदन आदि का पुनः संस्कार (पुनरुद्धार) करवाया। शीतल तालाबों की पालें बंधवायीं। सारे उद्यान फीर से लगवाये, पैंतीस लाख (मुद्राओं) से और (इस प्रकार) प्रजा का रञ्जन किया। और दूसरे वर्ष सातकर्णि (के शौर्य) की चिन्ता न कर पश्चिम दिशा में, घोडे, हाथी, पैदल तथा रथों की बहुलता वाली अपनी सेना को रवाना कर दिया। और कृष्णा नदी के तट पर जाकर सेना ने ऋषिक नगर को (त्रस्त कर) जीत लिया। फिर तीसरे वर्ष गन्धर्व (संगीत) एवं ज्ञान (अथवा वेद) के वेत्ता (खारवेल) ने दर्प (मल्लयुद्ध विशेष अथवा हास्याभिनय), नृत्य, गीत, वाद्य (आदि) के आयोजन से तथा उत्सव, समाज आदि की व्यवस्था से राजधानी को रिझाया (आनन्दित किया) और चौथे वर्ष कलिंग के प्राचीन राजाओं का (परम्परागत) विद्याधराधिवास नामक (प्रासाद तथा जो) पहले क्षतिग्रस्त हो गया था, (का संस्कार करवाया) तथा सारे राष्ट्रिक (प्रान्तीय राज्यपाल) तथा भोजक (जागीरदार) ने अपने छत्र तथा (अभिषेक के) घट अथवा झारियां हटा (छोड़) दी एवं रत्नादि सम्पत्ति समर्पित कर चरण वन्दना करने लग गये (अधीन हो गये)। और अब पांचवें वर्ष, तीन सौ वर्ष पूर्व नन्दराज के द्वारा निर्मित नहर को (सुधरवाकर) तनसुलिय (तृणसूर्या?) पथ से नगर में ले आया। और अभिषेक से छठे वर्ष अपने राज-ऐश्वर्य का प्रदर्शन करते हुए, सब प्रकार तथा (चारों) वर्गों पर अनुग्रह कर अनेक लाख (मुद्राएं) बांट दीं। और सातवें वर्ष प्रशासन करते हुए. . . । और आठवें वर्ष विशाल सेना से गोरथगिरि पर 6. 7. For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 38 प्राचीन भारतीय अभिलेख 8. 10. 11. आघात कर राजगृह को त्रस्त किया। इस (विजय) कर्म की निष्पत्ति की बात सुनकर यवनराज डिमित (दिमित) सेना तथा वाहन छोड़कर (भय से) मथुरा (की ओर) भाग खड़ा हुआ। . . .देता. . .पल्लव से युक्त . . कल्पवृक्ष के समान (श्री खारवेल) अश्व-गज-रथों के साथ जाते हुए सब घरों को बसाता (विजित प्रजा को पुनः अपने घरों में बसाता) और सर्वग्रहण (सब कुछ दान) करवाने के लिये ब्राह्मणों को जय (के उपलक्ष में) परिहार (गांव या नगर के आसपास का सामान्य भूखण्ड अथवा विशेष दान) दिया। (और नौवें वर्ष) अढ़तीस लाख (मुद्राओं के खर्च) से महाविजय प्रासाद बनवाया। और दसवें वर्ष, दण्ड, सन्धि तथा साम से युक्त (अपनी सेना को) भारतवर्ष को जीतने के लिये . . .(उन्मुख) करवाया। और ग्यारहवें वर्ष ...(रणक्षेत्र अथवा राजधानी छोड़कर) भागते हुए (शत्रुओं) के मणि-रत्न प्राप्त किये। पहले (जो) राजधानी (थी उस) पिथुण्ड पर गधों के हल चलवा दिये (तथा उसे मिट्टी में मिला दिया) और तेरह सौ वर्षों से जनपद के रूप में स्थित त्र(ति)मिर देश के समूह (संघटन) को तोड़ (भेद) दिया। और बारहवें वर्ष . . . (अपनी लाखों) हजारों (की सेना) से उत्तरापथ (उत्तर-पश्चिम भारत) के राजाओं . . . . तथा मगध (के राजा अथवा लोगों) में विपुल भय उत्पन्न करते हुए (अपने) हाथी-घोड़ों को गंगा का पानी पिलाया और मगध के राजा बृहस्पतिमित्र से (अपनी) चरणवन्दना करवायी और नन्दराज के द्वारा ले जायी गयी कलिङ्ग जिन (कलिंग की जिन मूर्ति) को (पुनः लाकर) सन्निवेश (देवायतन अथवा नगर के निकट के मैदान में स्थापित) किया तथा अंग (पूर्वी बिहार) एवं मगध की दौलत ले गया। बीस सौ (दो सहस्र) मुद्राओं से दृढ़ तथा सुंदर गोपुर (तोरण तथा उनके) शिखर बनवाये और विभिन्न तथा आश्चर्यकारक हस्तिनिवास (हाथीखाना) बनवाया (अलंकृत किया) . . . .अश्व, गज, रत्न, माणिक्य। पाण्ड्यराज से. . .यहां लाखों मुक्ता, मणि, रत्न प्राप्त किये।। निवासियों को अपने वश में कर लिया। और तेरहवें वर्ष, जब विजय परम्परा सुव्यवस्थित (सम्पन्न) हो चुकी तब कुमारी पर्वत (उदयगिरि-खण्डगिरि) 12. 13. 14. For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खाखेल का हाथीगुम्फा लेख . 39 पर जिन्हें आश्रय की कमी है ऐसे अर्हतों को वर्षा भर विश्राम तथा निर्वाह के लिये, राजपोषित व्रताचरण करने वालों तथा वर्षभर आश्रित रहने वालों की पूजामें लीन उपासक खारवेल की लक्ष्मी से जीव तथा देह को आश्रय देने वाली गुफा खोदी गयी। श्रमणों के सत्कार में (निरत खारवेल ने) सारी दिशाओं के प्रतिष्ठित ज्ञानी, तपस्वी, संधि को अर्हत् के आसन (पीठ ) के पास पर्वत के ऊपर, श्रेष्ठ आकार में उठायी (बनायी) गयी, अनेक योजन से लायी गयी....शिलाओं 15. 16. 17. चौराहे (चौंतरे) पर 105 सहस्र (मुद्राओं) से नीलम-जडा स्तम्भ खड़ा करवाया। मुख्य कला सहित 64 अङ्ग शान्ति की तुरही बजाने लगे। वह क्षेमराज, वृद्ध (उन्नत) राज, वह भिक्षुराज, धर्मराज कल्याण को देखता, सुनता तथा अनुभव करता हुआ।----- विशिष्ट गुणों में कुशल, सारे सम्प्रदायों का पूजक, सारे देवालयों का संस्कार (सुधार) करवाने वाला, अपराजेय सैन्यसमूह बल से सम्पन्न, चक्रधर (राजसमूह को धारण करने वाला), गुप्तचक्र (सुरक्षित राजमण्डल) प्रवृत्त-चक्र (अप्रतिहत शासन), राजर्षि (चेदिराज) वसु कुल से निकला हुआ महाविजयी राजा श्री खारवेल है। For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागनिका का नानाघाट गुहालेख नानाघाट (जिला पूणे) भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, ईसवी पूर्व प्रथम शती खण्ड एक (पूर्वी भित्ति पर) सिध।.... नौ धंमस नमौ ईदस नमो संकंसन वासुदेवान चंद सूरानं महिमावतानं चतुंनं च लोकपालानं यम-वरुन-कुबेर वासवानं नमो। कुमारवरस खद सिरिस रो। 2. ... वी रस सूरस अप्रतिहत चकस दखिन पठ पतनो मा. . . बालाय महारठिनो अंगिय कुल वधनस सागर गिरिवर बलयाय पथविय पथम वीरस वस...य व अलह (वंतढ?). . सलसु...महतो मह. . . 4. सिरिस भाटिया देवस पुतदस वरदस कामदस धनदस खदसिरि मातु सतिनो सिरिमतस च मातुय सीम. . . वरिय. . .(न गवर दयिनिय मासोपवासिनिय गहतापसाय चरित ब्रह्मचरियाय दिख-व्रत-यज-सुंडाय या हुता धूपन-सुगंधाय निय. . . रायस. . .यजेहि यिठं वनो। अगाधेयं यंजो दखिना दिना गावो बारस 10+2 असो च 11 अनारभनियो यंत्रो दखिना धेनु, .. 7. ... दखिनायौ दिना गावो 1000+700 हाथी 10 . . .स. . . स. . .ससतरय वासलठि 200+80+9 कुमियो रूपामयियो 10+7 भि. बूलर, आर्क) सर्वे वेस्टर्न इण्डिया, खण्ड 5, पृष्ठ 60 For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 9. नागनिका का नानाघाट गुहालेख रिको यंजो दखिनायो दिना गावो 10000+1000 असा 1000 पसपको.. 10. 11. 14. 12. गावो सकटं धञगिरितस पयुतं । वायो यंञो.. . 10+ धेनु? .. वाय. . . सतरस 16. www. kobatirth.org 10+2 गमवरो 1 दखिना काहापना 20000+4000+400 पसपको काहापना 6000 । राजसूयो यंञो सकटं खण्ड दो (दक्षिणी भित्ति पर ) ar गिरि-तंस - पयुतं सपटो 1 असो 1 असरथो 1 गावीनं 1001 असमेध यंत्रो वितियो यिठो दखिनायो दिना असो रूपालंकारो 1 सुवन. .नि 10+2 दखिना दिना काहापना 10000+4000 गामो 1 ( हठि ). दखिना दिना .. 13. 10+7 अच.. न... लय पसपको दिनो दखिना दिना गावो सु. .पीनि. . 10+2 आसो रूपालंकारो 1 दखिना • काहापना 1000. .2 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • · 41 ... गावो 200001 भगल दसरतो यंत्रो यिठो यखिना दिना गावो 10000। गर्गतिरतो यत्रो यिठो ( दखिना ). पसपको पटा 3000 | गावामयनं यंञो यिठो ( दखिना दिना ) गावो 1000+1001 गावो 1000 + 100 ? पसपको काहापना. . पटा 1001 अतुयामो यंत्रो...। • 15....7 ... गवामयनं यंञो दखिना दिना गावो । 10000+1001 अंगीरसा मयनं यंत्रो यिठो दखिना गावो 1000+1001 त ( दखिना ) दिना गावो 1000 + 1001 अंगिरसतिरतो यंत्रो यिठो दखिना. : गावो । For Private And Personal Use Only ... गावो 1000 + 21 छन्दोमय वमा नतिरत दखिना गावो 10001 अंगिरसतिरतो यंत्रो यिठो दखिना । रतो यिठो यत्रो दखिना Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 42 17. 18. 19. 20. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख दिना...। तो यंत्रो यिठो दखिना.. यत्रो विठो दखिना दिना गावो 10001 न स सयं... दखिना दिना गावो ... ता अंगिरसामयनं छवस... दखिना दिना गाव 1000. । ( दखिना ) दिना गावो 1900। तेरस अ. ..1 .। तेरसरतो स छ अ(T)ग दखिना दिना गावो . म. . दिना गावो 10001 उ... 10000 द. . . यंत्र दखिना दिना (द) खिना दिना . दसरतो (बायीं दिवाल पर ) सिद्ध हो। (प्रजापति एवं) धर्म को नमस्कार । इन्द्र, संकर्षण - वासुदेव, चन्द्रद- सूर्य, महिमवत् (महिमाशाली), चारों लोकपाल तथा यम- वरुण - कुबेर- वासव को प्रणाम । कुमार वर वेदिश्री राजा .(वीर, शूर, अप्रतिहत चक्र, दक्षिणापथपति (राजा शिमुकसातवाहन की बहू)... अंगिक कुलवर्धन महारथी की कन्या, सागर तथा पर्वत से वलयित पृथ्वी के प्रथम वीर (वीराग्रणी). ( शातकर्णि ) श्री की भार्या पुत्रद, वरद, कामद, धनद देव वेदिश्री की माता तथा शक्ति सम्पन्न (शक्ति श्री ) की माता श्रेष्ठ गज दान करने वाले, मास (मास) भर उपवास करने वाली, गृहतापसी, चरित (स्वभाव) से ब्रह्मचारिणी, दीर्घव्रत, दीर्घयज्ञ आदि सम्पन्न करने में चतुर, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति से यज्ञ सम्पन्न किया, राजा ( शातकर्णि के साथ) यज्ञ किये। (उनका) विवरण- अग्निमय यज्ञ (किया) । बारह गो तथा एक अश्व दक्षिणा में दिया। अहिंसात्मक यज्ञ में दक्षिणा.. ... (रूप में ) धेनु... I For Private And Personal Use Only दक्षिणा में 1700 गो तथा 10 हाथी (दिये) 1 बांस के 289 लट्ठे, चांदी की 1.7 कुम्भियां, ( सांवत्स ) रिक यज्ञ में 11000 गायें, 1000 अश्व, प्रसर्पक ( यज्ञ - दर्शक आदि जनों) को दक्षिणा में दी। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नागनिका का नानाघाट गुहालेख 43 10. (यज्ञ-दक्षिणा में )12, 1 श्रेष्ठग्राम, 24400 कार्षापण दक्षिणा तथा 6000 कार्षापण प्रसर्पक (कं लिये) दिये। राजसूय यज्ञ. . . शकट (बैलगाड़ी). . । द्वितीय भाग (दायीं दिवाल पर) 11. धान्य (अन्न) की अपार राशि को ढोकर ले जाने में लगी हुई। एक श्रेष्ठ पगड़ी (अथवा तख्ता) 1 अश्व, 1 अश्वरथ (घोड़ा गाड़ी), 100 गायें दीं। द्वितीय अश्वमेध किया गया (और उसमें) दक्षिणा दी गयी- एक घोड़ा, एक चांदी का अलंकार, 12 स्वर्णाभूषण और दक्षिणा (में यह भी) दिया गया 14000 कार्षापण, 1 ग्राम, हाथी। (यज्ञ में) यह भी दक्षिणा दी गयी। 12. गायें (6000?), अन्न ढोने में प्रयुक्त गाड़ी वाय. . .1 (यज्ञ भी संपन्न किया) (जिसमें दक्षिणा दीं)... 17...1 वाय. . . सत्रह 13. . . . .17 . . .प्रसर्पक (को) दिया। दक्षिणा दी . . .12, अश्व (एक?) (अथवा अश्व के और) चांदी के अलंकार 1, दक्षिणा में कार्षापण 10000. 14. गायें 20000। भगाल-दशरात्र यज्ञ किया (जिसमें) दक्षिणा में 10000 गायें दीं। गर्गातिरात्र यज्ञ में दक्षिणा (स्वरूप) प्रसर्पक (को?) 300 पट्ट (पगडियां या पट या फेंटे) दिये। गवामयन यज्ञ किया (और) दक्षिणा में 1100 गायें दीं। 1100 गायें, प्रसर्पक (को) कार्षापण. . . 100 पट्ट दिये। आप्तोर्याम यज्ञा... 15. गवामयनयज्ञ (किया और उस) में 1100 गायें दक्षिणा में दीं। अङ्गिरसामयन यज्ञ किया यज्ञ-दक्षिणा में 1100 गायें दी. .. 1100 गायें दीं। 1100 गायें दाक्षिणा में दीं। व दक्षिण में । शतातिरात्र यज्ञ किया (जिसमें 1000 तथा?) 100 (गायें दक्षिणा में दीं)... यज्ञ-दक्षिणा में 1100 गायें दीं। अंगिरसातिरात्र यज्ञ किया और दक्षिणा में गायें( 1100? ) दीं। 16. . . . गायें 1002। छन्दोमपमानातिरात्र यज्ञ की दक्षिणा में 1000 गायें दीं। अंगीरसातिरात्र यज्ञ किया व दक्षिणा में... (अति?) रात्र यज्ञ कियाव दक्षिणा दी.. .। (रा)त्र यज्ञ किया। दक्षिणामें 1000 गायें दीं। . . .सौ . . .दक्षिणा में गायें दी . . .। अंगिरसामयन (यज्ञ) छः वर्ष (तक किया?) दक्षिणा में 1000 गायें दीं। दक्षिणा में 1000 गायें दीं। त्रयोदश (रात्र)...। 18. ...त्रयोदशरात्र यज्ञ में गायें अग्रदक्षिणा में दीं। दशरात्र (यज्ञ में) में 10000 गायें दी। . . . . 100001 19. ... यज्ञ में दक्षिणा दी ... । 20. दक्षिणा दी ...। For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 3. 4. 5. 1. 2. www. kobatirth.org कलवान ताम्रपत्र' स्थान- रावलपिण्डी जिले में तक्षशिला (सिरकप) के पास कलवान ग्राम (पाकिस्तान) भाषा -- प्राकृत, लिपि - खरोष्ठी - सं० 134 (77 ई०) सवत्सरये 1100 (+) 20 ( + 10 (+) 4 अजस श्रवणस मसस दिवसे त्रिविशे 20 (+) 1 (+) 1 (+) 1 इमेण क्षुषेण चंद्रभि उअसिअ मस ग्रहवतिस धित भद्रवलस भय छडशिलए शरिर प्रइस्तवेति गहथू मि सध भ्रण नन्दिवढणेण ग्रहवतिण सघपुत्रेहि शमेण सइतेण चधितुण च Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रमर सघ ष्णषएहि रजए इद्रए य सध जिवणंदिण शमपुत्रेण अयरिएण य स ( र्व ) स्ति वअण परिग्रहे रठ - णिकमो पुयइत सर्व-स्वत्वण पुयए (1) णिवणस प्रतिअए होतु (1) 1. एपि० ई० 21, पृ० 259 134वें वर्ष में अय ( Azes II) ( के शासनकाल में ) श्रावण मास के 23वें दिन - इस काल उपासिका चंद्राभी (जो ) गृहपति धर्म की पुत्री (तथा) भद्रपाल की भार्या है, छत्रशिलक ( नामक स्थान पर) 44 For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पतिक का तक्षशिला ताम्रपत्र 3. गृहस्तूप में (स्तूप-घर में) (भगवान् बुद्ध के) देहावशेष की प्रतिष्ठा करवाती है। ___ अपने भाई गृहपति नन्दिवर्धन के साथ, अपने पुत्रं शम तथा सजित के साथ, पुत्री धर्मा के साथ, लज्जा एवं इन्द्रा बहुओं के साथ, सर्वास्तिवादी आचार्य जीवनन्दी तथा शमपुत्र के साथ परिग्रह में, राष्ट्र-निगम (जनपद तथा नगर) की पूजा करके, साऐ प्राणियों की पूजा के लिये (इन प्रतिष्ठा से) निर्वाण-लाभ हो। For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पतिक का तक्षशिला ताम्रपत्र 2. पतिक-थूपकिया जिला रावलपिण्डी (पाकिस्तान) भाषा-प्राकृत, लिपि-खरोष्ठी, 78वां वर्ष (सवत्स )रये अठसततिमए 20( + ) 20 (+ ) 20 (+)10 (+) 4 (+) 4 महरयस महंतस (मो )गस पर ने )मस-मसस दिवसे पंचमे 4 (+ )। एतये पूर्वये क्षहर(स) चुख्सस च क्षत्रपस लिअको कुसुलको नम तस पुत्रो (पति) (को) तखशिलये नगरे (।) उत्तरेण प्रचु देशो क्षेम नम (।) अत्र 3. (दे)शे पतिको अप्रतिठवित भगवत शकमुनिस शरिरं (प्र) तिथ (वेति) (सं)धरमं च सर्व-बुधन पुयए मत-पितरं पुयय (तो) क्षत्रपस स-पुत्र-दरस अयु-बल-वर्धिए भ्रतर सर्व (च) (अतिग)-(बं)धवस च पुययंतो (1) महदनपति पतिक सज उव(झ)-ए (न) रोहिणिमित्रेण य इम( मि?) संघरमे नवकमिक (।) (दूसरी ओर) 6. पतिकस क्षत्रप लिअक (॥) 1. कार्पस, 2/1, पृष्ठ 23-29 46 For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पतिक का तक्षशिला ताम्रपत्र (21 ई०) 1. 78वें वर्ष में महाराज महान् भोग (Mauses) के पनेम (यवनों के विशेष) माह के पांचवें दिन-इस पूर्वोक्त (दिन) क्षहर 2. चुख्स देश के क्षत्रप, जिसका नाम लियक कुसुलक है, उसका पुत्र पतिक तक्षशिला नगर में है। (जिसके) उत्तर में प्राच्य (पूर्वी) देश (क्षेत्र) का नाम क्षेम है। इस 3. देश में भगवान् शाक्यमुनि के अप्रतिष्ठापित देहावशेष को पतिक प्रतिष्ठापित करवा रहा है। तथा सारे बुद्धों की पूजा के लिये संघाराम भी (बनवा रहा है)। माता-पिता की अर्चना करते हुए क्षत्रप के (तथा) पुत्र सहित पत्नी की आयु एवं बल की परिवृद्धि के लिए, सारे भाइयों तथा सम्बन्धियों एवं बन्धुओं की अर्चना करते हुए महादानपति पतिक संघाराम में नवनिर्माण के लिये नियुक्त उपाध्याय रोहिणीमिश्र के द्वारा (प्रतिष्ठा करवाता है)। 6. पतिक के लिये क्षत्रप लियक (ने यह फलक पहुंचाया)। 1. एपि० इ० 21, पृ. 259 47 For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 48 1. 2. 1. 2. 1. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनदेव का अयोध्या शिलालेख' एपि० इ० 20, पृ० 54 प्राचीन भारतीय अभिलेख जिला फैजाबाद (उ०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि - ब्राह्मी, लगभग पहली शती कोसलाधिपेन द्विरश्वमेधयाजिनः सेनापतेः पुष्यमित्रस्य षष्ठेन कोसिकी पुत्रेण धन( देवेन) धर्मराज्ञः पितुः फल्गुदेवस्य केतनं कारितम् । दो अश्वमेध के कर्ता सेनापति पुष्यमित्र से ( पीढ़ी में, छठे कौशिकी के पुत्र, कोसल के अधिपति धन (देव/द/क/ नन्दी/भूति / मित्र / दत्त / दास) . . धर्मराज ने (अपने ) पिता फल्गुदेव का केतन ( ध्वजस्तम्भ या छायास्तम्भ ) बनवाया। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुषाण राजा का तक्षशिला रजतवर्ति लेख 3. " स्थल-तक्षशिला भाषा-प्राकृत, लिपि-खरोष्ठी, विक्रम वर्ष 136 (79 ई०) स 1 (X) 100 (+) 20 (+) 10 (+) 4 (+) 1 (+) 1 अयस अषडस मसस दिवसे 10 (+) 4 (+) 1 इश दिवसे प्रदिस्तवित भगवतो धतु(ओ) उर(स) केण इंतहिअ-पुत्रण बहलिएण णोअचए णगरे वस्तवेण (1) तेण इमे प्रदिस्तवित भगवतो धतुओ धमर इए तक्षशि( ल ए तणुवए बोसिसत्व गहमि महरजस रजतिरजस देवपुत्रस खुषणस अरोग दक्षिणए सर्वबुधण पुयए प्रचग बुधण पुयए अरह(त)ण पुयए सर्वस (त्व )ण पुयए मत-पितु पुयए मित्रमच-सञति-स 5. लोहि(त) ण पुयए अत्वणो अरोग दक्षिणए(।) णि (व)ण ए होतु अव )दे सम-परिचगो (।) अय (Azes II) के 136 वर्ष के आषाढ मास के 15वें दिन-इस दिन भगवान् के देहावशेष प्रतिष्ठित करवाये। औरश (उरशा देश के निवासी) इन्तप्रिय पुत्र बाहलिक ने जो नवजाय (?) नगर का निवासी है। उसने भगवान् का यह देहावशेष तक्षशिला के स्वकीय धर्मराजिका बोधिसत्व-गृह में प्रतिष्ठित किया महाराज राजातिराज देवपुत्र कुषाण की आरोग्य-दक्षिणा के लिये, 1. एपि) इ0 14. पृ. 295, कार्पस 2/1, पृ० 77 4. 3. 49 For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 50 4. 5. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख समस्त बुद्धों की पूजा के लिये, प्रत्येक बुद्ध की पूजा के लिए, अर्हतों क पूजा के लिये, सारे प्राणियों की पूजा के लिये, माता- -पिता की पूजा लिये, मित्र - अमात्य - सम्बन्धी रक्तसम्बन्धी की पूजा के लिये तथा स्वयं की आरोग्य-दक्षिणा एवं निर्वाण के लिये । यह समुचित परित्याग (दान) हो। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनिष्क प्रथम का सारनाथ बौद्ध प्रतिमा लेख स्थान-सारनाथ, भाषा-प्राकृत, लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 3 (81 ई०) (क) 1. महरजस कनिष्कस्य सं 3/हे/3 दि 20+ 2 2. एताये पुर्वये भिक्षुस्य पुण्यबुद्धिस्य सद्धयेदि 3. हारिस्य भिक्षुस्य बलस्य त्रेपिटकस्य 4. बोधिसत्वो छत्रयष्टि च प्रतिष्ठापितो (तौ) बाराणसिये भगवतो चंकमे सहा मात(I) पितिहि सहा उपद्धयायचेरेहि सद्धयेविहारि7. हि अन्तेवासिकेहि च सहा बुद्धमित्रये त्रेपिटक 8. ये सहा क्षत्रपेण वनस्फरेन खरपल्ला 9. नेन च सहा च (तु) हि परिपाहि सर्वसत्वनं _10. हितसुखार्थं (॥) (ख) 1. भिक्षुस्य बलस्य पिटकस्य बोधिसत्वो प्रतिष्ठापितो। 2. महाक्षत्रपेन खरपल्लानेन सहाक्षत्रपेन वनस्परेन। 1. एपि० इ० 8. पृ. 173.79 51 For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 52 प्राचीन भारतीय अभिलेख (ग) 1. महारजस्य क( निष्कस्य) सं 3 है 3 दि 20 (2) 2. एतये पूर्वये भिक्षुकस्य बलस्य त्रेपिट( कस्य) 3. बोधिसत्वो छत्रय( ष्टि) च (प्रतिष्ठापितो) (॥) (क) 1. महाराज कनिष्क के (द्वारा प्रवृत्त) संवत् 3 (81 ई0) के हेमन्त 3 (माघ) के 22वें दिन इस पूर्वोक्त तिथि को महापुण्यशाली भिक्षुओं के . 3. सतीर्थ (सहपाठी) भिक्षु, त्रिपिटक के ज्ञाता बल की (प्रतिमा) 4. बोधिसत्व तथा छत्रयष्टि (छत्रदण्ड) स्थापित किये गये। वाराणसी में, जहां भगवान् टहलते थे (गन्धकुटी विहार के अलिन्द में) माता पिता के साथ उपाध्याय-आचार्यों के साथ, विहारियों के साथ शिष्यों के साथ, त्रिपिटकज्ञा बुद्धमित्रा के साथ क्षत्रप वनस्पर खरपल्लान के साथ और चारों परिषदों (भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक तथा उपासिका) के साथ सारे प्राणियों के हित-सुख के लिये। (ख) 1. त्रिपिटकवेत्ता भिक्षु बल का बोधिसत्व स्थापित किया गया। 2. क्षत्रप वनस्पर के साथ, महाक्षत्रप खरपल्लान के द्वारा। 1. 2. 3. महाराज कनिष्क के (द्वारा प्रवृत्त) संवत् 3 (81 ई0) के हेमन्त 3 (माघ के) 22वें दिन इस पूर्वा (तिथि) को त्रिपिटक के वेत्ता भिक्षु बल के (लिये) बोधिसत्त्व एवं छत्रयष्टि स्थापित किये गये। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वासिष्क का सांची बुद्धप्रतिमा लेख 1. सांची (म०प्र०) भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 28 (106 ई०) (महाराज )स्यर()जा(f)तराजस्य (देव)पुत्रस्य षा(f) हवा(सिष्कस्य सं 20 (+) 8 हे । (दि 5)(ए)तस्या (-) पुर्वा( यां) भगव (तो)...स्य जम्बुछाया-शैल()ग्र( स्थ? )स्य धर्मदेव बिहारे प्रति(ष्ठ गपिता खरस्य धितर मधरिक णं देयधर्म-परि( त्यागेन) महाराज राजातिराज देवपुत्र षाहि वासिष्क के 28वें वर्ष के हेमन्त 1 (मार्गशीर्ष माह के) पांचवें दिन इस पूर्वोक्त दिन जम्बुच्छाया (जामुन के वृक्षों की छाया) से आच्छन्न) पर्वत शिखर पर स्थित धर्मदेव बिहार में खर की पुत्री मधुरिका ने दान-धर्म से... भगवान् शाक्यमुनि (की प्रतिमा स्थापित की)। 1. एपि0 इ0 2, पृ० 369 For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुविष्क का मथुरा शिलालेख मथुरा (उ०प्र०) भाषा-संस्कृत प्रभावित प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 28 (106 ई०) सिद्ध (चिह्न) (॥) संवत्सरे 20 (+ ) 8 गुर्पिये दिवसे ? अयं पुण्यशाला प्राचिनीकन सरूकमान-पुत्रेण खरासले रपतिन वकन-पतिना अक्षयनीवि दिन्न(1) (।) तुतो वृद्धि) 4. तो मासानुमासं शुद्धस्य चतुदिशि पुण्यशा(ला) यं ब्राह्मणशतं परिविषितव्यं (।) दिवसे दिवा से) च पुण्यशालाये द्वारमुले धारिये साद्यं सक्तना (-) आ ढका 3 लवृण-प्रस्थो 1 शक्तप्रस्थो 1 हरित-कलापक8. घटक(1) 3 मल्लक(1) 5 (1) एतं अनाध(T)नां कृतेन द (तिव्य ) बभक्षितन पिबसितनं (।) य चत्र पुण्य तं देवपुत्रस्य 10. षाहिस्य हुविष्कस्य (1) येषा च देवपुत्रो प्रियः तेषामपि पुण्य 11. भवतु (।) सर्वायि च पृथिवीये पुण्य भवतु (अक्षयनिवि) दिन्ना 12. . . . (र कश्रेणी )ये पुराणशत 500 (+) 50 समित कर श्रेणी 1. एपि0 50 21, पृ० 60 54 For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुविष्क का मथुरा शिलालेख 13. (ये च) पुराणशत 500 (+) 50 (॥) 1. सिद्धि हो। अट्ठाईसवें वर्ष के गुर्पिय मास के प्रथम दिन इस पुण्य(धर्म) शाला (को) प्राचीनीक सरुकमाण के पुत्र [अथवा प्राचीन (पुरातन) या पूर्व दिशा में स्थित, कनसरुकमाण के पुत्र; अथवा प्राचीनीकन रुकमाण के पुत्र; अथवा प्राचीनिकों में सरुकमाणं के पुत्र] खरासलेर (नामक स्थान) के स्वामी तथा 3. वकन (सम्भवत: मध्य एशिया का 'बखन') के स्वामी ने अक्षय (स्थायी) पूंजी दी है। उसके सूद से हर माह, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को धर्मशाला । 5. में सौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और प्रतिदिन धर्मशाला के दरवाजे की देहली (द्वारमूल) में तीन आढक (256 मुष्टि का एक आढक होता है), ताजा अथवा स्वादिष्ट सत्तू 7. एक प्रस्थ (अञ्जलि) नमक, एक प्रस्थ शुक्त (अम्ल, खट्टा रस), हरित कलापक (विभिन्न हरी वनस्पतियों से निर्मित रस) के तीन घड़े तथा पांच मल्लक (दीपक अथवा पानपात्र) रखना चाहिये। यह अनाथों को देना चाहिये, भूखे तथा प्यासों को भी (देना चाहिये) और जो भी यहां पुण्य (हो रहा) है वह देवपुत्र 10. षाहि हुविष्क का (ही) है। और जिन्हें देवपुत्र प्रिय है उनका भी पुण्य 11. हो। और सारी पृथ्वी का पुण्य हो। 12. ... श्रेणी को 550 पुराण (58.56 ग्रेन के चांदी के आहत सिक्के अथवा कार्षापण) की स्थायी पूंजी (अक्षयनीवि) दी तथा समिताकर (गेहूं आटे का संग्रह रखने वाले या उसके थोक व्यापारियों की श्रेणी (संघ या ट्रस्ट) 13. को भी 550 पुराण (की अक्षय नीवि दी है)। For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. 2. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनिष्क द्वितीय का आर शिलालेख' आर-अटक से 10 मील दूर ग्राम (पाकिस्तान), भाषा - प्राकृत, लिपि - खरोष्ठी, वर्ष 41 ( 119 ई० ) महरजस रजतिरजस देवपु( त्रस ) (क) इ ( स ) रस व( झि )ष्यपुत्रस कनिष्कस संवत्सर एकचप (रि) - (शए) सं0 20 (+) 20 (+) । जेठस मसस दिव (से) 1 इ ( शं) दिवस-क्षुणमि ख( दे ) (कुपे) दषव्हरेन पौषपुरिअ पुत्रण मतर पितरण पुय(ए) (अत्म)णस सभर्य ( स ) ( स ) पुत्रस' अनुग्रहर्थए सर्व (सपण जति (षु) (हि) तए । इमां च लिखितो म( धु) ...( 1 ) महाराज राजातिराज देवपुत्र केसर (रोमन सम्राटों का विरुद) वासिष्कपुत्र कनिष्क के 41 वें वर्ष के ज्येष्ठ मास के प्रथम दिन - इस दिन के (शुभ) मुहूर्त में दाषपरन्ने कुआ खोदा पौषपुरिक के पुत्रों तथा माता-पिता की पूजा के लिये ( सम्मान में) पत्नी एवं पुत्र सहित हिरण्य के अनुग्रह (लाभ) के लिये, सारे प्राणियों के जन्मजन्मान्तर में होने वाले लाभ अथवा रक्षा के लिये । इस लेख को म (धु) .ने लिखा। एपि० इ० 1908, पृ० 58, ए०३० 22, पृ० 130 कार्पस, 2, पृ० 165 अवलेश्वर लेख में भी ऐसा ही पाठ है 7. भगवता आपुरा 8. तापुसेन स पुतस 9. सभायस 56 For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उषवदात का नासिक गुहा लेख 1. भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी-वर्ष 45 (द्वितीय शती) सीद्धम [1] राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्य नहपानस्य जामात्रा दीनीकपुत्रेण उषवदातेन त्रि-गोशत-सहस्रदेन नद्या बार्णासायां सुवर्णदानतीर्थकरेण देवत [7]भ्यः ब्राह्मणेभ्यश्च षोडश ग्रामदेन अनुवर्ष ब्राह्मणशतसाहस्री-भोजापयित्रा प्रभासे पुण्यतीर्थे ब्राह्मणेभ्यः अष्टभार्याप्रदेन भरुकछे दशपुरे गोवर्धने शोरगे च चतुशालावसध-प्रतिश्रय-प्रदेन आराम-तडाग उदपान करेण इवा-पारादा-दमण-तापी करबेणा-दाहनुका-नावापुण्य-तर-करेण एतासां च नदीनां उभतो तीरं सभाप्रपाकरेण पीडीतकावडे गोवर्धने सुवर्णमुखे शोरगेच रामतीर्थे चरक पर्षभ्यः ग्रामे नानंगोले द्वात्रीशत-नाळीगेर-मूल-सहस्र-प्रदेन गोवर्धने त्रीरश्मिषु पर्वतेषु धर्मात्मना इदं लेणं कारितं इमां च पोढियो [॥] भटारका अञआतिया च गतोस्मिं वर्षा रतुं मालये [हि ]-- हि रुधं उतमभाद्रं मोचयितुं [1] ते च मालया प्रनादेनेव अपयाता उतमभद्रकानं च क्षत्रियानं सर्वे परिग्रहा कृता [1] ततोस्मिं गतो पोक्षरानि [1] तत्र च मया अभिसेको कृतो त्रीणि च गोसहस्रानि दतानि ग्रामो च [॥] दत च (1) नेन क्षेत्र (') ब्राह्मणस वाराहिपुत्रस अश्विभूतिस हथे २०३० 8, १० 78 57 For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 58 5. 1. 2. 3. 4. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख कणिता मुलेन काहापण - सहस्रेहि चतुहि 4000 यो स-पितु सतक नगरसीमायं उतरापरा [ यं ] दीसायं [] एतो मम लेने वस तानं चातुदीसस भिखु- सघस मुखाहारो भविसती [ ॥ ] सिद्ध हो। क्षहरात (परिवार के) क्षत्रप राजा नहपान के दामाद, दीनीक के पुत्र उषवदात (ऋषभदत्त) जो तीन लाख गायें दान कर्ता, वार्णासा (बनास?) नदी पर सोपान बनवाकर स्वर्णदान करने वाला। देवता एवं ब्राह्मण के लिये 16 ग्राम दान करने वाला, प्रतिवर्ष एक लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने वाला पवित्र तीर्थ प्रभास (काठियावाड) में ब्राह्मणों को (विवाह करवाकर ) आठ पत्नियां प्रदान करने वाला; भृगुकच्छ (भडौंच), दशपुर ( मन्दसौर), गोवर्धन ( नासिक के निकट ) एवं शूर्पारक (थाना जिले का सोपारा) में (यात्रियों के) आश्रय के लिये चतुश्शाल धर्मशाला (बनवाकर) दानकर्ता एवं उद्यान, तालाब, उदपान (कुआ अथवा उसके निकट की खैर) का निर्माता, इबा, पारादा (सूरत जिले में पर) दमन, (पुर्तगाली शहर दमन के निकट से बहने वाली दमनगंगा ? ), तापी (ताप्ती), करवेण्वा तथा दाहनुका (पुर्तगाली शहर दहने की निकटवर्ती?) नदी को नौका से पार करने में पुण्यतर (शुल्कमुक्त ) करने वाला और इन नदियों के दोनों तटों पर सभा (विश्रामालय) एवं प्रपा (प्याऊ) बनवाने वाला; पिण्डितकावट, गोवर्धन, सुवर्णमुख, शूर्पारक और रामतीर्थ में चरकपरिषद् (चरकसम्प्रदाय के अनुसर्ता अथवा परिव्राजक भिक्षु संघों) को नामंगोल ( थाना जिले के संजान के निकट नार्गोल ? ) गांव में बत्तीस नारियल के (ऐसे) मूल (गोड, वृक्ष) जिनमें एक सहस्र (फल लगते थे; का) प्रदाता (उसी) धर्मात्मा ने गोवर्धन तथा त्रिरश्मि पर्वतों पर यह गुहा तथा जलाशय बनवाया। भट्टारक (नहपान ? ) के आदेश से, मैं वर्षा ऋतु में मलवों के द्वारा अवरुद्ध (घेरे गये) उत्तमभद्रक (मथुरा को उत्तम दत्त ? - उत्तमभद्रों के अधिपति) को छुड़ाने (मुक्त करने) के लिये गया। और वे मालव (उषवदात की सेना की) हुंकार से (ही) भाग गये और उत्तमभद्रक क्षत्रिय ( को घेरने वाले) सभी मालवों को (ऋषभदत्त ने ) बन्दी बना लिया। तब मैं पुष्कर गया। और वहां मैंने स्नान किया तथा तीन सहस्र For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उषवदात का नासिक गुहा लेख-वर्ष 45 59 गायें एवं एक गांव दान किया। और इसने वाराहीपुत्र ब्राह्मण अश्विभूति को उसी से चार हजार कार्षापण में क्षेत्र क्रय करके, दान में दिया जो (अश्विभूति के) अपने पिता के स्वामित्व का नगर सीमा से पश्चिमोत्तर दिशा में है। सो मेरी (स्वनिर्मित) गुहा में रहने वाले, 5. चारों दिशाओं से आये हुए भिक्षु संघ का मुख्याहार (आहार का मुख्यसाधन भी यह गांव अग्रहार) बनेगा। For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उषवदात का नासिक गुहालेख नासिक (महाराष्ट्र) भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 41-42, 45 (द्वितीय शती ई०) सिधं (॥) वसे 40 (+) 2 वेशाख मासे राजो क्षहरात क्षत्रपस नहपानस जामातरा दीनीक-पुत्रेन उषवदातेन संघस चातुदिसस इमं लेणं नियायितं (1) दत चानेन अक्षय निवि काहापण-सहस्रा नि त्रीणि 3000 संघस चातुदिसस ये इयस्मिं लेणे वसांतान (') भविसंति चिवरिक कुशाणमूले च (1) एते च काहापणा प्रयुता गोवधनं वाथवासु श्रेणिस(।)कोलीक निकाये 2000 वृधि पडिक-शत अपर-कोलीक-निकाये 1000 वधि पा (यू) न-(प)डिक शत (1) ऐते च काहापणा (अ) पडिदातवा वधि भोजा (1) एतो चिवरिक सहस्त्रानि बे 2000 ये पडिके सते (1) एतो मम लेणे वसवुथान भिखुनं वीस()य एकीकस चिवरिक वारसक (1) य सहस प्रयुतं पायुन पडिके शते अतो कुशनमूल(1) कापूराहारे च गामे चिखलपद्र दतानि नालिगेरान मुल-सहस्राणि अठ 8000 एव च सर्व स्त्रावित (निगम सभाय निबध च फलकवारे चरित्रतो ति (1) भूयोनेन दतं वसे 40 (+) 1 कातिक शूधे पनरस पुवाक वसे 40( + ) 5 पनरस नियुतं भगवता (') देवानं ब्राह्माणनं च कार्षापणसहस्रानि सतरि 7000 प (') चत्रि (') शक सुवण कृता दिन सुवर्ण-सहस्रणं 1. एपि0 इ) 8. पृ. 82 60 For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उषवदात का नासिक गुहालेख 1. मूलय (') (॥) 6. फलकवारे चरित्रतो ति (॥) सिद्ध। 42वें वर्ष वैशाख मास में क्षहरात राजा नहपान के जामाता दीनीक के पुत्र उषवदात (ऋषभदत्त) ने चातुर्दिश (सर्वदेशीय) संघ के लिए यह गुहा नियत कर दी। और उसने अक्षय नीवी (स्थायी निधि) कार्षापण सहस्र तीन 3000 चातुर्दिश संघ के लिए जो इस लयन के निवासियों का चीवर मूल्य और कृशान्नमूल्य है और ये कार्षापण गोवर्धन निवासी श्रेणियों में कौलिय निकाय में 2000 हैं। जिनकी वृद्धि प्रतिशत पर एक है। अन्य कौलिक निकाय में जो 1000 (हैं) उनकी वृद्धि शत पर एक पादोन। ये कार्षापण अप्रतिदातव्य वृद्धि प्राप्त करने वाले हैं। इनमें चैवरिक 2000 कार्षापण जो शत पर एक वृद्धि वाले। इसमें से लयणवासी भिक्षुओं में 20 के लिए प्रत्येक का चैवरिक 12 कार्षापण जो सौ पर एक पादोन वृद्धिष्णु सुरक्षित 1000 कार्षापण, इसमें से कृशान्न मूल्य-कपूराहार में चिखलपद्र ग्राम में प्रदत्त नारियल मूल्य 8000। यह सब निगम सभा में सुनाया गया और फलक समूह पर लिखा गया है। आधार के अनुसार। बाद में इसके द्वारा दिया गया 41वें वर्ष में कार्तिक के शुक्ल पक्ष में पन्द्रहवें दिन - पूर्वदत्त 45 वें वर्ष 3. पन्द्रहवें दिन स्थायी निधि (रूप) भगवान् देवों और ब्राह्मणों के लिए 7000 कार्षापण, 35 सुवर्ण तथा सहस्र मूल्य का कर। फलक समूह पर आचरण अनुसार। For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख जूनागढ़ (गुजरात) भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्मी (शक) संवत् 72 (150 ई०) सिद्ध( द्धम्) इदं तडाकं सुदर्शनं गिरिनगराद( पि). . .(भृत्ति ) कोपलविस्तारायामोच्छ्रय-निःसन्धि-बद्ध-दृढ़-सर्व-पालीकत्वात् पर्वतपाद-प्रतिस्पर्द्धि-सुश्लि( ष्ट)-(बन्धं) . . . (व)जातेनाकृत्रिमेण सेतुबन्धेनोपपन्नं सुष्प्रतिविहितप्प्रनाली-परीवाहमीढविधानं च त्रिस्कर न्ध)...नादिभिरनुग्र ( है ) महत्युपचये वर्तते तदिदं राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृही- . त-नाम्नः स्वामि-चष्टनस्य पौत्र( स्य) ( राज्ञः क्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामिजय-दाम्नः) पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्त नाम्नो रु(द्र)दाम्नो वर्षे द्विसप्ततित( मे) 70 ( + ) 2 मार्गशीर्ष-बहुल-प्र( ति )( पदि). . .सृष्टवृष्टिना पर्जन्येन एकार्णवभूतायामिव पृथिव्यां कृतायां गिरेरुर्जयतः सुवर्णसिकतापलाशिनी-प्रभृतीनां नदीनां अतिमात्रोद्धतैर्वेगैः सेतुम( यमा) णानुरूप-प्रतीकारमपि गिरिशिखर-तरुतटाट्टालकोपत(ल्प)-द्वार-शरणोच्छ्य-विध्वंसिना युगनिधन-सदृ श-परम-घोर-वेगेन वायुना प्रमथि( त )सलिल-विक्षिप्त-जर्जरी इ. 8, पृ० 36 से 62 7. 1. For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख 63 8. 10. कृताव( दी )( र्ण )( क्षि )प्ताश्म-वृक्ष-गुल्म-लताप्रतानं आनदी(त) लादित्युद्धाटितमासीत्। चत्वारि हस्त-शतानि विंशदुत्तराण्यायतेन एतावत्येव (वि)स्ती(णे )न पंचसप्तति-हस्तानवगाढे न भे दे न निस्सृत-सर्व - तो यं मरु-धन्व-कल्पमतिभृशं दु(द)..(स्य )गर्थे मौर्यस्य राज्ञः चन्द्र(गु) (प्त X स्य ) राष्ट्रियेण (वै )श्येन पुष्यगुप्तेन कारितं अशोकस्य मौर्यस्य (कृ)ते यवनराजेन तुषास्फेनाधिष्ठाय प्रणालीभिरलङ कृत( तम् ) (त(त्कारित( या) च राजानुरूप-कृत-विधानया तस्मि (भे)दे दृष्टया प्रणड्या (वि( स्तु)त-से (तु). . .णा आगर्भात्प्रभृत्यवि( ह )त-समुदि (त-रा )जलक्ष्मी-- धारणा-गुणतस्सद्ध-वर्णैरभिगम्य रक्षणार्थं पतित्वे वृतेन (आ) प्राणोच्छ्वसात्पुरुषवधनिवृत्ति-कृतसत्यप्रतिज्ञेन अन्य(त्र) संग्रामेष्वभिमुखागत-सदृश-शत्रुप्रहरण-वितरणत्वाविगुणरि(पु). . .तकारुण्येन स्वयमभिगतजनपदप्रणिपति(ता) यु)षशरणदेन दस्यु-व्याल-मृग- रोगादिभिरनुपसृष्टपूर्व-नगर-निगमजनपदानां स्ववीर्यार्जितानामनुरक्त-सर्व-प्रकृतीनां पूर्वापराकरावन्त्यनूपनीवृदानत-सुराष्ट्र-श्व( भ्र-मरु-कच्छ- सिन्धु-सौवी )रकुकुरापरांत-निषादादीनां समग्राणां तत्प्रभावाद्य( थावत्प्राप्तधर्मार्थ) काम-विषयाणां विषयाणां पतिना सर्वक्षत्राविष्कृत12. वीर-शब्द-जा( तो )त्सेकाविधेयानां यौधेयानां प्रसह्योत्सादकेन दक्षिणापथ-पते स्सातकर्णे रिपि नि व्याजमवजित्याजित्य सर्वथा( वि )दूर( त )या अनुत्सादनात्प्राप्तयशसा (वाद). . . (प्रा) प्त)-विजयेन भ्रष्टराज-प्रतिष्ठापकेन यथातथं हस्तो13. च्छ्यार्जितोर्जित-धर्मानुरागेन शब्दार्थ-गान्धर्व न्यायाद्यानां विद्यानां महतीनां पारण-धारण-विज्ञान-प्रयोगावाप्त विपुल-कीर्तिना तुरगगज-रथचोसि-चर्म-नियुद्धाद्या. . . ति परबल-लाघव-सौष्ठव-क्रियेण अहरहन--मानान14. वमान-शीलेन स्थूललक्षेण यथावत्प्राप्तै र्बलिशुल्क भाग : 11 For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 64 प्राचीन भारतीय अभिलेख कनक-रजत-वज्र-वैडूर्यरत्नोपचय-विष्यन्दमान-कोशेन स्फुट-लघुमधुर-चित्र-कान्त-शब्दसमयोदारालंकृत-गद्य-पद्य-(काव्य-विधान प्रवीणे )न प्रमाण-मानोन्मानस्वर-गति-वर्ण-सार-सत्त्वादिभिः। 15. परम-लक्षण-व्यंजनैरुपेत-कान्त-मूर्तिना स्वयमधिगत-महाक्षत्रप-नाम्ना नरेद्र-क( न्या) स्वयंवरानेक-माल्य-प्राप्त-दाम्न(1) महाक्षत्रपेण रुद्रदाम्ना वर्षसहस्राय गो-ब्रा( ह्य) ण)...(w) धर्मकीर्तिवृद्धयर्थं च अपीडयि( त्व) कर-बिष्टि16. प्रणयाक्रियाभिः पौर-जानपदं जनं स्वस्मात्कोशान्महता धनोघेन अनतिमहता च कालेन त्रिगुण-दृढ़तर-विस्तारायाम सेतुं विधा (य) (स)वत (टे). . .(सु) दर्शनतरं कारितमिति (1) (अस्मिन्नर्थे 17. (च) महा( क्षत्रप( स्य) मतिसचिव-कर्मसचिवैरमात्य-गुण समुधुक्तैरप्यतिमहत्त्वाइँदस्यानुत्साह-विमुख-मतिभि(:) प्रत्याख्यातारंभ 18. पुनः सेतुबन्ध-नैराश्याद्धाहाभूतासु प्रजासु इहाधिष्ठाने पौरजानपद जनानुग्रहार्थं पार्थिवेन कृत्स्नानामानर्त-सुराष्ट्रानां पालनात्थन्नियुक्तेन 19. पहलवेन कुलेप-पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन यथावदर्थ-धर्मव्यवहार दर्शनैरनुरागमभिवर्द्धयता शक्तेन दान्तेनाचपलेनाविस्मितेनार्येणाहार्येण 20. स्वाधिष्ठिता धर्म-कीर्तियशांसि भर्तुरभिवर्द्धयतानुष्ठित( मि )ति। 1. सिद्ध हो। गिरिनगर (जूनागढ़) का निकटवर्ती यह सुदर्शन तालाब सारी पालें (तटबन्ध) मिट्टी, पत्थर से (अपनी) लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊंचाई में गाढ एवं दृढ़ता से बद्ध होने से, पर्वत पाद (श्रेणी, पहाड़ियों) से 2. स्पर्धा करने वाला; बनावट में ठोस. . . श्रेष्ठ व प्राकृतिक बांध से युक्त, नालियां तथा बढ़े हुए जल को निकालने के लिये निर्मित गोमूत्रक (अथवा द्वार वाले नाले), तीन भागों में विभक्त. ..सेना (?) आदि की कृपा से विशाल परिमाण में है। सो यह राजा महाक्षत्रप स्वनामधन्य स्वामी चष्टन के पौत्र, (क्षत्रप राजा स्वनाम धन्य स्वामी जयदामा के) पुत्र; महाक्षत्रप राजा, जिसे रुद्रदामा के नाम से पुकारने की गुरुजनों को आदत हो गयी है, बहोत्तरवे (शकसंवत् के) वर्ष के For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख 5. 6. 7. 8. 9. 10. www. kobatirth.org 1. 2. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 65 मार्ग शीर्ष कृष्ण प्रतिपदा को.... बरसते मेघों ने (जब ) धरती सागर सी कर दी तब ऊर्जयत (रैवतक) पर्वत की सुवर्णसिकता, पलाशिनी आदि नदियों का वेग अधिक बढ़ जाने से, सेतु के परिमाणानुरूप प्रतिकार किये जाने पर भी पर्वत शिखर, वृक्ष, तट, अट्टालिका, ऊपरी मंजिलों, द्वार, शरण के योग्य ऊंचे (सुरक्षित) स्थानों को ध्वस्त करने वाले प्रलय काल जैसे अत्यंत वेगशाली वायु से मथे गये जल के द्वारा फेंक कर जर्जर एवं खण्डित कर दिये गये ... पत्थर, वृक्ष, झाड़ियां तथा लता वितान फेंक दिये गये और नदी के तल तक को उघाड़ (खोल) दिया गया। 420 हाथ लम्बी, इतनी ही चौड़ी (तथा) 75 हाथ गहरी दरार से (तालाब का ) सारा जल निकल गया ( और सुदर्शन का वह खाली तल) रेगिस्तान के समान दुर्दर्शन ( अशोभन ) हो गया। (लोक अथवा प्रजा) के लिये मौर्य राजा चन्द्रगुप्त के राष्ट्रिय वैश्य पुष्यगुप्त ने (इसे) बनवाया। अशोक मौर्य के लिये यवनराज तुषास्फ ने ( वहां) रहकर (अपनी देखरेख में इसे ) नालियों (नहरों) से अलंकृत कर दिया। इनके द्वारा बनवायी गयी तथा राजा के अनुरूप (विशाल पैमाने पर सुशोभमन तट एवं नहरों से निर्मित) सम्पन्न (उस तडाग में) वह ( उपर्युक्त विस्तृत एवं गहरी ) दरार पड़ जाने पर ( वहां ) दिखाई देने वाली नहर तथा विशाल बांध ( अदृश्य हो गया ) । गर्भकाल (जन्म से पूर्व) से अबाध रूप से समुन्नत राजलक्ष्मी को धारण करने के गुण के कारण (सिसे) सारे वर्ण (की प्रजा) ने एक साथ पहुंचकर (अपनी रक्षा के लिये स्वामी बनाया, युद्ध के अतिरिक्त (अवसर पर ) पुरुष वध से विमुख होने की प्रतिज्ञा को आजीवन सत्य सिद्ध कर (पालने वाले, सामने आये हुए समान शक्तिशाली) शत्रु पर प्रहार करने वाले तथा गुणहीन (कायर) शत्रु पर दया करने वाले; स्वयं आकर चरण पर गिरने वाले (अधीनस्थ होने वाले अथवा शरण में आने वाले) जन को (न मारकर उसे) जीवन तथा शरण' देने वाले; डाकू, सर्प For Private And Personal Use Only एक और विलासिनी नदी का उल्लेख स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ लेख (श्लोक २८) में हुआ है। मिलाइये - असौ शरण्यः शरणोन्मुखानाम्। रघुवंश, 6/21 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 प्राचीन भारतीय अभिलेख (आदि विषैले तथा जंगली हिंसक) जन्तु, रोग आदि (उपद्रवों) से अछूते; नगर-निगम (नगर सभा तथा) 11. जनपद वाला, अपनी शक्ति से जिसने पूर्वी एवं पश्चिमी आकर (पूर्वी मालवा), अवन्ति (पश्चिमी मालवा), अनूप (निमाड़), आनर्त (उत्तरी काठियावाड), सुराष्ट्र (दक्षिणी काठियावाड), श्वभ्र (साबरमती का तटवर्ती क्षेत्र, मरु (मारवाड़), कच्छ, सिन्धु (दक्षिण सिन्धु का पश्चिमी भाग), सौवीर (दक्षिण सिन्धु का पूर्वी भाग), कुकुर (उत्तरी काठियावाड), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), निषाद (विनशन से पारियात्र तक का भाग; पश्चिमी विन्ध्य से अरावली तक) आदि सारे विषय (क्षेत्रों) के स्वामी तथा इन सारे स्थलों की प्रकृति (प्रजा अथवा मन्त्री प्रभृति) जिस पर अनुरक्त हैं एवं अपने इस प्रभाव से जिसे धर्म, अर्थ, काम आदि विषयों को समुचित रूप से प्राप्त है, सारे क्षत्रियों में 12. वीर शब्द का संचार कर (अपनी वीरता की धाक जमाकर) गर्विष्ठ तथा वश में न होने वाले यौधेयों को बरबस (बलपूर्वक) उखाड़, फेंकने वाला दक्षिणापथ के स्वामी (गौतमीपुत्र) सातकर्णी को दो बार निश्छल रूप से जीत-जीत कर निकट सम्बन्धी होने से न उखाड़कर (समूल नष्ट न कर) यश प्राप्त करने वाले, विजय प्राप्त कर्ता, उच्छिन्न नृपों को (पुनः अपने राज्य लौटाकर) स्थापित कर्ता, वस्तुतः हाथ 13. उठाकर, तेजस्वी (दृढ़) धर्मानुराग अर्जित करने वाला; शब्द (व्याकरण), अर्थ (कोष या अर्थशास्त्र-राजनीति), गान्धर्व (संगीत), न्याय (तर्कशास्त्र अथवा न्यायदर्शन) आदि श्रेष्ठ विद्याओं के पारण (अध्ययन), धारण (स्मृति में रखना), विज्ञान (सम्यक् बोध) तथा प्रयोग (व्यावहारिक उपयोग) से विपुल कीर्ति अर्जित करने वाला; हाथी, घोड़े, रथ आदि के संचालन तथा ढाल-तलवार के युद्ध आदि में शक्ति, स्फूर्ति एवं परम कौशल कर्ता प्रतिदिन दान, सम्मान करने वाला (तथा किसी का) अपमान न करने वाला, 14. अत्यन्त दानशील (उदार); मालगुजारी, चूंगी तथा राज्यकर से (प्राप्त) 1. पतंजलि के महाभाष्य (1/1/1) में भी यही कहा गया है-- चतुर्भिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति-आगमकालेन, स्वाध्याय कालेन, प्रवचनकालेन, व्यवहारकालेनेति। नैषध(1-4) में भी यही है। -अधीतिबोधाचरणप्रचारणैः। For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रुद्रदामा प्रथम का जूनागढ़ शिलालेख 15. 16. 17. www. kobatirth.org 18. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 67 सोना, चांदी, हीरे, मूंगे आदि रत्न - राशि से परिवर्धमान कोश वाला; स्पष्ट (स्फुट), लघु (प्रसाद), मधुर, चित्र (ओज) मनोरम शब्दों तथा कविसमय (अथवा काव्य लक्षणों से समन्वित), उदार (प्रशस्त एवं प्रसाद पूर्ण ) एवं अलंकृत (अलंकारों से मण्डित) गद्य तथा पद्य (काव्य रचना में कुशल); लम्बाई, चौड़ाई (मोटापा), ऊंचाई, ध्वनि, चाल, देह-वर्ण, बल, आत्मशक्ति आदि श्रेष्ठ लक्षणों को व्यक्त करने वाली कमनीय देह से युक्त; स्वयं ( अपनी शक्ति से) महाक्षत्रप नाम (उपाधि) प्राप्तकर्ता ; राजकुमारियों के स्वयंवर में अनेक वरमाला प्राप्तकर्ता; महाक्षत्रप रुद्रदामन् ने सहस्रों वर्ष तक गो-ब्र - ब्राह्मण के हित के लिये, धर्म तथा कीर्ति की वृद्धि के लये लगान, बेगार अथवा भेंट आदि से नगर तथा जनपद के निवासियों को कष्ट न देकर अपने (राजकीय) कोश की अपार धनराशि से अल्पकाल में ही तिगुना दृढ़, चौड़ा तथा लम्बा सेतु (बांध) बनवाकर सारे तटों ( को दृढ़तर बनवाकर) सुदर्शन तालाब को पहले की अपेक्षा अधिक दर्शनीय बना दिया। इस कार्य में महाक्षत्रप (रुद्रदामना के) अमात्य के गुणों से सम्पन्न मतिसचिव (मन्त्रणा देने वाले मन्त्री) तथा कर्मसचिव (मन्त्रणा को कार्य रूप में परिणतकर्ता मन्त्री) ने भी सुदर्शन की विशाल दरार से अनुत्साहित होकर (तडाग के) जीर्णोद्धार को प्रारम्भ करने के लिसे असहमति प्रकट करते हुए विपरीत राय दी ( फलतः) पुनः सेतुबन्ध से निराश प्रजा में हाहाकार हो जाने पर, इस स्थान पर नगर तथा जनपद के निवासियों पर दया (कृपा) करने के लिये राजा के द्वारा सारे आर्त तथा सुराष्ट्र का पालन करने के लिये नियुक्त 19. यथावत् अर्थ, धर्म तथा व्यवहार (न्याय) तथा दर्शन से (प्रजा में) अनुराग बढ़ाते हुए, समर्थ, संयमी, गम्भीर, गर्वहीन, सदाचारी तथा अनुकरणीय पहलव (पार्थियन) कुलैप के पुत्र अमात्य सुविशाख ने For Private And Personal Use Only 20. सुशासन करते हुए अपने स्वामी का धर्म, कीर्ति तथा यश बढ़ाते हुए (यह ) अनुष्ठान किया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वासिष्ठपुत्र पुलुमावि का नासिक' गुहालेख 1. नासिक (महाराष्ट्र) भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 19 (149 ई०) सिद्ध। रजो वासिठीपुतस सिरि पुळुमायिस सवछरे एकुनवीसे 10+9 गीम्हाणं पखे बितीये 2 दिवसे तेरसे 10(+ )3 राजरो गोतमीपुतस हिमव(त)-मेरुमंदर पवत समसारस असिक-असक-मुळक-सुरठ-कुकुरापरंतअनुप-विदभ-अकरावंति-राजस (आनर्त के अनुल्लेख से प्रतीत होता है कि यह कुछ काल तक कुकुर में विलीन रहा। गौतमी पुत्र ने नहपान से जो पाया वह चष्टन व रुद्रदामन के हाथों खो दिया। तीसरी पंक्ति-समुद तोय पीतवाहन-दिग्विजय वर्णन है। मलय-नीलगिरि से दक्षिण में पश्चिमी घाट, महेन्द्र-पूर्वीघाट आदि पर। (विझछवत-परिचात( वात) सह-कण्हगिरिमच-सिरिटन-मलय-महिदसेटगिरि-चकोर पवत-पतिस (विन्ध्य-पूर्वी विन्ध्य, रिक्षवत् नर्मदा से पूर्व का विन्ध्य, पारियात्र-प० विन्ध्य तथा अरावली, सह्य-पश्चिमी घाट, कृष्णगिरि-कन्हेरी, सेटगिरि-गुण्टुरजिले में नागार्जुन कोण्डा के निकट की पहाड़ी। सवराज (लोक) म(-)उलपति पतिगहीत-सासनस दिवसकर-(क)रविबोधित-कमलविमल-सदिस-वदनस तिसमुद-तोय-पीत १०० 8. पृ० 60-65 68 For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 4. वासिष्ठपुत्र पुलुमावि का नासिक वाहनस पटिपू ( - )ण ( प्रतिपूर्ण या परिपूर्ण ) चद-मउलससिरीक 5. 6. www. kobatirth.org 7. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पियदसनस वर-वारण-विकम-चारु - विकमस भुजगपति- भोगपीन - वाट - विपुल - दीघ- सुद (र) भुजस अभयोदकदान-किलिननिभय-करस अविपन- मातु- सुसूसाकस सुविभत-तिवगदेस-कालस W 69 पोरजन - निविसेस-सम- सुख - दुखस ( प्रजासुखे सुखी राजा तदुःखे यश्च दुःखितः । स कीर्तियुक्तो लोकेस्मिन् प्रेत्य स्वर्गे महीयते ।। विष्णुसंहिता 3/70 ) खतिय-दप - मान- मदनस सक-यवन- पल्हव (शक - क्षहरात, यवन = (ग्रीक), दक पलव ( पार्थियन का शासन पंजाब, सिंध क्षेत्र) निसूदनस धमोपजित कर विनियोग करस कितापराधे पि सतु जने अ- पाणहिसा - रुचिस दिजावर - कुटुब - विविध नस खखरात - वस- निरवसेस करस सातवाहन-कुल-यसपतिथापन- करस, सव- मंडलाभिवादित च (र) णस, विनिवतित-चातूवण- संकरस ( चातुर्वर्ण्य स्वकर्मस्ये मर्यादानामसङ्करे )। दण्डनीतिकृते क्षेमे प्रजानामकुतोभये । महा0 शान्तिपर्व 6, 177 ) अनेक समरावजित-सतु - सधस अपराजित-विजयपताक - सतुजन - दुपधसनीय पुरवरस कुल-पुरिस- परपरागत विपुल- राज- सदास आगमान (नि)लयस सपुरिसानं असयस सिरी (ये) अधिठानस उपचारान पभवस एककुसस एक धनुधरस एक-सूरस एक बम्हणस राम For Private And Personal Use Only केसवाजुन - भीमसेन - तुल- परकमस छाण ( णा ) घनुसव- समाज -- कारकस नाभाग - नहुस - जनमेजय-सकर - य ( या ) ति - रामाबरीस - सम- तेजस अपरिमितमख - यमचितमभुत पवन-गरुळ- सिध-चयख राखस - विजाधर- भूत-गधव- चारण Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. चद-दिवाकर-नखत- गह-विचिण-समरसिरसि-(ऋषयोदेवगन्धर्वाः सिद्धाश्च सह चारणैः। रामा० २/२४/१९) जितरिपुसघस नागवर-खघा गगनतलमभिविगाढस कुल-विपु (लसि)रि-करस सिरिसातकणिस मातुय महादेवीय गोतमीय बलसिरीय सचवचन-दान-रवमहिसा-निरताय तप-दम-निय मोपवास-तपराय राजरिसिवधु-सदमखिलनुविधीयमानाय कारित-देयधम (केलासपवत )सिखरसदिसे (ति )रण्हु-पवतसिखरे विम (नि)वरनिविसेस महिढीकं लेण। एत च लेण महादेवी महाराज-माता महाराज-(पितामही ददाति निकायस भदावनीयान (भद्दयानिक शाखा-बौद्धों की। भद्रयानिक स्थविरवादियों की एक शाखा थी) भिखु-सघस। एतसच लेण(स) चितण-निमित महादेवीय अयकाय सेवकामो पियकामो च ण (ता) (सिरि-पुलुमावि) (दखिणा) पथेसरो पितु-पतियो (पितिये) घमसेतुस (ददा)ति गामं तिरण्हु-पवतस अपर-दक्षिण-पसे पिसाजिपदक सव जात-भोग-निरठि (ठं)। सिद्धि हो। राजा वासिष्ठीपुत्र श्रीपुलुमावि के (राज्य के) उन्नीसवें वर्ष के ग्रीष्म (चैत्र) के शुक्ल पक्ष के तेरहवें दिन राजाओं के राजा गौतमी पुत्र का; जो हिमालय, सुमेरु तथा मन्दर पर्वत के समान सार वान् (शक्तिमान्) है, जो ऋषिक (अश्मक के दक्षिण में कृष्णा-गोदावरी के मध्य), अश्मक (नान्देड, निजामाबाद क्षेत्र), मूलक (प्रतिष्ठानपुर के आसपास का क्षेत्र), सुराष्ट्र, कुकुर (उत्तरी काठियावाड), अपरान्त (उत्तरी कोंकण), अनूप (निमाड क्षेत्र), विदर्भ, (बरार) तथा अवन्ति का स्वामी; विन्ध्य, ऋक्षवान्, पारियात्र, सह्य, कृष्णगिरि, मत्स्य, श्रीस्तन (या श्रीस्थान), मलय, महेन्द्र, श्रेष्ठगिरि तथा चकोर पर्वत का स्वामी; सारे नृपसमूह जिसका आदेश स्वीकार करते हैं, जिसका मुख सूर्य किरण से विकसित कमल के समान, विमल है, जिसके वाहनों (अश्वों) ने तीनों समुद्रों का जलपान किया है, पूर्ण चन्द्र-मण्डल की कान्ति कं समान जिसका 1. 3. For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वासिष्ठपुत्र पुलुमावि का नासिक 4. दर्शन प्रिय (भला) लगता है, श्रेष्ठ हाथी की शक्ति के समान जिसका मनोरम विक्रम है; विशाल सर्प के फण के समान सुडौल, गोल, बड़ी, लम्बी तथा सुंदर जिसकी भुजाएं हैं, अभयदान के जल में जिसके हाथ निर्भय तथा गीले रहते हैं; माता की अबाध सेवा करने वाला, त्रिवर्ग (ध र्म-अर्थ-काम) के लिए स्थान तथा काल का जिसने सम्यक विभाजन (व्यवस्था) कर दिया है; __ अविशिष्ट होकर जो नागरिकों के सुख दुःख का समान साझीदार हो जाता है; क्षत्रियों के गर्व तथा सम्मान को कुचलने वाला; शक, य (ग्रीक)वन तथा पह्लव को नष्ट करने वाला; धर्मशास्त्र के अनुसार लगान लगाने या वसूल करने वाला; शत्रुओं के अपराध करने पर भी प्राणियों की हिंसा में रुचि नहीं रखने वाला, ब्राह्मण तथा अब्राह्मण का कुल बढ़ाने (उन्नत करने) वाला, क्षहरात वंश को समूल नष्ट करने वाला, सातवाहन कुल के रथ को प्रतिष्ठित करने वाला, सारे सामन्तों के द्वारा जिसके चरणों का अभिवादन हुआ है, चारों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) वर्गों के संकर (मिश्रण) को रोकने वाला, अनेक युद्धों में शत्रुसमूह को पराजित करने वाला; जिसकी श्रेष्ठ नगरी (राजधानी) पर लगी विजयपताका सदा अपराजित रही (क्योंकि) शत्रुओं के आक्रमण अथवा आघात से वह सुरक्षित है, कुल के (पूर्व) पुरुषों से परम्परागत राज शब्द का जिसमें विस्तार हो गया (अथवा जिसके अपने कुल के पूर्वजों से परम्परागत विशाल तथा अनेक राजप्रासाद हैं), जो आगम (शास्त्रीय ज्ञान) का आधार (स्थान) है, जो सज्जनों का आश्रय, जो श्री (लक्ष्मी-कान्ति) का स्थान (पद, आधार) है, जो सदाचार का उत्पत्ति (स्थान) है, जो अद्वितीय नियन्ता, अद्वितीय वीर, अद्वितीय ब्राह्मण; राम, केशव, अर्जुन तथा भीमसेन के समान जिसका पराक्रम है, शुभ अथवा आनन्द के अवसर पर अनेक उत्सव तथा समाज (का प्रदर्शन) करवाने वाला; नाभाग, नहुष, जनमेजय, सगर, ययाति, राम, अम्बरीष (आदि) के समान तेजस्वी, असीम, अक्षय, कल्पनातीत, अद्भुत (है वह) पवन, गरुड, सिद्ध, यक्ष, राक्षस, विद्याधर, भूत, गन्धर्व, (स्वर्गीय) चारण (किन्नर), चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह (आदि) के द्वारा जो युद्ध में अगुआ (प्रमुख) देखा 8. 9. For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 72 प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. या माना गया तथा जिसने शत्रु-समूह (जिन्होंने संघ बनाकर एक साथ मोर्चा बांधा उन) पर भी विजय प्राप्त की; जिसने शेषनाग के कन्धे से (उठाकर पृथ्वी को) आकाश में पहुंचा दी (या नागों के खेमों से डेरों) में सिमटी धरती की गगनव्यापी उन्नति की); कुल श्री (लक्ष्मी, कान्ति) को असीम व्यापक करने वाले श्रीसातकर्णि की माता महादेवी गौतमी बालश्री ने; जो सत्यवचन, दान, क्षमा, अहिंसा में (सदा) लीन रहती है; तप, (इन्द्रिय) दमन (संयम), नियम, उपवास में तत्पर रहती है. जो 'राजर्षि की वधू' शब्द को पूर्ण रूपेण धारण करती है, ने दान धर्म (पूर्ण करने) के लिये कैलास पर्वत के शिखर के समान त्रिरश्मि पर्वत के (समुन्नत) शिखर पर श्रेष्ठ विमान के समान महा समृद्धिशाली (अथवा सभाभवन की सारी विशेषताओं से युक्त) लयन (गुहा) बनवायी। और यह गुहा महाराज की पत्नी, महाराज की माता, महाराज की दादी, भद्रयानी भिक्षुसंघ के निकाय (समूह) को प्रदान करती है। और इस गुहा में चित्र बनाने के लिये महादेवी पितामही की सेवा तथा स्नेह का इच्छुक नाती दक्षिणापथ का स्वामी (श्री पुलुमावि), पिता को प्रसन्न करने के लिये धर्म (तक पहुंचने की) सेतु (रूप इन गुहा) के लिये; त्रिरश्मिपर्वत के बायीं ओर, निकटवर्ती पिशाची पद्रक (नामक) ग्राम दान देता है जिसे राज्य कर (आदि) से मुक्त कर दिया गया है। 11. For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुसुमादि का नासिक गुहालेख पुलुमावि का नासिक गुहालेख नासिक (महाराष्ट्र) भाषा-प्राकृत लिपि-ब्राह्मी, वर्ष 22 (142 ई०) सिद्धम्। नवनर-स्वामी वासिठी-पुतो सिरि-पुळुमवि(आ)नपयति गोवधने आमच सिवखदिलय अ( म्हे) वस 10+9 गिप 2 दिव 10+3 धनकट समनेहि यो एथ (पवते ) तिर (बहुम्हि ) न(तिरहुन्हि पतिवसतान भिखुन) 'ध( म )सेतुस (ले )णस पटि-संथरणे (दत) अखय (नीवि)-हेतु एथ गोवधनाहारे दखिणमगे गामो सुदिसणा भिखुहि देवि-लेण-वासीहि (भ्यः) निकायेन भदायनियेहि (प)तिगय दतो। एतस दान-गामस सुदिसन(स) परिवटके एथ गोवधन (हारे) पुवमगे गाम समलिपद ददाम। एत त मह-अइरकेन ओदेन धमसेतुसलेणस पटिसंथरणे अखय-निवि-हेतु गाम सामलिप(द) (भिखुहि देवि)-लेण-(वासिहि) (निका )येन भदायनियेहि पति(ग)यह (ओ)चप( पे )हि। एतस च गामस सामलि( पदस भिखुहल-परिहार) वितराम अपा( वे )स अनोमस अ (लो) णखादक अरठसविनविक सवजात-पारिहारिक च। एतेहि न परिहारेहि परिहरेहि। एत च गाम-समलिपद पर रि हारे च एथ निबधापेहि सु(दिसन) गामस च। सुदिसना( स ) विनिब(ध )कारेहि अणता। 3. ए०३० 8 पृ० 65 For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 74 प्राचीन भारतीय अभिलेख 1. महासेनापतिना मेधुनेन. . .ना छतो। बटि(का). . .केहि (पटिकापालकेहि). . .तो (उपरखितो? )। दता पटिका सव 22 गिपखे. . .दिव 7/ .. तकणिना (सातकनिना? ) कटा। गोवधन-वाथवान फा( सुकाये) विण्हुपालेन स्वामि-वणन णत। नम भगत-सपति-पतपस जिनवरस बुधस। सिद्ध। नवनर स्वामी वासिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि आज्ञा देता है-गोवर्धन (पर्वत) पर अमात्य शिवक्षतिल और हमारे वर्ष 19 ग्रीष्म पक्ष 2 (द्वितीय) दिवस 13 घनकट श्रमणों से जो इस त्रिरश्मि पर्वत पर धर्म का सेतु रूप गुफा पार करने में स्वामी निधि देने हेतु इस गोवर्धन आधार (तल) पर दक्षिण पथ पर ग्राम मेधावी देवि गुफा के निवासी भद्रानीक भिक्षु-निकाय द्वारा प्रतिग्रह (पात्र) दिया। मेधावियों के इस दान के ग्राम के परिवर्तन में यहां गोवर्धनाधार के पूर्व मार्ग पर समलिपद ग्राम हमने दिया। ये वे महा ग्रामप्रमुख चावल (धान) के लिए/गीले कपड़ों से धर्म के सेतु गुफा अनुकूल करने में अक्षय नीवि (स्थायी धन) के लिए ग्राम सामलिपद्र देविलेन के निवासी भिक्षुओं को भद्रायक निकाय के जो हों वे लें और यह अपरिवर्तनीय (अहस्तांतरणीय) है। इस सामलिपद्र ग्राम के भिक्षुओं की खेती के परिहार के लिए हम वितरण करते हैं (आदेश देते हैं) कि किसी का प्रवेश न हो-न मापने वाले पटवारी का, न नमक खोदने वालों का, न राजा के प्रतिनिधि (राष्ट्रिक) का, समस्त लोगों का निषेध। इन निषेधों में यह समलिपद ग्राम-परिहारों से यहां जुड़े सुदिसन ग्राम है। सुदसिन प्रतिबन्धित है निर्माल्य के समान। महासेनापति ने बिना छत्र, बिना लगान के दिया। पट्टा दे दिया सो (सब) ख्यात (और ज्ञात) हो। 11 ग्रीष्म पक्ष में दिन 7. . . (चावल का) कण किया। गोवर्धन निवासी अचेतनवत् विष्णुपाल स्वामी के सामने नत है। भक्त की संपत्ति के प्रताप जिनवर बुद्ध को प्रणाम। 3. For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मालव का नान्दसा यूप- लेख 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 75 मालव का नान्दसा यूप - लेख ' नान्दसा - उदयपुर राज्य के सहारा जिले में नान्दसा ग्राम। भाषा - प्राकृत प्रभावित संस्कृत, लिपि - ब्राह्मी - कृत संवत् 282 (225 ई० ) सिद्धम् । कृतयोर्द्वयोव्वर्षशतोर्द्वय शीतयोः 200 + 80 (2 चैत्र पूर्णमासीं ) (स्या)मस्याम्पूर्व्वायात्रमहता स्वशक्तिगुणगुरुणा पौरुषेण प्रथम चन्द्रदर्श ( नमिव मा ( लवगणविषयमवतार ) - यित्वैकषष्टिरामतिसत्रमपरिमितधर्म्ममात्रसमुद्धृत्त्य (त्य) पितृपैतामहि ( ही )न्धुरमावृत्त्य (त्य ) सविपुलं द्यावापृथिव्योरन्तरमनुत्तमेन (यशसा ) (स्वकर्मसंपादया विपुलां समु ) पगतामृद्धिमात्मसिद्धिं वितत्यमायामिव सत्रभूमौ सर्व्वकामौघधारां वसोद्धरमिवब्ब्राह्मणाग्निवैश्वानरेषु हुत्वा । ब्रह्मेन्द्र - प्रजापतिमहर्षि विष्णु(स्थानेषु कृतावकाशस्य पापानि ) निरवकाशस्य सितसभावसथतडाककूपदेवायतनयज्ञदानसत्यप्रजाविपुल - पालनप्रसंग: पुराणं (ण) राजर्षिधर्मपद्धति (ति) सतत कृतसमनुगमन निश्च( यस्य स्वगुणातिशय विस्तरैर्मनु ) निर्व्विशो ( शे ) षमिव भुवि मनुष्यभावं यथा यथार्थमनुभवत इक्ष्वाकुप्रथितराजर्षिवंशे मालववंशे प्रसूतस्य जयवर्तन पु( प्र )र्भा - (भा)ग्र ( ? )वर्द्धनपौत्रस्य जयसोमपुत्रस्य सोगिने (तुः ) श्री ( ? ) सोमस्यानेकशतगोसहस्र For Private And Personal Use Only दक्षिणा । वृषप्रमत्तशृंङ्ग विप्रघृष्टचित्यवृक्षयूपसंकटतीरो (रे) पुष्करप्प्रतिलम्भभूते स्वधर्मसेतौ महा( तडाके यूपप्रतिष्ठा कृता ( । ) इण्डियन एक्टिo, 58, पृ० 53 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 1. 2. 3. सिद्ध हो। कृत (संवत्) 282 के चैत्र की इस पूर्णमासी को अपनी शक्ति के गुण से प्रवृद्ध महान् पौरुष से चन्द्र के प्रथमदर्शन के समान मालवगण के विषय (राज्य) में अवतार लेकर अमित धर्म से एकषष्टिरात्र यज्ञ सम्पन्न करके पितृ-पितामह के काल से सतत आगत (धर्म)धुर की विपुल यात्रामें आवृत्ति करके पृथ्वी से स्वर्ग के मध्य उत्तम यश से स्वकर्म सम्पादन से उपलब्ध आत्मसिद्धि रूप ऋद्धि का यज्ञ भूमि में माया के समान वितान करके, सारी कामनाओं की धारा धन-प्रवाह के समान ब्राह्मण, अग्नि तथा वैश्वानर (जठराग्नि अथवा परमात्मा) में हवन करके ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, महर्षि, विष्णु को स्थान देकर पाप का (मूलतः) समाप्त कर्ता; आवास (धर्मशाला) के लिये श्वेत सभा भवन, तालाब, कूप, मन्दिर, यज्ञ, दान तथा प्रजा का अमित पालन करके, राजर्षि की धर्म पद्धति का सतत अनुगमन करने का निश्चय करके, अपने गुणों के अत्यन्त विस्तार से (ऐसा प्रतीत होता है) जैसे साक्षात् मनु पृथ्वी पर मनुष्य रूप में (प्रस्तुत होकर)वैसा ही अनुभव करते हुए इक्ष्वाकु के प्रसिद्ध राजर्षिवंश मालववंश में उत्पन्न कान्ति के सर्जक प्रभारवर्धन के पौत्र जयसोम के पुत्र सोगिनेता श्रीसोम ने अनेक लाख गायें तथा चौराहे के (विशाल) वृक्ष से (अपने) शृंग का घर्षण करने वाले मस्त बैल दक्षिणा स्वरूप देकर, यूप संकट के तट उपलब्ध अपने धर्म के सेतुभूत महातडाग पुष्कर के तट पर यूप की प्रतिष्ठा की। For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मौखरी महासेनापति बल के पुत्रों के तीन बड़वा 1. 1. 1. 2. 1. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौखरी महासेनापति बल के पुत्रों के तीन बड़वा पाषाण यूप लेख बड़वा - कोटा राज्य का ग्राम ( नान्दसा से 70 मील पूर्व में) भाषा - प्राकृत प्रभावित संस्कृत लिपि - ब्राह्मी, कृत 295 (238 ई० ) प्रथम लेख सिद्धं । क्रितेहि 200 (+) 90 (+) 5 फ (T) गुण शुक्लस्य पञ्चे दि श्रि महासेनापतेः मौखरेः बलपुत्रस्य बलवर्द्धनस्य यूप: ( ? ) त्रिरात्रसमितस्य दक्षिण्यं गवां सहस्रं ( 1000 ) (1) द्वितीय लेख 77 सिद्धं (?) क्रितेहि 200 (4) 90 (+) 5 फ( 1 ) ल्गुण शुक्लस्य पञ्चे दि श्रीमहासेनापतेः मोखरेः बलपुत्रस्य सोमदेवस्य यूप: ( ? ) त्रिरात्र संमितस्य दक्षिण्यं गव(i) सह (स्रं) (1000) (1) ए० इ० 23, पृ० 52 तृतीय लेख क्रितेहि 200 ( + ) 90 (+) 5 फ ( 1 ) ल्गुण शुक्लस्य पञ्चे (f)द श्री महासेनापते ( : ) मोखरे र्बलपुत्रस्य बलसिंहास्य यूपः । त्रिरात्रसंमितस्य दक्षिण्यं गवां सहस्र (1000) (1) For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 78 प्राचीन भारतीय अभिलेख सिद्ध हो। कृत (संवत्) 295 के फाल्गुनशुक्ल 5वें दिन श्रीमहासेनापति मोखरि बलपुत्र बलवर्धन का यूप (स्थापित किया गया)। तीन रात तक एक सहस्र गायें दक्षिणा में दीं। 2 सिद्ध हो। कृत (संवत्) 295 के फाल्गुन शुक्ल 5वें दिन श्रीमहासेनापति मोखरि बलपत्र सोमदेव का यूप (स्थापित किया गया)। तीन रात तक एक सहस्र गायें दक्षिणा में दीं। 1. 2. कृत (संवत्) 295 के फाल्गुनशुक्ल 5वें दिन श्रीमहासेनापति मोखरि बलपुत्र बलसिंह का यूप (स्थापित किया गया)। तीन रात तक एक सहस्र गायें दक्षिणा में दीं। For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वीरपुरुषदल का नागार्जुनकोण्डा लेख 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वीरपुरुषदत्त का नागार्जुनकोण्डा लेख' नागार्जुनकोण्डा ( आन्ध्रप्रदेश ) भाषा - प्राकृत लिपि - तृतीय शती की दक्षिण भारतीय ब्राह्मी - बाधिनो सवंजुनो सिधं (1) नमो भगवते देवराज- सकतस सुपबुधसवसतानुकंपकस जितरागदोसमोहविपमुतस महागणिवसभ (i) धहधिस संमसं (बुध) स धातुवरपरिगहितस (1) महाचेतिये महाराजस विरूपखपति - महासेन परिगहितस हिरणकोटिगोसतसहस- हलस तसह (म) दायिस सवथेसु अपतिहतसंकपस वासिठिपुतस इस्वाकुस सिरियातमूलस सोदरा भगिनि रंञो माढरीपुतस सिरि विरपुरिसदतस पितुछा महासेनापतिस महातलवरस वासिधीपुतस पूकीयानं कंदसिरि ( स ) 79 भरिया समण-मण-कवण-वनिजक दीनानुगह वेलामिकदानपटिभागवो- छिनं धारपदायिनि सवसाधुवछला महादानपतिनि महातलवरि खंदसागरंनक- माता 1. ए०ड० 20, पृ० 16 10. च ( 1 ) तिसरि अपनो उभयकुलस अतिछितमनागतवटमानकानं परिनामेतुनं 11. उभयलोकहितसुखावहथनाय च अतनो च निवाणसपतिसंपादके 12. सवलोकहितसुखावहथनाय च इमं खंभं पतिथपितं ति ( । ) 13. रजो सिषि वीरपुरिसदतस सव 6 वा प 6 दि 10 (1) For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 1. सिद्ध हो। भगवान को प्रणाम जो देवराज के समान शक्त समर्थ है, जिन्हें प्रबुद्ध बोध प्राप्त हुआ, जो सर्वज्ञ हैं, जो सारे प्राणियों पर दया करते हैं, जो राग (जनित) दोष, मोह से मुक्त हैं, अनेक वृषभों में जो गन्धहस्ती के समान हैं (अनेक शिष्य तथा महाचार्यों में प्रधान) जो सम्यक् सम्बुद्ध है तथा जिन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया है। इस महाचैत्य में विरूपाक्षपति महासेन के द्वारा परिगृहीत; एक करोड़ स्वर्ण (मुद्रा), एक लाख गो, एक लाख हल का दाता, सर्वत्र अबाध संकल्पशाली वासिष्ठीपुत्र इष्वाकु (वंश के) श्रीशान्तमूल की सोदरा बहिन, राजा माठरीपुत्र श्री वीरपुरुषदत्त की 7. बुआ, महासेनापति महातलवर (राजा के द्वारा प्रदत्त पट्ट-बन्ध से विभूषित राजस्थानीय) वासिष्ठीपुत्र, पूकीय वंश के स्कन्दश्री की भार्या, श्रमण-ब्राह्मण-दीन-दुर्गतिशील-दीनानुग्रह-वैलामिक (वेलामा नामक दानचातुरी सम्बद्ध) दान-प्रदान में धारा प्रवाहित करने वाली, सारे साधुजनों की स्नेहिल, महादानपति की पत्नी, महातलवर की पत्नी, स्कन्दसागर की माता शान्तिश्री ने अपने दोनों कुल का, भूत-भविष्य-वर्तमान (के कल्याण) के उद्देश्य से 11. दोनों लोक के हित-सुख की प्रार्थना के लिये और 12. सब जनों के हित सुख की प्रार्थना के लिये अपने निर्वाण के सम्पादन कारक इस स्तम्भ की प्रतिष्ठा करवायी। 13. राजा श्री वीरपुरुषदत्त के छठे वर्ष के वर्षा के छठे पक्ष (आश्विन शुक्ल पक्ष) के दसवें दिन। For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्ध्यशक्ति द्वितीय का बासिम ताम्रपत्र 81 विन्ध्यशक्ति द्वितीय का बासिम ताम्रपत्र बेसिम-जिला अकोला, महाराष्ट्र भाषा-संस्कृत-प्राकृत लिपि-दक्षिणी ब्राह्मी, चौथी शती प्रथम पत्र [दृष्टम्][1] सिद्धम् [1] 1. वत्सगुल्माद्धर्ममहाराजस्याग्निष्टोमा]प्तो-मवाजपेयज्यो-[ति] 2. [ष्टोमबृहस्पतिसवसाधस्क्रचतुरष्वमेधयाजिनस्सम्राज (:)वृ ष्णिवृद्धसगोत्रस्य हारितीपुत्रस्य श्री प्रवरसेन पौत्रस्य धर्ममहार(राजस्य श्रीसद्धसेनपुत्रस्य धर्ममह[1] राजस्य 5. वाकाटकाना[म्] श्रि विन्ध्यशक्तवचनात् नान्दीकडस उत्तरम [ मो] द्वितीय पत्र सामने ___ भाकालक्खोप्पकान्भासे आकाशपद्देसु आ म्ह ] सन्तका साव्वा (द्धक्खनि) योगनि__ युत्ता आणत्तिभडा सेसायसाञ्चरन्तरलपुत्ता भाणितव्वा [।] आम्हेहि 8. दाणि आपुणो विजयवेजयिके आयुबलवद्धणिके [स्व स्ति9. शान्तिवाचने इहामुत्तिके धाम्मत्थाणे एत्थङ्गामे आधिव्वणिकचर 10. णस्स आद्धक। भालन्दायण सगोत्तेसि [ सि] तुज्जेसि कापिञ्जल द्वितीय पत्र पीछे 1. इण्डियन हिस्टोरियल क्वार्टर्ली, 16, पृ० 182,17 पृ० [10 For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 11. सगोत्तेसि। रुद्दज्जेसि। श्राविष्ठायणसगोत्तेसि। भाट्टिदेवजेसि 12. कोसि[क]सगोत्तेसि।देसुजेसि।कोसिकसगोत्तेसि।वेण्हुज्जेसि। 13. कोसीकसगोत्तेसि। विधिज्जेसि।पैत्पलादिसगोत्तेसि पितु14. जेसि मालन्दायणसगोतेसि चान्दजेसि कोसिकसगोत्तेसि जेठजे15. सि। पडेहि दोहि भालन्दायणसगोत्तेसि बुद्धजेसि कोसिकसगोत्तेसि तृतीय पत्र सामने 16. भाद्दिलज्जेसि।कोसिकसगोत्तेसि। सिवजेसि। कोसिकसगोत्तेसि 17. हरिण्णजेसित्ति एताण बाम्हणाण भागा ति[णिण ]3 कोसिकसगोत्ते [सि] 18. रेवतिजेसि। भागो। चउत्थोत्ति आचन्दादिच्चकालको अपुव्व द19. त्तिय दत्तो [I] पुव्वरायणुमते यसे चातुव्वेज्जग्गाममज्जात[] परिहारे वितराम[1] तजथा अरट्ठसंविणेयिका अलवण [ क्ले ] ण्णखातकाअ हिरण्ण धा [ण्ण] तृतीय पत्र पीछे 21. प्पणयप्पदेय। अपुष्फक्खीरग्गहणि। अपारम्परगोबलिवई 22. अवारसिद्धिक।अचम्मङ्गालका अभढप्पावेस। अखट्टाचोल्लकवेणे23. सिक। अकरद। अवह। सनिधि। सोपनिधि। सकुतुप्पान्त। 24. समञ्चमहाकरण। साव्वजातिपरिहारपरिहितञ्च [1] जतो उपरिलि 25. खित। शासणवादम्पमाण करेत्ता रक्खध रक्खापेधय परिहरध चतुर्थ पत्र 26. परिहरापेधय [1] जो बु [आ] बाधं करेन्ज कतव्व [अ]नुव [ म] पण [ति] 27. तिस्स [ए] तेहि। उपरिलिखितेहि। बाम्हणेहि। परिञपिते स [दण्ड 28. निग्रह करेज्जामेत्ति [1] साव्वच्छरं 30 (+) 7 हेमन्तपक्खं पढम 29. [दि]व[स]5 [1] स मुहाण्णत्थि[1] लीखितमिमं शासनं सेणपतिणा 30. वण्हुणं (वेण्हु) इति॥ सिद्धिरस्तु॥ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्ध्यशक्ति द्वितीय का बासिम ताम्रपत्र 83 (1) (प्रथम पत्र) सुपरीक्षित (यह आदेश)। सिद्धि हो। 1. वत्सगुल्म से धार्मिक महाराज, अग्निष्टोम, याम, वाजपेय, ज्योतिष्टोम, 2. बृहस्पतिसव तथा साद्यस्क्र (शीघ्र सम्पन्न होने वाले) चार अश्वमेध करने वाले; विष्णुवृद्ध के सगोत्र हारीती (हारीत गोत्र की माता) के पुत्र, श्री प्रवरसेन के पौत्र, धर्म (धार्मिक) महाराज श्री सर्वसेन के पुत्र, धर्म महाराज 5. वाकाटक वंश के श्रीविन्ध्यशक्ति की आज्ञा से नान्दीकट (नान्देड) के उत्तरी पथ पर. . . (2) (द्वितीय पत्र : पूर्व भाग) 6. नान्दीकट के उत्तरी मार्ग (क्षेत्र) पर भाका, लक्षा तथा उप्रका के निकट आकाशपद्र (ग्रामसमूह) में मुझ से सम्बद्ध सारे कर्तव्यस्थ (अधिकारी), आदेश प्रसारित करने वाले तथा अन्य उच्च कुलीन गुप्तचर को भी कहा जाय। हम अब विजयलाभ के लिये, आयु तथा बल वृद्धि के लिये, शुभ, तथा शान्ति के लिये, इस लोक तथा परलोक (में मंगल) के लिये इस धार्मिक भूमि वाले गांव में आथर्वण (अथर्ववेदी) ब्राह्मणों के लिये नियत (प्रदत्त आकाशपद्रक ग्राम) का 10. आधा भाग भालन्दायन के सगोत्र सीत्वार्य, कापिञ्जल के. . . (द्वितीय पत्र : अपर भाग) 11. सगोत्र रुद्रार्य, श्रविष्ठायण के सगोत्र भर्तृदेवार्य । कोशिक के सगोत्र देश्वार्य, कौशिक के सगोत्र विष्ण्वार्य 13. कौशिक के सगोत्र विध्यार्य, पैप्पलादि के सगोत्र के पित्रार्य 14. भालन्दायन के सगोत्र चन्द्रार्य, कौशिक के सगोत्र ज्येष्ठार्य, 15. भालन्दायन के सगोत्र बुद्धार्य, कौशिक के सगोत्र (3) (तृतीय पत्र : पूर्वभाग) 16. भद्रिलार्य, कौशिक के सगोत्र शिवार्य, कौशिक के सगोत्र हिरण्यार्य, इन ब्राह्मणों को (आधे गांव के) तीन भाग दिये। कौशिक सगोत्र 18. रेवत्यार्य को (अवशिष्ट) चौथा भाग। यह सब सूर्य चन्द्र की अवधि तक For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 84 प्राचीन भारतीय अभिलेख के लिये अपूर्व 19. दान विधि से दिया। पूर्व नृपों के (द्वारा प्रदत्त) अनुसार इस चतुर्वेदी ब्राह्मण से युक्त ग्राम के लिये उचित परिहार। (छुट अथवा गांव के चारों ओर सौ धनुष का क्षेत्र') देते हैं। 20. सो यहां न राष्ट्र के प्रशासक प्रशासन करें, यहाँ नमक से गीली (खान) न खोदें, ये स्वर्ण, धान्य, (तृतीय पत्र : अपर भाग) 21. भेंट आदि न दें, (राजा के लिये) पुष्प, दूध आदि न लें, (दूध के लिये) गाय तथा (गाड़ी के लिये) बैलों के समूह (शासकीय कर्मचारी) न लें; 22. वारी (Turn) पर नियोग (duty) न हो, (अश्व की जीन के लिये) न तो चर्म तथा न कोयले लिये जायें, सैनिक प्रवेश न करें, (दौरे पर गये अधिकारी) खाट, पाक-पात्र तथा बेगार न लें, वे न कर दें, मुफ्त में भारवहन न करें। प्रच्छन्न एवं संचित निधि, निर्धारित सीमा, 24. (शासकीय अथवा सार्वजनिक कार्यों के लिये) निर्मित विशाल चबूतरे, आदि हर प्रकार की छूट दी गयी। ऊपर लिखे अनुसार 25. शासकीय लेख को प्रमाण मानकर (इस दान की) रक्षा करो तथा करवाओ, (इसे हर प्रकार से) मुक्त रखो (4)(चतुर्थ पत्र) 26. तथा मुक्त रखवाओ। जो (इस आदेश में) बाधा डाले अथवा बाधा डालने से सहमत होगा, 27. उसे हम उपर्युक्त ब्राह्मणों के द्वारा सूचित करने पर दण्ड से अनुशासित करेंगे। संवत् 37, हेमन्त (मार्गशीर्ष) का प्रथम (कृष्ण) पक्ष का 29. पांचवां दिन। (राजा ने यह) आदेश अपने मुख से दिया है। यह आदेश सेनापति 30. विष्णु ने लिखा। सिद्धि हो। 1. धनुः शतं परीहारो ग्रामस्य स्यात्समन्ततः। मनुस्मृति, 8/237 For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख ७ प्रयाग (उ०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-गुप्तकालीन ब्राह्मी (चौथी सदी) 1. यः कुल्यैः (?)... .स्वै. . .तस. . . । 2. (यस्य?). . . . . .(॥) (1) 3. .... पुं (?) व....त्र... 4. (स्फु) रद्धं (?)... क्षः स्फुटो(वं )सित. . . प्रवितत .. ..(॥) (2) __ यस्य (प्रज्ञानु)षङ्गोचित-सुख-मानसःशास्त्र-त (त्त्वा)qभर्तुः .. .स्तब्धो. . .नि....नोच्छ.. . . (1) 6. (स) काव्य-श्री-विरोधान्बुध-गुणित-गुणाज्ञहतानेव कृत्वा (वि) द्वल्लोके (5) वि (नाशि?) स्फुटबहुकविताकीर्तिराज्यं भुनक्ति (1) (3) 7. (आ)ो हीत्युपगुह्य भाव-पिशुनैरुत्कर्णिणतैः रोमभिः सभ्येषूच्छ्वसितेषु तुल्य-कुलज-म्लानानाद्वीक्षितः (।) 8. (स्ते) ह-व्याकुलितेन बाष्य-गुरुणा तत्त्वेक्षिणा चक्षुषा यः पित्राभिहितो (निरीक्ष्य) निखि(लां) (पायेव ) मुर्वी )मिति (॥) (4)। 9. (द)ष्ट्वा कर्माण्यनेकान्यमनुज-सदृशान्यद्भु- तोदिभन्न हर्षाभ(1) वैरास्वदय (न्त). . (के) चित् (।) 1. कार्पस 3, पृ. 1-17 85 For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. वीर्योत्तप्ताश्च केचिच्छरणमुपगता यस्य वृत्ते (5) प्रणामे (5) प्यार्ति? )?( ग्रस्तेषु?). . . (1) (5) 11. संग्रामेषु स्व-भुजविजिता नित्यमुच्चापकाराः श्वः श्वो मानप्र.. () 12. तोषोत्तुंगैः स्फुट-बहु-रस-स्नेह-फुल्लै-मनोभिः पश्चात्तापं व. . . (मं ?) स्य [I]द्वसन्त( म्?) (1) (6) 13. उद्वेलोदित-बाहु-वीर्य-रभसादेकेन येन क्षणादुन्मूल्याच्युत नागसेन-ग.(णपत्यादीन्नृपान्संगरे?) 14. दण्डैाहयतैव कोतकुलजं पुष्पाह्वये क्रीड़िता सूर्येने(णे) (?) नित्य (?). . .तट . . .(7) 15. धर्म-प्राचीर-बन्धः शशि-करशुचयः कीर्तयः सप्रताना वैदुष्यं तत्त्वभेदि-प्रशम. . .कु. . .य. . .मु (सु?) तार्थम् ? 16. (अद्ध्येयः)सूक्त-मार्गः कवि-मति-विभवोत्सारणंचापि काव्यं को नु स्याद्यो( 5 )स्य न स्याद्गुण इति (वि)दुषां ध्यानपात्रं य एकः ॥ (8) 17. तस्य विविध-समर-शतावतरण-दक्षस्य-स्वभुज-बल पराक्क्रमैकबन्धोः पराक्क्रमाङ्कस्य परशु-शर-शाङ्कु शक्ति-प्रासासि-तोमर18. भिन्दिपाल-न()राच-वैतस्तिकाद्यनेक-प्रहरण-विरुढाकुल व्रण-(शतांकशोभा-समुदयोपचित-कान्ततर-वर्मण:19. कौसलकमहेन्द्रमाह()कान्तारकव्याघ्रराज-कौरालकमण्टराज पैष्टपुरक-महेन्द्रगिरि-कौटूरकस्वामिदत्तैरण्डपल्लकदमनकांचेयकविष्णुगोपावमुक्तकनीलराज-वैङ् गेयकहस्तिवर्म-पालक्कोग्रसेनदैवराष्ट्रककुबेरकौस्थलपुरक-धनंजय-प्रभृति सर्वदक्षिणापथ राज-ग्रहण-मोक्षानुग्रह-जनित-प्रतापोन्मिश्र-माहाभाग्यस्य 20. For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख 87 21. रुद्रदेव-मतिल-नागदत्त-चन्द्रवर्म-गणपतिनाग-नागसेना च्युत-नन्दि-बल-वाद्यनेकाऱ्यावर्तराज-प्रसभोद्धरणोद्धृत प्रभाव-महतः पारिचारकीकृत-सर्लाटविक-राजस्य 22. समतट-डवाक-कामरूप-नेपाल कर्तृपुरादि-प्रत्यन्त-नृपति भिर्माल-वार्जुनायन-यौधेय माद्रकाभीर-प्रार्जुन-सनकानीक काक-खरपरिकादिभिश्च-सर्वकरदानाज्ञाकरण-प्रणामागमन23. परितोषित-प्रचण्डशासनस्य अनेकभ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत-निखिल-भु(व)न(विचरण-शा)न्त-यशसः दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि- शकमरुण्डैः सैंहलकादिभिश्च 24. सर्व-द्वीप-वासिभिरात्मनिवेदन-कन्योपायनदान-गरुत्मदक स्वविषय-भुक्तिशासन-(या)चनाद्युपाय-सेवा-कृत बाहु-वीर्य- प्रसर-धरणि-बन्धस्य-पृथिव्यामप्रतिरथस्य 25. सुचरित-शतालंकृतानेक-गुण-गणोत्सिक्तिभिश्चरणतल प्रमृष्टान्य-नरपति-कीर्ते: साद्ध्वसाधूदय-प्रलय-हेतुपुरुषस्याचिन्त्यस्य भक्त्यवनति-मात्रग्राह्य-मृदुहृदयस्यानुकम्पाव तोनेकगो-शतसहस्र-प्रदायिनः 26. कृपण-दीनानाथातुर-जनोद्धरण-सत्रदीक्षाभ्युपगत-मनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य धनद-वरुणेन्द्रान्तक-समस्य स्वभुज-बल-विजितानेक-नरपति-विभव-प्रत्यर्पणा नित्यव्या पृता-युक्तपुरुषस्य 27. निशितविदग्धमति-गान्धर्व्वललितैीडित-त्रिदशपतिगुरु-तुम्बुरु नारदादे-विद्वज्जनोपजीव्यानेक-काव्यक्क्रियाभिः प्रतिष्ठित कविराज-शब्दस्य सुचिरस्तोतव्यानेकाद्भुतोदारचरितस्य 28. लोकसमय-विक्रयानुविधान-मात्र-मानुषस्य-लोक-धाम्नो देवस्य महाराज-श्री-गुप्त-प्रपौत्रस्य महाराज-श्रीघटोत्कच-पौत्रस्य महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्त-पुत्रस्य 29. लिच्छवि-दौहित्रस्य महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नस्य महाराजा For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 88 प्राचीन भारतीय अभिलेख धिराजश्रीसमुद्रगुप्तस्य-सर्व-पृथिवी-विजय-जनि-तोदय-व्याप्त निखिलावनितलां कीर्तिमितस्त्रिदशपति30. भवन-गमनावाप्त-ललित-सुख-विचरणामाचक्षाण इव भुवो बाहुरयमुच्छ्रितः स्तम्भः। यस्य। प्रदान-भुजविक्क्रम-प्रशम शास्त्रवाक्योदयै-रुपर्युपरि- संचयोच्छ्रितमनेकमार्ग यशः। 31. पुनाति-भुवनत्रयं पशुपते टान्तर्गुहा-निरोध-परिमोक्ष-शीघ्रमिव पाण्डु गांगं पयः॥ (9) एतच्च काव्यमेषामेव भट्टारकपादानां दासस्य समीप परिसर्पणा-नुग्रहोन्मीलित-मतेः 32. खाद्यटपाकिकस्य महादण्डनायक-ध्रुवभूतिपुत्रस्य सान्धिवि ग्रहिक-कुमारामात्य म( हादण्डनाय)क-हरिषेणस्य सर्वभूत हित-सुखायास्तु33. अनुष्ठितं च परमभट्टारकपादानुध्यात-महादण्डनायक तिलभट्टकेन। (जो) अपने वंश के ... 2. (जिसका?) . . . .॥1 3. . . . 5. फड़कते हुए (?). . . स्पष्ट ही नष्ट कर दिया. . .फैला दिया।।2 मेधा (विद्या) प्रति आसक्ति में ही जिसका मन समुचित सुख पाता रहा तथा जो शास्त्र के तत्त्वार्थ (यथार्थ) का अधिकारी वेत्ता है. . .। जो उत्तम काव्य की शोभा के विरोधी (क्षयकारक) (तत्त्वों) को विद्वानों के द्वारा निर्दिष्ट (सत्काव्य के) गुणों से आहत करके विद्वज्जगत् में स्फुट (प्रासादगुणमयी) अनेक कविता (की रचना से उपलब्ध) अक्षय (अमर) कीर्ति-राज्य का भोग कर रहा है। 3 सुख की सांस लेते हुए सभासदों के मध्य, समान (उसी गुप्त) कुल में उत्पन्न जनों के मुरझाये चेहरों के द्वारा देखे जाते हुए जिसे भाव विभोर, रोमाञ्चित, 7. For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख 8. स्नेहाधिक्य के कारण परिवृद्ध आंसुओं से भरी तत्त्वदर्शी डोलती आंखों से हृदय से लगाकर देखते हुए पिता ने यह कहा 'आओ आओ, इसी प्रकार (सम्यक् रूप से) सारी पृथ्वी का पालन करो। 4 कुछ तो उसके अनेक अति (अ)मानवीय जैसे कर्मों को देखकर आश्चर्यान्वित हर्ष (भाव) का आस्वादन करते थे तथा, 10. कुछ उसके प्रताप (शक्ति) से संतप्त होकर दीन बने शरण जाकर प्रणाम करने लगे। 5 11. नित्य (आये दिन) धनुष ऊंचा करने वालों (सामना करने वाले विद्रोहियों अथवा शत्रुओं) को अपने भुजबल से जीत लिया। कल कल मान. . . 12. सन्तोष से उन्नत तथा छलकते अमित रस-भरित स्नेह से प्रफुल्ल मन से (प्रजा जनों ने हृदय में) बसे पश्चात्ताप (का त्याग किया)। 6 13. अपने बढ़े हुए असीम भुजबल के वेग से जिसने एक क्षण में ही अच्युत, नागसेन, ग(णपति आदि नृपों को समर से) उखाड़ फेंका। 14. पाटलिपुत्र में खेल खेल में ही (लीलया अथवा क्रीडानिरत) समुद्रगुप्त ने सेना से कोत कुल में उत्पन्न राजा को बन्दी बनवा लिया। 7 15. जो धर्म की प्राचीर बांधने वाला (धर्म को प्राचीर या सीमा में बांधने वाला) है तथा जिसकी चन्द्रमा की किरणों के समान अमल कीर्ति फैल रही है, जिसकी विद्वत्ता (की पहुंच यथार्थ तक) तत्त्वभेदिनी है। 16. जो वैदिक पथ (ग्रन्थों) का अध्येता है और जिसका काव्य कवियों के बुद्धि वैभव (कवि के अहं) को चूर चूर करने वाला है। एक भी ऐसा कौन सा गुण है जो इसमें नहीं है और (इसीलिये) यह पारंगत विद्वानों का भी एकमात्र ध्यानपात्र (स्मरणीय अथवा आदर्श) बन गया है। 8 17. जो विविध समर (प्रांगण) में सैकड़ों बार उतरने में पटु है, जिसका अपना भुजबल तथा पराक्रम ही एकमात्र बन्धु, जो पराक्रमाङ्क है, जिसकी काया की कान्ति कुठार, तीर, शूल, शक्ति (बी), भाला, तलवार, तोमर (लोहदण्ड), 18. छोटा भाला (गुप्ति?) अथवा गोफण, लोहशल्य का बाण, वैतस्तिक (आयुध) आदि के अनेक प्रहार से उत्पन्न सैंकड़ों गम्भीर घावों के चिह्नके शोभा-समूह के उदय से बढ़ गयी है, For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 19. 20. 21. कौसल (दक्षिण कौसल) के (स्वामी) महेन्द्र, माहाकान्तार (वन्य प्रदेश) के (स्वामी) व्याघ्रराज, कौरल (संभवतः एलोरे के निकट कौलेर झील, जिला पश्चिमी गोदावरी) के (स्वामी) मण्टराज, पैष्टपुर (पूर्वी गोदावरी जिले का पीठापुरम) के (स्वामी) महेन्द्रगिरि, कोटूर (सम्भवतः गंजाम जिले में महेन्द्रगिरि का निकटवर्ती कोथूर) के (स्वामी) स्वामिदत्त, ऐरण्डपल्ल (गंजाम तथा विशाखापट्टनम् जिले का कोई भाग) के (स्वामी) दमन, कांची (काजिवरम्) के (स्वामी पल्लवराज) विष्णुगोप, अवमुक्त (गोदावरी के पास? ) के (स्वामी) नीलराज, वैङ्गी के (स्वामी शालङ्कायन ) हस्तिवर्मा, पालक्क (सम्भवतः नेल्लोरे क्षेत्र के पलक्कड) का (स्वामी) उग्रसेन, देवराष्ट्र (विशाखापट्टनम् जिले का येल्लमञ्चिलि क्षेत्र) का (स्वामी) कुबेर, कुस्थलपुर (सम्भवतः उत्तरी अर्काट जिले का कुत्तलुर) के (स्वामी) धनञ्जय इत्यादि सारे दक्षिणापथ के राजा बन्दी बनाकर मुक्त किये जाने की कृपा से उत्पन्न प्रताप से मिश्रित (विचित्र) महाभाग्यशाली, रुद्रदेव (सम्भवतः पश्चिम भारत का शकराज रुद्रसेन तृतीय), मतिल (उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले से प्राप्त एक सील पर सम्भवत: इसी का नाम है), नागदत्त (सम्भवत: पुण्ड्रवर्धन के राज्यपाल दत्तों का पूर्वज चन्द्रवर्मा संभवतः सुसुनिया लेख में उल्लिखित नृप), गणपतिनाग (पद्मावती पवाया) का नाग राजकुमार (जिसके यहां से सिक्के भी मिले हैं), नागसेन (पवाया का नाग कुमार, सम्भवतः इसी की मृत्यु का उल्लेख हर्षचरित में है), अच्युत (अहिच्छत्र, बरेली जिले के रामनगर से इस नाम के राजा के सिक्के प्राप्त हुए हैं), नन्दी, बलवर्मा आदि आर्यावर्त के नृपों को बलपूर्वक उखाड़ कर अपने अमित प्रभाव को बढ़ाया। जिसने सारी जंगली प्रदेश (जबलपुर क्षेत्र सहित मध्य देश के सम्भवतः अट्ठारह राज्य) के राजाओं को अपने सेवक (अधीनस्थ) बना लिये; समतट (दक्षिण पूर्वी बंगाल), डवाक (आसाम के नओ गोङ्ग जिले का डबोका), कामरूप (आसाम का गौहाटी क्षेत्र), नेपाल, कर्तृपुर (कुमायूं, गढ़वाल और रुहेलखण्ड का कतुरिया अथवा जालन्धर जिले का करतारपुर) आदि सीमापवर्ती (राज्यों के) नृपों ने तथा मालव (पश्चिम मालवा), द्रष्टव्य संक्षोभ का खोह अभिलेख, c.i.i, III पृ०114 22. For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख 91 आर्जुनायन (मथुराक्षेत्र में इनके सिक्के मिले हैं), यौधेय (भरतपुर का क्षेत्र तथा सतलज के तट पर जोहियाबाज के निवासी, मद्रक (मूलत: शाकल वासी), आभीर (अपरान्त वासी), प्रार्जुन (मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के निवासी), सनकानिक (पूर्वी मालव के निवासी), काक (सम्भवतः काकनादबोट (सांची क्षेत्र) के निवास, खरपरिक (दमोह जिले के निवासी?) आदि (जाति अथवा इसके नृपों) ने सारे कर देकर, आज्ञाकारी एवं उपस्थित होकर प्रणाम करके प्रचण्ड (प्रतापशाली) शासक को सन्तुष्ट किया, अनेक उच्छिन्न राज्यों के विनष्ट (उजड़े) राजवंशों को पुनः (अपने राज्य में) स्थापित कर सारी पृथ्वी पर फैलता हुआ आश्चर्यकारी एवं शान्त यश प्राप्त किया। दैवपुत्र षाहि षाहानुषाहि शक-मुरुण्ड (अथवा शक एवं मुरुण्ड) तथा सिंहल (जावा, सुमात्रा!) आदि 24. सारे द्वीप के निवासियों ने आत्म समर्पण तथा कन्याएँ (स्वयं) लाकर दान कर (गुप्तों के राजकीय) चिह्न से युक्त अपने विषय (प्रदेश) के उपभोग एवं (उस पर) शासन करने की याचना की। (इन) उपायों से उसकी सेवा प्राप्त करते हुए उसने अपने भुजबल के प्रसार से (सारी) धरती को बांध लिया, पृथ्वी का (अप्रतिद्वन्द्वी) बेजोड़ योद्धा, 25. सैकड़ों सुचरितों से शोभित अनेक गुण-समूहों के सिञ्चन से अन्य नृपतियों की कीर्ति को पैरों (चरण तल से) रौंदने (पौंछने) वाला; सज्जनों की उन्नति तथा दुष्टों को नष्ट करने में जो विष्णु है, भक्ति से अवनत होने मात्र से जिसका कोमल हृदय वशीभूत हो जाता है, जो दयावान् है तथा लाखों गायें दान करने वाला है। 26. असहाय, दीन, अनाथ, दुःखी जनों के उद्धार की मन्त्रदीक्षा में जिसका मन प्रबल रूप से लगा है, जो सशरीर (साक्षात्) लोकानुग्रह (जन-कल्याणकारी) है, जो कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा यमराज के समान है, अपने भुजबल से विजित अनेक नृपों से उपहार में प्राप्त वैभव (को समेटने) में जिसके अधिकारीगण नित्य लगे रहते हैं। 27. बुद्धि की तीक्ष्णता एवं विद्वत्ता, गान्धर्व (संगीत) आदि लालित्य से जो 1. लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणोः। रघुवंश, 10/31 For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प प्राचीन भारतीय अभिलेख क्रमशः बृहस्पति, तुम्बुरु (एक गन्धर्व), नारद आदि को लजाने वाला है, विद्वानों के लिये उपजीव्य (स्रोत) भूत अनेक काव्यों की रचना से जिसने 'कविराज' शब्द को प्रतिष्ठित किया है, चिरकाल तक स्तुति (प्रशंसा) करने योग्य अद्भुत एवं उदार चरित से सम्पन्न, लोकाचार के अनुरूप कर्म सम्पन्न करने के लिये ही जो मानव है (अन्यथा) मृत्युलोक में बसा हुआ वह देवता है। महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र, महाराज श्रीघटोत्कच का पौत्र, महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त का पुत्र, 29. लिच्छवि (कुल) का दौहित्र महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्त का, सारी पृथ्वी के विजय से उत्पन्न अभ्युदय से सारी पृथ्वी पर व्याप्त एवं इन्द्र के 30. भवन तक पहुंच कर (स्वर्ग में) विचरने का ललित (मनोरम) सुख पाने वाली कीर्ति को मानो व्यक्त करता हुआ यह स्तम्भ पृथ्वी के बाहु के समान (उन्नत) खड़ा है। जिस (समुद्रगुप्त) के दान, बाहु के विक्रम, शान्ति (स्वस्थचित्तता), धर्मशास्त्रीय वाणी आदि के आविर्भाव से, सामूहिक उन्नति तथा अनेक पथ से प्राप्त होने वाला यश (सतत) ऊपर की ओर बढ़ता हुआ 31. शिवजी की जटा के अन्दर की गुफा में रुककर वेग से निकलने वाले पाण्डु (भूरे) वर्ण के गंगाजल के समान त्रिभुवन को पवित्र कर रहा है। और यह काव्य इन्हीं भट्टारक (श्रद्धेय) के चरणों के दास, निकट-वास से उपलब्ध अनुग्रह से विकसित बुद्धि वाले खाद्य-टपाकिक (सम्भवतः खाद्यविभाग अथवा रसोई का अधिकारी), महादण्डनायक (सेनाध्यक्ष) ध्रुवभूति के पुत्र सान्धिविग्रहिक (विदेश मन्त्री), कुमारामात्य (अधिशासी अधिकारी- Executive officer), महादण्डनायक (सेनापति) हिरषेण के द्वारा विरचित सारे प्राणियों के कल्याण एवं सुख के लिये हो। 33. और परमभट्टारक (समुद्रगुप्त) के चरणलीन महादण्डनायक (सेनाध्यक्ष तिलकभट्ट ने (इसे लिखने का) अनुष्ठान किया। 32. For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुद्रगुप्त का नालन्दा अभिलेख नालन्दा-(बिहार) भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्मी (चौथी सदी) 1. ओं स्वस्ति (।) महानौ-हस्त्यश्व-जयस्कन्धावारानन्दपुर-वासका (त्स)वरा( जोच्छे )त्तु( :) पृथिव्यामप्रतिरथस्य चतुरुदधिसलि (लास्वा)2. दित-यशसो धनदवरुणे(न्द्रा)न्त(क )समस्य कृतान्त परशोायागतानेकगोहिरण्यकोटिप्रदस्य चिरोत्स(ना)श्वमेधाहर्तुमहाराजश्रीगुप्त )प्रपौत्रस्य महाराजश्री घटोत्कचपौत्रस्य महारा( जाधि )राज( श्रीचन्द्रगुप्त )पुत्रस्य लिच्छविदौ(हि त्रस्य महादेव्यकुमारदेव्यामुत्पन्नः परमभा( गवतो महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः तावि(र्गुण्य?) वै( षयिक) भद्रपुष्करकग्राम क्रिमिलबावैषयिकपू( एर्णना?) गग्रा- (मयोः) (ब्राह्मण-पुरोग )ग्राम-व( ल )त्कौभ्या (?) माह (1) एव(-) चाह विदितम्बो भवत्येषौ ग्रा( मौ) (मया) (मा)तापित्रोरा( त्मनश्च ) पु( ण्याभिवृद्धये) जयन्तभट्टस्वामिने 7. (सोपरि )करो( देशेनाग्र )हा( रत्वे )नातिसृष्टः (।) तद्युष्माभिर (स्य) 1. कार्पस 3 93 For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख 8. विद्यस्य श्रोतव्यमाज्ञा च कर्त( व्या) (स)। (च) (स) मुचिता ग्रा(म) प्रत्या( या )मेयहिरण्यादयो देया न चेतः प्र9. (भृ )त्यनेन त्रै (वि)येनान्यग्रामादिकरकुटुम्बि( कारुक गदयः प्रवेश(यित )व्या (म)न्यथ(1) नियतमाग्रहाराक्षेपः 10. (स्य )दिति॥ सम्वत् 5 माघ-दि0 2 निवद्धः (।) 11. अनुग्रामाक्षपटलाधि( कृत) महापीलूपति-महावलाधि( कृत गोपखाम(य् देश-लिखितः (।) 12. (कुमा )रश्रीचन्द्रगुप्तः (॥)। 1. ओम् स्वस्ति। विशाल जहाज, हाथी, घोड़े (आदि) के सैन्यशिविर के आनन्दपुर (बडनगर, गुजरात) पडाव से सारे नृपों का विनाशक, पृथ्वी का अप्रतिम योद्धा, जिसके यश ने चारों समुद्रों के जल का आस्वाद किया, 2. __ कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा यम के समान, कृतान्तपरशु (यम के फरसे सा), न्याय से उपलब्ध अनेक करोड़ गो तथा हिरण्य का दाता, चिर काल से त्यक्त 4. अश्वमेध का कर्ता, महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र, महाराज श्रीघटोत्कच का पौत्र महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त का पुत्र लिच्छिवि का दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न परमभागवत महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्त तावि(गुण्य?) विषय के भद्रपुष्करक ग्राम तथा क्रिमिला विषय के पू(र्णना)ग ग्राम के (ब्राह्मण पुरोग) निवासी (ग्रामवलत्-गांव वाले?) व कौश (कर वसूलने वाला शासकीय अधिकारी?) को कहते हैं। और यह कहते हैंआप लोगों को ज्ञात हो कि ये दोनों गांव माता, पिता तथा अपने पुण्य की अभिवृद्धि के लिये मैंने जयभट्टिस्वामी को (दिये?) ... भूमिपति से प्राप्त होने वाला कर अग्रहार रूप में प्रदत्त होने से मुक्त किया गया। सो आप इस विद्य (तीनों वेदों के ज्ञाता-त्रिवेदी) की आज्ञा सुनें (मानें) और (वैसा 7. 8. For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org समुद्रगुप्त का नालन्दा अभिलेख ही) करें और सभी गांव की समुचित कर अथवा चुंगी एवं ( अनुमानित अथवा ) प्राप्य स्वर्ण (इसे ही) दें। यही नहीं 10. 11. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 95 यह त्रैविद्य अन्य गांव के लगानदाता, कुटुम्बी (अथवा करद कुटुम्बी), कारीगर आदि को प्रवेश न दे अन्यथा आहार ( सम्बद्ध नियमों) का उल्लेखन होगा। संवत् 5 माघ दिवस 2 (को यह लेख ) लिखा गया ( अन्य ? ) गांव के अक्षपटालधिकृत ( रेकार्ड रखने वाला ) ! कौटिल्य के अनुसार (महालेखपाल); महाबलाधिकृत ( सेनापति), महापीलूपति (गजसेनाध्यक्ष ) गोपस्वामी का आदेश लिखा गया (गोपस्वामी ने आदेश लिखा?) 12. कुमार श्री चन्द्रगुप्त । For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्र का महरौली लोहस्तम्भलेख महरौली (दिल्ली) भाषा-संस्कृत, लिपि-गुप्तकालीन ब्राह्मी यस्योद्वर्त्तयतः प्रतीपमुरसा शत्रून्समेत्यागतान् वनेष्वाहव वर्तिनो(5) भिलिखिता खड्गेन कीर्तिभुजे2. ती| सप्त मुखानि येन समरे सिन्धोजिता वाहिका यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिव्वीर्यानिलैईक्षिणः (1) 1 3. खिन्नस्येव विसृज्य गां नरपतेर्गामाश्रितस्येतरां मूया . )कर्म जितावनिं गतवतः कीर्त्या स्थितस्य क्षितौ (1) 4. शान्तस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महा नाद्याप्युत्सृजतिप्रणाशितरिपोर्यालस्य शेषः क्षितिम् ( ॥) (2) प्राप्तेन स्व-भुजार्जितं च सुचिरञ्जैकाधिराज्यं क्षितौ चन्द्राहवेन समग्रचन्द्र-सदृशीं वक्त्रश्रियं बिभ्रता (1) तेनायं प्रणिधाय भूमिपतिना भावेन विष्णो (१) मतिं प्रान्शुद्धिष्णुपदे गिरौ भगवतो विष्णोर्ध्वजः स्थापितः॥ (3) जिस उन्नतिशील (चन्द्र) ने बंगाल में संघ बनाकर आये हुए शत्रुओं को अपने वक्ष (बल) से पीछे हटा दिया तथा इसी युद्ध में जिसकी भुजा पर खड्ग से यश (का लेख) लिखा गया। 1. कार्पस 3, पृ. 139-42 96 For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्र का महरौली लोहस्तम्भलेख 97 2. जिसने सिन्धु के सात मुखों (स्रोतों) को पारकर युद्ध में बाह्निकों को पराजित किया तथा जिसकी वीरता की वायु का दक्षिण (हिन्द महा)सागर अब भी निवास बन रहा है। (भूभार वहन करने से) थके से नरेश ने (इस) भूमि (लोक) को त्याग (अन्य) भूमि (लोक, स्वर्ग) का आश्रय ले लिया। जो शरीर से कर्म के द्वारा (अन्य) भूमि (स्वर्ग) पर जाकर विषय प्राप्त करके भी कीर्ति से पृथ्वी पर ही स्थित है। 4. विशाल अटवी में शान्त हुए दावानल के समान, शत्रुओं का सयत्न नाश कर्ता (चन्द्र) का प्रताप अब भी पृथ्वी को नहीं छोड़ता, बल्कि शेष है। 5. अपनी भुजाओं से अर्जित ऐकाराधिराज्य को, सम्पूर्ण चन्द्रमा सी मुखकान्ति धारण कर भूमि पर शोभित होने वाले आदरणीय चन्द्र नामक राजा देव (देवगुप्त) ने विष्णु में श्रद्धाकर विष्णुपद पर्वत पर भगवान् विष्णु का समुन्नत ध्वज स्थापित किया। For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उदयगिरि लेख उदयगिरि (विदिशा-म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्मी, गुप्त संवत् 82 (401) (प्रथम) सिद्धम्। संवत्सरे 80(1) ( + )2 आषाढ़-मास-शुक्लेकादश्यां परमभट्टारक-महाराजाधि( राज) श्रीचन्द्र( गुप्तपादानुध्या तस्य। महाराज-छगलगपौत्रस्य महाराजविष्णुदासपुत्रस्य सनकानिकस्य महा( राज). . .लस्यायं दे( यधर्म):। (द्वितीय) 1. सिद्धम् (॥) य(द)न्तर्योतिराभसुर्व्याम (. . . ) व्यापि चन्द्रगुप्ताख्यमद्भुतम् (1) 1 . विक्रमावक्रय-क्रीता दास्य-न्यग्भूत-पार्थिव (T). . .मानसंरक्त-धर्म . . .(॥) 2 तस्य राजाधिराजवँरचिन्त्यो . . .र्मणः अन्वय-प्राप्त साचिव्यो व्या( पृतसन्धि )विग्रहः (॥) 3 कौत्सश्शाब इति ख्यातो वीरसेनः कुलाख्यया शब्दार्थ-न्यायलोकज्ञः कविः पाटलिपुत्रकः (॥) 4 कृत्स्न-पृथ्वी-जयार्थेन राज्ञैवेह सहागतः भक्त्या भगवतश्शम्भोर्गुहामेतामकारयत् (॥)5 1. कार्पस 3, पृ० 34-36 98 For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चन्द्रगुप्त (द्वितीय) के उदयगिरि लेख 2. ( क्रमाङ्क 1 ) 1. सिद्ध हो। संवत् 82 (के) आषाढ मास (के) शुक्ल (पक्ष की) एकादशी (के दिन) परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त के चरण सेवक सिद्ध हो। 1. 2. www. kobatirth.org 3. 5. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 99 महाराज छगलग के पौत्र, महाराज विष्णुदास के पुत्र, सनकानिक महाराज सोढल (?) का यह दानधर्म है। (क्रमाङ्क 2 ) जो अपनी अन्तर्ज्योति के कारण सूर्य का कान्तिशाली पृथ्वी पर ( रात दिन) शोभित होता है, (उस) अद्भुत का नाम चन्द्रगुप्त है। 1 ( जिसके ) विक्रम के मूल्य से क्रीत राजा दासता का अपमान सह रहे हैं तथा जिस धर्म (कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञाता) के आदेश पर (भूमि अथवा प्रजा) अनुरक्त है। 2 अचिन्त्य (यथावत् अचिन्तनीय) एवं उज्ज्वल (शुभ तथा श्रेष्ठ) कर्म करने वाले उस राजाधिराजर्षि (ऋषितुल्य राजाधिराज) का वंशानुगत सचिव, जो सन्धिविग्रह ( के कर्तव्य) में लीन है। 3 जो कौत्स (गोत्र का है, शाव नाम से प्रसिद्ध है तथा कुल में जिसे वीरसेन कहते हैं। जो शब्द (व्याकरण), अर्थ (शास्त्र), न्याय तथा लोक (व्यवहार) का ज्ञाता एवं कवि और पाटलिपुत्र का निवासी है। 4 For Private And Personal Use Only सारी पृथ्वी जीतने के इच्छुक राजा ( चन्दगुप्त ) के ही साथ ( वह ) यहां (विदिशा, उदयगिरि) आया तथा ( उसने) भक्तिपूर्वक भगवान् शम्भु की यह गुफा बनवायी। 5 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रगुप्त द्वितीय का सांची शिलालेख सांची, जिला विदिशा (म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, गुप्तसंवत् 92 (412ई०) सिद्ध 1. का( कना)दबोटश्रीमहाविहारे शीलसपाधि-प्रज्ञा-गुण भावितेन्द्रियाय परमपुण्यक्षेत्रग)ताय चतुर्दिगभ्यागताय श्रमण-पुङ्गवावसथाया-- सङ्घाय महाराजाधिरा(ज-श्री) चन्द्रगुप्त-पाद-प्रसादाप्यायित-जीवित-साधनः अनुजीवि-सत्पुरुष-सद्भाव वृ(त्त्यर्थं ) जगति प्रख्यापयन् अनेक-समरावाप्त-विजययशस्पताकः सुकुलिदेशन ष्टो. . . वास्तव्य उन्दान-पुत्राम्रर्काद्दवो मज-शरभङ्गाम्ररात राजकुल-मूल्य-क्री6. त (म). . . ईश्वरवासकं पञ्चमण्डल्या (') प्रणिपत्य ददाति पञ्चविंशतिश्च दीना रान् ... यादर्द्धन महाराजाधिराज-श्रीचन्द्रगुप्तस्य देवराज इति प्रिय 1. कार्पस 3, पृ० 318 100 For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चन्द्रगुप्त द्वितीय का सांची शिलालेख 101 8. यना(म्नः ). . .रितस्य सर्वगुण-संपत्तये यावच्चन्द्रादित्यौ तावत्पञ्चभिक्षवो भुंजतां र (ल)गृ(हे, च, दीप)को ज्वलतु (1) मम चापरार्धात्पञ्चैव भिक्षवो भुंजता रत्नगृहे च 10. दीपक इ(ति)। (तदेतत्प्रवृत्तं य उच्छिन्द्यात्स गो-ब्रह्म-हत्यया संयुक्तो भवेत्पञ्चभिश्चान11. न्तरिति (॥) सं 90 (+) 3 भाद्रपद-दि 4 (॥) सिद्ध हो। 1. काकनादबोट (सांची) के श्रीमहाविहार में शील, समाधि, प्रज्ञा आदि गुणों में इन्द्रियों को मग्न करने वाले, अत्यन्त पवित्र स्थल के निवासी, चारों दिशाओं से आगत श्रेष्ठ श्रमण के निवास के लिये तथा आर्यसंघ के लिये, महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त के चरणों की कृपा से जिसने जीविका प्राप्त की, आश्रित सत्पुरुषों की सद्भाव (सतत) 4. वृत्ति (के लिये आवश्यक) अर्थ को लोक में प्रथित करते हुए अनेक युद्धों में विजय एवं यश ध्वज प्राप्त करने वाला, सुकुलिदेश को 5. नष्ट करने वाला. . . निवासी उन्दान का पुत्र आम्रकाद्देव मज, शरभङ्ग एवं आम्ररात सभासद (राजकुल) से 6. पञ्चमण्डली में मूल्य से ईश्वरवासक (नामक ग्राम-क्षेत्र) क्रय किया और अभिवादन के साथ (यह तथा) पच्चीस दीनार प्रदान करता है। 7. ...जिसका आधा देवराज प्रिय नाम वाले महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त (की ओर से प्रदान किया जाता है?) 8. ... (जिस की) सारे गुणों की समृद्धि के लिये चन्द्र तथा सूर्य की स्थिति पर्यन्त (सदा) पांच भिक्षु भोजन For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 102 प्राचीन भारतीय अभिलेख 9. करें और रत्नगृह में दीपक जलता रहे। तथा मेरी दी हुई आधी रकम से पांच भिक्षु भोजन करे और रत्नगृह में 10. दीपक जले। सो इस प्रारम्भ (की हुयी परम्परा) को जो तोड़ेगा उसे गो तथा ब्रह्म हत्या लगे और वह पांच 11. आनन्तर्य या पाप से युक्त हो। संवत् 93 भाद्रपद (का) चौथा दिन। For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कन्दगुप्त का भितरी शिलालेख 119 हूणैर्यस्य समागतस्य समरे दोर्थ्यां धरा कंपिता भीमावर्तकस्य 16. शत्रुषु शरा ....। ..... विरचितं(?) प्रख्यापितो (दीप्तिदा?). . . ? न द्यो (?) ति न भी( ? )षु लक्ष्यत इव श्रोत्रेषु गाङ्गध्वनिः।।8 17. (स्व) पितुः कीर्ति .....। ....... . ७॥ (कर्तव्या) प्रतिमा काचित्प्रतिमां तस्य शाङ्गिणः। 18. (सु)प्रतीतश्चकारेमा या विदाचन्द्र-तारकम् )10 इह चैनं प्रतिष्ठाप्य सुप्रतिष्ठित-शासनः। ग्राममेनं स विद( धे) पितुः पुण्याभिवृद्धये। 19. अतो भगवतो मूर्तिरियं यश्च संस्थितः ()। उभयं निर्दिदेशासौ पितुः पुण्याय पुण्य-धीरिति॥ 12 सिद्ध हो। सारे राजाओं का उच्छेद करने वाला, पृथ्वी का अप्रतिम योद्धा, जिसके यश ने चारों समुद्र के जल का आचमन किया है; जो कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा यम के समान है, जो कृतान्त परशु (यमराज के कुठार सा) है तथा जिसने न्याय से प्राप्त अनेक करोड़ गो तथा स्वर्ण का दान किया, जिसने चिरकाल से त्यक्त अश्वमेध किया; जो महाराज श्रीगुप्त का प्रपौत्र, महाराज श्रीघटोत्कच का पौत्र, महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त का पुत्र तथा लिच्छवि कुल के दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्त का पुत्र, उनके द्वारा मान्यता (आशीर्वाद) प्राप्त, महादेवी दत्तदेवी से उत्पन्न, स्वयं अप्रतिम योद्धा परम भागवत महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त का पुत्र जो उनका चरणानुयायी है तथा जो महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न हुआ है, वह परम भागवत महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्त है-, जिस नृप की अगाध मेधा, स्वभाव तथा शक्ति प्रसिद्ध है, जिसका यश अमिट है, जो अपरिक्षित श्री (धन) से सम्पन्न है For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 120 प्राचीन भारतीय अभिलेख 7. उसी का पुत्र यह यशस्वी नरेश हे जो अपने पिता के चरण-कमलों के निकट निवास करता है। 1 जो लोक में भुजबल से सम्पन्न एवं गुप्त वंश का अद्वितीय वीर है, जिसका अमिट प्रताप प्रसिद्ध है 8. तथा जिसका नाम स्कन्दगुप्त है। सच्चरित्र सम्पन्न जनों के गुणशाली आचरण को अपनाकर वह निर्मल अन्तरात्मा वाला नरेश और भी विनीत हो गया ? 2 9. विनय तथा शक्ति से क्रमशः प्राप्त विक्रम से प्रतिदिन संयुक्त रहने से उद्यत शत्रु के दमनके विषय में कार्यवाही के लिये दक्षता अर्जित की। 3 __ अपने स्थान से विचलित कुललक्ष्मी को पुनः प्राप्त करने को उद्यत जिस स्कन्दगुप्त ने धरती के बिछोने पर रात व्यतीत की तथा पर्याप्त रूप से 11. प्रवृद्ध शक्ति तथा कोष वाले पुष्यमित्रों को जीतकर नरेश ने पादपीठ पर पुनः अपना बांया पैर जमाया (स्थापित किया)। 4 (शत्रुओं) को बलपूर्वक नष्ट करने में अनुपम शस्त्र तथा प्रताप, समुचित नम्रता 12. धैर्य तथा शौर्य से प्रथित, शुभ्र चरित आदि से सम्पन्न जिस नरेश की कीर्ति के गीत बालकों सहित समस्त, संतुष्ट प्रजा जनों के द्वारा हर दिशा में गाये जा रहे हैं। 5 पिता के दिवंगत होने पर 13. अपने बाहुबल से शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर, निमग्न (ध्वस्त) वंश लक्ष्मी को पुनः प्रतिष्ठित कर, 'जीत गये' इस संतोष के साथ, यह राजा; शत्रुओं को नष्ट करने वाले कृष्ण के समान (सुख के) आंसू से पूरित नयनों वाली अपनी माता देवकी के पास पहुंचे। 6 14. अपने सैन्य बल से डगमगाते (कांपते, अपने स्थान से च्युत होते) वंश को जिसने स्थिरता प्रदान की, बाहुओं से पृथ्वी को जीतकर तथा विजित दुःखी नृपों पर अनुकम्पा करके भी न तो उद्धत हुआ तथा न अहंकारी 15. उसकी कान्ति प्रतिदिन बढ़ रही थी तथा बन्दी (चारण) लोग गीत तथा स्तुतियों से जिसे आर्यता (श्रेष्ठता) प्रदान कर रहे थे। 7 For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्कन्दगुप्त का भितरी शिलालेख 121 रणक्षेत्र में हूणों से युद्ध करते समय जिस भयंकर आवर्त (चक्र) कर्ता के शत्रुओं पर बाण वर्षा करती उसकी भुजाओं से पृथ्वी कांप उठी। 16. उसका प्रथित कान्तिमान् धनुष अपनी टंकार से कानों में शाङ्गरव की ध्वनि की सी प्रतीति करवाता था। 8 17. अपने पिता की कीर्ति . . . . 1 9 उस शाी विष्णु की तदनुरूप यह प्रतिमा जब तक चन्द्र तथा तारे हैं तब तक के लिये सुप्रतीत (सुस्थिर) बना दी गयी है। 10 यह अप्रतिहत शासन (प्रभविष्णु) इसे यहां प्रतिष्ठित कर पिता की पुण्यवृद्धि के लिये गांव प्रदान करता है। 11 19. सो पवित्र विचार वाले (स्कन्दगुप्त) ने यहां जो भगवान् की यह मूर्ति स्थापित की वह पिता के दोनों (लोक के) पुण्य के लिये हो। 12 For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मन्दसौर शिलालेखे 1. भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, मालव संवत्-493 एवं 529, (472 ई०) (सिद्धम् ॥) (यो) वृत्य( त्त्यर्थे )मुपास्यते सुर-गण(स्सिद्धैश्च) सिद्ध्यर्थिभि-यानैकाग्र-परैविधेय-विषयैर्मोक्षार्थिभि र्यागिभिः। भक्त्या तीव्र-तपौधनैश्च मुनिभिश्शाप-प्रसादक्षमै-हतुर्यो जगतः क्षयाभ्युदययोः पायात्स वो भास्करः॥(1)1 तत्त्व-ज्ञान-विदो( 5 )पि यस्य न विदुब्रह्मर्षयो(s)भ्युद्यता कृत्स्नं यश्च गभस्तिभिः प्रवृसृतैः पु( ष्ण गति लोकत्रयम्। ग(न्ध ) मर-सिद्ध-किन्नर-नरैस्संस्तूयते (s)भ्युत्थितो भक्तेभ्यश्च ददाति यो (5) भिलषितं तस्मै सवित्रे नमः। (1)2 यः (प्र) त्यहं प्रतिविभात्युदयाचलेन्द्रविस्तीर्ण- तुंग-शिखरस्खलितांशुजाल:(।) क्षीबाङ्गनाजन-कपोल-तलाभिताम्रः पायात्स वस्सु( कि )रणाभ( रणो) विवस्वान्। (।) 3. कुसुमभरानततरुवर-देवकुल-सभा-विहार-रमणियात्। लाटविषयान्नागावृत-शैलाज्जगति प्रथित-शिल्पाः। (1)4 ते देश-पार्थिवगुणापहृताः प्रकाशमद्धवादिजान्यविरलान्यसुखा न्यपास्य। जातादरा दशपुरं प्रथमं मनोभिरन्वागतास्ससुतबन्धु-जनास्समेत्य॥5 कार्पस 3, पृ० 79-88 3. 4. 1. 122 For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मंदसौर शिलालेख 5. 6. 7. www. kobatirth.org 8. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मत्तेभ-गण्ड-तट-विच्युत-दान- बिन्दु - सिक्तोपलाचल- सहस्र विभूषाणाया: ( 1 ) पुष्पावनम्र-तरु- षण्ड-वतंसकाया भूमेः परन्तिलक - भूतमिदं क्रमेण ॥ तटोत्थ 123 - वृक्ष- च्युत नैक - पुष्प - विचित्र - तीरान्त - जलानि भान्ति । प्रफुल्ल- पद्माभरणानि यत्र सरांसि कारण्डव - संकुलानि ॥ 7. विलोल - वीची-चलितारविन्द - पतद्रजः पिंजरितैश्च हंसैः । स्व- केसरोदार - भरावभुग्नैः क्वचित्सरांस्यम्बुरुहैश्च भान्ति । ( । )8 स्व-पुष्प - भारावनतैर्नगेन्द्रैर्मद प्रगल्भालि-कुल- स्वनैश्च । अजस्रगाभिश्च पुराङ्गनाभिर्व्वनानि यस्मिन्समलंकृतानि ।। 9 चलत्पाकातान्यबला-सनाथान्यत्यर्थशुक्लान्यधिकान्नतानि । तडिल्लता - चित्र - सिताम्भ्र - कूट- तुल्योपमानानि गृहाणि यत्र ॥ 10 कैलास - तुंग-शिखर- प्रतिमानि चान्यान्याभान्ति दीर्घ - बलभी नि सवेदिकानि । गान्धर्व्व-शब्द-मुखरानि (णि) - निविष्टचित्त-कर्माणि लोल - कदली-वन-शोभितानि ।।11 प्रासाद- मालाभिरलंकृतानि धरां विदाय्यैव सुमत्थितानि । विमान माला - सदृशानि यत्र गृहाणि पूर्णेन्दु-करामलानि ।।12 यद्भात्यथभिरम्य- सरिद्वयेन चपलोर्म्मिणा समुपगूढं (1) रहसि कुच - शालिनीभ्यां प्रीति-रतिभ्यां स्मराङ्गमिव ॥13 सत्य- (क्षमा) - दम-शम- व्रत - शौच-धैर्य ( स्वाद्ध्या ) य- वृत्त - विनय-स्थिति- बुद्ध्यपेतैः । विद्या- तपोनिधिभिरस्मयितैश्च विप्रै यूर्यद्भ्राजते ग्रहगणैः खमिव प्रदीप्तैः ॥14 अथ समेत्य निरन्तर - सङ्गतैरहरहः प्रविजृम्भित For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 124 प्राचीन भारतीय अभिलेख सौहृदाः (1) नृपतिभिस्सुतवत्प्रतिम()निताः प्रमुदिता न्यवसन्त सुखं पुरे 15 श्रवण-(सु)भग ()(T)नुर्वै( j) (गान्धर्वेऽन्ये?) दृढं परिनिष्ठताः सुचरित-शतासगाः केचिद्विचित्र-कथाविदः। विनय-निभृतास्सम्यग्धर्म-प्रसंग-परायणाः प्रियमपरुषं पत्थ्यं चान्ये क्षमा बहुत भाषितुं तुम्) 16 10. केचित्स्व-कर्मण्यधिकास्तथान्यैर्विज्ञायते ज्योतिषमात्मवद्भिः। (अद्यापि)चान्ये समर-प्रगल्भाः (कु)वन्त्यरीणामहितं प्रसा। (1) 17 प्राज्ञा मनोज्ञ-वधवः प्रथितोरुवंशा वंशानुरूप चरिताभरणास्तथान्ये। सत्यव्रताः प्रणयिनामुपकार-दक्षा विस्रम्भ11. (पूर्व)मपरे दृढ-सौहृदाश्च।।18 विजित-विषय-सङ्गैर्द्धर्म-शीलैस्तथान्यै( ) (दुभिरधि)क-स (त्त्वैल्र्लोकयात्रा)भरैश्च। स्व-कुल-तिलक-भूतैर्मुक्तरागैरुदारैरधिकमभि(वि)भाति श्रेणिरेवंप्रकारैः19 तारुण्य-कान्त्युपचितो( 5 )पि सुवर्ण-हार-तांबूल-पुष्प-विधिना सम12. (लंकृ )तो(5) पि। नारी-जनः श्रियमुपैति न तावदग्र्यां यावन्न पट्टमय-वस्त्र-(यु)गानि धत्ते:20 स्पर्श(वता वण्र्णा )न्तर-विभाग-चित्रेण नेत्र-सुभगेन (।) यैस्सकलमिदं क्षितितलमलंकृतं पट्टवस्त्रेण॥ 21 विद्याधरी-रुचिर-पल्लव-कर्णपूर-वातेरिता( स्थि )रतरं प्रविचिन्त्य 13. (लो)कं (कम् )।मानुष्यमर्थ-निचयांश्च तथा विशाला (स्ते )षां शुभा(म)ति( रभूद) चला ततस्तु (॥) 22 चतु( स्समुद्रान्त)-विलोल-मेखलां सुमेरु-कैलास-बृहत्पयोधराम्। वनान्त-वान्त-स्पुट-पुष्प-हासिनी कुमारगुप्ते प्रिथिवीं प्रशासति।23 समान-धीश्शुक्र-बृहस्पतिभ्यां ललामभूतो भुवि For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 125 कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मंदसौर शिलालेख 14. पार्थिवानां (नाम्)। रणेषु यः पार्थ-समानका बभूव गोप्ता नृप-विश्ववा॥24 दीनानुकंपन-परः कृपणात-वर्ग-सन्ध(7)प्रदो(5)धिकदयालुरनाथ-नाथः। (क)ल्पद्रुमः प्रणयिनामभयंप्रदश्च भीतस्य यो जनपदस्य च बन्धुरासीत्।25 तस्यात्मजः स्थैर्य-नयोपपन्नो ब(न्धु)प्रियो 15. बन्धुरिव प्रजानां (नाम् )। बंध्वर्ति-हर्ता नृप-बन्धुवा ? द्विड्दृप्त-पक्ष-क्षपणैका द)क्षः।26 कान्तो युवा रण-पटुर्खिनयान्वितश्च राजापि सन्नुपसृतो न मदैः स्मयाद्यैः। शृंगार-मूर्तिरभिभात्यनलंकृतो(s)पि रूपेण यः कुसुम-चाप इव द्वितीयः07 वैधव्य-तीव्र-व्यसन-क्षतानां स्मि( स्मृत्वा यमद्याप्यरि-सुन्दरीणां (णाम् )। भयाद्भवत्यायतलोचनानां घन-स्तनायासकरः प्रकम्पः। 28 तस्मिन्नेव क्षितिपति-त्रि(वृ) बंधुवर्मण्युदारे सम्यक्स्फीतं दशपुरमिदं पालयत्युन्नतांसे।(शिल्पावाप्तैर्धन-समुदयैः पट्टवा (यैरु दारं श्रे( णीभूतै भवनमतुलं कारितं 17. दीप्तरश्मेः 29 विस्तीर्ण-तुंग-शिखरं शिखरि-प्रकाश-मभ्युद्गतेन्द्वमलरश्मि-कलाप-(गौ)रं(रम् )। यद्भाति पश्चिम-पुरस्य निविष्टकान्त-चूडामणि-प्रतिसमन्नयनाभिरामं रामा-सनाथ( र )चने दर-भास्करांशुवह्नि-प्रताप-सुभगे जल-लीन-मीने। चन्द्रांशु हर्म्यतल18. चन्दनतालवृन्तहारोपभोगरहिते हिमदग्धपद्म।B1 रोद्धप्रियंगुतरुकुन्दलताविकोशपुष्पासव प्रमुदितालि- कुलाभिरामे। काले तुषारकणकर्कशशीतवात 16. For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 126 प्राचीन भारतीय अभिलेख वेग-प्रनृत्त-लवली-नगणैकशाखे।।2। स्मरवशगतरुणजनवल्लभाङ्गनाविपुलकान्तपीनोरुस्तन-जघन-घनालिङ्गन-निर्भर्त्सत-तुहिन-हिमपाते।33 मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये। त्रिनवत्यधिकेऽब्दानाम् ऋतौ सेव्यघनस्तने।84 सहस्यमास-शुक्लस्य-प्रशस्तेऽह्नि त्रयोदशे। मंगलाचारविधिना प्रासादोऽयं निवेशितः।।5।। बहुना समतीतेन 20. कालेनान्यैश्च पार्थिवः (।) व्यशीर्य्यतैकदेशोऽस्य भवनस्य ततोऽधुना।B6 स्वयशो( वृद्धये सर्वमत्युदा )रमुदारया। संस्कारितमिदं भूयः श्रेण्या भानुमतो गृहम्॥7॥ अत्युन्नतमवदातं नभः स्पृशत्वि( न्नि )व मनोहरैः शिखरैः। शशि भान्वोरभ्युदयेष्वमलमयखायतनभतम्॥38॥ 21. (संवत्सर-शतेषु पंचसु विंशत्यधिकेषु नवसु-चाब्देषु। यातेष्वभिरम्य तपस्यमास-शुक्लद्वितीयायाम्।B9॥ स्पष्टैरशोकतरु-केतक-सिन्दुवार-लोलातिमुक्तकलतामदयन्तिकानाम्। पुष्पोद्गमैरभिनवैरधिगम्य नूनमैक्यं विजमिभितशरे हरपूतदेहे।।40 मधुपान-मुदितमधुकरकुलोपगीतनगनैकपृथुशाखे। काले नवकुसुमोद्गमदन्तुरकान्त-प्रचुररोद्धे।।1।। शशिनेव नभो विमलं कौस्तुभ-मणिनेव शाङ्गिणो वक्षः। भवन-वरेण तथेदं पुरमखिलमलंकृतमुदारम्॥42॥ अमलिन-शशि23. लेखा-दंतुरं पिंगलानां परिवहति समूहं यावदीशो जटानाम्। विकचकमलमालामंससक्तांच शार्की भवनमिदमुदारं शाश्वतन्तावदस्तु॥43॥ श्रेण्यादेशेन भक्त्या च कारितं भवनं रवेः। पूर्वा चेयं प्रयत्लेन रचिता वत्सभट्टिना॥4॥ 24. स्वस्ति कर्तृ-लेखक-वाचक- श्रोतृभ्यः।। सिद्धिरस्तु। 22. For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मंदसौर शिलालेख 127 1. 2. 3. सिद्धि हो। वह सूर्य आपकी रक्षा करे जो जगत् के विनाश तथा अभ्युदय के कारण हैं, जो अस्तित्व अथवा सत्ता के लिये देवताओं के द्वारा, सिद्धि के इच्छुक सिद्धों के द्वारा, सतत ध्यान में लीन संयमी-जनों के द्वारा, मोक्ष के कामी योगिजनों के द्वारा तथा शाप देने में सक्षम कठोर तप करने वाले मुनियों के द्वारा भक्तिपूर्वक पूजे जाता हैं।।1।। तत्त्वज्ञान के वेत्ता ब्रह्मर्षि, जो सतत यथार्थ ज्ञान के लिये प्रयत्नशील रहते हैं, भी जिसे पूर्ण रूपेण नहीं जान पाये; जो अपनी विकीर्ण किरणों से त्रिभुवन का पोषण करता है, गान्धर्व, देवता, सिद्ध, किन्नर तथा मनुष्य जिसकी उदय (प्रातः) काल में स्तुति करते हैं; एवं जो भक्तों को वांछित फल देता है उस सविता (सूर्य) को प्रणाम।2। वह विवरस्वान् (सूर्य) आपकी रक्षा करे तो उदयाचल के विस्तीर्ण एवं उत्तुङ्ग शिखर पर अपने किरण-जाल को फैलाकर प्रतिदिन प्रकाशित (भासमान) होता है, जो मदोन्मत्त मणियों के कपोल-देश के समान ताम्र (रक्तिम) वर्ण है तथा जो मनोरम किरणों से अलङ्कृत है।3 कुसुम के भार से झुके हुए वृक्ष, देवालय, सभाभवन तथा विहार से रमणीय एवं वृक्ष-वनस्पति से ढंके पर्वतों से युक्त लाट देश से सुप्रसिद्ध शिल्पी (कलाकार) स्पष्ट ही (मालव) देश तथा (यहां के) नरेश के गुण से आकृष्ट होने से एवं उनके प्रति, पहले से मानसिक आदर उत्पन्न हो जाने से मार्गजन्य सतत दुःखों की उपेक्षा कर अपने पुत्र तथा बन्धुजनों सहित वे दशपुर (मन्दसौर) चले आये। 4-5 यह (दशपुर इस मालव) भूमि का क्रमशः शिरोभूषण हो गया जो मदमत्त गज के गण्डस्थल से टपकते मद की बूंदों से सिंचित पाषाण वाले सहस्रों पर्वतों से विभूषित है तथा पुष्पों से झुके वृक्ष-समूह से अलङ्कृत है। 6 तट के वृक्ष से गिरने वाले अमित पुष्पों से तटवर्ती रंग-बिरंगे जल वाले विकसित कमलों से अलङ्कृत एवं बत्तखों से युक्त जहां के सरोवर हैं। 7 तथा कहीं चञ्चल लहरों से कांपते कमल से गिरे पराग से पीतवर्ण के हंसों 5. For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - 128 प्राचीन भारतीय अभिलेख 7. से एवं कहीं अपनी केसर के अमित (पूर्ण) भार से झुके सरोज से सरोवर सुशोभित हैं। 8 जहां के (उप)वन, अपने ही पुष्पभार से अवनत तथा मदमत्त मधुपों के गुञ्जन से युक्त तरुवर एवं सतत संचरणशील पुरनारियों से अलंकृत हैं। जहां के भवन फहराते ध्वज तथा रमणियों से युक्त एवं नितांत शुभ्र और अत्युन्नत होने के कारण, विद्युल्लता से बहुरंगी मेघखंड के समान होने से उपमान बन रहे हैं। 10 अन्य भवन (अपनी ऊंचाई में) कैलास के समुन्नत शिखरों के समान सुशोभित हो रहे हैं, वे चबूतरे तथा बड़ी-बड़ी छतों से युक्त हैं, वे संगीत (गीत, वाद्य तथा नृत्य) की ध्वनि से मुखर हैं, जिनकी भित्तियों को (विविध) चित्रों से अलंकृत किया गया है तथा जो चञ्चल कदली-वन से सुशोभित हैं। 11 पूर्ण चन्द्र की किरणों के समान जहां के स्वच्छ शुभ्र भवन मंजिलों की पंक्ति से ऐसे सुशोभित होते हैं मानो धरा को विदीर्ण कर उपस्थित विमानों की पंक्ति हो। 12 जो (नगर) लाल लहरियों वाली दोनों रमणीय सरिताओं से आलिङ्गित ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो एकान्त में (पीन) पयोधरों वाली प्रीति तथा रति से (आलिंगित) कामदेव का शरीर हो। 13 सत्य, क्षमा, संयम, शान्ति, नियम, पवित्रता, धैर्य, स्वाध्याय, नम्रता, स्थिरता, मेधा (अथवा दृढ़ निश्चयात्मिका बुद्धि) से युक्त; विद्या तथा तप के आगार, अहंकार रहित (संस्कार तथा विद्या से सम्पन्न) विप्रों से पूर्ण यह (नगर) उसी प्रकार सुशोभित हो रहा है जैसे चमकते ग्रहों से नभोमण्डल। 14 इसके पश्चात्, आकर सतत साथ रहने से प्रतिदिन क्रमशः बढ़ती मित्रता वाले ये शिल्पी, नृपों के द्वारा पुत्र सा सम्मान पाकर प्रसन्न हो, नगर में सुखपूर्वक रहने लगे।15 इन कलाकारों में से कुछ तो मधुर संगीत में सुनिष्णात थे तथा कुछ सुंदर चरितों से सम्पन्न विचित्र कथाओं के ज्ञाता; कुछ विनीत एवं शान्त (अथवा For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मंदसौर शिलालेख 129 12. नम्रता के कारण शान्त प्रकृति के) थे तथा कुछ धार्मिक स्थितियों में लीन, एवं कुछ लोग प्रिय, कोमल तथा लगातार हितकारी बातें करने में चतुर थे। 16 10. कोई अपने (बुनने के) कर्म में सुनिपुण थे तथा अन्य संयमी ज्योति:शास्त्र के वेत्ता और (उनमें से कुछ रणपटु, जो अब भी शत्रुओं की (बलपूर्वक) अत्यंत हानि करते रहते हैं। 17 कुछ बुद्धिमान, मनोरम बंधुओं एवं प्रख्यात तथा श्रेष्ठ कुल से सम्पन्न और वंशानुरूप सच्चरित से भी अलंकृत हैं। वे सत्य परायण, स्नेहियों का उपकार करने में पटु तथा विश्वसनीय गाढ (अभिन्न) मित्र हैं। 18 सांसारिक विषय-लिप्सा पर विजय प्राप्त वाले आचार से धार्मिक, कोमल, अत्यंत शक्तिशाली, लोकयात्रा (व्यवहार) में देवतुल्य, अपने कुल के सिरमौर, वासना रहित, उदार आदि सद्गुणों से सम्पन्न से यह शिल्पियों की श्रेणि अधिक सुशोभित हो रही है। 19 यौवन की कान्ति से सम्पन्न होने पर भी, स्वर्ण-हार ताम्बूल, पुष्प आदि से अलंकृत होने पर भी, नारियां तब तक परम शोभा नहीं पातीं जब तक वे रेशमी वस्त्र का जोड़ा न पहन लेतीं। 20 स्पर्श में सुहाने, विभिन्न वर्गों के विभाजन से विचित्र, आंखों को लुभावने रेशमी वस्त्रों से जिन लोगों ने इस सम्पूर्ण धरा को अलंकृत (आच्छादित) कर दिया है। 21 विद्याधरियों के सुंदर, पल्लव से निर्मित कर्णाभरण के वायु से (सतत) डोलने के समान जगत् को अत्यंत अस्थिर (क्षणभङ्गुर) समझ कर 13. तथा मानवीय (अपने) विा समूह को अपार मानकर उन्हीं (शिल्पियों) ने (सूर्यमंदिर निर्माण का) शुभ विचार दृढ़ कर लिया। 22 चारों समुद्र के तट जिसकी चंचल करधनी है, सुमेरु तथा कैलास जिसके पीन पयोधर हैं, वन में बिखरे विकसित पुष्प ही जिसका हास है ऐसी मेदिनी पर कुमारगुप्त के शासनकाल में । 23 शुक्र तथा बृहस्पति के समान मेधावी, धरा के (समस्त) नरेशों में 14. मूर्धन्य तथा रण में अर्जुन के समान (युद्ध) कर्म में निपुण, (प्रजा का) रक्षक विश्ववर्मा राजा हुआ। 24 जो दीनों पर दया करने में निरत, दरिद्रता से दु:खी जनों को सहयोग देने For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 130 प्राचीन भारतीय अभिलेख वाला, अत्यंत दयालु तथा अनाथों का आश्रयदाता, स्नेहियों के लिये कल्पवृक्ष, भयभीत को अभयदान देने वाला तथा जनपद (अपने शासित क्षेत्र) का बन्धु था। 25 उसका पुत्र दृढ़ नीति से युक्त राजा बन्धुवर्मा हुआ; जो बन्धुजनों का प्रियतथा 15. प्रजा के बन्धु के समान था, बन्धुओं के दुःख दूर करने वाला तथा शत्रुओं और अभिमानी जनों के खेमे को नष्ट करने में वह अप्रतिम चतुर था। 26 यह बन्धुवर्मा देह से अभिराम, युवक, रणपटु तथा विनम्र था। राजा होते हुए भी अभिमान आदि दुर्गुणों से वह अछूता था। अलंकृत न होने पर भी वह शृंगार की मूर्ति सा सुशोभित होता था तथा रूप में वह द्वितीय कामदेव के समान (कमनीय) था। 27 जिसका स्मरण कर-वैधव्य के तीव्र दुःख से व्यथित, विशालाक्षी 16. शत्रु-वधुओं के पीन-पयोधर अब भी भय के कारण जोर से कांप (कर थरथरा) उठते हैं। 28 नृपों में श्रेष्ठ, उदार तथा उन्नत स्कन्ध वाले उसी बन्धुवर्मा के शासन काल में इस दशपुर ने सुसमृद्धि प्राप्त की तथा कारीगरी से प्राप्त प्रचुर वित्त से श्रेणी में संगठित बुनकरों ने सूर्य का विशाल तथा अनुपम भवन बनवाया। 29 पर्वत के सदृश विस्तृत तथा उन्नत शिखर वाला, उदित होते चन्द्रमा की स्वच्छ किरण जाल सा शुभ्र एवं पश्चिमपुर अथवा दशपुर में लगी कान्त (रुचिर) चूडामणि के समान नयनाभिराम वह मन्दिर सुशोभित हो रहा है। 30 जिस ऋतु में सुंदरियों का सान्निध्य किया जाता है, (शीत) को विदारित करती सूर्य किरणें तथा अनल की गर्मी सुखद लगती हैं, मछलियां जल में ही छिपी रहती हैं, चन्द्रकिरणें, प्रासाद की सतह (तल), चन्दन, 18. पंखें, हार आदि का उपभोग नहीं किया जाता है; सरोज हिम से जल जाते हैं। 31 लोध्र तथा प्रियंगु के वृक्ष तथा कुन्द (चमेली) की लता के विकसित पुष्पों के आसव (पान) से प्रमुदित मधुप मधुर गुञ्जार करते रहते हैं तथा जिस काल में हिम-कण से तीखी एवं शीत वायु के वेग से एक शाखा वाली लवली तथा नगण लता नाचती रहती है। 32 काम के वशीभूत युवक अपनी प्रिया की पृथुल, मनोरम तथा मोटे 17. पर्व For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारगुप्त बन्धुवर्मा का मंदसौर शिलालेख 131 19. स्तन तथा जघन (जंघा) के गाढ़ आलिंगन से तिरस्कृत शीतल हिमपात काल में . . . .। 33 मालवों के गण की स्थापना से चार सौ तिरानवे वर्ष व्यतीत होने पर पीन पयोधरों के सेवन की (हेमन्त) ऋतु में . . .. .34 पौषमास के शुक्लपक्ष में त्रयोदशी के शुभ दिन माङ्गलिक विधि से यह प्रासाद (मंदिर) बनकर (प्राणप्रतिष्ठा आदि से) सम्पन्न हुआ। 35 20. तदनन्तर बहुत काल बाद अन्य शत्रु हूणादि (वायु) नृपों ने इस भवन का एक भाग खण्डित कर दिया, सो अब-36 अपना यश बढ़ाने के लिये उदार श्रेणी ने पुनः सूर्य के विशाल मंदिर का पुनरुद्धार करवाया। 37 जो बहुत ऊंचा, शुभ्र, अपने मनोहर शिखरों से मानो आकाश को छूता हुआ, यह भवन चन्द्र और सूर्य के उदयकाल की स्वच्छ किरणों का विश्राम स्थल बन गया। 38 21. पांच सौ उन्तीस वर्ष व्यतीत होने पर रमणीय फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की द्वितीया को-39 जब अशोक के वृक्ष, केतक, सिन्दुवार के वृक्ष तथा चंचल अतिमुक्तक एवं मदयन्तिका लता के सद्यः प्रस्फुटित पुष्पों से कामदेव अपने शरों को समृद्ध करता है। 40 मधुपान से प्रसन्न मधुप-वृन्द के गुञ्जन से जिस काल 'नगण' की मोटी शाखाएँ अनुगुञ्जित हो जाती हैं तथा जब रोध्र वृक्ष नव कुसुमों के उद्गम से अत्यन्त विषम तथा मनोरम हो जाते हैं। 41 चन्द्रमा से जैसे विमल आकाश एवं कौस्तुभ मणि से जैसे विष्णु का वक्षःस्थल सुशोभित होता है उसी प्रकार यह सारा विस्तृत एवं समृद्ध दशपुर नगर इस श्रेष्ठ भवन से सुशोभित है। 42 23. जब तक शिवजी विमल चन्द्रकला से पीत वर्ण की जटा-कलाप का वहन करते हैं और जब तक विष्णु खिले कमल की माला अपने कन्धे पर धारण करते हैं तब तक (सूर्य का) यह प्रशस्त भवन शाश्वत (स्थायी) रहे। 43 24. श्रेणी के आदेश और भक्ति से रवि का मन्दिर बनवाया गया तथा उपर्युक्त यह प्रशस्ति वत्सभट्टि ने सायास रची। 44 कर्ता, लेखक, वाचक, तथा श्रोता का कल्याण हो।।सिद्धि हो।। For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुधगुप्त का एरण स्तम्भलेख एरण-जिला सागर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्मी, गुप्त संवत् 165 (484 ई०) 1. जयति विभुश्चतुर्भुजश्चतुरर्णव-विपुल-सलिल-पर्यड्कः (।) जगतः स्थित्युत्पत्ति-न्या यादि)हेतुर्गरुड-केतुः (1) 1 शते पंचषष्ट्यधिके वर्षाणां भूपतौ च बुधगुप्ते। आषाढ-मास-(शुक्ल) 3. (द्वादश्यां सुरगुरोहिवसे। (1) 2 सं 100 (+) 60 (+) 5 (॥)कालिन्दी-नर्मदयोर्मध्यं पालयति लोकपाल-गुणै-जगति महा( राज)श्रियमनुभवति सुरश्मिचन्द्रे च। (।) 3 अस्यां संवत्सर-मास-दिवस-पूर्वायां स्वकर्माभिरतस्य क्रतु-याजि(नः) अधीत-स्वाध्यायस्य विप्रर्षे मैत्रायणीय-वृषभस्येन्द्रविष्णोः प्रपौत्रेण पितुर्गुणानुकारिणो वरुण( विष्णोः) पौत्रेण पितरमनुजातस्य स्व-वंश-वृद्धि-हेतोर्हरिविष्णो: पुत्रेणात्यन्त-भगवद्भक्तेन विधातुरिच्छया स्वयंवरयेवर(राज)लक्ष्म्याधिगतेन चतुःसमुद्र-पर्यन्त-प्रथित-यशसा अक्षीण मानधनेनानेक-शत्रु-समर-जिष्णुना महाराज-मातृविष्णुन(1) 1. कार्पस, खण्ड 3, पृ. 88-90 132 For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुधगुप्त का एरण स्तम्भलेख 133 8. तस्यैवानुजेन तदनुविधायिन(1) तत्प्रसाद-परिगृ(ही)तेन धन्यविष्णुना च। मातृ-पित्रोः पुण्याप्यायनार्थमेष भगवतः। पुण्यजनार्दनस्य जनार्दनस्य. .. ध्वस्तम्भो( 5 )भ्युच्छ्रितः (॥) स्वस्त्यस्तु गो-ब्राह्मण-(पुरोगाभ्यः सर्वप्रजाभ्य इति। (।) उन चतुर्भुज विष्णु की जय हो जिनका पलङ्ग चारों सागर की विपुल जलराशि है जो जगत् की स्थिति, उत्पत्ति तथा प्रलय के 2. हेतु हैं एवं जिनके ध्वज का चिह्न गरुड है। (1) 165 वर्ष व्यतीत होने पर राजा बुधगुप्त के शासनकाल में आषाढ मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी गुरुवार के दिन। 2 सं0 100+60+5 (3165) लोकपाल के गुणों से अन्वित, जगत् में महाराज की शोभा का अनुभव करते हुए यमुना तथा नर्मदा के मध्य भाग पर 4. सुरश्मिचन्द्र के पालन करने पर. ... .13 इस पूर्वोक्त वर्ष, मास तथा दिन. . अपने कर्म में निरत यज्ञ कर्ता, स्वाध्याय से विज्ञ, ब्राह्मण एवं ऋषि मैत्रायणीय (के वंश) में श्रेष्ठ इन्द्रविष्णु के प्रपौत्र, पिता के गुणों के अनुकर्ता वरुण विष्णु के पौत्र, अपने पिता के पश्चात् (उत्तराधिकारी रूप में) उत्पन्न अपने वंश की वृद्धि के हेतु हरि विष्णु के पुत्र ने, जो भगवान् का परम भक्त है, विधाता की इच्छा से जिसे लक्ष्मी ने स्वयं वरण कर प्राप्त किया है जो यश से चारों समुद्र पर्यन्त प्रसिद्ध है तथा जिसे अक्षय सम्मान एवं धन सुलभ है, ऐसे अनेक शत्रुओं को युद्ध से जीतने वाले महाराज मातृविष्णु ने 8. तथा उसी के अनुज उसके अनुसर्ता तथा उसकी कृपा से संरक्षित धन्यविष्णु ने माता-पिता की पुण्य-वृद्धि के लिये पुण्यात्मा जनों के संरक्षक (पुण्यजनाईन) जनार्दन का यह ध्वज स्तम्भ खड़ा किया। गो, ब्राह्मण तथा उन्नतिशील सारी प्रजा का कल्याण हो। 9. For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भानुगुप्त का एरण स्तम्भ लेख एरण-सागर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, गुप्त संवत् 191 (510 ई०) संवत्सर-शते एकनवत्युत्तरे श्रावण बहुलपक्ष-स(प्त )म्य(ix) 2. संवत् 100 (+) 90 (+) 1 श्रावण ब-दि- 7॥ प्र/अशु(क्लवंशादुत्पन्नो).... 3. (धवन) राजेति विश्रुतः। तस्य पुत्रो (5)तिविक्क्रान्तो नाम्ना राजाथ विश्रुतः। गोपराज (:) सुतस्तस्य श्रीमान्विख्यात-पौरुषः। .. शरभराज-दौहित्रः स्ववंशतिलको(5)धुना (?) 2 श्री भानुगुप्तो जगति प्रवीरो राजा महान्यार्थ समो( 5 )ति शूरः। तेनाथ सार्द्धन्त्विह गोपर(राजो) 6. मित्रानु(गत्येन) किलानुयातः। 3 कृत्वा (च) (युद्धं सुमहत्प्रकाशं स्वर्गगतो दिव्य न(रे) (न्द्रकल्पः) 7. भक्तानुरक्ता च प्रिया च कान्ता भ(गाव)ल(ग्न )नुगता (ग्निर(शिम्। 1. कार्पस, खण्ड 3, पृ. 88-90 134 For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भानुगुप्त का एरण स्तम्भ लेख 135 1. 2. 4. ओम्। (गुप्त) संवत् 191 के श्रावण के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को संवत् 100 (+) 90 (+) 1 (=101) 1 श्रावण वदि 7. . . .वंश से उत्पन्न. . . . राजा के नाम से प्रसिद्ध था। उसका अत्यन्त प्रचण्ड (तेजस्वी) राजा माधव नामक पुत्र था। 1 गोपराज उसके पुत्र का नाम जो अत्यंत सम्पन्न है तथा जिसके पौरुष प्रसिद्ध है। वह शरभराज का दौहित्र तथा अपने वंश का आभूषण है। 2 जगत् में अपनी वीरता के लिय प्रसिद्ध श्री भानुगुप्त अर्जुन के समान अत्यंत वीर तथा महान् है। उसी के साथ गोपराज मित्रता में अनुसरण कर यहां चला आया। 3 अत्यंत प्रसिद्ध युद्ध कर दिव्य नरेश के समान वह स्वर्ग गया। जिसकी श्रद्धामयी, पति में अनुरक्त सुंदरी प्रिय भार्या (अपने मृत पति के शव से) आलिङ्गित हो (लिपट) कर (चिता) अग्नि में चली (सती हो) गयी। 4 7. For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख रिंस्थल-जिला मंदसौर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, संवत् 572 (515 ई०) वामेन सन्ध्याप्राणिपातकोपप्रसङ्गिनार्द्धन विघट्यमानम्। पिनाकिनश्शा(न्त विधेयमर्धं वामेतरं) वश्शिवमादधातु॥(1) रणेषु भूयस्सुभुवो महिम्ने बिभर्ति यः 2. कार्मुकमाततस्यम् ।। जयत्यसौ स्वस्य कुलस्य केतुर्ललाम राज्ञां भगवत्प्रकाशः॥ (2) भुवनस्थितिधाम धर्मसेतुस्सकलस्यौलिकरान्वयस्य लक्ष्म। द्रुमवर्द्धन इत्यभूत्प्र3. भावक्षपितारातिबलोन्नतिन्नरेन्द्रः॥ (3) शिरसीव पिनाकिनस्तुषार तिशीतामलदीधितिश्शशाङ्कः। निजवशललाम्नि यत्र सेनापतिशब्दः स्पृहणीयतां जगामः। 4 सुनयावलम्बनदृढीकतया बलसम्पदा प्रथितया भुजयोः। उदपादि तेन हृतशत्रुजयो जयवर्द्धनक्षितिपतिस्तनयः॥ (5) बहलेन यस्य सकलं परितः परिवृण्वता जलमुचेव वियत्। बलरेणुना करभकण्ठरुचा स्थगिता बभुर्न किरणास्सवितुः। 6 किरीटरत्नस्खलितार्कदीप्तुिषु प्रतिष्ठिताज्ञः प्रतिराजमूर्द्धसु। बलेन तस्यार्जितपौरुषः परैर्बभूव 136 For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 137 8. प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख राजा जितवर्द्धनस्सुतः।। मखेषु सोमासवपानलालसे समागते यस्य मुहुर्दिवस्पतौ। तताम हस्ताग्रनिवेशितानना वियोगचिन्ताकुलमानसा शची। 8 श्रुतविविक्तमनाः स्थितिमान्बली स्फुटयशः कुसुमोद्गमपादपः। जगति तस्य सुतः प्रथितो गुणैः कुलललाम विभीषणवर्द्धनः। 9 सदुदयैः प्रविकासिभिरुन्चलैरविहतप्रसरैः शुभरोहिभिः। सुचरितैः किरणैरिव भानुमान्क्षततमासि जगन्ति चकार यः10 भुवनस्थितिगोप्तृभिर्नृपैथुरमाद्यैर्विधृतां बभार यः। स्वकुलोचितराज्यवर्धनस्तनयस्तस्य स राज्यवर्द्धनः॥ 11 विललाप मुमोह विव्यथे विनिशश्वास विसंज्ञतां ययौ। उपतप्तमना बलोष्मणा द्विषतां यस्य विलासिनीजनः॥ 12 क्षितिपतितिलकस्य तस्य बाहुद्रविण10. निपीतसमग्रशत्रुदीप्तिः।सुचरितघटितप्रकाशधर्मा नृपतिललामसुतः प्रकाशधर्मा। 13 अमलिनयशसां प्रभावधाम्नां सकलजगन्महनीयपौरुषाणाम्। अवितथजनतानुराग11. भाजां स्थितिपदवीमनुयाति यो गुरूणाम्॥ 14 यः स्वान्वयक्रमपरम्परयोपयातमारोपितां गुणरसामहृतेन पित्रा। लोकोपकारविधये न सुखोदयाय राजश्रियं 12. शुभफलोदयिनीं बिभर्ति॥ 15 आतोरमाणनृपतेर्नुपमौलिरत्नज्योत्स्नाप्रतानशबलीकृपादपीठाम्। हूणाधिपस्य भुवि येन गतः प्रतिष्ठां नीतो युधावितथतामधिराजशब्दः॥ 16 For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 138 प्राचीन भारतीय अभिलेख 16. 13. संग्राममूर्द्धनि विपाठनिपातितानां तस्यैव ये (से)नमदवारिमुचां गजानाम्। आ (यामि/भान्ति) दन्तघटितानि तपोनिर्धियो भद्रासनानि रुचिमन्ति निवेदितानि॥ 17 (य/ )तस्यैव चाहवमुखे तरसा 14. जितस्य येनावरोधनवरप्रमदाः प्रमथ्या लोकप्रकाशभुजविक्रमचि हहेतोर्विश्राणिता भगवते वृषभध्वजाय॥ 18 राज्ञे पितामहविभीषणवर्द्धनाय श्लाघ्यानुभावगुरु15. पुण्यफलं निवेद्य (1) विस्तारि बिन्दुसरसः प्रतिबिम्बभूतमेतद्विभीषणसरसमखानि तेन19 एतच्च नृत्तरभसस्खलितेन्दुलेखावान्ताशुविच्छुरितमेचककण्ठभासः। स्थाणोस्समग्रभुवनत्रयसृष्टिहेतोः प्रालेयशैलतटकल्पमकारि सद्म।। 20 सद्व्यब्दसप्ततिसमासमुदायवत्सु पूर्णेषु पञ्चसु शतेषु विवत्सराणाम्। 17. ग्रीष्मेर्कतापमृदितप्रमदासनाथधारागृहोदरविजृम्भितपुष्पकेतौ। 21 लक्ष्म भारतवर्षस्य निदेशात्तस्य भूक्षितः। अकारयदशपुरे प्रकाशेश्वरसम यः।। 22॥ 18. तस्यैव च पुरस्यान्तर्ब्रह्मणश्चारुमन्दिरम्। उन्मापयदिव व्योम शिरैर्ये( )नरोधिभिः॥23॥ आश्रयाय यतीनाञ्च सांख्ययोगाभियोगिनाम्। व्यधत्त कृष्णावसथं बुज्जुकावसथं च यः।24।। 19. सभाकूपमठारामान्सद्मानि च दिवौकसाम्। योन्याश्चान्यायविमुखो देयधर्मानचीकरत्॥5॥ तेनैव नृपतेस्तस्य पूर्वजामात्यसूनुना। राजस्थानीयभगवद्दोषेणादोषसङ्गिना।26॥ For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख 20 एतज्जलनिधिहेपि विशालं खानितं सरः । इदञ्च जलदोल्लेखि शूलिनस्सद्म कारितम् ॥27॥ किसलयपरिवर्ती वीरुधां वाति यावत् सुरभिकुसुमगन्धामोदवाही नभस्वान् । 21. सर इदमभिरामं सद्म शम्भोश्च तावद्विहतदुरितमार्गे कीर्त्तिविस्तारिणिस्ताम्॥28॥ इति तुष्टुषया तस्य नृपतेः पुण्यकर्म्मणः । वासुलेनोपरचिता पूर्व्वेयं कक्कसूनुना ॥ 29 ॥ 139 शिवजी का दायां वह शान्त शरीर आपका कल्याण करे जो बायीं ओर से पार्वती से आधा संयुक्त (अर्धनारीश्वर ) है और जो उनके संध्या को नमन करने के कारण पार्वती के कोप के भाजन बन गये हैं। 1 धरती की महिमा के लिए रणक्षेत्रों में जो प्रत्यंचा चढ़ा धनुष बारम्बार धारण करता है - नृपों में श्रेष्ठ, अपने कुल के केतु ( पताका) इस भगवत्प्रकाश की जय हो ॥ 2 ॥ जगत् की स्थिति का धाम, धर्मसेतु और ( पूरे) औलिकर वंश का चीन्ह द्रुमवर्द्धन राजा हुआ जिसने अपने प्रभाव से शत्रुबल को नष्ट कर दिया था ।। 3 ।। शिवजी के सिर पर जैसे तुषारवर्षी, शीतल तथा विमल किरणों वाला चन्द्रमा शोभित होता है उसी प्रकार अपने वंश में श्रेष्ठ इस पर सेनापति शब्द स्पृहणीय हो गया ।। 4 ।। सुनीति के बल पर जिसने अपनी भुजाओं से सुप्रसिद्ध शक्ति और सम्पदा को दृढ़ किया - उसने शत्रुजयों के हर्ता पुत्र जयवर्धन को उत्पन्न किया ।। 5 ।। जिसकी गजकंठ जैसी प्रचुर सैन्यधूलि से आकाश चारों ओर से ऐसे परिवेष्टित हो गया जैसे मेघों से। तब क्या सूर्यकिरणें रुक नहीं गयीं ? ।। 6 ।। इसका पुत्र अजितवर्धन हुआ। शत्रुनृपों के मुकुटों के रत्नों से फिसलती सूर्यकान्ति वाले सिरों पर जिसकी आज्ञा प्रतिष्ठित थी तथा जिसने शत्रुबल से पौरुष अर्जित किया ।। 7 ।। For Private And Personal Use Only जिसके यज्ञों में सोमासव-पान की लालसा से बारम्बार आये इन्द्र के वियोग की चिन्ता से आकुल मन वाली शची हथेली पर मुख टिकाए (विरह से ) व्यथित 11811 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 140 प्राचीन भारतीय अभिलेख श्रुति से पवित्र मनवाला, सुदृढ़ स्थिति वाला, बलवान्, खिले ( विकसित) यश के कुसुमों का उद्गम-वृक्ष, गुणों से जगविख्यात कुल में श्रेष्ठ उसका पुत्र विभीषणवर्द्धन हुआ ।। 9।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूर्य के समान जिसने सीधे प्रकट होते, विकसित होते, अबाध फैलते, शुभ चढ़तीं बढ़ती सुचरित की किरणों से संसार को अन्धकार-रहित कर दिया। 10 पृथ्वी की स्थिरता की रक्षा करते हुए पूर्ववर्ती नृपों ने जिस धुर को धारण किया था, उसे जिसने धारण किया, उसका वह पुत्र राज्यवर्धन हुआ जो अपने कुल ( की परम्परा) के अनुसार राज्य को बढ़ाता रहा । । 11।। उसके बल की ऊष्मा से मन संतप्त हो जाने से शत्रुओं की नारियां रोयीं, किंकर्तव्यविमूढ हुईं, व्यथित हुईं, निःश्वास लेती रहीं और संज्ञाहीन बेसुध हो गयीं। ||12|| उस राजश्रेष्ठ का नृपों में श्रेष्ठ पुत्र प्रकाशधर्मा हुआ जो अपने बाहुबल से शत्रुओं की समूची दीप्ति पी गया तथा जिसने अपने सुचरित से प्रकाश (के) धर्म या गुण को निर्मित या घटित किया || 13 || निर्मल कीर्ति से सम्पन्न, प्रभाव की ज्योति से सारे जगत में महनीय पौरुष - सम्पन्न, जनता का सच्चा स्नेहपात्र जो पूर्वजों की सुदृढ़ प्रतिष्ठा का अनुसरण कर रहा है। ||4|| अपनी वंश परम्परा से आगत, गुण में ही रस लेने वाली, शुभ फल का उदय करने वाली, पिता के द्वारा जीवितावस्था में ही आरोपित राजलक्ष्मी को जो अपने सुख के लिए नहीं अपितु लोकोपकार के लिए धारण करता है | ||5|| राजाओं की चूडामणियों की व्यापक ज्योत्स्ना- कांति से झिलमिलाते पादपीठों वाली प्रतिष्ठा धराव्यापी थी- ऐसे हूणराज तोरमाण सहित नृपों के (विरुद्ध) अधिराज शब्द को जिसने युद्ध के द्वारा मिथ्या कर दिया। 16 उसकी ही सेना के मदमत्त गजों को रणक्षेत्र में लम्बे तीरों से मार गिराकर उनके दांतों से बने श्रेष्ठ एवं मनहर भद्रासन जिसने तपस्वियों को भेंट किये। ॥7॥ रण में सरलता से जीतने वाले तथा जगत्प्रसिद्ध भुजविक्रम के चिह्न के हेतुभूत उस (तोरमाण) के ही रनिवास की श्रेष्ठ प्रमदाओं ( नारियों) को मथ ( पकड़ धकड़) कर जिसने भगवान् वृषभ ध्वज (शिवजी) की सेवा में ( देवदासी बनाकर ) समर्पित कर दिया। ||8|| For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशधर्मा का रिस्थल शिलालेख 141 अपने पितामह राजा विभीषणवर्धन के लिए श्लाघनीय भाव तथा पर्याप्त पुण्यफल समर्पित कर उसने (पौराणिक) बिन्दु सरोवर के प्रतिबिम्ब सा और वैसा ही विस्तृत यह विभीषण सर खुदवाया। ।। 9॥ और नर्तन की प्रचण्डता से स्खलित चन्द्रकला से प्रकट किरणों से आच्छादित गहरे नीले कण्ठ की कान्ति वाले तथा तीनों लोकों के निर्माता शिवजी का हिमालय की श्रेणी जैसा यह विशाल मंदिर बनवाया।। 20।। पांच सौ बहत्तर (572) वर्ष पूर्ण होने पर ग्रीष्म के सूर्य-ताप से मुरझाई कामिनियों से युक्त धारागृहों (फव्वारा घरों) में जब कामदेव का प्रभाव बढ़ रहा था तब निर्दिष्ट होकर जिसने दशपुर (मन्दसौर) में वराह का प्रकाशेश्वर नामक मंदिर बनवाया जो भारतवर्ष का प्रतीक या पहचान बन गया।। 21-22।। उसी नगर में ब्रह्मा का सुंदर मंदिर भी बनवाया जो मेघों को रोकने वाले अपने शिखरों से मानो आकाश को माप रहा है।। 23|| और उसने सांख्य तथा योग के चिन्तक यतियों के आश्रय के लिए कृष्णावसथ तथा बुज्जुकावसथ अर्पित किये।।24।। सभा, कूप, मठ, उद्यान, देवों के मंदिर तथा अन्य कई का उस अन्याय से विमुख ने दानधर्म किया ।।25।। उस राजा के पूर्वजों के उसी अमात्यपुत्र दोषरहित संगी (साथी) राजस्थानीय भगवद्दोष ने यह सागर जैसे आकार का सुविस्तृत तालाब खुदवाया और मेघों को उकेरने वाला (समुन्नत) शिवजी का यह मंदिर बनवाया।।26-271 जब तक वनस्पति के किसलयों को डुलाने वाला और सुरभित कुसुमों की गन्ध बहा ले जाने वाला समीर बहता है, तब तक यह अभिराम सरोवर और शिवजी का मंदिर निष्कण्टक मार्ग में कीर्ति का विस्तार करे।। 28।। . इस प्रकार उस पुण्यकर्मा राजा को प्रसन्न करने की कामना से कक्क के पुत्र वासुल ने यह पूर्वोक्त (प्रशस्ति) रची।। 29।। For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख 1. दशपुर-मंदसौर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, मालव संवत् 589 (532 ई०) सिद्धम् (॥) स जयति जगतां पतिः पिनाकी स्मित-रव-गीतिषु यस्य दन्त-कान्तिः। द्युतिरिव तडितां निशि स्फुरन्ती तिरयति च स्फुटयत्यदश्च विश्वम्॥ 1 स्वयम्भूर्भूतानां स्थिति-लय-(समुत्पत्ति-विधिषु प्रयुक्तो येनाज्ञां वहति भुवनानां विधृतये। पितृत्वं चानीतो जगति गरिमाणं गमयता स शम्भु यांसि प्रतिदिशतु भद्राणि भव( ताम् )॥ 2 फण-मणि गुरुभारः [क्रा]-न्ति-दूरावनम्र स्थगयति रुचमिन्दोर्मण्डलं यस्य मूर्नाम् (।) स शिरसि विनिबध्ननन्ध्रिणीमस्थिमाला सृजतु भव-सृजो वः क्लेश-भङ्गं भुजङ्गः॥3 षष्ट्या सहस्रैः सगरात्मजानां खात ( : * ) ख-तुल्यां रुचमादधानः। अस्योदपानाधिपतेश्चिराय यशान्सि पायात्ययसां विधाता॥ 4 कार्पस 3, क्रमांक 35 142 For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 143 7. यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख अथ जयति जनेन्द्रः श्री-यशोधर्म-नामा प्रमद-वनमिवान्तः शत्रु-सैन्यं विगाह्य (।) व्रणकिसलय-भङ्गैयाँ (5) ङ्गभूषां विधत्ते तरुण-तरु-लतावद्वीर-कीर्तीविनाम्य॥ 5 आजौ जिती विजयते जगतीम्पुनश्च श्रीविष्णुवर्द्धन-नराधिपतिः स एव। प्रख्यात औलिकर-लाञ्छन आत्मवंशो येनोदितोदित-पदं गमितो गरीयः॥ 6 प्राचीनृपान्सुबृहतश्च बहूनुदीचः साम्ना युधा च वशगान्प्रविधाय येन (।). नामापरं जगति कान्तमदो दुरापं राजाधिराज-परमेश्वर इत्युदूढम्॥ 7 स्निग्ध-श्यामाम्बुदाभैः स्थगित-दिनकृतो यज्वनामाज्य-धूमैरम्भोमेध्यं मधोनावधिषु विदधता गाढ़-सम्पन्न-सस्याः। संहर्षाद्वाणिनीनां कर-रभस-हृतो-द्यानचूताङ्कुराग्रा राजन्वन्तो रमन्ते भुज-विजित-भुवा भूरयो येन देशाः॥8 यस्योत्केतुभिरुन्मद-द्विप-कर-व्याविद्ध-लोध्र-द्रुमैरुद्भूतेन वनाध्वनि ध्वनि-नदद्विन्ध्याद्रि-रन्धैर्बलैः (।) बालेय-च्छवि-धूसरेण रजसा मन्दांशु संलक्ष्यते पर्यावृत्त-शिखण्डि-चन्द्रक इव ध्यामं रवेर्मण्डलम्॥9 तस्य प्रभोर्वशकृतां नृपाणां पदाश्रयाद्विश्रुत-पुण्यकीर्तिः। भृत्यः स्व-नैभृत्य-जितारि-षट्क आसीद्वसीयान्किल षष्ठिदत्तः॥ 10 हिमवत इव गाङ्गस्तुङ्ग-नम्रः प्रवाहः शशभृत इव रेवा-वारि-राशिः प्रथीयान् (।) परमभिगमनीयः शुद्धिमानन्ववायो यत उदित-गरिम्णस्तायते नैगमानाम्॥ 11 For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 144 प्राचीन भारतीय अभिलेख 11. तस्यानुकूलः कुलजात्कलत्रा त्सुतः प्रसूतो यशसां प्रसूतिः। हरेरिवांङ्गशं वशिनं वराहं (हैं?) वराहदासं यमुदाहरन्ति। 12 सुकृति-विषयि-तुङ्गरूढमूलं धरायां स्थितिमपगतभङ्गां स्थेयसीमादधानम् (।) गुरु-शिखरमिवारेस्तत्कुलं स्वात्म-भूत्या रविरिव रविकीर्त्तिः सुप्रकाशं व्यधत्त॥ 13 बिभ्रता शुभ्रमभ्रंशि स्मार्तं वोचितं सताम् (।) न विसंव्वादिता येन कलावपि कुलीनता॥ 14 13. धूत-धीदीधिति-ध्वान्तान्हविर्भुज इवाध्वरान् (।) भानुगुप्ता ततः साध्वी तनयांस्त्रीनजीजनत्॥ 15 भगवद्दोष इत्यासीत्प्रथमः कार्यवर्त्मसु। आलम्बनं बान्धवानामन्धकानामिवोद्धवः॥ 16 14. बहु-नय-विधि-वेधा गह्वरे( 5 )प्यर्थ-मार्गे विदुर इव विदुरं प्रेक्षया प्रेक्षमाणः। वचन-रचन-बन्धे संस्कृत-प्राकृते यः कविभिरुदित-रागं गीयते गीरभिज्ञः॥ 17 15. प्रणिधि-दृगनुगन्त्रा यस्य बौद्धेन चाक्ष्णा न निशि तनुदवीयो वास्त्यदृष्टं धरित्र्याम् (।) पदमुदयि दधानो(5)नन्तरं तस्य चाभूत् सभयमभयदत्तो नाम विन( चिन्व? )प्रजानाम्॥ 18 16. विन्ध्यस्यावन्ध्य-कर्मा शिखर तट-पतत्पाण्डु-रेवाम्बुराशे ग्र्गोलाङ्गलैः सहेल-प्लुति-नमित-तरोः पारियात्रस्य चाद्रेः। आ सिन्धोरन्तरालं निज-शुचि-सचिवाध्यासितानेक-देशं 17. राजस्थानीय-वृत्या सुरगुरुरिव यो वर्णिनां भूतये (5) पात्। 19 विहित-सकल-वर्णासङ्करं शान्त-डिम्बं For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख 145 19. कृत इव-कृतमेतद्येन राज्यं निराधि। स धुरमयमिदानीं दोषकुम्भस्य सुनु18. गुरु वहति तदूढां धर्मतो धर्मदोषः 120 स्व-सुखमनभिवाञ्छन्दुर्गमे(5)ध्वन्यसङ्गां धुरमतिगुरुभारां यो( दधद् भर्तुरर्थे। वहति नृपति-वेशं केवलं लक्ष्म-मालं वलिनमिव विलम्बं कम्बलं बाहुलेयः॥ 21 उपहित-हित-रक्षामण्डनो जाति-रत्नैर्भुज इव पृथुलांसस्तस्य दक्षः कनीयान्। (1) महदिदमुदपानं खान(त? )यामास बिभ्र20. च्छुति-हृदय-नितान्तानन्दि निर्दोष-नामा। 22 सुखाश्रेय-च्छायं परिणति-हित-स्वादु-फलदं गजेन्द्रेणारुग्णं द्रुममिव कृतान्तेन बलिना। पितृव्यं प्रोद्दिश्य प्रियमभयदत्तं पृथुधिया 21. प्रथीयस्तेनेदं कुशलमिह कर्मोपरचितं(तम्) ॥ 23 पञ्चसु शतेषु शरदां यातेष्वेकोन्नवति-सहितेषु। मालव-गण-स्थिति-वशात्काल-ज्ञानाय लिखितेषु।। 24॥ 22. यस्मिन्काले कल-मृदु-गिरां कोकिलानां प्रलापा भिन्दन्तीव स्मर-शर-निभाः प्रोषितानां मनांसि। भृङ्गालीनां ध्वनिरनुवनं भार-मन्द्रश्च यस्मि नाधूत-ज्यं धनुरिव नदच्छ्यते पुष्पकेतोः॥ 25॥ प्रियतम-कुपितानां कम्पयन्बद्धरागं किसलयमिव मुग्धं मानसं मानिनीनाम्। उपनयति नभस्वान्मान-भङ्गाय यस्मिनन्कुसुम समय-मासे तत्र निर्मापितो (5) यम्॥ 26॥ 24. यावत्तु रुदन्वान् किरणसमुदायं सङ्गकान्तं तरङ्गै रालिङ्गन्निदुबिम्बं गुरुभिरिव भुजैःसंविधत्ते सुहृत्ताम्। बिभत्यसौधान्तलेखावलयपरिगतिं मुण्डमालामिवायं सत्कूपस्तावदा25. स्ताममृतसमरसवच्छविष्यन्दिताम्बुः॥ 27 23. For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 146 प्राचीन भारतीय अभिलेख 1. 3. धीमां दक्षो दक्षिणः सत्यसन्धो ह्रीमाँच्छूरो वृद्धसेवी कृतज्ञः। बद्धोत्साहः स्वामिकार्येष्वसेदी निर्दोषोऽयं पातु धर्मं चिराया28 उत्कीर्णा गोविन्देन। सिद्धि हो। पिनाकधारी जगत्पति उस शिव की जय हो जिसकी मस्कराहट, वार्तालाप तथा गीति में स्फुटित दन्तकान्ति रात में चमकती विद्युत्कान्ति के समान इस विश्व को तिरोहित तथा प्रकट करती रहती है। 1 प्राणियों की स्थिति, विनाश तथा उत्पत्ति के कार्यों में नियुक्त ब्रह्मा भी भुवनों को धारण करने के लिये जिसकी आज्ञा वहन करते हैं तथा जगत् में जिसको महिमा प्रदान करते हुए पितृत्व दिया, वह शम्भु आपका प्रभूत कल्याण करे। 2 फण की मणियों के अत्यंत भार के कारण अत्यधिक अवनत जिसके सिर के चन्द्रमण्डल की कान्ति को क्षीण करते हुए (शिव) के शिर पर छिद्रमयी अस्थियों की माला बांधता है, विश्वनिर्माता शिवजी का वह सर्प आपके दुःख दूर करे। 3 जिसे सागर के साठ सहस्र पुत्रों ने खोदा तथा जो आकाश के समान कान्ति धारण करता है वह समुद्र इस (कूप) जलाशय के निर्माता के यश की चिरकाल तक रक्षा करे। 4 तदनन्तर राजा श्रीयशोधर्मा की जय हो जिसने प्रमदवन के समान शत्रु सैन्य में प्रवेश कर नूतन वृक्षलता के समान वीर कीर्ति को झुकाकर व्रण रूपी किसलय-आभूषण से अङ्गों को शोभित किया। 5 और तदनन्तर युद्ध में विजय पाकर जगत् के विजेता उसी राजा विष्णुवर्धन (अपर नामधारी यशोधर्मा) की जय हो जिसने अपने औलिकर नामक श्रेष्ठ एवं प्रख्यात वंश को उन्नतोन्नत पद पर पहुंचा दिया। 6 जिसने पूर्व के महान् तथा उत्तर के अनेक नृपों को शांति तथा युद्ध से अपने अधीन कर जगत् में दुर्लभ एवं कमनीय राजाधिराज परमेश्वर उपनाम धारण किया। 7 होताओं की घृताहुति के समान शोभन एवं काले मेघों के समान धूम से सूर्य 4. 5. 6. For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख 147 को आच्छन्न करने वाले, इन्द्र के द्वारा समुचित अवसर पर वर्षा की जाने से अन्न से अत्यन्त सम्पन्न, शृंगारप्रिय स्वेच्छाचारिणी (वाणिनी) वनिताओं के हाथों से हड़बड़ी में तोड़े जाने वाले उद्यान के आम्र के बौर आदि से सम्पन्न और राजा के भुजबल से विजित अनेक देश इसके द्वारा नियुक्त अधीनस्थ नृपों से मुक्त हो (हर्षामोद से) क्रीड़ा कर रहे हैं। 8 ऊंची पताकाओं वाली, उन्मत्त गजों की सूंड से लोघ्र वृक्षों को उखाड़ने वाली, अपने गर्जन से विन्ध्य की गुहाओं को प्रतिध्वनित करने वाली जिसकी सेना 9. गधे के वर्ण के समान, धूमिल (भूरी) धूलि में से मन्द प्रभा वाला सूर्यमण्डल, उलटे मोरपंख के चन्द्र सा मलिन दिखाई देता है। 9। उस नप के वंश के नृपों के चरणाश्रय से प्रथित एवं पावन कीर्ति वाला सेवक षष्ठिदत्त था जिसने अपनी नम्रता से (काम आदि) छः शत्रुओं 10. को जीत लिया था तथा जो धन से सम्पन्न था। 10 जैसे हिमालय से गंगा का समुन्नत एवं नम्र प्रवाह एवं चन्द्रमा से जैसे नर्मदा की जलराशि फैली तथैव परम महिमाशाली (षष्ठिदत्त) से नैगम (व्यापारियों के समूह) के लिये उन्नति शाली गरिमामय विशुद्ध वंश का प्रसार हुआ।lll 11. कुलीन पत्नी से उसे उसके अनुकूल पुत्र उत्पन्न हुआ जो यश का स्रोत था एवं विष्णु के अंश के समान जितेन्द्रिय एवं सुयोग्य था। 12 सत्कर्म तथा ज्ञान से समुन्नत, पृथ्वी पर सुस्थिर, अविनाशी स्थिरता की चरमसीमा धारण करने वाला, पर्वत के शिखर के समान समुन्नत उस कुल को अपने ऐश्वर्य से रवि के समान रविकीर्ति ने आलोकित कर दिया। शुभ्र, अविनाशी, स्मृति के अनुकूल, सज्जनों के पथानुकूल आचरण करते हुए जिसने, 13. कलियुग में भी कुलीनता को कलंकित नहीं किया। 14 मेधा की किरणों से (अज्ञान) अन्धकार को विनष्ट करने वाले अनल यज्ञ के समान तीन पुत्रों को उससे उसकी साध्वी पत्नी ने उत्पन्न किया।। 15 उनमें से प्रथम का नाम भगवद्दोष था जो कार्यपद्धति में For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 148 प्राचीन भारतीय अभिलेख 14. अब 15. अन्धकों के लिये उद्धव के समान (अपने) बन्धुओं का आलम्बन था। 16 विविध नीति-प्रणाली का ज्ञाता, गहन अर्थ (शास्त्रीय) पथ में विदूर के समान दूरगामी दृष्टि से देखता था। संस्कृत तथा प्राकृत वाणी के रचनाबन्ध (काव्य) का कुशल वक्ता (रचयिता) था अतः कविगण उसकी अनुराग पूर्वक प्रशंसा करते थे। 17 समुन्नत पद को धारण करने वाला तथा प्रजा के भय को विलग करने वाला अभयदत्त नामक उसका अनुज हुआ जिसकी गुप्तचरी दृष्टि का अनुसरण करने वाले प्रबुद्ध नयन से पृथ्वी पर अत्यन्त सूक्ष्म तथा सुदूरवर्ती वस्तु भी अदृष्ट न रही। 16. सफल कार्य कर्ता, शिखर के छोर से गिरते पाण्डु वर्ण की नर्मदा जलराशि वाले विन्ध्य से लगाकर लंगूरों की उछल कूद से सहसा झुकते वृक्षों वाले पारियात्र पर्वत से सिन्धु के मध्यवर्ती, अपने पवित्र सचिवों से शासित अनेक देशों 17. को राजा के प्रतिनिधि के रूप में, बृहस्पति के समान, चारों वर्गों की समृद्धि के लिये (प्रजा) का पालन किया। 18 सारे वर्गों के सांकर्य का निषेध किया, शांति स्थापित की तथा सत्ययुग के समान इस राज्य को जिसने आधि(चिन्ता) रहित कर दिया। 18. वह धर्मदोष स्वीकार की गयी भारी धुरा का अब धर्मपूर्वक वहन कर रहा है जो दोषकुम्भ का पुत्र है। 20 अपने स्वामी के लिये जो अपने सुख से निरपेक्ष होकर एकाकी, दुर्गम पथ में भी अत्यंत गुरु (राज्य) धुरा के भार को धारण करता हुआ राजवेष तो चिह्न (पहचान) मात्र के लिये धारण करता है, वह जैसे भारी तथा लटकते हुए गलकम्बल को वृषभ (धारण करता है) 21 बहुमूल्य रत्नों से, हित एवं रक्षा के लिये शोभित होने वाली भुजा के समान, (प्रजा हित एवं रक्षा के आभूषण से अलंकृत), विशाल कन्धों वाले (धर्मदोष के) छोटे भाई दक्ष ने श्रुति तथा हृदय को आनन्ददाता निर्दोष नामक इस मनोरम विशाल कूप को खुदवाया। 22 सुखपूर्वक सेवन योग्य छाया वाले, पकने से हितकारी एवं स्वादिष्ट फल 20. For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोधर्मा विष्णुवर्धन का मन्दसौर शिलालेख 149 देने वाले, वृक्ष को जैसे बलशाली गजराज तोड़ दे वैसे ही कृतान्त के द्वारा कवलित काका अभयदत्त की पुण्य स्मृति में बुद्धिमान् (दक्ष) ने यहां विस्तृत तथा कलापूर्ण कूप बनवाया। 23 समय के ज्ञान के लिये मालव गण की स्थापना से 589 शरद् व्यतीत होने पर -24 22. जिस काल कमनीय तथा कोमल वाणी वाली कोकिला की काम के शर के समान आवाज परदेशी विरहियों के मन को छोड़ देती है, भ्रमरों की मदमस्त गुंजार कामदेव के धनुष को टंकार के समान वन वन में सुनाई दे-25 प्रियतप से रूठी माननियों के किसलय के समान अनुरागमय एवं भोलेपन को कम्पित करता हुआ वायु मान-भंग करने के लिये प्रेरित करता है; उस वसना मास में यह (कूप) बनवाया गया। 26 जब तक समुन्नत एवं विशाल भुजाओं सी तरङ्गों से सागर उदित होती किरणों के सान्निध्य से कमनीय चन्द्र का आलिंगन करता हुआ मैत्री बनाये रखता है तब तक अमृत सा स्वादिष्ट, स्वच्छ एवं बढ़ते जल वाला यह कूप भी शोभित होता 25. रहे जो सौध (प्रासाद) के निकट मुण्डमाला के समान वृत्ताकार बना है। 27 विद्वान्, चतुर, उदार, सत्यव्रती, लज्जाशील, वीर, गुरुजनों का सेवक, कृतज्ञ, उत्साह सम्पन्न, स्वामी के कार्य में आलस्य रहित तथा दोषरहित यह (दक्ष) धर्म की चिरकाल तक रक्षा करे। 28 यह प्रशस्ति गोविन्द ने उत्कीर्ण की। 23. 24. For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोधर्मा का मन्दसौर स्तम्भलेख मन्दसौर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्मी (छठी शती का पूर्वार्ध) 1. वेपन्ते यस्य भीम-स्तनित-भय-समुद्घान्त-दैत्या दिगन्ताः शृङ्गाघातैः सुमेरोविघटित-दृषदः कन्दरा यः करोति। उक्षाणं तं दधानः क्षितिधरतनयादत्त( पञ्चाङ्गलांक) द्राधिष्ठः शूलपाणेः क्षपयतु भवतां शत्रु-तेजांसि केतुः॥1॥ आविर्भूतावलेपैरविनय-पटुभिलचिताचार-(मा )ग्गैंमोहा-दैदंयुगीनैरपशुभ-रतिभिः पीड्यमाना नरेन्द्रैः। यस्य क्ष्माशाङ्गपाणे-रिव कठिन-धनुर्ध्या-किणाङ्क-प्रकोष्ठं बाहुं लोकोपचार- व्रत- सफल-परिस्पन्द-धीरं प्रपन्ना।। 3. निन्द्याचारेषु योऽस्मिन्विनय-मुषि युगे कल्पनामात्रवृत्या राजस्वन्येषु पांसुष्विव कुसुमबलि वभासे प्रयुक्तः। स श्रेयो धाम्नि साम्राडिति मनु-भरतालक्र्क-मान्धातृ-कल्पे कल्याणे हेम्नि भास्वान्मणिरिव सुतरां भ्राजते यत्र शब्दः।। ये भुक्ता गुप्तनाथैर्न सकलवसुधाक्क्रान्ति-दृष्टप्रतापैर्नाज्ञा हूणाधिपानां क्षितिपतिमुकुटाध्यासिनी यान्प्रविष्टा। देशांस्तान् धन्व-शैल-द्रुमगहनसरिद्वीरबाहूपगूढान्। वीर्य्यावस्कन्न राज्ञः स्वगृहपरिसरावज्ञया यो भुनक्ति॥4॥ 1. कार्पस, खण्ड 3, पृ०-142-48 150 For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 151 शोधर्मा का मन्दसौर स्तम्भलेख 5 आलौहित्योपकण्ठात्तलवनगहनोपत्यकादामहेन्द्रा दागङ्गाश्लिष्टसानोस्तुहिनशिखरिणः पश्चिमादापयोधेः।सामन्तैर्यस्य बाहु-द्रविण-हृतमदैः पादयोरानमद्भिश्चूडा-रत्नांशु-राजि- व्यतिकर-शबला भूमिभागाः क्रियन्ते।।। स्थाणोरन्यत्र येन प्रणतिकृपणतां प्रापितं नोत्तमाकं यस्याश्लिष्टो भुजाभ्यां वहति हिमगिरिदुंग्गशब्दाभिमानम्। नीचैस्तेनापि यस्य प्रणतिभुजबलावर्जनक्लिष्टमूर्द्धा चूडा पुष्पोपहारैमिहिरकुलनृपेणार्चितं पादयुग्मम्।।6 7. गामेवोन्मातुमूर्ध्वं विगणयितुमिव ज्योतिषां चक्क्रवालं निर्देष्टुं मार्गमुच्चैर्दिव इव सुकृतोपार्जितायाः स्वकीर्तेः। तेनाकल्पान्त-कालावधिरवनिभुजा श्रीयशोधर्मणायं स्तम्भः स्तम्भाभिराम-स्थिर-भुज-परिघेणोच्छितिं नायितोऽत्र। 8. श्लाघ्ये जन्मास्य वंशे चरितमघहरं दृश्यते कान्तमस्मिन् धर्मस्यायं निकेतश्चलति नियमितं नामुना लोकवृत्तम्। इत्युत्कर्षं गुणानां लिखितुमिव यशोधर्मणश्चन्द्रबिम्बे रागादुत्क्षिप्तं उच्चैर्भुज इव रुचिमान्यः पृथिव्या विभाति॥8 इति तुष्टूषया तस्य नृपतेः पुण्यकर्मणः। वासुलेनोपरचिताः श्लोकाः कक्कस्य सूनुना॥७॥ उत्कीर्णा गोविन्देन। दिगन्त (दिशाओं के छोर) में रहने वाले दैत्य जिसके भीषण गर्जन के भय से व्यथित हो कांप उठते हैं। जो अपने शृंगों के आघात से पाषाणों से दृढ़ सुमेरु (पर्वत) में भी गुहा बना देता है, जिस पर पार्वती ने (स्नेह से साथ लगाकर) पञ्चांगुलि का चिह्न बना (अलंकृत कर) दिया है उस (नन्दी) वृषभ को धारण करने वाला, यह शूलपाणि (शिवजी) का समुन्नत केतु आपके शत्रुओं के प्रताप को नष्ट करे। 1 2. जिनमें गर्व का आविर्भाव हो गया है, जो उद्धत (अनम्र) आचार में पटु हैं; For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 152 प्राचीन भारतीय अभिलेख आचार पथ (सदाचार) को जिन्होंने त्याग दिया है, जिनकी अशुभ में आसक्ति है उस युग के ऐसे नरेशों की मूढता से भूमि उसके पास पहुंच गयी जो विष्णु क समान कठोर धनुष की प्रत्यञ्चा के आघात के चिह्न वाले मणिबन्ध से युक्त बाहु वाला है तथा जो प्रजा-हित के व्रत की सफलता से उत्पन्न कंपकपी में धैर्य रखने वाला है (जिसे गर्व नहीं होता)। 2 जो इस अविनीत युग में निन्दनीय आचार वाले अन्य नृपों में केवल कल्पना-वृत्ति से भी उसी प्रकार संयुक्त हो सुशोभित न हो सकता जैसे धूल में पुष्प बलि। मनु, भरत, अलर्क तथा मान्धाता के समान उस महान् के प्रताप में 'सम्राट्' शब्द उसी प्रकार नितांत सुशोभित होता है जैसे चमकती मणि कुंदन में। 3 जो राजाओं में मरु, पर्वत, गहन वन, सरिताओं तथा वीरों के द्वारा संरक्षित देशों पर अपनी शक्ति से विजय पाकर उन्हें अपने घर के आसपास (की भूमि के) समान भोग रहा है, जिन्हें सारी पृथ्वी को रौंद कर अपना प्रताप दिखाने वाले गुप्तनाथ (गुप्त सम्राट् अधीन कर) नहीं भोग पाये तथा न जिन (अधीनस्य) नृपों के सिर पर बिराजने वाली आज्ञा उन हूण नृपों में प्रवेश पा सकी, उसका अपने घर के परिसर के समान जो उपभोग कर रहा है। लोहित के समीप, ब्रह्मपुत्र की गहरी घाटियों (तलहटी), महेन्द्र पर्वत, हिमालय की गंगा से स्पृष्ट चोटी (गंगोत्री) तथा अरब सागर तक के (अधीनस्थ) सामन्त, जिनकी शक्ति तथा सम्पत्ति के साथ अहंकार का भी अपहरण हो गया है, (तथा जो) जिसके चरणों में नमन करते हुए चूडामणि की किरण से भूमि भाग को विचित्र बना रहे हैं। 5 6. जिसने शिव के अतिरिक्त अन्य किसी के भी सामने सिर झुकाकर दीनता व्यक्त नहीं की, जिसकी भुजाओं से घिरा हिमालय 'दुर्ग' शब्द में गर्व का वहन करता है उस राजा मिहिरकुल ने भी अपने कठोर सिर पर अपनी बलिष्ठ भुजाओं से नमन करते हुए सिर के पुष्पहारों से जिसके दोनों चरणों की अर्चना की। 6 मानो पृथ्वी को मापने के लिये, ऊपर तारक समूह को गिनने के लिये, सत्कर्मों से उपार्जित कीर्ति को ऊपर की ओर स्वर्ग का पथ बताने के लिये, स्तम्भ के समान ही मनोरम तथा दृढ़ भुजा की अर्गल वाले उस राजा श्री यशोधर्मा ने प्रलयकाल तक की कालावधि तक के लिये यहां यह स्तम्भ खड़ा करवा दिया है। 7 For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 8. www. kobatirth.org शोधर्मा का मन्दसौर स्तम्भलेख इस श्लाघ्य वंश में जन्म लेने वाले इस यशोधर्मा का चरित पापहारी तथा कमनीय दिखायी देता है। यह धर्म का सदन है। इसके द्वारा निर्धारित मानवचरित (वृत्त) अपना सन्मार्ग नहीं छोड़ता - इत्यादि उत्कृष्ट गुणों को मानो चन्द्र- बिम्ब पर राग (अनुराग से तथा रंग से) लिखने के लिये पृथ्वी के कान्तिमान् समुन्नत बाहु के समान जो (स्तम्भ) सुशोभित हो रहा है। पवित्र कर्म करने वाले उस नृप के संतोष के लिये कक्क के पुत्र वासुल ने ये श्लोक रचे । 9 ( यह प्रशस्ति) गोविन्द ने उत्कीर्ण की। 9. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 153 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिहिरकुल का ग्वालियर शिलालेख ग्वालियर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, छठी शती का पूर्वार्ध (ओं स्वस्ति॥) (ज)(य) ति जलद-वल-ध्वान्तमुत्सारयन्स्वैः किरण-निवहजालोम विद्योतयद्भिः । (।) उ (दय)-(गिरि) तटाग्र (') मण्डयन् यस्तुरंगैः चकित-गमन-खेद-भ्रान्त-चंचत्सटान्तैः (।)1 उदय- (गिरि) . . . .ग्रस्त-चक्रो (5) र्ति -हर्ता भुवन-भवन-दीपः शर्व्वरी-नाश-हेतुः (।) तपित-कनक-वण्णैरंशुभिः पङ्कजान()मभिनव-रमणीयं यो विधत्ते स वो(5)व्यात् (।)2 श्री-तोर( माण इ)ति यः प्रथितो 3. (भूचक्र )पः प्रभूत-गुणः (।) सत्य-प्रदान-शौर्यायेन मही न्यायत( :) शास्ता (1)3 तस्योदित-कुल-कीर्तेः पुत्रो (5) तुल-विक्रमः पतिः पृथ्व्याः (।) मिहिरकुलेतिख्यातो (5)भङ्गो यः पशुपतिम. . . . (॥) 4 (तस्मिना जनि शसति पृथ्वी पृथु-विमल-लोचने (5)र्तिहरे(।) अभिवर्द्धमान-राज्ये पंचदशाब्दे नृपवृषस्य (1)5 शशिरश्मिहास-विकसित-मुकुदोत्पल-गन्ध-शीतलामोदे (।) कार्तिक-मासे प्राप्त गगन1. कार्पस, खण्ड 3, पृ. 161-64 154 For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिहिरकुल का ग्वालियर शिलालेख 155 5. (पतौ) (निर्मले भाति (॥) 6 द्विज-गण-मुख्यैरभिसंस्तुते च पुण्याह-नाद-घोषेण (1) तिथि-नक्षत्र-मुहूर्ते संप्राप्ते सुप्रशस्त- (दिने) (1)7 मातृतुलस्य तु पौत्रः पुत्रश्च तथैव मातृदासस्य (।) नाम्ना च मातृचेटः पद्ध(त-दुर्ग XIनु) वास्तव्यः (1) 8 नानाधातु-विचित्रे गोपाह्वय-नाम्नि भूधरे रम्ये (।) कारितवान्शैलमयं भानोः प्रासाद-वर-मुख्यम् (॥)9 पुण्याभिवृद्धिहेतोर्मातापित्रोस्तथात्मनश्चैव (।) वसता (') च गिरिवरे( 5 )स्मि(न्) राज्ञः xxx (पा?) देन (॥) 10 ये कारयन्ति भानोश्चन्द्रांशु-सम-प्रभं गृह-प्रवरं रम् ) (1) तेषां वासः स्वर्गे यावत्कल्प-क्षयो भवति॥॥भक्त्या रवेविरचितं सद्धर्म-ख्यापनं सुकीर्तिमयं (यम्) (।) नाम्ना च केशवेति प्रथितेन च । xxx (दि?) त्येन (1) 12 यावच्छव-जटा-कलाप-गहने विद्योतते चन्द्रमा दिव्यस्त्री- चरणैविभूषित-तटो यावच्च मेरुर्नगः (।) यावच्चोरसि नील-नीरद-निभे विष्णुविभयुज्ज्वलां श्रींस्तावगिरि-मूनि तिष्ठति (शिला-प्रा )साद-मुख्यो रमे( ॥)13 1. स्वस्ति। आकाश को अपने किरण जाल से प्रकाशित करते हुए और मेघसमूह जैसे अंधकार को दूर करते हुए, उदयाचल के शिखरों को यात्रा से थके और भ्रान्त और चकित अश्वों की चमकती अयाल (गर्दन के बाल) से शोभित करते सूर्य की जय हो।' उदयाचल में फंसा चक्र कष्ट दूर करता है, विश्व-भवन का दीपक है, निशा-विनाश का कारण है, अपने तपे स्वर्ण जैसे रंगों वाली किरणों से जो कमलों को नूतन रमणीय बना देता है, वह सूर्य आपकी रक्षा करे। 2 जो तोरमाण के नाम से प्रसिद्ध है, 8. For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 156 3. 5. प्राचीन भारतीय अभिलेख यह राजा प्रचुर गुणों से सम्पन्न है। सत्य, वीरता और दान आदि से जो पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करता रहा। 3 जिसके कुल की कीर्ति का उदय हो चुका है ऐसे उस (तोरमाण) का पुत्र अपार विक्रम वाला पृथ्वीपति राजा मिहिर कुलनाम से विख्यात हे जो पशुपति शिवजी के सामने ही झुकता है। 4 विशाल और विमल लोचन वाला तथा कष्ट दूर करने वाली दृष्टि से सम्पन्न उस राजा को जब पृथ्वी का शासन करते हुए वर्धमान पन्द्रह वर्ष हो गये।5 तब चन्द्रकिरणों के हास से खिले कुमुद-उत्पल की गन्ध की शीतलता से आमोद के कार्तिक मास में जब सूर्य भी विमल सुशोभित होता है। 6 पुण्य वाणी के ध्वनिघोष से जब द्विजगण के प्रमुख स्तुति करते हैं जब तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त से सम्पन्न शुभ दिन। 7 मातृतुल के पौत्र और मातृदास के पुत्र जिसका नाम मातृचेट है और जो (इस) पर्वत के दुर्ग के पास ही रहता है। अनेक धातुओं से विचित्र गोप नामक रमणीय पर्वत पर पत्थरों का यह सूर्य-मंदिर बनवाया जो श्रेष्ठ मंदिरों में प्रमुख है। 7 माता-पिता तथा अपनी पुण्य-वृद्धि के लिए इस श्रेष्ठ पर्वत पर वास करते हुए राजा के चन्द्र की किरणों जैसी कांति से सम्पन्न हो सूर्य का श्रेष्ठ भवन (मंदिर) बनवाते हैं उनका स्वर्ग में तब तक निवास रहता है जब तक कल्पान्तर होता है। 1 सूर्य की भक्ति से जो सद्धर्म को ख्याति देता है और श्रेष्ठ कीर्ति सम्पन्न है और केशव नाम से जो विख्यात है-आदित्य द्वारा यह रचना की गयी। 12 जब तक शंकर के जटाजूट के गुल्म में चन्द्रमा चमकता रहे, जब तक मेरु पर्वत की तलहटी देवांगनाओं के चरणों से विभूषित रहे, जब तक नील मेघ के समान विष्णु वक्ष पर उज्ज्वल लक्ष्मी को धारण करते रहें तब तक इस पर्वत के शिखर पर यह प्रस्तर-प्रासादों में प्रमुख मंदिर मन मोहता रहे।। 13 6. 7. 8. For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख हड़हा-जिला बाराबांकी, उ०प्र० भाषा-संस्कृत लिपि-उत्तर भारतीय ब्राह्मी, वि०सं० 611 (553-54 ई०) लोकाविष्कृत संक्षयस्थितिकृतां यः कारणं वेधसाम् ध्वस्तध्वान्तचयाः परास्तरजसो ध्यायन्ति यंयोगिनः (।) यस्यार्द्धस्थितयोषितोपि हृदये नास्थायि चेतोभुवा भूतात्मा त्रिपुरान्तकःस जयति श्रेयः प्रसूतिर्भवः (1) 1 आशोणां फणिनः फणोपलरुचा सैवी वसानं त्वचं शुभ्रां लोचनजन्मना कपिशयद्भासा कपालावलीम् (।) तन्वी ध्वान्तनुदं मृगाकृतिभृतो विभ्रत्कलां मौलिना दिश्यान्धकविद्विषः स्फुरदहि स्थेयः पदं वो वपुः (॥)2 सुतशतं लेभे नृपोश्वपतिव्वैवस्वताद्यद्गुणोदितम् (।) तत्प्रसूता दुरिवृत्तिरुधो मुखराः क्षितीशा: क्षतारयः (॥) 3 तेष्वादो हरिवर्मणोवनिभुजो भूतिर्भु वो भूतये (1) रुद्धाशेषदिगन्तरालयशसा रुग्णारिसंपत्विषा (।) सङ्ग्रामे हुतभुक्प्रभाकपिशितं वक्त्रं समीक्ष्यारिभिर्यो भीतेः प्रणतस्ततश्च भुवने ज्वालामुखाख्यां गतः (॥) 4 लोकस्थितीनां स्थितयेस्थिए०३० 14, पृ. 14 1. 157 For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 158 5. 6. 7. www. kobatirth.org प्राचीन भारतीय अभिलेख तस्य मनोरिवाचारविवेकमार्गे (1) जगहिरे यस्य जगन्ति रम्याः सत्कीर्त्तयः कीर्तयितव्यनाम्नः ( 1 ) 5 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तस्मात्पयोधेरिव शीतरश्मिरादित्यवर्म्मा नृपतिर्बभूव (1) वर्णाश्रमाचारविधिप्रणीतेर्यं प्राप्य साफल्यमियाय धाता॥ 6 हुतभुजि मखमध्यासंगिनि ध्वान्तनीलम् वियति पवनजन्मभ्रान्तिविक्षेपभूयः । मुखरयति समन्तादुत्पतद्भूमजालम् शिखिकुलमरुमेधाशंकि यस्य प्रसक्तम् ॥ 7 तेनापीश्वरवर्म्मणः क्षितिपतेः क्षत्रप्रभावाप्तये ( 1 ) जन्माकारि कृतात्मनः क्क्रतुगणेष्वाहूतवृत्रद्विषः । यस्योत्खातकलिस्वभावचरितस्याचारमार्गं नृपा यत्नेनापि ययाति 8. तुल्ययशसो नान्येनुगन्तुं क्षमाः ॥ 8 नीत्या शौर्यं विशालं सुहृदमकुठिनेनोमेच्छाकुलेन (1) त्यागं पात्रेण वित्तप्रभवमपि हिया यौवनं संयमेन (।) वाचं सत्येन चेष्टां श्रुतिपथविधिना प्रश्रये णोत्तमर्द्धिम् यो बध्नन्नैव व्रजति कलिमयध्वान्तमग्नेपि लोकः ॥७ यस्येज्यास्वनिशं यथाविधि हुतज्योतिर्ज्वलज्जन्मना (।) (ध)मेनाञ्चनभङ्गमेचकरुचा दिक्चक्क्रवाले तते । आयाता नव10. वारिभारविमन्मेघावली प्रावृडित्युन्मादोद्धतचेतसः शिखिगणा वाचालतामाययुः ॥ 10 तस्मात्सूर्य्य इवोदयाद्रिशिरसो धातुम्र्म्मरुत्वानिव क्षीरोदादिव तर्जितेन्दुकिरणः कान्तप्रभ: कौस्तुभः ( 1 ) 11. भूतानामुदपद्यत स्थितिकरः स्थेष्ठं महिम्नः पदम् राजत्राकजकमण्डलाम्बरशशी श्रीशानवर्म्मा नृपः ॥ 11 लोकानामुपकारिणारिकुमुदव्यालुप्तकान्तिश्रिया ( 1 ) मित्रस्याम्बुरुहागरद्युतिकृता भूरि . . . For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख 12. प्रतापत्विषा । येनाच्छादिसत्पथं कलियुगध्वान्तावमग्नं जगत्सूर्येणेव समुद्यता कृतमिदं भूयः प्रवृत्तक्क्रियम् । 12 जित्वान्ध्राधिपतिं सहस्रगणितत्रेधाक्षरद्वारणम् व्यावल्गन्नियुताति 13. संख्यतुरगान्भखारणे शूलिकाम (1) कृत्वा चायतिमौचितस्थलभुवो गौडान्समुद्राश्रयानध्यासिष्ट नतक्षितीशचरणः सिङ् हासनं यो जिती ॥13 15. क्षितिरलक्ष्यरसातलवारिधौ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्थानेषु बलार्णवाभिगमनक्षोभस्फुटद्भूतल - 14. प्रौद्भूतस्थगितार्कमण्डलरुचा दिग्व्यापिना रेणुना । यस्यामूढदिनादिमध्यविरतौ लोकेन्धकारीकृते (1) व्यक्ति नाडिकयैव यान्ति जयिनो यामास्त्रियामास्विव ॥ 14 प्रविशती कलिमारुतघट्टिता 16. द्विषः । 159 गुणशतैरवबध्य समन्ततः । स्फुटतनौरिव येन बलाद्धता ॥ 15 ज्याघातव्रणरुढिकर्कशभुजा व्याकृष्टशार्ङ्गं गच्युतान्यस्या वाप्य पतत्त्रिणे रणमखे प्राणानमुंच For Private And Personal Use Only यस्मिन्शासति च क्षितिं क्षितिपितौ जातेव भूयस्त्रयी ( 1 ) तेनध्वस्तकलिप्रवृत्तितिमिरः श्रीसूर्य्यवर्म्माजनि ॥ 16 यो बालेन्दुसकान्ति कृत्स्नभुवनप्रयो दधद्यौवनम् शान्तः शास्त्रविचारणा 17. हितमनाः पारङ्कलानाङ् गतः। लक्ष्मीकीर्त्तिसरस्वतीप्रभृतयो यं स्पर्धयेवाश्रिता लोके कामितकामिभावरसिकः कान्ताजनो भूयसा ॥17 सद्वृत्तेन बलात्कलेखनतितावत्प्रवृद्धात्मनो बाणै: 18. स्तावदवस्थितं स्मृतिभुवः कान्ताशरीरक्षतौ ( 1 ) लक्ष्म्या Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 160 प्राचीन भारतीय अभिलेख तावदकाण्डभंगजभयं त्यक्तम्परापाश्रयम् (।) यावन्नाविरकारि यस्य जनताकान्तं वपुर्बेधसा। 18 लक्ष्म्यः शत्रुभुवः कुचग्रहभयावेशभ्रम19. ल्लोचना (।) येनाकृष्य भुजेन विस्फुरदसिज्योतिः कलासङ्गिना कान्ता मन्मथनेव कामितविदा गाढं निपीड्योरसा (1) प्रायेणान्यमनुष्यसंश्रयकृतं भावं परित्याजिता ॥ 19 तेनानतोन्नतिकृता 20. मृगयागतेन दृष्ट्वाद्यमन्धकभिदो भवनं विशीर्णम् (।) स्वेच्छासमुन्नतमकारि ललामभूमेः क्षेमेश्वरप्रथितनाम शशाङ्कशुभ्रम्।। 20 एकादशातिरिक्तेषु षट्सु शातितविद्विषि। शतेषु शरदां 21. पत्यौ भुवः श्रीशानवर्मणि। 21 यस्मिन्कालेम्बुवाहा नवगवलरुचः प्रान्तलग्नेन्द्रचापा- स्तन्वत्याशवितानं स्फुरदुरुतडितः सान्द्रधीरं क्वणन्तः। वाताश्च वान्ति नीपानवकुसुमचयानप्रमूर्नो22. धुनाना-स्तस्मिन्मुक्ताम्बुमेघद्युतिभवनमदो निर्मितं शूलपाणे:122 कुमारशान्तेः पुत्रेण गर्गराकटवासिना। नृपानुरागात्पूर्वेयमकारि रविशान्तिना॥ 23 उत्कीर्णा मिहिरवर्मणा। ओम्। जो जगत् की उत्पत्ति, विनाश तथा स्थिति के कर्ता विधाता के भी कारण हैं; रजोगुण से रहित एवं (अज्ञान के) अंधकार-पञ्जको जिन्होंने नष्ट कर दिया है ऐसे योगी भी जिसका ध्यान करते हैं। जिसके अर्धभाग में नारी स्थित होने पर भी हृदय में काम का स्थायी निवास नहीं है। उस (पञ्च) भूतात्मक तथा त्रिपुर के विनाशक 2. भव (शिव) की जय हो जो श्रेय (कल्याण) का सर्जक (उत्पत्ति स्थल) For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख 161 3. सर्प की नागमणि की कांति से शोभित, सिंह का रक्तरञ्जित चर्म जिसका परिधान है, जिनकी शुभ्र वर्ण की कपाल माला जो (कामदहन के काल) नेत्रों से उत्पन्न अग्नि के सम्पर्क से पीत वर्ण की हो गयी है। चन्द्रमा की तमोहारिणी पतली लेखा अपने सिर पर धारण करते हुए अन्धक के शत्रु का सौ से शोभित शरीर आपको स्थिर पद (मुक्ति) प्रदान करे।2 वैवस्वत (यम) के आशीर्वाद से (सावित्री के पिता मद्र राजा) अश्वपति ने स्वयं के गुणों से सम्पन्न सौ पुत्र प्राप्त किये जिनसे शत्रुओं के विनाशक तथा कुप्रवृत्ति के रोधक राजा मुखर हुए। 3 उनमें से सर्वप्रथम राजा हरिवर्मा की विभूति, पृथ्वी की सम्पन्नता के लिये हो गयी। जिसने विजित शत्रु (से उपलब्ध) सम्पत्ति की कान्ति एवं अपने यश से सारे दिशाकाश को भर दिया; संग्राम में अनल की प्रभा से पीतवर्ण के मुख को देखकर भयभीत शत्रुओं के द्वारा जिसका नमन किया गया तथा (इसी कारण) जगत में उसका ज्वालामुख विरुद हो गया। 4 लोकस्थितियों (व्यवहारों) को दृढ़ करने के लिये स्थित जो आचार तथा विवेक पथ (निर्माण तथा निर्देश) में मनु के समान है, सारे लोक जिस यशस्वी (यशस्य) नाम की मनोरम कीर्ति गाते थे। 5 सागर से चन्द्रमा के समान उससे राजा आदित्यवर्मा हुआ। वर्ण तथा आश्रम की आचार प्रक्रिया के संचालन में जिसे प्राप्त कर विधाता सफल हो गया। 6 यज्ञ के मध्यवर्ती अनल से उत्पन्न अंधकार सा नीलवर्ण का, आकाश में पवन के कारण भ्रान्त एवं इधर-उधर घूमता चारों ओर उड़ा हुआ धूम जाल, जिसमें मयूर वायु तथा मेघ की आशंका कर लेते हैं, जिस राजा की हवन-आसक्ति व्यक्त करता है। 7 क्षत्रियों पर प्रभाव जमाने के लिये उसने यज्ञों में इन्द्र का आहावान करने वाले, स्वस्थचित्त (संयमी) राजा ईश्वरवर्मा को जन्म दिया। जिसने कलियुग के नैसर्गिक चरित को उखाड़ फेंका, जो ययाति के समान यशस्वी था तथा जिसके आचार-पथ का अनुसरण राजा लोग प्रयास 6. 7. For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 162 प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. 8. करके भी नहीं कर पाये। 8 नीति से शौर्य को, असीम मैत्री को अकुटिलता (सरलता) से, शुभेच्छाओं को कुल से, त्याग को (सु)पात्र से, वित्त उत्पत्ति को लज्जा से, यौवन को संयम से, वाणी को सत्य से, चेष्टा को वेद निर्दिष्ट पथ-विधान से तथा उत्तम ऋद्धि को प्रश्रय से बांधते हुए जो इस कलियुग के अंधकारलीन लोक में भी कभी कष्ट नहीं पाता है। 9 जिसके यज्ञों में सतत विधिपूर्वक हवन की अग्नि से उत्पन्न, काजल की भंगिमा सी कान्ति वाले धूम के सारी दिशाओं में फैल जाने पर उन्माद से उद्धत चित्त वाले मयूर यह विचारकर केकारव करने लगते हैं कि यह वर्षाकालीन नूतन जल के भार से झुकी कादम्बिनी या मेघमाला है।10 उदयाचल के शिखर से सूर्य के समान, विधाता से इन्द्र के समान, क्षीरसागर से चन्द्रकिरणों की अपेक्षा भी अधिक मनोरम प्रभा से पूर्ण कौस्तुभ मणि के समान, प्राणियों की स्थिति-कर्ता, अत्यंत (दृढ़, बलवत्तर) महिमाशाली पद पर सुशोभित, राजक (छोटे नृप) समूह रूपी आकाश के लिये चन्द्रमा (सा प्रशस्त प्रभावशाली) राजा श्री ईशानवर्मा उस (ईश्वरवर्मा) से उत्पन्न हुआ।11 प्रजा (जगत्) के उपकारी, शत्रु रूपी कुमुद की कान्ति तथा लक्ष्मी का विलुप्त (नष्ट) कर्ता, मित्र रूपी कमल के लिये सूर्य (किरण), अमित 12. प्रताप की ज्योति से सम्पन्न सन्मार्ग को आच्छादित करने वाले कलियुग के अंधकार में डूबे जगत् को सूर्य के समान जिसने पुनः अपनी क्रिया में प्रवृत्त करने के लये उद्यत किया। 12 तीन सहस्र कवचधारी (अथवा हाथियों) को पीछे हटाते हुए दस लाख से अधिक 13. उछलते-भागते सूलिक अश्वों को रणक्षेत्र में विनष्ट कर आन्ध्र के स्वामी को जीतकर; विस्तृत भूभाग को त्याग कर गौड़ों को (नौका तथा जहाज से) समुद्र में भागने को विवश किया जिसके चरणों पर नृपगण झुके रहते हैं ऐसा वह विजेता सिंहासन पर विराजमान हुआ। 13 For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईशानवर्मा का हड़हा शिलालेख 163 सैन्य-सागर के प्रस्थान करने पर उसके चलने के क्षोभ से विदीर्ण होती पृथ्वी से 14. उत्पन्न दिग्व्यापी धूल से सौर-मण्डल (सूर्य) की कान्ति अवरुद्ध हो जाती है। दिन का आदि, मध्य तथा अन्त तीनों ही काल जिसने जगत् को अंधकार पूर्ण कर दिया; रात में प्रहर-ज्ञान के समान विजेताओं को नाडिका (जल-यन्त्र-घटिका) से ही समय व्यक्त हो पाता है। 14 कलियगु रूपी झंझावात से रगड़ खा (विचलित हो)कर 15. अज्ञात (गहन) रसातल-सागर में प्रवेश करती फूटी (भग्न) नौका के समान पृथ्वी को चारों ओर से सैंकड़ों गुण (सद्गुण रूपी रज्जु) से बांधकर जिसने, बलपूर्वक खींच लिया। 15 रणक्षेत्र में प्रत्यञ्चा के आघात से पड़े घाव के कारण कठोर भुजा से खींचे धनुष से छूटे जिसके तीर शत्रुओं के प्राण निकालते रहे। और जिस नृप ने पृथ्वी पर शासन करते हुए कलियुगीन (अधार्मिक) प्रवृत्ति रूपी अंधकार को नष्ट कर दिया, उसने त्रयी से भी अधिक (श्रेष्ठ अथवा चौथे वेद) श्री सूर्यवर्मा को जन्म दिया। 16 जो नये बढ़ते चन्द्रमा की कान्ति से सम्पन्न सारे जगत् को आकर्षित करने वाले यौवन को धारण करता हुआ, मन से शांत है। शास्त्रों का मनन करने में ही जिसका मन लगा हुआ है तथा जो सारी कलाओं में पारंगत हो गया है। लोक में चहेते कामी के भाव में रस लेने वाली लक्ष्मी. कीर्ति. सरस्वती आदि कान्ताएं परम स्पर्धा से जिसका आश्रय प्राप्त किये हुए हैं। 17 कलियुग सुस्थित होकर अपनी अवनति को तब तक बलपूर्वक बढ़ाता रहा, कामदेव के बाणों से 18. कामिनियों के शरीर पर (रतिज) क्षत (घाव) तब तक रहे, लक्ष्मी का शत्रुओं के आश्रित होकर, असमय में (खंडित) होने का भय अथवा त्याग तब तक था जब तक विधाता ने इस (सूर्यवर्मा) की लोकधर्मीणी प्रिय देह न सरजी। 18 स्तनग्रह के भय से चकित (डोलते) नयनों वाली शत्रुओं की लक्ष्मी को 17. For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 164 प्राचीन भारतीय अभिलेख 21. 19. चमकती खड्ग तथा ज्योति कला की वेत्ता बाहु ने चाहा गया हूं यह जानने वाले कामी के समान कामिनी को अपने वक्ष का गाढ़ आलिङ्गन देकर, प्रायः परपुरुषों का आश्रय लेती है- इस भाव से त्याग दिया। 19 नम्र उन्नति करने वाले उसने, . जब वह आखेट पर था मनोस्मता की भूमि शिवजी का एक भग्न मंदिर देखकर उसे यथेच्छ ऊंचा बनवाया जो चंद्रमा के समान शुभ्र तथा क्षेमेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। 20 शत्रुओं के विनाश करने पर 611वें शरद् (संवत्) में भूमिपति श्रीईशानवर्मा के (शासन काल में)...। 21 कोटि (छोर) पर इन्द्रधनुष लगाये, नवजात गवल (अरने भैंसे) की कांति वाले मेघ जिस काल, बार-बार बिजली चमकाते धीर-गम्भीर गर्जन करते दिशाओं के छोर तक फैल जाते हैं। जब नूतन कुसुम-समूह से झुके कदम्ब के शिरों को 22. झकझोरते वायु बहने लगते हैं उस (वर्षा) काल में प्रलय करने वाले त्रिशूलधारी शिव का यह मंदिर बनवाया गया। 22 गर्गराकट के निवासी कुमारशांति के पुत्र रविशांति ने नृप (सूर्य वर्मा) के अनुराग से यह उपर्युक्त (प्रशस्ति) रची। 23 मिहिरवर्मा ने (इस प्रशस्ति को) उत्कीर्ण किया। For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्ष का बांसखेड़ा ताम्रपत्र भाषा-संस्कृत लिपि-उत्तर गुप्तकालीन ब्राह्मी, हर्षसंवत् 22 (628 ई०) ओं स्वस्ति। महानौहस्त्यश्वजयस्कन्धावाराच्छ्रीवर्धमानकोट्या महाराजश्रीनरवर्धनस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यातः श्रीवज्रिणीदेव्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तो महाराजश्रीराज्यवर्धनस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यातः, 2. श्रीमदप्सरोदेव्यामुत्पन्नः परमादित्यभक्तो महाराज श्रीमदादित्यवर्धनस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यातः श्रीमहासेनगुप्तादेव्यामुत्पन्नश्चतुःसमुद्रातिक्रान्तकीर्तिः प्रतापानुरागोपनतान्यराजो वर्णाश्रमव्यवस्थापन-प्रवृत्तचक्र एकचक्ररथ इव प्रजा-नामार्तिहरः परमादित्यभक्तः परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीप्रभाकरवर्धनस्तस्य पुत्रस्तत्पादानुध्यातः सितयशः प्रतानविरच्छुरितसकलभुवनमण्डलः परिगृहीत धनदवरुणेन्द्रप्रभृतिलोक-पालतेजाः सत्पथोपार्जितानेकद्रविण__ भूमिप्रदानसंप्रीणितार्थिहृदयोऽतिशयित पूर्वराजचरितो देव्याममलयशोमत्यां श्रीयशोमत्यामुत्पन्नः परमसौगतः सुगत इव परहितैकरतःपरमभट्टारकमहाराजाधिराज-श्रीराज्यवर्धनः। राजानो युधि दुष्टवाजिन इव श्रीदेवगुप्तादयः कृत्वा येन कशाप्रहारविमुखाः सर्वे समं संयताः। 1. ए०३० खण्ड 4, पृ. 208 165 For Private And Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 166 7. 8. www. kobatirth.org 9. प्राचीन भारतीय अभिलेख उत्खाय द्विषतो विजित्य वसुधां कृत्वा प्रजानां प्रियं प्राणानुज्झितवानरातिभवने सत्यानुरोधेन यः || तस्यानुजस्तत्पादानुध्यातः परममाहेश्वरो महेश्वर इव सर्वसत्त्वानुकम्पी परमभट्टारकमहाराजाधिराज श्रीहर्षः अहिच्छत्रा भुक्तावङ्गदीयवैषयिकपश्चिमपथकसम्बद्धमर्कटसागरे समुपगातान् महासामन्तममहाराजा दौस्साधसाधनिकप्रमातारराजस्थानीय - कुमारात्योपरिकविषयपतिभटचाटसेवकादीन् प्रतिवासि - जानपदांश्च समाज्ञापयति विदिमस्तु यथायमुपरिलिखितग्रामः स्वसीमापर्यन्तः सोद्रङ्गः सर्वराजकुला भाव्यप्रत्यायसमेतः सर्वपरिहृतपरिहारो विषयादुद्धृतपिण्डः पुत्रपौत्रानुगश्चन्द्रार्कक्षितिसमकालीनो 10. भूमिच्छिद्रन्यायेन मया पितुः परमभट्टारकमहाराजाधिराजश्रीप्रभाकरवर्धनदेवस्य मातुर्भट्टारिकामहादेवीराज्ञीश्रीयशोमतीदेव्या ज्येष्ठभातृपरमभट्टारक 11. महाराजाधिराज श्रीराज्यवर्धनदेव-पदानां च पुण्ययशोभिवृद्धये भरद्वाजसगोत्रबह्वृचच्छन्दोगसब्रह्मचारिभट्टबालचन्दभद्रस्वामिभ्यां प्रतिग्रह- धर्मणाग्रहारत्वेन प्रतिपादितो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12. विदित्वा भवद्भिः समनुमन्तव्यः प्रतिवासिजानपदैरप्याज्ञाश्रवणविधेयैर्भूत्वा यथासमुचितुल्यमेयभागभोगकरहिरण्या प्रत्याया एतयोरेवोपनेयाः सेवोपस्थानं च 13. करणीयमित्यपि च । अस्मत्कुलक्रममुदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयम् । लक्ष्म्यास्तडित्सलिलबुद्बुदचञ्चलाया दानं फलं परयशः परिपालनं च॥ 2 ॥ 14. कर्मणा मनसा वाचा कर्तव्यं प्राणिभिर्हितम् । हर्षेणैतत्समाख्यातं धर्मार्जनमनुत्तमम् ॥3॥ दूतकोऽत्र महाप्रमातारममहासामन्त श्रीस्कन्दगुप्तः । महाक्षपट लाधिकरणाधिकृतमहासामन्त For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्ष का बांसखेड़ा ताम्रपत्र 167 18. 1. 15. महाराजभानुसमादेशा16. दुत्कीर्णमीश्वरेणेदमिति। 17. संवत् 20(+)2 कार्तिक व दि 1। स्वहस्तो मम महाराजाधिराजश्रीहर्षस्य। ओं कल्याण हो। महानौका, हाथी, अश्व के जय (उत्सव) शिविर से श्रीवर्धमान के पद से महाराज श्रीनरवर्धन, उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्री वज्रिणीदेवी से उत्पन्न परम आदित्य (सूर्य) भक्त महाराज श्रीराज्यवर्धन; उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्रीमती अप्सरोदेवी से उत्पन्न परम आदित्य भक्त महाराज श्रीमान् आदित्यवर्धन; उनके पुत्र तथा चरणानुवर्ती श्री(मती) महासेनगुप्ता देवी से उत्पन्न, चारों समुद्रों के पार तक प्रथितकीर्ति, प्रताप के अनुराग से जिसके अधीन हो अन्य नृप विनत हो गये हैं, जिसने वर्णाश्रम व्यवस्था का सूर्य के समान चक्र चला दिया (पथ प्रशस्त किया), प्रजा का संकट दूर करने वाला आदित्य का परम भक्त, परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीप्रभाकरवर्धन; उसका पुत्र तथा चरणानुवर्ती, जिसने अपनी शुभ्र कीर्ति-लता से सारी पृथ्वी को ढक दिया; कुबेर-वरुण-इन्द्र आदि लोकपाल सा तेजस्वी, सन्मार्ग से उपार्जित अमित वित्त तथा भूमि के दान से जिसने अभ्यर्थियों के हृदय को प्रसन्न कर पूर्ववर्ती नपों से भी श्रेष्ठ चरित से सम्पन्न हो गया, विमल यश से सम्पन्न देवी श्रीयशोमती से उत्पन्न परम सौगत बुद्ध के समान केवल परहित में निरत परम भट्टारक महाराजाधिराज श्रीराज्यवर्धन; जिसनेयुद्ध (क्षेत्र) में पीठ पर कशाघात कर दुष्ट अश्व के समान श्रीदेवगुप्त आदि सारे नृपों को एक साथ बन्दी बना लिया। शत्रुओं को विनष्ट कर, पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर, प्रजा का प्रिय (कल्याण) कर, सत्यप्रिय होने से जिसने शत्रुओं के घर प्राण त्याग दिये। 1 उसका अनुज तथा चरणानुवर्ती परममाहेश्वर (परम शैव), महेश्वर सा सारे प्राणियों 1. गौडाधिपेन मिथ्योपचारोपचितविश्वासं मुक्तशस्त्रमेकाकिनं विश्रब्धं स्वभवन एव भ्रातरं व्यापादितमश्रौषीत्। हर्षचरित (कलकत्ता संस्करण), पृ. 436 For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 168 प्राचीन भारतीय अभिलेख पर दया करने वाला, परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीहर्ष अहिच्छत्र (बरेली जिले का रामनगर) भुक्ति (प्रान्त) में बङ्गदीय विषय (जिले) का पश्चिम पथक (परगना) से सम्बद्ध मर्कट सागर में आये हुए महासामन्त, महाराजा, (अथवा महाराज के) दुःसाध्य (डाकू पकड़ना आदि) कर्म करने वाले, प्रमाता (भूमि नापने वाले, पटवारी), राजस्थानीय (राजा के प्रतिनिधि अधिकारी), कुमारामात्य, (राज्यपाल), विषयपति (जिलाधीश), भट (नियत तथा वैतनिक सैनिक), चाट (अनियत तथा अवैतनिक सैनिक), सेवक आदि को तथा जनपद (राज्य) के निवासी को आदेश देता है-ज्ञात (ज़ाहिर) हो, 9. जैसा कि यह उपर्युक्त ग्राम अपनी सीमा पर्यन्त ग्राम (क्षेत्र) सहित, राजा को उपलब्ध होने वाली आय के अधिकार सहित, सारे राजकीय करों से मुक्त, राज्य से स्वतंत्र, पुत्र-पौत्र का अनुसरण कर सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी के (स्थिति) काल पर्यन्त सारे अधिकारों सहित मैंने (अपने) आदरणीय पिता परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री प्रभाकरवर्धनदेव, माता भट्टारिका महादेवी महिषी श्रीयशोमती देवी एवं अग्रज परमभट्टारक महाराजाधिराज श्री राज्यवर्धन देव के पुण्य तथा यश की अभिवृद्धि के लिये भरद्वाज गोत्र के वेदों में पारंगत सब्रह्मचारी (सहपाठी) भट्ट बालचन्द्र एवं भद्रस्वामी को दान-धर्म में अग्रहार रूप से सम्पन्न जानकर (इसे) आपको मानना चाहिये। ग्रामवासी भी ध्यान से (यह) आदेश सुनकर यथोचित हिसाब कर (आवश्यक), (षष्ठ) भाग, चूंगी, लगान (के रूप में) स्वर्ण आदि धन इन्हीं को प्रदान करें तथा यह भी कि इन्हीं की सेवा-सुश्रूषा 13. करनी चाहिये। हमारे इस (प्रवृत्त) दान से युक्त उदार कुलक्रम का आगमी अन्य (जन) भी अनुमोदन करें। बिजली तथा जल के बुदबुदे के समान चञ्चल लक्ष्मी का फल या तो दान में (निहित) है अथवा परकीर्ति के पालन में। 2 14. मन, वाणी तथा कर्म से प्राणियों (अन्य) का हित करना चाहिये। हर्ष ने इस धर्मार्जन को ही सर्वश्रेष्ठ बताया है। 3 2. For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हर्ष का बांसखेड़ा ताम्रपत्र 169 यहां दूतक (दूत अथवा राजदूत), महाप्रमातार (गिरदावल अथवा भूप्रबन्क के समान भूमि-अधिकारी), महासामन्त श्री स्कन्दगुप्त (के हस्ताक्षर)। महाक्षपटल (लेखा अथवा रेकार्ड) विभाग के अधिकारी महासामन्त 15. महाराज भानु के आदेश से इस (ताम्रपत्र को) 16. ईश्वर ने उत्कीर्ण किया। इति संवत् 22 17. कार्तिक व दि (कृष्ण) 11 18. मेरे, महाराजाधिराज श्री हर्ष के अपने हाथ से (दानपत्र दिया गया)। For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल शिलालेख 1. ऐहोल-जिला बीजापुर भाषा-संस्कृत लिपि-दक्षिण भारतीय ब्राह्मी, शकसंवत् 556 (634 ई०) जयति भगवान्जिनेन्द्रो वीतजरामरणजन्मनो यस्य। ज्ञानसमुद्रान्तर्गतमखिलं जगदन्तरीपमिव॥॥ तदनु चिरमपरिमेयञ्चलुक्यकुलविपुलजलनिधिर्जयति। पृथिवीमौलिललाम्नां यः प्रभवः पुरुषरलानाम्।। शूरे विदुषि च विभजन् दानं मानं च युगपदेकत्र। अविहितयाथासंख्यो जयति च सत्याश्रयः सुचिरम्।। पृथिवीवल्लभ शब्दो येषामन्वर्थतां चिरं यातः। तद्वंशेषु जिगीषु तेषु बहुष्वप्यतीतेषु।। नानाहेतिशताभिघातपतितभ्रान्ताश्वपत्तिद्विपे नृत्यद्भीमकबन्धखड्गकिरणज्वालासहस्रे रणे। लक्ष्मी वितचापलापि च कृता शौर्येण येनात्मसाद्राजासीज्जयसिंहवल्लभ इति ख्यातश्चलुक्यान्वयः॥5॥ तदात्मजोऽभूद्रणरागनामा दिव्यानुभावो जगदेकनाथः। अमानुषत्वं किल यस्य लोकः सुप्तस्य जानाति वपुःप्रकर्षात्॥6॥ तस्याभवत्तनूजः पोलेकेशीयः श्रितेन्दुकान्तिरपि। श्रीवल्लभोऽप्ययासीद्वातापिपुरीवधूवरताम्॥7॥ ए. इ., 6, पुष्ठ 1-12 3. 4. 1. 170 For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 171 चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल शिलालेख यत्रिवर्गपदवीमलं क्षितौ नानुगन्तुमधुनाऽपि राजकम्। भूश्च येन हयमेधयाजिना प्रापितावभृथमज्जनं बभौ॥8॥ नलमौर्यकदम्बकालरात्रिस्तनयस्तस्य बभूव कीर्तिवर्मा। परदारनिवृत्तचित्तवृत्तेरपि धीर्यस्य रिपुश्रियानुकृष्टा॥७॥ रणपराक्रमलब्धजयश्रिया सपदि येन विरुग्णमशेषतः। नृपतिगन्धगजेन महौजसा पृथुकदम्बकदम्बकदम्बकम्।।10॥ तस्मिन्सुरेश्वरविभूतिगताभिलाषे राजाऽभवत्तदनुजः किल मङ्गलेशः। यः पूर्वपश्चिमसमुद्रतटोषिताश्व-सेनारजःपटविनिर्मितदिग्वितान: स्फुरन्मयूखैरसिदीपिकाशतैर्युदस्य मातङ्गतमिस्रसंचयम्। अवाप्तवान्यो रणरङ्गमन्दिरे कटच्छुरिश्रीललनापरिग्रहम्॥2॥ पुनरपि च जिधृक्षोस्सैन्यमाक्रान्तसालं रुचिरबहुपताकं रेवतीद्वीपमाशु। सपदि महदुदन्वत्तोयसंक्रान्तबिम्बं वरुणबलमिवाभूदागतं यस्य वाचा॥13॥ तस्याग्रजस्य तनये नहुषानुभावे लक्ष्म्या किलाभिलषिते पुलिकेशिनाम्नि। सासूयमात्मनि भवन्तमतः पितृव्यं ज्ञात्वापरुद्धचरितव्यवसायबुद्धौ। 14॥ स यदुपचितमन्त्रोत्साहशक्तिप्रयोगक्षपितबलविशेषो मङ्गलेश: समन्तात्। स्वतनयगतराज्यारम्भयलेन सार्द्धं निजमतनु च राज्यं जीवितं चोज्झति स्म॥5॥ तावत्तच्छत्रभङ्गे जगदखिलमरात्यन्धकरोपरुद्धं यस्यासह्यप्रतापधुति- ततिभिरिवाक्रान्तमासीत्प्रभातम्। नृत्यद्विद्युत्पताकैः प्रजविनि मरुति क्षुण्णपर्यन्तभागगर्जद्भिर्वारि-वाहैरलिकुलमलिनं व्योम यातं कदा वा॥16॥ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 172 प्राचीन भारतीय अभिलेख : लब्ध्वा कालं भुवमुपगते जेतुमाप्यायिकाख्ये गोविन्दे च द्विरदनिकरैरुत्तरां भीमरथ्याः। यस्यानीकैयुधि भयरसज्ञत्वमेकः प्रयात - स्तत्रावाप्तं फलमुपकृतस्यापरेणापि सद्यः।।17॥ वरदातुङ्गतरङ्गरङ्गविलसद्धंसावलीमेखला वनवासीमवमृद्नतः सुरपुरप्रस्पर्धिनी सम्पदा। महता यस्य बलार्णवेन परितः सच्छादितोर्वीतलं स्थलदुर्ग जलदुर्गतामिव गतं तत्तत्क्षणे पश्यताम्॥8॥ गङ्गालुपेन्द्रा व्यसनानि सप्त हित्वा पुरोपार्जितसम्पदोऽपि। 10. यस्यानुभावोपनताः सदासन्नासन्नसेवामृतपानशौण्डाः।19॥ कोकणेषु यदादिष्टचण्डदण्डाम्बुवीचिभिः। उदस्तास्तरसा मौर्यपल्वलाम्बुसमृद्धयः॥20॥ अपरजलधेर्लक्ष्मी यस्मिन् पुरीं पुरभित्प्रभे मदगजघटाकारैर्नावां शतैरवमृद्नति। जलदपटलानीकाकीर्णं नवोत्पलमेचकं जलनिधिरिव व्योम व्योम्नः समोऽभवदम्बुधिः॥1॥ प्रतापोपनता यस्य लाटमालवगुर्जराः। दण्डोपनतसामन्तचर्याचार्या इवाभवन्।22॥ अपरिमितविभूतिस्फीतसामन्तसेना मुकुटमणिमयूखाक्रान्तपादारविन्दः। युधि पतितगजेन्द्रानीकबीभत्सभूतो भयविगलितहर्षो येन चाकारिहर्षः।23।। भुवमुरुभिरनीकैः शासतो यस्य रेवाविविधपुलिनशोभाऽवन्ध्य विन्ध्योपकण्ठः। अधिकतरमराजत्स्वेन तेजोमहिम्ना शिखरिभिरिभवों वर्मणा स्पर्द्धयेव॥24॥ विधिवदुपचिताभिः शक्तिभिः शक्रकल्पस्तिसृभिरपि गुणौधैः स्वैश्च माहाकुलाद्यैः। 11. 12. For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल शिलालेख 173 अगमदधिपतित्वं यो महाराष्ट्राकाणां नवनवतिसहस्रग्रामभाजां त्रयाणाम्॥25॥ गृहिणां स्वगुणैस्त्रिवर्गतुङ्गा विहितान्यक्षितिपालमानभङ्गाः। अभवन्नुपजातभीतिलिङ्गा यदनीकेन सकोसलाः कलिङ्गाः॥26॥ पिष्टं पिष्टपुरं येन जातं दुर्गमदुर्गमम्। चित्रं यस्य कलेवृत्तं जातं दुर्गमदुर्गमम्॥27॥ सन्नद्धवारणघटास्थगितान्तरालं नानायुधक्षतनरक्षतजाङ्गरागम्। आसीज्जलं यदवमर्दितमभ्रगर्भ कौनालमम्बरमिवोर्जितसान्ध्य रागम्॥28॥ 14. उद्धतामलचामरध्वजशतच्छत्रान्धकारैर्बलैः शौर्योत्साहरसोद्धतारिमथनैौलादिभिः षड्विधैः। आक्रान्तात्मबलोन्नतिं बलरजः संछन्नकांचीपुरप्राकारान्तरितप्रतापमकरोद्यः पल्लवानां पतिम्॥29॥ कावेरीद्रुतशफरीविलोलनेत्रा चोलानां सपदि जयोद्यतस्य यस्य। 15. प्रश्च्योतन्मदगजसेतुरुद्धनीरा संस्पर्श परिहरिति स्म रत्नराशेः।80॥ चोलकेरलपाण्ड्यानां योऽभूत्तत्र महर्द्धये। पल्लवानीकनीहारतुहिनेतरदीधितिः॥1॥ उत्साहप्रभुमन्त्रशक्तिसहिते यस्मिन् समस्ता दिशो जित्वा भूमिपतीन्विसृज्य महितानाराध्य देवद्विजान्। वातापी नगरी प्रविश्य नगरीमेकामिवोर्वीमिमां चञ्चन्नीरधिनीलनीरपरिखां सत्याश्रये शासति।82॥ त्रिंशत्सु त्रिसहस्रेषु भारतादाहवादितः। सप्ताब्दशतयुक्तेषु गतेष्वब्देषु पंचसु।B3॥ पंचाशत्सु कलौ काले षट्सु पंचशतासु च। समासु समतीतासु शकानामपि भूभुजाम्।।4॥ 17. तस्याम्बुधित्रयनिवारितशासनस्य सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम्। शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं महिम्नां निर्मापितं मतिमता रविकीर्तिनेदम्॥35॥ 16. For Private And Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 174 प्राचीन भारतीय अभिलेख प्रशस्तेर्वसतेश्चास्या जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। कर्ता कारयिता चापि रविकीर्तिः कृती स्वयम्॥6॥ येनायोजि नवेऽश्मस्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म। स विजयतां रविकीर्तिः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः187॥ जो वृद्धावस्था, मृत्यु तथा जन्म से परे है, जिसके असीम ज्ञान समुद्र में सारा जगत् द्वीप सा लगता है उन भगवान् जिनेन्द्र की जय हो। 1 तदनन्तर चिरकाल से असीम चालुक्य कुल रूपी विस्तृत जलधि की जय हो जो पृथ्वी के मूर्धन्य (मूर्धालंकार की योग्यता वाले) श्रेष्ठ पुरुषों का उद्भव स्थल है। 2 और उस सत्याश्रय की चिरकाल तक जय हो जो वीर को केवल उपहार तथा विद्वान् को केवल सम्मान न देते हुए दोनों को एक साथ दोनों ही-उपहार तथा सम्मान देता था। 3 चिरकाल से जिनके लिये (अपने सुचरित तथा सुशासन के कारण) 'पृथ्वीवल्लभ' विरुद चरितार्थ हो रहा है उस (चालुक्य) वंश में विजय के इच्छुक अनेक नृपों के पश्चात्. . . .। 4 चालुक्य वंश में 'जयसिंह वल्लभ' नामक नरेश हुआ जिसने अनेक प्रकार के सैकड़ों आयुधों के प्रहार से हाथी, घोड़े तथा पैदल सैनिकों के चक्कर खाने तथा गिरने पर नाचते हुए भयंकर कबन्ध (धड़) तथा तलवार की किरणों से उठने वाली सहस्रों ज्वालाओं से पूर्ण रण में वीरता से स्वभावतः चञ्चल लक्ष्मी को भी अपने वश में कर लिया। 5 उसका पुत्र अलौकिक शक्ति से सम्पन्न तथा पृथ्वी का एकमात्र स्वामी रणराग हुआ। जिसके सो जाने पर, शरीर की विशालता एवं उसके तेज के कारण लोग उसे अलौकिक समझते थे। 6 उसका पुत्र पुलकेशी (प्रथम) हुआ जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान् भी था तथा लक्ष्मी का प्रिय भी था। और जो वातापि (बदामी) नगरी रूपी वधू का वर बना। 7 जिसके (समान) धर्म, अर्थ तथा काम, त्रिवर्ग का अनुसरण आज भी पृथ्वी का राजवर्ग नहीं कर पाता। जिसने अश्वमेध सम्पन्न कर अवभृत (यज्ञ का समाप्तिसूचक) स्नान कर पृथ्वी प्राप्त की। 8 उसका पुत्र कीर्तिवर्मा हुआ जो नल, मौर्य तथा कदम्ब नृपों के लिये कालरात्रि (के समान) था। परस्त्री के प्रति उसकी चित्तवृत्ति अनासक्त थी। तथापि शत्रुओं की लक्ष्मी ने उसकी बुद्धि को For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल शिलालेख 175 5. 6. आकृष्ट कर ही लिया। 9 रणभूमि में अपने पराक्रम से जयलक्ष्मी पाने वाले नृपतियों में गन्धगज (मदमस्त श्रेष्ठ हाथी) के समान जिसने अपनी अमित शक्ति से विशाल कदम्ब वंश रूपी कदम्ब वृक्ष के समूह को समूल सहज ही विनष्ट कर दिया। 10 देवेन्द्र सी विभूति की अभिलाषा वाले उस कीर्तिवर्मा के दिवंगत होने पर उसका अनुज, मंगलेश राजा हुआ। जिसने पूर्व तथा पश्चिम सागर के तटों पर पड़ाव डाल कर अश्वसेना (के प्रयाण) से उड़ी धूल से (दोनों समुद्र पर्यन्त उन) दिशाओं में शामियाना (वितान) तान दिया। 11 चमकती किरणों वाली सैकड़ों तलवार रूपी दीपिकाओं से गज रूपी अंधकार के समह को विनष्ट कर, उसने रण रूपी रङ्गमहल में 'कटच्छुरि' (कलचुरि) वंश की राजलक्ष्मी रूपी ललना से पाणिग्रहण कर लिया। 12 और भी रेवती द्वीप जाने के इच्छुक उस मंगलेश की अनेक मनोरम ध्वजों वाली सेना ने वहां के दुर्ग का शीघ्र घेरा डाल दिया। विशाल समुद्र में जिसके प्रतिबिम्ब से प्रतीत होता था मानो उसके आदेश पर एक बारगी वरुण की सेना ही आ गयी हो। 13 उसके अग्रज (कीर्तिवर्मा) के नहुष से प्रतापशाली पुत्र पुलकेशी (द्वितीय) की लक्ष्मी ने जब चाह की तब अपने चाचा (मंगलेश) को अपने प्रति ईर्ष्यालु तथा स्वयं के आचरण, कार्यकलाप तथा विचारों पर प्रतिबन्ध जानकर वह प्रतिकार या विद्रोह की तैयारी करने लगा। 14 (जन्म से ही प्रभुशक्ति से सम्पन्न) पुलकेशी ने जन्म तथा उत्साह शक्ति का आकलन कर उनके प्रयोग से मंगलेश की सम्पूर्ण विशेष शक्ति विनष्ट कर दी। अपने पुत्र को राज्य देने के लिये आरम्भ किये गये यत्न के साथ ही उसने अपने विस्तृत राज्य तथा प्राणों का त्याग कर दिया। 15 उस (मंगलेश) के छत्र (राज्य) भंग होने पर सारा जगत् शत्रु रूपी अंधकार से अवरुद्ध हो गया, परन्तु पुलकेशी के प्रचण्ड (असह्य) प्रताप से मानो अन्धकार को आक्रान्त (आक्रमण में पराजित कर उसे पार) कर प्रभात हो गया। अथवा नाचती हुई 8. For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 176 प्राचीन भारतीय अभिलेख विद्युत रूपी पताका तथा गर्जन से युक्त आकाश के छोर तक फैले हुए बादलों से भी आकाश कभी भौंरों सा काला (शत्रु-समूह से मलिन) हो सकता है? जब कि वेग से झंझावात चल रही हो। 16 समय पाकर भैमरथी के उत्तरी प्रदेश को जीतने के लिये हाथियों के समूहों के साथ आप्पायिक तथा गोविन्द के (एक साथ) आने पर जिस पुलकेशी की सेना से युद्ध में भयभीत होकर एक (आप्पायिक तो) पलायन कर गया तथा दूसरे (गोविन्द) ने तत्काल उपकार का फल पाया (अर्थात् उपहार सहित सन्धि अथवा शरण के लिये प्रस्तुत होने पर अभयदान पाया) 17 9. __ वरदा (वर्धा) की उत्तुंग तरंग रूपी रंगमंच पर (विलास करती) शोभित हंसपंक्ति रूपी करधनी वाली 'वनवासी' नगरी सम्पत्ति में अमरावती (सुरपुर) की स्पर्धा करने वाली थी, उसे कुचल कर जिसके महत् सैन्य-सागर ने सारे भूमिभाग को चारों ओर से घेर लिया। उस काल देखते ही देखते उसका स्थलदुर्ग जलदुर्ग बन गया। 18 गंग तथा आलुप वंश के राजा, द्यूत आदि सात व्यसनों को त्याग कर पूर्व उपार्जित सम्पत्ति से सम्पन्न होने पर भी जिसके प्रभाव से उपनत होकर सदा समीप रहते 10. हुए उसकी सेवा रूपी अमृत के पाने में लीन रहने लगे। 19 जिसके आदेश से प्रचण्ड सैन्य-जल की लहरों ने अपने वेग (शक्ति) से कोंकण के मौर्य रूपी क्षुद्र जलाशय की जल-श्री को विनष्ट (समाप्त) कर दिया। 20 शिव के समान जिसने पश्चिम (अरब) सागर की समृद्ध नगरी को अपनी मदमस्त हाथियों सी विशाल सैकड़ों नौकाओं से कुचल देने पर, मेघसमूह की सेना से अभिव्याप्त, नव-जलज की कान्ति वाले (नील) जलनिधि के समान आकाश तथा आकाश के समान 11. जलधि हो गया। 21 1. 2. झंझा झकोर गर्जन था बिजली थी नीरदमाला।-जयशंकर प्रसादकृत-आँसू। सप्त व्यसनानि वाग्दण्डयोश्च पारुष्यमर्थदूषणमेव च। पानं स्त्री मृगया द्यूतं व्यसानि महीपतेः।। कामन्दकीय नीतिसार, 14/61 For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चालुक्य पुलकेशी द्वितीय का ऐहोल शिलालेख 177 जिसके प्रताप के समक्ष लाट, मालव तथा गुर्जर भी झुक गये तथा दण्ड (बल) से विनत सामन्तों के आचरण के आदर्श के समान हो गये। 22 असीम सम्पत्ति से समृद्ध सामन्तों के समूह की चूडामणि की किरणोंसे जिसके चरणकमल रञ्जित रहते थे, युद्ध में गजसेना के विनष्ट होने से आतंकित उसी हर्ष को जिसने भय से हर्ष-हीन (दुःखी) बना दिया। 23 12. उसक विशाल सेना से पृथ्वी का शासन करते समय, नर्मदा के तटों की विपुल शोभा से सम्पन्न विन्ध्य का अञ्चल अपनी श्रेणियों के समान शरीर वाले (पुलकेशी के) हाथियों के (प्रवेश) त्याग द्वारा अपने महिमाशाली प्रताप से और भी अधिक सुशोभित हुआ। 24 इन्द्र के समान वह (पुलकेशी) समुचित रूप से संगठित तीनों (प्रभु, मन्त्र एवं उत्साह) शक्ति तथा श्रेष्ठ कुलीनता आदि अपने गुण-गणों से 99000 ग्राम वाले तीनों महाराष्ट्रों के स्वामियों का अधिपति हो गया। 25 13. अपने गुणों से गृहस्थों में त्रिवर्ग (धर्म, अर्था तथा काम) के पालन के कारण समुन्नत अन्य नृपों का दर्प चूर करने वाले कोसल तथा कलिंग के राजाओं में भी जिसकी सेना से भय के चिह्न दिखाई देने लगे। 26 जिसने पिष्टपुर (उत्तरी गोदावरी जिले के पिठापुरम्) को पीस (कुचल) डाला जिससे वहां का दुर्ग (टूट जाने से अथवा विजित होने से) सुगम हो गया। आश्चर्य है कि जिस कलियुग में जो वृत्तांत सुगम था (पुलकेशी के शासनकाल में) अब दुर्गम हो गया। 27 (युद्ध के लिये) उधत गजसमूह से जिसका मध्य भाग व्याप्त है, विविध आयुध के घाव से मनुष्यों के रक्त के अङ्गराग से जो युक्त है, ऐसे कुनाल (जलाशय) का रक्तिम आलोडित जल 14. मेघों से युक्त सान्ध्यलालिमा से (रंजित) गगन सा लगता था। 28 डोलते तथा फहराते सैकड़ों स्वच्छ चामर तथा पताका के अंधकार से, वीरता तथा उत्साह के रस से मत्त होकर (उद्धत) शत्रुओं का विनाश करने वाले मौल आदि छः प्रकार के बल (सैन्य) से', अपनी आक्रामक शक्ति की उन्नति की प्रतीक सैन्य धूल से ढककर पल्लवाधीश के प्रताप को मौलं भृतं सुहृच्छेणीद्विषदाटविकं बलम्। षड्विधं बलं...।कामन्दकीय नीतिसार, 19/6 For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 178 प्राचीन भारतीय अभिलेख 15. जिसने काञ्ची नगरी के वप्र (परकोटे) में ही अवरुद्ध कर दिया। 29 चञ्चल मीन रूपी विलोल नयनों वाली कावेरी, अचानक चोलों पर विजय पाने के इच्छुक जिस (पुलकेशी) के बहते दान (मदजल) से युक्त गजों की सेतु से जल के अवरुद्ध हो जाने से, सागर का स्पर्श (आलिंगन) न पा सकी। 30 जो पुलकेशी चोल, केरल तथा पाण्ड्य नृपों की समृद्धि में (मित्र होने से) सहायक बना वही पल्लवसेना रूपी पाले (तुषार, ओस) के लिये सूर्य (सा शोषक) बना। 31 उत्साह, प्रभु तथा मन्त्रशक्ति से युक्त जिसने सारी दिशाओं के नपों को जीतने के पश्चात् विजित नरेशों को विदा कर देव-ब्राह्मणों की अर्चना करके लहराते सागर के नीले जल की परिखा वाली अन्य पृथ्वी के समान इस नगरी में प्रवेश कर 16. सत्याश्रय के शासन करने पर . . . . 32 (महा) भारत के युद्ध के प्रारम्भ से 3735 वर्ष व्यतीत होने पर ... .33 कलियुग (की काल गणना) में शकनृपों के 556 वर्ष व्यतीत होने पर. 34 (पूर्व, पश्चिम, दक्षिण आदि) तीनों समुद्रों से सीमित शासन वाले 17. सत्याश्रय की परम कृपा प्राप्त करते हुए मेधावी रविकीर्ति ने भवनों में महिमाशाली यह पाषाण का जिनेन्द्र भवन (जैन मंदिर) बनवाया। 35 तीन लोक के गुरु 'जिन' की इस प्रशस्ति का रचयिता तथा भवन बनवाने वाला स्वयं समर्थ (यशस्वी) रविकीर्ति है। 36 जो विवेकशील (मेधावी) पाषाणों से सुदृढ़ इस जैन मंदिर के नव-निर्माण तथा प्राशस्ति के नूतन निर्माण में लीन हुआ तथा जिसने अपनी कविता 18. से कालिदास तथा भारवि की कीर्ति प्राप्त कर ली, वह रविकीर्ति विजयी हो। 37 मूलवल्लिवेल्मल्तिकवाडमच्चनूगङ्गवूऍलिगेरेगण्डव ग्राम इसकी भुक्ति है। पर्वत-तट से पश्चिम की ओर निमूवारि तक उत्तर एवं दक्षिण में महापथों के मध्य इस नगर की सीमा है। For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाउक का जोधपुर शिलालेख जोधपुर (राजस्थान) भाषा-संस्कृत, लिपि-उत्तरी ब्राह्मी, 650 ई० ओं नमो विष्णवे॥ यस्मिन्विशन्ति भूतानि यतस्सर्गस्थिती मते। स वः पायाद्धृषीकेशो निर्गुणस्सगुणश्च यः॥[1] गुणाः पूर्वपु(पूरूषाणां की य॑न्ते ] तेन पण्डितैः। गुणकीर्तिरनश्यन्ती स्वर्गवासकरी यतः॥ [2] अतः श्रीबाउको धीमां स्वप्रतीहारवशजां। प्रशस्तौ लेखयामास श्रीयशोविक्रमान्वितान्॥ [3] स्वभ्रातारा3. मभद्रस्य प्रतिहार्य कृतं यतः। श्रीप्रतिहारवशोयमतश्शोन्नतिमाप्नुयात्। [4] विप्रः श्रीहरिचन्द्राख्यः पत्नी भद्रा च क्षत्रिया। ताभ्यान्तु [ये सुता जाताः [प्रतीहा रांश्च तान्वि दुः। [5] बभूव रोहिल्लद्धयको वेदशास्त्रार्थपारगः। द्विजः श्रीहरिचन्द्राख्यः प्रजापतिसमो गुरुः॥ [6] तेन श्रीहरिचन्द्रेण परिणीता द्विजात्मजा। [द्वि] तीया क्षत्तृ1. ए.इ० 18, पृ०87 179 For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 180 प्राचीन भारतीय अभिलेख 5. या भद्रा महाकुलगुणान्विता [17] प्रतीहारा द्विजा भूता ब्राह्मण्यां ये भवत्सुताः। राज्ञी भद्रा च यांत्सूते ते भूता मधुपायिनः। [18] चत्वार[ श्]चात्मजास्तस्यां जाता भूधरणक्ष माः। श्रीमान्भोगभटः कक्को रज्जिलो दद्द एव च। [9] माण्डव्यपुरदुग्गैस्मिन्नेभिर्निजभुजार्जिते। प्राकारः कारितस्तुङ्गो विद्विषां भीतिवर्द्धनः। [ 10 ] अमीषां रज्जिलाज्जातः श्रीमान्नरभटः सुतः। पेल्लापेल्लीति नामाभूदित [तीयं] तस्य विक्रमैः॥ [11] तस्मान[ नरभ टाज्जातः श्रीमान्नागभटः सुतः [1] राजधानी स्थिरा यस्य महन्मेडन्तकं पुरं। [12] राज्ञां श्री 8. जज्जिका देव्यास्ततो जातौ महागुणौ। द्वौ सुतौ तातभोजाख्यौ सौदयौँ रिपुमर्दनौ। [13] तातेन तेन लोकस्य विद्युच्चञ्चलजीवितं। बुध्वा राज्यं लघोर्धातुः श्रीभोज स्य समर्पित। [14] स्वयंञ्च संस्थितस्तामतः [:] शुद्धं धर्म [ ] समाचरन्। माण्डव्यवस्याश्रमे पुण्ये नदीनिर्झर शोभिते॥[15] श्रीयशोवर्द्धनस्तस्मात्पुत्रो विख्यातपौरुषः। भूतो नि [ज]भुजख्यातिः समस्तोद्धृतकण्टकः॥ [19] तस्माच्च चन्दुकः श्रीमान्पुत्रोभूत्पृथुविक्रमः। तेजस्वी त्यागशीलश्च विद्विषां युधि दुर्द्धरः॥ [17] ततः श्रीशिलुको जातः पुत्रो दुर्वारविक्क्रमः [1] येन 10. For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाउक का जोधपुर शिलालेख 181 11. सीमा कृता नित्या स्रवणीवल्लदंशयोः ॥ [18] भट्टिकं देवराजं यो वल्लमण्डलपालक [] । नि [पा]त्य त [क्ष ]णं भूमौ प्राप्तवान् च्छत्रचिह्नकं [:] ।[19] पुष्करिणी कारिता येन त्रेतातीर्थे च पत्तन। सि द्धेश्वरो महादेवः कारितस्तुङ्गमंदिरः॥ [20] ततः श्रीशीलुकाज्जातः श्रीमान्झोटो वरः सुतः। येन राज्यसुखं भुक्त्वा भागीर थ्यां] कृता गतिः। [21] बभूव सत्त्ववान्तस्माद्भिल्लादित्यस्तपोम 13. तिः। यूना राज्यं कृतं येन पुनः पुत्राय दत्तव(वा)न्॥ [22] गङ्गाद्वारम् ततो गत्वा वर्षाण्यष्टादश स्थितः। अन्ते चानशनं कृत्वा स्वर्गलोकं समागतः। [23] ततोपि श्रीयुतः कक्कः 14. पुत्रो जातो महामतिः। यशो मुगिरौ लब्धं येन गौडैः समं रणे। [24] [छन्दो] व्याकरणं तक्र्को ज्योतिःशास्त्रं कलान्वितं। सर्वभाषाकवित्वञ्च विज्ञातं सुविलक्षणं [25] भट्टि व15. शविशुद्धायाम् तदस्मात्कक्कभूपतेः। श्रीमत्पद्मिन्याः महाराज्ञां जातः श्रीब्बाउक सुत इति॥ [26] नन्दावल्लं प्रहत्वा रिपुबलमतुलं भू-अकूपप्रयातं दृष्ट्वा भग्नां स्वपक्ष [I] द्विजनृपकुलजां सत्प्रतीहारभूपां। धिग्भूतैकेन तस्मिन्प्रकटितयशसा श्रीमता बाउकेन। स्फूर्जन्हत्वा मयूरं तदनु नरमृगा घातिता हे[ति ] नैव॥ [27] कस्यान्यस्य प्रभग्नः ससचिवमनुज त्यज्य राणसु तंत्रः केनैकेनातिभीते दशदिशि तु वले स्तम्भ्य चात्मानमेको धैर्या [न्म] कत्वाश्वपृष्टं क्षितिग 16. For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 182 www. kobatirth.org तदनु 19. भृतासितरंगा श्रीमद्वाउकनृसिंघेन ॥ [ 29 ] 18. तचरणेनासिहस्तेन शत्रुं छित्त्वा भित्त्वा श्मशानं कृतमति [ भ ]यदं बाउकान्येन तस्मिन् [ 28 ] नवमण्डलनवनिचये भग्ने हत्वा मयूरमतिगहने । 21. शकलान्त्रेष्वेव विन्यस्तपादे । 2. 20. यच्छ्रीबाउकमण्डल ]|ग्ररचितं प्राक्छत्रुसंघाकुले तत्संस्मृत्य न कस्य संप्रति भवेत्रासोद्गमश्चेतसि [1] [30] ननु सम्[र]धारायां बाउके नृत्यमाने शवतनु 3. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्द्धाद्धैः प्रग [ल ] द्भिरक्त सुषिरैव्वा हूरु पादाङ्गकैरेन्द्रैश्चोपरिलम्वि(म्बितैर्विरचितं शवगृहं फेत्कारसत्त्वाकुलं प्राचीन भारतीय अभिलेख शममिव हि गतास्ते तिष्ठतिष्ठेति गीता 22. उत्कीर्णा च हेमकारविष्णुरविस [] नुना कृष्णेश्वरेण ॥ ओम् । विष्णु को प्रणाम । 1. द्भयगतनृक [] रंगाश्चित्रमेतत्तदासीत् ॥ [31] सं0 894 चैत्र शु दि 5 जिसमें (समस्त) भूत विलीन, उत्पन्न तथा स्थित होते हैं, तथा जो निर्गुण एवं सगुण है वह हृषीकेश आपकी रक्षा करे। 1 पूर्व पुरुषों के गुणों का विद्वान् इसलिये बखान करते हैं। जिससे गुणों की कीर्ति अविनष्ट होकर स्वर्ग में निवास करे। अतः मेधावी श्री बाउक ने अपने प्रतिहार वंश में उत्पन्न सम्पन्न, यशस्वी तथा विक्रमशाली (नृपों) को प्रशस्ति में लिखवाया। 3 रामचन्द्र के अपने भाई (लक्ष्मण) For Private And Personal Use Only प्रतिहार कर्म किया इसलिये वैभव सम्पन्न इस प्रतिहार वंश ने उन्नति प्राप्त की। 4 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाउक का जोधपुर शिलालेख 183 हरिचन्द्र ब्राह्मण तथा उनकी क्षत्रिय पत्नी भद्रा से जो पुत्र उत्पन्न हुए वे प्रतिहार कहलाये। 5 रोहिल उपाधिधारी ब्राह्मण हरिचन्द्र शास्त्र एवं अर्थ(शास्त्र) में पारंगत हुआ जो प्रजापति के समान गुरु था। 6 उन श्रीहरिचन्द्र ने ब्राह्मणकन्या से विवाह किया। (उसकी) 5. दूसरी पत्नी भद्रा थी जो क्षत्रिया थी एवं महान् वंश तथा तदनुरूप गुण से युक्त थी। जो ब्राह्मणी से ब्राह्मण उत्पन्न हुए वे प्रतिहार कहलाये तथा रानी भद्रा ने जिन्हें उत्पन्न किया वे मधुपायी (मदिरा पीने वाले) हुए। 8 उसके पृथ्वी को धारण करने में सक्षम चार पुत्र हुए। श्रीमान् भोगभट, कक्क, रजिल्ल तथा दद्द। 7 इन्होंने अपने भुजबल से अर्जित इस माण्डव्यपुर (आधुनिक मण्डोर) के दुर्ग में शत्रुओं का भयकारी समुन्नत प्राकार बनवाया। 10 इनमें रज्जिल से 7. श्रीमान् नरभट पुत्र उत्पन्न हुआ। विक्रम के कारण जिसका दूसरा नाम पेल्लापेल्ली हो गया। 11 उस नरभट से श्रीमान् नागभट्ट पुत्र उत्पन्न हुआ जिसकी स्थिर तथा विशाल राजधानी मेडन्तकपुर (मेड़ताँ) थी। 12 तब रानी श्री जज्जिका देवी से महान् गुणशाली शत्रु-विनाशक तात तथा भोज नामक दो सोदर पुत्र उत्पन्न हुए। 13 उस तात ने लौकिक जीवन को विद्युत् के समान चञ्चल समझकर, राज्य अपने छोटे भाई भोज को दे दिया। 14 स्वयं तात, शुद्ध धर्म का आचरण करते हुए, नदी-निर्झर से शोभित माण्डवी के पवित्र आश्रम में रहने लगा। 15 उसका पुत्र श्रीयशोवर्धन हुआ जिसकी पौरुष विख्यात था तथा जिसने For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 184 प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. अपने भुजबल से सारे (शत्रु रूप) कण्टक उखाड़ फेंके। 16 उसमें अत्यंत शक्तिशाली पुत्र चन्द्रक हुआ जो तेजस्वी, त्यगी तथा युद्ध में शत्रुओं के लिये असह्य था। 17 उससे अप्रतिहत शक्तिशाली पुत्र शिलुक हुआ जिसने 11. स्रवणी तथा वल्ल देश की सदा के लिये सीमा बना दी। 18 वल्लमण्डल के स्वामी भट्टिक देवराज को तत्काल भूमि पर गिराकर, छत्र (आदि)) का चिह्न प्राप्त कर लिया। 19 तथा जिसने त्रेता तीर्थ में छोटा तालाब एवं मण्डी बनवायी। 12. सिद्धेश्वर महादेव का समुन्नत मंदिर भी बनवाया। 20 तब श्रीशीलुक से श्रेष्ठ पुत्र श्रीमान् झोट उत्पन्न हुआ जिसने राज्यसुख भोगकर गंगा का सेवन किया। 21 उससे तपस्वी वृत्ति का शक्तिशाली (पुत्र) भिल्लादित्य हुआ 13. जिसने यौवन में राज्य कर पुनः उसे पुत्र को सौंप दिया। 22 तब जाकर अठारह वर्ष गंगाद्वार या हरिद्वार में रहा एवं अन्त में आहार त्याग कर स्वर्ग लोक सिधारा। उससे भी मेधावी पुत्र 14. श्रीयुत कक्क हुआ जिसने मुद्गगिरि (मुंगेर) के रणक्षेत्र में गौडों के साथ (युद्ध करते हुए) यश प्राप्त किया। 24 जो छन्द, व्याकरण, तर्क, ज्योतिष (आदि) शास्त्र तथा कला से युक्त था तथा जिसका सर्वभाषा कवित्व सुप्रथित एवं अत्यंत विलक्षण था। 25 भट्टि के शुद्ध 15. वंश वाली महारानी श्रीमती पद्मिनी में इस वक्क नृप से श्री बाउक (नामक) पुत्र उत्पन्न हुआ। 26 नन्दावल्ल को मारकर, भूअकूप पहुंचे हुए शत्रु के विशाल सैन्य को देखकर 16. अपने पक्ष के ब्राह्मण राजा के कुल में उत्पन्न प्रतिहार नृपों को भागते (रणक्षेत्र छोड़ते) हुए देखकर उन्हें धिक्कारते हुए वहां अकेले बाउक ने अपने यश को प्रकट किया। उत्साह सम्पन्न होते हुए मयूर को मारने के पश्चात् आयुध से ही नर-हरिणों को मार डाला। 27 For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाउक का जोधपुर शिलालेख 185 17. बाउक के अतिरिक्त और किसके राजाओं पर शासन छोड़कर सचिव आदि सभी भाग गये, किस अकेले ने अत्यंत भीत दशों दिशाओं में स्वयं को शक्ति में स्थिर किया। धैर्य से घोड़े की पीठ छोड़कर धरती पर 18. पैदल ही हाथ में तलवार लिये शत्रु को छिन्न-भिन्न कर वहां (राह में) अत्यंत भयंकर श्मशान, बाउक के अतिरिक्त और किसने बनाया? 28 अत्यंत गहन नवमण्डल के नवनिचय के भग्न होने पर मयूर को मार ने के पश्चात् 19. श्रीमान् बाउक नृसिंह ने असित तरंगों को प्राप्त (पूर्ण) की। 29 आधे आधे लटकते हुए, रक्त रहित बाहु, जंघा, पैर आदि अंगों तथा लटकती हुई आंतों से रचित शवगृह हो गया तथा जो (कुत्ते, भेडिये, फेकरी आदि) फेत्कार प्राणियों से भरा है। श्री बाउक ने मण्डल में पहले शत्रुसंघ में जो कार्य किया उसे स्मरण कर ___ अब किसके हृदय में त्रास (भय) उत्पन्न नहीं होता। 30 शव के शरीरों के टुकड़ों एवं आंतों पर पैर रखते हुए बाउक के रणक्षेत्र में नृत्य करने पर 21. ठहर-ठहर कहे (गाये जाने पर वे पुरुष-मृग डर कर शांत हो गये, यह (कार्य) आश्चर्यकारी था। 31 संवत् 894 चैत्र शुक्ल दि 5 22. और स्वर्णकार विष्णुरवि के पुत्र कृष्णेश्वर ने (यह प्रशस्ति) उत्कीर्ण की। 20. For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 3. 4. 5. 1. www. kobatirth.org आदित्यसेन का अफसड शिलालेख' अफसड़ - जिला गया (बिहार) भाषा -संस्कृत लिपि - उत्तर भारत की ब्राह्मी, सातवीं शती ओम् (I) आसीद्दन्तिसहस्रगाढकटको विद्याधराध्यासितः सद्वंशः स्थिर उन्नतो गिरिरिव श्रीकृष्णगुप्तो नृपः । दृप्तारातिमदान्धवारणघटाकुम्भस्थली: क्षुन्दता यस्यासंख्यरिपुप्रतापजयिना दोष्णा मृगेन्द्रायितं ॥ 1 सकलः कलंकरहितः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षततिमिरस्तोयधेः शशाङ्क इव । तस्मादुदपादि सुतो देवः श्रीहर्षगुप्त इति ॥ 2. यो योग्याकालहेलावनतदृढधनुर्भीमवाणौघपाती मूर्त तैः )" स्वस्वामिलक्ष्मी - वसतिविमुखितैरीक्षितः सानु( श्रु ) पातं । घोराणामाहवानम् लिखितमिव जयं श्लाघ्यमाविर्दधानो वक्षस्युद्दामशस्त्रव्रणकठिनकिण-ग्रन्थिलेखाच्छलेन 113 श्रीजीवितगुप्तोऽ भूत्क्षितीशचूडामणिः सुतस्तस्य । यो दृप्तवैरिनारीमुखनलिनवनैकशेसे (शिशि ) करः ॥ - 4 मुक्तामुक्तपयः प्रवाहशिशरासूत्तुङ्गतालीवनभ्राम्यद्दन्तिकरावलूनकदलीकाण्डासु वेलास्वपि। श्च्योतत्स्फारतुषारनिर्झरपयः शीतेऽपि शैले स्थितान्यस्योच्चैर्द्विषतो मुमोच - नमहाघोरः प्रतापज्वर : 15 यस्यातिमानुषं कर्म्म दृश्यते कार्पस खण्ड 3, 200- 208 186 For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्यसेन का अफसड शिलालेख 187 विस्मयाज्जनौघेन। अद्यापि कोशवर्द्धनतटात्प्लुतं पवनजस्येव। प्रख्यातशक्तिमाजीषु पुरःसरं श्रीकुमाररगुप्तमिति। अजनयदेकं स नृपो हर इव शिखिवाहनं तनयं॥ 7 उत्सर्पद्वातहला-चलितकदलिकावीचिमालावितानः प्रोद्यद्धूलिजलौघभ्रमितगुरुमहामत्तमातंगशैलः। भीमः श्रीशानवर्मक्षितिपतिशशिनः सैन्यदुग्धोदसिन्धुर्लक्ष्मी-संप्राप्ति-हेतुः सपदिविमथितो मन्दरीभूय येन। 8 शौर्यसत्यव्रतधरो यः प्रयागगतो ध8. ने। अम्भसीव करीषाग्नौ मग्नः स पुष्पपूजितः॥9 श्रीदामोदरगुप्तोऽभूत्त- नयस्तस्य भूपतेः। येन दामोदरेणेव दैत्या इव हता द्विषः। 10 यो मौखरेः समितिषूद्ध9. तहूणसेन्या वल्गघटाविघटयन्नुरुवारणानां। संमूर्च्छितः सुरवधु (धू) वरयान्) ममेति तत्पा(णिपङ्कजसुखस्पर्शाद्वि (बु)द्धः। 11 गुणवदि द्)वजकन्याना (') नानालंकारयौवन 10. वतीनां परिणायितवान्स नृपः शतं निसृष्टाग्रहाराणां॥ (12) श (री/श्री) महासेनगुप्तोऽ भूत्तस्माद्वीराग्रणी (:) सुतः। सर्व्ववीरसमाजेषु लेभे यो धुरि वीरता (॥) (13)श्री) मत्सुस्थितवर्मयुद्धविजय11. श्लाघापदांकं मुहुर्यस्याद्यापि विव (बु) द्धकुन्दकुमुदक्षुण्णा (?) च्छहार(यि?) त ()। लोहित्यस्य तटेषु श (१) तलतले षूत्फ () ल् (ल) नागद्र [.] मच्छायासुप्तविवु (बु)द्ध (सिद्ध [f]मैथुन[ नै:] स्फी(न्)तं यशो गीयते। वसुदेवा12. दिव तस्माच्छीस)वन(शो(?)भ् ()दितचरणयुगः। श्रीमाधवगुप्तो-भून्माधव इव विक्रमैकरस (: ॥)(15) (- - - - -अ) नुस्म् (ऋ) तो धुरि रण () श्लाघावतामग्रण (1) : सो (सौजनस्य निधानमर्थनिध (च) For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 188 www. kobatirth.org प्राचीन भारतीय अभिलेख 13. यत्यागो (द्) धुराण्णां ध ( ?व ) र ( : )। लक्ष्म ी) स (त्यस ) रस्वती कुलगृह () धर्मस्य सेतुर्दृढः पू( ? ) ज्यो( ? ) नास्ति सभू ( ) तल् ( ) ले )ल:----- सद्गुणै ( : ) | ( 16 ) चक्र (') पाणितलेन सोप्युदवहत्तस्यापि शाङ्गं धनु Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14. नशायसुहृदा ( ) सुखाय सुहृदाम् तस्याप्यसिर्नन्दकः । प्राप्ते विद्वषतां वधे प्रतिहतं ? - ( तेनापि ( ) ढ (?) रिम.. न्या: प्रणेमुर्ज्जना: । ( 17 ) आजौ मया विनिहता ब - 15. लिनो द्विषन् (तः ) कृत्य ( ं) न म (मे) स्त्यपरिमित्यवधार्य वीर : (1) श्रीहर्षदेवनिजसंगमवांछया च (?) ( ) ( ॥ 18 ) श् (री) मान्व ( ब ) भूव दलितारिकरीन्द्रकुम्भमुक्तारजः 16. पटलपांसुलमण्डलाग्रः । आदित्यसेन इति तत्तनयः क्षितीशचूडाम(f) णर्द ( ) ( 119 ) मागतमरिध्वंसोत्थमाप्तं यशः श्लाध्यं 17. सर्व्वधनुष्मतां पुर इति श्लाघां परां वि (बि) भ्रति आशीर्वादपरंपरा चि (?) रसकृ ( ? ) द् (...... ) यामासम (?) 11(20) आजौ स्वेदच्छलेन ध्व 18. जपटशिखया मार्जितो दानपङ्कं खङ्गं क्षुण्णेन मुक्ताशकलसिकतल् (1) (?) कृ (?) त्य ( ? ) - ( ? ) मत् (त) मात (') गघातं तद्गन्धाकृष्टसर्पद्वद् ( ब ) - 19. हलपरिमलभ्रात ( न्त) मत्तालिजालं । ( 21 ) आव (ब) द्धभीमविक- टभ्रुकुटिकठोरसं ( ? ) ग्( र् ) ाम (.....) दवल्लमभृत्यगोष्ठीषु पेश 20. लतया परिहासशीलः । ( 22 ) सत्यभर्त्तव्रता यस्य मुखोपधू (T)नतापसी प( ) हास् (....) ।। ( 23 ) (.....) ज्ञः सकलरिपु ( ब ) लध्वंसहेतुर्गरी 21. यान्निस्त्रिंशोत्खातघातश्रमजनितजडोऽप्युर्जितस्वप्रतापः । युद्धे मत्तेभकुम्भस्थ( ल )X..... ) श्व ( ) तातपत्रस्थगितवसुमतीमण्डलो लो For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्यसेन का अफसड शिलालेख 189 24. 22. कपालः (॥) आजौमत्तगजेन्द्रकुम्भदनलस्फीतस्फुरदोर्युगो ध्वस्ताने( ? )क( ? )रिपुप्रभाव (. . .) यशोमण्डलः। न्यस्ता-शेषनरेन्द्रमौलिचरणस्फारप्रतापान23. लो लक्ष्मीवान्समराभिमानविमलप्रख्यातकीर्तिप:येनायं शरदिन्दुविम्वधवला प्रख्यातभूमण्डला लक्ष्मीसंगमकांक्षयाय सुमहती कीर्तिचिरं कोपिता। याता सागरपारमद्भुततमा साविदिमस्तुपल्यवैरादहो तेनेदं भवनोत्तम क्षितिभुजा विष्णोः कृते कारित। (26) तज्जनन्या महादेव्या श्रीमत्या कारितो मठः। धार्मिकेभ्यः स्वयंदत्तः सुरलो 25. कगृहोपमः॥(27)शंखेन्दुस्फटिकप्रभाप्रतिसमस्फारस्फुरच्छीकर नक्रक्रान्ति-चलत्तरङ् गविलसत्पक्षिप्रनृत्यत्तिमि। राज्ञा खानिमतद्भुतं सुतपसा पेपीयमानं 26. जनस्तस्यैव प्रियभार्यया नरपतेः श्रीकोणदेव्या सरः॥ (28 )यावच्चन्द्रकला हरस्य शिरसि श्रीः शागिणो वक्षति व(ब्रह्मास्ये च सरस्वती कृत27. ( - - - - - -(1) (भोगे ) भूर्भुजगाधिपस्य च तडिद्यावद् -घनस्योदरे तावत्कीर्तिमिहातनोति धवलामादित्यसेनो नृपः।(29) सूक्ष्मशिवेन गौडेन प्रशस्तिविकटाक्षरा॥(।) 28. (- - - - ) मा (?) मिता सम्यग्धार्मिकेण सुधीमता। (30) 1. ओम्। एक सहस्र हाथियों की शक्तिशाली सेना से सम्पन्न, विद्याधर (अर्धदेवजाति अथवा विद्वानों) से युक्त, उच्चकुलीन (श्रेष्ठ बांसों से युक्त), दृढ़ तथा समुन्नत पर्वत के समान राजा श्रीकृष्णगुप्त था। गर्वशील शत्रुओं के मदमत्त गजसमूह के कुम्भ (सिर) को कुचलते हुए, असंख्य शत्रुओं के प्रताप पर धनुष से विजय पाकर जिसके सिंह का आचरण सम्पन्न किया। 1 कलासम्पन्न, कलङ्क तथा For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 190 प्राचीन भारतीय अभिलेख 2. 3. 4. 5. अंधकार से रहित चन्द्रमा जिस प्रकार सागर से उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार उससे, उसका पुत्र श्रीहर्षगुप्तदेव उत्पन्न हुआ। 2 जो अकाल को भी अनायास समाप्त करने में समर्थ था तथा अपने दृढ़ धनुष से भीषण बाणवर्षा करता रहता था। अपने स्वामी की राज्यलक्ष्मी में बसने वाले विमुख पञ्चभूतों ने भी अत्यंत स्नेह से जिसे आंसूभर कर देखा। घनघोर युद्ध में भी चित्राङ्कित के समान उसने वक्षस्थल पर भयंकर शस्त्रों के आघात से कठोर घाव की गांठों की आकृति के बहाने प्रशंसनीय विजय प्राप्त की। 3 उसका पुत्र नृपवर श्रीविजितगुप्त हुआ जो गर्वशील शत्रुओं की नारियों के मुख-कमल के वन के लिये चन्द्रमा था। 4 मोती समान स्वच्छन्द जलप्रवाह से शीतल स्थानों पर, समुन्नत ताड़वन में घूमते हाथियों की सूंड से तोड़े गये केले के तनों वाले तटों पर तथा अबाध बर्फ लाने वाले निर्झर के जल से शीतल शैल पर स्थित होने पर भी शत्रुओं को इसके प्रबल प्रताप का ज्वर नहीं छोड़ता। अब भी जनसमूह जिसके मानवातीत कर्मों को आश्चर्य से देखता है, हनुमान के समान कोशवर्द्धन (पर्वत, कोश बढ़ाने) की सीमा लांघ गया। 6 हर ने कार्तिकेय को उत्पन्न किया उसी प्रकार उसने एक पुत्र, राजा श्रीकुमारगुप्त उत्पन्न किया; प्रत्यक्षयुद्ध में जिसकी शक्ति सुविख्यात थी। 7 फूत्कार वायु से सहज डोलती कदलियों को लहराने वाला तथा धूल एवं जलसमूह उड़ाने वाले विशाल मदमत्त गजों के भ्रमण करने का जो भयंकर पर्वत है तथा जो राजा श्री ईशानवर्मा रूपी चन्द्रमा की सैन्य समह रूपी क्षीरसागर को मन्दराचल बन मथकर सहसा लक्ष्मी पाने वाला है। 8 जो शौर्य एवं सत्य का व्रत धारण कर। 8 पुष्पों से पूजित होकर प्रयाग जाकर सघन जल में जैसे कण्डों की अग्नि में डूब गया। 9 उस नरेश का पुत्र श्रीदामोदरगुप्त हुआ। जिस प्रकार दामोदर ने दैत्यों का वध किया उसी प्रकार उसने शत्रुओं का वध किया। 10 For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्यसेन का अफसड शिलालेख 191 11. जो मोखरि के युद्धों में उद्धत 9. हूणों की सेना के चौकड़ी भरते विशाल हाथियों के समूह को विनष्ट करते हुए मूर्च्छित हो गया जिसका वरण करते हुए देवाङ्गनाओं के 'यह मेरा है' कहते हुए कर-कमल के सुख-स्पर्श करने से वह जाग गया। 11 प्रदान किये हुए अग्रहारों के ब्राह्मणों की विविध आभूषणों एवं यौवन से अलंकृत 10. सौ कन्याओं का जिस नृप ने विवाह किया। 12 वीरों में अगुआ उसका पुत्र श्रीमहासेनगुप्त हुआ जिसने सारे वीर समूहों में मूर्धन्य वीरता प्राप्त की। 13 सुदृढ़ कवच से युद्ध में विजय प्रशंसा के शब्दों से शोभित जो श्रीमान् अब भी शिवजी कुन्द तथा कुमुद से अनुगत (युक्त) हार से शोभित है। लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) की तटवर्ती शीतल भूमि पर पुष्पित नागवृक्ष (नागलता, पान की बेल) की छाया में देव तथा सिद्धों के जोड़े प्रचुर यशोगान करते हैं। 14 उस वसुदेव 12. के समान रूप से लक्ष्मी के सेवन की शोभा से गौरवान्ति दोनों चरण वाले माधव के समान शौर्य में ही आनन्द प्राप्त करने वाला श्रीमाधवगुप्त (पुत्र) हुआ। 15 रण में प्रशंसाप्राप्त वीरों में और स्मरणीय जनों में अग्रणी था तथा वह सुजनता का विधान, अर्थ का संघात तथा मूर्धन्य त्यागियों में श्रेष्ठ था। लक्ष्मी, सत्य तथा सरस्वती का वह कुलगृह तथा धर्म का दृढ़ सेतु था। अपने सद्गुणों के कारण भूतल पर उस जैसा अन्य पूज्य नहीं था। 16 विष्णु (माधव) के समान वह भी अपनी हथेली (करतल) से चक्र धारण करता (चक्र चिन्ह अथवा चक्रवर्तीत्व से युक्त) है, उसका धनुष भी शाङ्ग (सींग का बना हुआ) है, 14. शत्रुओं के विनाश तथा मित्रों को सुखी करने में उसकी खड्ग भी नन्दक For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15. 17. 192 प्राचीन भारतीय अभिलेख (प्रशंसनीय) है। सामने आये हुए शत्रुओं के वध में भी वह अप्रतिहत (प्रतिरोध) है (और इसीलिये उसे विष्णु समझकर) लोग प्रणाम करते हैं। 17 "युद्ध में मैंने दुर्दान्त शत्रुओं का सफाया कर दिया। इसके अतिरिक्त मेरे करने योग्य कुछ नहीं।" यही विचारकर श्रीहर्षदेव से सन्धि की इच्छा से (उसके समक्ष प्रस्तुत हुआ) 18 शत्रुओं के गजराज के सिर के मोतियों के 16. चूर्णसमूह से सारा वातावरण धूमिल करने वाला, राजाओं में श्रेष्ठ, आदित्य सेन नामक उसका श्रीमान् पुत्र हुआ। 19 जिसे शत्रुओं के विनाश से प्रशंसनीय अक्षय कीर्ति सारे धनुर्धरों के समक्ष सुलभ हुई। अतः चिरकाल तक अनेक बार प्रशंसाभरित आशीर्वाद उसे सतत प्राप्त होते रहे। 20 युद्ध में पसीने के व्याज से 18. पताका के पटाञ्चल से दान की क्लिन्नता (दान के कीचड़) को पोंछते हुए, खड्ग के मारक आघात से गज (कुम्भ) के मोतियों के टुकड़ों से जिसने रेतीला कर दिया। जिसकी गन्ध से आकृष्ट होकर, अमिट सुवास से भ्रान्त मत्त भ्रमर का समूह ही आ गया। 21 भयंकर तथा विकट भौंह से कठोर (प्रतीत होने वाला वह) संग्राम (में शत्रुओं को त्रस्त करता रहता था)। परंतु अपने स्नेही तथा सेवकों की गोष्ठी (मण्डली) में 20. (अपनी चतुराई, चालाकी अथवा सुकुमारता से) मज़ाकी था। 22 सत्य प्रिय स्वामी के प्रति भक्त, जिसके मुख का आश्रय लेकर तपस्या करने वाली परिहास वृत्ति पूर्णकाम हो गयी। 23 सारे शत्रुओं के सैन्य को विनष्ट करने में सक्षम 21. तीखे क्षयकारक आघात के श्रम से उत्पन्न जड़ता से जिसका प्रताप भव्य ___ हो उठा है। समर में मदमत्त हाथी के सिर (पर आघात कर उस) नरेश से · श्वेत छत्र के तले सारे भूमण्डल (के राज्य) को समेट लिया था। 24 For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदित्यसेन का अफसड शिलालेख 193 24. 22. युद्ध में मत्त गजराज का सिर चीरकर शंसा पाने वाली दोनों भुजाओं से अनेक शत्रुओं के तेज को नष्ट कर जिसने (अपरिमित) यश प्राप्त किया। अनेक नृपों के सिर पर पैर रखने से उस नृप की प्रतापग्नि प्रज्ज्वलित हो गयी थी। 23. वह श्रीसम्पन्न था तथा उसने युद्ध सम्बन्धी अहंकार (कर सकने) की विख्यात कीर्ति अर्जित कर ली थी। 25 शरत्काल के चन्द्रमा के बिम्ब सी श्वेत, सारे भूलोक में प्रथित उस श्रीमान् से मिलन की अभिलाषिणी विचित्र विपुल कीर्ति से चिरकाल से सौतिया डाह के कारण रूठकर शत्रुनारियाँ सागरपार चल गयीं उसी नरेश ने विष्णु के लिये श्रेष्ठ भवन (मंदिर) बनवाया। 26 25. उसकी माता महादेवी श्रीमती ने स्वर्गीय भवन के समान (दिव्य तथा भव्य) मठ बनवाकर धार्मिकों को स्वयं प्रदान किया। 27 शंख, चन्द्रमा तथा स्फटिक की कान्ति के समान अत्यंत चमकीली बूंदों वाले, मगर के चलने से चलती तरंगों पर शोभित पक्षी जिसमें नाचते से प्रतीत होते हैं, तथा जिसका जल लोगों की तृषा शान्त करता है ऐसा अद्भुत तालाब उसी नृप की तपस्विनी प्रिय भार्या कोणदेवी ने कठोर परिश्रम से खुदवाया। 28 जब तक शिव के सिर पर चन्द्रकला, विष्णु के वक्ष पर लक्ष्मी, ब्रह्मा के मुख में सरस्वती, ... शेष नाग के फण पर पृथ्वी तथा बादल के उदर में बिजली विराजमान है तब तक राजा आदित्यरोल यहां शुभ्र कीर्ति फैलाता रहे। 29 धार्मिक तथा मेधावी, सूक्ष्मशिव गौड ने इस विकट वर्णों वाली (अक्षय) 28. प्रशस्ति का निर्माण किया। 30 For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. 2. 4. 5. 1. 2. www. kobatirth.org 1. 3. शपुरपरमेश्वर कलाइये वंशोद्भवज्योतिस्सन्ततिरावार्य - पुत्र श्री देउकः । तस्यैव भा - शंकरगण प्रथम का सागर - लेख ' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सागर - ( म०प्र०) भाषा-संस्कृत लिपि - ब्रह्मी समय-सातवीं शती सिद्धिः । ओं नमः शिवाय । स्वस्ति । परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीवामराजदेवपादानु ध्यातपरमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीशंकरगणदेव प्रवर्द्धमानविजयराज्ये क र्या लोणियवंशे प्रसूता राज्ञी श्रीकृष्णादेवी या चैतो मातापितृपुण्ये क्षितितले कीर्तिं प्रख्या पयति । तव लोका अमला इति । सिद्धि हो । शिवजी को प्रणाम, कल्याण हो । परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीवामराजदेव के चरणों के अनुसर्ता परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीशङ्करगणदेव के उन्नतिशील एवं विजयी राज्य में 5, पृ० 174 194 For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शंकरगण प्रथम का सागर - लेख 3. 4. 5. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 195 कशपुर के स्वामी, कलाइरेय वंश में उत्पन्न, ज्योति सन्तति आवार्य के पुत्र श्री देउक है। उसी की पत्नी For Private And Personal Use Only लोणियवंश में उत्पन्न रानी श्रीकृष्णादेवी, माता-पिता के पुण्य के लिये पृथ्वी पर (इस शिव मंदिर का निर्माण कर) कीर्ति उजागर करती है। तेरे (सारे) लोक विमल (अथवा पवित्र) हैं, इसलिये । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख नालन्दा (बडगांव) जिला-पटना भाषा-संस्कृत लिपि-उत्तरी ब्राह्मी, (725 ई०) 1. 3. संसारस्थिरवा बन्धनात्कृतमतिर्मोक्षाय यो देहिनां कारुण्यात्प्रसभं शरीरमपि यो दत्वा तुतोषार्थिने[1]सेन्ट्रैर्यः स्वशिरः किरीटमकरी घृष्टाह्नि2. पद्मः सुरै स्तस्मै सर्वपदार्थतत्त्वविदुषे वु (बु) द्धाय नित्यं नमः।। [11] सर्वेषां मूनि दत्त्वा पदमवनिभृतामुद्गतो भूरिधामा निस्त्रिंशांशुप्रतानप्रदलितनिखिलारातिघोरान्धकारः [1] ख्यातो यो लोकपालः सकलवसुमतीपद्मिनीवो( बो)धहेतुः श्रीमान्भास्वानिवोच्चैस्तपति दिशिदिशि श्रीयशोवर्मदेवः।[21] तस्यासौ परमप्रसादमहितः श्रीमानुदाराशयः पुत्रो मार्गपते: प्रतीततिकिनोदीचीपतेर्मन्त्रिणः[1] मालादो भुवि नन्दनोरिदमनो यो व(ब)न्धुमत्या स्सुधीर्दीनाशापरिपूरणै1. ए०३० 20, पृ. 37-46 196 For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख 197 5. कचतुरो धीरो विशुद्धान्वयः।। [30] यासावूर्जितवैरिभूप्रविगलहानाम्बु(बु)पानोल्लसन् माद्यद्भुङ्ग करीन्द्रकुम्भदलनप्राप्तश्रियाम्भूभुजाम्। नालन्दाह 6. सतीव सर्वनगरी: शुभ्रभ्रगौरस्फुरच्चैत्यांशुप्रकरोस्सदागमक लाविख्यातविद्वज्जना॥ [41] यस्मामग्र म्बु)धरावलेहिशिखरश्रेणी वि7. हारावली मालेवोर्ध्वविराजिनी विरचिता धात्रा मनोज्ञा भुवः। [1] नानारत्नमयूखजालखचितप्रासाददेवालया सद्विद्याधरसङ्घ8. रम्यवसतिर्धत्ते सुमेरोः श्रियम्॥ [5॥] अत्रास [ह्य ] पराक्रमप्रणयिना जित्वाखिलान्विद्विषो वा(बा)लादित्यमहानृपेण सकलम्भुक्त्वा च भूमण्डलम् [1] प्रासादः सुमहानयम्भवगतः शौद्धोदनेरद्भुतः कैलासाभिभवेच्छयेव धवलो मन्ये समुत्थापितः॥ [61] अपि च॥ न्यक्कुर्वन्निन्दुकान्तिन्तुहिनगि10. रिशिरः श्रेणिशोभान्निरस्यन् शुभ्रामाकाशगाङ्गान्तदनु मलिनयन्मूक यन्वादिसिन्धून्। मन्ये जेतव्यशून्ये भुवन इह वृथा भ्रान्तिरित्याकलय्य भ्रान्त्वा क्षोणीमशेषाञ्जितविपुलयशस्तम्भ उच्चैस्थितो वा।[7] अत्रादायि निवेद्यमाज्यदधिमद्दीपस्तथा भासुरश्चातुर्जात करेणुमिश्रममल12. तोयं सुधाशीतलं। साध्वी चाक्षयनीविका भगवते वु(बुद्धाय शुद्धात्मने मालादेन यथोक्तवंशयशसा तेनातिभक्त्या स्वयं।[81] आदेशात्स्फीतशीलश्रुतधवलधि13. यो भिक्षुसङ्घस्य भूयो दत्तन्तेनैव सम्यग्व( ब )हुघृतदधि भिर्व्यञ्जनयुक्तम(मन्ना भिक्षुभ्यस्तच्चतुर्यो [बहुसुरभिचतुर्जातकामोदि नित्यं तायं सत्रे] विभक्तं पुनरपि 1 For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 198 प्राचीन भारतीय अभिलेख 14. विमलं भिक्षुसाय दत्तम्॥ [9॥] तेनैवाद्भुतकर्मणा निजमिह क्रीत्वार्य ]सङ्घान्तिकान्मुक्त्वा चीवरिकां प्रदाय विधिना सामान्यमेकन्तथा। कालम्प्रेरयितुं सुखे15. नलयनन्दत्तं स्वदेशम्विना तेभ्यो नईरिकावधेश्च परतः शाक्यात्मजेभः पुनः॥ [ 10 ॥] दानं यदेतदमलङ्गणशालिभिक्षुपूर्णेन्द्रसेनवचनप्रतिवो बोधितेन। तेन प्रतीत16. यशसा भुवि निर्मलाया भ्रात्रा व्यधायि शरदिन्दुनिभाननायाः॥ [10] पित्रो(तुः कलत्रस्वसृसुतसुहृदान्तस्य धम्मैकधाम्नो दत्तं दानं यदेत त्सकलमतिरसेनायुरा17. रोग्यहेतोः। सर्वेषाञ्जन्मभाजां भवभयजलधेः पारसंतारणार्थ श्रीमत्सम्वो( म्बो )धिकल्पद्रुमविपुलफलप्राप्तये चानुमोद्यम्।[ 12॥] चन्द्रो यावञ्चकास्ति स्फुरदुरुकिरणो लो18. कदीपश्च भास्वान् एषा यावच्च धात्रो सजलधिवलया द्यौश्च दत्तावकाशा। यावच्चैते महान्तो भुवनभरधुरन्धारयन्तो महीधास्तावच्चन्द्रावदाता धवलयतु दिशाम्मण्डलं 19. कीर्तिरेषा॥ [13] यो दानस्यास्य कश्चित्कृतजगदवधेरन्तरायविदध्यात्साक्षाद्वज्रासनस्थो जिन इह भगवानन्तरस्थः सदास्ते। वा(बा)लादित्येन राज्ञा प्रदलितरि20. पुणा स्थापितश्चैष शास्ता पञ्चानन्त[र्य कर्तुर्गतिमतिविष मान्धर्महीनः स यायात्॥ [14] इत्येवं शीलचन्द्रप्रथितकरणिकस्वामिदत्तावलङ्यां संडाज्ञां मूनि कृत्वा श्रुतलव For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख 199 21. विभवावप्यनालोच्यभारं हृद्यामेतामुदारां त्वरितमकुरुतामप्रपञ्चां प्रशस्तिं वाञ्छेतां किन्न पंगू शिखरितरुफलावाप्तिमुच्चैः करेण।[15] जिसने प्राणियों की सांसारिक स्थिति एवं बन्धन से मोक्ष का विचार किया, जिसने इच्छुकों को दयामय होकर जबरदस्ती अफ्ना शरीर भी प्रदान कर दिया, जिसके चरण-कमल पर इन्द्रसहित देवताओं ने अपना सिर घीसा 2. उस सारे पदार्थ के तत्त्व के वेत्ता बुद्ध को नित्य प्रणाम। 1 सारे नृपों के सिर पर पैर रख जो अमित तेजस्वी उदित हुआ, सूर्य के समान खड्ग किरणवितान से जिसने शत्रुओं के सम्पूर्ण-घोर अंधकार को विदीर्ण कर दिया। 3. सारी धरा रूपी पद्मिनी के विकास के कारण सूर्य के समान जो सारी दिशाओं में तप रहा है, वही प्रख्यात लोकपाल यह यशोवर्मदेव है। 2 उसी प्रतीतिकिन (!) उत्तर (देश) के मन्त्री मार्गपति का यह, उस नृप का परम कृपाप्राप्त, उदार उद्देश्य से सम्पन्न पुत्र मालाद बन्धुमती का पुत्र, शत्रुओं का दमन करने वाला, विद्वान्, दीनों की आशा पूर्ण करने में अद्वितीय पटु, धीर एवं पवित्रवंश से युक्त था। 3 जिसने उन्नतिशील शत्रुओं की पृथ्वी पर बहते दान (मद) जल को पीने से उल्लसित मदमस्त भंवरों से युक्त गजराज के सिर फोड़ कर नृपों की लक्ष्मी प्राप्त की, उन सारी नगरियों का उपहास करने वाली नालन्दा नगरी श्वेत बादल के समान शुभ्र चमकीले चैत्यांशु (चैत्यध्वज) के समूह वाला श्रेष्ठ आगम, कला आदि में प्रथित विद्वानों को प्रदान किया। 4 जिसमें मेघों को छने वाली शिखर श्रेणी से युक्त अनेक समुन्नत रहने वाली माला के समस्त निर्माण किया। विधाता ने विविध रत्न किरण के जाल से सम्पन्न प्रासाद एवं देवालय, विद्याधर के समूह 8. की रमणीय बस्ती को धारण करने वाली मनोरम नगरी निर्मित की। 5 सारे शत्रुओं को जीतकर, यहां, असह्य पराक्रम के स्नेही नृप बालादित्य ने सारी पृथ्विी का भोग कर, 5. For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 200 प्राचीन भारतीय अभिलेख 9. भगवान् बुद्ध का यह अद्भुत प्रासाद निर्मित किया जो अपनी धवलता से मानो कैलास को पराजित करना चाहता है। 6 और भी चन्द्रकान्त को विलग करता हुआ, हिमालय 10. के शिखर की श्रेणियों को निरस्त करता हुआ, शुभ्र आकाश गंगा को मलिन करता हुआ, विद्वज्जलधि को मौन करता हुआ, मानो यहां शून्य भुवन में विजय के लिये भ्रमण करना व्यर्थ है, यह सोचकर सारी पृथ्वी पर भ्रमण कर विपुल समुन्नत यश स्तम्भ से स्थित है। 7 यहां नैवेद्य, घी, दही, भास्वर दीपक, चारों जाति के हाथी (अथवा चारों जाति की मिट्टी) से युक्त अमृत के समान शीतल जल आदि रूपमें शुद्धात्मा भगवान् बुद्ध के लिये साध्वी अक्षयनीवि (स्थायी धन); उपर्युक्त वंश के यश से पूर्ण मालाद ने स्वयं भक्ति से अर्पित की। 8 उपदेश से विकसित, शील, अध्ययन आदि से शुभ्र मेधावान् । 13. भिक्षुसंघ को उसने पुनः अपार घी, दही, आदि व्यञ्जनों से युक्त अन्न एवं चार भिक्षुओं को चतुर्जातक' से सुगन्धित विमल पेय नित्य प्रदान किये। 9 उसी अद्भुत कर्म वर्ग ने आर्य सङ्घान्तिकों से खरीद एवं एक चीवरिका छोड़ बाकी सबको सम्यक् रूप से प्रदान कर, काल को प्रेरित करने के लिये 15. अपने क्षेत्र को छोड़ सुख से नर्दरिका तक गुहा बुद्ध के लिये प्रदान की। 10 विमल गुण से सम्पन्न भिक्षु पूर्णेन्द्रसेन के कथन से प्रेरित होकर जिसने यह दान दिया। पृथ्वी पर फैले विमल यश वाली उस शरचचन्द्र जैसे मुखवाली के भाई ने इसे बनाया। 11 उस धर्म-धाम के माता-पिता भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, मित्र की आयु एवं स्वास्थ्य के लिये अत्यंत सरस होकर उसने यह दान दिया। त्वगेला पत्रकैस्तुल्यैस्त्रिसुगन्धि त्रिजातकम्। नागकेसरसंयुक्तं चतुजातिकमुच्यते।। 14. For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यशोवर्मदेव का नालन्दा शिलालेख 201 17. सारे प्राणियों को जन्म-भय के सागर को तैर कर पार करने के लिये तथा श्री सम्बोधि रूपी कल्पवृक्ष के विपुल फल पाने के लिये भी यह आनन्द दान दिया। 12 जब तक चन्द्र चमकता है, चमकती विपुल किरणों से युक्त 18. जगत् का दीपक सूर्य चमकता है, सागर से घिरी जब तक यह पृथ्वी है, जब तक आकाश में अवकाश है, जब तक महान भुवनभार को धारण करते हुए भूधर हैं तब तक चन्द्र सी शुभ्र यह कीर्ति दिशाओं को उज्ज्वल करे।13 वज्रासनस्थ भगवान् बुद्ध जिसमें स्थित हैं ऐसे इस दान में प्रलय पर्यन्त जो कोई बाधा डालेगा, जिस आज्ञा को शत्रुविनाशक सम्राट् बालादित्य ने जारी 20. किया, इसे भग्न करने वाला पञ्चानंतर्य (पाप) से युक्त होकर धर्महीन हो जाएगा। 14 इस प्रकार शीलचन्द्र नामक प्रसिद्ध करणिक ने स्वामी के अप्रतिहत आदेश को स्वीकार कर अल्प मेधावी होने पर भी भार की परवाह न करते हुए इस सरल, उदार, तथा आकर्षक प्रशस्ति को त्वरा में रच डाला। क्या पंगू समुन्नत वृक्ष के शिखर के फल को ऊंचे हाथ कर प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता? 15 1. प्रांशुलभ्ये फले लोभादुबाहुरिव वामनः। रघुवंश, 1/3 For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, शक संवत् 702 (780 ई०) प्रथम ताम्रपत्र 1. ओं [1] स वोव्याद्वेधसा धाम या यन्)नाभिकमलं कृत( तम्)[। हरश्च यस्य का( कां तेंदुकलया कमलं कृतं (तम् )। [11] आसीद्वि( दिद्व )षति (त्ति) भिरमुद्यतमण्डलाग्रोद्भव (ध्वस्ति नयन (यन्न) भिमुखो रणशर्वरीषु [1] भूपशु( पश्शु)चिर्विधुरिवास्त(प्त) दिगंतकीर्त्ति3. गर्गोविंदराज इति राजसु राजसिंघ( हः) [12] दृष्ट्वा चमून(म)भिमुखीं सुभट्टाट (टाट्ट) हासामुना (न) मितं सपदि येन रणे4. षु नित्यं [1] दष्टाधरेण दधता भ्रुकुटिं ललाटे खङ्गं कुलञ्च हृदयञ्च निजञ्च श(स )त्वं त्वम्) [13॥] खङ्गं कराग्रा( ग्रा)न्मुखत5. शशोभा, मानो मनस्तस( स्स )ममेव यस्य [1] महाहवे नाम निशम्य सद्य-स्त्रयं रिपूणां विगलत्यकाण्डे [ 141]त1. ए.इ० 22, पृष्ठ 1760 202 For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 203 7. धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र 6. स्यात्मजो जगति विश्रुतदीर्घकीर्तिरा तिहारिहरिविक्रम [ धाम] धारी [1] भूपस्त्रिविष्टपकृता (नृपा )नुकृति( तिः) कृतज्ञः श्रीकर्कराज इति गोत्रमणिर्व(4)भूव। [॥5॥] तस्यो (स्य) प्राभिन( प्रभिन्न )ककट( करट )च्य( च्यु) तदानि(न)दंति- दंतप्रहाररुधि8. रोलि(ल्लि )खितंश(तांस )पीठ[ 1] माप[:] क्षितौ क्षपित शत्रुरभूत(त्त )नूजः सद्राष्ट्रकूटकनकाट्ट (द्रि)रिवेंद्रराज [ : ॥6॥] 9. तस्योपार्जितमहसस्तनयश्चतुरुदधिवलयमालिन्या [ 1] भोक्ता भुवः शतक्रतुसदृशः श्रीदा दं) 10. तिदुर्गराजोभूत् [17] काञ्चीशकेरलनराधिपचोर( ल )पाण्ड्य- श्रीहर्षवजटविभेद विधानदक्ष (क्षम्) [I] कर्णाटकं प(ब)- लमचिंत्यम11. जेयमंन्यै(मन्यै)-भृ( त्यै त्यैः ) कियद्भिरपि यः सहसा जिगायः (य) [8] आ (अ) भ्रूविभंगमगृहीतनिशातशस्त्रं (स्त्र )मश्रांतमप्रतिह12. ताज्ञमपेतयत्न(त्रम्) [1] यो वल(ल्ल भं श(स)पदि दण्ड [बलेन] जित्वा राजाधिराजप[ र मेश्वरतामवाप॥ [9] सा सेतोलिपुलो13. पलावलिलस[ ल्लो ]लोमिमालाजलादाप्राले यकल कित्तामलशिलाजालात्तुषाराचलात् [I] आ पूर्वाप14. रवारिराशिपुलिना(न)प्रांतप्रसिधा(द्धा)वधेर्येनेयं जगति (ती)श्वर स्व) विक्रमवा बोलेनैकातपत्रीकृतं (ता) [mon] तस्मिदि(स्मिन्दि) For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 204 प्राचीन भारतीय अभिलेख 18. 15. वं प्रयाते वल्लभराजे क्षतप्रजावा(बा)धः [1] श्रीकर्कराज सूनुर्महीपतिः कृष्णराजोभूत् [1] यस्य द्वितीय ताम्रपत्र (सामने) 16. स्वभुजपराक्रमनिशे (श्शे )षोच्छा( त्सा )दितारिदिक्चक्कं [1] कृष्णस्येवाकृष्णं चरितं शृ( श्री कृष्णराजस्य ॥ [ 12॥] शुभतुंगतुंगतुरगप्र17. वृद्धरेणु( णू )र्द्ध (र्ध्व )रुध्या द्ध रविकिरधारणम्)[1] ग्रीष्मेपि नभो निखिलं प्रावृट्कालायते स्पष्टं (ष्टम्)। [13] दीनानाथप्रणयिषु यथेष्टचेष्टं समीहितमजश्र (सम्) [1] तत्क्षणमकालवर्ष(र्षे) वर्षति सर्वातिनिळपणं (णम्) [14] राहप्पमात्मभुजजातवा बोलावलेप-भाजौ विजि19. त्य निशिताश्रि(सि)लताप्रही( हा )रैः [1] पालिद्ध( ध्व) जावलिशुभामचिरेण यो हि राजाधिराजपरमेश्वरतांतता[ न॥5॥] क्रोधादुत्खातख20. ङ्गप्रशृ(सू तरुचिचयैः(2) र्भासमानं समंतादाजादु(वु) द्वत (त्त )वैरिप्रकटगजघटाटोपसंक्षो[भ]दक्षं (क्षम्) [1] शौर्य त्यक्ता(त्त्वा)रिवगर्गो भयचकित[व][:] क्वापि दृष्टैवसद्य (सद्यो) दर्पाध्मातारिचक्रक्षयकरमगमद्यस्य दोईण्डरु(रू )पं(पम्) [16] पाता यश्चतु22. र बु]राशिरशनालंकारभाजो भुवः स्त्रय( वस्त्रय्या )श्चापि कृता (त)द्विजामरगुरुः(रु )प्राज्याज्यपूजादरो (रः)[।] दाता मानभृदग्रणीर्गुणव For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र 205 23. तां योसौ शृ(श्रि)यो वल्लभो भोक्तुं स्वर्गफलानि भूरितपसा स्थानं जगामामरं (रम्) [17] येन श्वेतातपत्रप्रहतरवि24. करवाततापात्सलीलं [जग्मे नाशी( सी )रधूलिधवलितशिरसा वल्लभाख्यः सदा जा॥ (1) स श्री गोविंदराजो जितजग25. दहितस्त्रैणवैधव्यहेतुः(तु )स्तस्यासी[त् सूनुरेकः क्षण रणदलितारातिमा(मोत्तेभकुंभः [॥8॥] तस्यानुजः : ] श्रीध्रुव26. राजनामा महानुभावोप्रहतप्रताप [1] प्रसाधिताशेषनरेंद्रचक्रं (क्रः) क्रमेण वा(बा)लार्कवपू(पु)+()भूव [॥9॥] जा( जाते यत्र च राष्ट्रकूटति27. लके सद्भूपचूडामणौ गुर्वी तुष्टिरथाखिलस्य जगतः सुस्वामिनि प्रत्यही हम्) [1] त्स(स)त्यंश(सत्यमिति प्रसा(शा) सति स28. ति क्ष्मामास(स )मुद्रांतिका मासीध(द्धर्मपरे गुणामृतनिधौ सत्यव्रताधिष्टि(ष्ठि )ते [1200] श्रीकाञ्चीपतिगांगवे( )गिकयुता 29. ये माल[ वे शादयः प्राज्यानानयति स्म ता( तान्) क्षितिभृतो यः प्रातिराज्यानति(पि) [I] माणिक्याभरणानि हेमनिचयं 30. यस्य प्रपद्योपरि श्वे( स्वंयेन प्रति तं तथापि न कृतं चेतोन्यथा भ्रातरं रम्) ॥ [21] सामाद्यैरपि वल्लभो नहि यदा सो धिं]व्य31. धातं त्तदा(त्तं तदा) चा( भ्रा)तुईत(त्त )रणे विजित्य तरसा पश्चात(त्त)तो भूपते( तीन्) [1] प्राच्योदीच्यपराच्यपराच्ययाम्यविल्ल(ल)सत्पालिध्वजै For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 206 प्राचीन भारतीय अभिलेख 32. र्भूषितं चिह्नर्यः परमेश्वरत्वमखिलं लेभे महेन्तो ( न्द्रो ) विभुः [ ॥22॥ ] शशधरकरनिकरनिभं यस्य यशः सुरन द्वितीय ताम्रपत्र (पीछे) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33. गाग्रसानुस्थै [:1 ] परिगीयतेनुरक्तैर्व्विद्याधरसुंदरी [नि ] वहै [:112311] हृष्टोन्वहं योर्थिजनाय सर्व्वं सर्व्वस्वमानंदित व ( ब ) - 34. धुवग्गी : 1] प्रादात्प्ररुष्टो हरति स्म यस्यावि (पि) नितांतविर्य ( वीर्यः ) तेनेदमनिलविद्युच(च्च ) ञ्चलमव वेग ( गात् ) प्राणा [न् ] [ 1241 ] 35. लोक्य जीवितमसारं ( रम् ) [ ] क्षितिदानपरमपुण्यं प्रवर्त्तितो व्र - (ब्रह्मदायोयं ( यम् ) [ 125 ॥ ] स च परमभट्टारकमहा 36. राजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक श्रीमद (द्) अकालवर्षदेवपादानुध्यातपरमभट्टारक 37. महाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीधारावर्ष श्री ध्रुवराजनाम [ । ] श्रीनिरूपमदेव [ : ] कुशली सर्व्वानेव य 38. था [ सं ]व ( ब ) ध्यमानकं ( कान् ) राष्ट्रपतिविषयपतिग्रामकूटायुक्तका( क ) नियुक्तकाधिकारिकमहत्तरादी [ न्] समा 39. दिशत्यस्तु वः संविदितं यथा श्रीनीरानदीसंगमसमावासितेन मया माता- पित्रोरात्मनश्चैहिका 40 मुस्मि ( ष्मि ) कपुण्ययशोभिवृध ( द्ध ) ये करहाडवास्तव्यत - च्चातुर्व्विद्यसामान्यगार्गसगोत्र व (ब) 41. हुवृच (ह्वच) सब्र ( ब ) ह्यचारिणे दुग्ग (र्ग ) भटपुत्राय सांगोपांगवेदार्थतत्वविदुषे वासुदेवभट्टा For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 207 धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र 42. य श्रीमालविषयांतर्गतलघुविर विं)मनामा ग्रामः तस्य चाघाट्ट (ट)नानि [1] पूर्वतः श्रीमालपतन( त्तनं) द43. क्षिणत( तो )लयणगिरि [ : ] पश्चिमतः वृ(बृहविंगकग्रामः उत्तरतः नीरा नाम नदी [I] एवमयं चतुराधा44. तनोपलक्षितो ग्राम [ : ] सोद्रंग [:] स( सो परी(रि )करस (स्स) दण्डदशापराधस( स्स) भूतोपा(तवा )तप्रत्यायसो (स्सो)त्पद्यमा45. नविष्टिकः[ : ] सधान्यहिरं( र )न्या( ण्या) देयो अ( योऽ) चाटभटप्रवेश्यः सर्व्वराजकीयानामहस्तप्रक्षेपणी46. य आचंद्रार्कार्णवक्षितिसरित्पळ्तसमकालीन : ] पू (पु) त्रपौत्रान्वयक्रमोपभोग्य( ग्यः) पूर्वप्रत्तदे47. ववा(ब) ह्यदायरहितोभ्यंतरसिध्या( द्धया) भूमिच्छिद्रन्यायेन शकनृपकालातीतसंवत्सरस( श)48. तेषु सप्तषु वर्षद्वयाधिकेषु सिद्धाथ( र्थ ) नाम्नि संवत्सरे माघसितरथसप्तम्यां म तृतीय ताम्रपत्र 49. हापर्वणि व(ब)लिचरुवैश्वदेवाग्निहोत्रातिथिपञ्चमहा यज्ञकृयोत्सर्पणार्थ( र्थ )स्नात्वाद्योदकातिसर्गेण 50. प्रतिपादितो( तः) [1] यतोस्यो उचितया व्र(ब्रह्मदायस्थित्या भुंजतो भोजयत[ : ] कृषतः कर्षयतः प्रतिदिशतो वा न कै51. चिदल्पापि परिपंथना कार्या[I] तथागामिभद्रनृपतिभिरस्मद्वंश्यैरं (र)न्यैर्वा स्वा( सा )मान्यं भूमिदानफल 52. मवेत्य विद्युलो(ल्लो)लान्यनितयैश्वर्याणि तृणाग्रलग्नजलविं (बिंदुचञ्चलञ्च जीवितमाकलय(य्य) स्वदायनि53. विशेपोयमस्मदा(दा)योनुमंतव्यः प्रतिपालै( लयि )तव्यश्च[1] यश्चाज्ञानतिमिरपटलावृतमतिराथि(च्छि )द्या For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 208 प्राचीन भारतीय अभिलेख 54. दाच्छिद्यमानकंवानुमोदेन स पञ्चभिर्महापातकैशो( श्चो) पपातकैश्च संयुक्ता : ] स्यात् ] इत्युक्तञ्च भगव55. ता वेदव्यासेन [1] षष्टिं वर्षसहश्रा(मा)णि स्वर्गे तिष्ठति भूमिद [:1] आच्छेता(त्ता) चानुमंता च तान्यै( न्ये )व नर56. रके वसेत् [ 126॥] विंध्याटवीश्व( ष्व तोयासु शुष्ककोटरवासिन [:1] कृष्णाहयो हि जायते भूमिदानं ह57. रंति ये [127॥] अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णं भूवैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः [1] लोकत्रयं तेन भवे58. धि(द्धि) दत्तं यः काञ्चनं गाञ्च महि( ही )ञ्च दद्यात् [1280] व(ब)हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभि [ 1] यस्य य59. स्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फल लम्) [129॥] यानीह दता(त्ता)नि पुरा नरे (रें नैनानि धर्मार्थयशस्कराणि [1] निर्मा60. ल्यवांतप्रति [ मानि] तानि को नाम साधु [:] पुनराददीत [10] स्वदता(त्तां) परदत्तां वा यलाद्रक्ष नराधिप [1][महीं] मही61. मता( तां) श्रेष्ठ दानात्स्त्रे( च्छे योनुपा( पा)लन नम् [10] इति कमलदलावु(म्बु )वि(बिं)दुलोला (श्रि)यमनुचि (चिं )त्यमदुष्यजीवि62. तञ्च [1] अतिविमल [म] नोभिरात्मनीनैण्ण( न हि पुरुषैः परकीर्त्तयो विलोप्याः [102॥] श्रीनाग63. [प]राणकदूतकं लिखितं श्रीगौडसुतेन श्रीसावं( मं) तेन॥ For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र 209 3 (प्रथम पत्र) 1. ओम्। जिसके नाभिकमल को विधाता ने अपना धाम बनाया वह (विष्णु) तथा जिसकी कमनीय चन्द्रकला से कमल रूप-धाम बनाया वह हर आपकी रक्षा करे। 1 रणनिशा में शत्रु-अंधकार को अपने मण्डल के अग्रभाग (सीमा तथा प्रभामण्डल) पर विनष्ट करते हुए, नृपों में राजसिंह गोविन्दराज नरेश ने चन्द्रमा के समान दिगन्तव्यापी पवित्र कीर्ति प्राप्त की। 2 इसने सामने आयी हुई सुभटों के अट्टाहास से पूर्ण सेना को अचानक नित्य ही रण में देखकर 4. (क्रोध से) अधर काटते हुए; ललाट पर भुकुटि, खड्ग, कुल, हृदय तथा अपना सत्त्व (बल) धारण किया। 3 5. महायुद्ध में जिसके नाम को सुनकर शत्रुओं के असमय ही ये तीनों गिर जाते हैं-हाथ से खड्ग, मुख से शोभा तथा मन से मान। 4 जगत् में प्रसिद्ध एवं विस्तृत कीर्तिशाली, दु:खी-जनों के दुःख को हरण करने वाला, विष्णु सा बलशाली कृतज्ञ देवेन्द्र के समान राजा श्रीकर्कराज गोत्रमणि : गोत्र में मणि के समान) हुआ। 5 उसका पुत्र राष्ट्रकूट में सुमेरु के समान, इन्द्रराज, पृथ्वी का राजा हुआ। विशीर्ण गण्डस्थल से टपकते मदजल से युक्त गजों के दन्तप्रहार के लोहित से जिसका कन्धा रञ्जित था तथा जिसने शत्रुओं को (उखाड़) फेंका था। 6 उसका पुत्र शतक्रतु के समान श्री दन्तिदुर्गराज हुआ जिसने यज्ञोत्सव सम्पन्न किया तथा जो चारों समुद्र की वलयमालिनी भूमि का भोक्ता था। 7 10. काञ्ची के स्वामी, केरल के राजा; चोल, पाण्ड्य, श्रीहर्ष, वज्रट आदि को नष्ट करने में वह पटु था तथा अन्य जिसे जीतने का विचार भी नहीं कर सकते थे उस कर्णाटक-सैन्य को जिसने For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 210 प्राचीन भारतीय अभिलेख 11. अपने कतिपय सेवकों से हा सहसा जीत लिया। 8 बिना भ्रूभंग किये, बिना तीखा शस्त्र लिये, बेरोक, अबाध आदेश से, बिना प्रयत्न के ही जिसने तत्काल दण्डबल से वल्लभ को जीतकर 'राजाधिराजपरमेश्वर' विरुद प्राप्त किया। 9 विशाल 13. पाषाण-समूह से शोभित चञ्चल तरङ्गावली से युक्त सेतु से हिमांकित विकल शिलासमूह से युक्त हिमालय तक, पूर्व तथा पश्चिम 14. समुद्र-तटों के प्रथित प्रदेश तक जिसने अपने विक्रम बल से इस जगती को एक छत्र में (के नीचे) कर दिया। 10 उस वल्लभराज के दिवं15. गत होने पर श्रीकर्कराज का प्रजा के कष्टों को दूर करने वाला पुत्र कृष्णराज नृपति हुआ। 11 जिसने (द्वितीय पत्र, मुख भाग) 17. 16. अपनी भुजाओं के पराक्रम से सम्पूर्ण शत्रु-दिक्-समूह को विनष्ट कर दिया, उस कृष्णराज का कृष्ण के समान अकष्ण (शुभ्र, उज्ज्वल) चरित है। 12 शुभ (लक्षणों से युक्त) ऊंचे अश्वों (की गति) से प्रवृद्ध रेणु से ऊंचाई पर रविकिरणों को रोक लिया (फलतः) ग्रीष्मकाल में भी सम्पूर्ण आकाश स्पष्ट ही वर्षाकाल सा प्रतीत होने लगा। 13 दीन, अनाथ तथा स्नेहियों पर उनकी इच्छानुरूप कामनापूर्ति हेतु तत्काल, अकाल वर्ष (वर्षा का समय न होने पर भी) बरसकर सब को अत्यंत उपहार देता था। 14 अपने भुजबल पर गर्व होने पर राहप्प को 19. तीक्ष्ण खड्गलता के प्रहार से जीतकर शुभ जिसने तत्काल राजाधिराज परमेश्वरत्व को व्यक्त करने वाली ध्वजपंक्ति फैलायी। 15 18. For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र क्रोध से उखाड़े गये खड्ग 20. से युद्ध में विस्तीर्ण कान्तिसमूह से शोभित प्रतापी शत्रु के स्पष्ट गज समूह को क्षुब्ध करने में चतुर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21. उसे कहीं भी देखकर तत्काल गर्व से फूले भय चकित वीरता छोड़ शत्रु वर्ग को नष्ट कर जिसकी भुजाओं का बल सार्थक हुआ। 16 जिसने 211 22. चारों समुद्रों की मेखला से अलंकृत पृथ्वी की रक्षा की। वेदों से ब्राह्मण, देव तथा गुरुजनों की अपार धृत से पूजा तथा आदर किया। जो दानी, मानी, गुणीजन में अग्रणी 23. लक्ष्मीपति था वह अपने विपुल तप से स्वर्गफल भोगने के लिये स्वर्ग सिधार गया। 17 29. जो श्वेत छत्र से निवारित सूर्य के किरण समूह की उष्णता से क्रीडासहित सैन्याग्र भाग की धूलि से श्वेत सिर से सदा 'वल्लभ' नाम से जाना जाता था, वह श्री गोविन्दराज, जगत् के अहितकारी शत्रुओं की स्त्रियों के वैधव्य हेतु बन गया, वह उसका इकलौता पुत्र था जो क्षणभर में रण में शत्रुओं को विनष्ट करने में मदमस्त हाथी था। 18 उसका अनुज, राजा हुआ जिसका नाम श्री ध्रुवराज था। जो श्रेष्ठ जनों के प्रताप को भी पराभूत करने वाला, सारे नृप समूह से अलंकृत तथा क्रमशः जिसका शरीर बालसूर्य सा (तेजस्वी ) हो गया। 19 श्रेष्ठ 27. नृपों में मूर्धन्य, राष्ट्रकूटों में श्रेष्ठ, उसके उत्पन्न होने पर सारे जगते को नित्य ही अपने श्रेष्ठ स्वामी से गहन संतोष था । सच ही, 28. धर्मपरायण, गुणामृतनिधि तथा सत्य के व्रत पर स्थित उसके शासनकाल में भूमि समुद्रपर्यन्त । (सुशासित तथा संतुष्ट) रही। 20 गंगा तथा वेंगी सहित काञ्ची के स्वामी For Private And Personal Use Only तथा मालव के स्वामी आदि उन विरोधी राज्यों के नृपों को भी जिसने दण्डित किया। मणियों के आभरण का स्वर्ण समूह जिसके निकट सतत Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 212 www. kobatirth.org प्राचीन भारतीय अभिलेख 30. पहुंच रहा था तथापि जिसने अपने भाई से मनमुटाव नहीं किया। 21 साम आदि (उपयों) से भी जब वल्लभ ने संधि नहीं की 31. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तब उसने रण में समागत भाई को जीतकर तत्काल (उसके समर्थक) नृपों पर भी विजय प्राप्त कर पूर्वी, उत्तरी तथा पश्चिमी प्रदेशों पर लहराती ध्वज- पंक्तियों से 32. शोभित चिह्नों से जिस महेन्द्र विभु ने सम्पूर्ण (भूमि पर ) स्वामित्व प्राप्त किया। 22 चन्द्रकिरण के समूह के समान जिसका यश सुमेरु पर्वत द्वितीय पत्र : पृष्ठ भाग 33. के समुन्नत शिखर पर स्थित अनुरक्त विद्याधर - ललनाओं के द्वारा गाया जाता है। 23 जो प्रसन्न होने पर सारे अर्थिजनों को सब कुछ देखकर उनके बन्धुवर्ग को भी प्रसन्न कर देता था 34. परन्तु वह अपरिमित बलशाली रुष्ट होने पर वेग से यमराज के भी प्राण हर लेता था। 24 उसने जीवन को वायु तथा विद्युत् के समान चञ्चल 35. तथा सारहीन देखकर, परमपुण्य से युक्त भूमिदान के रूप में ब्राह्मणों को दान किया। 25 और उस परमभट्टारक महा 36. राजाधिराज परमेश्वर परमभट्टारक श्रीमान् अकालवर्षदेव के चरणानुवर्ती परमभट्टारक 37. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री धारावर्ष श्री ध्रुवराज नामक श्री निरूपमदेव कुशलता पूर्वक सभी 38. यथा सम्बद्ध राष्ट्रपति, विषयपति, ग्रामकूट, आयुक्तक, नियुक्तक, आधिकारिक, महत्तर आदि को आदेश 39. देता है - आपको ज्ञात हो कि श्री तथा नीरा नदी के संगम पर रहते हुए मैंने -पिता तथा अपने इस लोक तथा माता For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र 40. परलोक में पुण्य तथा यश की वृद्धि के लिये करहाड निवासी चारों विद्या दे निष्णात गार्ग गोत्र के www. kobatirth.org 41. अनेक ऋचाओं (ऋग्वेद) के ज्ञाताओं के सहपाठी दुर्गभट के पुत्र, अंग तथा उपांग सहित वेद के अर्थ एवं तत्त्व के विद्वान् वासुदेवभट्ट को Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 42. श्रीमाल विषय के अन्तर्गत लघुविंम नामक ग्राम, उसकी सीमा (पर्यन्त दिया जाता है जिसके ) पूर्व में श्रीमाल नगर, 43. दक्षिण में लयणगिरि, पश्चिम में बृहद् विंगक ग्राम, उत्तर में नीरा नामक नदी - इस प्रकार इस चतु:सीमा 213 44. से सूचित ग्राम, उद्रंग तथा परिकर सहित, दण्ड, दश अपराध, भूत, वात, प्रत्याय, उत्पन्न होने वाली 45. बेगार, धान्य, स्वर्ण आदि, (इसे) प्राप्त हो । चाट तथा भट का प्रवेश न हो। सारे राजकीय (अधिकारियों) का हस्तक्षेप न हो। 47. 46. चन्द्र-सूर्य - समुद्र - पृथ्वी नदी पर्वत की स्थिति पर्यन्त, पुत्र-पौत्रादि वंश क्रम में भी पूर्व से देव 48. (अथवा ) ब्राह्मण को दान न की हुई, अन्तः सिद्धि से, भूमिछिद्र न्याय से शक नृप के काल (अनुसार) वर्ष' 702 व्यतीत होने पर सिद्धार्थ वर्ष में माघ शुक्ल रथ सप्तमी के । (तृतीय पत्र) 49. महापर्व पर बलि, चरु, वैश्वदेव, अग्निहोत्र, अतिथि (आदि) पञ्चयज्ञ - 1 - क्रिया सम्पन्न करने के लिये, स्नान करके जल छोड़ते हुए 50. ( यह दान) सम्पन्न किया। जिससे इसकी उचित ब्रह्मदाय स्थिति रूप से भोग करता तथा करवाता हुआ, जोतता एवं जुतवाता हुआ, प्रत्येक दिशा से कोई 51. किञ्चित् भी बाधक न बने। तथा हमारे वंश के अथवा अन्य आगामी भद्र नृप भी भूमिदान के फल को सामान्य For Private And Personal Use Only 52. समझकर, ऐश्वर्य को बिजली के समान अनित्य तथा जीवन को तिनके के अग्रभाग पर लगी जलबिन्दु के समान चञ्चल समझकर अपने से अभिन्न Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 214 प्राचीन भारतीय अभिलेख 53. यह हमारा दान समझकर (उसका) पालन करे। जो अज्ञानान्धकार पटल से आवृत्त मति वाले (इस दान को तोड़ते) 54. अथवा तोड़ने का अनुमोदन करते है, ऐसे व्यक्ति पांच महापाप तथा उपपाप से युक्त होते हैं-ऐसा कहा है, भगवान् 55. वेदव्यास ने भूमिदाता साठ सहस्र वर्ष तक स्वर्ग में रहता है। (तथा) उसका छेदन या (छेदन का) अनुमोदन करने वाला उतने ही वर्ष नरक 56. में रहता है। तथा निर्जल विन्ध्य-वन के सूखे कोटर में रहने वाले कृष्णसर्प (के रूप में) उत्पन्न होते हैं, जो भूमिदान का 57. अपहरण करते हैं। 27 अग्नि की प्रथम संतति सुवर्ण, विष्णु की पुत्री पृथ्वी तथा सूर्य की पुत्रियां गायें हैं। 58. जो स्वर्ण, गो एवं पृथ्वी देता है, वह तीनों लोक दे देता है। 28 सागर आदि अनेक नृपों ने भूमि भोगी। जब जिसकी 59. जिसकी भूमि (रही) तब उसे ही फल मिला। 29 यहां प्राचीन काल में जिन नृपों ने धर्म, अर्थ तथा यशस् कारक जो दान दिये 60. निर्माल्य के समान उन्हें कौन सज्जन फिर से लेगा। 30 राजन्! स्वयं अथवा अन्य के द्वारा प्रदत भूमि की सप्रयास रक्षा कर। 61. हे नृपश्रेष्ठ! दान की अपेक्षा उसका अनुपालन श्रेष्ठ है। 31 इस प्रकार कमलपत्र के जलबिन्दु के समान चञ्चल लक्ष्मी तथा मानव जीवन स्थिति विचार कर 62. अत्यंत विमल मन वाले आत्मीय जन परकीर्ति को (दान छीनकर) लुप्त न करें। 32 श्रीनाग63. पराणक दूतक ने श्रीगौड़ के पुत्र श्रीसामन्त ने (यह दानपत्र) लिखा। For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र संजान-थाना जिला, (महाराष्ट्र) भाषा-संस्कृत लिपि-ब्राह्मी, शकसंवत् 713, (871 ई०) प्रथम ताम्रपत्र 1ओं/स वोऽ याद्वेधसा धाम यन्नाभिकमलं कृतम्। हरश्च यस्य कान्तेन्दुकलया कमलं कृतम्।। अनन्तभोगास्थितिरत्र पातु वः प्रतापशीलप्रभवोदयाचलः। 2. शुण्ट्र( सुराष्ट्र)कूटोच्छ्रितवंशपूर्वजः स वीरनारायण एव यो विभुः।।।। तदीय वीर्यायतयादवान्वये क्रमेण वार्धाविव रत्नसञ्चयः। बभूव गोविन्दमहीपतिर्भुवः(3) प्रसाधनः पृच्छकराजनः।७॥ बभार यः कौस्तुभरत्नविस्फुरद् गभस्तिविस्तीर्णमुरस्थलं ततः। प्रभातभानुप्रभवप्रभाततं हिरण्मयं मेरुरिवाभितस्तट। मनांसि (4) यत्रासमयानि सन्ततं वचांसि यतकीर्तिविकीर्तनान्यपि। शिरांसि यत्पासादनतानि वैरिणां यशांसि यत्तेजसि नेशुरन्यतः।।। धनुस्समुत्सारितभूभृता मही प्रसारिता (5) येन पृथुप्रभाविना। महौजसा वैरितमो निराकृतं प्रतापशीलेन स कर्कराट् प्रभुः।।6। इन्द्रराजस्ततो गृह्णात् यश्चालुक्यनृपात्मजाम्। राक्षसेन विवाहेन रणे खे( 6 )टकमण्डपे॥7॥ ततो भवद्दन्तिघटाभिमईनो हिमाचलादास्थितसेतुसीमतः। खलीकृतोवृत्तमहीपमण्डलः कुलाग्रणीर्यो भुवि दन्तिदुर्गराः॥8॥ 1. ए.इ० खण्ड 18, पृ० 235-57 215 For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 216 प्राचीन भारतीय अभिलेख हिरण्या( 7 )गर्भं राजन्यैरुज्जयिन्यां यदासितम्। प्रतिहारीकृतं येन गुर्जरेशादिराजकम्॥७॥ स्वयंवरीभूतरणांगणे ततस्स निर्व्यपेक्षं शुभतुंगवल्लभः। चकर्ष चालुक्यकुलश्रयं(8)वलाद्विलोलपालिध्वजमालभारिणाम्॥10॥ अयोध्यसिंघासनचामरोर्जितस्सितातपत्रोप्रतिपक्षराज्यभाक्। अकालवर्षो हतभूपराजको बभूव राज( 9 )र्षिरशेषपुण्यकृत्॥1॥ ततः प्रभूतवर्षोभूद धारावर्षस्ततश्शरैर्धारावर्षायितं येन संग्रामभुवि भूभुजा॥ 12॥ युद्धेषु यस्य करवालनिकृत्तशत्रुमू कंवोष्णरुचिरासवपान ( 10 )मत्तः। आकण्ठपूर्णजठरः परितृप्तमृत्यरुद्गारयन्निव स काहलधीरनादः॥13॥ गङ्गायमुनयोर्मध्ये राज्ञो गौडस्य नश्यतः। लक्ष्मीलीलारविन्दानि श्वेतच्छत्राणि यो हरेत्॥14॥ (11) व्याप्ता विश्वभरान्तं शशिकरधवला यस्य कीर्तिः समन्तात् प्रेखच्छंकालि( श्रृंखालि )मुक्ताफलशतशफरानेकफेनोर्मिरूपैः। पारावारान्यतीरोत्तरणमविरलं कुर्वहतीव प्रयाता स्व( 12 )गंगीर्वाणहारद्विरदसुरसरि‘त्तराष्ट्रच्छलेन॥5॥ प्राप्तो राज्याभिषेकनिरूपमतनयो यः स्वसामन्तवर्गास्त्वेषां पदेषु प्रकटमनुनयैः स्थापयिष्यानश (यन्नशेषान् ( 13 )षाम्। पित्रा यूयं समाना इति गिरमरणीन्मंत्रिवर्गस्त्रिवर्गोयुक्तः कृत्येषु दक्षः क्षितिमवति यदोन्मोक्षयम्बद्धगंग॥6॥ दुष्टांस्तावत्स्वभृत्याञ् झटिति विघ(14) टितान् स्थापितान्येशपाशान् युद्धे युद्ध्वा सवध्वा विषमतरमहोक्षानिवोग्रान्समग्रान्। मुक्ता सान्ान्तरात्मा विकृतिपरिणतौ वाडवाग्निं समुद्रः क्षोभो नाभूद्विपक्षान( 15 )पि पुनरिव तान् भूभृतो यो बभार॥17॥ उपगतविकृतिः कृतजगंगो यदुदितदण्डपलायनोनुवन्धा द्व्यपगत(ध्यगत ) पदशृंखला खलोयस्सनिगलबन्धगल: (16) कृतस्स येन॥8॥ For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 217 श्रीमान्धाता विधातुः प्रतिनिधिरपरो राष्ट्रकूटान्वयश्री-सारान्सारामरम्यप्रविततनगरग्रामरामाभिरामामुर्वीमुव्वश्वराणां मकुटमकरिकाश्लिष्टपादारविन्दः (17) पारावारोरुवारिस्फुटरवरशनां पातुमभ्युद्यतो यः॥9॥ नवजलधरवीरध्वानगम्भीरभेरीरववधिरित विश्वाशान्तरा( 18 )लो रिपूणाम्। पटुरवपदढक्का काहलोत्तालतूर्यत्रिभुवनधबलस्योद्योगकालस्य काल:00 भूभृन्मूनिसुनीतपादविश(स )सरः पुण्योदयस्तेजसा कान्ताशे (19)षदिगन्तरः प्रतिपदं प्राप्तप्रतापोन्नतिः। भूयो योप्यनुरक्तमण्डलयुत(:) पद्माकरानन्दितो मार्तण्डः स्वयमुत्तरायणगतस्तेजोनिधिद्दुस्सहः॥1॥ स नाग( 2 )भटचन्द्रगुप्तनृपतयोर्यशौर्यं रणेष्वहार्यमिपहार्य धैर्य विकलानयोन्मीलयत्। यशोर्जानपरो नृपान्स्वभुवि शालिसस्यानिव पुनः पुनरतिष्ठिष्टि (21) पत्स्वपद एव चान्यानपि।22॥ हिमवत्पर्वतनिझराम्बुतुरगैः वीतराप( पीतञ्च गङ्गजै (गांगं गजै) (द्वितीय ताम्रपत्र के सामने) र्ध्वनितं मन्जतूर्यकैर्द्विगुणितं भूयोपि तत्कन्दरे। स्वयमेवोपनतौ च यस्य महतस्तौ धर्मचक्रायुधौ। हिमावान्कीर्तिसरूपतामुपगतस्त( 23 )कीर्तिनारायणः॥23॥ ततः प्रतिनिवृत्य तत्प्रकृतभृत्यकर्मेत्ययः (यं) प्रतापमिव नर्मदातटमनुप्रयात पुनः। सकोशलकलिंगवेंगिडहलौडूका( 24 )न्मालवान् विलभ्य निजसेवकैः स्वयमबूभुजद्विक्रमः।24। प्रत्यावृत्तः प्रातिराज्यं विधेयं कृत्वा रेवामुत्तर( रा )विन्ध्यपादे। कुर्वन्धर्मान्कीर्तनैः पुण्य(वृन्दैरध्यान्तांस्वो( 25 )चितां राजधानीम्॥25॥ For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 218 प्राचीन भारतीय अभिलेख मण्डलेशोमहाराजसर्वस्वर शर्वस्वो) यदभूर्भुवः। महाराजसर्व (शर्वः) स्वामी भावी तस्य सुतोजनि।26॥ यज्जन्मकाले दैवज्ञैरादिष्ठ (पृष्टं) विषहो भुवं। भोक्तेति हि (26) मवत्सतु पर्यान्ताम्बुधिमेखलाम्॥27॥ योद्धारो मोघवर्षेण वद्धा ये च युधि द्विषः। मक्ता ये विकृतास्तेषां भस्मतश्शृंखलोधृतिः।28॥ ततः प्रभूतवर्षस्सन्स्वसंपूर्णम( 27 )नोरथः। जगतुंगस्स मेरुर्वा भूभृतामुपरि स्थितः।।9।। उद( ति )ष्ठदवष्टम्भं भक्तं द्रविलभूभृताम्। स जागरणचिन्तास्थमन्त्रणाभ्रान्तचेतसाम्॥10॥ प्रस्थानेन हि केवलं(28) प्रचलति स्वच्छादिताच्छादिता धात्रो विक्रमसाधनैस्सकलुषं विद्वेषिणां द्वेषिणाम्। लक्ष्मीप्युरसो लतेव पवनप्रायासिता यासिता धूलिन्नँव दिशो(29) गमद्रिपुयशस्सन्तानकं तानकम्।1।। त्रस्यत्केरलपाण्ड्यचौलिकनृपस्संपल्लवं पल्लवं प्रम्लानिं गमयन्कलिंगमगधप्रायासको यासकः। गर्जद्गुर्जरमौशौ(लि)30) शौर्यविलयोऽलंकारयन्कारयन्नुद्योगैस्तदनिन्द्यशासनमतस्सद्विक्रमो विक्रमःB2॥ निकृतिविकृतगंगाश्शृंखलोबद्धनिष्ठा मृतिमयुरनुकूला मण्डलेशाः स्वभृ( 31 )त्या। विरजसम् (भितेन,) हितेनुर्यस्य बाह्यालिभूमिं परिवृत्तिमनु विष्ट्या वेंगिनाथादयोपि॥33॥ राजामात्यवराविव स्वहितकार्यालस्यनष्टौ हठा-दण्डैनैव नि( 32 )यम्य मूकवधिरावानीय हेलापुरे। ताकिल लंकातच्छि(क)ल तत्प्रभुप्रतिकृती काञ्चीमुपतौ ततः कीर्तिस्तम्भनिभौ शिवायतनके येनेह संस्थापितौ।B4॥ या( 33 )स्या( व्याप्ता) कीर्तिस्त्रिलोक( की )क्यान्निंजभुवनभर भर्तुमासीत्समर्थः पुत्रश्चास्माकमेकस्सफलमिति कृतं जन्म धर्मैरनेकैः। For Private And Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 219 किं कर्तुं स्थेयमस्मिन्निति विम( 34 )लयशः पुण्यसोपानामार्गः स्वर्गप्रात्तुंगसौधं प्रतिरदनुपमः कीर्तिमेवानुयातः॥35॥ वन्धूना बन्धुराणामुचितनिजकुले पूर्वजानां प्रजानां जाता (35) वल्लभानां भुवनभरितसत्कीर्तिमूर्तिस्थितानाम्।त्रातू कीर्तिं सलोकां कलिकलुषमथो हंतुमंतो रिपूणां श्रीमान्सिंहासस्यो बुधनुतचरितो मोघवर्ष (36) प्रशास्तिः। 6 त्रातुं नम्रान्विजेतुं रणशिरसि परान्प्रार्थकेभ्यः प्रदातुं निर्वोढुं रूढिसत्यं धरणिपरिवृढो नेद्द सोऽन्यः (समर्थः? )। इत्यं प्रोत्थाय सार्थं पृथुखपद (37) ढक्कादिमन्द्रप्रद्योषो यस्योन्द्रस्येव (यस्ये) नित्यं ध्वनति कलिमलध्वन्सिनो मन्दिराग्रे।87 दृष्टवा तन्नवराज्यमूजि(त)वृहद्धर्मप्रभावं नृपं भूयः षोडशराज्य (38) वत्कृतयुगः प्रारम्भ इत्याकुलः। नश्यन्नन्तरनुप्रविश्य विषमो मायामयोसौ कलिः सामन्तान्सचिवान्स्ववाधवजनानक्षोभयत्स्वीकृताम्।88 शठमन्यं (39) प्रविधाय कूटशपथैरोशस्वतंमा स्वयं विनिहत्योचितयुक्तकारिपुरुषान्सर्वे स्वयंग्राहिणः। परयोषिदुहिता स्वसेति न पु (40) नर्भेदः पशूनामिव प्रभुरेवं कलिकालमित्यवसितं सवृत्तमुद्धृतः।39 विततमहिमधाम्नि व्योम्नि संहृत्य धाम्नामितवति महतीन्द्रोर्मण्ड ( 41 ) लं तारकाश्च। उदयमहिमभाजो भ्राजितास्सप्रतापे विरतवति विजिह्माश्चोर्जितास्तावदेव 1140 गुरुगुधमनुयातस्सार्यपातालमल्ला( 42 ) दुदयगिरिमहिम्नो रट्टमार्तण्डदेवः। पुनरुदयमुपेत्यो धृततेजस्विचकुंप्रतिहतमथ कृत्वा लोकमेकः पुनाति॥1 राजात्मा मन एव तस्य (43) सचिवस्सामन्तयचक्रं पुन स्तन्नीत्योन्द्रियवर्ग एष विधिवद्वागादयस्सेवकाः। देहास्थानमधिष्ठितः स्वविषयं भोक्तं स्वतन्त्रः क्षमस्त (द्वितीय तामपत्र के पीछे) ( 44 ) स्मिन्भोक्तरि सन्निपातविवशे सर्वेपि नश्यन्ति ते॥42 दोषानौषधवद्धनाननिलवत्छुष्केन्धनान्यग्निवत् ध्वान्तं भानुवदात्मपूर्वज(45) समाम्नायागतान्द्रोहकान्। For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 220 प्राचीन भारतीय अभिलेख संतापाद्विनिहत्य यः कलिमलं धात्र्याद्धि सम्प्रान्ततः कीर्त्या चन्द्रिकयेव चन्द्रधवलच्छत्रश्रिया (46) भ्राजितः।43 यद्दण्डाभिहतात्तरोरिव फलं मुक्ताफलं मण्डलात् यातं शूकरयूथवद्गहनतस्तन्मन्दिरं हास्तिकम्।। यत्कोपाग्र, (47)दवाग्निदग्धतनवः प्राप्ता विभूतिं पने (परे?) तप्तादोपनतप्रसादतनवः प्राप्तो(प्ता) विभूतिम्पर( रे? )144 यस्याज्ञांपरचकिम(णः )जमिवाजलंशि( 48) रोथिर्वहि-त्यादिग्दन्ति- घटावलीमुखपटः कीर्तिप्रतानस्सतः(सितः)। यत्र स्थः स्वकरप्रतापमहिमा कस्यापि दूरस्थितः तेजक्रान्तसमस्तभूभृदि( 49 )न एवासौ न कस्योपरि।45॥ यद्वारे परमण्डलाधिपतयो दौवारिकैर्वारिकैरास्थानावसरं प्रतीक्ष्य बहिरप्यध्यासिता यासिता। गणिक्यं वररत्नमौ( 5 )क्तिकचितं तद्धास्तिकं हास्तिकं नादास्याम (मो) चदीति (देसि) तत्र निजकं पश्यन्ति नश्यन्ति च46॥ सर्प पातुमसौ ददौ निजतनुं जीमूतकेतोस्सुतः श्येनायाथ शिबिः क( 51 )पोतपरिरक्षार्थं दधीचोर्थिने। तेप्येकैकमतर्पयन्किल महालक्ष्यै स्ववामाङ्गलिं लोकोपद्रवशान्तये स्म दिशति श्रीवीरनारायणः।147॥ हत्वा भ्रातर( 52 )मेव राज्यमहरदेवीं च दीनस्ततो लक्षं कोटिमलेखयन्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः।। येनात्याजि तनुः स्वराज्यम सकृद्बाह्यार्थकैः का कथा ह्री( 53 )प्त( ह्रीस्त) स्योन्नतिराष्ट्रकूटतिलको दातेति कीामपि(व)148॥ स्वभुजभुजस निस्त्रिंशोद्रदंष्ट्राग्रदष्टप्रबलरिपुसमूहे ऽमोघवर्षे महीशे। न दध(54)तिपदमीतिव्याधिदुष्कालकाल(ला)हिमशिशिरवसन्तग्रीष्मवर्षाशरत्सु।490 चतुःसमुद्रपर्यन्त स( स्व )मुदं यत्प्रसाधित। भग्न समस्तभूपालमुद्रा ग (55 )रुडमुद्रया।50॥ राजेन्द्रास्ते वन्दनीयास्तु पूर्वे येषान्धर्मः पालनीयोस्मदाद्यैः। ध्वस्ता दुष्टा वर्तमाना(स )स्वधर्म प्रा• ये ते भावि(नः) पार्थिवेन्द्राः।।51॥ For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 221 भुक्तं कैश्चिद्विक्रमेणापरेभ्यो दत्तं चान्यस्त्यक्तमवापरयत्। (का)कस्यानित्ये तत्र राज्ये महद्भिः कीत्र्यै धर्मः केवलं पालनीयः।52॥ तेनेदमनिलविद्युच्चञ्चलमवलोक्य( 57 ) जीवितसारम्। क्षितिदानपरमपुण्यं प्रवर्तितो ब्रह्मदायोऽयं53॥ स च परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीजगत्तुङ्गदेवपादानुध्यातपर( 58 )मभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीपृथ्वीवल्लभश्रीमदमोधवर्षश्रीवल्लभनरेन्द्रदेवः कुशली सर्वानेव यथासम्बध्यमानकानाष्ट्रपतिविषयपति(59) ग्रामकूटयुक्तकनियुक्ताधिकारिमहत्तरादीन्समादिशत्यस्तु। वस्संविदितं यथा मान्यखेटराजधान्यवस्थितेन मया मातापित्रोरात्मन (क)श्चैहिकामु (60 )त्रिकपुण्ययशोभिवृद्धये॥ करहडविनिर्गतभरद्वः माग्निवेश्यानां आंगिरसभरद्वाजाग्निवेश्यांगिरसबार्हस्पत्यानां भारद्वानाजेसबह्मचारिणे (द्वाजगोत्रबह्म) साविकूवारक(61) मइत(क्रमवित्) पौत्राय गोलषडंगवित्पुत्राय (गोलसडमिपुत्राय)। नरसिघ(ह)दीक्षित( स्य)। पुनरपि तस्मै (तद्) विषयविनिर्गताय। तस्मिन् गोत्रे च भट्टपौत्राय। गोविन्दभट्ट(62) पुत्राय। रच्छदित्यक्रमइतः (विदे)। तस्मिन्देशे। बड्डमुखसब्रह्मचारिणे दावडिगहियसहासपौत्राय। विष्णुभट्टपुत्राय। त्रिविक्रम-(63) षडंगविदे। पुनरपि तस्मिन् देशे त्वगोत्रसब्रह्मचारिणे। हरिभट्टपौत्राय। गोवादित्यपुत्राय। केशवगहियसाहासः( साहासाय)। (तृतीय पत्र) (64)चतुष्कानां बवृचशाखानां। एवं चतुष्कस्य ब्राह्मणानां ग्रामो दत्त: संजाणसमीपवर्तिन( :) चतुर्विंशतिग्राममध्येोरुरिवल्लिकानामग्रामः तस्य चाघाट( 65 )नानि पूर्वतः कल्लुवी समुद्रगामिनी नदी। दक्षिण उत्पलहत्थको भट्टग्रामः। पश्चिमत: नन्दग्रामः। उत्तरतः धन्नवल्लिक ग्रामः। अयं ग्रामस्य संज्जाने-(66) पत्तने शुकंन शुष्णयामिग्रा सवृक्षमालाकुलं भोक्तव्यम्। एवमयं चतुराघाटनोपलक्षित सोदंगस्सपरिकरः सदण्डशापराधः सभूतापात-प्रत्यायः सोत्प(67) द्यमानविष्टिकः सधान्यहिरण्यादेयः अचाटभटप्रवेश्यः सर्वराजकीयानामहस्तप्रक्षेपणीयः आचन्द्राकार्णवक्षितिसरित्पर्वतसमकालीनः पुत्रपौत्रान्वयक्रमो( 68 )पभोग्यः पूर्वप्रदत्तब्रह्मदेवदायरहितोभ्यन्तर For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 222 प्राचीन भारतीय अभिलेख सिद्ध्या भूमिच्छिद्रन्यायेन शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेषु सप्तसु नवत्युत्तराभ्यधिकेषु (त्रिनवत्य/ भयोनवत्य )नन्दनसंवत्सरान्तर्गत पुण्य(69) मास उत्तरायण-महापर्वणि बलिचरुवैश्वदेवाग्निहोत्रातिथिसंतर्पणार्थं अद्योदकादिसर्गेण प्रतिपादित: अतोस्योचितया ब्रह्मदायस्थित्या भुंजतो भोज( 70 )यतः कृषतः कर्षयतः प्रविशतो वा न कैश्रिल्यापि (कैश्विदल्यापि) परिपन्थना कार्या तथागामिभद्रनृपतिभिरमवंश्यैरन्यैर्वा सामान्यं भूमिदानफलमवेत्य विद्युल्लोला( 71 )न्यनित्यैश्वर्याणि तृणाग्रलग्नजलबिन्दुचंचलं च जीवितमाकलय्यस्वदायनिर्विशेषोयमस्मदायोनुमन्तव्यः प्रतिपालयितव्यश्च। यश्चाज्ञानतिमिरपट(72) तावृतमतिराच्छिद्य (पतिराच्छिन्द्यादाच्छिद्य) मानकं चानुमोदेते सपंचभिर्महापातकैरुपपातकैश्च संयुक्तं स्यादिति। उक्तं च भगवता वेदव्यासेन व्यासेन। षष्टिवर्षसहस्रा( 73 )णि स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः। आच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्। विन्ध्यटवीष्वतोयासु शुष्ककोटरवासिनः। कृष्णसर्पा हि जायन्ते भूमिदानं हरन्ति( 74 )ये 155॥ अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णं भूर्वैष्णवी सूर्यसुताश्च गावः। लोकत्रयं ते भवेद्धि दत्तं यः काञ्चनं गां च महीं च दद्यात्।56॥ बहुभिर्वसुधा भुक्ता( 75 )राजभिस्सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम्।57॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यत्नाद्रक्ष नराधिप। महीं महि( ही )मतां श्रेष्ठ दानाच्छेयोऽनुपालन।58॥ इति कमलदलाम्बु बिन्दुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितञ्च। अतिविमलमनोभिरात्मनीनै(न) न हि पुरुष(षैः) परि( र )कीर्तयो विलोप्याः॥59॥ लिखितं चैतत् धर्माधि( 77 )करण सेन भोगिकेन (धर्माधिकरणिक) वालभकायस्थवंशजातेन। श्रीमदमोघवर्षदेवकमलानुजीविना गुणधवलेन वत्सराजसूनुना॥ महत्तको (78) गोगूण्यका राषको) राजस्व-मुखादेशेन दूतकर कं)मिति॥ मंगलं महाश्रीः॥ 1. ओम्। जिसके नाभि के कमल को विधाता ने अपना निवास बनाया वह विष्णु तथा जिसकी कमनीय चन्द्रकला से कमल बना वह हर आपकी रक्षा करें। 1 For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 223 (अपार भोग विलास से युक्त) शेषनाग के निवासी, प्रताप तथा शील के उद्भव के लिये जो उदयाचल है वह, राष्ट्रकूट जैसे समुन्नत वंश के पूर्वज वीरनारायण नामक अद्वितीय नरेश हुआ (जो विष्णु सा था)। 2 उस वीर संरक्षित यादववंश में क्रमशः रत्नराशि की अभिवृद्धि के समान, पृथ्वी का श्रृंगार राजा गोविन्द हुआ जो पृच्छकराज का पुत्र था। 3 जिसने कौस्तुभरत्न की चमकती किरण से विस्तृत वक्षस्थल को धारण किया। जिस प्रकार प्रभात के बालसूर्य से उत्पन्न स्वर्णिम कान्ति-सरणि को मेरु अपने तटों पर धारण करता है। 4 (जिसके कारण) शत्रुओं के मन सदा त्रस्त रहते हैं, वचन जिसकी कीर्ति का प्रसार करते हैं, सिर जिसके चरणों में झुक गये हैं और यश जिसके प्रताप में जाकर लुप्त हो गया है। 5 उस अमित प्रभावशाली ने अपने धनुष से (सारे) नृप (तथा पर्वतों) को विनष्ट कर पृथ्वी (राज्य) को विस्तृत किया। उस प्रतापशाली स्वामी कर्कराट् ने अपने महान् ओज से शत्रुओं के अंधकार को चीर दिया। 6 तदनन्तर खेटकमण्डप में इन्द्रराज ने चालुक्यराज की कन्या को राक्षस विवाह से (अपहरण कर) ग्रहण कर लिया। 7 तब गजयूथ को रौंदने वाला, हिमालय से (श्रीराम की समुद्र) सेतु तक (अपने राजा की) सीमा बनाकर स्थित, प्रतापशाली राजसमूह को अपने अधीन करने वाला कुलश्रेष्ठ नृप दन्तिदुर्ग पृथ्वी पर हुआ। 8 जब अधीनस्थ नृपों ने उज्जयिनी में हिरण्यगर्भ यज्ञ किया तब जिसने गुर्जर के स्वामी प्रभृति नृपों को प्रतिहार (द्वारपाल) बनाया। 9 शुभतुङ्गवल्लभ ने रणाङ्गण के स्वयंवर में अनपेक्ष भाव से चालुक्यों की कुललक्ष्मी को बलपूर्वक आकर्षित कर लिया। जो मालाओं के भार वाली लहराती ध्वज पंक्ति से युक्त थी। 10 बिना युद्ध के ही सिंहासन तथा चंवर से शोभित, श्वेत छत्र से युक्त, शत्रुओं के राज्य को भोगने वाला, छोटे-बड़े राजाओं को नष्ट करने वाला, सारे पुण्य-कार्य करने वाला राजर्षि अकालवर्ष हुआ। 11 5. 7. For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 224 प्राचीन भारतीय अभिलेख 9. तब प्रभूतवर्ष और फिर धारावर्ष नरेश हुआ, जिसने रणक्षेत्र में बाणों से धारासार वर्षा का दृश्य उपस्थित कर दिया। 12 युद्धों में जिसके खडग से कटे शत्रु-शिरों से गुनगुने स्वादिष्ट मधु-पान से मदमत्त हो 10. आकण्ठ पेट भरने वाला, मृत्यु से संतुष्ट हो विराम लेता सा वह काहल (प्रशस्त, गंभीर एवं) धीर नाद करता था। 13 गंगा-यमुना के दोआब में विनष्ट (पलायन करते) गौड राजा (राज) की लक्ष्मी के लीलाकमल रूप श्वेत छत्रों को जिसने छीन लिया। 14 14. जिसकी चन्द्रमा की किरणों सी शुभ्र कीर्ति पृथ्वी के छोर तक व्याप्त हो गयी। डोलते असंख्य शंखों मोती तथा सैंकड़ों चमकीली मछलियां, अनेक फेन तथा लहरों के रूप में समुद्र के दूसरे तीर पर जाती सी कीर्ति सतत पार करती रही, 12. आकाशगामिनी दिव्य वाणी के वाहक (ऐरावत) हाथी, गंगा तथा हंसों के रूप में स्वर्ग पहुंच गया। 15 जिस अनुपम पुत्र ने राज्याभिषेक होते ही, विनय कर याचना करने वाले सारे सामन्त समूह को अपने अपने पद पर स्थापित कर दिया। 13. मन्त्रियों ने कहा-'तुम अपने पिता के समान हो।' क्योंकि वह धर्म अर्थ-कामादि त्रिवर्गको सम्पन्न करने में दक्ष था। गंगा को पकड़ने के पश्चात् छोड़कर पृथ्वी का पालन करता रहा।। 16 14. नीच शत्रु नृपों के समूह को अपने सेवक बनाने के पश्चात् रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए, बिगड़े वृषभ के समान उन सारे उग्र नृपों का वध कर (बचे हुओ को), हृदय से आर्द्र (करुण) होने से क्रोध शांत होने पर छोड़ दिया। जैसे वाडवाग्नि शांत होने पर समुद्र तरल हृदय हो जाता है। जैसे किसी प्रकार 15. का मनमुटाव ही नहीं हुआ हो, उसने उन नृपों का भार पुनः स्वीकार कर लिया। 17 जिसने कृतघ्न गंग के विद्रोह करने पर, प्रारम्भ में ही भागते हुए को बांधकर पैरों में जंजीरें डाल दी और यह दुष्ट है यह जानकर उसके गले को घोड़े के समान बांध दिया। 18 16. यमराज का अन्य प्रतिनिधि श्री मान्धाता रमणीय उद्यान, नगर तथा गांवों में फैलकर शोभित राष्ट्रकूट वंश की लक्ष्मी का सार, For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 225 17. सागर के प्रभूत जल की झंकार करती करधनी वाली पृथ्वी के पालन में लीन हो गया जिसके चरण कमलों के अधीनस्थ नृपों के मुकुट में उत्कीर्ण मकरिका चूमती रही। 19 नव जलद के समान वीरों की आवाज तथा गम्भीर रणभेरी से शत्रुओं के सारे दिगन्त बहरे हो रहे हैं, 18. ढोल की गंभीर, ऊंचे से बजने वाली तूरी की कठोर आवाज में प्रवृत्त त्रिभुवन-धवल (श्रेष्ठ) की प्रवृत्ति का यह समय है। 20 पुण्यवर्मा के फलस्वरूप अपने तेज से नृपों के सिरों पर अपने पैर पसार कर 19. सारी दिशाओं में क्रमशः फैलने वाली कमनीय उन्नति जिसने प्राप्त की। पुनः जिसका मण्डल (सूर्य के समान अनुरक्त (लाल) होकर (अर्थात् राजसमूह के आसक्त होने से) एवं कमलसमूह को विकसित करने वाला (जिसके चरणों की सतत वन्दना होने से) स्वयं दुस्सह तेज सम्पन्न सूर्य भी (उसका निवास छोड़) उत्तरायण हो गया। 21 उसने 20. नागभट तथा चन्द्रगुप्त नपों की शंसनीय कीर्ति अपहरण करते हुए अधीर नृपों का उन्मूलन करते हुए उस यश के अर्जन में निरत ने धान के पौधों के समान शत्रु नृपों को भी पृथ्वी पर पुनः 21. अपने पद पर ही प्रतिष्ठित करता रहा। 22 हिमालय पर्वत के निर्झर के नीर का उसके अश्वों ने पान किया तथा गंगाजल का गजों ने। (द्वितीय पत्र : मुख भाग) 22. उसकी कन्दराओं में स्नात तुरहियां पुनः दुगुनी ध्वनि कर उठीं। फलतः उसकी महानता के समक्ष धर्मपाल तथा चक्रायुध स्वयं आ झुके और उस कीर्तिनारायण (कीर्ति में नारायण के समान) ने हिमालय के यश का गौरव प्राप्त किया। 23 23. वहां से लौटकर, निसर्गतः सेवक कर्म करवाने वाले प्रताप के समान वह पुनः नर्मदा के किनारे-किनारे चल दिया। जहां उसने कौशल, कलिंग वेंगी, डहल, औडु तथा मालवों को अपने सेवकों के साथ उपलब्ध कर, स्वयं अपने विक्रम से उनकी (उनकी सेवा का) भोग किया। 24 For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 226 प्राचीन भारतीय अभिलेख नर्मदा उत्तर विन्ध्य की तलहटी में प्रतिराज्य (अधीनस्थ राज्य) स्थापित करने के पश्चात् धर्मकार्य सम्पन्न करते हुए अपने अमिट पुण्य से 25. वह अपनी राजधानी लौट आया। 25 उसका पुत्र महाराज शर्वस्वामी हुआ जो भूमि का भावी स्वामी, मण्डलेश, महाराज तथा पृथ्वी का शिव था। 26 जिसके जन्मकाल भाग्यद्रष्टा (ज्योतिषियों) ने घोषणा की कि 26. हिमालय से सेतु पर्यन्त समुद्र मेखला पृथ्वी के भोक्ता के रूप में इसे स्वीकार किया जायेगा। 27 अमोघवर्ष ने युद्ध में शत्रुओं के जिन सैनिकों को बन्दी बना लिया था तथा जो अब विकृत (वृद्ध) हो चुके थे उन्हें मृत्यु एवं कैद से मुक्त कर दिया।28 तब अपने सारे मनोरथों की विपुल वर्षा करते हुए 27. वह जगतुंग किंवा सुमेरु सारे भूभृतों (नृप अथवा पर्वतों से ऊपर स्थित हुआ)। 29 द्रविड राजाओं के बढ़ते गर्व को नष्ट करने के लिये वह उद्यत हुआ, जिनका चित्त सतत जागरण, चिन्ता तथा मन्त्रणा से त्रस्त हो रहा था। 30 प्रस्थान के साथ 28. चल (उड) कर शौर्य साधन से शत्रुओं के स्वरूप (यश) पात्र को कलंकित कर इसकी कीर्ति आच्छादित हो गयी, अपने शौर्यसाधन से शत्रुओं के शत्रु (अपने मित्र) का वह रक्षक हो गया। हृदयलता सी लक्ष्मी भी पवन से झकझोरे खाती रही। 29. शत्रुओं का यशविस्तार तो नहीं फैला परंतु धूलि अवश्य (उन पर) छा गयी।31 केरल, पाण्ड्य, चौल नरेशों को त्रस्त एवं पल्लवों को पल्लवित करते हुए; कलिंग तथा मगध को व्यथित करते हुए उन्नतिशील ने उन्हें मलीन कर दिया। गरजते गुर्जरों के सिर पर 30. शौर्य-नाशक अलंकार (कडा) घुमाता हुआ अपने प्रयास से उस विक्रमशाली सत् शौर्य से अपने शासन को निन्दा का भाजन नहीं बनाया। 32 For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 227 दुष्टता से गंगा को विकृत करने वाले, श्रृंखलाबद्ध, कई मारे गये तथा अनुकूल मण्डलेश सेवक बना लिये गये। बेगार में नियुक्त वेंगी आदि के नरेशों ने जिसके बाह्यांगण की भूमि में धूल का वितान कर दिया। 33 अत्यंत अहित में निरत निरलस राजा तथा अमात्य सेना के द्वारा बन्दी बनाकर मूक तथा बधिर हेलापुर लाये गये। लंका से वहां के स्वामी की मूर्तियाँ काञ्ची लाकर जिसने शिवालय में कीर्तिस्तम्भ के समान स्थापित कर दी। 34 33. अपनी पृथ्वी के भार के भरण में समर्थ उसकी कीर्ति तीनों लोक में व्याप्त हो गयी। अनेक धर्म-कर्म से उत्पन्न एक पुत्र ने हमारे जन्म को सफल कर दिया। अब किसलिये यहां (पृथ्वी पर) ठहरें यह सोचकर 34. निर्मल यश से सम्पन्न तथा पुण्य के सोपानमार्ग वाला वह प्रतिध्वनि से पूर्ण (हाथीदांत से श्वेत) स्वर्ग के उतुंग प्रासाद का अपनी कीर्ति का अनुसरण करता हुआ चला गया। 35 अपने कुल के मनोरम बन्धुओं तथा 35. सारे लोक में व्याप्त कीर्ति से अमर पूर्वजों की संतति को, लोक सहित कीर्ति को, त्राण देने के लिये, शत्रुओं का वधेच्छु तथा कलियुग के कलुष का विनाशक, विद्वानों के द्वारा प्रशंसित चरित्र वाला श्रीसम्पन्न अमोघवर्ष 36. प्रशासन करने लगा। 36 विनम्र का उद्धार करने, रणक्षेत्र में शत्रुओं की जीतने, याचकों को प्रदान करने, सनातन सत्य का वहन करने में इस जैसा और कोई नरेश नहीं है। इस प्रकार कलियुग के दोषों के विनाशक उस इन्द्र जैसे नृप के प्रासाद के सामने सदा ढोल आदि गम्भीर व ऊंची आवाज में अर्थपूर्ण उद्घोष करते रहे।। सद्यः उपलब्ध राज्य के स्वामी, प्रभूतधर्म के समान प्रभावशाली उस नृप को पुनः सोलह राज्यों के समान सत् युग प्रारम्भ हुआ जानकर विषम मायावी कलियुग ने (नृप के) विश्वसनीय सामन्त, सचिव तथा बन्धुओं को क्षुब्ध कर (विद्रोही बना) दिया। 37. For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 228 प्राचीन भारतीय अभिलेख 42 लेती 39. शासन में नियुक्त स्वच्छन्द तथा परस्त्री, पुत्री, बहिन आदि में पशु के समान भेद न मानने वाले पुरुषों का क्रुद्ध होकर शठता से पूर्ण मंत्रणा एवं मिथ्या शपथ लेकर वध कर डाला। और इस प्रकार उस राजा ने कलि प्रभाव को समाप्त कर सदाचार का उद्धार किया। 39 विशाल महिमाशाली प्रकाश से युक्त आकाश में 41. उदय (उन्नति) भी महिमा प्राप्त करने वाले मंडल व तारे शोभित हुए परन्तु इन्द्र ने इन्हें एकत्र कर कुटिल उन्नतिशीलों को अपने प्रताप में विलीन कर दिया। गुरु तथा बुध (विद्वानों) का अनुसरण कर रट्टमार्तण्डदेव ने उदयगिरि के समान महिमाशाली पातालमल्ल के साथ तेजस्वियों को प्रतिहत कर पुनः उदय पाकर वह अकेला जगत् को पवित्र कर रहा है। 41 उस सन्निपात (सम्यक् स्थानीय) से युक्त नृप के शासन में वे (शत्रु तथा बुराइयां) सब नष्ट हो गये क्योंकि राजा आत्मा, उसके सचिव मन, सामन्त वर्ग इन्द्रियां, वाक् आदि उसके विधिवत् सेवक इस प्रकार अपने विषय (देश) को देह में स्थापित कर भोगने में सक्षम हो गया। 42 (द्वितीय पत्र : पृष्ठ भाग) अपने पूर्वजों से परम्परागत सन्तापों में 44. जो (देह) दोषों को औषध के समान, धन को वायु के समान, सूखे इन्धन को अग्नि के समान, अंधकार को सूर्य के समान 45. उसने कलिदोष विनष्ट कर धात्री सी विस्तृत चांदनी सी कीर्ति एवं चन्द्र सी श्वेत छत्रकान्ति से वह शोभित है। 43 46. दण्ड के आघात से तरु से फल के समान वह अपने मण्डल (राज्य) से मोती प्राप्त करता था। वराह के टोलों के समान हाथियों के झुण्ड उसके प्रासाद में दूर तक चले जाते थे। जिसके क्रोध की प्रचण्ड दावाग्नि से शत्रुओं के शरीर जलकर भस्म हो गये। तपकर भी जो शत्रु उसके सामने झुक गये उन्हें कृपा प्राप्त हो गयी। (यही नहीं) उन्हें अपार विभूति 43. अग 47. For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 229 भी प्राप्त हुई। 44 उसकी आज्ञा शत्रुसमूह भी सतत माला सी धारण करते हैं। उसकी शुक्र कीर्ति इतनी फैली कि वह दिग्गजों का मुखावरण बन गयी। हां दूर रहते हुए अपने अद्वितीय कर (लगान, किरण) प्रताप की महिमा से, उसने सारे नृपों को अपने तेज से अवनत कर दिया 49. इसने किस पर यह प्रभाव नहीं डाला। 45 जिसके द्वार पर शत्रु राज्य के स्वामी द्वारपालों के द्वारा अंदर प्रवेश करने की प्रतीक्षा में बाहर ही रोक कर परेशान किये जाते हैं। राजा उनकी गणिणकायें, मूल्यवान् रत्न-मोती 50. से सजे हाथियों का समूह वापस नहीं देगा। तब वे यह देखकर नष्ट होकर गायब हो गये। 46 सर्प की रक्षा के लिये जीमूतकेतु के पुत्र (जीमूतवाहन) ने (गरुड़ को) और शिबि ने 51. कपोत की रक्षा के लिये श्येन (बाज) को एवं दधीचि ने याचक (इन्द्र) को अपना शरीर दे दिया। उन्होंने भी एक-एक को ही संतुष्ट किया पर लोकोपद्रव की शांति रूपा महालक्ष्मी के लिये वीरनारायण ने बायीं अंगुली (से केवल) आदेश दिया। 47 भाई की हत्या करके 52. ही जिसने उसके राज्य तथा उसकी देवी का अपहरण कर लिया और तब उस (पाप) भीरू गरीब गुप्तवंशज दाता ने कलियुग में (दानराशिस्वरूप) लाख-करोड़ लिखवा दिया। जिसने परहित के लिये लज्जा त्यागकर अपने शरीर तथा अपने राज्य का अनेक बार (मोह छोड़) त्याग कर दिया। कीर्तिशाली दाताओं में भी यह राष्ट्रकूट तिलक महान है। 48 अपने बाहुरूपी सर्प के तीखे आयुध रूपी दंष्ट्रा के अग्रभाग से प्रचण्ड शत्रु समूह को दंश (से विनष्ट) करने वाले नरेश अमोघवर्ष के राज्य में ईति', व्याधि, अकाल आदि का हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा तथा शरत् किसी भी ऋतु में अवसर नहीं आया। चारों सागरों तक जिसने अपनी मोहर चालू कर दी तथा जिसने अपनी गरुड (चिह्न से अंकित) मुद्रा से सारे नृपों की मुद्राएं निरस्त कर दीं। 50 अतिवृष्टिरनावृष्टिः शलभाः मूषकाः शुकाः। प्रत्यासन्नाश्च राजानः षडेता ईतयःस्मृताः।। 53. For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 230 प्राचीन भारतीय अभिलेख 57. 55. वे प्राचीन नरेश वन्दनीय हैं जिनके धर्म का हम जैसे नृपों को पालन करना है। वर्तमान के सारे दुष्ट विनष्ट कर दिये गये हैं तथा भावी नरेशों से धर्म ___ (पर चलने) की प्रार्थना की जाती है। 56. कुछ ने जिसे अपने शौर्य से भोगा था, अन्यों ने जिसे दूसरों को (दान में) दिया तथा दूसरों ने जिसका त्यागा। इस अनित्य राज्य में महान् लोग कीर्ति के लिये केवल धर्म का पालन करते रहें। 52 इसलिये उसने वायु तथा विद्युत के समान जीवन को चंचल तथा असार तथा पृथ्वीदान को परम पुण्यकारक मानकर इस ब्रह्मदाय (ब्राह्मण को दान) में वह नरेश प्रवृत्त हुआ। 53। और वह परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीजगत्तुंग देव का चरणानुसेवी 58. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर पृथ्वीवल्लभ श्रीमान् अमोघवर्ष श्रीवल्लभ नरेन्द्रदेव सकुशल, किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने वाले सारे विषयपति (जिलाधीश) 59. के युक्तक, नियुक्तक, अधिकारिक, महत्तर आदि को यह आदेश ज्ञात हो आप को ज्ञात हो जैसा कि मान्यखेट राजधानी में रहते हुए मैंने माता, पिता तथा स्वयं के इस लोक एवं परलोक 60. में प्राप्य पुण्य एवं यश की वृद्धि के लिये करहड से निकले भरद्वाज, अग्निवेश्य, अंगिरस, बार्हस्पत्य गोत्र के तथा भरद्वाज गोत्र के सहपाठी साविकूवारक 61. मइत पौत्र, गोलसहडगमि (षडंगवित्) का पुत्र, नरसिंह दीक्षित है जो पुनः उस विषय (जिले) से निकला है। उसी गोत्र में भट्ट के पौत्र, गोविन्द भट्ट के 62. पुत्र रच्छार(क्षा)दित्य क्रम विज्ञ है। उस देश में, वड्डमुख के सहपाठी दावडिगहिय सहास के पौत्र, विष्णुभट के पुत्र, षडग के ज्ञाता 63. त्रिविक्रम और पुनः उस देश में वत्सगोत्र के सतीर्थ हरिभट्ट के पौत्र, गोवादित्यभट्ट के पुत्र केसवगहिय साहास को तृतीय पत्र 64. जो चारों अनेक ऋक् शाखाओं से सम्बद्ध हैं। इस इस प्रकार इन चारों ब्राह्मणों For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमोघवर्ष का संजान ताम्रपत्र 231 को संजान का निकटवर्ती 24 गांव का मध्यवर्ती सरिवल्लिका नामक गांव दान में दे दिया। जिनकी सीमाएं 65. (इस प्रकार हैं), पूर्व में समुद्र तक पहुंचने वाली कल्लुवी नदी है, दक्षिण में उप्पत्थहथ्थक' भट्टग्राम है, पश्चिम में नन्दग्राम तथा उत्तर में धन्नवल्लिका ग्राम है। संजान नगर के इस गांव में 66. शुंकन शुष्णयामि गांव, उसके वृक्षों सहित उपभोग्य है। इस प्रकार निर्दिष्ट चारों सीमाओं वाला यह गांव तथा उसकी परिधि सहित, दसों अपराधों की दण्ड व्यवस्था सहित, निश्चित उत्पादन सहित, 67. उपलब्ध होने वाली बेगार सहित, (स्वर्णादि) धन-धान्य के आदान सहित; जहां नित्य एवं अनित्य (अस्थायी) सैनिक प्रवेश न करें तथा सारे राजकीय अधिकारियों का हस्तक्षेप न हो। चन्द्र, सूर्य, समुद्र, पृथ्वी, नदी, पर्वत की आयु पर्यन्त पुत्रपौत्रादि वंश-क्रम 68. पर्यन्त उपभोग्य है। ब्राह्मण तथा देवताओं को पूर्वप्रदान किये हुए के अतिरिक्त आंतरिक सिद्धि से सारे अधिकारों सहित शकराज की काल-गणनानुसार 793 संवत् व्यतीत होने पर, नन्दनवर्ष के पूस मास में 69. (सूर्य के) उत्तरायण (संक्रान्ति) महापर्व पर भेंट-पूजा (आहुति) से विश्वेदेव तथा यज्ञातिथि को तृप्त करने के लिये आज जल आदि छोड़कर सम्पन्न किया। अतः इस समुचित ब्रह्मदान की स्थिति से भोग करते अथवा करवाते हुए खेती करने अथवा करवाते हुए, किसी भी पथिक को प्रवेश नहीं करना चाहिये। तथा हमारे वंश के या अन्य भावी नृप भी यह विचारकर कि भूमिदान का फल सामान्य है तथा ऐश्वर्य चञ्चल बिजली सा अनित्य है एवं यह विचारकर कि जीवन तिनके की नोक पर लगी जलबिन्दु सा अस्थिर है, हमारे इस दान को अपना ही दान समझकर उसे यथावत् बनाये रखें। और जो यह अज्ञानान्धकार-समूह 72. से दुकी बुद्धि को ढककर उसका अनुमोदन करता है वह उन पापों सहित पांच महापापों से युक्त होता है। जैसा कि भगवान् वेदव्यास व्यास ने कहा हैसाठ हजार वर्षों तक 70. खेती For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 232 प्राचीन भारतीय अभिलेख 73. भूमिदाता स्वर्ग में रहता है। इस दान को तोड़ने अथवा तोड़ने का अनुमोदन करने वाला इतने ही वर्ष नरक में रहता है। 54 जो दान की हुई भूमि का अपहरण करते हैं-वे विन्ध्य के निर्जल अरण्य में सूखे (वृक्ष की) खोखर के निवासी काले सांप बनते हैं। 55 74. अग्नि की प्रथम संतति सुवर्ण, विष्णु की पृथ्वी तथा सूर्य की पुत्रियां गायें हैं। जो स्वर्ण, गो अथवा भूमिदान करता है उसे त्रिलोक दान (का फल) होता है। 56 75. सगर आदि बहुत से नृपों ने भूमि का भोग किया। जब जिसकी भूमि रही, तब तब उसे ही फल मिला। 57 राजन्! स्वयं अथवा अन्य के द्वारा प्रदत्त (भूमि) की सयत्न रक्षा करनी चाहिये। हे राजन। भूमिदान की अपेक्षा उस दान का पालन करते रहना अधिक श्रेष्ठ है। 58 76. इस प्रकार कमलपत्र पर जलबिन्दु के समान लक्ष्मी एवं मानव जीवन को चञ्चल समझकर अपनी समझकर अत्यंत निर्मल मन से पुरुष को परकीर्ति का विलोप नहीं करना चाहिये। धर्म विभाग के अध्यक्ष वालभ कायस्थ वंश में उत्पन्न सेनभोगिक ने इसे लिखा जो श्रीमान् अमोघवर्षदेव के चरणकमल की कृपा से जीविका प्राप्त करने वाले वत्सराज का पुत्र गुणधवल है। राजा के द्वारा अपने मुख से दिये गये आदेश पर दूतक महत्तक गोराषक। मंगल हो-महालक्ष्मी। For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र' भाषा-संस्कृत लिपि - प्रचीन नागरी (नौवीं शती) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (1) ओं स्वस्ति ॥ सर्व्वज्ञतां श्रियमिव स्थिरआस्थितस्य वज्रास( 2 ) नस्य व( ब ) हुमारकुलोपलम्भाः । देव्या महाकरुणया परिपा( 3 )लितानि रक्षन्तु वो दशव( ब ) लानि दिशो जयन्ति ॥1॥श्रिय इव सुभगा ( 4 )याः सम्भवो वारिराशि: शशधर इव भासो विश्वमाह्लादयन्त्याः । प्रकृतिरवनिपानां सन्ततेरुत्तमाया अ ( 5 ) जनि दयितविष्णुः सर्वविद्यावदातः 112 ॥ आसीदासागरादुर्व्वी गुर्वीभिः कीर्तिभिः कृती | मण्डयन्( 6 ) खण्डितारतिः श्लाघ्यः श्रीवप्यटस्ततः ॥3॥ मात्स्यन्यायमपोहितुं प्रकृतिभिर्लक्ष्म्याः करङ्ग्राहितः श्रीगोपा ( 7 ) ल इति क्षितीशशिरसां चूडामणिस्तत्सुतः । यस्यानुक्रियते सनातनयशोराशिर्दिशामाशये श्वेतिना य( 8 ) दि पौर्णमासरजनी ज्योत्स्नातिभारश्रिया |4|| शीतांशोरिव रोहिणी हुतभुजः स्वाहेव तेजोनिधेः शर्वाणी( 9 ) व शिवस्य गुह्यकपतेर्भद्रेव भद्रात्मजा । पौलोमीव पुरन्दरस्य दयिता श्रेदेद्ददेवीत्यभूदेवी तस्य विनो( 10 ) दभूर्भुररिपोर्लक्ष्मीरिव क्ष्मापतेः ॥15॥ 1. ए० इ० 4, पृ.243 233 For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 234 प्राचीन भारतीय अभिलेख ताभ्यां श्रीधर्मपालः समजनि सुजनस्तूयमानावदानः स्वामी भूमि( 11 )पति( नां) नामखिलवसुमतीमण्डलं शासदेकः चत्वारस्तीरमज्जत्करिगणचरणन्यस्तमुद्राः समुद्रा यात्रां य( 12 )स्य क्षमन्ते न भुवनपरिखा विश्व( ष्व )गाशाजिगीशोः।।6। यस्मिन्नुद्दामलीलाचलितव(ब)लभरे दिग्जयाय प्रवृत्ते यान्त्या( 13 )( म्व )श्वम्भरायां चलितगिरितिरश्चीनतां तद्वशेन। भाराभुग्नावमज्जन्मणिविधुरिशिरश्चक्रसाहायकार्थं शेषे( 14 )णोदस्तदोष्णत्वरिततरमधोधस्तमेवानुयातम्॥7॥ यत्प्रस्थाने प्रचलितव( ब )लास्फालनादुल्ललभिधूलीपूरैः पिहि( 15 )तसकलव्योमभिर्भूतधात्र्याः। सम्प्राप्तायाः परमतनुततां चक्रवालं फणानां मग्नोन्मीलन्मणिफणिपतेा( 16 )धवादुलासा॥8॥ विरुद्ध विषयक्षोभाद्यस्य कौपाग्निरौर्ववत्। अनिर्वृत्ति प्रजज्वाल चतुरम्भोधि-वारितः।७॥ (17) ये भूवन् पृथुरामराघवनलप्राया धरित्रीभुजस्तानेकत्र दिदृक्षुणेव निचितान् सर्वान् समस्वेधसा। ध्व( 18 )स्ताशेषनरेन्द्रमानमहिमा श्रीधर्मपाल: कलौ लोलश्रीकारिणीनिव(ब)न्धनमहास्तम्भः समुत्तम्भितः॥10 यासां (19) नासरिधूलीधवलदशदिशां द्रागपश्यन्नियत्तां धत्ते मान्धातृसैन्यव्यतिकरचकितो ध्यानतन्दीम्महेन्द्रः। ( 20 ) तासासमप्याहवेच्छापुलकितवपुषाम्वाहिनीनांम्विधातुं साहाय्यं यस्य वा (ब)ह्वोर्निखिलरिपुकुलध्वंसिनो ( 21 )वकाशः॥1॥ भोजैर्मत्स्यैः समद्रैः कुरुयदुयवनावन्तिगन्धारकीरैभूपैर्व्यालोलमौलिप्रणतिपरिणतैः ( 22 ) साधु सङ्गीर्यमाणः। हृष्यत्पञ्चालवृद्धोधृतकनकमयस्वाभिषेकोदकुम्भो दत्तः श्रीकान्यकुब्जस्स ललितच( 23 )लितभूलतालक्ष्म येन।॥12॥ For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र गोपैः सीम्नि वनेचरैर्वनभुवि ग्रामोपकण्ठे जनैः क्रीडद्भिः प्रतिचत्वरं शिशुगणै ( 24 ) प्रत्यापण (म्) मानपैः । लीलावेश्मनि पञ्जरोदरशुकैरुद्गीतमात्मस्तवं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - यस्याकर्णयतस्रपाविवलितानम्रं ( 25 ) सदैवाननम् ॥13॥ स खलु भागीरथीपथप्रवर्तमाननानाविधनौवाटकसम्पादितसेतुबन्धनिहितशैलशि ( 26 )खर श्रेणिविभ्रमात् निरतिशयघनघनाघनघटाश्यामायमान- वासरलक्ष्मीसमारब्धसन्ततजलदस - ( 27 ) मयसन्देहात् उदीचीनानेक नरपति प्राभृतिकृताप्रमेय हयवाहिनी खरखुरोत्खातधूलीधूसरितादि ( 28 ) गन्तरालात् परमेश्वरसेवा समायातसमस्तजम्बूद्वीपभूपालानन्तपादातभरनमदवनेः पाटलिपु( 29 ) - त्रसमावासित - श्रीमज्जयस्कन्धावारात् परमसौगतो महाराजाधिराजः गोपालदेवपादानुध्यातः प( 30 ) - 235 रमेश्वरवरः परमभट्टारको महाराजाधिराजः श्रीमान् धर्म्मपालदेवः कुशली | श्रीपुण्ड्रवर्धन ( 31 ) - भुक्त्यन्तः पातिव्याघ्रतटीमण्डलसम्बद्धमहन्ताप्रताशविषये क्रोञ्चश्वभ्रनामग्रामोऽस्य च सीमा पश्चि( 32 ) मेन गङ्गिनिका । उत्तरेण कादम्बरी देवकुलिका खर्जूरवृक्षश्च । पूर्वोत्तरेण राजपुत्रदेव कृतालिः । वी( 33 )जपूरकं गत्वा प्रविष्टा । पूर्वेण विटकालि: खाटकयानिका ( ) गत्वा प्रविष्टा । जम्बू यानिकामाक्रम्य जम्बूयानकं ( पृष्ठ भाग ) (पीछे) गता । ततो निसृत्य पुण्यारामबिल्वार्धश्रो ( स्रो )तिकां । ततोपि निसृत्य न ( 35 ) - ल - चर्म (टो) न्तरान्तं गता नल(च ) र्म्मटात् दक्षिणेन नामुण्डिकापि ( है ( 36 ) For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org 236 प्राचीन भारतीय अभिलेख (सम्मि )कायाः । खण्डमुण्डमुखं खण्डमुखा वेदसवि(बि) - ल्विका वेदबिल्विकातो रोहितवाटिः पिण्डारविटिजोटिकासीमा (37) उक्तारजोटस्य दक्षिणान्तः ग्रामबिल्वस्य च दक्षिणान्तः । देविकासीमा विरि । धर्मायोजोटिका । एवम्माढाशाम्मली नाम ग्रामः ( 38 ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्य चोत्तरेण गङ्गिनिका सीमा ततः पूर्वेणार्धश्रो ( स्त्रो )तिकया आम्रयानकोलर्धया निकङ्गतः त( 39 ) तोपि दक्षिणेन कालिकाश्वभ्रः । अतोपि निसृत्य श्रीफल( भ ) षुकं यावत्पश्चिमेन ततोपि बिल्वङ्गोर्धस्त्रोति ( 40 ) कया गङ्गिनिकां प्रविष्टत । पालितके सीमा दक्षिणेन काणाद्वीपिका । पूर्वेण कोण्ठिया स्रोतः । उत्रेण ( 41 ) गङ्गिनिका । पश्चिमेन जेनन्दायिका । एतद्ग्रामसंपारीणपरकर्मकृद्वीपः । स्थालीक्कटविषय( 42 ) - सम्बद्धाम्रखण्डिकामण्डलान्तःपातिगोपिप्पलीग्रामस्य सीमाः । पूर्वेण उद्ग्राममण्डलपश्चिमसीमा । दक्षि( 43 ) णेन जोलकः । पश्चिमेन वेसानिकाख्याखाटिका। उत्तरेणोद्रग्राममण्डलसीमाव्यवस्थितो गोमार्गः । एषु च ( 44 ) - तुरुषु ग्रामेषु समुपगताद् सर्वानेव राजराजनकराजपुत्रराजामात्य सेनापतिविषयपतिभोगपतिषष्ठाधि ( 45 ) - कृतदण्डशक्तिदाण्डपाशिकचौरोद(द्ध )रणिक दौस्साधसाधनिकदूतखोलगमागमिकाभित्वरमाण हस्त्यश्वगोमहिष्यजा( 46 )विकाध्यक्ष न( 1 ) काध्यक्षबलाध्यक्षतरिकशोल्किकगोल्मिकत दयुक्तकविनियुक्तकादिराजपादोपजीविनोन्यांश्चाकीर्ति ( 47 ) - तान् चाटभटजातीयान् यथाकालाध्यासिनो ज्येष्ठकायस्थ महामहत्तरदाशग्रामिकादिविषयव्यवहारिण: ( 48 ) सकरणान् प्रतिवासिनः क्षेत्रकरांश्च ब्राह्मणमानापूर्वकं यथर्हमानयति बोधयति समाज्ञापयति च । मतमस्तु ( 49 ) For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र 237 भवताम्। महासामन्ताधिपति श्रीनारायणवर्मणादूतक युवराजश्रीत्रिभुवनपालमुखेन वयमेवम्विज्ञापिताः यथाऽस्मा(50) भिम्मातापित्रोरात्मनश्च पुण्याभिवृद्धये शुभस्थल्यान् देवकुलङ्कारितत्तान्त )त्र प्रतिष्ठापितभगवन्नुन्ननारायणभट्टारकाय तत्प्र (51)तिपालककलाटद्विजदेवार्यकादिपादमूलसमेताय पूजोपस्थानादिकर्मणे चतुरो ग्रामान् अत्रत्यदट्टिकातलपाटक (52) समेतान्ददातु देव इति। ततोऽस्माभिस्तदीय विज्ञप्त्या एते उपरिलिखितकाश्चत्वारो ग्रामास्तलपाटकट्टट्टिकासमेताः स्व( 53 ) सीमापर्यन्ताः सोद्देशाः सदशापचाराः अकिञ्चित्प्रग्राह्याः परिहृतसर्वपीडाः भूमिच्छिद्रन्यायेन चन्द्रार्कक्षितिसमकालं (54) तथैव प्रतिष्ठापिताः। यतो भवद्भिस्सर्वैरेव भूमेर्दानफलगौरवादपहरणे च महानरकपातादिभयत्दानमिदमनुनो (55)द्य परिपालनीयम्। प्रतिवासिभिः क्षेत्रकरैश्चाज्ञाश्रवणविध यै भूत्वा समुचितकरपिण्डकादिसर्बप्रत्यायोपनयः कार्य( 56 )इति॥ बहुभिर्वसुधा दत्ता राजभिस्सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम्।। षष्टिम्वर्ष सहस्राणि स्वर्गे मो( 57 )दति भूमिदः। आक्षेप्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत्॥ स्वदत्ताम्परदत्ताम्वा यो हरेत वसुन्धराम्। स विष्ठायां कृमिर्भूत्वा पितृ( 58 )भिस्सह पच्यते॥ इति कमलदलाम्बुविन्दुलोलांश्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितञ्च। सकलमिदमुदाहृतञ्च बुध्वान हि पुरु( 59 )षैः परकीर्तयो विलोप्याः।। तडित्तुल्या लक्ष्मीस्तनुरपि च दीपानलसमा भवो दुःखैकान्तः परकृतिमकीर्तिः क्षपयताम्। यशा( 60 )न्स्यचन्द्रार्क नियतमवतामत्र च नृपाः करिष्यन्ते बुध्वा यदभिरुचितं किम्प्रवचनैः। आभिवर्धमानविजयराज्ये( 61) सम्वत् 32 मार्गदिनानि 12॥ For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 238 प्राचीन भारतीय अभिलेख (62)श्रीभोगटस्य पौत्रेण श्रीमत्सुभटसूनुना। श्रीमता तातटेनेदं उत्कीर्णं गुणशालिना। (सम्मुख) 1. ओम् कल्याण हो। वे दशबल (बुद्ध) आपकी रक्षा करे जो वज्रासन (की मुद्रा में आसीन) हैं, कामदेव के विभिन्न प्रलोभनों के विजेता हैं, श्री के समान सर्वज्ञता को प्राप्त, महाकरुणा देवी से परिपालित और समस्त दिशाओं के विजेता हैं। 1 जैसे मनोरम लक्ष्मी 4. का उत्स समुद्र है, जगत् को आनन्दित करने वाली ज्योत्स्ना का उद्भव स्थान चन्द्रमा है; उसी प्रकार नृपों की उत्तम सन्तति का मूल, सारी विद्याओं में निष्णात, दयितविष्णु उत्पन्न हुआ। 2 तब सागर तक फैली पृथ्वी को अपनी महती कीर्ति से अलंकृत करता हुआ शत्रु विनाशक प्रशंसनीय श्रीवप्यट हुआ। 3 मात्स्यन्याय (जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत) को हटाने के लिये प्रकृति ने लक्ष्मी से जिसका पाणिग्रहण करवा दिया। 7. वही उस श्रीवप्यट का पुत्र श्री गोपाल था जो राजाओं के सिर की चूडामणि (सिरमौर) था। आश्चर्य नहीं यदि अमित ज्योत्स्ना रूपी लक्ष्मी की शुभ्रता से (चमकती) पूर्णमा की रात, उसी की सनातन कीर्ति-राशि का अनुकरण कर रही हों। 4 जैसे चन्द्रमा की रोहिणी, प्रतापराशि अग्नि की स्वाहा, 9. शिव की पार्वती, कुबर की भद्रकन्या भद्रा, इन्द्र की पौलोमी (शची), विष्णु, की प्रिय पत्नी लक्ष्मी है उसी 10. प्रकार उस नृप की विनोद पुत्री श्रीदेवदेवी थी।5 उनसे श्री धर्मपाल उत्पन्न हुआ जिसके चरित एवं शौर्य की प्रशंसा की जाती है। 11. सारी पृथ्वी के राज्य का एकछत्र शासक . . . . हुआ वह राजाधिराज था। For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र चारों समुद्रों में स्नान करते गजयूथ की चरण के (चिह्न) मुद्रा से तट अंकित रहे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12. सारी दिशाओं के विजयेछुक जिस नृप की यात्रा नहीं सह पाते। 6 दिग्विजय में प्रवृत्त जिस नृप की लीला से सैन्य के प्रयाण पर 13. उसके वशीभूत हो पृथ्वी चल देती है और चलते पर्वत पक्षी का अनुकरण करने लगते हैं। भार से झुककर डूबते मणि विरहित शिरसमूहों (रूप चक्रायुध) की सहायता के लिये शेष 14. के साथ ही सतत, उसके साथ नीचे धंस गया। 7 239 जिसके प्रस्थानकाल में चलती सेना के दबाव से उड़ती अपार धूल 15. से आवृत आकाश से युक्त भूमि के होने पर, नाग के फणसमूह क्षीण से लगते हैं और इस माहोल में हल्के होते नागराज की मणि भी 16. बड़ी लाघवया सरलता से चमकती है। 8 विरोधी राज्यों के क्षोभ से और्व के समान जिसका जलता क्रोधानल चारों समुद्रों के जल से भी शांत नहीं हुआ। 9 17. पृथु, राम, राघव, नल आदि जो भूमिपाल हुए उन लुप्त नृपों को एकत्र कलियुग में देखने के लिये ही विधाता ने 18. सारे नृपों के मान एवं महिमा के विनाशक तथा चंचल लक्ष्मी रूपी हथिनी को बांधने के लिये धर्मपाल रूपी महास्तम्भ प्रस्तुत किया। 10 21. 19. जिनके मानव-निर्झर की फुहार से श्वेत, विस्तृत, क्षण क्षण में दिखने वाली, सौम्य से पूर्ण दशों दिशाओं को ध्यान लीन हो महेन्द्र भी देखता ही रह गया, जो मान्धाता की सेना से भी बढ़कर थी । 20. युद्ध की इच्छा से पुलकित शरीर वाले सैनिकों से युक्त ऐसी सेना की सहायता की भी सारे शत्रु समूह के विनाशक धर्मपाल की बाहुओं को उनकी सहायता की आवश्यकता नहीं थी । For Private And Personal Use Only प्रशंसा में डोलते सिरों से 'साधु साधु' कहकर भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गन्धार, कीर आदि नृपों ने जिसे झुककर प्रणाम किया। हर्षित होकर पञ्चाल के वृद्ध ने अभिषक का जलपूर्ण स्वर्णकुम्भ उठाकर गिरते जल के साथ भौंह चलाते हुए जिसने कान्य कुब्ज प्रदान कर दिय। 12 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 240 प्राचीन भारतीय अभिलेख 24. पर 23. गोपालों ने सीमा पर, वनचरों ने जंगल में, गांव की चोपालों में लोगों ने, हर चौराहे पर खेलते शिशुओं ने, हर दुकान पर दुकानदारों ने, लीलागृह में पिंजरे में बैठे शुकगणों ने जिसकी स्तुति की। अपनी इस स्तुति को सुनकर उसका मुख 25. सदा लज्जावनत रहता है। 13 उसने गंगा-पथ पर वर्तमान अनेक प्रकार की नौका की लिये लकडी के तख्ने लगाकर बांध में पर्वत-शिखर तथा श्रेणी सा चमकता 26. प्रभूत वर्षाकालीन मेघ-समूह सा अंधेरा करता, दिन लक्ष्मी में ही प्रस्तुत सतत मेघ काल 27. के संदेह से उत्तर देश के अनेक नरपति उपहार देने लगे-अगणित अश्वों की सेना के तीखे खुरों से उड़ी धूल से सारे दिगन्त व्याप्त हो गये। अपने स्वामी की सेवा के लिये आगत सारे जम्बूद्वीप के नृपों के अनंत पैदल सैनिकों के भार से भूमि दबने लगी। ऐसे पाटलिपुत्र में पड़ाव डाले श्री जयस्कन्धावार (छावनी) से परम बौद्ध महाराजाधिराज गोपालदेव के चरणानुवर्ती परमेश्वर वर परमभट्टारक महाराजाधिराज श्रीमान् धर्मपालदेव कुशलतापूर्वक श्री पुण्ड्रवर्धन भुक्ति (प्रान्त) 31. के व्याघ्रतटी मण्डल (क्षेत्र) से सम्बद्ध महन्ताप्रताश विषय (जिले) में क्रौञ्जश्वभ्र नामक गांव, जिसकी सीमा (इस प्रकार है)पश्चिम में गांगिनिका, उत्तर में कादम्बरी देवमन्दरी और खजूर का वृक्ष, पूर्वोत्तर में राजपुत्र देवट कृतालि 33. बीजपूरक तक चली जाती है। पूर्व में विटकालि खाटकयानिका तक चली जाती है। जम्बूयानिका को पार कर जम्बूयानक तक चली गयी। _ (अपर भाग) 34. वहां से निकलकर पुण्याराम (पवित्र उद्यान) विल्लार्ध स्रोतिका तक और वहां से चलकर 35. नलचर्मट के उत्तरी छोर तक चली गयी, नलचर्मट से दक्षिण में हेसदुम्मिका से नामुण्डिका भी। For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र 241 36. खण्डमुण्डमुख तक। खण्डमुण्डमुख से वेदसविल्विका, वेदबील्विका से रोहितवाटि, पिण्डारविटिजोटिका सीमा कही गयी। 37. रजोट के दक्षिण एवं ग्राम बिल्व के दक्षिण के मध्या देविका सीमा विटि। धर्मायोजोटिका। इस प्रकार माढाशाम्मली गांव है। 38. इसके उत्तर में गंगिनिका सीमा बनाती हैं और पूर्व से अर्धम्रोतिका से लगाकर आम्रयान को लर्धयानिका तक चली गयी। वहां से39. दक्षिण में कालिका श्वभ्र तक। यहां से निकलकर श्रीफलभिषुक से पश्चिम और वहां से भी बिल्वङ्गअर्धस्रोतिका 40. से गंगिनिका तक चली जाती है। पालितक में सीमा दक्षिण से काणद्वीपिका, पूर्व से कोठिया झरना, उत्तर से 41. गंगिनिका तथा पश्चिम से जेनन्दायिका है। यह गांव समारीण (पार का) कर्म द्वीप है। स्थालीकट विषय से 42. सम्बद्ध आम्रपण्डिका मण्डल में गिरने वाला गोपिप्पली ग्राम की सीमा (इस प्रकार है-पूर्व में उद्ग्राम मण्डल की सीमा पश्चिम तक है, दक्षिण में 43. जोलक, पश्चिम में वेसानिका नाम की खाटिका (अर्थी), उत्तर में उद्रग्राम पथ), इन चारों ग्रामों में आये हुए सारे राजा, अधीनस्थ राज्य, राजकुमार, राजकीय मन्त्री, सेनापति, विषयपति, भोगपति, षष्ठाधिकृत (छठा राजअंश उगाहने वाला अधिकारी) 45. दण्डशक्ति (दण्ड देने वाला अधिकारी) दाण्डपाशिक, चौरोद्धरणिक (चौरों से रक्षा करने वाला), दै साधसाधनिक (डाकू पकड़ने वाला), दूत खोल गामागामिक, दौड़ते हुए हाथी, घोड़े, गो, भैंस, बकरी भेड़ सद्यः व्यायी गोदुग्ध का अधिकारी, नौकाध्यक्ष, बलाध्यक्ष, तरिक शौल्किक (नाव की चूंगी लेने वाला), गौल्मिक (सेना की टुकड़ी का सिपाही); इन स्थानों पर नियुक्त तथा नियोक्ता आदि राजकीय पदों से जीविका चलाने वाले और भी दूसरे जिनका 47. उल्लेख नहीं हो सका ऐसे चाट (अस्थायी सैनिक), भट (स्थायी सैनिक) आदि वर्ग के लोग एवं कालाध्यासी (समय सूचक घंटा बजाने वाले), For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 242 प्राचीन भारतीय अभिलेख ज्येष्ठ कायस्थ, महामहत्तर (महाप्रतिहार या गांव का मुखिया), दाशग्रामिक (मछुओं के गांव का मुखिया) आदि राज्य के अधिकारी 48. अपने अनुचरों सहित और पड़ौसी खेतों के स्वामी को ब्राह्मण के सम्मान उतथा मानव जीवन समझकर, पूर्वोक्त उदाहृत बातें समझकर कि महासामन्ताधिमति श्रीनारायणवर्मा के दूतक युवराज श्रीत्रिभुवनपाल के मुख से हमें ऐसी आज्ञा प्राप्त हुई है कि50. हमने माता, पिता तथा अपने पुण्य की अभिवृद्धि के लिये शुभस्थल पर मंदिर बनवाया और वहां स्थापित भगवान् नारायण की पूजा-अर्चना आदि की पूर्ति के लिये नाराणभट्टारक को 51 उसके संरक्षक लाट देश के ब्राह्मणदेव के चरणों में ये चार यहां के दट्टिका तल पाटक 52 सहित देते हैं। सो हमने उस विज्ञप्ति के अनुसार ये उपर्युक्त चारों ग्राम तल पाटक हट्टिका सहित अपनी सीमा पर्यन्त अपने क्षेत्र सहित, उसी दशा व दोष सहित, वसूली से मुक्त, सारे कष्टों से मुक्त, सारे अधिकारों सहित, चन्द्र-सूर्य-पृथ्वी की उम्र पर्यन्त वैसे ही बने रहें। सो आप सभी भूमिदान के महान् गौरव से उसके अपहरण में महानरक में गिरने के भय से इस दान का अनुमोदन कर 55. पालन करें। पडौसी क्षेत्र के स्वामी भी इस आज्ञा को सुनकर यथोचित कर, पिण्डक (अन्नांश) आदि सारे देय इनके पास ही ले जावे56. सगर आदि अनेक नृपों ने भूमिदान किया। जब जब जिसकी भूमि रही तब तब उसे ही फल मिला। भूमिदाता साठ हजार वर्ष तक स्वर्ग में आनन्द भोगता है। 57. उस दान को छीनने अथवा अनुमोदन करने वाला इतने ही वर्ष नरक में बसता है। स्वयं अथवा अन्य के द्वारा दान में दी गयी भूमि का जो अपहरण करता है वह अपने पितरों सहित मल का कीड़ा बनकर 58. परेशान होता (पचता) रहता है। 53 54. For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मपालदेव का खालिमपुर ताम्रपत्र 243 इस प्रकार कपल पत्र पी स्थित जल बिन्दु सी चञ्चल लक्ष्मी तथा मानव जीवन समझकर, पूर्वोक्त उदाहृत बातें समझकर 59. लोगों को चाहिए कि वे परकीर्ति को लुप्त न करें। लक्ष्मी बिजली सी है और शरीर भी दीपक की अग्नि के समान। संसार में केवल दुःख है, अतः अन्यों की कृति तथा कीर्ति को विनष्ट (न) करें। 60. चन्द्रमा तथा सूर्य के समान स्थिर यश की नृपगण रक्षा करें। ये लोग समझकर यथारुचि करेंगे, अधिक कहने से क्या? उन्नतिशील विजयी राज्य में 61. संवत् 32 मार्गशीर्ष के 12 दिन होने पर 62. श्रीभोगभट के पौत्र, श्रीमान् सुभट के पुत्र गुणशाली श्रीमान् तातट ने इस (ताम्रलेख) को उत्कीर्ण किया। For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति सागरताल-ग्वालियर-(म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-उत्तर भारतीय ब्राह्मी, 880 ई० के लगभग ॐ नमो विष्णवे। शेषाहितल्पधवलाधरभागभासि - वक्षःस्थलोल्लसितकौस्तुभकान्तिशोणम्। श्यामं वपुः शशिविरोचनबिम्बचुम्बि - व्योमप्रकाशभवतान्नरकद्विषो वः॥ आत्मारामफलादुपार्घ्य विजरं दैवेन दैत्यद्विषा ज्योति/जमकृत्रिमे गुणवति क्षेत्रे यदुप्तं पुरा। श्रेयः कन्दवपुस्ततः समभवद्भास्वानतश्चापरै मन्विक्ष्वाकुककुत्स्थमूलपृथवः मापालकल्पद्रुमाः।। तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहितपदे धाम्नि वज्रेषु घोरम् रामः पौलस्त्यहिंस्त्रं क्षतविहतिसमित्कर्म चक्रे पलाशैः। श्लाघ्यस्तस्यानुजोऽसौ मघवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये सौमित्रिस्तीव्रदण्डः प्रतिहरणविधे यः प्रतीहार आसीत्।॥ तद्वंशे प्रतिहारकेतनभृति त्रैलोक्यरक्षास्पदे देवो नागभटः पुरातनमुनेर्मूर्तिर्बभूवाद्भुतम्। येनासौ सुकृतप्रमाथिबलवम्लेच्छाधिपाक्षौहिणी: क्षुन्दानः स्फुरदुग्रहेतिरुचिरैर्दोभिश्चतुर्भिर्बभौ।। 1. ए०इ० 18, पृ. 99-114 244 For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति भ्रातुस्तस्यात्मजोभूत्कलितकुलयशाः ख्यातकाकुत्स्थनामा लोके गीतः प्रतीकप्रियवचनतया कक्कुकः क्ष्माभृदीशः । श्रीमानस्यानुजन्मा कुलिशधरधुरामुद्वहन् देवराजो यज्ञो च्छिन्नोरुपक्षक्षपितगतिकुलं भूभृतां सन्नियन्ता ॥5॥ तत्सूनुः प्राप्य राज्यं निजमुदयगिरिस्पर्धिभास्वत्प्रतापः क्ष्मापालः प्रादुरासीन्नतसकलजगद्वत्सलो वत्सराजः । यस्यैताः संपदश्च द्विरदमदसुरास्वादसान्द्रप्रमोदाः पद्माश्रीराक्षिपन्त्यः प्रणयिजनपरिष्वङ्गकान्ता विरेजुः ॥16॥ ख्याताद्भण्डिकुलान्मदोकटकरिप्राकारदुर्लङ्घतो यः साम्राज्यमधिज्यकार्मुकसखा संख्ये हठादग्रहीत् । एक: क्षत्रियपुंगवेषु च यशोगुर्वी धुरं प्रोद्वहन्न् इष्वाकोः कुलमुन्नतं सुचरितैश्चक्रे स्वनामांकितम् ॥7॥ आद्यः पुमान्पुनरपि स्फुटकीर्तिरस्माज्जातः स एव किल नागभटस्तदाख्यः । यत्रान्सैन्धवविदर्भकलिङ्गभूपैः कौमारधामनि पतङ्गसमैरपाति ॥8॥ त्रय्यास्पदस्य सुकृतस्य समृद्धिमिच्छुर्यः क्षत्रधामविधिबद्धबलिप्रबन्धः । जित्वा पराश्रयकृतस्फुटनीचभावं चक्रायुधं विनयम्रवपुर्व्वराजत् ॥७॥ दुर्वारवैरिवरवारणवाजिवार यानौघसंघटनघोरघनान्धकारम् । निर्जित्य वङ्गपतिमाविरभूद्द्विवस्वान् उद्यन्निव त्रिजगदेकविकासको यः ॥10॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आनर्तमालवकिरातुरुष्कवत्समत्स्यादिराजगिरिदुर्गहठापहारै: । यस्यात्मवैभवमतीन्द्रियमाकुमारमाविर्बभूव भुवि विश्वजनीनवृत्तैः ॥11 ॥ For Private And Personal Use Only 245 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 246 प्राचीन भारतीय अभिलेख तज्जन्मा रामनामा प्रवरहरिबलन्यस्तभूभ्रत्प्रबन्धैरावनवाहिनीनां प्रसभमधिपतीन्नुद्धृतक्रूरसत्त्वान्। पापाचारान्तरायप्रथमनरुचिरः सड्गतः कीर्तिदारैस्त्रेता धर्मस्य तैस्तैः समुचितचरितैः पूर्वव्वन्निर्बभासे॥2॥ अनन्यसाधनाधीनप्रतापक्रान्तिदिङ्मुखः। उपायैः सम्पदां स्वामी यः सव्रीडमुपास्यत॥3॥ अर्थिभिर्विनियुक्तानां सम्पदां जन्म केवलम्। यस्याभूत् कृतिनः प्रीत्यैः नात्मेच्छाविनियोगतः॥4॥ जगद्वितृष्णुः स विशुद्धसत्त्वः प्रजापतित्वं विनियोक्तुकामः सुतं रहस्यव्रतसुप्रसन्नात् सूर्यादवापन्मिहिराभिधानम्।।15॥ उपरोधैकसंरुद्धविन्ध्यवृद्धेरगस्त्यतः आक्रम्य भूभृतान्भोक्ता यः प्रभुर्भोज इत्यभात्॥16॥ यशस्वी शान्तात्मा जगदहितविच्छेदनिपुण परिष्वक्तो लक्ष्म्या न च मदकलङ्कन कलितः। बभूव प्रेमार्दो गुणिषु विषयः सूनृतगिराम्। असौ रामो वाग्रे स्वकृतिगणनायमिह विधेः॥17॥ यस्याभूत्कुलभूमिभृत्प्रमथनव्यस्तान्यसैन्याम्बुधेयूढां च स्फुटितारिलाजनिवहान् हुत्वा प्रतापानले। गुप्ता वृद्धगुणैरन्यगतिभिः शान्तैः सुधोद्भासिभिधर्मापत्ययशः प्रभूतिरपरा लक्ष्मीः पुनर्भूनया॥8॥ प्रीतैः पालनया तपोधनकुलैः स्नेहाद्गुरूणां गणैभक्त्या भृत्यजनेन नीतिनिपुणैर्वृन्दैररीणां पुनः। विश्वेनापि यदीयमायुरमितं कर्तृ स्वजीवैषिणा तन्निना विदधे विधातरि यथा संपत् परार्ध्याश्रये॥9॥ अवितथमिदं यावद्विश्वं श्रुतेरनुशासनात् भवति फलभाक् कर्ता नेशः क्षितीन्द्रशतेष्वपि। अघरितकलेः कीर्तेर्भर्तुः शतं सुकृतैरभूत - विधुरितधियां सम्पवृद्धिर्यदस्य तदद्भुतम्॥20॥ For Private And Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति यस्य वैरिबृहद्वंशान्दहतः कोपवह्निना । प्रतापादर्णसां राशीन्यातुवैतुष्ण्यमावभौ ॥21॥ कुमार इव विद्यानां वृन्देनाद्भुतकर्मणा । यः शशासासुरान्घोरान् स्त्रणेनास्त्रैकवृत्तिना । 22 । यस्याक्षपटले राज्ञः प्रभुत्वाद्विश्वसंपदः । लिलेख मुखमालोक्य प्रातिलेख्यकरो विधिः ॥23॥ उद्दामतेजः प्रसरप्रसृता शिखेव कीर्तिर्द्युमणिं विजित्य । जाया जगद्भर्तुरियाय यस्य चित्रं त्विदं यज्जलधींस्ततार ॥24॥ राज्ञा तेन स्वदेवीनां यशः पुण्याभिवृद्धये । अन्तःपुरपुरं नाम्ना व्यधायि नरकद्विषः ॥25॥ 1. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. यावन्नभः सुरसरित्प्रसरोत्तरीय यावत्सुदुश्चरतपः प्रभवः प्रभावः । सत्यं च यावदुपरिष्ठभवत्यशेषं तावत्पुनातु जगतीमियमार्यकीर्तिः 126 1 पातुर्विश्वस्य सम्यक् परममुनिमत श्रेयसः संविधानात् अन्तर्वर्त्तिर्विवेकः स्थित इव पुरवो भोजदेवस्य राज्ञः । विद्वद्वृन्दार्जितानां फलमिव तपसां भट्टधन्नेकसूनुरर्बालादित्यः प्रशस्तेः कविरिह जगतां साकमाकल्पवृत्तैः ॥27॥ ओम | विष्णु को प्रणाम्। 247 शेषनाग के बिछौने के निचले श्वेत भाग पर सुशोभित, वक्षःस्थल पर उल्लखित कौस्तुभ मणि की रक्तिम शोभा से चन्द्रमा तथा सूर्य से आकाश को प्रकाशित करने से सूर्य तथा चन्द्रमा के बिम्ब की समानता वाला नरकासुर के शत्रु (विष्णु) का श्याम शरीर आपकी रक्षा करे। 1 असुरों के शत्रु देव ने आत्मा रूपी उद्यान के फल से उपलब्ध पहले नैसर्गिक गुणवान् क्षेत्र में ज्योति का जो स्वस्थ बीज बोया था। For Private And Personal Use Only उस सूर्य से श्रेष्ठ कन्द रूप तेजस्वी शरीर उत्पन्न हुआ और (उससे) मनु, इक्ष्वाकु, ककुस्थ, मूल पृथु आदि कल्पवृक्ष के समान नृप हुए। 2 उनके वंश में रावण के हन्ता सुजन्मा राम हुए, जो प्रताप तथा वज्र से भी कठोर एवं यज्ञ कर्म के विनाशक राक्षसों के हन्ता थे। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 248 3. 4. 6. 7. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख यह उसी का प्रशंसनीय अनुज (लक्ष्मण) है जो इन्द्र के अहंकार के विनाशक मेघनाद को कठोर (मृत्यु) दण्ड देने वाले तथा देखरेख करने के कारण राम के प्रतीहार थे। 3 तीनों लोक की रक्षा में निरत जो प्राचीन मुनियों के अद्भुत शरीर के मूर्तिरूप थे। जो सत्कर्मों के विनाशक म्लेच्छ नृप की अक्षौहिणी सेना को, चमकते हुए मनोरम व तीखे तीरों से शोभित चार भुजाओं से विनष्ट करता हुआ शोभित हुआ। 4 शोभन कुल का यशोरूप काकुत्स्थ नामक उसके भाई का पुत्र हुआ। वह राजाधिराज व्यंग्य (प्रतीक) तथा प्रियवाणी व्यवहार करने से जगत् में कक्कुक के नाम से प्रख्यात हुआ । उसका अनुज देवराज हुआ जो सघन राज्य की धुरा वहन करने से वज्रधारी इन्द्र के समान था । जिसने यज्ञ के विशाल पक्ष (पंखों) को काटकर गतिहीन बनाकर भूभृत (पर्वत अथवा नृप) समूह को अपने नियंत्रण में कर लिया। 5 उसका पुत्र राजा वत्सराज उत्पन्न हुआ। जो उदयाचल में चमकते सूर्य सा प्रतापशाली था । तथा जिसने राज्य प्राप्त कर सारे जगत् को झुकाकर उसका प्रेमपात्र हो गया। जिसकी गज के मद की सुरा आस्वादन से अत्यंत प्रफुल्लित सम्पदा आंख झपकाती (पक्ष के नृपों पर दृष्टिपात करती), स्नेहियों के द्वारा आलिंगित कान्ता सी शोभित है। 6 प्रख्यात भण्डिकुल के मदमत्त हाथियों के दुर्लंघ्य वप्र से जिस प्रत्यञ्चा चढ़े धनुष के मित्र ने युद्ध में बलपूर्वक साम्राज्य ले लिया । श्रेष्ठ क्षत्रियों में उस अकेले ने यश के भारी धुरे को वहन करते हुए सुचरित से अपने नाम से अंकित कर इक्ष्वाकु कुल को उन्नत कर दिया। 7. प्रख्यात कीर्ति वाला आदि पुरुष पुनः इससे उसी नागभट से उत्पन्न हुआ। जिसके For Private And Personal Use Only कुमार पद रूप प्रकाश पर ही सिन्धु, विदर्भ, कलिंग आदि के नृप पतंगों के समान आ गिरे और उन्होंने अपना अस्तित्व मिटा दिया। 8 उस वेदज्ञ, सत्कर्मकर्ता, समृद्धि के इच्छुक ने, क्षत्रिय के तेज की युक्ति के Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति 249 विज्ञ ने बलवानों को बांधकर निस्पंद कर दिया। (क्षत्रियों के लिए समुचित प्रणाली पर जिसने 'बलिप्रबन्ध' रचा। शत्रुओं का आश्रय लेकर स्पष्ट ही नीच भाव से सम्पन्न चक्रायुध को जीतकर जो अपने विनय नम्र शरीर से शोभित हुआ। 9 शक्तिशाली शत्रु के श्रेष्ठ हाथी, घोड़ों तथा यानों के समूह के एकत्र __ होने से घनघोर अंधकार छा गया। उस बंगदेश के स्वामी को जीतकर वह उदित होते सूर्य सा तीनों लोकों को विकसित करने वाला हुआ। 10 आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स, मत्स्य आदि राजाओं के पर्वत दुर्गों का जिसने बलपूर्वक अपहरण से, जिस सर्व हित कर वृत्ति वाले का कुमार काल से ही सुलभ अतीन्द्रिय आत्मवैभव पृथ्वी पर प्रकट हो गया। 11 उसके पुत्र का नाम रामभद्र था। 9. सेना के श्रेष्ठ अश्वबल से नृपों को घेरकर बलपूर्वक उद्धत तथा क्रूरवृत्ति के नृपों को बन्दी बनाते हुए पापाचार रूपी बाधा के विनाश में लीन, कीर्ति रूपी पत्रियों का साथी, तथा धर्म का संरक्षक, अपने विभिन्न समुचित चरित्रों से वह (अपने पूर्वज के समान) शोभित हुआ। 12 अद्वितीय साधन सम्पन्न उसका प्रताप दिशाओं तक पहुंच गया। 10. चारों उपायों से उस स्वामी ने सम्पदाओं का सलज्ज उपभोग किया। 13 अर्थी जनों के लिये विहित सम्पदाओं का जन्म उस कृती की प्रीति के लिये हुआ, अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये नहीं। 14 जागतिक इच्छाओं से मुक्त, विशुद्ध मन से युक्त, प्रजापतित्वको सम्पन्न करने की इच्छा वाले उस नृप ने रहस्यमय व्रत से प्रसन्न हुए सूर्य (की कृपा) से मिहिर नामक पुत्र प्राप्त किया। 15 अगस्त्य के द्वारा बाधा डालकर रोकी हुई विन्ध्य की वृद्धि को (आक्रमण से) पार कर भूभृत् (पर्वत अथवा नृप) का भोक्ता होने से वह राजा भोज भी कहलाया। 16 वह यशस्वी, संतोषी, जगत् के अहित के विनाश में चतुर, राजलक्ष्मी के द्वारा आलिंगित है परन्तु मद के कलंक से अछूता है। गुणवान् जनों की सत्यवाणी से प्रशंसा पा कर वह प्रेमपूर्ण हो गया। For Private And Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 250 प्राचीन भारतीय अभिलेख 12. अथवा अपनी सुकृति की गणनाविधि से यह अन्य राम था। 17 जिस कुलभूमि के शासक के विनाश में लीन शत्रु सैन्य रूपी सागर मंथन से परिवृद्ध तथा प्रकट शत्रु रूपी लाजा समूह को अपने प्रतापानल में होम दिया। सुधा सी शोभन् परिवृद्ध अद्वितीय गति से एवं प्रशांत प्रवृद्ध गुणों से धर्म के सन्तति के यश की अपर उद्गम लक्ष्मी 13. नीति से इसकी पुनर्भू (पुनर्विवाहित) हो गयी। जिसकी पालनविधि से प्रसन्न तापसवृन्द ने, गुरुजनों ने स्नेह से, सेवकों ने भक्ति से और नीति में विदग्ध शत्रु समूह ने-अपने जीवन की इच्छा वाले सभी ने जिसकी आयु असीम करने के लिये स्वयं को उसके अधीन कर दिया, अपनी कोष सेवा समर्पित कर दी। क्योंकि वह विधाता के समान उसका पात्र था। 19 यह सत्य है कि जब तक विश्व वेद 14. के अनुशासन से फलदाता होता है, सैकड़ों नृपों के लिय असाध्य कार्यों का यह फलभोक्ता रहा। कलियुग से अछूता, कीर्ति का स्वामी सज्जनों के सत्कर्म से ही हुआ। इसकी लक्ष्मी की अभिवृद्धि अद्भुत ही है। 20 शत्रुओं के विशाल वंश रूपी (बांस) को कोपानल से जलाते हुए जिसके प्रताप से जलराशि (समुद्र) को पीने वाले (बादल) भी अब अधिक प्यासे लगने लगे। 21 बचपन से ही विविध विद्या 15. एवं अद्भत कर्म से कुमार (कार्तिकेय) ने अपनी अस्त्र वृत्ति से प्रबल असुरों को भी परास्त कर दिया। 22 सारी सम्पदा से युक्त जिस नृप के प्रभुत्व से (आकृष्ट होकर) अक्षपटल विधाता ने (उसका) मुख देखकर ही सारी सम्पदा उसके नाम (रेकार्ड) में लिख दी। 23 उस तेजस्वी की अबाध बढ़ती शिखा सी कीर्ति सूर्य को जीतकर जगत् के स्वामी की पत्नी रूप में 16. जिसके चित्त में पहुंच गयी और जिसने सागर पार कर लिया लिया। 24 रानियों की यश वृत्ति के लिये उस राजा ने नरकद्विष (विष्णु) का For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति 251 17. अन्तःपुरपुर नामक मंदिर बनवाया।25. जब तक आकाश गंगा का उत्तरीय (दुपट्टा) फैला है. जब तक कठिन तप करने वाले तपस्वियों का प्रभाव है, जब तक पूर्ण फल सर्वोपरि होकर पालन करता है तब तक इसकी यह श्रेष्ठ कीर्ति जगत् को पवित्र करती रहे। 26 विश्व के पालक, श्रेष्ठ मुनियों में प्रतिष्ठाप्राप्त राजा भोजदेव के समक्ष विवेक अन्तर्वृत्ति (निगूढ) सा स्थित है। विद्वज्जनों के द्वारा अर्जित तप के फल के समान राजा भोजदेव से भी आगे अद्वितीय पुत्र बालादित्य इस प्रशस्ति का कवि है। यह प्रशस्ति जगत् के साथ प्रलय पर्यन्त रहे। 27 For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख खजुराहो-छतरपुर (म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-कुटिल देवनागरी, वि०सं० 1011 (954 ई०) ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। दधानानेकां यः किरिपुरुषसिंहोभयभजुषं तदाकारोच्छेद्यां तनुमसुरमुखयानजवरात्। जघान त्रीनुग्रां जगति कपिलादीनवतु वः स वैकुण्ठः कण्ठध्वनिचकितानिःशेषभुवनः।।। पायासुर्बलिवंचनव्यतिकरे देवस्य विक्रान्तयः सद्योविस्मितदेवदानुतास्तिस्त्रस्त्रिलोकी हरेः॥ यासु ब्रह्मवितीर्णमर्घसलिलं पादारविन्दच्युतं धत्तेऽद्यापि जगत्त्रयैकजनकः पुण्यं स मूर्ना हरः।। देवः पातु स वः पयःकणभृति व्योम्नीव ताराचिते दैत्यासिव्रणलांछने दिविषदः सन्त्यज्य सर्वानपि। तस्मिन्नंजनशैलभित्तिविपुले वक्षःस्थले यस्य ताः पेतुर्मन्दरसङ्गविभ्रमवलल्लक्ष्मीकटाच्छटाः॥ गम्भीराम्बुधयः शशाङ्करुचिमान्भास्वत्प्रतापोज्वलो धीरो धात्रि महान्महीधरवराः कल्पगुमास्त्यागवान्। आ कल्पादविकल्पनिर्मलगुणग्रामाभिरामः प्रभुः सत्यं ब्रूत यदि क्वचित्पुनरभूत्तुल्यो यशोवर्मणः।। 1. ए०इ० 1, पृ. 123-32 252 For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 253 प्रधानादव्यक्तादभवदविकारादिह महानहंकारस्तस्मादजनि जनितोपग्रहगणः। ततस्तन्मात्राणि प्रसवमलभन्त क्रमवशादथैतेभ्योभूतान्यनुभुवनमेभ्यः प्रववृते॥5॥ इहाद्यो विद्यानां कविरखिलकल्पव्युपरतौ परः साक्षी देवस्त्रिभुवनविनिर्माणनिपुणः। स विश्वेषामीशः स्मितकमलकिंजल्कवसतिमहिम्ना स्वेनैव प्रथममथ वेधाः प्रभुरभूत्।।6। तस्माद्विश्वसृजः पुराणपुरुषादाम्नायधाम्नः कवेयेऽभूवन्मुनयः पवित्रचरिताः पूर्वे मरीच्यादयः। तत्रात्रिः सुषुवे निरन्तरतपस्तीव्रप्रतापं सुतं चन्द्रात्रेयमकृत्रिमोज्ज्वलतरज्ञानप्रदीपं मुनिम्॥7॥ अस्ति स्वास्तिविधायिनः स जगतां निःशेषविद्याविदस्तस्यात्मोपनताखिलश्रुतिनिधेर्वंशप्रशंसास्पदम्। यत्राभून्न पराक्रमेण लघुता नो चाटुकारोद्धति र्नाल्पाप्यन्तरसारता न च फलप्राप्तिः क्षयायात्मनः॥8॥ त्रस्तत्राणप्रगुणमनसां सर्वसंपत्पदानामुधुक्तानां कृतकृतयुगाचारपुण्यस्थितीनाम्। तत्रत्यानाममलयशसां भूभुजां का प्रशंसा येषां शक्तिः सकलधरणीध्वंसने पालने वा॥७॥ तत्र क्षत्रसुवर्णसारिनिकषग्रावायशश्चन्दनक्रीडालंकृतदिवःपुरन्ध्रिवदनः श्रीनन्नुकोऽभूनृपः। यस्यापूर्वपराक्रमक्रममान्निःशेष विद्वेषिणः - संभ्रान्ताः शिरसा वहन्नृपतयः शेषामिवाज्ञां भयात्॥10॥ यस्यानन्दितबन्दिवृन्दरचितस्तोत्रक्रियाप्रक्रमासंक्रान्तं बहुवैरिवर्गजयिनः कन्दर्पकल्पाकृतेः। नाम क्षामतनूभृतां मृगदृशां सद्यो विधत्ते पदं स्वान्तेषु द्विषतां च राशिषु बलाद्वैक्लव्यमव्याहतम्।।1।। For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 254 प्राचीन भारतीय अभिलेख तस्मादभूदाजिपराजितारेः श्रीवाक्पतिर्वाक्पतितुल्यवाचः। यस्यामला भ्राम्यति भानुभाभिः सहैव लोकत्रितयेऽपि कीर्तिः॥2॥ यस्यामलोत्पलनिषण्णकिरातयोषिद् उद्गीततद्गुणकलध्वनिरम्यसानुः। क्रीडागिरिः शिखरनिर्झरवारिपातझात्कारताण्डवितकेकिगणः स विन्ध्यः ।।13॥ तस्माद्विस्मयधाम्नः क्षीरोब्धेश्चन्द्रकौस्तुभौ यद्वत्। द्वावात्मजावभूता जयशक्तिर्विजयशक्तिश्च॥14॥ तयोर्द्वयोरप्यमितप्रतापदावाग्निदग्धाऽहितकाननानि। कर्माणि रोमांचजुषः समेताः समूर्धकम्पं क्षितिपाः स्तुवन्ति॥5॥ तत्रानुजन्मा तनय राहिलाख्यमजीजनत्। निद्रादरिद्रतां यान्ति तं विचिन्त्य निशि द्विषः॥16॥ भीमभ्राम्यदसिस्त्रुचिस्रवदसृक्संपादिताज्यक्रिये ज्यानिर्घोषवषट्पदे क्रमचरत्संरब्धयोधत्विजि। अश्रान्तः समराध्वरे प्रतिहतक्रोधानलोददीपिते। वैरादर्चिषि यः पशूनिव कृती मन्त्रैर्जुहाव द्विषः॥7॥ श्रीहर्षभूपमथ भूमिभृतां वरिष्ठः सोऽसूत कल्पतरुकल्पमनल्पसत्वः। अद्यापि यस्य सुविकासियशः प्रसूनगन्धाधिवाससुरभीणि दिगन्तराणि॥8॥ यत्र श्रीश्च सरस्वती च सहित नीतिक्रमो विक्रमस्तेजः सत्त्वगुणोज्ज्वलं परिणता क्षान्तिश्च नैसर्गिकी। संतोषो विजिगीषुता च विनयो मानश्च पुण्यात्मनस्तस्यानन्तगुणस्य विस्मयनिधेः किं नाम वस्तु स्तुमः।।19॥ भीरुर्धर्मापराधे मधुरिपुचरणाराधने यः सतृष्णः पापालापेऽनभिज्ञो निजगुणगणनाप्रक्रमेष्वप्रगल्भः। शून्यः पैशून्यवादेऽनृतवचनसमुच्चारणे जातिमूकः सर्वत्रैवं स्वभावप्रथितगुणतया नाम कः स्तूयतेऽसौ।०॥ सोऽनुरूपां सुरूपाङ्गकंबुकारख्यामकुण्ठधीः। सवर्णां विधिनोवाह चाहमानकुलोद्भवाम्।1।। For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 255 यस्याः पतिव्रततुलामधिरोदुमीशा नारुन्धती गुरुतरामभिमानिनीति। पत्युः समीहितविधानपरापि साध्वी कायें तथा परमगादतिलज्जितेव।2।। गौडक्रीडालतासिस्तुलितखसबलः कोशल: कोशलानां नश्यत्काश्मीरवीरशिथिलितमिथिलकालवन्मालवानाम्। सीदत्सावधचेदिः कुरुतरुषु मरुत् संचरो गूर्जराणां तस्मात्तस्यां स जज्ञे नृपकुलतिलकः श्रीयशोवर्मराजः।।3।। स दाता राधेयः स च शूचिवचाः पाण्डुतनय : स शूरः पार्थोऽपि प्रथितमहिमानः किमपि ते। व्यतीताः किं बुमो यदि पुनरिह स्युः स्वचरिते ह्रिया नम्रीकुर्युवेदनमवलोक्यैनमधुना॥24॥ त्रस्तत्रातारि तत्र भूभृति नृणां क्लेशायशस्त्रग्रहः कामं दातरि सिद्धकेलिसुमनस्तल्पाय कल्पद्रुमाः। वित्तेशः परमार्थवृद्धिविधुरस्वान्तो विलासी स चेदास्ये तस्य सतीन्दुरुत्पलवनप्रीत्यै दृशामुत्सवे॥25॥ यस्योद्योगे बलानां प्रसरति रजसि व्याप्तरोदोऽन्तराले स्वः सिन्धुर्बद्धरोधाः पिहितरुचिरभूद्भानुरादर्शरम्यः। सम्यग्देवेन्द्रदन्ती मुदमधित वियत्साभ्रमालोच्य हंसाः सोत्कण्ठास्तस्थुरासीन्नयनदशशती कूणिता वृत्रशत्रोः।।6।। अन्योन्याबद्धकोपद्विपकलहमिलद्दन्तदण्डाभिघात प्रोद्यज्ज्वालाकलापप्रसृतहुतभुजि ज्याघनध्वानभीमे। पीतासृक्क्षीबरक्षः प्रमदकलकलह्वादरौद्रप्रहासे धीरं भीतेव लक्ष्मीः समरशिरसि संभ्रमादालिलिङ्ग।27॥ उत्तूांजनशैलसंनिभचलन्मत्तद्विपेन्द्रस्थितक्रुध्यदुर्धरधन्विमार्गणगणप्रारब्धरक्षाक्रियम्। विख्यातक्षितिपालमौलिरचनाविन्यस्तपादाम्बुजं संख्येऽसंख्यबलं व्यजेष्ट गतभीर्यश्चेदिराजं हठात्।।8।। For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 256 www. kobatirth.org लक्ष्मच्छायाकलुषवपुषः कान्तिमद्दूरमिन्दोरन्यायत्तस्फुरितविधुरात्सुंदरं चारविन्दात् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संभ्रांताभिः कथमपि मुखं वीक्ष्य वैरिप्रियाभिः ॥ 29 ॥ गङ्गानिर्झरघर्घरध्वनिभयभ्राम्यत्तुरङ्गव्रजाः सद्यः सुप्तविबुद्धकेसरिरवत्रस्यत्करीन्द्राकुलाः । यत्सैन्यैः प्रतिकल्पपादपमुमालूनप्रसूनोच्चयाः प्रालेयाचलमेखलाः कथमपि क्रान्ताः शनैर्दिग्जये ॥30॥ -- उच्चप्राकारभित्तिस्थितसमदशिखि - श्लथरथतुरगप्राप्तवेगान्तरायः । यस्मिन्मध्यं दिने स्यात्तरणिरनुदिनं नीलकण्ठाधिवासं जग्राह क्रीडया यस्तिलकमिव भुवः किंच कालंजराद्रिम् ॥31॥ आशस्त्रग्रहणादखण्डितमहावीरव्रतप्रक्रियै राबाल्यादविलुप्तसत्यसमयैरापाणिपीडाविधेः। अश्रान्तार्थिर्वितीर्णपूर्णविभवैस्त - प्सिताकांक्षिभि: - पुलकैर्य साधुभिः स्तूयते । 1321 निन्दामुपैमि पुरुषान्तरसंगमेन शान्तिं न जातु सततभ्रमणक्रमेण । यस्यातिपौरुषनिरस्तमनुष्यभावे लोके समुद्रगतकीर्तिरनिन्दितैव ॥33॥ - प्राचीन भारतीय अभिलेख एकैववाह लोकेऽस्मिन्पुत्रजन्मोन्नतं शिरः । कंछुका येन धीरेण देवकीव मधुद्विषा ॥34॥ शौर्योदार्यनयादिनिर्मलगुणग्रामाभिरामं यशो ( ? ) यस्याशेषविशुद्धनाथतिलकं गायन्ति सिद्धस्त्रियः । तस्य स्तोत्रममित्रमर्दनरवेः स्पष्टप्रकाशीकृतत्रैलोक्यस्य सहस्रसंख्यमहसो दीपप्रदानोपमम् ॥35॥ क्रोधोद्वतान्तकूभ्रूकुटिलपटुरणच्चण्डोर्दण्डयष्टिज्याघातस्फारघोरध्वनिचकितमनः संभ्रमभ्रान्तदृक्षुः । For Private And Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 257 धंगदेव का खजुराहो अभिलेख स्पष्टं नष्टेषु दूरं क्वचिदपि रिपुषु क्षत्रतेजोम्बुराशियस्याजेन व्यरंसीदभुवनविजयिनश्चण्डदोर्दण्डकण्डूः।।6॥ यो लक्षवर्मनृपतेः शरदिन्दुकान्तमाख्यातुमिच्छति यशः प्रसरं वचोभिः। दीपप्रभापरिचयेन विमुग्धबुद्धिर्मध्यन्दिने दिवसनाथमुदीक्षतेऽसौ187॥ यन्नाक्रामदवक्रमानसलिव्याजप्रयोगापतत्पृथ्वीलंघनलब्धलाघवमघच्छेदी पदं वामनः। लोकालोकशिरः शतप्रतिहतज्योतिर्विवस्वान्नय - त्तस्य क्रामति तन्निशाकरमहः श्रीस्पर्धि शुभ्रंः यशः।8। धीरो दिग्विजयेषु कलिसरसीं तीव्रप्रतापं दध निःशेषद्विषदव्यथोभयतटीविन्यस्तसेनाभरः। मजन्मत्तकरीन्द्रपङ्किलजलां श्रीलक्षवर्माभिधश्चक्रे शक्रसमः कलिन्दतनयां जह्नोः सुतां च क्रमात्॥19॥ आस्थानेषु महीभुजां मुनिजनस्थाने सतां सङ्गमे ग्रामे पामरमण्डलीषु वणिजां वीथीपथे चत्वरे। . अध्वन्यध्वगसंकथासु निलयेऽरण्यौकसां विस्मयान्नित्यं तद्गुणकीर्तनैकमुखराः सर्वत्र सर्वे जनाः॥4॥ यस्यानने शरदखण्डशशिप्रसन्ने कोपं व्यनक्ति हृदयस्थमरिप्रियाणाम्। सिन्दूरभूषणविवर्जितमास्यपद्ममुत्सृष्टहारवलयं कुचमण्डनं च।4।। तेनैतच्चारुचामीकरकलशलाद्व्योमधाम व्यधायि। भ्राजिष्णु प्रांशुवंशध्वजपटपटलान्दोलिताम्भोजवृन्दम्॥ देत्यारातेस्तुषारक्षितिधरशिखरस्पर्धि वर्धिष्णुरागा। दृष्टे यात्रासु यत्र त्रिदिववसतयो विस्मयन्ते समेताः।।42॥ कैलासाद्भोटनाथः सुहृदिति च ततः कीरराजः प्रपेदे साहिस्तस्मादवाप द्विपतुरगबलेनानु हेरम्बपालः। तत्सूनोर्देवपालात्तमथ हयपतेः प्राप्त नित्ये प्रतिष्ठा वैकुण्ठं कुण्ठितारिः क्षितिधरतिलकः श्रीयशोवर्मराजः।।3।। For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 258 प्राचीन भारतीय अभिलेख श्रीधङ्गस्वभुजप्रसाधितमहोनिर्व्याजराज्यस्थिति - तस्मादास महोदधेरिव विधुः सूनुर्जानानन्दकृत्। युद्धे नश्यदरातिवर्गसुभटप्रस्तूयमानस्तुतिनित्यं नम्रमहीपमौलिगलितम्रक्पूजिताङ्घि द्वयः44॥ आकालंजरमा च मालवनदी तीरस्थिते स्वतः कालिन्दीसरितस्तटादित इतोऽ प्या चेदिदेशावधेः। आ तस्मादपि विस्मयेकेनिलयाद्गोपाभिधानाद्गिरेर्यःशास्ति क्षितिमायतोऽर्जितभुजव्यापारलोलार्जिताम्॥45॥ यस्त्यागविभ्रमविवेककलाविलासप्रज्ञाप्रतापविभवप्रभवश्चरित्रात्। चक्रे कृती सुमनसां मनसामकस्मादस्मादकालकलिकालविरामशङ्काम्।।46॥ शब्दानुशासनविदा पितृमान्व्यधत्त देदेन माधवकविः स इमां प्रशस्तिम्। यस्यामलं कवियशः कृतिनः कथासु रोमांचकंचुकजुषं परिकीर्तयन्ति।47॥ संस्कृतभाषाविदुषां जयगुणपुत्रेण कौतुकाल्लिखिता। रुचिराक्षरा प्रशस्तिः करणिकजद्धेन गौडेन।48॥ पादादभूमिपतिः पृथ्वीं त्रयीधर्मः प्रवर्धताम्। नन्दन्तु गोद्विजन्मानः प्रजाः प्राप्नोतु निर्वृतिम्॥49॥ संवत्सरदशशतेषु एकादशाधिकेषु संवत्। उत्कीर्णा चेयं रूपकार. . . . . .150॥ (श्री विनायक?) पालदेव पालयति वसुधां. ...... नमो भगवते वासुदेवाया नमः सवित्रे। 1. ओम्। भगवान् वासुदेव को प्रणाम्।। असुर-मुख्यों को तत्काल नष्ट करने के लिये जिसने तदनुरूप वराह, नृसिंह दोनों के सम्मिलित अनेक (रूप) शरीर को धारण किया। जगत् में कपिल For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 259 आदि तीन उग्र को विनष्ट किया, तथा जिसने अपनी कण्ठध्वनि से सम्पूर्ण भुवन को चकित कर दिया वह वैकुण्ठ आपकी रक्षा करे। 1 बलि को छलने के मध्य भगवान हरि रक्षा करे जिसके तीन पद को चकित होकर देव-दानव तत्काल प्रणाम करते हैं।जिसमें ब्रह्मा ने अर्घ्य के लिये जल फैलाया, जो (हरि के) चरणकमल से निकला था तथा जिस पवित्र जल को तीनों लोक के एकमात्र पिता हर, सिर पर धारण करते हैं। 2 वह देव आपकी रक्षा करे, जलकण जिसके तारांकित आकाश के समान सुशोभित काजल की पवर्त-भित्ति के समान विशाल वक्ष स्थल पर दैत्य के आयुध के घाव से अंकित सारे देवताओं को छोड़कर, मन्दराचल के साथ घूमती लक्ष्मी के कटाक्ष की भांति जिन पर पड़ी। 3 गम्भीरता में सागर, कान्ति में चन्द्रमा, प्रताप से उज्ज्वल सूर्य, धीरता में धरती, महत्ता में समुन्नत पर्वत, त्याग में कल्पवृक्ष-सच बताओ यदि कभी सम्पूर्ण युग में निश्यात्मक रूप से विमल गुण समूह से अभिराम स्वामी यशोवर्मा के समान कभी कोई हुआ हो। 4 अविकृत अव्यक्त प्रधान से महान् हुआ तथा उससे अहंकार उत्पन्न हुआ। जिससे उपग्रह (राहू केतु आदि) समूह उत्पन्न हुए। उससे तन्मात्रा उत्पन्न हुई तथा इनसे क्रमशः (पञ्च) भूत तत्पश्चात् इनसे सारा भुवन प्रवृत्त हुआ। 5 यहां सारी विद्या का आदिम कवि, सारे युग की समाप्ति का साक्षी देव, जो तीनों लोक के निर्माण में चतुर है, विकसित कमल की केसर पर निवास करने वाला, सबका स्वामी अपनी ही महिमा से विधाता प्रथम प्रभु हुआ।6 उस विश्वसृष्टा पुरातन पुरुष, वेदसदन कवि से जो प्राचीन काल में पवित्र चरित्र वाले मरीची आदि मुनि हुए उनसे सतत तप से तीव्र प्रभाव वाले पुत्र 'चन्द्रात्रेय' उत्पन्न हुआ। निसर्ग प्रभा रूपी ज्ञान-प्रदीप वाले मुनि चन्द्र (उत्पन्न) हुए। 7 उस अखिल विद्या के ज्ञाता, सारे वेदों के ज्ञान से नम्र तथा कल्याणकारी के अपने जगत्प्रसिद्ध प्रशंसनीय वंश में न तो पराक्रम से लघुता, न चाटुकारिता से औद्धत्य, न आत्मशक्ति तथा For Private And Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 260 6. 7. 8. 9. 10. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख न आत्मनाश जैसी फलप्राप्ति हुई। 8 उन नृपों की क्या प्रशंसा की जाय जिनकी शक्ति सारी पृथ्वी के विनाश अथवा पालन में समर्थ हैं। जिनका पीड़ितों के दुःख दूर करने में मन विशेष लगता है, जो सारी समृद्धि के समान है, सत्ययुग के आचार से अनुरूप पुण्यशाली तथा विमल यश से युक्त हैं। 9 उस वंश में क्षत्रिय स्वर्ण में सार के लिये निकषोपल (कसौटी), (साक्षात् ) यश रूपी चन्दन की क्रीड़ा से अलंकृत दिशा रूपी रमणी का वदन राजा श्री नन्नुक हुआ जिसके अपूर्व पराक्रम के क्रम से सारे शत्रु झुकते हुए सम्भ्रान्त नृप, विस्मृत अथवा अवशिष्ट आदेश को सिर (बन्दीजनों) से वहन करते से प्रतीत होते हैं। 10 कामदेव सी काया वाला अनेक शत्रु समूह का विजेता, प्रसन्न मागधवृन्द (बन्दियों) के द्वारा विरचित स्तोत्र क्रिया के क्रम से युक्त वह नृप तन्वङ्गी कामिनियों के हृदय में तत्काल पैठ गया और अपने सीमावर्ती शत्रुओं के समूह में अपने बल से कायरता फैला दी। युद्ध में को पराजित करने वाले उस नृप का श्रीवाक्पति (पुत्र) हुआ जिसकी वाणी वाक्पति बृहस्पति के समान थी तथा जिसकी विकास कीर्ति सूर्य की कान्ति के साथ तीनों लोक में भ्रमण करती है। 12 स्वच्छ शिला पर बैठी किरात-कामिनियां के द्वारा गाये गये गीत तथा तदनुरूप ही ध्वनि से रमणीय शिखर वाले विन्ध्य क्रीडापर्वत, जिसके शिखर निर्झर के जलपात की झंकार से नर्तित मयूरवृन्द हैं। 13 क्षीरसागर से चन्द्र तथा कौस्तुभ के समान, उस अचरज के सदन के जयशक्ति तथा विजयशक्ति दो पुत्र हुए। 14 उन दोनों के अमित प्रताप की दावाग्नि से शत्रु-वन जलाने वाले कर्मों की रोमांचित होकर सिर हिला हिला कर नृपगण प्रशंसा करते हैं। 15 उनमें से अनुज विजयशक्ति के राहिल नामक पुत्र हुआ। जिसका ध्यान आने पर रात में शत्रुगणों को नींद नहीं आती। 16 For Private And Personal Use Only भयंकरता से घूमते खड्ग रूप सुवा से स्रवित होते रक्त से घ्रतक्रिया सम्पन्न होने पर प्रत्यञ्चा की आवाज से आहुति-मन्त्र- शब्द होने पर क्रम से घूमते Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 261 उत्तेजित योद्धा-ऋत्विक् पर, शत्रु संहार की क्रोधाग्नि के उद्दीप्त होने पर चिल्लाने के रूप में मन्त्रोच्चार करते हुए उस कृती ने पशुओं को समान शत्रुओं को अग्नि में होम दिया। 17 उस अमित शक्तिशाली नृपों में श्रेष्ठ नृप की कल्पतरु के समान् राजा श्रीहर्ष पुत्र हुआ। 11. अब भी जिसके सुविकसित यशः पुष्प की गन्ध से दिशाओं की वायु सुरभित है। 18 जिसमें श्री तथा सरस्वती एक साथ निवास करती है। नीति के अनुसार चलने वाला, प्रतापी, तेजस्वी, प्राणशक्ति के गुणों से उज्ज्वल है। जिसमें क्षमा स्वाभाविक रूप से परिणत है। संतोष, विजयेच्छा, नम्रता, सम्मान आदि अनन्त गुणों से युक्त उस विस्मय निधि के किन-किन गुणों की स्तुति करें?19 धर्मापराध में भीरु, कृष्ण के चरणों की सेवा का प्यासा, पाप की बात से अनजान, स्वगुणों को गिनने की प्रक्रिया में अमुखर, निन्दा की बात में शून्य, जन्म से ही झूठ बोलने में मूक सर्वत्र इसी प्रकार अपने स्वाभाविक गुणों वाले इसकी कौन स्तुति (नहीं) करता? 20 उस अप्रतिहत मेधावी तथा अत्यंत रूपवान् अंगों वाले (नृप) ने अपने अनुरूप, अपने ही वर्ण की चाहमान कुल में उत्पन्न कंचुका या कच्छुका से विधिवत् विवाह किया । 21 जिसके पतिव्रत की तुला पर चढ़ने के लिये अरून्धती का अभिमान भी समर्थ नहीं। पति के इच्छित विधान से युक्त होने पर भी साध्वी (अल्प प्रयास करती थी) अति लज्जित सी परम कृश हो गयी। 22 उससे उस (कच्छुका) में राजकुल में श्रेष्ठ श्री यशोवर्माराज (पुत्र) उत्पन्न हुआ। गौड की पीड़ा-लता रूपी खड्ग से जिसने खसों की शक्ति (सेना)को तोल लिया, कोशलों का कोशल और कश्मीर के वीरों को नष्ट करते हुए, मिथिला के नृप को शिथिल (क्लान्त) करते हुए मालवों का काल बनते हुए अनुदात्त चेदि को क्लान्त करते हुए, कुरु-तरु का वायु तथा गूजरों का ज्वर था। 23 For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 262 प्राचीन भारतीय अभिलेख 14. वह दान में राधेय (कर्ण) था, वह वाणी की पवित्रता में पाण्डुतनय (युधिष्ठिर) था। वीरता में पार्थ (अर्जुन) होने पर भी इसकी महिमाम की प्रसिद्धि कुछ और ही है। ये सब व्यतीत हो गये। क्या कहें? यदि पुनः यहाँ होते तथा अपने चरित में उतारते तो इसे देखकर अब लज्जा से झुक जाते। 24 चाहे उस त्रस्त के त्राता राजा के मनुष्यों के दु:ख के लिये शस्त्र ग्रहण हो, चाहे सिद्ध के क्रीडापुष्प के सिंहासन के लिये कल्पतरु हो, कुबेर 15. अत्यंत अर्थवृद्धि से त्रस्त होकर आत्ममुखी विलासी हो जाय, तब ही उसके मुख पर चन्द्र एव कमलवन की प्रीति के लिए दृष्टि का उत्सव हो। और इसकी समानतर कर सकेंगे। 25 जिसके सैन्यप्रयाण के समय उड़ती धूल से आकाश भर जाने पर स्वर्ग-गंगा के तट बँध गये तथा कान्ति छिप जाने से सूर्य दर्पण सा रमणीय हो गया। ऐरावत के द्वारा प्रसन्नता में मथने से आकाश में बादल देख हंस उत्कण्ठित हो उठे, शत्रुओं को बन्दी बनाकर उनसे विराम पा इन्द्र के सहस्र नयन भी उनींदे हो गये। 26 आपस में 16. क्रुद्ध हो गजयुद्ध में दन्त-दण्ड के आघात से उत्पन्न ज्वाला समूह से अनल फैलने पर तथा प्रत्यञ्चा की तेज ध्वनि पर, रक्तपान कर, उत्तेजित हो रक्षा कर प्रमाद-ध्वनि से प्रसन्नता एवं रौद्र रूप से अट्टहास करने पर युद्ध क्षेत्र में भयभीत सी (जय) लक्ष्मी ने हड़बड़ा कर जिस धीर का आलिङ्गन कर लिया। 27 समुन्नत काजल के पर्वत के समान चलते हुए मत्त गजेन्द्र पर स्थित क्रोध करते भयंकर उस धनुर्धर ने याचकों (शरणागतों) की रक्षा प्रारम्भ की। विख्यात नृप 17. शिरोभूषण को जिसके चरण कमल पर रखते थे तथा युद्ध में असंख्य सेना वाले चेदिराज को निर्भयता से उसने बरबस जीत लिया। 28 दूरस्थ चन्द्रमा कान्तिमान होने पर भी शरीर से कलंक की छाया से कलुषित है तथा सुंदर अरविंद भी विकसित होने मैं पराधीनता के कष्ट से युक्त है परंतु इस मनोरम वृतान्त वाले नृप का किसी प्रकार मुख देखकर भयभीत शत्रु-स्त्रियां भी (प्रफुल्लित ही रहती हैं) 29 For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 263 गंगा के निर्झर की घर्घर ध्वनि-भय से भागते अश्व समूह से तत्काल सोकर जगे सिंह 18. से गजसमूह त्रस्त हो उठे। जिसके सैन्य ने कल्पवृक्षों के समान वृक्षों की सुमनराशि को तोड़ डाला तथा दिग्विजय में किसी प्रकार धीरे-धीरे हिमालय पर्वत की श्रेणियां भी पार कर ली। 30 समुन्नत प्राकार की भित्ति पर स्थित मदमत्त मयूर की तेज आवाज .... रथ के थके अश्व के वेग में बाधा पाकर जिस अपराहण में सूर्य के स्थित रहते प्रतिदिन नीलकण्ठ की अधिवास, पृथ्वी के तिलक के समान कालञ्जर पर्वत को लीला में ही ले लिया। 31 19. जब से शस्त्र ग्रहण किया, परम वीर के व्रत की प्रक्रिय अखण्डित रही। बचपन से जब से पाणिग्रहण हुआ सत्य का व्रत अलुप्त रहा; इच्छुकों को अभीप्सित बिना थके पूर्ण स्ववैभव दिया। जिसकी उत्कर्षकथा की प्रशंसा साधुजन रोमाञ्चित होकर करते हैं। 32 "अन्य पुरुष का साथ करने से निन्दित होऊंगी, लगातार घूमने से कदाचित् शान्ति सुलभ न होगी।" (यह विचार कर) जिसका अमित पौरुष उसे अतिमानवीय बना देता है तो इस लोक में । समुद्र तक व्याप्त उसकी कीर्ति अनिन्दित ही है। 33 श्री कृष्ण से देवकी के समान अकेली कच्छुका ही इस लोक में जिस धीर पुत्र के जन्म से सिर ऊंचा कर सकी। 34 शौर्य, उदारता, नीति, दया आदि विमल गुण समूह से जिसके मनोरम यश के गीत, जो सारे विमल स्वामीजनों में श्रेष्ठ हैं, सिद्धांगनाएं गाती हैं। शत्रुनाश में वह रवि है जिसने तीनों लोक को स्पष्ट ही उज्ज्वल कर दिया, दीपदान के समान सहस्रों युद्धोत्सव मनाये। 35 क्रोध की उत्तेजना से भौंह की कुटिलता 21. के जाल पर प्रचण्ड धनुष की यष्टि ध्वनित हो रही तथा प्रत्यञ्चा के आघात से अत्यंत घोर ध्वनि से चकित मन भय से आंखों में चकराने लगता है; स्पष्ट ही दूरस्थ शत्रुओं के नष्ट होने पर जिस भुवन विजयी का क्षत्रतेज रूपी सागर की भुजा की खुजली शांत नहीं हुई। 36 For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 264 प्राचीन भारतीय अभिलेख जो लक्षवर्म राजा के शरत् चन्द्र के समान यश को प्रशस्त वाणी से कहना चाहता है वह मूढ दोपहर के सूर्य को दीपक के उजाले में पहचानने का प्रयास करता है? 37 जिस वामन ने सरल मन वाले बलि को बहाने से आपत्ति में डाला तथा पृथ्वी लांघने से लघु पापविनाशक पद प्राप्त किया। लोक तथा अलोक के सैंकड़ों सिर से सूर्य की ज्योति प्रतिहत नहीं होती, चन्द्रमा की कान्ति स्पर्धा करने वाला उसका शुभ्र यश उसका अतिक्रमण करता है। 38 दिग्विजय में धीर, क्रीडा-तडाग में प्रचण्ड प्रतापधारी, अशेष शत्रुओं से निर्भय हो दोनों तटों पर सेना रख, स्नान करते मत्त गजों से इन्द्र के समान श्री लक्षवर्मा ने 23. क्रमशः यमुना तथा गंगा को पंकिल कर दिया। 39 नृपों के प्रासादों में, मुनियों की भूमि पर, सज्जनों के संगम (जमावड़े) में, गांव में, नीच अथवा मूखों की मण्डली में, बनिया वाड़ी (बनियों की गली) में, चौराहे पर, मार्ग कथाओं में, धनपतियों के घर ... सर्वत्र सभी सदा चकित होकर केवल उसी के गुणों की प्रशंसा में चहक रहे हैं। 40 शरत् के पूर्ण चन्द्रमा के समान जिसके प्रसन्न मुख के कोप से शत्रु-रमणियों के सिंदूर के संभार से रहित मुख-कमल तथा हार-वलय से रहित पयोधर-चक्र भी व्यक्त हो रहा है। 41 स्वर्ण कलश से मनोरम शोभित सूर्य के समान चमकते उसने यह लम्बे बांस पर फहराता ध्वज-पट-वितान कमल समूह सा डोलता धारण किया। हिमाचल के शिखर की स्पर्धा करने वाले भगवान् वैकुण्ठ के मंदिर के परिवृद्ध होते राग को देख जहां देवता भी एकत्र होकर चकित हो रहे हैं। कैलास से भोट राजा और शाही कीर राजा ने मित्रता के उपहार पहुंचाये। हेरम्बपाल के पुत्र देवपाल से वैकुण्ठ की यह मूर्ति शत्रुहन्ता क्षितिधर तिलक श्रीयशोवर्मा ने प्राप्त की। 43 अपनी बाहु से स्पष्ट ही पृथ्वी को प्रसाधित कर राज्य को स्थित करने वाला प्रजा का आनन्दकारी श्रीधंग पुत्र उससे उसी प्रकार उत्पन्न हुआ जैसे समुद्र से चन्द्रमा। युद्ध में शत्रुसमूह को नष्ट करते हुए जिसकी वीर भी स्तुति करते हैं। सदा For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धंगदेव का खजुराहो अभिलेख 26. जिसके दोनों चरणों का नमन करते नृपों के मस्तक से गिरने वाले पुष्पों से पूजे जाते हैं। 28. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 265 कालञ्जर से लगाकर, मालव नदी के तट पर ( विदिशा) स्थित भास्वान् (सूर्य मन्दिर) से, यमुना नदी के तट से लगाकर इधर चेदि देश पर्यन्त; और उस आश्चर्यजनक गोपगिरि (ग्वालियर) पर्यन्त विस्तृत, शक्तिशाली बाहु-बल से सहज अर्जित भूमि पर जो शासन करता है। जो त्याग, विक्रम, विवेक, कला, विलास, प्रज्ञा, प्रताप, वैभव आदि का अपने चरित्र से उत्पत्ति स्थान है। उसी कृती ने 27. देवताओं के मन में अचानक इस अकाल कलियुग की समाप्ति की शंका को उत्पन्न कर दिया। 46 शब्दानुशासन के ज्ञाता देद्द के पुत्र माधव कवि ने इस प्रशस्ति की रचना की। जिसके कवि यश को पुलक- कञ्चुक वाले ( पुलकित होकर) आप्तजन (बड़े बूढे) कथाओं में कहते हैं। 47 जयगुण के पुत्र संस्कृत भाषा के ज्ञाता गौड़ करिणकजद्ध ने कुतूहल से मनोरम अक्षरों में इस प्रशस्ति को लिखा । 48 राजा पृथ्वी का पालन करें, तीनों वेद धर्म बढ़ते रहें, गाय तथा ब्राह्मण प्रसन्न रहें तथा प्रजा सम्पन्नता (पूर्णता) प्राप्त करे। For Private And Personal Use Only संवत् दस सौ ग्यारह (1011) में इसे रूपकार (मूर्तिकार) ने उत्कीर्ण किया। श्री विनायक पालदेव के भूमिपालन के समय निर्दग्ध शत्रुओं से वसुधा प्राप्त की। भगवान् वासुदेव को प्रणाम । सविता सूर्य को प्रणाम । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख बिलहरी (जबलपुर, म०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि-प्राचीन नागरी, 975 ई० सिद्धिः (i) ओं नमः शिवाय॥ पायादवः स समस्तमंगलनिधिः शम्भोर्जटाजूटको, य( स्मि)ल्लेललसद्युमण्डलगलमंदाकिनी-वारिभिः। गाढग्रन्थिनिपीडितोरगपतिप्रस्फारफुल्लत्फणाभीमव्यावृत्तवक्त्रमारुतधृतैः श्वेतातपत्रायि( तम् )॥1॥ अपि च अव्यावश्चन्द्रचूडस्य लोचनार्चिष्मतः शिखा। मित्रमेष स्मरस्येति दग्धुं विधुमिवोद्गता।। यं खेलाय षडाननः शिशुतया कृत्वागृहं मार्गति, ग्रन्थो यश्च दुरोदरैः पुरभिदो देव्या समं दीव्यतः। केलीकोपकथासु येन तनुते हेतिक्रियं पार्वती, पायाद्वःस जटावनैककुसुमं शाद्धः सुधादीधितिः।७॥ दिक्षु प्रेखाभियोगप्रवलितवलनाविभ्रमाकाण्डचण्डैर्दोर्दण्डानां प्रकामप्रथिमभिरनिलैर्दूरमुत्सारितेषु। किं च प्रस्फारचारीनमदवनिवशायोम्नि याते महत्तामव्यादव्याहतेच्छ त्रिपुरविजयिनस्ताण्डवाडम्बरः।। वन्शेत्र सोमसंभूतो वाचं निक्षिपता मया। हन्त हस्तैरुपक्रान्ता मोहेन वियतो मितिः॥5॥ 1. ए.इ० 1, पृ. 252-270, कार्पस 4, पृ. 204-224 266 For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 267 युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख वाचामुज्वर ज्व)लिमापि नास्ति यदि मे तत्कीर्त्यमानोन्नतेरस्मादेव महीयसः शशभृतो वंसात्स संपस्यते। यद्वा पश्य निसर्गकालिमभुवोप्याशेभदानच्छटाः क्षीरोदन्वति किन्नसङ्गतिभृतस्तच्छायताम्वि( म्बि)भ्रति॥6॥ नेत्रादत्रेद्धरित्री धवलनसुहृदां धाम धाम्नामुदंचल्लोकालोकं यदपि प्रभवमतलिनध्वान्तविध्वन्सहेतुः। सोयं सोमाभिधानतिस्तलकयति कला मौलिमस्यैव शम्भोरस्मादेव प्रवृत्तः किमपरमयमप्यन्वयो हैहयानां (नाम) ॥ अस्मिंश्च वन्द्यतमता(ङ्ग)मिते (बु)धाद्यैराद्यैर्नृपतिरर्जुन इत्युदारः। आसीद्विरद द्वि)पद्धिपिनकर्तनकीर्तनीयकीर्तिच्छटाच्छुरित दीर्घ दिगन्तरालः॥8॥ यद्वक्षस्तटताऽनातितरलत्रुट्यत्विप्रांच्छलजवा( ज्वालामालिकरालितेन करिणा देवाधिपः क्वाप्यगात्। दतात्रेय इति प्रकामकमलालीलायिानाम्पदं, यो देवः स सुतप्रतिश्रुतवचः प्रीत्या यमन्वग्रहीत। के वा तद्गुणवर्णने वयमहो किं फल्गुभिर्जल्पितैर्मन्ये सापि च वाग्वपुर्भगवती तत्र स्फुटं मह्यति॥ अथ ततस्ततसत्पुरुषव्रततीपद्धतः कति नाभवन्। तरुणतततारकराजपराजयव्यसनिकीर्तिभुवः पतयो भुवः॥1॥ तेप्वेवन्सम्भवत्सुक्रममनु मनुजाश्चर्यतामादधानो, धन्यानामेकसीमा समुप(न)तमहीमण्डलाखण्ड-लाभः। जातः कोकल्लदेवो दलदहितलतादाहदावायमानो मानोत्तंसस्य यस्य त्रिभुवनलयव्यापनोभूत्प्रतापः॥2॥ भुवनविजयहेतोर्मुक्तमर्यादयादस्सदनलडितलोलैर्यद्वलेस्सम्वलद्भिः। अतलिनतरभारभ्रश्चदुर्वाविषी दत्फणफलककलापो भोगिभर्ता व (ब)भूव।। For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 268 प्राचीन भारतीय अभिलेख श्यामाशंकिभिराकुलैर्विजघटे चक्राह्वयानान्द्वयैरम्भोदागमविभ्रमेण विदधे लास्योत्सवः केकिभिः। मग्नालोकमकाण्ड एव च दृशमान्थ्येन लेभे पदं, यत्सेनारजसि क्रमादवनितस्तारापथे लुप्यति॥4॥ वेलावनप्रणयिसैन्यभरे च यत्र मज्जद्भिराकुलकुलाद्रिनिभैरिभेन्द्रैः। संभ्रान्तमन्दरगिरेस्समयस्य तस्य कालाद्व( ब )होः स्मरणमपि निधिजलानां (नाम्)॥5॥ यतश्च वेन्थ्यन्तटमाददाने दानेद्वसेनागजभंजनेन। .. अमंजुशिंजानशकुन्तचक्रं चक्रन्द दुःखादिव वृक्षजालं (लम् )m6॥ जित्वा कर स्ना) येन पृथ्वीमपूर्वकीर्तिस्तम्भद्वन्द्वमारोप्यते स्मा कौम्भोद्भव्यान्दिश्यसौकृष्णराजः कौवे(बे)यांच श्रीनिधि- भॊजदेवः।॥7॥ व(ब)भूव तस्मादथ मुग्धतुङ्गस्तुङ्गस्त्रिलोक्यामपरो न यस्मात्। दिशश्च यः किंच विजेतुकामः कामस्तशत्रर्नु भुवम्विलेभे॥8॥ शय्या संग्रामलक्ष्याः पर-व(ब)लपरिघः पल्लवः कोपवल्याः, प्रेयो दर्पस्य मित्रं सुचरितसलिलस्येन्द्रनीलप्रणालः। शाखा शौर्यगुमस्य प्रसरणसरणिश्शाश्वती साहसानामासीद्यस्यासिरेव प्रधनपरिकरारम्भिणः प्रीतिपात्रम्॥9॥ वल्गद्वेतालवर्गत्रुटितनिजशिरोधारिधावत्कव (ब)न्धण्डात्कुर्खड्डाकिडिम्बं(म्ब )मुखवि(बि)लविलसत्सम्मुखोल्कर ल्कम् )। मान्सग्रासाभिलाषस्वनदशिवशिवाभैरवारावरौद्रं यो धाम वि(बि)प्रत्त्प्रतिसमरमिति द्वेषिचक्रं चकार॥20॥ उपविपिनभुवो निधे लानामधिवसता कटकेन यस्य या तु):। अवचयविचलद्वधूकराग्रद्विगुणिताविद्रुमपल्लवा वा बभूवुः।।1।। इह विहितं विलासा वीचयो वारिराशेरिह स वस(ह)ति वायुः केरलीकेलिकारः। इह हरति भुजङ्स्सौरभं भूरुहाणामिति मलयसमीपे यद्विचाराः प्रचेरुः॥22॥ विजित्य पूर्वाम्बु(म्बु)धिकूलपाली: पालीस्समादाय च कोसलेन्द्रात्। निरन्तरोद्वा सितवैरिधामा धामाधिकः खड्गपतिर्य आसीत्।23॥ For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 269 गौडीगाढमनोमनोरथकरः कर्णाटकान्ताकुचक्रीडाशैलतटीविहारहरिणो लाटीललाटाकदः। काश्मीरीविहितस्मरव्यतिकरस्तस्मात्कलिङ्गाङ्गनासद्गानव्यसनी सनीतिनयनः केयूरवर्षोभवत्।24॥ आशापालपराजयाय जनितत्रैलोक्यशङ्कापदं सैन्यैर्यस्य युगान्तकैलिकलनैर्दत्तप्रयाणैरपि। न प्रोद्भूतिमयवाप पांशुपटलं भूयो गृहीतद्विषद्वन्दीवृन्दवहद्विलोचनपयः पूरप्लुतायां भुवि॥5॥ यस्संयति प्रकटपाटितकुम्भिकुम्भमुक्ताफलप्रचयवाहमुवाह देवः भूयो निपीतदृढपीडनवेगवान्त विद्वेषि कीर्तिकणकीर्णमिवासिदण्डम्॥26॥ आकैलासादनसलसत्पार्वती केलिबन्धोरा च प्राचशिशखरिवरतो भास्वादुद्भासभूमेः। आरात्सेतोस्तदनु पयसामा प्रतीचोपि पत्युर्यत्सेनानामहितनिहितानन्ततापः प्रतापः॥27॥ खत्क्षिप्रखुरप्रघातविगलत्कीलाललोलोल्लसद्वेताली करयन्त्रपीडनवशभ्रश्यत्कपालास्थिभिः। यस्तस्तार सविस्तरं रणभुवः कोपोत्कटाभिर्दवदृप्तद्वेषिद्वशिरोभिरम्बर चरीनेत्रत्रिभागाच्चितैः॥28॥ देवो रुद्रावातरस्त्रिभुवनभवनोत्तम्भनो देव एव त्यागी देवः प्रमाद्यन्नृपतिनियमने नैगडन्दाम देवः। इत्थं सद्वन्दिवृन्दैरविरविलसच्चाटुवादं वदद्भिर्यस्यास्थानस्थितानासममसुहृदां विव्यथे चित्तवृतिः॥29॥ भरद्वाजो नाम च्युतकलुषदोषस्समभवद्य एकस्सर्वेषामुपषधनानामधिपतिः। तदीयात्तेजस्तः कृतकलशवासाद्यदभवत्स वै भारद्वजस्त्रिभुवनचमत्कारिचरितः।30॥ त्रैलोक्यावधि यस्य कीर्तिलडितं लक्ष्मीश्च वांछावधिर्यत्कोपः प्रलयोपपन्नमहिमाशापेन चापेन च। For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 270 प्राचीन भारतीय अभिलेख वर्ण्यम्वा नयविक्रमैकजलधेः किन्तस्य यस्याभवल्लीलाखवितव्वग+गरिमा शिष्यस्सुभद्रापतिः।1॥ कोदण्डाताण्डवनपण्डितवा( बा )हुदण्डमुद्दण्डकाण्डभरखण्डितपाण्डुसैन्यम्। यम्वीक्ष्य विक्षतविपक्षराजयाशस्सत्याद्रि(द )तस्स तपसोपि सुतश्चचाल|B2॥ अथाक्षेपात्तेन द्रुपदविपदर्थोद्धतधिया यदात्तं शापाम्भस्तरलितकराव(ब)द्धचुलुकम्। पुमानासीत्तस्मिन्विजय इव साक्षादनुचतं, कुलंचौलुक्यानामनणुगुणसीम प्रववृते॥33॥ विभवति च वि( स )पत्सौ( च्छौ )र्यसौन्दर्यवर्य क्षितिधरपरिपाटी सत्रिते तत्र गोत्रे। रचितचटुलचापाकृष्टिकृष्टाहितश्रीरभवदवनिवर्मा विश्वविख्यातकर्म।54॥ पितामहो यत्खलु सिंहहवा पिता च यद्वीरवरस्सधन्वः। जगत्यतीवातिशयोमुनैव महानुभावत्वमतोपि यत्तु॥5॥ यस्य त्यागः सकलजनतापास्तदारिद्र्यमुद्रोवेला (ब)न्धुक्षितिधरदरीचारितारिः प्रतापः। ईष्टे स्पष्टन्स यदि गणनान्तद्गुणानाम्विधातुम्वाचान्धेनुण्ण(न)नु भगवती भारती यस्य वस्या।B6॥ रुद्राणीमिव भूभृतो परिवृढो लक्ष्मीमिवाम्भोनिधिः कालिन्दीमिव भास्करस्स भगवान्न्यो( ज्योत्स्नामिवात्रेस्सुतः। वैदेहीमिव जानकः ऋतुविधिः श्रीनोहलेत्यद्भुतं कन्या नाम ललाम तान्स सुषुवे सामन्तचिन्तामणिः।87॥ भर्तुः पुलोमतनयेव मरुद्गणानांच्छां (छा येव दष्टतमसा महसां च पत्युः। देवस्य सा रतिरिवेक्षुशरासनस्य केयूरवर्षनृपतेर्दयिता व(ब)भूव।।8।। निर्मापितन्सुकृतसड्गतये तदेयमभ्रङ्कषाग्रशिखरस्सखलितोष्णरश्मि। For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 271 देव्या( ज )या मदजलच्छटयेव दन्ती वा (बा)लप्रवाललतयेव तटः पयोधेः। पुष्पाश्रियेव च तरुस्तडितेव मेघः शोभां स कामपि व (बभार) नरेन्द्रचन्द्रः।39॥ देवस्य मंदिरमुमाप्रणयैकव(ब)न्धोस्त्यानाकृतिं स्वयशसामिथ(व) चक्रवालम्।400 आकाशयानक्रमरवेदितानांनोधिनाथस्य तुरङ्गमाणाम्। फेनाम्वु (म्बु) भिनित्यनिषिच्यमाना मन्ये समुद्वान्ति न यत्पताकाः।।1।। विटङ्कभागेषु वृ (ब )हत्सु यस्य वर्षासु तुङ्गामलसारकस्य। आश्लेषवत्यो नवमेघमालाः पारावतालीतुलनाम्वहन्ति।।2।। आसीन्माधुमतेय पवनशिवस्तमनु जयति शब्द(ब्द ): शिवः। ईश्वरशिवः पुनाति च तस्यान्तेवासिनान्सुकृती॥43॥ तस्मै तपोनिधानाय निपानीयाम्वि(म्बि )पाटको। दत्तौ विद्याधनत्वेन ग्रामावग्राम्यया तया।44॥ धंगटपाटकपोण्डीनागव(ब)ला (:) खैलपाटको वीडा। सज्जाहली च दत्ताः स्मरारये गोष्ठापाली च॥15॥ ख्यातः श्रीयुवराजदेवनृपतेस्तस्याभूद्भूपतिः श्रीमल्लक्ष्मणराज ऊर्जितमहाभास्वानिवाभ्युन्नतः। भूभृत्तुङ्गशिरोभिरंघ्रिरुचयो यत्सेविता: श्रीश्रिताः कामं यः कमनीयसुन्दरगुणैनव्यैजिगाय स्मरम्।46॥ यस्याहवे दृढनिपीडितखड्गकोटिनिर्दारितारिकरिकुम्भसमुद्भवेन। वीरश्रियः क्षितितले विततं चतुष्कं मुक्तादलेन ननु कीतिवधूश्चकार147॥ किंच॥ सा कदम्बगुहा मान्या यत्रासीसिद्धसन्ततिः। तस्याः पुनरभूद्वन्द्यो रुद्रशम्भुर्मुनीश्वरः।48॥ तत्त्वप्रभावमहनीयतमस्य तस्य शिष्यो भवज्जगति मत्तमयूरनाथ: निःशेषकल्मषमषीमपहृत्य येन सङ्कामितम्परमहो नृपतेरवन्तेः॥49॥ तस्मादभूर्भुवनमण्डनतामवाप्तो भूपालमौलिमणिकान्तिभिरर्चितांघ्रिः। For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 272 प्राचीन भारतीय अभिलेख श्रीधर्मशम्भुरुचितामलकान्तकीर्तिश्शैवागमाम्बुनिधि पारमितस्तपोभिः।50॥ अस्मात्सदाशिवः शिष्यस्तपोराशिरभून्नृपः। यस्य पादद्वयं वन्द्यमर्चितं शेखरांशुभिः।5।। अस्मादभून्माधुमतेयनामा शिष्यः सुधामा फलमूलवृत्तिः। तपांसि तेजांसि च यत्र वासमनन्यसंक्रान्तिगुणेन चक्रुः।52॥ अस्माच्चूड़ाशिवः शिष्यो वन्दनीयतमोऽभवत्। कर्मजालमलं येन नीतमस्तं मुमुक्षुणा।53॥ अथ सकलगुणानामाकरस्तस्य शिष्यो हृदयशिवसमाह्वो यद्यशोद्यापि वण्र्य म्। नृपमुकुटनिविष्टैर्यस्य माणिक्यचक्रेरकृत चरणमूलं कान्तमेकान्तवन्द्यम्।।54॥ विद्यानां निलयेन येन सुधिया सत्यव्रतेनाधिकश्रीमन्माधुमतेयवंशवितता कीर्तिश्चिरं वर्द्धिता। किंच क्ष्मा क्षमयाम्बुदः समतया मर्यादयाम्भोनिधिर्वैराग्येण जित:यस्या? भगवान्कस्यास्पदं न स्तुतेः155॥ किं स्तूयतेसौ मुनिपुङ्गवोथवा श्रीचेदिचन्द्रो नृपतिः कृतादरः। सदृवृत्तदूतप्रहितैरुपायनैः प्रदर्श्य भक्तिं विधिना निनाय यम्॥56॥ श्रीमल्लक्ष्मणराजोपि तस्मै सुतपसे स्वयम्। मठं श्रीवैद्यनाथस्य भक्तियुक्तः समर्पयत्।57॥ स्वीकृत्यापि मुनिर्भूयो मठं श्रीनौहलेश्वरम्। अघोरशिवशिष्यस्य साधुवृत्तस्य दत्तवान्।।58॥ अस विहितकृत्यश्चेतिदनाथः समर्थः करितुरगसमग्रः शक्तसामन्तपत्तिः। दिशमतिशयरम्यां सम्प्रतस्थे प्रतीचीमहितजनितभीति१निवारप्रचारः।59॥ समरकृतविकारान्वितक्रमेण प्रहृत्य प्रणतनृपतिदत्तोपायनैर्वर्द्धिताज्ञः। हृदयनिहितवृत्तैरर्थिनां पूरिताशो जलनिधिजलखेल(?) सैन्यंचकार।।60॥ निमज्ज्यो रत्ननिधौ श्रीमान्सोमेश्वरं शनैः। अभ्य» कांचनैः पद्मरथान्यत्तु न्यवेदयत।।1।। For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 273 जित्वा कोसलनाथमोड्नृपतेराप्तस्तु यः कालियो रत्नस्वर्णमयः स येन विहितस्सोमेश्वराभ्यर्चनम्। वत्वायः करिवाजिशुभ्रवसनस्त्रक्वन्दनादीन्पुनः संसारश्रमशान्तयेतिविनतस्तुष्टाव तुष्ट पुनः।।62॥ असारं संसारं य इह मनुते कोपि नृपतिस्त्वदंधिव्यानत्या विगलिततमास्तत्वनिरतः। न तस्य घी यो विकृतिकृत्ये जन्मविरहादिति ध्यानाविष्टः शिवमहसि चित्तं विहितवान्।।63॥ श्रीशङ्करगणस्तस्मादभूभूमीश्वरो महान्। यत्पादद्वन्द्वमद्वन्द्वं द्विषद्भिरपि सेवितम्।।64॥ संख्येऽसंख्यविपक्षपक्षदलनव्यासंगि खड्गव्रतं यस्यासीदृढसाहसस्य सततन्दानं जनानन्दकृत्। रूपेणाप्रतिमो मनोभवभवंदपं जहारोद्धतं यः सर्वत्रसद्धकालमवनीनाथ: स्तुतः कोविदैः।।65॥ यत्पादद्वयपद्मसम विततं भूतेरभूद्भूषितं भूपानां नमतां किरीटविकटप्रान्तस्थरत्नांशुभिः। वक्षोरत्नविधि समाश्रितवती लक्ष्मीः क्रमेणागता वीरश्रीरपरैव यस्य नृपतेः कौक्षेयधाराश्रया661 तस्य श्रीयुवराजदेवनृपतिर्धाता कनीयानभूपैर्यच्चरणाविन्दपतितै गैरिवाङ्ग स्थितम्। यः सत्यव्रतसत्त्वसूक्तिवसतिः श्रीविक्रमैकाश्रयः प्रायस्तस्य न सज्जनोपि सकलान्वक्तुं गुणांशख्यति।।671 दंष्टाकोष्टिविपाटनोग्रवदनः क्रूरस्वरोभास्वरोनेत्रप्रान्तविकीर्णकोपरुधिरः पादप्रचारायुधः। येनाक्रम्य भुजेन भूमिपतिना लाङ्लबद्धक्रमो दैत्यो व्याघ्रवपुर्हतोतिभयदः शस्त्रीभृता पाणिना।।68॥ For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 274 . प्राचीन भारतीय अभिलेख कन्दर्पोऽभिनव: पुरन्ध्रियनप्रीतप्रदीप्यन्यथा यः कालः करवालकोटिविह- . तस्थूलेभकुम्भस्थलः। चित्रं यच्च सरस्वतीकृतरतिः श्रीकण्ठपूजापश्चातुर्वण्र्यविचारचारुचतुरो यच्चार्थिचिन्तामणिः॥6॥ यस्योत्तुङ्गगजेन्द्रमज्जनगलदानाम्बुभिर्मिश्रतं रेवावारिविविक्ततिक्तमुचितस्नानेन तन्वीजनः। संप्राप्योरुनितम्बताडनवशव्यस्तास्तवीचीचयं सद्वद्वं स्मरसोरभेण महता निर्व्याजमायोजितः।700 रामाणां कुचमण्डलेषु नियतं हारप्रकारक्रमात्संपूणे शशिमण्डले च विमले ज्योत्स्नाच्छलेनोज्ज्वलम्। मन्ये मानसवारि यस्य वितते शंसावलीविभ्रमाद् भ्रान्त्वाशेषमुमापतेस्तु वसतौ विश्रान्तिमागाद्यशः॥1॥ संपूज्य देवमीशानं विभवैः स्वैर्यथोचितैः। यथागमं यथाशास्त्रं स्तोत्रं विहितवान्नृपः॥12॥ अविचिलितमनोभिर्यैस्त्वमीश क्षितीशैविभवविहितकृत्वैरिज्यसे ते कृतार्थाः। य इह कृतविकारा मन्मथैकान्तचित्ता भवति वरद तेषां संपदुम्माहदहेतुः।73॥ समदकरिघटाभिः किं किमङ्गाङ्गनाभिर्मदनशयनलीला भावयतीभिराभिः। कनकतुरगवासोरत्नजातैर्न कृत्यं न हि भवति भवानीवल्लभस्यार्चनं चेत्।74॥ भवति नृपतिवंशे जन्म पृथ्वी च भोग्या श्रुतमुचितविचारश्चारुरूपप्रभावः। समरविजयसंपत्तस्य यो निष्प्रपंचं चरणयुगलमूलं संश्रितः शङ्करस्य।।75॥ किमिह बहुभिरुक्तैर्नाथ सर्वस्य हेतुर्भवति भवति नित्यं भक्तियोगो ममैकः। For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख सकलसुखविशेषाद्यत्र पीयूषवर्ष: स्वयमनुभवगम्यो जायते त्वत्प्रसादात् ॥76॥ भूपत्रययशोराशिवर्णनं प्रथमं कृतम् । श्रीमता श्रीनिवासेन श्रीस्थिरानन्दसूनुना ॥77॥ भूपतीनां त्रयाणां तु कीर्तिकीर्तनमुज्ज्वलम् । विहितं सज्जनेनाथ सुधिया धीरसूनुना ॥ 78 ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्तनमण्डऽपिकायां । लवणस्य खण्डिकायां षोडशिका घाणके च षोडशिका | तैलस्य मासि मासे दिनमनु च युगायुगे च पौरस्तु ॥ 79॥ पूगफलमरिंचशुष्ठीप्रभृतिषु भाण्डेषु भरकपौरस्तु । वीथीं प्रति च कपर्दी द्यूतकपर्दास्तु शाकवार्ताकम् ॥80॥ रसवणिजामादास्यातृणपूलकर्धीर्मरादि यत्किचित् । दत्ते करी चतुष्टयमङ्ग तुरङ्गो द्वयन्तु पौराणाम् ॥81॥ यद्वहदन्यद्दानं किमपि च विद्याधनन्तदुद्दिष्टम् । यस्त्र. .दः पुण्यश्रीकीर्तयः प्रवत्तन्ते ॥82 ॥ ...... 275 यत्र च नोहलेश्वरमठे श्रीमदघोरशिवाचार्योंभूत् । क्वचिद्भिक्षावृत्तिः क्वचिदपि च शाकाभ्यवहृतिः क्वचिन्मूलाहार: क्वचिदपि च कंदांश्च बुभुजे । परं ज्योतिः शैवं विगलितरजस्क्रान्धतमसं विचिन्वन्नो यातो विषयविषवेगस्य कलनाम्॥83॥ तेनेयं प्रशस्तिः सगतिमानीता । श्रीत्रिपुरी सौभाग्यपुरलवणनगरदुर्लभपुरविमानपुरन... भिः काष्ठवृषः प्रत्यहमथ रक्षितः समानेयः । देवः चारार्थं चारुदारुणि ॥84॥ सुश्लिष्टबन्धघटना विस्मितकविराजशेखरस्तुत्या । आस्तामियमाकल्पं कृतिश्च कीर्तिश्च पूर्व्वा च ॥ 85 ॥ For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 276 प्राचीन भारतीय अभिलेख कायस्थश्रीसीरुकस्याकरणिकधीरस्सुतेन तुनाईनाम्ना प्रशस्तिरालिखिता। सत्सूत्रधारसंगमतनूजनोन्नेन चोत्कीर्णा186॥ स्वकीयदायादक्रयप्रदानम्॥ द ....॥ 1. सिद्धि। ओम् शिवजी को प्रणाम। शम्भु का वह जटाजूट आपकी रक्षा करे जो सारे मंगल का निधि है, जिस पर मन्दाकिनी का भ्रमी कर शुभ्र आकाश मण्डल से बहता जल, प्रगाढ़ रूप से गांठ बंधा नागराज की फैली फण से फुत्कार करते भयंकर खुले मुख की श्वेत आतपत्र (छात्र) का अनुकरण हो रहा है। और भी चन्द्रचूड़ के लोचन की अग्नि की शिखा आपकी रक्षा करे जो कामदेव का मित्र समझकर मानो चन्द्र को जलाने उर्ध्वमुखी हो गयी। 2 शिवजी की जटा रूपी वन के एकमात्र कुसुम चन्द्रमा आपकी रक्षा करे जिसे बचपन के कारण कार्तिकेय खेल के लिये हठपूर्वक मांगते हैं, देवी के साथ पासों से जुआं खेलते समय जो शिवजी का दांव (पांसा) है तथा पार्वती जिसे (शिवजी से) कृत्रिम कोप-व्यवहार में अस्त्र बना लेती है। 3 सब दूर प्रसार पाती, संचलन में दक्ष, सक्षम भुजाओं से उत्पन्न प्रचण्ड वायु के वेग से दिशाएं हटा दी गयीं। जिनके प्रशस्त नर्तन-रत चरणों से भूमि के नीचे दब जाने से आकाश और अधिक समुन्नत हो गया है। ऐसा त्रिपुरविजयी शिव का अप्रतिहत मनभावन नृत्याघात आपकी रक्षा करे। 4 सोम (चन्द्र) से उत्पन्न इस वंश में वाणी को स्थान देते हुए मैं मूढतावश हाथों से आकाश माप रहा हूं। 5 जिसकी उन्नति का यहां बखान करना है इस महान् चन्द्र वंश में उत्पन्न होने वालों के योग्य मेरी वाणी में उज्ज्वलता भी नहीं है। अथवा देखो! प्रकृति से ही दिग्गज की दानच्छटा कृष्ण होने पर भी क्षीरसागर के सम्पर्क में आने पर क्या उसकी कान्ति नहीं धारण करती है। 6 अपनी आभा से भूमि को शुभ्र करने वाली कान्ति का सदन अत्रि के नेत्र से उत्पन्न हुआ। लोकालोक पर 4. आरुढ होकर वह गहन अंधकार का विनाश हेतु जिसका नाम सोम है उसी For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 5. www. kobatirth.org 7. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 277 इसी की कला शिवजी के सिर पर शोभित है। अधिक क्या कहा जाय, ( चन्द्रमा) से हैहयों का वंश उत्पन्न हुआ । 7 इसी वंश में बुध आदि आदिम नृपों से यह (वंश) वन्द्य हुआ तथा उदार नरेश अर्जुन हुआ। जो शत्रु-अरण्य को काटने की प्रशंसनीय कीर्ति- कान्ति से सुदीर्घ दिगन्तराल में पहुंच गया। 8 जिसके वक्षस्थल पर आघात करने से टूटते हुए वज्र से निकलती ज्वालावलि से त्रस्त्र हाथी (ऐरावत) के साथ इन्द्र कहीं चला गया। जिसने खेल में शिव जी के हिमालय को उठा लिया, उस लङ्कापति (रावण) को भी शत्रुता ठान कर वह ख्याति का प्रमाण बन गया। 9 उसके गुण की प्रशंसा करने वाले हम कौन! निरर्थक बकवास से क्या ? लगता है, वाणी के शरीर वाली देवी (सरस्वती) भी उस पर स्पष्ट ही मुग्ध हो गयी है । यथेच्छ लक्ष्मी के क्रीड़ास्थल उस (नृप) का जिस देव दत्तात्रेय ने भी, पुत्र प्रदान के वचन निभाने की चाह से जिसे अपना लिया। 10 तब उस सज्जनों की व्रत शृंखला के पर्वत से कितने (नृप) नहीं हुए? जिन्होंने पूर्णचन्द्र को अपनी कीर्ति से पराजित कर दिया। 11 उन (परवर्ती काल के अनेक ) नृपों के पश्चात् मानवों को चकित करता हुआ, धन्यों की चरमसीमा, प्रणाम करते नृपों में इन्द्र के समान, शत्रु रूपी लतावन को जलाने में दावानल तथा सम्मान शिखर कोकल्लदेव (प्रथम) हुआ जिसका प्रताप तीनों लोक घेर कर व्याप्त हो गया । 12 भूलोक के विजय हेतु जिसके सैन्य प्रयाण लपलपाती लहरों वाले निर्मर्याद समुद्र के समान प्रतीत होती थी। जिसके भार से धंसती धरा को फण के पटल से आश्रय देने वाला शेषनाग भी त्रस्त हो गया। 13 जिसकी सैन्य ( के प्रयाण से उड़ी) धूल के धरा से क्रमशः तारापथ (आकाश) तक व्याप्त हो जाने पर रात्रि की आशंका से वियोगभाव से चकवों के जोड़े व्याकुल हो गये। मयूरों ने मेघागम के भ्रम से नर्तन किया तथा अकाल ही प्रकाशाभाव होने से आंखों में अन्धता छा गयी। 14 For Private And Personal Use Only - समुद्र तट के वनों के प्रेमी, सेना के कुलपर्वत के समान गजराजों ने जब उस (समुद्र) में प्रवेश कर स्नान करना प्रारम्भ कर दिया तब बहुत काल बारद सागर को उस काल की स्मृति हो आयी जब मन्दराचल से (उसका ) मंथन हुआ था। 15 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 278 प्राचीन भारतीय अभिलेख 8. विन्ध्य की तलहटी पर अधिकार करते समय, सेना के मदमस्त गजों के द्वारा वहां के टूटते वृक्षसमूह की कर्कश आवाज के बहाने खग समूह दुःख से क्रन्दन करने लगे। 16 सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर जिसने कीर्तिस्तम्भ का अपूर्व युगल गाड़ दिया-अगस्त्य की दिशा (दक्षिण) में कृष्णराज तथा कुबेर की दिशा (उत्तर) में लक्ष्मीनिधि-भोजदेव। 17 तदनन्तर उससे मुग्धतुङ्ग उत्पन्न हुआ जिसके समान तीनों लोक में दूसरा नहीं था। जिसके दिविजय की इच्छा करने पर, शत्रु के अभाव में कोई दिशा ही न दिखाई दी। अर्थात् उसने हर देश जीत लिया। 18 जब वह युद्ध की तैयारी कर रहा था, तब उसकी तलवार आकर्षण का केन्द्र बन गयी थी। जो संग्राम लक्ष्मी की शय्या, शत्रु बल (सैन्य) का परिघ (अर्गला, रक्षा दण्ड), कोपलता का मनोरम पल्लव, गर्व का मित्र, सुचरित रूपी जल का इन्द्रनील (निर्मित) नहर, शौर्यतरु की शाखा तथा उसके साहसी कर्मों के विस्तार के लिये अक्षय पथ थी। 19 जो रुद्र का पराक्रम धारण कर प्रत्येक युद्ध में शत्रुसमूह को ऐसा कर डालता था मानो दौड़ता हुआ बेताल समूह, टूटे हुए अपने सिरों को लेकर दौड़ते कबन्ध, चिल्लाती हुई डाकिनी (अथवा डाकिनी के बच्चों) का कोलाहल, मुखगुहा से सामने निकलती उल्का (ज्वाला) तथा मांस के ग्रास की इच्छुक चिल्लाती हुई अशुभ सियार की भीषण आवाज से रौद्र वातावरण। प्रयाण करते हुए जिसके सैन्य के सागर को निकटवर्ती वनभूमि पर पड़ाव के समय वहां वधुओं की 10. कोमल अंगुलियों से चयन होने से तरु-पल्लव दुगुने हो गये। 21 मलय (पर्वत) के समीप ये विचार उदित हुए-यहां सागर की तरंगों ने विलास किया, यहां केरल की कामिनियों से खेलने वाला वायु बहता है, यहां तरुओं का सौरभ भुजङ्ग हर लेते हैं। 22 पूर्व सागर के तट-फैलाव को जीतकर उसने कोसलेश से पाली क्षेत्र ले लिया था। शत्रुओं के निवास को सतत नष्ट करते हुए वह खड्गपति (तलवार का धनी) अत्यंत प्रतापशाली हो गया था। 23 For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 279 उससे केयूरवर्ष (युवराजदेव प्रथम) हुआ, जो नीति के अनुसार चलता था, जो गौड़-स्त्रियों के मन के घनीभूत मनोरथ को पूर्ण करता था, कर्णाट की कामिनियों के स्तन रूपी क्रीडापर्वत पर विहार करने वाला हरिण था, लाट-स्त्रियों के ललाट को आभूषण से विभूषित करने वाला, काश्मीर की स्त्रियों का अमित काम प्राप्त करता था एवं कलिंग की ललनाओं के मनोरम गीतों का जिसे व्यसन था। 24 प्रलय-क्रीडा से शोभित दिक्पालों को पराजित करने के लिये प्रयाण करने वाली सेना ने तीनों लोकों में शंका उत्पन्न कर दी। अब अमित धूलिपटल नहीं उड़ा क्योंकि पकड़े गये शत्रु बंदियों के समूह के बहते आंसुओं के पूर से पृथ्वी आप्लावित थी। 25 जिस नृप ने युद्ध में स्पष्ट गजकुम्भ को विदीर्ण कर मोतियों के समूह का वहन किया। शत्रुओं की कीर्ति कणों को असिदण्ड से पुनः दृढ़ता एवं वेग से वह अपने उदर में विलीन कर गया। 26 12. पार्वती की क्रीड़ा भूमि कैलास पर्यन्त, उदयाचल तक जहां से सूर्योदय होता है; हेतु के निकट तक एवं पश्चिम सागर पर्यन्त जिसकी सेना का अनलस प्रताप शत्रुओं में पैठकर अमित संताप देता है। 27 उसकी विस्तृत रणभूमि में क्रोध से उत्कट गर्वीले शत्रुओं के आकाशचारी नयनकोण से अर्चना हो रही है। जिन्होंने उस पर आक्रमण किया था-तथा शीघ्रगामी खुरों के आघात से लुड़कते, स्वर्गीय पेय से चञ्चल शोभित बेताली के हाथी रूपी यन्त्र से दबने से जिनकी कपाल-अस्थि से टपकता हुआ रक्त रणभूमि में फैल गया। 28 देव रुद्र के अवतार हैं, देव ही त्रिभुवन रूपी भवन को उठाये हुए (स्तम्भ) हैं, देव त्यागी है, प्रसाद करने वाले नृपों को 13. अनुशासित करने में देव बांधने की रस्सी हैं-इस प्रकार बन्दिगणों के सतत प्रशंसा करने से जिसकी राजसभा में उपस्थित शत्रुओं के चित्त व्यथित हो गये। 29 शान्ति के धनियों का अद्वितीय स्वामी, कलुष के दोषों से रहित भरद्वाज हुए। कलश में निहित उसके तेज से उत्पन्न होने से वह भारद्वाज (द्रोण कहलाता) है, जो तीनों लोक में अपना चमत्कार बताने से प्रसिद्ध है। 30 For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 280 प्राचीन भारतीय अभिलेख जिसकी कीर्ति पंक्ति तीनों लोक में व्याप्त है। यथेच्छ लक्ष्मी है, जिसका क्रोध शाप तथा चाप से प्रयलयंकारी महिमाशाली है। उस नीति तथा विक्रम के 14. अद्वितीय सागर का क्या कहना जिसका शिष्य सभद्रापति (अर्जन) है। जिसकी क्रीडा से शिवजी के गर्व की गरिमा भी गर्वित है। 31 जिसकी भुजाएं धनुष पकड़ने में शक्तिशाली थीं, जिसने तीव्र शरों से पाण्डुसैन्य समाप्त कर दिया, जिसे देखकर विक्षत होकर शत्रुओं से पराजय की आशा से वह सत्य का आदर करने वाला तपस्वी का पुत्र (युधिष्ठिर) भी विचलित हो गया। 32 द्रुपद का कष्ट दूर करने के विचार से उसने अपने हाथों की चुलुक (अञ्जली) में शाप के लिये जल लिया उसी में एक साक्षात् विजय के समान पुरुष (उत्पन्न हुआ) था जिससे परमशक्तिशाली चौलुक्य कुल का प्रवर्तन हुआ। 33 वैभवशाली, प्रवर्धमान शौर्य तथा सौन्दर्य से श्रेष्ठ 15. नृपों की परम्परा से शृंखलित उस गोत्र में अवनिवर्मा हुआ जिसने चंचल चाप की प्रत्यञ्चा के साथ शत्रुओं की लक्ष्मी भी खींच ली तथा जिसके कर्म विश्वविख्यात हैं। 34 जिसके पितामह सिंहवर्मा तथा जिसके पिता वीरवर सधन्व थे। जिसने जगत् में इसी से अतिशयता व्यापी। इसमें उसकी महत्ता ने भी योग दिया। 35 जिसके त्याग ने सारी जनता के दारिद्र्य की मुद्रा तोड़ दी, जिसके प्रताप से शत्रु समुद्र की तटवर्ती पर्वतगुहाओं में जा छिपे, उसके गुणों की गणना करने की यदि कोई इच्छा करे तो सम्भवतः वही जिसकी वाणी के भगवती सरस्वती अधीन हो। 36 पर्वतराज (हिमालय) ने जैसे रुद्राणी, सागर ने जैसे लक्ष्मी, सर्य ने जेसे यमुना, चन्द्रमा ने जैसे ज्योत्स्ना, जनक के यज्ञ ने जैसे वैदेही प्राप्त की तथा सामन्तों से जैसे उसने रत्न प्राप्त किये वैसे ही उसे नोहला नामक एक अद्भुत मनोरम कन्यारत्न प्राप्त हुआ। 38 देवराज की पुलोमा के समान, अंधकार के विनाशक सूर्य की छाया के For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 17. www. kobatirth.org 19. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 281 समान, ईख के धनुष वाले कामदेव की रति के समान वह ( नोहला) केयूरवर्ष की प्रिया हुई । 38 जैसे मदजल की छटा से हाथी, लघु प्रवाललता से सागर तट, पुष्पलक्ष्मी से वृक्ष तथा विद्युत् से मेघ शोभित होता है तथैव उस देवी के सान्निध्य से उस नृप ने अनुपम शोभा धारण की। 39 उस (नोहला) ने पुण्यप्राप्ति के लिये भगवान् (शिव) का यह मंदिर बनवाया जो उमा के प्रेमपात्र हैं। इस के समुन्नत शिखर पर सूर्य की रश्मियां खिसकती हैं तथा जो उसके यश समूह की यह ठोस आकृति है। 40 आकाश में चलने से क्लान्त सूर्य के अश्व के फेनजल से ये पताकाएं निरंतर गीली हो रहीं हैं। 41 जिस समुन्नत विमल सारवान् मंदिर के विशाल (आमलक) कंगूरों पर वर्षाकाल में आश्लिष्ट होती (विश्राम करती) नूतन मेघमाला कपोत-पंक्ति के समान लग रही है। 42 18. मधुमति के स्वामी एक साधु पवन शिव थे, उनके पश्चात् शब्द शिव हुए तथा मनस्वी ईश्वरशिव ने भी उसके शिष्यत्व को पवित्र किया। 43 उस तपोनिधि को उस मेधाविनि ( सुसंस्कृत रानी) ने उसकी विद्वत्ता के कारण निपानीय तथा अम्बिपाटक गांव दान में दिये। 44 तथा स्मरारि (शिवजी) के निमित्त उसने धङ्गटंपाटक, पोण्डी, नागबल, खैलपाटक, वीडा, सज्जाहली एवं गोष्ठपाली (ग्राम दान में) दिये। 45 राजा युवराजदेव (प्रथम) तथा उस (नोहला) से श्री लक्ष्मणराज (द्वितीय) उत्पन्न हुआ जिसने सूर्य के समान तेजस्वी उन्नति प्राप्त की। जिसके चरणों की कान्ति को लक्ष्मी ने परिवृद्ध किया तथा नृपों के समुन्नत सिरों से ( पर्वतों के समुन्नत शिखरों से) सेवित हुए। तथा जिसने अपने कमनीय तथा सुंदर (अथवा कमनीयता, सौंदर्य आदि) अभिनव गुणों से कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली। 46 For Private And Personal Use Only युद्ध में दृढ़ता से आघात कर तलवार की धार से विदारित शत्रु-गज के कुम्भ (मस्तक) से उद्भूत मुक्तासमूह से पृथ्वी पर बिखेर कर वीरलक्ष्मी को चतुष्क (चौलड़ा हार) पहिना कर (उसे) अपनी कीर्ति वधू बना लिया। 47 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 282 www. kobatirth.org 22. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख वह कदम्बगुहा सर्वमान्या थी जहां सिद्धों की परम्परा थी । उससे मुनीश्वर रुद्रशम्भु हुआ जो (सबका ) वन्दनीय था। 48 तत्त्वज्ञान के प्रभाव से महत्ताप्राप्त उसका जगत् में एक शिष्य मत्तमयूरनाथ था जिसने अवन्ति के नृप के सारे कलुष विलग कर उसे परम (शिव) तत्व की ओर उन्मुख कर दिया 49 20. उससे पृथ्वी का अलंकार श्री धर्मशम्भु हुआ जिसके चरणों की अर्चना नृपसिरों की मणियों की कान्ति से हुई, जो समुचित विमल तथा मनोरम कीर्तिशाली था तथा जिसने तप से शैवागम (शैव शास्त्र) के सागर को तैर कर पार कर लिया था। 50 उसके पश्चात् उसका शिष्य तपोराशि सदाशिव आया, जिसके वन्दनीय चरणयुगल नृपों के शिरोरत्न की किरणों से अर्चित हुए। 51 तदनन्तर माधुमतेय नामक तेजस्वी शिष्य हुआ जिसका भोजन फल तथा मूल ही था। अन्यत्र न जाते हुए तप तथा तेजा ने उसमें (स्थायी) निवास कर लिया था। 52 इसके पश्चात् वन्दनीयों में श्रेष्ठ उसका शिष्य चूडाशिव हुआ । 21. जिस मुमुक्षु ने कर्मजाल के मल को समाप्त कर दिया था। 53 उसके शिष्य का नाम हृदयशिव था जो सारे गुणों का आकार था, जिसका आज भी प्रशंसनीय है, जिसके अद्वितीय वन्दनीय चरणों को नृपों के मुकुट में लगे रत्नों ने कमनीय बना दिया। 54 विद्या के आगार, मेधावी, सत्यव्रत तथा श्रीमान् माधुमतेय के (शिष्य) वंश को बढ़ाने वाले उस (हृदयशिव) ने सदा के लिये (अपनी) कीर्ति प्रवृद्ध कर ली। अधिक क्या कहा जाय-उसने अपनी क्षमा से पृथ्वी, समता से मेघ, मर्यादा से सागर तथा वैराग्य से भगवान् काम को जीत लिया। वह किसका प्रशंसापात्र नहीं बना? 55 अथवा उस मुनिराज की स्तुति क्यों न की जाय? जिसका चेदि के चन्द्र तुल्य राजा ने भी आदर किया- श्रेष्ठ दूतों के साथ उपहार प्रेषित कर विधिपूर्वक भक्ति प्रकट की। 56 For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 283 भक्ति में लीन होकर स्वयं श्रीमान् लक्ष्मणराज ने भी श्रीवैद्यनाथ का मठ उस श्रेष्ठ तपस्वी को अर्पित किया। 57 मुनि ने श्री नौहलेश्वर मठ स्वीकृत तो कर लिया परन्तु पुनः अपने शिष्य सुचरितशाली अघोरशिव को प्रदान कर दिया। 58 तदनन्तर अपना करणीय सम्पन्न कर समर्थ चेदिनाथ हाथी-घोड़ों सहित शक्तिशाली सामन्तों एवं पैदल (सेना) सहित अत्यंत मनोरम 23. पश्चिम दिशा की ओर रवाना हुआ जिसने शत्रुओं में भय उत्पन्न कर दिया एवं जिसकी गति अबाध थी। 59 युद्ध के लिये, सुसज्जित (तैयार नृपों) पर (अपने) विकल्प के प्रहार से, विनत नृपों के द्वारा प्रदत्त उपहार से अपने आदेश (क्षेत्र) बढ़ाता हुआ याचकों की उनकी इच्छा के अनुरूप आशापूर्ण कर (उसने) अपनी सेना को सागर के जल से खेलने के लिए प्रवृत्त कर दिय। 60 सागर में स्नान कर श्रीमान् लक्ष्मणराज ने स्वर्णकमलों से धीरे-धीरे सोमेश्वर की पूजा की। तदनन्तर अन्य (वित्त) भी अर्पित किया। 61 जिसने कौशल के स्वमी को पराजित करने के पश्चात् ओड्र के राजा से रत्न तथा स्वर्ण से निर्मित कालिय (नाग) से 24. सोमेश्वर की अर्चना की। एवं इस पर भी हाथी, घोड़े, शुभ्र वसन, माला, चन्दन आदि देकर सांसारिक श्रम से शांति पाकर अत्यंत विनत होकर सन्तुष्ट हुआ तथा प्रभु (शिव) को (स्तुति से) प्रसन्न किया। 62 यहां जो कोई नृप संसार को असार मानता है, तब वह आपके चरणों में प्रणाम कर तत्त्व (ज्ञान) में निरत होने से तम से रहित हो जाता है। जन्म से रहित होने से विकृति के लिये वह पुनः श्रीमान् नहीं होता। इसलिये ध्यानलीन होकर उसने शिव की अर्चना में चित्त लगाया। 63 उससे महान् राजा श्री शंकरगण (तृतीय) हुआ जिसके अद्वितीय चरणों की शत्रुओं ने भी सेवा की। 64 उस दृढ़ साहसी के खड्ग का व्रत था-युद्ध में असंख्य शत्रुओं के 25. पक्षधारियों को नष्ट करने में लीन होना। लोगों को आनन्दित करते हुए सतत दान देता था। रूप से अप्रतिम होने से कामदेव के उद्धत गर्व का अपहरण कर लिय। जिस नृप की विद्वानों ने सर्वत्र तथा सर्वदा स्तुति की। 65 For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 34 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख जिसके चरण कमल विभूति (लक्ष्मी) में निवास से और प्रणाम करते नृपों के मुकुट शिखर में लगे रत्नों की किरणों से विभूषित है वक्ष रूपी समुद्र का आश्रय पाकर खड्गधार की आश्रित लक्ष्मी भी अन्य वीरश्री के समान जिस नृप के पास चली आयी। 66 6. छोटा भाई युवराजदेव हुआ जिसके चरणों पर गिरते हुए राजा कमल पर गिरते भ्रमरों के समान लगते थे। जो सत्यव्रत, शक्ति तथा सत्त्व की बस्ती था तथा विक्रम का अद्वितीय आश्रय था। उसके सारे गुणों को व्यक्त करने में प्रायः कोई भी सज्जन (स्वयं कवि भी) समर्थ नहीं है। 67 जिस नृप के शास्त्रधारी हाथ ने आक्रमण कर व्याघ्र शरीरी अत्यंत भयंकर दैत्य को मार डाला जो दंष्ट्रा की नोक से विदारक उग्रमुख वाला, क्रूर स्वर वाला, भयानक, जिसके नेत्रतटों पर क्रोध का रक्त फैलता था, पैरों के पजे जिसके आयुध थे तथा जो पूंछा उठाकर चलता था। 68 27. जो कामिनियों के नेत्रों को प्रसन्न करने वाला अभिनव मदन होने पर भी काल बनकर (अपने) खड्ग की धार से विशाल गज कुम्भों को चूर करता था। आश्चर्य है कि यद्यपि उसकी सरस्वती में प्रीति भी तथापि वह शिवजी की पूजा में निरत रहता था। चातुर्वर्ण्य विषयक विचार करने में वह अत्यंत चतुर था तथा वह याचकों के लिये (इच्छापूर्ति कारक ) चिन्तामणि था। 69 रेवा के निर्मल जल में युवतियां जब दैनिक स्नान करने लगतीं तब, जिसके समुन्नत गजों के स्नान से निकलते मदजल से वह मिश्रित होने से उनके अपने मोटे नितम्बों की फटकार से लहरें अस्त-व्यस्त हो जाती थीं- इस प्रकार उसने महान् स्मरसौरभ से निश्च्छल युद्ध का आयोजन कर दिया। 70 रमणियों 28. के स्तनमण्डलों पर पहिने गये विविध हारों के डोलने से, सारे विमल शशिमण्डल में ज्योत्स्ना के व्याज से एवं मानो विस्तृत मानस के स्वच्छ जल में (तैरते ) हंसों के बहाने जिसका यश सर्वत्र भ्रमण करता हुआ शिवजी के निवास स्थान पर पहुंच गया। - 72 अपने यथोचित वैभव से भगवान् शिव की पूजा कर आगम तथा शास्त्र के अनुरूप राजा ने स्तोत्र रचा। - 71 For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युवराजदेव द्वितीय का बिलहरी शिलालेख 285 "हे ईश! जिन नृपों ने वैभव का उपयोग करते हुए निश्चिन्त मन से आपकी पूजा की, वे कृतार्थ हो गये। हे वरद! जो विकारपूर्ण होकर 29. केवल काम में ही चित्त लीन रखते हैं उनकी सम्पत्ति केवल उन्माद का कारण होती है। 73 मदपूर्ण गजसमूह से क्या? अथवा इन कामशमन की लीला करने वाली कल्पनाओं से क्या? स्वर्ण, अश्व, वस्त्र तथा विविध प्रकार के रत्नों से भी कार्यसिद्धि नहीं होती यदि भवानीवल्लभ, (शिव) की अर्चना न हो।74 जो निश्छल मन से शंकर के दोनों चरणों का आश्रय लेता है वही राजवंश में जन्म लेता है, भूमि भोगता है, वेदानुरूप विचार करता है, रमणीय रूप से प्रभावशाली होता है तथा युद्ध में विजय की संपत्ति प्राप्त करता है। 75 30. और अधिक क्या कहा जाय? नाथ! केवल आपमें सदा मेरा भक्ति योग हो। आपकी कृपा से जिसमें सारे सुखों से विशिष्ट आत्मानुभव के योग्य अमृत उत्पन्न होता है, जो अनुभव से ही जाना जा सकता है।। 76 स्थिरानन्द के पुत्र श्रीमान् श्रीनिवास के द्वारा पहले तीन नृपों की यशोराशि का वर्णन किया गया। 77 थीर के मेधावी पुत्र सज्जन ने बाद के तीन नृपों का शुभ्र कीर्तिवर्णन किया। 78 पत्तन (नगर) की मण्डपिका (मण्डी) मेंनमक की प्रत्येक खण्डिका पर एक षोडशिका (सिक्का) जमा करना चाहिये तथा तैल के प्रत्येक (घाणी यन्त्र) पर हर माह एक षोडशिका, युगों के जोड़े पर प्रतिदिन एक पौर जमा करें। 79 सुपारी, मिर्ची, सुंठ आदि विक्रेय पदार्थों पर, हर भरक (विशेष भार) पर एक पौर, प्रत्येक वीथी (दुकान) एक कपर्दिका (कौड़ी),सब्जी की खेती पर द्यूतकपर्द (लघुकपर्द) जमा करायें। 80 तरल पदार्थ (रस) के विक्रेता के लिये कर (टैक्स) घास का पूला, तथा धीर्मर (मछली की टोकरी) आदि अन्य (भी यही) दे। हाथी की बिक्री के लिये चार तथा अश्व के लिये दो पौर दें। 81 अन्य कुछ भी दान, विद्या (से उपलब्ध) धन, धार्मिक (रूप से प्राप्त) लक्ष्मी, For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 286 32. 33. www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख तथा कीर्ति में वृद्धि होती है। 82 तथा जिस नोहलेश्वर के मठ में श्रीमान् अघोरशिवाचार्य हुए उन्होंने कभी भिक्षावृत्ति, कभी शाक का उपयोग, कभी मूल का आहार और कभी कन्द का भोजन किया। परंतु रज के गहनतम से रहित शिव-ज्योति का अन्वेषण करता हुआ कभी विषयवेग के विष से ग्रस्त नहीं हुआ । 83 उसने यह प्रशस्ति एकत्र की श्रीत्रिपुरी, सौभाग्यपुर, लवणनगर, दुर्लभपुर, विमानपुर के निवास रक्षा करते हुए काठ के वृषभदेव प्रतिदिन (यहां ) लाने चाहिये जो देव (शिव) के धर्माचार के लिये मनोरम लकड़ी से बने । 84 सुश्लिष्ट बन्ध से रचित यह पूर्वोक्त कृति (काव्य तथा मंदिर) एवं कीर्ति कल्पान्त तक बनी रहे जिसकी बड़े विस्मय से कवि राजशेखर ने प्रशंसा की। 85 श्री सीरुक कायस्थ की करणिक (क्लर्क) धीर के पुत्र ने यह प्रशस्ति लिखी जिसका नाम नाई था। तथा कुशल सूत्रधार ( कारीगर) सङ्गम के पुत्र नोन्न ने इसे उत्कीर्ण किया 186 For Private And Personal Use Only यह व्यक्तिगत दान न तो (बेचा) खरीदा जाय तथा न (भेंट में) प्रदान किया जाय। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमार भोजदेव का बांसवाड़ा ताम्रलेख बांसवाड़ा-राजस्थान। भाषा-संस्कृत, लिपि-11वीं शती की नागरी, सं० 1076 ( 1020 ई०) ओं। जयति व्योमकेशौ(शोऽ)सौ यः सर्गाय वि(बि)भर्ति तां (ताम् )। ऐंदवी शिरसा लेखां ज2. गद्वी(द्वी )जांकुराकृति( तिम् )॥ [10] तन्वंतु वः स्मरारातेः कल्याणमनिशं जटाः। कल्पांतसमयोद्दामतडिद्वलयपिंगलाः॥ [21] परमभट्टारकमहारा जाधिराज-परमेश्वर-श्री[ सी ]यकदेव-पादानुध्यातपरमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीवाक्पतिराजदेव-पादानुध्यात परम-भ6. ट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीसिंधुराजदेव- पादानुध्यात परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीभोजदेवः कुशली। स्थली-मण्डले घाघ्रदोरभोगांतःपाति-वटपद्रके श(स )मुपगतान्समस्तराजपुरुषान्वा (ब्राह्मणोत्तरान्प्रतिनिवासि-जनपदादींश्च समादिशत्यसु (स्तु) व: संविदितं। 1. ए० इ० 11 पृ० 81 व आगे। 287 For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 288 धन प्राचीन भारतीय अभिलेख 10. यथाऽस्माभिः कोंकणविजयपर्वणि श्ना( स्नात्वा चराचरगुरुं भगवन्तं भवानीपतिं 11. समभ्ययं स स ]रस्या[स]रतां दृष्ट्वा। वाताभ्रवि भ्रममिदं वसुधाधिपत्यमापातमा12. मधुरो विषयोपभोगः। प्राणास्तृणाग(ग्रजलविंदुसमा नराणां धर्मः सखा13. परमहो परलोकयाने। [31] भ्रमत्संसारचक्रानधारामिमां श्रियं (यम्)। प्राप्य ये न14. ददुस्तेषां पश्चात्तापः परं फलो लम्] ॥ [4] इति जगतो विनश्वरं स्वरूपमाकलय्योपरि15. स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य। (द्वितीय ताम्रपत्र) 16. लिखितग्रामात(द)भूनिवर्तन-शतकं नि 100 स्वसीमा तृणगोचर-यूति-पर्यंतं हिरण्या17. दायसमेतं सभागभोगं सोपरिकर सादाय-समेतं ब्रा(ब्रा) ह्मण-भाइलाय वामन18. सुताय वशि( सिष्ठ-सगोत्राय वाजिमाध्यंदिन-शाखायैक प्रवराय च्छिच्छास्थान-विनिर्गतपूर्व19. जाय मातापित्रोरात्मनश्च पुण्ययसोर शो )भिवृद्धये अदृष्टफल मंगीकृत्य चंद्राक्का(क्र्का पर्ण20. व-क्षिति-समकालं यावत्परया भक्त्या शाश(स )नेनोदकपूर्वं प्रतिपादितमिति मत्वा त21. निवासि-जनपदैर्यथा-दीयमान- भागभोगकर-हिरण्यादिकमाज्ञा श्रवणविधेयै For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमार भोजदेव का बांसवाड़ा ताम्रलेख 289 22. भूत्वा सर्वमस्मै समुपनेतव्यमिति। सामान्यं चैतत्पुण्यफलं वु (बु)ध्वाऽस्मद्वंशजैरन्यै23. रपि भाविभाक्तृभिरस्मत्प्रदत्तधर्मा(म)दायोयमनुमंतव्यः पालनीयश्च। उक्तं च। व(ब)24. हुभिर्वसुधा भुक्ता राजभिः सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमितस्य तस्य तदा फल( लम्)। [5॥] 25. यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रनानि धर्मार्थयशस्कराणिा निर्माल्य वांतिप्रतिमानि26. तानि को नाम साधुः पुनराददीत। [6॥] अस्मत्कुलक्रममदारमुदाहरद्भिरन्यैश्च दानमिदमभ्यनुमोदनीयं (यम्)। 27. लक्ष्यास्तडित्सलिलबुदबुद्दचंचलाया दानं फलं परयशः परिपालनं च॥ [70] 28. सर्वानेताम्भाविनः पार्थिवेन्द्रान्भूयो भूयो याचते रामभद्रः। 29. सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो भवद्भिः ।। [8] इति कम30. लदलावुवि( बुबिंदुलोलां श्रियमनुचिन्त्य मनुष्यजीवितं च। सकलमिदमुदा31. हृतं च वु (बु)ध्वा न हि पुरुषैः परकीर्तयो विलोप्या॥ [9] इति संवत् 1076 माध सुदि 5 32. स्वयमाज्ञा। मंगलं महाश्रीः। स्वहस्तोयं श्रीभोजदेवस्य। ओम्। सृष्टि के लिये जगत् के बीजांकुर की आकृति वाली चन्द्रकला को सिर पर धारण करते हैं, उन आकाश के केशों वाले शिवजी की जय हो।1 काम के शत्रु (शिव) की वह जटा आपका कल्याण करे जो प्रलयकालीन स्वच्छन्द बिजली के घेरे सी पीत वर्ण की है। 2 परमभट्टारक महारा4. जाधिराज परमेश्वर सीयकदेव का चरणानुसा परमभट्टारक 1. For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 290 प्राचीन भारतीय अभिलेख 5. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री वाक्पतिराजदेव का चरणानुसा परम भट्टारक 6. महाराजाधिराज परमेश्वर श्री सिन्धुराजदेव का चरणानुसर्ता 7. परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव सकुशल 8. स्थली प्रान्त के घाघ्रदोर भोग (जिले) में स्थित वटपद्रक (गांव) में उपस्थित सारे राजकीय कर्मचारियों, ब्राह्मणों तथा आसपास बसने वाले लोगों को आदेश देता है। आप लोगों को ज्ञात हो। जैसा कि हमने कोंकणविजय के पर्व पर स्नान कर जड़ चेतन के स्वामी भगवान् शिव 11. की अर्चना कर, संसार की असारता देखकर यह वसुधा का स्वामित्व वायु से बिखरते बादलों के समान है, विषयोपभोग 12. क्षणमात्र के लिये मधुर है, मानवों के प्राण तिनके की नोक पर अटकी जलबिन्दु के समान है और 13. परलोक जाने पर केवल धर्म ही परम मित्र रहता (जो साथ नहीं छोडता है)।3 घूमते हुए संसाररूपी चक्र की अग्रधारा पर टीकी हुई इस लक्ष्मी को प्राप्त कर जो 14. दान नहीं कर देते उन्हें फल में पश्चात्ताप ही मिलता है। 4 इस प्रकार जगत् की नश्वर स्थिति जानकर15. यह भोजदेव के अपने हाथ से (प्रदत्त) (द्वितीय पत्र) 16. ऊपर लिखे गये गांव से (एक) सौ निवर्तन (नि0 100) भूमि अपनी सीमा की घास तथा गोचर भूमि पर्यन्त, स्वर्ण लेने सहित, हिस्से में प्राप्त लगान सहित, अतिरिक्त आमदनी आदि सब कुछ आय सहित भाइल ब्राह्मण को, जो वामन का वसिष्ठ गोत्र, वाजिमाध्यन्दिन शाखा का तथा एक प्रवर है एवं जिसके पूर्वज छिंछा स्थान से निकले हैं, को 19. माता, पिता तथा अपने पुण्य एवं यशोवृद्धि के लिये, परोक्ष फल स्वीकार कर चन्द्र-सूर्य-पृथ्वी-सागर 17.. For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमार भोजदेव का बांसवाड़ा ताम्रलेख 291 20. की उम्र तक के लिये परम भक्ति से शासन ने जल छोड़कर दी है। अतः 21. वहां के निवासी लोग, यह आज्ञा मानकर देय भाग, भूमिकर, स्वर्ण आदि 22. सब कुछ इसे ही प्रदान करें। और इस पुण्य के फल को सामान्य समझकर हमारे वंश में उत्पन्न तथा अन्य 23. भावी भोक्ता भी, हमारे द्वारा प्रदत्त धार्मिक दान को स्वीकृति देकर (उसका) पालन करें। कहा भी है24. सगर आदि बहुत से राजाओं ने पृथ्वी का भोग किया। भूमि जब जब जिसके पास रही तब तब उसे फल मिला। 5 पहले के नृपों ने जो धर्म, अर्थ तथा यश के विधायक दान किये, निर्माल्य अथवा कै के समान 26. उन्हें कौन सज्जन पुनः लेगा? 6 हमारे वंशक्रम के उदार नियम मानने वाले (हमारे वंशज) तथा अन्य भी 27. इस दान का अनुमोदन करें। बिजली तथा जल के बुदबुदे के समान चंचल लक्ष्मी का फल दान तथा परकीर्ति का पालन करने में है। 7 28. रामभद्र सारे भावी नृपों से बार-बार याचना करता है कि सब राजाओं के लिये सामान्य धर्म सेतु है। आपको समय-समय पर इसका पालन करना चाहिये। 8 इस प्रकार लक्ष्मी तथा मानव जीवन को पत्र पर रखे जलबिन्दु सा चञ्चल समझ कर एवं विचार कर 31. यह सब कुछ कहा गया है कि लोगों को चाहिये कि वे परकीर्ति नष्ट न करें।9 संवत् 1076 माघ शुदि (शुक्ल) 5 32. स्वयं (राजा) ने आज्ञा (दी)। मंगल और महाश्री हो। यह (ताम्रपत्र द्वारा निर्दिष्ट दान) श्री भोजदेव के अपने हाथ (से दिया गया)। For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदयपुर-प्रशस्ति उदयपुर-विदिशा, मध्यप्रदेश भाषा-संस्कृत लिपि-ग्यारहवीं सदी की उत्तर भारतीय प्राचीन नागरी ओं नमः शिवाय। गंगावु संसिक्तभुजंगमालमाले कलेन्दोरमलां कराभा। यन्मूनि नने हितकल्पवल्लया भातीव भूत्यै स तवास्तु शंभुः।। 2. सानंदनंदिकरसुंदरसांद्रनांदी नादेन तुंवुरुमनोरमगान मानैः। (नृत्यं त्यवस्य(श्य )मनि(शं )सुरवासवेस्या( श्याः यस्याग्रतो भ3. वतु वः स सि (शिवः शिवाय।। 2॥ मूद्धस्थिता( भ्रसरितोक्ष)मयेव सं(शं)भोरुद्धांगमंगघटनाह्वनमाश्रयंती। दृष्ट्वात्मनाथवस(श) तांसकलांगतुष्टा पुष्टिं नगेंद्रतनयाभवतां विदध्यात्।। गणेशो (वः) सु(खाया )स्तु निशातः परशुः करे। यस्य नम्रघनावद्यकंदोच्छित्त्या इवोद्यतः॥4॥ अस्त्युव्वर्वीधः प्रतीच्यां हिमगिरितनयः सिद्धदंपत्यसिद्धे दां) स्थानं च ज्ञानभाजामभिमतफलदोऽखवितः सोऽव॒दाख्यः। विश्वामित्रो वसिष्ठादहरत वाल तो यत्र गां तत्प्रभावाज्जज्ञे वीरोग्निकुंडाद्रिपुवलनिधनं य1. ए.इ० भाग 1, पृ. 222-238 292 For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 293 क उदयपुर-प्रशस्ति 7. श्चकारैक एव॥5॥ मारयित्वा परान्धेनुमानिन्ये स ततो मुनिः। उवाच परमारा( ख्यः पार्थिवेंद्रो भविष्यसि॥6॥ तदन्ववायेऽखिलयज्ञसंघतृप्तामरोदाहृतकीर्तिरासीत्। उपेन्द्रराजो द्विजवर्गरत्नं सौ(शौर्याजितोत्तुंगनृपत्व(मा)नः॥ तत्सूनुरासीदरिराजकुंभिकंठीरवो9. वीर्यवतां वरिष्ठः। श्रीवैर( रि )सिंहचतुरर्णवान्तधात्र्यां जयस्तम्भकृतप्रशस्तिः॥8॥ तस्माद्बभूव वसुधाधिपमौलिमालारत्नप्रभारुचिररं10. जितपादपीठः। श्रीसीयकः करकृपाणजलोमिमग्न स(शत्रुव्रजो विजयिनां धुरि भूमिपालः।७॥ तस्मादवन्तितरुणीनय11. नारविन्दभास्वानभूत्करकृपाणमरीचिदीपः। श्रीवाक्पतिः स(श )तमखानुकृतिस्तुरंगा गंगासमुद्रसलिलानि पिबंति यस्य॥10॥ 12. जातस्तस्माद्वैरिसिंहोन्यनाम्ना लोको ब्रूते (वज्रट )स्वामिनं यं। शत्रोर्वर्गं धारयासेनिहत्य श्रीमद्धारा सूचिता येन राज्ञा॥ तस्मा13. दभूदरिनरेस्वर श्व)रसंघसेवा (नाग द्गजेन्द्ररवसुंदरतूर्यनादः। श्रीहर्षदेव इति खोट्टिगदेवलक्ष्मी जग्राह यो युधि नगादसमप्रताप:12॥ पुत्रस्तस्य वि( भू )षिवा( ता )खिलधराभोगो गुणैकास्पदं सौ (शौ )र्याक्रान्तसमस्तस(शत्रुविभवाधिव्याद्य (न्याय्य) वित्तोदयः। वक्तृत्वो For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 294 प्राचीन भारतीय अभिलेख 15. च्चकवित्वतर्ककलनप्रज्ञातशा (स्त्रा )गमः श्रीमद्वाक्पतिराजदेव इति यः सद्भिः सदा कीर्त्यते ॥13॥ कर्णाटलाटकेरल 16. चोलशिरोरत्नरागिगपदकमलः । www. kobatirth.org यश्च प्रणयिगणार्थितदाता कल्पद्रुमप्रख्यः ॥14॥ युवराजं विजित्याजौ हत्वा तद्वा 17. हिनीपतीन्। खड्गमूर्ध्वकृतं येन त्रिपूर्यां विजिगीषुणा ||15|| तस्यानुजो निर्ज्जितहूणराजः श्रीसिंधुराजो विजयार्जितश्रीः । 18. श्रीभोजराजोजनि येन रत्नं नरोत्तमाकम्पकृदद्वितीयं ॥16॥ आकैलासान्मलयगिरितोऽस्तोदयाद्रिद्वयादाभुक्ता पृथ्वी पृथु19. नरपतेस्तुल्यरूपेण येन । उन्मूल्योf भरगुरु ( ग )णा लीलया चापयज्या ( यष्ट ) क्षिप्ता दिक्षु क्षितिरपि परां प्रीतिमापादिता च ॥17॥ साधितं विहितं दत्तं 20. ज्ञातं तद्यन्न केनचित् । 21. ष्कान् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किमन्यत्कविराजस्य श्रीभोजस्य प्रशस्यते ॥18॥ चेदीश्वरेंद्ररथ (तोग्ग) ल ( भीममु ) ख्यान् कर्णाटलाटपतिगुर्जरराट्तुरु 22. सत्कैः । यद्भृत्यमात्रविजितानवलोक्य) मौला दोष्णां वलानि कलयंति न ( योद्ध ) लोकान् ॥19॥ केदाररामेस्व(श्व )रसोमनाथ( मुं)डीरकालानलरुद्र - - सुराश्र ( यै )र्व्याप्य च यः समन्ताद्यथार्थसंज्ञां जगतीं चकार ॥20॥ तत्रादित्यप्रतापे गतवति सदनं स्वर्गिणां भर्गभक्ते व्याप्ता धारेव धात्री रिपुति For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 295 उदयपुर-प्रशस्ति 23. मिरभरैम्मौललोकस्तदाभूत्। विश्व( सस्)तांगो निहत्योद्भटरिपुति( मिरभ )रं खड्गदंडांसुजालैरन्यो भास्वानिवोद्यन्धुतिमुदितजनात्मोदयादित्यदेवः।1॥ येन धरणीवराहः परमारेणो( द्धतो) निरायासा( त्)। (तस्यैतस्या भू )मेरुद्धारो वत कियन्मात्रः।22॥ (कुंवान्य-) तवाजिव्रजरु. . . . 1. ओम् । शिवजी को प्रणाम। सर्प की क्यारी में गंगाजल से सींचे गये कालेन्दु के विमल अंकुर की आभा जिसके सिर पर झुकी हुई कल्पलता सी लगती है वह शिव आपको विभूति (प्रवर्धन) कारक हो। सानन्द हर्षकारक सुंदर तथा गम्भीर नन्दी की आवाज के साथ तुंबुरु के मनोरम गीतों पर जिसके समक्ष अप्सराएं निश्चय ही सतत नृत्य करती हैं वह शिव आपके लिये कल्याणकारी हो। 2 सिर पर स्थित आकाशगंगा तथा वृषभ से युक्त शिव की अर्धांगिनी बनने से उनसे सटी हुई, अपने स्वामी को वशीभूत देखकर अंग अंग से संतुष्ट पार्वती आपका पोषण करे। 3 वह गणेश आपको सुख दे जिसके हाथ में स्थित तेज कुठार नम्र (नीचा) तथा अत्यंत निंद्य (त्याज्य) कर्म रूप कन्द को काटने के लिये जैसे तैयार हो। 4 पश्चिम में हिमालय का पुत्र, सिद्ध-जोड़ों की सिद्धि का स्थान, ज्ञानियों को अभीष्ट फल देने वाला विशाल तथा पूर्ण अर्बुद (आबू) पर्वत है जहां विश्वामित्र ने वशिष्ठ की गाय का अपहरण कर लिया। वसिष्ठ के प्रभाव से अग्निकुण्ड से शत्रुशक्ति को चूर करने वाला एक अद्वितीय वीर उत्पन्न हुआ। 5 7. पर अर्थात शत्रुओं को मारकर वह धेनु ले आया; तब मुनि ने कहा कि तुम परमार नामक राजेन्द्र बनोगे। 6 For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 296 प्राचीन भारतीय अभिलेख 9. उसके वंश में वह उपेन्द्रराज हुआ जो सारे यज्ञों में एकत्र 8. देवसमूह ने जिसकी कीर्ति को उदाहृत किया तथा जिसने अपने शौर्य से श्रेष्ठ नृप का सम्मान प्राप्त किया है एवं जो द्विजवर्ग में श्रेष्ठ है। उसका पुत्र शत्रु नृपरूपी हाथी के लिये वीरों में श्रेष्ठ सिंह श्रीवैरिसिंह हुआ। चारों समुद्रों तक फैली पृथ्वी पर जयस्तम्भ जिसकी प्रशस्ति गा रहे हैं। 8 उसका नृपों की शिरोमाला में लगे रत्नों की कान्ति की मनोरमता से जिसकी चरणचौकी रञ्जित है, हाथ की तलवार से पानी की लहर (धार) में शत्रुसमूह को डुबोने वाला, विजयी नृपों में श्रेष्ठ श्रीसीयक नामक पुत्र हुआ। 9 उससे अवन्ति की ललनाओं के नयन 11. कमल के लिये सूर्य श्री वाक्पति हुआ जो हाथ की खड्ग की किरणों से प्रकाशित है। वह इन्द्र के समान था जिसके अश्वों ने गंगा तथा समुद्र के जल का पान किया। 10 12. उससे वैरिसिंह हुआ। यह उसका दूसरा नाम था। लोग उसे वज्रटस्वामी कहते थे। अपनी कृपाणधार से शत्रुसमूह को मारकर इस राजा ने श्रीमती धारा का नाम सार्थक कर दिया। 11 13. उससे पर्वत से भी प्रतापशाली श्रीहर्षदेव हुआ। शत्रु नृपों के समूह की सेना के गरजते गजों की आवाज ही जिसके लिये मनोरम तूर्यनाद बना और जिसने युद्ध में खोट्टिगदेव की लक्ष्मी का अपहरण कर लिया। 12 उसका पुत्र श्री वाक्पतिराजदेव हुआ जो सारी भूमि के भोग-वलास से विभूषित तथा गुणों का एकमात्र स्थान था। जिसने अपने शौर्य से सारे शत्रुओं के वैभव को जीत लिया तथा न्यायतः जिसने अर्थोपार्जन किया है। भाषण, वाक्चातुर्य, कवित्व, तर्क,शास्त्र तथा धार्मिक ग्रंथों के ज्ञान आदि विशेषताओं के कारण जिसका सज्जनों के द्वारा सदा गुणगान किया जाता है। 13 जिसके चरणकमल कर्णाट, लाट, केरल तथा चोल नृपों की चूडामणि से रञ्जित हैं तथा जो अपने स्नेही एवं प्रार्थीजनों को इतना देता है कि वह कल्पद्रुम कहलाने लगा। 14 16. For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदयपुर-प्रशस्ति 297 17. 19. युद्ध में युवराज को जीतकर एवं उसके सेनापतियों का वधकर उस विजय के अभिलाषी ने त्रिपुरी में अपनी तलवार ऊंची की। 15 हूणराज को जीतने वाले उसके अनुज श्री सिन्धुराज ने विजय से लक्ष्मी प्राप्त की। जिसने नरोत्तमों को आकपित करने वाले रत्न श्री भोजराज को उत्पन्न किया। 16 कैलास से मलयगिरि तक तथा अस्ताचल से उदयाचल तक, राजा पृथु के समान जिसने पृथ्वी का भोग किया। अपने धनुष से पृथ्वी के भार स्वरूप भारी गिने जाने वालों को भी अनायास विनष्ट कर विभिन्न दिशाओं में फेंक दिया, जिससे पृथ्वी भी अत्यंत प्रसन्न हुई। 17 भोज ने जो साधा, अनुष्ठान किया, प्रदान किया एवं ज्ञात किया-वह किसी ने भी नहीं किया। कविराज श्रीभोज की और क्या प्रशस्ति की जाय? 18 चेदी के स्वामी, इन्द्ररथ, तोग्गल, भीम आदि मुख्य नृपों को तथा कर्णाट, लाट के स्वामी, गुर्जर के राजा एवं तुरुष्क (तुर्क) आदि उसके मौल (पारंपरिक) सेवकों द्वारा ही पराजित कर दिये गये। 19 केदार, रामेश्वर, सोमनाथ, मुण्डीर', कालानल रुद्र के सुंदर देवालयों को सर्वत्र व्याप्त (बनवा) कर जिसने जगती (भवन के आधारों से युक्त कर जगत्) को सार्थक कर दिया। 20 उस आदित्यप्रताप शिवभक्त के देवलोक सिधारने पर धारा का कुलागत क्षेत्र शत्रु रूपी अंधकार से आवृत हो गया। शिथिल (दुर्बल सैन्य) अंगों से प्रबल शत्रुरूपी अंधकार को खड्ग (दण्ड) धारा की किरण जाल से विनष्ट कर अपने प्रताप से लोगों को प्रसन्न करता हुआ अन्य सूर्य के समान उदयादित्यदेव का उदय हुआ। 21 जिस परमार ने धरणीवराह को अनायास उखाड़ फेंका उसके लिये इस भूमि का उद्धार कौन सी बड़ी बात है। 22 शत्रुओं के अश्व-समूह - - - - - | 21. 23. 1. मुण्डीरपत्तन के उल्लेख जैन हरिवंशपुराण में हैं। For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख देवपाड़ा-(जिला--राजशाही, बंगाल) भाषा-संस्कृत लिपि-नागरी-11वीं सदी का अंत ओं ॥ ॐ नमः शिवाय॥ वक्षोंशुकाहरणसाध्वसकृष्टमौलिमाल्यच्छटाहतरतालयदीपभासः। देव्यास्त्रपामुकुलितं मुखमिन्दुभाभिर्वीक्ष्याननानि हसितानि जयन्ति शम्भोः॥ [1] लक्ष्मीवल्लभशैलजादयितयोरद्वैतलीलागृहं प्रद्युम्नेश्वरशब्दलाञ्छनमधिष्ठानं नमस्कुर्महे। यत्रालिङ्गनभङ्गकातरत[ या ] स्थित्वान्तरे कान्तयोईवीभ्यां कथमप्यभिन्नतनुताशिल्पेऽन्तरायः कृतः॥ [2] यत्सिंहासनमीश्वरस्य कनकप्रायं जटामण्डलं गङ्गाशीकरमञ्जरीपरिकरैर्यच्चामरप्रक्रिया। श्वेतोत्फुल्लफणञ्चल: शिवशिरः सन्दानदामोरगछत्रं यस्य जयत्यसावचरमो राजा सुधादीधितिः॥ [3] वंशे तस्यामरस्त्रीवि 1. ए.इ० भाग 1, पृ. 305 298 For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 299 4. ततरतकलासाक्षिणो दाक्षिणात्य क्षोणीन्द्रवीरसेनप्रभृतिभिरभितः कीर्तिमद्भिर्ख( ब )भूव। यच्चारित्रानुचिन्तापरिचयशुचयः सूक्तिमाध्वीकधाराः पाराशर्येण विश्वश्रवणपरिसरप्रीणनाय प्रणीताः॥ [4] तस्मिन् सेनान्ववाये प्रतिसुभटशतोत्सादनव( ब )ह्यवादी स व्र(ब्रह्मक्षत्रियाणामजनि कुलशिरोदाम सामन्तसेनः। उद्गीयन्ते यदीयाः स्खलदुदधिजलोल्लोलशीतेषु सेतोः कच्छान्तेष्वप्सरोभिईशरथतनयस्पर्द्धया युद्धगाथा ॥[5] . यस्मिन् सङ्गरचत्वरे पटुरटत्तूर्योपहूतद्विषद्वगर्गे येन कृपाणकालभुजगः खेलायितः पाणिना। द्वैधीभूतविपक्षकुञ्जरघटाविश्लिष्टकुम्भस्थलीमुक्तावस्थूलवराटिकापरिकरैळ्याप्तं तदद्याप्यभूत्। [6] गृहाद्गृहमुपागतं व्रजति पत्तनं पत्तनाद्वनाद्वनमनुद्रुतं भ्रमति पादपं पादपात्। गिरेगिरिमधिश्रितन्तरति तोयधिन्तोयधेर्यदीयमरिसुन्दरीसरकष्ठलग्नं यशः॥ [7] दुर्वृत्तानामयमरि8. कुलाकीर्णकर्णाटलक्ष्मी लुण्टाकानां कदनमदतनोत्तादृगेकाङ्गवीरः। यस्मादद्याप्यविहतवसामान्समेदः सुभिक्षा हृष्यत् पौरस्त्यजति न दिशं दक्षिणां प्रेत भर्ता॥ [8] उद्गन्धीन्याज्यधूमैर्मृगशिशुरसिताखिन्नवैखानसस्त्रीस्तन्यक्षीराणि कीरप्रकरपरिचितब(ब्रह्मपारायणानि। येनासेव्यन्त शेषे वयसि भवभयास्कन्दिभिर्मस्करीन्द्रैः For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 300 10. प्राचीन भारतीय अभिलेख पूर्णोत्सङ्गानि गङ्गापुलिनपरिसरारण्यपुण्याश्रमाणि॥ [9] अचरमपरमात्मज्ञानभीष्पादमुष्मानिजभुजमदत्तारातिमाराङ्कवीरः। अभवदनवसानोद्भिननिर्णिणक्ततत्तद्गुणनिवहमहिम्नां वेश्म हेमन्तसेनः॥ [10] मूर्द्धन्यर्द्धन्दुचूडामणिचरणरजः सत्यवाक्कण्ठभित्तौ शास्त्रं श्रोत्रेरिकेशा: पदभुवि भुजयोः क्रूरमौवींकिणाङ्कः। नेपथ्यं यस्य जज्ञे सततमियदिदं रत्नपुष्पाणि हारास्ताडवं नूपुरस्रक्कनकवलयमप्यस्य भृत्याङ्गनानाम्॥ [11] यद्दोल्लिविलासलबध(ब्ध गतिभिः शल्यैर्व्विदीर्णोरसां 12. वीराणां रण[ ती ]र्थवैभववशादिव्यं वपुर्वि( बि )भ्रताम्। संसक्तामरकामिनीस्तनतटीकाश्मीरपत्राङ्कितं वक्षः प्रागिव मुग्धसिद्धमिथुनैः सातङ्कमालोकितम्॥ [12] प्रत्यर्थिव्ययकेलिकर्मणि पुरः स्मेरं मुखं वि( बि)भ्रतोरे13. तस्यैतदसेच कौशलमभूहाने द्वयोरद्भुतम्। शत्रोः कोपि दधेऽवसादमपरः सख्युः प्रसादं व्यधादेको हारमुपाजहार सुहृदामन्याः प्रहारं द्विषाम्।। [13] महाराज्ञी यस्य स्वपरनिखिलान्तःपुरवधू14. शिरोरत्नश्रेणीकिरणसरणिस्मेरचरणा। निधिः कान्ते [:] साध्वीव्रतविततनित्योज्ज्वलयशा यशोदेवी नाम त्रिभुवनमनोज्ञाकृतिरभूत्॥ [14] ततस्त्रिजगदीश्वरात्समनिष्ट देव्यास्ततो प्यरातिव(ब) लशातनोज्ज्व15. लकुमारकेलिक्रमः। चतुजलधिमेखलावलयसीमविश्वम्भराविशिष्टजयसान्वयो विजयसेनपृथ्वीपतिः॥ [15] For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 301 16. गणयतु गणशः को भूपतींस्ताननेन प्रतिदिनरणभाजा ये जिता वाहता वा। इह जगति विषेहे स्वस्य वंशस्य पूर्वः पुरुष इति सुधांशो केवलं राजशब्द(ब्द):॥ [16] संख्यातीतकपीन्द्रसैन्यविभुना तस्यारिजेतुस्तुलां किं रामेण वदाम पाण्डवचमूनाथेन पार्थेन वा। हतोः खङ्गलतावतंसितभुजामात्रस्य येनार्जितं सप्ता17. म्भोधितटीपिनद्धवसुधाचक्रैकराज्यं फलम्॥ [17] एकैकेन गुणेन यैः परिणतं तेषां विवेकादृते कश्चिद्धन्त्यपरश्च रक्षति सृजत्यन्यश्च कृत्स्नं जगत्। देवोयं तु गणैः कृतो व(ब)हुतिथे(मान् जघान द्विषो वृत्तस्थानपुपच्चक्वार च 18. रिपूच्छेदेन दिव्याः प्रजाः॥ [18] दत्त्वा दिव्यभुवः प्रतिक्षितिभृतामुर्तीमुरीकुता वीरासृग्लिपिलाञ्छितोऽसिरमुना प्रागेव पत्नीकृतः। नेत्थं चेत् कथमन्यथा वसुमती भोगे विवादोन्मुखी तत्राकृष्टकृपाणधारिणि गता भङ्गं द्विषां सन्ततिः॥ [19] त्वं नान्यवीर विजयीति गिरः कवीनां श्रुत्वा ऽन्यथामननरुढनिगूढरोषः। गौडेन्द्रमद्रवदपाकृतकामरूपभूपं कलिङ्गमपि यस्तरसा जिगाय॥ [20] शूरंमन्य इवासि नान्य किमिह स्वं राघव श्लाघसेस्प20. वर्द्धन मुश्च वीर विरतो नाद्यापि दर्पस्तव। इत्यन्योन्यमहर्निशप्रणयिभिः कोलाहलैः माभुजां यत्कारागृहयामिकैनियमितो निद्रापनोदक्लमः।। [21] पाश्चात्यचक्रजयकेलिषु यस्य यावद्गङ्गाप्रवाहमनुधावति For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 302 प्राचीन भारतीय अभिलेख नौविताने। भर्गस्य मौलिसरिदम्भसि भस्मपङ्कलग्नोज्झितेव तरिरिन्दुकला चकास्ति। [ 22 ] मुक्ताः कर्पासवीजैमरकतशकलं शाकपत्रैरलावू (बू)पुष्पै रूप्याणि रत्नं परिणतिभिदुरैः कुक्षिभिर्दाडिमानाम्। कुष्माण्डीवल्लरीणां वि22. कसितकुसुमैः काञ्चनं नागरीभिः शिक्ष्यन्ते यत्प्रसादाद्वरद्ध )हुविभवजुषां योषितः श्रोत्रियाणाम्॥ [23] अश्रान्तविश्राणितयज्ञयूपस्तम्भावली द्रागलम्बव( म्व)मानः। यस्यानुभावाद्भुवि सञ्चचार कालक्रमादेकपदोपि धर्मः॥ [24] मेरोरा23. हतवैरिसङ्घलतटाहाहूय यज्वामरान् व्यत्यासं पुरवासिनामकृत यः स्वर्गस्य मर्त्यस्य च। उत्तुङ्गैः सुरसह्यभिश्च विततैस्तल्लैश्च शेषीकृतं चक्रे येन परस्परस्य च समं द्यावापृथिव्योर्ध्वपुः।। [25] दिक्शाखामूलकाण्डं गगगनतलम24. हाम्भोधिमध्यान्तरीयं भानोः प्राक्प्रत्यगद्रिस्थितिमिलदुदयास्तस्य मध्याह्नशैलम्। आलम्व( म्ब )स्तम्भमेकं त्रिभुवनभवनस्यैकशेषं गिरीणां स प्रद्युम्नेश्वरस्य व्यधित वसुमतीवासवः सौधमुच्चैः।। [26] प्रासादेन तवामुनैव हरितामध्वानिरुद्धो मुधा भानोद्यापि कुतोस्ति दक्षिणदिशः कोणान्तवासी मुनिः। अन्यामुच्छपथोयमृच्छतु दिशं विन्थ्योप्यसौ वर्द्धतां यावच्छक्ति तथापि नास्य पदवीं सौधस्य गाहिष्यते॥ [27] स्रष्टा यदि प्रक्ष्यति भूमिचक्रे सुमेरुभृपिण्डविव For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 26. र्त्तनाभिः । तदा घटः स्यादुपमानमस्मिन् सुवर्णकुम्भस्य तदर्पितस्य ॥ [ 28 ] वि(बि)लेशयविलासिनीमुकुटकोटिरलाङ्कर स्फुरत्किरणमञ्जरीच्छुरितवारिपूरं पुरः । चखान पुरवैरिणः स जलमग्न 27. पौराङ्गना www. kobatirth.org 28. जोस्याक्षयां स्तनैणमदसौरभोच्चलितचञ्चरीकं सरः ॥ [ 29 ] उच्चित्राणि दिगम्ब (म्व ) रस्य वसनान्यर्द्धाङ्गनास्वामिनो रत्नालंकृतिभिर्व्विशेषितवपुः शोभा शतं सुभ्रवः । पौराढ्याश्च पुरीः श्मशानवसतेर्भिक्षाभु 29. सः कातमुक्ता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्मीं स व्यतनोद्दरिद्रभरणे सुज्ञो हि सेनान्वयः । [30] चित्रक्षोभ हृदयविनिहितस्तथलहारोरगेन्द्रः श्रीखण्डक्षोदभस्मा करमिलितमहानीलरत्नाक्षमालः । वेषस्तेनास्य तेने गरुडमणिलतागोन 30. परं नेपथ्यन्नस्थिरिच्छासमुचितरचनः कल्पकापालिकस्य ॥ [31] वा (बा) हो: केलिभिरद्वितीयकनकछत्त्रं धरित्रीतलं कुर्व्वाणेन न पर्यशेषि किमपि स्वेनैव तेनेहितम् । किन्तस्मै दिशतु प्रसन्नवरदोप्यर्द्धेन्दुमौलिः स्वं सायुज्यमसावपश्चिमदशाशेषे पुनर्द्धास्यति ।। [32] प्रस्तोतुमस्य परिश्चरितं क्षमः स्यात् प्राचेतसो यदि पराशरनन्दनो वा । तत्कीर्त्तिपूरसुरसिन्धुविगाहनेन वाचः पवित्रयितुमत्र तु नः प्रयत्नः ॥ [33] यावद्वास्तस्पति For Private And Personal Use Only 303 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 304 प्राचीन भारतीय अभिलेख 32 31. पुरधनी भूर्भुवः स्वः पुनीते यावच्चान्द्री कलयति कलोत्तंसतां भूतभर्तुः। यावच्चेतो गमयति सतां श्वेतिमानं त्रिवेदी तावत्तासां रचयतु सखी तत्तदेवास्य कीर्तिः॥ [34] निर्षिणक्तसेन कुलभूपतिमौक्तिकानाग्रन्थिलग्रथनपक्ष्मलसूत्रवल्लिः । एषा कवेः पदपदार्थविचारशुद्धवु (बु)द्धेरुमापतिधरस्य कृतिः प्रशस्तिः ॥ [35] धर्म ] प्रणप्ता मनदासनप्ता वृ(बृहस्पतेः सूनुरिमां प्रशति ।] चखान वारेन्द्रकशिल्पिगोष्ठीचूडामणी राणकशूलपाणिः॥[36] ओम्! ओम् शिव को प्रणाम। वक्ष के वसन (कञ्चुकी) को खींचने से जल्दी से खींची गयी सिर की माला की छटा से कामभवन की दीपकान्ति हतप्रभ हो गयी। ऐसी देवी (पार्वती) के लज्जा से मुकुलित मुख को चन्द्र की कान्ति में देख जिनके मुख मुस्कुरा उठे, उन शम्भु की जय हो। 1 लक्ष्मी के प्रिय 2. तथा पार्वती के प्रिय के एक ही लीलासदन रूप अधिष्ठान को हम प्रणाम करते हैं। जो प्रद्युम्नेश्वर (हरिहर) शब्द से पुकारे जाते हैं जो दोनों देवियों के एक ही शरीर के धारण करने के सम्बन्ध में आपत्ति करने पर आलिङ्गन-भङ्ग की परेशानी से दोनों कान्ताओं के मध्य स्थित कर किसी प्रकार शिल्प में एक शरीर के रूप में प्रस्तुत किया। 2 उस प्रथम राजा, चन्द्रमा की जय हो जिसके लिये शिव का स्वर्णिम जटा समूह सिंहासन है, गंगा के छीटोंके फुहार-समूह जिसके चामर का काम देते हैं, तथा जिसका श्वेत तथा फैले हुए फण से युक्त डोलते हुए, शिव जी के सिरों का शृंखला (डोरी) रूप सर्प का छत्र है। 3 उस (चन्द्र) वंश में देवाङ्गनाओं की 4. विपुल कला के साक्षी, दक्षिण देश के वीरसेन आदि कीर्ति सम्पन्न नृप हुए For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 305 5. जिनके चरित्र-चिन्तन के परिचय से शुद्ध, सदुक्ति की (मधूक अथवा अंगूर से निर्मित) मदिरा-धारा का प्रणयन, जगत् के कानों को प्रसन्न करने के लिये, पाराशर्य (कवि) ने किया।4उसी सेन वंश में एक-एक बार में सौ-सौ योद्धा मारने के साथ ही वेद तथा वेदान्त का ज्ञाता ब्राह्मण तथा क्षत्रिय (ब्राह्मक्षत्र) कुलश्रेष्ठ सामन्तसेन हुआ। जिसके बहते सागर-जल की चञ्चल लहर के शीतलता से युक्त सेतु के छोर पर अप्सराएं राम से स्पर्धा करने युद्ध की गाथा गाती रहती हैं। 5 जिस समराङ्गण में तेज आवाज वाली दूरी से बुलाये गये शत्रु समूह में, जिसके हाथ ने कृपाण रूपी कालसर्प को खेलाया। शत्रुओं के गज समूह के टूटकर दो भागों में विभाजित होने शिरोभाग से निकले वे मोती तथा मोटी कौड़ियों से अब भी व्याप्त हो रहे हैं। 6 जिसकी शत्रुललनाओं के पथ (अथवा पानपात्र के पृष्ठ) पर हुआ उसका यश घर-घर गया, नगर-नगर, वन-वन दौड़ा, तरु तरु पर घूमा, पर्वत-पर्वत पर टिका तथा सागर-सागर में तैरा। 7 शत्रु-समूह से घिरी कर्णाट की राज्यलक्ष्मी के दुष्ट लुटेरों के विनाश का अहंकार करने वाला यही अद्वितीय वीर हुआ। इसलिये सतत चर्बी, मांस आदि स्वादु भोजन (भिक्षा) से प्रसन्न हो यमराज दक्षिण दिशा को नहीं छोड़ता है। 8 घृत के धूम से सुर्गा धत, नृगशावक में मन लगाये प्रसन्न तापसियों के स्तन के दूध से युक्त, शुक समूह को कण्ठस्थ वेद पारायण से युक्त, गंगातट जीवन को समीपवर्ती पवित्र आश्रमों से पूर्ण उत्संग का जिसने अपने अवशिष्ट जीवन को संसार के भय से त्रस्त श्रेष्ठ सन्यासियों के साथ सेवन किया। 9 10. से, अपनी भुजा से, मद मत्त शत्रु मार (काम) नामक वीर, (अथवा आरातिमार विरुदधारी) वीर अनंत अंकुरित विशुद्ध गुण समूह का महिमाशाली सदन हेमन्तसेन हुआ। 10 सिर पर, अर्धचन्द्र की चूडामणि वाले (शिवजी) की चरणधूलि, कण्ठ की दीवाल पर सत्यवाणी, कानों में शास्त्र (ध्वनि), 9. For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 306 प्राचीन भारतीय अभिलेख 12. 11. पदतल में शत्रुओं के केश, भुजाओं पर कठोर प्रत्यञ्चा के आघात का चिह्न जिसके प्रसाधन ज्ञात थे तथा रत्नपुष्प, हार, ताटंक (बाली), नूपुर, माला, सुवर्ण-कङ्गन आदि तो सेवकों की स्त्रियों के आभूषण थे (उसके नहीं)। जिसकी भुजलता के विलास से गति पाये हुए तीरों ने वीरों के वक्ष विदीर्ण कर दिये। (और उस) रण के तीर्थ के वैभव से वह दिव्य शरीर से शोभित था। मुग्ध-सिद्ध युगल पूर्ववत् यह देखकर परेशान हो गया कि आलिंगत देवांगना के स्तनतट पर अंकित केसर के पत्र से इसका वक्ष अंकित है। 12 शत्रुओं के विनाश के क्रीड़ा कर्म में 13. इस मुस्कुराते मुख वाले नप के खड्ग दान में दोनों (भुजा) का अद्भुत कौशल रहा। एक शत्रु को दुःख देने में लगा रहा तो अन्य अपने मित्रों को प्रसन्न करने में। एक ने मित्रों को हार पहनाया तथा दूसरे ने शत्रुओं पर प्रहार किया। 13 जिसकी महारानी के चरण, अपने तथा पराये (शत्रुओं के) अन्तःपुर की वधुओं के 14. सिर के रत्नसमूह की किरणशृंखला से मुस्कुराते रहते हैं। वह कान्ति की निधि, साध्वी के व्रत का पालन करने से नित्य उज्ज्वल यश पाने वाली, तीनों लोक में सबसे मनोज्ञ आकृति से सम्पन्न तथा नाम से यशोदेवी थी। 14 उस त्रिलोक के स्वामी तथा उस देवी से राजा विजयसेन उत्पन्न हुआ जिसने बालक्रीडा के क्रम को शत्रुसेना के विनाश से उज्ज्वल बना लिया था। चारों सागर की करधनी से वलयित सीमा वाली पृथ्वी पर विशेष विजय प्राप्त करने वाले कुल से वह सम्पन्न था। 15 श्रेणि के खेड़ों अथवा दलों में उन नृपों की गिनती कौन करे जो इसके नित्य रण में जाने पर जीते गये अथवा मारे गये। यह प्रतिदिन रण में लगा रहता था। इस जगत् में 16. अपने चन्द्र वंश के पूर्व पुरुष 'राज' शब्द को पाया। (वस्तुतः राजा तो यही था।) 16 15. For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 307 17. 18. उस शत्रुविजेता को, अगणित वानरेन्द्र की सेना के स्वामी राम के समान कहें अथवा पाण्डव-सेना के स्वामी युधिष्ठिर के समान। उस हन्ता ने केवल खड्गलता से शोभित भुजा से ही सात समुद्र के तटों से घिरी वसुधा के क्षेत्र पर ऐकाधिराज्य (चक्रवर्तित्व) का फल प्राप्त कर लिया। 17 विवेकाभाव में अन्य एक-एक ही गुण प्राप्त कर रह गये। कोई मारता है, कोई रक्षा करता है तथा अन्य सारे जगत् का सृजन करता है। इस मेधावी नृदेव ने तो अपने अनेक गुणों से शत्रु का विनाश करके प्रजा को जीवन (स्थान) दिया तथा उसका पोषण भी किया। 18 जिसने स्वयं पृथ्वी स्वीकार कर विरोधों नृपों को देवभूमि प्रदान की। वीरों के रुधिर की लिपि से अंकित खड्ग को इसने पहले ही पत्र बना लिया। यदि ऐसा नहीं होता तो भूमि के भोग में विवाद उत्पन्न होने पर खींची हुई तलवार धारण करने वाली शत्रुओं की सन्तति विनष्ट कैसे होती? 19 तू अनन्य वीर और विजेता है' कवियों की यह वाणी सुनकर वह मन में पैठी इस अनपेक्षित बात पर मनन करता हुआ अत्यंत क्रुद्ध हो उठा तथा गौड के स्वामी एवं मद्र के समान कामरूप के राजा को हटाकर उसने कलिंग को भी एकदम जीत लिया। 20 हे अनन्य! स्वयं को सूरमा जैसा मानते हो! राघव! अपनी प्रशंसा स्वयं क्यों कर रहे हो! वर्धन! स्पर्धा छोड़। वीर! तेरा गर्व अब तक शान्त नहीं हुआ। इस प्रकार कारागृह के पहरेदार स्नेही आपस में कोलाहल से नियमतः नपों की नींद हरामकर उन्हें थकाते (परेशान करते) रहते हैं। पाश्चात्य देशों को जीतने के खेल में तब तक उसके नौ-वितान (नौकाओं के बेड़े) गंगा की धारा में दौड़ने लगे। शिव के सिर के सरित् (गंगा) जल में भस्म कीचड़ छोड़ती चन्द्रकला सी नौका शोभित होती है। 22 जिसकी कृपा से अमिट वैभवशाली श्रोत्रिय (वेदज्ञ) की कान्ताओं की नागरियां कंपास के बीज से मोती, शाक के पत्तों (धनिया) से मरकत का टुकड़ा, लौकी के फूलों से चांदी, अन्तिम समय में मध्य से फटने वाले दाडिम से रत्न, तूमडी (कुम्हडा) की बेल के खिले पुष्पों से स्वर्ण की सीख देती हैं। 23 20. For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 308 प्राचीन भारतीय अभिलेख 23. सतत अर्पित यज्ञयूप की स्तम्भावली का तुरंत आश्रय लेकर, जिसके गौरव से कालक्रम से एक चरण वाला धर्म की पृथ्वी पर घूम लिया। 24 24. घायल (या मारे गये) शत्रु समूह से पटे हुए मेरु पर्वत के तट से देवताओं का यज्ञ के द्वारा आहार कर नगरवासियों के लिये जिसने स्वर्ग तथा मृत्युलोक (के निवासियों) में वैपरीत्य उपस्थित कर दिया। 24 देवताओं के योग्य विस्तृत तथा समुन्नत तल (मंजिलों) का निर्माण कर जिसने स्वर्ग तथा पृथ्वी का शरीर आपस में एक-सा कर उनका भेद समाप्त कर दिया। 25 उस भूमिपति ने प्रद्युम्नेश्वर का समुन्नत सौध (मंदिर) बनवाया। जो दिशा रूपी शाखा का मूलभाग, आकाश 24. रूपी महासागर के मध्य तक पहुंचने वाला (अन्तरीप) भूभाग (अथवा अधोवस्त्र), सूर्य के उदयाचल एवं अस्ताचल की स्थिति को मिलाता हुआ उदयास्त के बीच मध्याह्न पर्वत, त्रिभुवन के भवन का गिरितुल्य अद्वितीय एकमात्र अवशिष्ट (प्रमुख) आश्रयस्तम्भ है। 26 तेरे इस प्रासाद ने सूर्य के अश्वों का पथ 25. व्यर्थ ही रोक कर उस बेचारे (सूर्य) मुनि को अब तक दक्षिणदिशा के कोने के छोर का निवासी बना रखा है। अन्य दिशा के समुन्नत पथ से जाकर विन्ध्य अपनी शक्तिभर बढ़ता रहे। फिर भर इस मंदिर की ऊंचाई (की बराबरी) वे नहीं पा सकेंगे। 27 यदि विधाता भूमि के चक्र पर सुमेरु पर्वत के पिण्ड को घुमाकर निर्माण करे तब (वह) घड़ा उसे अर्पित इस स्वर्णकुम्भ का उपमान हो सकता है। 28 सर्प सी विलासिनी के मुकुट के छोर पर जड़े (करोड़ों) रत्नों के अंश के समान चमकती किरण रूपी मञ्जरी से युक्त जलभरा उसने (शिवजी) शत्रुओं के सामने ही तालाब खुदवाया जो 27. नागरियों के स्तन पर लगी कस्तूरी की सुगन्ध से भौंहे सा विचलित हो रहा है। 29 अर्धनारीश्वर दिगम्बर के विचित्र वस्त्र, रत्नालंकारों से अलंकृत शरीर की दोगुनी शोभा प्रवृद्ध वाली नारियां एवं नागरिकों से सम्पन्न इस भिक्षा का भोजन करने वाले शिव की पुरी में 26. For Private And Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विजयसेन का देवपाड़ा शिलालेख 28. www. kobatirth.org 29. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 309 उस सेन कुल के सुवेत्ता ने दरिद्र भरण पोषण करने में अक्षय लक्ष्मी का वितान कर दिया। 30 विचित्र रेशमीवस्त्र तथा गजचर्म से युक्त, हृदय स्थल पर भूमि ( पार्थिव, हीरे-जवाहरात का ) हार तथा सर्पराज, चन्दन का लेप तथा भस्म, हाथ में शोभित महानील (पन्ना) रत्न तथा अक्षमाला, गरुडमणि (पन्ना) की वल्लरी का सर्प चमकदार (मनोरम) मोतियों के शृंगार करते हुए अस्थियों से भी यथेच्छ समुचित शृंगार और इस प्रकार कल्पकापालक (हरिहर) का वेष सजाया गया। 31 खेल-खेल में धरती का अद्वितीय स्वर्ण छत्र अपने बाहु से बनाते हुए जिसके लिये कुछ भी अभीप्सित शेष न बचा। प्रसन्न होकर वरदान देने वाले शिवजी भी उसे क्या वर देंगे? 30. अपने ही समान पूर्ण अमरता उसे देंगे। 32 इसका सम्पूर्ण चरित्र प्रस्तुत करने में या तो वाल्मीकि ही समर्थ हैं अथवा व्यास ही। हमारा प्रयास तो उसकी कीर्ति से पूर्ण गंगा में स्नान कर अपनी वाणी को केवल पवित्र करने के लिये ही है। 33 जब तक वास्तु-देवता ( अथवा इन्द्र) 31. पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्ग के पवित्र भवन को धारण करता है, जब तक चन्द्रकला शिवजी के सिर पर शोभित रहती है, जब तक तीनों वेद सज्जनों का चित्त शुद्ध करते हैं, तब तक इन की सखी, कीर्ति का सतत सृजन होता रहे। 34 निर्मल सेनकुल के नृप - मोक्तिकों की सरल 32. (बिना गांठ की) गूंथने की रोएंदार सूत्रलता ( ग्रन्थन की बरौनी अथवा भौंह वत्) यह प्रशस्तिमयी कृति पद (व्याकरण), पदार्थ (दर्शन) आदि के विचार से विशुद्ध मेधा वाले कवि उमापतिधर ने रची है। 35 For Private And Personal Use Only धर्म के प्रणाती (नाती का पुत्र), मनदास के नाती, बृहस्पती के पुत्र, राणकशूलपाणि ने इस प्रशस्ति को उत्कीर्ण किया, जो वारेन्द्रक (के) शिल्पियों की ( कारीगरों) की गोष्ठी (संघ) में सर्वश्रेष्ठ था। 36 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख' सारनाथ - ( वाराणसी उ०प्र०) भाषा-संस्कृत, लिपि - प्राचीन नागरी ( 12वीं शती) ओं नमो भगवत्यै आर्यवसुधारावै( यै )।। समवतु वसुधारा धर्मपीयूषधारा प्रशमितबहुविश्वोद्दामदुः खोरुधारा । धनकनकसमृद्धिं भूर्भुवः श्वः किरन्ती तदखिलजनदैन्याजयन्ती जगन्ति ॥ ॥ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नैत्रैरुत्कण्ठितानां क्षरणमुपनयंश्चारुचन्द्रोपलानाम्मानग्रन्थिम्बिभिन्दन् सह कुमुदवनीमुद्रया मानिनीनाम् । दग्धन्दग्धेश्वरेणा(म्) तनिकरकरैर्जीवयन् कामदेवं कान्तोयं कौमुदीनां स जयति जगदालोकदीपप्रदीपः ॥12॥ वंशे तस्य नमस्यपौरुषजुषि प्रस्फारकीर्तित्विषि द्राक् शौचेन सुरापगामदमुषि प्रत्यर्थिलक्ष्मीरुषि । वीरो वल्लभराजनामविदितो मान्यः स भूभूजां जेतासीत्पृथुपीठिकापतिरतिप्रौढप्रतापोदयः ॥३॥ 1. छिक्कोरवंशकुमुदोदयपूर्ण श्रीदेवरक्षित इति प्रथितः पृथिव्याम् । पीठीपतिर्व्यजपतेरपि राज्यलक्ष्मीं लक्ष्म्या जिगाय जगदेकमनोहर श्रीः ॥4॥ तस्मादास पयोनिधेरिव विधुल्लावण्यलक्ष्मीविधुत्रानन्दसमुद्रवर्धनविधुः कीर्त्तिद्युतिश्रीविधुः । सौजन्यैकनिधिः स्फुरद्गुणनिधिर्गाम्भीर्यवारान्निधिहम्र्म्माद्वैतनिधिः स च( ण्डि )मनिधिः शस्त्रैकविद्यानिधिः ॥5॥ राजबलि पाण्डे, हिस्टोरिकल एंड लिटरेरी इन्स्क्रिप्शंस 310 For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख 31 दीनानामभिवाञ्छितैकफलदः प्रत्यक्षकल्पद्रुमो दृप्यद्वैरिगिरीन्द्रभेदनविधौ दुरवज्रश्च यः। कान्तान()म्मदनज्वरोपशमने सिद्धौषधीव पल्लवो वाहुर्यस्य वभूव भूतलभुजामन्तश्चमत्कारिणः॥6॥ गौडेऽद्वैतभटः सकाण्डपटिकः क्षत्रैकचूडामणिः प्रक्षातो महणाङ्गपः क्षितिभुजाम्मान्योभवन्मातुलः। त (तं) जित्वा युधि देवरक्षितमधात् श्रीरामपालस्य यो लक्ष्मी निर्जितवेरिरोधनतया देदीप्यमानोदयाम्॥7॥ कन्या महणदेवस्य तस्य कन्येव भूभृतः। सा पीठीपतिना तेन तेनेवोढा स्वयम्भू( भु)वा॥8॥ ख्याता शङ्करदेबीति तारेव करुणाशया। व्यजेष्ट कल्पवृक्षाणां लता दानोद्यमेन या॥७॥ अजनि कुमारदेवी हन्त देवीव ताभ्यां शरदमलसुधाशोश्चारुलेखेव रम्या। दुरितजलधिमध्याल्लोकमुद्धर्तुकामा स्वयमिह करुणार्ता तारिणीवावतीर्णाmon याम्वेधाः प्रविधाय शिल्परचनचातुर्यदर्पव्यधाद्यद्वक्त्रेण जितस्तुषारकिरणो ह्रीणः स स्वस्थोभवत्। रात्रावुद्गममातनोति मलिनो जातः कलङ्की ततस्तस्याः सुद( सुन्द )रिमा स विस्मयकरो वाच्यः मिमष्मादृशैः॥1॥ चित्रञ्चञ्चलदृक्कुरङ्गमवधूवन्धस्फुरद्वागुराम् विभ्राणा तनुसम्पदम्प्रविलसत्कान्त्याभिकान्तश्रिया। खेलत्क्षीरसमुद्रसान्द्रलहरीलावण्यलक्ष्मीमुषं मोषं शैलसुतामदस्य दधती सौभाग्यगर्वेण सा॥2॥ धर्माद्वैतमतिर्गुणाहितरतिः प्रारब्धपुण्याचितिर्दानोदारधृतिर्मतङ्गजगतिर्नेत्र(त्रा )भिरामाकृतिः। For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 312 प्राचीन भारतीय अभिलेख शास्तृन्यस्तनतिर्जनोदितनुतिः कारुण्यकेलिस्थितिनित्यश्चीवसतिः कृताधविहतिः स्फायद्गुणाहंकृतिः॥3॥ जगति गहडवाले क्षत्रवावं )शे प्रसिद्धे - जनि नरपतिचन्द्रश्चन्द्र नामा नरेन्द्र। यदसहननृपाणाङ्कामिनीवाष्पवाहे:( है:) शितितरमिदमासीद्यामुना नं) तू(न्)नमम्भः॥4॥ नृपतिमदनचन्द्रश्चण्डभूपालचूडामणिरजनिततस्माद्विभ्रदेकातपत्र(म्)। धरणितलमनल्पप्रौढतेडो( जोनलश्रीः श्रियमपि च मघोनः स्वश्रियाधो दधानः।15। वाराणसीभुवनरक्षणदक्ष एको दुष्टा तुरुष्कसुभटादवितुं हरेण। उक्तो हरिस्स पुनरत्र वभूव तस्माद् गोविन्दचन्द्र इति प्रथिताभिधानः।।16॥ वत्स्या कामदुहां कणानपि पयः पूरस्य पातुं न ते, चित्रं प्रागल्भन्त याचकमनः संतोषनिव्यत्ययात्। त्यागैर्यस्य महीभुजः प्रमुदिते तद्याचकानाञ्चये स्वच्छन्दाहितनित्यनिर्भरपयः पानोत्सवैरासते॥7॥ यद्विद्विषिमहीभुजां पुरवरे प्रभ्रष्टहारावली व्याधास्तन्मृगपाशमनसा गृह्णन्ति नैव भ्रमात्। व्याधाः सस्तसुवर्णकुण्डलमहिभ्रान्त्या तद् त्यायते दण्डैद्रर्गिपसारयन्ति च भयप्रोत्कम्पिहस्तस्रजः॥8॥ यस्योत्सन्न विरोधिभूपतिपुरप्रासादपृष्ठोपरि प्रत्यग्रस्फुरदुग्रशष्पकवलव्यालोलवाजिव्रजः। आदित्यसत्वभवत्स मन्थररथश्चन्द्रोपि मन्दोभवत् घासग्रासविरुढलोभहरिणं रक्षन् पतन्तन्ततः।।19॥ For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख 313 अहह कुमारदेवी तेन (ज्ञा प्रसिद्धा त्रि (त्रि)जगति परिणीता श्रीरिवेहाच्युतेन। प्रविलिसदवरोधे तस्य राज्ञोङ्गनानां नियतममृतरश्मेर्लेखिला तारकासु।०॥ वीहारो नवखण्डमण्डलमहीहारः कृतो यत्तया तारिण्या वसुधारया ननु वपुर्विभ्राणयालङ्कृतः। यं दृष्ट्वा प्रविचित्रशिल्परचना चातुर्य्यसीमाश्रयं गीर्वाणैः सुदृश (च) विस्मयमगाद्राग्विश्वकर्मापि सः॥ (121) श्रीधर्मचक्रजिनशासनसन्निवद्धं सा जम्बुकी सकलपत्तलिवानभूता। तत्ताम्रशासनवर रं) प्रविधाय तस्यै दत्त्वा तया शशिरवी भुवि यावदास्ताम्॥22॥ धर्माशोकनराधिपस्य समये श्रीधम( म त्म को जिनो यादृक् तन्नयरक्षितः पुनरयञ्चके ततोष्यद्भुतम्। वीहारः स्थविरस्य तस्य च तया यत्रादमाङ्कारितस्तस्मिन्नेव समर्पितश्च वसतादाचन्द्रचण्डद्युति।।3।। यत्कीर्तिम्परिपालयिष्यति जनो यः कश्चिदुर्वीतले सा तस्थाङ्घ्रियुगप्रणामपरमा यूयं जिनाः साक्षिणः। तस्या कश्चिदनिश्चितो यदि यशोव्यालोपकारी खलः तं पापीयसमाशु शासति तुनस्ते लोकपाला: क्रुधा।24।। एक स्तीर्थिकवादिवारणघटासङ्घट्टकण्ठीरवः साहित्यो (ज्ज्वलरलरोहणगिरिोह्यष्टभाषाकविः। ख्यातो वंगमहीभुजः प्रणयभूः श्रीकुन्दनामा कृती तस्याः सुंदरवर्णगुम्फरचनारम्यां प्रशस्तिं व्यधात्।।5॥ एषा प्रशस्तिरुत्कीर्णा वामनेन तु शिल्पिना। राज्याबर्तस्य सापल्यन्दधाने प्रस्तरोत्तमे।26॥ For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 314 प्राचीन भारतीय अभिलेख भगवती आर्य वसुधारा को प्रणाम! अपने धर्मामृत की धारा से विश्व के अनेक प्रबल दुःखों की विशाल धारा को शान्त करने वाली एवं धन तथा स्वर्ण की समृद्धि को पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा स्वर्ग में विकीर्ण करती हुई सारे लोकों के सब जनों की दीनता को जीतने वाली बौद्धदेवता वसुधारा रक्षा करे। 1 जगत् के आलोक दीपों को प्रदीप्त करने वाले उस चन्द्रमा की जय हो जिसके देखते ही मनोरम चन्द्रकान्तमणि पिघल जाती है तथा उत्कण्ठित मानिनी के मान का कुकुदवनी की मुद्रा के साथ भेदन करते हुए जो शिव के द्वारा दग्ध कामदेव को अपनी सुधागार किरणों से जीवित करता है। 2 उस (चन्द्र) के प्रणाम योग्य पौरुष से युक्त, विस्तृत कीर्ति की कान्ति से युक्त, सद्यः पावित्र्य में गंगा के गर्व को चूर्ण करने वाले तथा शत्रुओं की राजलक्ष्मी से अप्रसन्न वंश में नृपों में सम्मान प्राप्त वल्लभराज नाम से प्रख्यात वीर हुआ जो विजेता, विशाल चरण पीठिका का स्वामी एवं अत्यंत प्रवृद्ध प्रताप से उन्नति कर रहा था। धिक्कोरवंश रूपी कुमुद के उदय के लिये पूर्ण चन्द्र (तुल्य) श्री देवरक्षित पृथ्वी पर प्रसिद्ध था। राजसिंहासन अथवा पीठी के स्वामी जिसने जो जगत् में अद्वितीय मनोरम श्री से सम्पन्न थे, अपनी लक्ष्मी से शत्रु की राज्यलक्ष्मी पर भी विजय प्राप्त कर ली। 4 उससे सागर से चन्द्रमा के समान लावण्य रूपी लक्ष्मी के विष्णु, नेत्रानन्द रूपी समुद्र को प्रवृद्ध करने में चन्द्रमा; कीर्ति द्युति तथा श्री का विधु (चन्द्रमा), सुजनता का आगार, प्रकाशित होते गुणों का निधि, गम्भीरता का सागर, हर्माद्वैत (?) (अद्वैतधर्म को मानने वालों से प्रमुख) का अद्वितीय आगार, प्रताप का कोष तथा शस्त्र विद्या का अद्वितीय आगार था। 5 7. For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख 315 0 दीनों को इच्छानुसार फल देने में वह साक्षात् कल्पतरु था, अहंकार से पूर्ण शत्रुओं के पर्वतराज की भेदनप्रक्रिया में जो अप्रतिहत वज्र था। कामिनियों के 8. कामज्वर को शान्त करने में जो सिद्धौषधी का पल्लव था तथा जिसकी भुजा राजाओं को चकित करने वाली थी। 6 गौड का अद्वितीय वीर, घटनाओं की कनात (परदा, या वितान, पटिक), क्षत्रियों में मूर्धन्य 9. नृपों में मान्य उसका मामा अङ्ग का स्वामी महण प्रख्यात था। उस देवरक्षित को युद्ध में बुरी तरह पराजित कर जिसने प्रवृद्धदीप्ति से युक्त लक्ष्मी श्रीरामपाल को प्रदान की क्योंकि उसने पराजित शत्रुओं को रोका था। 7 उस राजा महणदेव की कन्या से पीठी पति (पीठापुर के स्वामी?) ने उसी प्रकार विवाह किया जिस प्रकार हिमालय की कन्या से शिवजी ने। 8 जो शंकरदेवी के नाम से प्रसिद्ध एवं तारा के समान करुणापूरित थी। दानकर्म के कारण जो कल्पलता को व्यञ्जित करती थी। 9 11. उनसे देवी के समान कुमारदेवी उत्पन्न हुयी जो शरत् के विमल सुधाकर की मनोरम लेखा सी रम्य, दुःखसागर के मध्य से जगत् का उद्धार चाहने वाली, स्वयं करुणा पूरित तारिणी सी अवतीर्ण हो गयी। 10 12. जिसका निर्माण कर विधाता अपनी कारीगरी की निपुणता पर गर्व करता है, जिसके मुख ने चन्द्रमा को जीत लिया, वह (अपने गर्व पर) लज्जित हुआ और होश में आ गया। रात में उदित होता है और बाद में वह कलङ्की मलिन हो जाता है। 13. उसकी सुंदरता हम जैसे लोगों को चकित करने वाली थी। विचित्र एवं चंचल दृष्टि रूप से जो स्पष्ट ही हरिणियों को बांधने का पिंजरा धारण करती है। कमनीय शोभा से युक्त कान्ति से जिसका कायासम्भार शोभित हो रहा है। 14. लहराते क्षीरसागर की घनी लहर की लावण्यकान्ति से आहत भाल (कान्ति) के कारण सौभाग्यगर्व से जो पार्वती का गर्व धारण करती है। 12 धर्म में एकभाव, गुणों में स्नेह, प्रारब्ध पुण्य को एकत्र करने में निरत, For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 316 प्राचीन भारतीय अभिलेख 16. 18. 15. दान में उदार धैर्य, गज सी गति, नयनाकर्षक आकृति, शास्ता (राजा अथवा बुद्ध) के समक्ष विनत, लोगों के द्वारा प्रणमित करुणा की क्रीडाभूमि एवं सदा लक्ष्मी का निवास पाप पर पहले ही आघात करने वाली तथा (इनसे) जिसके गुण का अहंकार प्रवृद्ध हो गया है। 13 क्षत्रियों के जगत्प्रसिद्ध गहडवाल वंश में नृपेन्दु चन्द्रमा नामक राजा उत्पन्न हुआ। जिसका सामना न कर पाने वाले नपों की कामिनियों के अश्रप्रवाह से यह यमुना जल और भी अधिक काला हो गया। 14 17. उससे प्रतापी नृपों में मूर्धन्य, एकछत्र (ऐकाधिपत्य) धारण करने वाला मदनचन्द्र नृप हुआ। जो अपनी पृथ्वी पर अमित प्रवृद्ध तेजस्वी अनल की कान्ति से (इतना) सम्पन्न था कि इन्द्र की श्री को भी अपनी श्री से नीचा दिखा दे। 15 उसका वाराणसी की भूमि दुष्ट तुर्क-वीरों से हर के साथ रक्षा करने में समर्थ पुत्र हरि हुआ, जिसका प्रसिद्ध नाम गोविन्दचन्द्र था। 16 चाहे जब चाहे जितना दूध देने वाली गायों के 19. दूध को वत्स पीते नहीं, आश्चर्य है कि उससे पूर्व ही याचकों के मन दैनिक संतोष से युक्त हो जाता है। जिस राजा के त्याग से याचकसमूह के प्रसन्न होने पर नित्य स्वच्छन्द निश्चिन्त होकर पयःपान के उत्सव का सेवन होता है। 17 जिसके शत्रु नृपों की राजधानी में व्याध (आखेटक), मृगों को फंसाने का फन्दा समझकर गिरे हुए हारों को नहीं उठाते हैं तथा खिसक कर फैले हुए स्वर्ण-कुण्डल को सर्प की भ्रान्ति से 21. भय से कांपते हुए हाथ के डण्डे से तत्काल हटा देते हैं। 18 जिसके उच्छिन्न शत्रु-नृपों की राजधानी के महलों पर सद्यः चमकते हुए, तीखी नोक की घास को खाते हुए चंचल अश्व समूह वाले सूर्य का रथ धीमा हो जाता था तथा घास खाने के लोभ का संवरण न कर पाने वाले मृगों से चन्द्र भी मन्दधुति हो जाता था। तब (वह नृप उन) गिरते हुए (उड़ते हुए सूर्य-चन्द्र) की रक्षा करता था। 19 उसी त्रिलोक-प्रसिद्ध राजा ने कुमारदेवी 22. For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख 317 23. से उसी प्रकार विवाह किया जैसे विष्णु ने लक्ष्मी से। उस नप के अन्तःपुर की रानियों के मध्य वह उसी प्रकार शोभित हुई जैसे ताराओं के मध्य निश्चय ही शशिकला। 20 उसी (कुमारदेवी) ने, नव खण्डों तक विस्तृत मेदिनी का हार, यह विहार बनवाया। 24. जो तारिणी वसुधारा की तेजस्वी मूर्ति से शोभित है। जिसकी देवताओं सी विचित्र कारीगरी की पटुता की चरमसीमा देख, विश्वकर्मा भी अत्यंत चकित हो उठा। 21 श्री धर्मचक्र 25. बौद्ध के आदेश से निर्मित, सारी पत्तलिका (?) में अग्रणी उस जम्बुकी (?) को ताम्रपत्र पर श्रेष्ठ आदेश लिखवाकर सूर्य-चन्द्र की स्थिति तक के लिये उसे प्रदान कर दिया। 22 धर्माशोक राजा के समय 26. जैसा जिन (बौद्ध) श्रीधर्मचक्र था, उसी नीति (पथ) की इसने उससे भी अधिक रक्षा की। उस (कुमारदेवी) ने बड़े प्रयास से उस स्थविर का यह विहार बनवाया और उसी में बसते हुए उसे यह सूर्य-चन्द्र पर्यन्त समर्पित कर दिया। 23 27. भूमि पर जो कोई उस कीर्ति का पालन करेगा, आप सारे जिन (बौद्धों) साक्षी हैं, वह उस के चरणयुगल को प्रणाम करती है। उसके यश को लुप्त करने वाला यदि कोई अज्ञात दुष्ट हो तो उस पापी को शीघ्र ही हमारे क्रुद्ध लोकपाल अनुशासित कर देंगे। 24 तीर्थयात्रा पर निकले संन्यासी ब्राह्मणवादियों के गजसमूह से टकराने वाला सिंह, साहित्य के शुभ्र रत्नों का रोहणगिरि, आठ भाषाओं के कवि, बङ्गदेश के राजा का 29. कृपाप्राप्त श्रीकुन्द नामक प्रख्यात कवि ने उस (कुमारदेवी) की मनोरम वर्णों के गुम्फन की रचना से रमणीय प्रशस्ति की रचना की। 25 राजचक्र की सफलता से उपलब्ध श्रेष्ठ पाषाण पर वामन शिल्पी ने यह प्रशस्ति उत्कीर्ण की। 26 28. For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 318 प्राचीन भारतीय अभिलेख सन्दर्भ-ग्रन्थ सं ळ 1. एपिग्राफिया इण्डिका के विभिन्न अंक 2. इंडियन एटिक्वेरी के विभिन्न अंक 3. कार्पस के विभिन्न खण्ड डी० सी० सरकार, सेलेक्ट इंस्क्रिप्शन्स 1965 5. डॉ० राजबली पाण्डे, हिस्टोरिकल एण्ड लिटरेरी इन्स्क्रिप्शन्स, वाराणसी। प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी, ऐतिहासिक भारतीय अभिलेख, पब्लिकेशन स्कीम, जयपुर, 1992 गोयल, श्रीराम, भारतीय अभिलेख, पटना। 8. ओझा, गौरीशंकर हीराचन्द, प्राचीन लिपिमाला, दिल्ली 1959 उपाध्याय, वासुदेव, गुप्त अभिलेख, बिहार हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पटना, 1974 10. दुबे, डॉ० जगन्नाथ और राजपुरोहित डॉ० भगवतीलाल, भारतीय अभिलेख, वाकणकर शोध संस्थान, उज्जैन, 2002 राजपुरोहित, डॉ० भगवतीलाल, भारतीय अभिलेख और इतिहास, शिवालिक, प्रकाशन, दिल्ली, 2003 12. राजपुरोहित, डॉ० भगवतीलाल, भारतीय कला और संस्कृति, शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली, 2003 13. झा, बन्धु, अभिलेखमाला, चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी, 1962 4 For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 319 प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) अशोक के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी अक्षर ब्राह्मी अक्षर WHHHHXHy नागरी अक्षर ब्राह्मी अक्षर च dad 6 ETEE E६६६६ ५ 16 P4000 ५ | 225 | ." | + + MOM a. त AARA For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 320 प्राचीन भारतीय अभिलेख नागरी अक्षर अशोक के समय के ब्राह्मी अक्षर ब्राह्मी नागरी ब्राह्मी अक्षर अक्षर अक्षर | व 6666 ১১১২১২ |Praa boa Linha ५4N بابا | , 666 aur MNN_4A4 ५ ५ th+rts ४४४५ htu ปปปปปป ५ ५ .nt W Wh vu y v hi Ch-hb ५ For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 321 अशोक के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी ब्राह्मी अक्षर | ktha E Rate | ९ ९ २ २ २२२ For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 322 प्राचीन भारतीय अभिलेख अशोक के समय के खरोष्ठी अक्षर नागरी नागरी खरोष्ठी अक्षर खरोष्ठी अक्षर a o . ix 2 i orases son te for y ya ng t s ५. . Mi a म. For Private And Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 323 अशोक के समय के खरोष्ठी अक्षर नागरी अक्षर नागरी | खरोष्ठी अक्षर | अक्षर अ yyy खरोष्ठी __ अक्षर "7 27 724 77 27 Ýrs 4t |५१२ 44 TI SM |SS 755 Itt 5458 ध 73 स |PPP ह 2222 y 4555 474 و در سه ما 721 For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 324 नागरी अक्षर व श ष hk dx ठि णि ति तु ते त्म त्र थं 77 अशोक के समय के खरोष्ठी अक्षर खरोष्ठी नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर अक्षर नन Tr द्र * A to Au ни 中 ዳ sy NN ५ 4 www. kobatirth.org 4 ञि ५. ট ট ট টি to ह कि तू व्ह ध्ये प्राचीन भारतीय अभिलेख Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir $50 ए 2 ~ 25 a 6 Ꮡ UN For Private And Personal Use Only ६ टु কই रे Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 325 यवन शककुशाण और पह्लव राजाओं के सिक्कों के खरोष्ठी अक्षर नागरी खरोष्ठी नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर अक्षर __ अक्षर म 772 yr स . 32 . . 37760 44 में 40 ५ ५ ५ CS ६६ 44 УУy * For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 326 नागरी अक्षर र 巴身 7 西 广西徐华丽 新仔新西 यवन शककुशाण खरोष्ठी अक्षर म ग्र क्रि क्ष त्र AN AN AD में से fit by चि Al 72 21 7 7 20 እ H کا AN 2 + you N ॐ £ www. kobatirth.org और पहलव खरोष्ठी अक्षर नागरी अक्षर $$ राजाओं के सिक्कों के ffer to boy mp. C झो Я त्रि फि मैं 河河ㄒm A ब्र भ मा मि मे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख खरोष्ठी अक्षर For Private And Personal Use Only s ४५ """" M रा አ 7 73 YA $ 1 M ॐ N گیا 72 } } } Ly } Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर मो मं यि प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) यवन शककुशाण और पहलव राजाओं के सिक्कों के खरोष्ठी अक्षर नागरी अक्षर व w) ऐ यु रि रु 4. नेट र्म 2 )^ " > > f רן 3 g इंड की ज www. kobatirth.org कुं र्श लि ह) हि लु लो वि वु কে b f श्व क Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरोष्ठी अक्षर 2 ि म For Private And Personal Use Only g तंत्र 4. भी 7 2 तेच कू .r के ढ 327 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 328 प्राचीन भारतीय अभिलेख यवन शककुशाण और पलव राजाओं के सिक्कों के खरोष्ठी अक्षर नागरी खरोष्ठी नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर | अक्षर For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 329 क्षत्रपों के लेखों और सिक्कों के ब्राह्मी अक्षर नागरी क्षत्रपों के समय के नागरी क्षत्रपों के समय के अक्षर | ब्राह्मी अक्षर अक्षर ब्राह्मी अक्षर |१४vxxy ज ا ال لا للسه บก . / ปา) 8888 22aa WhyHUN Isururi ผม An eaase wannadanuman a at 2.5DISHAN.ANNE L८ १ 2 . II D १८ 1ILM UUUNU ७ N ... लकल xww.ky For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 330 प्राचीन भारतीय अभिलेख - क्षत्रपों के लेखों और सिक्कों के ब्राह्मी अक्षर नागरी क्षत्रपों के समय के | नागरी क्षत्रपों के समय के अक्षर । ब्राह्मी अक्षर | अक्षर ब्राह्मी अक्षर १२२११ | 177 1122 १९८५११ 1737 4T1114 17: 4 5 6 को assis ५५.. # # # # 222222125 5 ม ส ย ง x УYУУЧУ ух . - 18 พ ย ย w & # # 845 ArpanraFFRIUS 555555 SSCS 33333 4 4 3, 4 1. เ 5) 5 ะ For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) नागरी क्षत्रपों के समय के अक्षर ब्राह्मी अक्षर 5x 2s, f 133 " NCP 13 te Rs 49% Kহछ নछ দ ** Fp by to ppp fraীapn ་་ www. kobatirth.org क्षत्रपों के लेखों और सिक्कों के ब्राह्मी अक्षर नागरी अक्षर म EEF HET TE ECFA FC रि वि क्षत्रपों के समय के ब्राह्मी अक्षर पुठ १९ THE EN EK KNXXX% AND Ex } Jh ܣ ܬ1ܐ *Ho Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ For Private And Personal Use Only 331 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 332 प्राचीन भारतीय अभिलेख क्षत्रपों के लेखों और सिक्कों के ब्राह्मी अक्षर क्षत्रपों के समय के | नागरी क्षत्रपों के समय के ब्राह्मी अक्षर अक्षर ब्राह्मी अक्षर नागरी अक्षर HINESE NAMEER 79 ERELEBAR | ४ोलरमन्य बरों से छोटे नीचर | और माल से जरा दिखेजाते For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर নে * to eng Mar in ল কংত জ ড় ড় my he $ 9 ঠ বড় wখল M N द्र ५ दू लेक c 我 TELEPYS ) X फ 14 प्र 1:4 ዓ ५५ 3 क्षत्रपों के समय खरोष्ठी अक्षर नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर ܕܚ www. kobatirth.org هر र्ब गुरु र COLEMELE MACHIE CE CIEC vtis just १. TADANE S शुन शे ५ लु ४ म. 2022 ~A Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 333 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 334 प्राचीन भारतीय अभिलेख क्षत्रपों के समय खरोष्ठी अक्षर नागरी अक्षर स्क खरोष्ठी अक्षर | नागरी | खरोष्ठी अक्षर अक्षर २. २ sex For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) नागरी अक्षर ' २ ३ עון खरोष्ठी अक्षर www. kobatirth.org क्षत्रपों के समय खरोष्ठी अक्षर नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर ३० यचार ४० | LAHK ५० 877 (3 ४ ६० रुनु ५ | ७० झफए pৎहইটत ८० evo ६ ६ ५ ए ባ ሶ c s६ BfJC, v० भ्रपসअयुद्ध ए उउऊन १०० 942 (5)? 20 es cccc 4 2 20 सফথা ४०० ५ यु २०००388 三 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 For Private And Personal Use Only 335 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 336 प्राचीन भारतीय अभिलेख गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी | ब्राह्मी अक्षर अक्षर नागरी ब्राह्मी अक्षर अक्षर EEEE મમ H प्रा | H. :: : :: rar2 | 8००० | 228 ww .00a0a ६६ զ կմաս फ . For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 337 गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी ब्राह्मी नागरी अक्षर खरोष्ठी अक्षर अक्षर अक्षर ब.. भ | त 10gUVE१६ik (Mehevums & 3 ta | JIJ के ल 1121 ब ! के |नम १ & Alth NW है 3555/ गा|rn BRUAR For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 338 प्राचीन भारतीय अभिलेख गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर F नागरी | ब्राह्मी अक्षर नागरी खरोष्ठी अक्षर अक्षर F * #. B . __ne ki dP Pune on whatu author) B F .. ५ I had only - h x < 2 + ३ ae - For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 339 गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी ब्राह्मी अक्षर | अक्षर ब्राह्मी अक्षर gora aor * * * . 7 For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 340 प्राचीन भारतीय अभिलेख गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर नागरी| ब्राह्मी अक्षर अक्षर अक्षर ब्राह्मी уу द्रः claw celor care era : मम sts of मु44 मू 31 aruv For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 341 गुप्तों के समय के ब्राह्मी अक्षर ब्राह्मी । ब्राह्मी अक्षर __ अक्षर ५४ Tel 4y | 1 - - saare म . dam - For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 342 नागरी अक्षर ए 4 54. ዳ म new off ऍ ह जा ब्राह्मी अक्षर 4 हर्षवर्धन के समय के प्रमुख अक्षर नागरी ब्राह्मी अक्षर अक्षर ड ट् ध 8 ४ ม ន www. kobatirth.org दुर्वा कई द्वा 의욕 최석식 최 회색 ग धि खु प्र स्व Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख हा ही ५ स्तो भू For Private And Personal Use Only ५ يو سود همه 53 fe Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 343 नागरी | ब्राह्मी से नागरी तक विकास अक्षर HHA HH31 अ : + उ ३३ LLL ADOS +++क ११राख Annn nau - For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 344 प्राचीन भारतीय अभिलेख ब्राह्मी से नागरी तक विकास खरोष्ठी नागरी अक्षर ड. 58. ch a ६६६ रन padithi है, अभ | ८ ८.८ ढ ९3 ८८ I runn For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 345 खरोष्ठी नागरी | ब्राह्मी से नागरी तक विकास अक्षर ए | 1 2/ m | ००० १८ 0 dyuu 14न Coun ७७nकफ Daब तभ म ४४म For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 346 सिमेटिक अक्षरों के नाम लामध् मेम् नून सामेख् श्राइन् पे तसाधे काफू स्तू नागरी सिमेटिक अक्षरों अक्षर अक्षर ल म सिमेटिक अक्षरों के समान खरोष्ठी और ब्राह्मी अक्षर न स ए प स www. kobatirth.org र शिन श तावू 1 6 1 ५ ५५५ = # 3 0 27 Pr ФФ ۹۹ W +× Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only प्राचीन भारतीय अभिलेख खरोष्ठी अक्षर 4 しか 5 P 1 Ի P ऽ ञ ब्राह्मी अक्षर ი ss थे, 1 d Δ し 2 + 5 | 11 m A Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) 347 ब्राह्मी से आधुनिक तक अंक-विकास नागरी क्रम विकास | नागरी क्रम विकास अंक ९ - १ १ । ६ ५. 2८७ SSC ४५५५४ v ५ | ५५ २११० For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 348 प्राचीन भारतीय अभिलेख ब्राह्मी के विभिन्न रूप Male ... . . . . T AL - Ramkanerspes ances FAKER. LLL. HAMAAgal . .. . . . .. . ittt ८९. " N.. .. . 132.21 12221 274 FEML. . .u. JAS . .. AANTARB BEE .......... .. . .: Ftnet . For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्राचीन लिपियों के रूप (अक्षर) Value 1495 E WHO DO 4 w!; 12 2 PAIL & PHASE ब 3000 में BHHINA #MAHI< Actors 12 YA * RA + 5.4 1 * # * £•#• 2} ${0} ง ง ป ป VALO SAATTA It salt.b SAL HALL XEM TIRTIE ++: t 0.1 www.kobatirth.org ها 15 Tribal 777 **** 444.4 PODES T ปู ป A TI ARAM LHL نت NM. SOCOVALI Metam. Keacram 21722 4 40 LAIMI با ما DEVV i. ta 08 བ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મંત *** ITYVI TR Liesjav Tr JJJNE *TAK A TII JNOV ཐོ*à BATE Lik Yeanaz from the coins of the hig 20 BS Manetyls As nose ه با Jo J Sc 501 To 80' && L†Ä Subs For Private And Personal Use Only ן מעל 22 . 04 ་་་ ས་་་ H 40 1100: 3 hori 105, F *** ***- - «M 349 JID 112 *** 165 77 2013 : 2021 = 12:0 "K 230 35 294 395 300 3413310 Sa 33317-57 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 350 प्राचीन भारतीय अभिलेख ग्रीक लिपि Alfa Bita Gama Data Epsilan Zeta Eta Theta Kappa Iata Lambda Mu Nu Omega Pe Rho Sigma Taw Phi Upsilan Kh Psg For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 351 शब्दानुक्रमणिका अ अकालवर्ष, 223 अकालवर्षदेव, 212 अघोरशिव, 283 अघोरशिवाचार्य, 286 अच्युत, 89. 90 अजितवर्धन, 139 अर्तेझरजीस, 3 अथर्ववेद, 2 अर्धस्रोतिका, 241 अन्तलिकित, 33 अन्तियोक, 16 अनुराधापुर, 3 अनूप, 66,71 अपरान्त, 71, 91 अर्बुद (आबू), 295 अभयदत्त, 148, 149 अम्बिपाटक, 281 अमरकोश, 4 अभरावती, 176 अमोघवर्ष, 9, 226, 227, 229, 230, 232 अरबी, 1 अरावली, 66 अलिक, 16 अवन्ति, 66, 71, 239, 282, 296 अवनिवर्मा, 280 अवमुक्त, 90 अश्विभूति, 59 अश्मक, 71 अशोक, 3, 4, 6, 7, 8, 9 अशोकमौर्य, 65 अशोकीय, 2 अहिच्छत्र, 90, 168 आ आकर, 66 आकाशपद्र, 83 आकाशपद्रक, 83 आर्जुनायन, 91 आथर्वण, 83 आदित्यवर्मा, 161 आदित्यसेन, 192, 193 आन्ध्र, 16 आनर्त, 67, 249 आनर्त (उत्तरी काठियावाड), 66 आनन्दपुर, 94 आप्पायिक, 176 आभीर, 91 आम्रकाव, 101 आम्रयान, 241 For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 352 आम्ररात, 101 आम्रषण्डिका, 241 आर्मेइक, 1 आलुप, 176 आसाम, 90 इ इंडिरचे पेलिओग्राफी, 6 इन्तप्रिय, 49 इन्द्ररथ, 297 इन्द्रराज, 209, 223, इन्द्रा, 48 इन्स्क्रिप्शन्स, 10 इबा, 58 इष्वाकु, 80 ईश्वर, 169 ईश्वरवर्मा, 161, 162 ईश्वरवासक, 101 ईरान, 2 ईरान-अफगानिस्तान, 1 उग्रसेन, 90 उङ्गुण, 105 उज्जयिनी, 223 उज्जैन, 9 उ उत्तमभद्रक, 58 उत्तरप्रदेश, 90 उत्तरी अर्काट, 90 उद्ग्राम, 241 उदयगिरि - खण्डागिरि, 38, 228 उदयादित्यदेव, 297 उप्पत्थहथ्थक, 231 उपतिष्य, 20 www. kobatirth.org उपेन्द्रराज 296 उमापतिधर, 309 उषवदात (ऋषभदत्त), 58, 61 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख ऊर्जयत, 65, 116 ऋग्वेद, 1, 2 ऋषभदत्त, 58 ऋषवान, 71 ऋषिक, 71 ऋषिकनगर, 37 एलामाइट, 1 एलोरे, 90 एशिया माइनर, 1 ऐरण्डपल्ल, 90 अंतियोक, 12 अंवलेश्वर, 8 ऊ For Private And Personal Use Only ऋ ओडू, 283 ओझा गौरीशंका हीराचंद, 6 ओझार, 9 क्रौञ्जश्व, 240 कृष्णगिरि, 71 ए ओ औडू, 225 औलिकर, 9 औलिकरवंश, 139 अं अंगिक कुलवर्धन महारथी, 42 अंतकिनि, 16 औ क Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 353 कृष्णराज, 210 कृष्णानदी, 37, 71 कृष्णावसथ, 141 कृष्णेश्वर, 184 क्वीप, 1 कक्कुप, 248 कर्कराट्, 223 कच्छ, 66 कच्छुका, 263 कर्णाट, 279, 296, 297 कर्तृपुर, 90 कतुरिया, 90 कदम्ब, 174, 175, 282 कदापिंडन, 105 कनिंघम,6 कनिष्क, 52, 56 कपूराहार, 61 कम्बोज, 16 कम्बोडीया, 8 करतारपुर, 90 करवेण्वा, 58 करिणकजद्ध, 265 कल्लुवी, 231 कलचुरि, 8 कलाइरेय, 194 कलिंग, 15, 36,225, 226, 248, 279 कलिंग जिन, 33 कश्मीर, 261, 279 कशपुर, 194 काक,91 काकनादबोट, 91, 101 कांचि, 90 काञ्ची नगरी, 178, 209, 211 कांजिवरम्, 90 काटयायन, 2 काठियावाद, 66,71 काणद्वीपिका, 241 कादम्बरी देवमन्दरी, 240 कान्यकुब्ज, 239 कामन्दकीय नीतिसार, 176 कामरूप, 90 कापिञ्जल, 83 कालञ्जर, 263, 265 कालिका, 241 कालिदास, 5,8, 178 कावेरी, 178 काहल, 224 क्रिमिला, 94 किरात, 249 क्रीट द्वीप, 1 कीर्तिनारायण, 225 कीर्तिवर्मा, 174, 175 कीर, 239 कुकुर, 66, 71 कुटील लिपि,4 कुत्तलुर, 90 कुबेर, 90 कुबेरनागा, 105 कुमायूं, 90 कुमारगुप्त, 129 कुमारदेवी, 92, 94, 105, 119, 315, 316,317 कुमार वर्मा, 9 कुमारशांति, 164 कुमार शैलेन्द्र, 3 कुरु, 239 For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 354 प्राचीन भारतीय अभिलेख खण्डमुण्डमुख, 241 खर, 53 खरपटिक,91 खरपल्लान, 52 खरासलेर, 55 खरोष्ठी, 1, 3, 6,8 खसों, 261 खारवेल, 8, 38, 39 खेटकमण्डप, 223 खैलपाटक, 281 खोट्टिगदेव, 296 खोह, 90 खोहताम्रपत्र कुलैप, 67 कुस्थलपुर, 90 केदार, 297 केयूरवर्ष (युवराजदेव प्रथम), 279, 281 केरल, 178, 209, 226,द 278, 296 केरलपुत्र, 12 केसवगहिय, 230 कैलास, 296 कोंकण, 66,71, 176 कोंकणविजय, 290 कोकलदेव (प्रथम), 277 कोटूर, 90 कोठिया, 241 कोणदेवी, 193 कोतकुल, 89 कोथूर, 90 कोलकाता, 6 कोशलों, 261 कोशिक, 83 कोसलेश, 278 कौत्स गोत्र, 99 कौरल, 90 कौलिय निकाय, 61 कौलेर, 90 कौशल, 225 कौशिकी, 46 कौसल,90 कंचुका, 261 क्षहरात, 71 क्षेम, 45 क्षेमेन्द्र, 7 क्षेत्र, 71 गढ़परज, 90 गणपति, 89 गणपति नाग, 90 गन्धकुटी विहार, 52 गन्धार, 239 गागिनिका, 240 गिरिनगर (जूनागढ़), 64 ग्रीक, 1,71 गुर्जर, 177, 226, 297 गुजरात, 6,94 गुणधवल, 232 गुप्तकालीन, 4 गुप्तनाथ, 152 गुप्तवंशज, 229 गूजरो, 261 गोदावरी, 71, 90, 177 गोपगिरि (ग्वालियर), 265 गोपराज, 135 For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 355 गोपाल, 238 गोपालदेव, 240 गोपिप्पली, 241 गोराषक, 232 गोलसहडगमि, 230 गोवर्धन, 58,61,74 गोवादित्भट्ट, 230 गोविन्द, 116, 149, 153, 176, 229, 230,316 गोविन्दराज, 209, 211 गोष्ठपाली, 281 गोस्वामी, 95 गौडौ, 184, 279 गौतमीपुत्र, 70 गौतमीबालश्री, 71 गौतमीपुत्र शातकार्णी, 8 गौहाटी, 90 गंगा, 176, 211 गगिनिका, 241 गंजाम, 90 चन्द्रात्रेय, 259 चनालस्वामी, 106 चष्टन, 64 चातुर्दिश (सर्वदेशीय),61 चारुदत्त, 6 चिखलपद्र, 61 चिब्बरनाला, 8 चीनि लिपि, 1 चुख्स, 45 चूडाशिव, 282 चेदि, 8,36,261, 265, 283, 283, 297 चोड़, 12, 16 चोल, 178, 209, 296 चौल, 226 चौलुक्य, 280 चंद्राभी, 47 छत्रशिलक, 47 छिंछा, 290 घाघ्रदेव, 290 चक्रदास, 106 चक्रपालित, 115, 116 चक्रायुध, 225, 239, 249 चकोर, 71 चन्द्रक, 184 चन्द्रगुप्त, 99, 225 चन्दम्प, 96, 316 चन्द्रवर्मा, 90 चन्द्राचार्य, 5 चन्द्रार्य, 83 ज्येष्ठार्य, 83 जगतुंग, 226 जज्जिका, 183 जम्बूयानिका, 240 जयगण, 265 जयदामा, 64 जयभट्टिस्वामी, 94 जयवर्धन, 139 जयशक्ति, 260 जयसिंह वल्लभ, 174 जयसोम, 76 जालन्धर, 90 जावा, 91 For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 356 प्राचीन भारतीय अभिलेख जीमूतकेतु, 229 जीवनन्दी, 48 जूनागढ़, 65 जेजन्दायिका, 241 जोखा, 3 जोन्स विलियन,6 जोलक, 241 जोहियाबाज, 91 तेलंगाना, 5 तोग्गल, 297 तोरमाण, 140, 155, 156 त्रिपिटक, 52 त्रिपुरी, 297 त्रिरश्मि, 58,72 त्रिरश्मिपर्वत, 72 त्रिविक्रम, 230 त्रैकूट,5 झोट, 184 थाईलैण्ड,8 थीर, 285 डवाक, 90 डहल, 225 डिमित (दिमित) 38 डी.सी. सरकार तनसुलिय, 37 तमिलादि, 4 पाटक, 242 तक्षशिला, 45, 49 तक्षशिलावासी, 33 तात, 183 तातट, 243 ताप्ती, 58 तापी, 58 ताम्रपर्णी, 12, 16 ति मिर देश, 38 तिलकभट्ट, 92 तिवारीजीशिवीरेन्द्र,9 तुर्किस्तान, 8 तुरमय, 16 तुरुष्क, 249,297 तुषास्रूफ, 65 दट्टिका, 242 दत्तदेवी, 119 दत्तों, 90 दद्द, 183 दधीचि, 229 दन्तिदुर्गराज, 209 दमन, 58, 90 दमोह,91 दशपुर (मन्दसौर), 58, 127, 130, 141 दक्ष, 148, 148 दक्षिण, 1 दक्षिण अनाम (चप्पा), 8 दक्षिणकौसल, 90 द्वारका, 4. दावडिगहिय, 230 दाहनुका, 58 दीनिक,61 दुर्गभट, 213 दुबे सीताराम,3 द्रुमवर्द्धन, 139 For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 357 ध्रुवभूति, 92 ध्रुवराज, 211, 212 दुर्लभपुर, 286 देवकी, 120 देवगुप्त, 97 देवपाल, 264 देवपुत्र कृषाण, 49 देवरक्षित, 315 देवराज, 101,248 देवराष्ट्र, 90 देविकासीमा, 240 देश्वार्य, 83 दोषकुम्भ, 148 ध धङ्गटपाटक, 281 धन्नवल्लिका, 231 धन्यविष्णु, 133 धनदेव,46 धनध्य, 90 धर्म, 309 धर्मदोष, 148 धर्मदेव बिहार, 53 धर्मपाल, 225, 238, 239 धर्मपालदेव, 240 धर्मशम्भु, 282 धर्मा, 48 धर्मायोजोटिका, 241 धर्माशोक, 317 धरणीवराह, 297 धारणगोत्र, 105 धारा, 296 धारावर्ष, 212, 224 धिक्कोरवंश, 314 धीर, 286 ध्रुवदेवी, 119 नन्दग्राम, 231 नन्दावल, 184 नन्दी, 90 नन्दिवर्धन, 48, 105 नन्नुक, 260 नर्मदा, 5, 177, 226 नरभट, 183 नरसिंहदीक्षित, 230 नरसिंहपुर, 91 नलचर्मट, 240 नवजाय, 49 नवमण्डल, 185 नहपान, 58,61 नओ गोङ्ग, 90 नागदत्त, 90 नागपुर, 105 नागबल, 281 नागभट्ट, 183, 225, 248 नागरी लिपि, 4 नागसेन, 89 नादर्धन, 105 नान्दीकट (नान्डेन), 83 नान्देड,71 नाभक, 16 नाभपंक्ति, 16 नामुण्डिका, 240 नाराणभट्टारक, 242 निजामाबाद, 71 निर्दोष, 148 निपानीय, 281 For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 358 प्राचीन भारतीय अभिलेख निमाड, 71 निमूवारि, 178 निरूपमदेव, 212 निषाद, 66 नीरानदी, 212 नीरानामक, 213 नीलराज, 90 नेपाल, 8, 90 नेल्लोर, 90 नोन्न, 286 नोहला, 281 नोहलेश्वर, 286 नौहलेश्वर, 283 प प्रकाशधर्मा, 9, 140 प्रकाशेश्वर, 141 प्राचीनिक सरुकमाण, 55 प्रार्जुन, 91 प्रतिष्ठानपुर, 71 प्रथम, 281 प्रबन्ध चिन्तामणि,5 प्रभाकरवर्धनदेव, 168 प्रभारवर्धन, 76 प्रभास, 58 प्रभूतवर्ष, 224 पृच्छकराज, 223 पृथ्वीवल्लभ, 174 पञ्चागुलि, 151 पर्णदत्त, 113, 115 पत्तन, 285 पतिक, 45 पतंजलि के महाभाष्य, 66 पदमावती, 90 पदिमनी, 184 पन्नवणा सूत्र, 3 परमार, 296 पराणक, 214 पल्लवाधीश, 177 पल्लवों, 226 पलक्कड़,90 पलाशिनी, 64, 115 पहलव, 67, 71 पवाया, 90 पश्चिमपुर, 130 पश्चिम मालवा, 90 पत्रमंजरि, 7 पाकिस्तान, 1,3 पाटक, 242 पाटलिपुत्र, 27, 89, 99 पाण्ड्य , 12, 16, 178, 209, 226 पाण्ड्य राज, 38 पाणिनि, 2 पातालमल्ल, 228 पारादा, 58 पारियात्र, 66,71, 148 पालक्क, 90 पालितक, 241 पाली, 278 पिचाशी पद्रक, 72 पिण्डारविटिजोटिका, 241 पिण्डितकावट, 58 पिठापुरम्, 177 पितनिक, 16 पिपरवा, 3 पिपहरवा, 4 पिष्टपुर, 177 For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शब्दानुक्रमणिका पित्रार्य, 83 पीठापुरम, 90, 315 पीठी, 315 पीरू, 1 पुण्ड्रवर्धन, 90, 240 पुण्यराज, 5 पुण्यवर्मा, 225 पुर्तगाली, 58 पुलकेशी, 176, 177, 178 पुलकेशी (द्वितीय), 175 पुलकेशी (प्रथम), 174 पुलिंदों, 16 पुष्कर, 76 पुष्यगुप्त, 65 पुष्यमित्र, 46 पूर्वी, 91 पूकीय वंश, 80 पूर्णना, 94 पूर्णेन्द्रसेन, 200 पूर्वी बिहार, 38 पेरिस, 3 पेल्लापेल्ली, 183 पैप्पलादि, 83 पैष्टपुर, 90 qust, 281 पौषपुरिक, 56 फल्गुदेव, 46 फ्लीट, 6 फिन्नी लिपि, 1 फीनिशियन, 1 बृहद् विंगक, 213 फ ब www. kobatirth.org बङ्गीय, 168 बङ्गदेश, 317 बडनगर, 92 धुमती, 199 बन्धुवर्मा, 130 बरार, 71 बरेली, 90, 168 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बल, 52 बलवर्मा, 90 बलिप्रबन्ध, 249 बृहस्पति, 309 बृहस्पतिमित्र, 38 बर्मा, 8 ब्रह्मागिरि, 7 बाउक, 182, 184, 185 बाघ, 9 बालचन्द्र, 168 बालादित्य, 199, 201, 251 बाहलिक, 49, 97 ब्राह्मदेव, 242 ब्राह्मी, 2, 3, 4, 8 बिन्दुसरोवर, 140 बिल्व, 241 बिल्वङ्गअर्धस्रोतिका, 241 बिलवणक, 105 बीजपूरक, 240 बुज्जुकावसथ, 141 बुद्ध, 10 बुधगुप्त, 133 बुद्धमित्रा, 52 बुद्धार्य, 83 बुलन्दशहर, 90 बूलर, 6, 40 For Private And Personal Use Only 359 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 360 प्राचीन भारतीय अभिलेख भीम, 297 भुलुन्द, 9 भूअकूप, 184 भैमरथी, 176 भोगभट, 183 भोज, 16, 183, 239, 297 भोजदेव, 290, 291 भोजदेवस्य,7, 251, 278 भोजप्रबंध,5 भोट, 264 बेटद्वारका, 3 बंगदेश, 249 बंगला, 4 भगवतप्रकाश, 139 भगवतशरणजी, 9 भगवती सूत्र, 6 भगवद्दोष, 148 भृगुकच्छ (भडौंच), 58 भगवद्दोष, 141 भट्ट, 230 भट्टारक,9 भट्टि , 184 भट्टिकदेवराज, 184 भण्डिकुल, 248 भतृदेवार्य, 83 भर्तृहरि, 5 भद्रपाल, 47 भद्रपुष्कर, 94 भद्रयानी,71 भद्रा, 183 भद्रानीक भिक्षु-निकाय, 74 भद्रायक निकाय, 74 भद्रस्वामी, 168 भद्रिलार्य, 83 भरतपुर, 91 भागभद्र, 8,33 भानपुरा, 8 भानु, 169 भानुगुप्त, 135 भारवी, 178 भालन्दायन, 83 भिल्लादित्य, 184 भिक्षुसंघ,71 मइट, 230 मर्कट सागर, 168 मग, 16 मगध, 38, 226 मण्डोर, 183 मत्स्य, 71, 239, 249 मतिल, 90 मथुरा, 58 मथुराक्षेत्र, 91 मद्र, 239 मदनचन्द्र, 316 मध्यप्रदेश, 91 मधुकारिका, 53 मन्दास, 309 मृच्छकटिक,6 मण्टराज, 90 मण्डपिका, 284 मत्तमयूरनाथ मद्रक,91 मधु, 56 मन्दसौर, 8,9 मनुस्मृति, 84 For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 361 मयूर, 184 मरु (मारवाड़), 66 मलय, 71, 278, 297 मलाया, 8 महणदेव, 315 महन्ताप्रताश, 240 महातलार, 80 महामेघवाहन, 36 महाराष्ट्र, 177 महेन्द्र, 71,90 महेन्द्रगिरि, 90 महेन्द्रविभू, 212 मागध, 20 मार्गपति, 199 माठरीपुत्र श्री वीरपुरुषदत्त, 80 माण्डव्यपुर, 183 माढाशाम्मली, 241 मातृचेट, 156 मातृदास, 156 मातृविष्णु, 133 माधव, 135, 265 माधुमतेय, 282 मान्धाता, 224 मान्यखेट, 230 मालव, 58, 90, 91, 127, 177, 211, 249, 265 मालवगण, 76, 149 मालवा, 66, 225, 261 मालाद, 199 माहाकान्तर, 90 मिथिला, 261 मिहिर, 249 मिहिरकुल, 152, 156 मिहिरवर्मा, 164 मिश्र, 1 मिश्री, 1 मीनेन्द्र, 30 मुग्धख, 278 मुण्डीर, 297 मुण्डीरपत्तन, 297 मुद्गगिरि (मुंगेर) 184 मूलक, 71 मेड़ता, 183 मेडन्तकपुर, 183 मेधावी, 74, 284 मोखरि बलपुत्र बलवर्धन, 78 मोखरि बलपुत्र बलसिंह, 78 मोखरि बलपुत्र सोमवेद, 78 मौर्य, 176 मौर्यराजा चन्द्रगुप्त, 65 मंगलेश, 175 य यदु, 239 यमुनानदी, 265 यवन, 16, 239 यवनानि लिपि, 2 यशोदेवी, 306 यशोवर्मदेव, 199, 259 यशोवर्माराज, 261 युवराजदेव, 281, 284 येल्लमञ्चिलित,90 यौधेयो, 66, 91 रघुवंश, 92 रजिल्ल, 183 रजोट, 242 For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 362 प्राचीन भारतीय अभिलेख रोहणगिरि, 317 रोहिणीमिश्र, 45 रोहितवाटी, 241 रोहिल, 183 रट्टमार्तण्डदेव, 228 रणराग, 174 रविकीर्ति, 147, 178 रविशांति, 164 राज्यपाल, 90 राज्यवर्धन, 140, 168 राजपुत्र देवट कृतालि, 240 राजशेखर, 286 राजाभोज, 5 राणकशूलपाणि, 399 रामचन्द्र, 182 रामटेक, 105 रामतीर्थ, 58 रामनगर, 90, 168 रामभद्र, 249 रामायण, 2,5 रामेश्वर, 297 रायल एशियाटिक,6 राष्ट्रकूट, 229 । रावण,5 राहुलावाद, 20 राहिल, 260 रिस्थल,9 रुद्रदामन, 67 रुद्रदामा, 64 रुद्रदास, 9 रुद्रदेव, 90 रुद्रसेन, 90, 105 रुद्रार्य, 83 रुद्रशम्भु, 282 रुहेलखण्ड रेवत्यार्य, 84 रेवा, 284 लघुविम, 213 लज्जा , 48 लर्धयानिका, 241 लयणगिरि, 213 लवणनगर, 286 लक्ष्मण, 182, 281, 283 लक्षवर्म, 264 लाट, 177, 279, 296, 297 लाट देश, 127, 242 लिच्छवी, 92, 94, 105, 119 लियक,45 लियक कुसुलक, 45 लुम्बिनि, 28 लुम्बिनीदेवी रुम्मिनदेई, 28 लेखपंचिाशिका,7 लैटिन, 1 लोकप्रकाश, 7 लोणियवंश, 194 लंका, 5 लंदन, 3 व व्याघ्रतटी, 240 व्याघ्रराज, 90 व्याध, 316 व्यास, 106 वक्क, 184 वकन, 55 वज्रट, 209 For Private And Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 363 वज्रटस्वामी, 296 वज्रिणीदेवी, 167 वटपद्रक, 290 वडडमुख, 230 वत्स, 249 वत्सगुलम, 83 वत्सराज 232, 248 वन,71 वनवासी, 176 वनस्पर, 52 वनस्पर खरपल्लान, 52 वरदा (वर्धा), 176 वररुचि,7 वल्ल, 184 वल्लभराज, 210, 212 वल्लमण्डल, 184 वसिष्ठीपुत्र, 80 वसुरात, 5 वाक्यपतिराजदेव, 290, 296 वाक्यपदीय,5 वाकणकर ल0 श्री0, 3 वाकणकर शोध, 9 वाकाटकवंश, 83 वाकाटकों, 105 वार्णासा, 58 वातापि (बदामी), 174 वामन, 317 वाराणसी, 52 वाराहीपुत्र, 59 वारेन्द्रक, 309 वासिष्क, 53 वासिष्कपुत्र, 56 वासिष्ठीपुत्र, 70,74 वासुदेव, 33 वासुदेवभट्ट, 213 वासुल, 141, 153 विक्रमादित्य, 8 विजयमित्र, 30, 31 विजयशक्ति, 260 विजयसेन, 306 विटकालि खाटकयानिका, 240 विटि, 241 विदर्भ, 71, 248 विदिशा उदयागिरि, 99, 265 विध्यार्य, 83 विन्ध्य, 66, 71, 226 विनशन, 66 विनायक पालदेव, 265 विभीषण, 140 विभीषणवर्द्धन, 140, 141 विमानपुर, 286 विरपुरुषदत्त, 80 विरीवल, 31 विल्लार्ध स्रोतिका, 240 विलासिनी, 65, 115 विवुमविविद्यालय,9 विशाखापटनम, 90 विष्णवार्य, 83 विष्णु, 84 विष्णुगोप, 90 विष्णुभट, 230 विष्णुवर्धन, 146 विष्णुपद पर्वत, 97 विष्णुरवि, 185 विष्णुपाल स्वामी, 74 वीडा, 281 For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 364 प्राचीन भारतीय अभिलेख वीरनारायण, 223, 229 वेदसविल्विका, 241 वेदि श्री, 42 वेंगि, 211, 225, 227 वेसानिका, 241 वैङ्गी, 90 शक-मुरुण्ड, 91 श्वभ्र, 66 शक्तिश्री, 42 शक,71 शृङ्गारमञ्जरीकथा, 5 शम, 48 शमपुत्र, 48 शरभङ्ग, 101 शरभराज, 135 शर्वस्वामी, 226 शाक्यमुनि, 30, 31 शाकल, 91 शातकर्णि, 42 शान्तिश्री, 80 शारदा लिपि, 4 शाल्याङ्कन, 90 शाव,99 शाहबाजगढ़ी, 4 शाहीकिर, 264 शिबी, 229 शिमुकसातवाहन, 42 शिलुक, 184 शिवताण्डव,5 शिवार्य, 83 शीलचन्द्र, 201 शुकनं शुष्णयामि, 231 शुभतुङ्गवल्लभ, 223 शूर्पारक, 58 शूद्रक,5 शंकरगण, 283 श्रविष्ठायन, 83 श्रीइशनवर्मा, 164, 190 श्रीकृष्णगुप्त, 189 श्रीकृष्णादेवी, 194 श्रीकर्कराज, 209, 210 श्रीकुन्द, 317 श्रीकुमारगुप्त, 119, 190 श्रीखारखेल, 36 श्रीगुप्त, 92, 94, 119 श्रीगौड़, 214 श्रीदिवाकरसेन, 105 श्रीघटोत्कच, 92, 94, 105, 119 श्रीचन्द्रगुप्त, 92, 94, 95, 101, 105, 119 श्रीजगत्तुंग, 230 श्रीदामोदरगुप्त, 190 श्रीदेद्ददेवी, 238 श्रीदेवगुप्त, 67 श्रीधंग, 264 श्रीनरवर्धन, 167 श्रीनाग, 214 श्रीनारायणवर्मा, 242 श्रीनिवास, 285 श्रीप्रभावती, 105 श्रीप्रवरसेन, 83 श्रीपुलुमावि, 70, 71, 74 श्रीफलभिषुक, 241 श्रीभोगभट, 243 श्रीमती अप्सरोदेवी, 167 For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दानुक्रमणिका 365 श्रीमतीमहादेवी, 193 श्रीमहासेनगुप्त, 191 श्रीमाधवगुप्त, 191 श्रीमान्, 192 श्रीमाल, 213 श्रीयशोधर्मा, 146, 152, 264 श्रीयशोमती. 167, 168 श्रीयशोवर्धन, 183 श्रीराज्यवर्धन, 167 श्रीरामपाल, 315 श्रीलंका, 3,8 श्रीवप्यट, 238 श्रीवाक्पति (पुत्र), 260 श्रीवामराजदेव, 194 श्रीविजयगुप्त, 190 श्रीविन्ध्यशक्ति, 83 श्रीवैद्यनाथ, 283 श्रीवैरीसिंह, 296 श्रीशङ्करगणदेव, 194 श्रीशान्तमूल, 80 श्रीशीलुक, 184 श्रीस्तन, 71 श्रीसमुद्रगुप्त, 92, 94, 105 श्रीसर्वसेन, 83 श्रीसातकर्णि, 72 श्रीसिन्धुराज, 296 श्रीसामन्त, 214 श्रीसीयक, 296 श्रीसोम, 76 श्रीहर्ष, 168, 168, 209, 261, 296 श्रीहर्षगुप्तदेव, 190, 192 श्रीत्रिपुरी, 286 श्रेष्ठगिरि, 71 स स्रवणी, 184 स्कन्दगुप्त, 65, 112, 120, 169 स्कन्दसागर, 80 स्कन्दश्री, 80 स्थालीकट, 241 स्थिरानन्द, 285 स्वामिदत्त, 90 स्वामिदास,9 स्वामिपल्लवराज, 90 सङ्गम, 286 सज्जाहली, 281 सजित, 48 सत्याश्रय, 178 सतलज, 91 सतियपुत्र, 12 सदाशिव 282 सनकानिक,91 समतट, 90 समलिपद,74 समारण, 241 समुद्रगुप्त, 89,92, 119 सरिवल्लिका, 231 सर्वे वेस्टर्न इण्डिया, 40 सहय, 71 सांचि, 91 सातवाहन, 71 सामन्तसेन, 305 सामलिपद्र, 74 सामलिपद्र देविलेन, 74 साबरमती, 66 सामी, । साविकूवारक, 230 For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 366 सिकता, 115 सिदिवितरक, 105 सिन्धु, 1, 66, 248 सिन्धुराजदेव, 290 सिन्धुलिपि, 4 सिद्धपुर, 7 8 सिबी,' सिंहल, 91 सिंहवर्मा, 280 सीत्वार्य, 83 सीता, 2, 5 सीतारामजी, 9 सीरुक, 286 सीहोर, 9 सुंदर, 16 सुदर्शन, 64, 65, 114, 115 सुबन्धु, 9 सुभट, 243 सुमात्रा, 91 सुमेरी, 1 सुराष्ट्र, 66, 67, 71, 113 सुवर्णमुख, 58 सुवर्णसिकता, 65 सुविशाख, 67 सुसुनिया, 90 सूर्यवर्मा, 163 164 सूक्ष्मशिव, 193 सेनभोगिक, 232 सैन्धवलिपि, 3 www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राचीन भारतीय अभिलेख सोगिनेटा, 76 सोमनाथ 297 सोमेश्वर, 283 सोसायटी, 6 सौभाग्यपुर, 286 सौवीर, 66 संजान, 231 संक्षोभ, 90 हृदयशिव, 282 हनुमान्नाटक, 5 हनुमान, 2, 5 हरिचन्द्र, 183 हरिभट्ट, 230 हरिवर्मा, 161 हर्ष, 168, 177 हर्षचरित, 90 हस्तिवर्मा, 90 1 हित्ती लिपि, हिब्रू, 1 हिरण्यार्य, 83 हीरोग्लाइफिक, 1 हुविष्क, 55 हूण, 152 ह्वेनसांग, 28 हेमन्तसेन, 305 For Private And Personal Use Only हेरम्बपाल, 264 हेलियोदोर, 33 सदुम्मिका, 240 ह Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmanail Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभिलेख-1 367 । Seaseena GE SA SESSMANA JAN । naiterature चित्र सं० 1. अशोक का सातवाँ स्तम्भ लेख (दिल्ली-तोपरा) For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभिलेख-1 367 RER PAHAT Sameer PH Pathan SASTER चित्र सं० 1. अशोक का सातवाँ स्तम्भ लेख (दिल्ली-तोपरा) For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 368 प्राचीन भारतीय अभिलेख चित्र सं० 2. हेलियोदोर का बेसनगर (विदिशा) स्तम्भलेख For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अभिलेख - 3 कुमार www. kobatirth.org EVEREN For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 369 चित्र सं0 3. चन्द्रगुप्त द्वितीय का साँची शिलालेख Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 370 www. kobatirth.org 7 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only प्राचीन भारतीय अभिलेख चित्र सं0 4. अशोक का तेरहवाँ लेख (शाहबाजगढ़ी) Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ISBN 81-88808-25-3 शिवालिक प्रकाशन 27/16, शक्ति नगर, निकट नागिया पार्क, दिल्ली-7 011-42351161 (आ.), 0-9868561340 (मो.)। E-mail : shivalikprakashan@yahoo.com 979818811808259॥ Rs. 695/ For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kuo əsn jeuosjed puy əleaud 104 डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित जन्म : 2 नवम्बर, 1943 चन्दोड़िया, धार, मध्य प्रदेश शिक्षा : हिन्दी, संस्कृत तथा प्राचीन इतिहास में एम. ए.,पी-एच.डी. । डॉ. राजपुरोहित भारतीय विद्वत्परंपरा के अनन्य साधक, सर्जक और अनुसंधाता। साहित्य, संस्कृति और इतिहास के विलक्षण अध्येता। संस्कृत, हिन्दी, मालवी में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ : भारतीय कला और संस्कृति, भारतीय अभिलेख और इतिहास, राजा भोज, भारत के प्राचीन राजवंश (तीन भाग)- पं. विश्वेश्वरनाथ रेउकृत का संपादन, राजा भोज का रचनाविश्व (पुरस्कृत), प्रतिभा भोजराजस्य (पुरस्कृत), भोजराज (पुरस्कृत), कालिदास, कालिदास का वागर्थ, उज्जयिनी और महाकाल, विद्योत्तमा (उपन्यास), वीणावासवदत्ता (हिन्दी रूपान्तर), पद्यप्राभृतक (हिन्दी रूपान्तर), सेज को सरोज (मालवी रूपान्तर), हलकारो बादल (मेघदूत का मालवी रूपान्तर), मालवी लोकगीत (सम्पादन-अनुवाद), लगभग चार पाँच शोधपत्रों के साथ ही संस्कृत, हिन्दी, मालवी में विभिन्न रचनाएँ प्रकाशित। पुरस्कार : मध्य प्रदेश संस्कृत अकादेमी के भोज पुरस्कार (1984, 1990), म. प्र. उच्चशिक्षा अनुदान आयोग द्वारा डा. राधाकृष्णन सम्मान (1990, 1992), म. प्र. साहित्य परिषद् का बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' पुरस्कार (1988), म. प्र. राज्यपाल द्वारा भोज सम्मान से अलंकृत (1993)। सम्प्रति : उज्जैन के सांदीपनि महाविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में आचार्य और अध्यक्ष। संपर्क : बिलोटीपुरा, उज्जैन-456006 Jipuewueko unsjebessejley uus ekjeyov bio yumeqoy 'MMM eipueyeueupery user neuew pus Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin hasan 135373 gyanmandirikobatirth.org ISBN 81-88808-25-3 शिवालिक प्रकाशन 27/16, शक्ति नगर, निकट नागिया पार्क, दिल्ली-7 011-42351161 (आ.), 0-9868561340 (मो.) E-mail : shivalikprakashan@yahoo.com 917981880808259 // - Rs. 695/ For Private And Personal Use Only