________________ કષાયપ્રાભૃતચૂર્ણિ અને જયધવલા ટીકામાં રસઅપવર્તનાનું સ્વરૂપ 209 निर्देश किया है उसका भाव यह है कि प्रथम जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्त स्पर्धक तो जघन्य निक्षेपरूप होते हैं अत एव उनका अपकर्षण नहीं होता / उसके आगे अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूप होते हैं, अत एव उनका भी अपकर्षण नहीं होता / उसके आगे उत्कृष्ट स्पर्धकपर्यन्त जितने स्पर्धक होते हैं उन सबका अपकर्षण हो सकता है / किन्तु इतनी विशेषता है कि अतिस्थापनाके ऊपर प्रथम स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप अतिस्थापनाके नीचे जिन स्पर्धकोंमें होता है उनका परिमाण अल्प होता है, अत एव उनकी जघन्य निक्षेप संज्ञा है / उसके आगे निक्षेप एक-एक स्पर्धक बढ़ने लगता है / परन्तु अतिस्थापना पूर्ववत् बनी रहती है / किन्तु जिस स्पर्धकका अपकर्षण विवक्षित हो उसके पूर्व अनन्त स्पर्धक अतिस्थापनारूप होते हैं और अतिस्थापनासे नीचे सब स्पर्धक निक्षेपरूप होते हैं / उदाहरणार्थ एक कर्ममें कुल स्पर्धक 16 हैं / उनमेंसे यदि प्रारम्भके 4 स्पर्धक जघन्य निक्षेप हैं और 5 से लेकर 10 तक छह स्पर्धक अतिस्थापनारूप हैं तो 11 वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप 1 से 4 तक के चार स्पर्धकोंमें होगा / १२वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप 1 से 5 तकके 5 स्पर्धकोंमें होगा / 13 वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप 1 से 6 तकके 6 स्पर्धकोंमें होगा / इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक स्पर्धकके प्रति निक्षेप भी एक-एक बढ़ता हुआ १६वें स्पर्धकका अपकर्षण होकर उसका निक्षेप 1 से लेकर 9 तकके 9 स्पर्धकोंमें होगा / स्पष्ट है कि अतिस्थापना सर्वत्र परिमाणमें तदवस्थ रहती है, किन्तु निक्षेप उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जाता है / यह अंकसंदृष्टि है / इसी प्रकार अर्थसंदृष्टि समझ लेनी चाहिए / '