Book Title: Nrutyaratna Kosh Part 02
Author(s): Rasiklal C Parikh
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 8
________________ [ ६ ]. सम्पूर्ण महाग्रन्थ में जो सुविचारित योजना, व्यापक सांस्कृतिक सूझबूझ तथा नैपुण्य युक्त कार्यदक्षता के दर्शन होते हैं । उसके आधार पर डा० प्रेमलता शर्मा का यह कथन ठीक प्रतीत होता है कि, "ग्रन्थ रचना की प्रवृत्ति, रचना की स्वरूपयोजना तथा उसकी रूपरेखा का निर्माण, सामग्री का चयन, संकलन- सम्बन्धी जटिल समस्याओं का समाधान, प्राचीन ग्रन्थ के मूल्यांकन की दृष्टि का निर्धारण तथा लेखक की अपनी निजी दृष्टि का प्राकलन" आदि जो भी इस ग्रन्थ में दृष्टिगोचर होते हैं उस सव का श्रेय स्वयं कुंभा को जाना चाहिए। यह स्वाभाविक है कि इस ग्रन्थ रचना के महाप्रयत्न में उसने कन्ह व्यास जैसे अनेक विद्वानों से न केवल सामग्री संकलनादि में, अपितु ग्रन्थ को लिपिबद्ध करने तथा भाषा, छन्द प्रादि की दृष्टि से संशोधन करने में भी सहयोग प्राप्त किया होगा । ऐसी अवस्था में यह असंभव नहीं है कि किसी विद्वान् ने अपनी किसी रचना के कुछ श्लोकों को किसी भी अवस्था में सम्मिलित कर दिया हो। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि एकलिंगमाहात्म्य स्वयं एक संकलन ग्रन्थ हो (जैसा कि वह सरसरी दृष्टि से देखने पर प्रतीत होता है) जिसमें कन्ह व्यास ने अपनी रचनाओं के साथ-साथ संगीतराज सहित अन्य ग्रन्थों से पद्य संकलित किये हों । इसी आधार पर कुंभाकृत रसिकप्रिया (गीतगोविन्द की टीका ) के श्लोक का एकलिंगमाहात्म्य में सम्मि लित होना संभव हो सकता है, क्योंकि रसिकप्रिया में लेखक की जिस क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय मिलता है वह व्यास जैसे शुद्ध परम्परावादी के लिए उपयुक्त नहीं प्रतीत होता । रसिकप्रिया में गीतों के लिए जिन रागों, तालों प्रादि का विधान किया गया है, वे जयदेव के गीतगोविन्द में प्रयुक्त रागों, तालों यादि से भिन्न है और परम्परा के इस प्रतिक्रमण के लिए कुम्भा की कट्टर परम्परावादी संगीत' अव भी आलोचना करते हैं । ऐसी स्थिति में कन्ह व्यास का अपने लिए अर्थदास शब्द का प्रयोग करना केवल यही प्रकट करता है कि उसके हृदय में वैराग्य की भावना होते हुए भी वह विरक्त न होकर, राज्यसेवा में लगा रहा। संगीतराज और एकलिंगमाहात्म्य की शैली और भाषा के सादृश्य पर बहुत महत्त्व नहीं दिया जा सकता क्योंकि इस सादृश्य का कारण यह भी हो सकता है कि कुम्भा ने भाषा तथा छन्द-रचना का ज्ञान कन्ह व्यास से प्राप्त किया हो अथवा निकट सम्पर्क के कारण उसका अनुकरण किया हो । यह भी संभावना है कि बहुत से छन्दों में अभिव्यक्त अर्थ को स्वयं कुम्भा ने अपने शब्दों में कह दिया हो और कन्ह व्यास ने उस अर्थ को स्वनिर्मित छन्दों में १. तुलना करो, स्वामी प्रज्ञानानन्द, हिस्टोरिकल डवलपमेंट प्रॉव इन्डियन म्यूजिक, पृ. २३१

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