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जय जिनेन्द्र अवश्य करो :
प्राय : जगत में अधिकांश धर्मीजन जब परस्पर एक दूसरे को मिलते हैं, तब अपने अपने भगवान के नाम के साथ 'जय' शब्द जोड़कर नमस्कार भाव प्रकट करते हैं, यद्यपि स्पष्ट नमस्कार या प्रमाण शब्द बोलकर भी नमस्कार का व्यवहार किया जा सकता है, फिर भी स्वामिप्रेत भगवान का नाम जोड़कर उसके साथ 'जय' शब्द संलग्न करके नमस्कार किया जाता है। ऐसा कई लोग करते हैं - जैसे 'जय 'रामजी' जय श्री कृष्ण, 'जय श्री केशरियाजी' ' जय सिताराम,' जय श्री गणेश, आदि वाक्य हिंदू धर्मावलम्बीजन परस्पर मिलने पर बोलते हैं । सिख पंजाबी 'जय सत्गुरु' के नाम के साथ गुरु नानक का नाम जोड़कर बोलते हैं । ऐसे अनेक वर्गों में ऐसा व्यवहार प्रचलित है । इसके पीछे भी ऐसी मान्यता है कि एक स्वधर्मी मिले तो उसे देखकर या उसके कारण भगवान का नाम तो इतनी बार लिया ही जाता है । इतनी बार प्रभु का नाम स्मरण होता है। यह अच्छी बात है, शिष्टाचार है सभ्याचार है । व्यक्ति इस प्रकार बोलकर अपनी श्रद्धा भी व्यक्त करता है । धर्म को भी प्रकाशित करता है, साथ ही साथ स्वंय के धर्मी होने का परिचय भी देता है । अतः यह अच्छी बात हैं, शिष्टाचार है सभ्याचार है । व्यक्ति इस प्रकार बोलकर अपनी श्रद्धा भी व्यक्त करता है । धर्म को भी प्रकाशित करता है, साथ ही साथ स्वंय के धर्मी होने का परिचय भी देता है । अतः यह व्यवहार उचित भी है ।
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अतः
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तो क्या हम जैन इसका अनुकरण न करें ? क्यों न करें ? इसमें कौन सा बुरा हेतु है ? क्या यह अशिष्टाचार असभ्याचार है ? क्या इस में कोई विपरीतता है ? क्या पाश्चात्य संस्कृति सूचक (Good Morning, Good Night) आदि शब्दों का व्यवहार ही उपयुक्त है ? इन शब्दों के अर्थ में भी कोई आनन्द नहीं । मात्र रात या दिन का वाची शब्दों को याद करने के सिवाय इसमें और है ही क्या ? परमात्मा का नाम स्मरण करने में तो आप संकोच अनुभव करते हैं, तो क्या इसे शिष्टाचार कहें ? पुराने लोगों में कई बड़े वर्गों में आज भी 'जय जिनेन्द्र' बोलने की प्रथा है । परम्परागत चली आ रही प्रणाली जब बड़ो के पास नई पीढी को प्राप्त होती हैं, तभी परम्परागत संस्कार टिक पाते हैं । 'जय जिनेन्द्र' शब्द प्रयोग में एक दूसरे को मिलते समय जिनेश्वर भगवान का स्मरण तो होता है - प्रभु को याद तो किया जाता है, इतने समय तो भगवान का शुभ नाम लिया जाता है।
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