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जाने चाहिये थे । यदि सूर्य में कंपन होता है तो हजारों थालिओं में पड़े हुए प्रतिबिंबों में भी एक साथ कम्पन प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह ईश्वर में जो कुछ भी होता है, तदनुसार जगत के सभी जीवों में भी होना चाहिये ।
एक जीव माने तो कैसे चलेगा ?...
इस अखिल ब्रह्मांड में मात्र एक ही जीव-ईश्वर को माना जाए और अन्य सभी में जीवत्व ही नहीं, अन्य कोई जीव ही नहीं, उपाधि-भेद-प्रतिबिंब मात्र रूप में भासमान होता है - ऐसा माने तो जगत के सभी जीवों में एक समय एक साथ समान क्रिया ही होनी चाहिए । ईश्वर में जो कुछ भी हो, उसी समय सभी जीवों में भी समान रूप से एक साथ होना चाहिये । यदि ईश्वर नींद करता है तो सभी को एक साथ निद्राधीन होना चाहिये, और ईश्वर जागे तब ‘सभी को एक साथ जागना चाहिये । फिर कोई जागे और कोई नींद करे - ऐसा कैसे होता है ? किसी को सुख तो किसी को दुःख-ऐसा करे-ऐसा कैसे होता है ? किसी को सुख तो किसी को दुःख - ऐसा भिन्न भिन्न प्रकार से क्यों ? नरक में सभी दुःख वेदना और पीड़ा सहन करते हैं और स्वर्ग में सभी सुख का आनंद लें - ऐसा क्यों होता है ? यहां एक जीव की अंगुली कटने पर सभी जीवों की अंगुलिया कटनी चाहिये पर ऐसा कुछ भी नहीं होता ।
अनंत आत्माएँ हैं - इस पक्ष को मान लो :
अतः यदि अनंतात्माएँ हैं - इस पक्ष को मान लो तो ऐसी कोई समस्या ही खड़ी नहीं होगी । सत्य स्वरूप यह है कि जंगत में अनंत आत्माएँ हैं । आत्मा कहो या जीव कहो - बात एक ही है । जीव-आत्मा-चेतन ये सभी पयार्यवाची नाम हैं। संसार में एक मात्र ईश्वर को ही मूल आत्मा मानकर सब में उसका प्रतिबिंब मानना और अन्य सभी जीवों को ईश्वर का अंश रूप मानने की अपेक्षा तो अधिक सरल सत्य यह है कि अन्य सभी अनंत जीव स्वतंत्र हैं । संबकी अपनी-अपनी आत्मा स्वतंत्र है । प्रत्येक शरीर में जीव हैं । प्राणधारी जीव स्वयं स्वकृत शुभअशुभ कर्मो के परिपक्व होने पर तदनुसार सुख-दुख भोगता है नरक के जीव भी अपने ही अशुभ पाप कर्मों के फलस्वरुप दुःख की दारुण वेदना भुगतते हैं और शुभ पुण्यकर्म के योग से जो जीव स्वर्ग की गति प्राप्त कर सके हैं वे सभी क्षेत्र के योग्य सुख भोगते हैं । ये अनंत जीव ८४ लाख जीव योनियों में जन्म धारण
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