Book Title: Nadi Darpan
Author(s): Krushnalal Dattaram Mathur
Publisher: Gangavishnu Krushnadas

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) नाडीदर्पणः। नाड्या मूत्रस्य जिह्वायाः कुरु पूर्व परीक्षणम् ॥ औषधं देहि तज्ज्ञाने वैद्य रुग्णसुखावहम् ॥ १४ ॥ अर्थ-हे वैद्य प्रथम नाडी, मूत्र, और जिव्हाका परीक्षण कर जब नाडी मूत्र और जिव्हाको परीक्षाद्वारा रोगका निश्चय करलेवे तब रोगीको सुखकारी औषधी दे ॥१४॥ यथा वीणागता तन्त्री सर्वानागान्प्रभाषते ॥ तथा हस्तगता नाडी सर्वानोगान्प्रकाशते ॥ १५॥ अर्थ-जैसैं वीणाका तार संपूर्ण रागोंको सूचना करताहै, उसी प्रकार हाथकी नाडी सर्वरोगोंको प्रकाशित करतीहै इस श्लोकका तात्पर्य यह है वीणाका तारभी जो बजानेवालेहै उन्हीको उस तारके रागकी प्रतीत होती है उसीप्रकार हाथकी नाडीभी जो नाडीके जानने वाले है उन्हीको रोगप्रकाशित करतीहै जैसे मूर्खके वास्ते तारद्वारा राग नहींमालुमहो उसीप्रकार मूर्खवैद्यको नाडीदेखना निष्प्रयोजनहै ।। १५ ।। नाडीलक्षणमज्ञात्वा निदानग्रन्थवाक्यतः॥ चिकित्सामारभेद्यस्तु स मूढ इति कीर्त्यते ॥१६॥ अर्थ-जो वैद्य नाडीके लक्षण विना जाने केवल निदानग्रंथके वाक्योंसे रोगपरीक्षा कर चिकित्सा करताहै वह मूढ ( मूर्ख ) ऐसा कहलाता है ॥ १६ ॥ निदानपञ्चकादीनां लक्षणं वैद्यसत्तमः॥ नाडीतु संवलीकृत्य चिकित्सामाचरेत्खलु ॥१७॥ अर्थ-इसीकारण उत्तमवैद्य निदान पंचकादिके लक्षण जानके और उनमें नाडीके लक्षणभी मिश्रित ( सामिल ) करके चिकित्साका प्रारंभ करे ॥ १७ ॥ कियत्स्वपि च चिह्नेषु ज्ञातेष्वपि चिकित्सितम् ॥ निष्फलं जायते तस्मादेतच्छृण्वेकचेतसा ॥१८॥ अर्थ-अब कहते है कि बहुतसे चिन्ह जानने परभी चिकित्सा निष्फल होजाती है अतएव इसनाडीदर्पणग्रंथमें जो कहा जाताहै उसको हेवेद्य! तू एकाग्र चित्तसैं सुन १८ तत्रादौ प्रोच्यते नाडीपरीक्षातिप्रयत्नतः॥ नानातन्त्रानुसारेण भिषगानन्ददायिनी ॥ १९॥ अर्थ-तहां प्रथम अनेक ग्रंथोंके अनुसार वैद्योंको आनंददायिनी यत्नपूर्वक नाडीपरिक्षा कहतेहै ॥ १९॥ For Private and Personal Use Only

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