Book Title: Nadi Darpan
Author(s): Krushnalal Dattaram Mathur
Publisher: Gangavishnu Krushnadas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीः । नाडीदर्पणः । पाठकज्ञातीयमाथुर श्रीकृष्णलालतनयदत्तरामेण सङ्कलितः स्वकृतभाषाटोकाविभूषितः संशोधितश्व । KOOD स च Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकृष्णदासात्मज गङ्गाविष्णुना स्वकीये लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर मुद्रायन्त्रालयेऽङ्कितम् । मा.श्री. कैलाससागर म्ररि ज्ञान मंदिर महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा कल्याण (मुम्बई) संवत् १९५० शके १८१५ अस्य ग्रन्थस्य पुनर्मुद्रणाद्यधिकारः १८६७ तमाब्दिकराजनियमानुसारेण प्रकाशकाधीनः । For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya Shri Kallassagars १श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासकृत रामायण (सटीक) पंडित-ज्वालाप्रसादकृतटीका। लीजिये रामायण सटीकभी लीजिये असल पुस्तक श्रीगुसाईजीकी लिपिके अनुसार व सम्पूर्ण क्षेपकों सहित जिसमें शंका समाधान अद्यपर्यंत विस्तारपूर्वक लिखें हैं इसके टीकाकी रचना ऐसी उत्तम और अपूर्व मनभावन सुखउपजावन रामयशपावन है कि, पढते २ कदापि तृप्ति नहीं होती तुलसीदासजीका जीवनचरित्र रामवनवास तिथिपत्रं माहात्म्यभी सम्मिलितहै कीमत ८ स. डाकमहसूल २० २ रामायण बडा। सहित श्लोकार्थ शूढार्थ छन्दार्थ स्तुत्यर्थ शंकासमाधान और तुलसीदासजीका जीवनचरित्र, रामवनवासतिथिपत्र, रामाश्वमेध लवकुशकाण्ड, माहात्म्य और बरवारामायणके जिस्में पंचीकरणका बडा नक्शा और ३८०० कठिन २ शब्दोंके अर्थ लिखेहैं अक्षर अत्यंत मोटा ग्लेजकागजका की० रु.रफ कागजकारु० ३रामायण मझोला। ऊपरके सब अलंकारोंसहित इसका सांचा छोटा है अक्षर सामान्यहै कीमत २॥ रु० रफ् १॥ रु. ४ रामायण गुटका। यहभी पूर्वोक्त सब अलंकारोंसे पूरितहै साध तथा देशाटनकरनेवालोंको अत्यंत उपयोगीहै कीमत बहुतही थोडी केवलरुहै. For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाक्तप्रमोद। दशमहाविद्याओंका और पञ्चदेवोंका पञ्चांग । सम्पूर्ण भारतनिवासि द्विजोत्तमोंपर विदित हो कि, यह अलभ्य क्लिष्टतासे प्राप्त परमगुप्त अत्युत्तम नवीन ग्रंथ हमारे यहां छपा है इसमें आदिशक्ति जगन्माताके दशोस्वरूप अर्थात् काली, तारा, त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमलात्मिका, तथा पंच देवता दुर्गा, शिव, गणेश, सूर्य, विष्णु, और वेदोक्त, शास्त्रोक्त मंत्रोक्त, तंत्रोक्त, विस्तारपूर्वक लिखीहै जिनके चित्र (स्तबीरें) भी फोटूग्राफानुसार यथावत् खींचीगईहें इस ग्रंथका मूल्य५ मुद्रा. मनुस्मृतिः। सान्वय अत्युत्तम सरल हिंदिभाषाटीकासहित छपकर विक्रयार्थ प्रस्तुत है ऐसा उत्तम ग्रंथ अद्यावधिपर्यंत कहीं नहीं छपाथा भारतवर्षके राजा महाराजा तथा विप्रगण इसीके अनुसार राजनीति और प्रजापालन धर्मशासन करते हैं यहाँतक कि श्रीमन्महा राज अंग्रेज बहादूरभी इसका अवलम्ब लेते हैं यहग्रंथ परमसुंदर मोटे टैप् और जाडे विलायती कागजपर छपाहै की. ३ रु? श्रीमद्भागवत संस्कृत तथा भाषाटीका सहित । श्रीवेदव्यासप्रणीत श्रीमद्भागवत अठारहों पुराणोंमेसें श्रीमद्भागवत सबसे कठिनहै और इसका प्रचार भारतखण्डमें सबसे अधिक है यह ग्रंथ क्लिष्टताके कारण सर्व साधारण लोगोंको टीका होनेपरभी अच्छीरीतीसे समझना कठिनथा कोई २ स्थलमें बडे २ पण्डितोंकी बुद्धि चक्करमें उडजातीथी इसलिये विनासंस्कृत पढे सर्व साधारण पण्डित व स्वल्पविद्या जाननेवाले भगवत्भक्तोंके लाभार्थ संस्कृतमूल अतिप्रिय ब्रजभाषाटीका सहित जोकि हिन्दी भाषाओंमे शिरोमणि और माननीयहै उसी भाषामें टीका बनवाकर प्रथमावृत्ती छपायाथा ओ श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकंदकी कृपाकटाक्षसें बहुतही जल्दी हाथोंहाथ विकगई अब इस्की द्वितीयावृत्ती प्रथमावृत्तीकी अपेक्षा अच्छीतरह शुद्ध करवाके मोटे अक्षरमें छपायाहै और संबंधित कथाओंके शिवाय उत्तमोत्तम भक्तिज्ञानमार्गी ५०० अतीव मनोहरदृष्टांत दिये हैं कि जिनके श्रवणसे श्रोताओंका मन भावनानुसार मग्न होजाता है कागज विलायती बढियां लगायाहै माहात्म्यषष्टाध्यायी भाषाटीका सहित इस्के साथही है प्रथमावृत्तीमें मूल्य १५ रुपयाथा इस आवृत्तीमें केवल १२ वाराही रुपया रक्खाहै ज्यादा प्रशंसा बाहुमूल्यमात्रहै (दोहा) एकघडी आधीघडी, ताहूकी पुनिआध ॥ नेमसहित जो नितपढे, कटैकोटि अपराध ॥ १ ॥ गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास "लक्ष्मीवेंकटेश्वर" छापाखाना कल्याण-मुंबई. For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री। नाडीदर्पणस्यानुक्रमणिका। विषय पत्र | | विषयपत्र मंगलाचरण .... .... १ जल स्थल जीवोंकी गतिके अनुसार वाग्भट .... .... .... २ | नाडीकी गति परीक्षणाय .... ६ रोगोंके आठस्थान .... " सद्गुरुद्वारा नाडीको गति पठनीय.... " वैद्योंके सुखार्थ ग्रंथनिर्माण " नाडीको कालपरत्व विलक्षणता .... नाडीको मुख्यतत्व .... " वैराग्य और स्वस्थावस्था में नाडौंको नाडीज्ञानकी आवश्यकता .... ३ | विलक्षणत्व .... .... .... ७ नाडीज्ञानविना वैद्यकी अप्रतिष्ठा.... " नाडीकी अवस्था सर्वदा ज्ञातव्यत्व । नाडीज्ञानविना वैद्यको अधमत्व.... " नाडीके स्पन्दनका कारण .... सर्व रोगमें प्रथम नाडी देखना ...." नाडीके नाम .... .... .... नाडी ज्ञानके विना धन धर्म और नाडीके भेद .... .... ..... " ___ यशकी अप्राप्ति .... .... " सुषुम्ना नाडीका वर्णन .... नाडी मूत्रादि ज्ञानके पश्चात औषध नाभिमें गोपुच्छसमान नाडीयोंका । कथन देना .... ..... ...... .... ४ .... .... नाडी देखनेमें वीणा तन्तुका दृष्टांत साडेतीनकरोड नाडी .... .... नाडी ज्ञानविना निदानद्वारा रोग नाडियोंके साडेतीनकरोड मुख तिनमें एकहजार और बहत्तर स्थूनिर्णय का वैद्यको अधमत्व ...." | ल नाडी .... .... .... निदान और नाडीके लक्षण मिला , सातों नाडी और उनके कर्म .... ___ कर चिकित्सा करनेकी आज्ञा " " यह देह नाडीयों मैं मृदंगके तुल्य वैद्यके प्रति आज्ञा .... " | मढाहै .... .... ..... नाडीपरीक्षाकथन .... " चोवीस नाडियोंको मुख्यत्व .... " नाडीज्ञानकी परिपाटी .... ५ देहधारियोंके कूर्मकी स्थिति और नाडीज्ञानकी उत्कृष्टता .... ___ धमनी नाडियोंकी गणना ...." नाडीदर्पण पढनेका कारण " स्त्रीके वामभागकी और पुरुषोंके " परक्षिाको मुख्यत्व | दक्षिणभागकी नाडी देखना.... नाडीपरीक्षःमें अभ्यासकारण ...." छः नाडी द्रष्टकर.... .... .... " योगाभ्यासके तुल्य नाडीज्ञानकथन! ६ नाभी आदिकी नाडी देखना ..... " For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका सोलह नाडीन्के देखनेकी आज्ञा.... १२ |नाडीन्का स्पर्श .... .... कंठनाडी .... .... " कालपरत्व नाडीकी गति ...... नासानाडी .... .... " वातादि स्वभावक्रम .... उक्तनाडियोंका प्रमाण .... .... " उक्तश्लोकका विरोधी वचन ..... २० जीवको नाडीके आधीनत्व नाडीचक्र.... .... .... परीक्षणीय .... .... " उक्तश्लोकका पुष्टिकर्ता दृष्टांत नाडीज्ञानका समय .... ग्रंथकारका मत ..... .... निषिद्ध काल वादातिकोंकी क्रमसै गति नाडी देखनेयोग्य वैद्य .... वातादिकोंकी विशेष गति मूढ वैद्य .... .... .... दहज नाडीकी चाल .... नाडी देखनेयोग्य रोगी प्रकारान्तर .... .... नाडी दर्शनमें अयोग्य .... त्रिदोषकी नाडी .... परीक्षा प्रकार ..... .... सामान्यतापूर्वक सुखसाध्यत्व दूसरा प्रकार .... .... असाध्यत्व .... .... जीवनाडी .... .... .... " असाध्यत्वमें प्रमाणान्तर.... .... स्त्रियोंके वामहाथ पैरकी और पुरु- . असाध्य नाडीका परिहार.... षोंके दहनेहाथ पैरकी नाडी र प्रसंगवश कालनिर्णय .... लके समान परीक्षा करे .... " मासांतमें मरण नाडी.... अंगुष्ठमूलकी नाडी परीक्षणीयहै .... १७ सातदिवसमृत्यु ज्ञान स्वस्थप्राणीकी नाडीपरीक्षा .... " चतुर्थदिवस मृत्युज्ञान .... स्पर्शनादिको मुख्यत्व होनेसैं उनका तृतीयदिवस मृत्युज्ञान वर्णन .... .... .... " एकदिवसमें मृत्यु.... .. गुरुद्वारा नाडीके परीक्षाका प्रकार १८ तथा .... शास्त्र और पवनप्रवाहके अनुसार असाध्य नाडी .... .... तथा गुरूकी आज्ञानुसार नाडी द्वितीयदिवस मृत्युका ज्ञान परीक्षा " सप्तरात्रिमें रोगीकी मृत्युका ज्ञान । त्रिवार नाडीपरीक्षा करनेकी आज्ञा एकपक्षमें मरणका ज्ञान .... .... तीन उंगलियोंसे नाडी परीक्षाका त्रिरात्रि जीवनका ज्ञान .... .... क्रम .... .... .... ...... नाडीद्वारा अन्य असाध्य लक्षण .... रोगरहित मनुष्यकी नाडी .... " एकप्रहरम मृत्युका ज्ञान..... .... नाडीके देवता द्वितीयदिन मृत्युका ज्ञान .... नाडीन्के वर्ण .... ......... " वारप्रहरमें मृत्युका ज्ञान..... .... For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका ज्वालावधि जीवनका ज्ञान .... , शूलरोगमें अर्द्धप्रहरमें मृत्यु.... १, प्रमहरोगमें एक प्रहरमें मृत्यु.... .... , विषविष्टंभगुल्मज्ञान तीसरे दिन मृत्यु .... .... गुल्मरोगमें पंचमदिवस मृत्यु..... .... ..... ३३ / भगंदररागमें .... .... .... नाडीद्वारा आयुका ज्ञान.. वान्तादि ज्ञान ..... .... नाडीद्वारा मोजनका ज्ञान नाडीस्पन्दन संख्या .... नाडीद्वारा रौंका ज्ञान .... प्राण फल दंड आदि संज्ञा मांसादि लक्षणकी नाडी .... .... मतांतरमैं स्पन्दन संज्ञा .... उपवास और संभोगकी नाडी ... नाडीस्पन्दनमें कारण .... कुपथ्यवस नाडीकी चाल.... .... अति क्षीणनाडीका कारण तेजपुंजादि नाडीकी गति .... ज्वरके पूर्वरूपमें नाडीकी चाल ..... चंचला और तेजपुंजा गति ज्वरके रूपमें .... दुर्बला और क्षीण नाडी..... .... वातज्वरमें सुखीपुरुषकी नाडी .... .... पित्तज्वरमें .... युक्ति और अनुमानादिद्वारा नाडी कफज्वरमें .... __ को जानना .... .... .... द्वंद्वज नाडीकी गति नाडी दर्शनानंतर हस्तप्रक्षालन .... रुधिरकोपजा नाडो .... तथाच .... .... .... आगंतुक रूपभेद .... । यूनानीमतानुसार तथा विषमज्वरमें .... .... .... नाडीपरीक्षा. ज्वर उद्वेग क्रोध काममें नाडीकी गति ३८ हयवानी नप्सानी नाडी.... .... प्रसंगवसव्यायाम भ्रमणादिकी नाडी , सुरियान् नाडी .... .... .... पक्वाजीर्ण रुधिरपूर्ण और आम- असव नाडी __ वातकी नाडी.... .... .... .. चार उंगलियोंसे नाडी परीक्षण.... दीप्ताग्नि मंदाग्नि क्षीणधातु और न- नाडीकी गिजाली गति .... .... ष्ट अग्निमें नाडीको गति ..... ३९ |मौजी गति .... .... ग्रहणीरोगे .... .... .... दाह गति .... ग्रहणी अतिसार विलंबिका और उमली गति .... अतिसार रोगमें नाडीकी गति , मिन्शार गति ..... विषूचिकाज्ञान .... .... ....,' जन्वल्फार गति.... आनाहमूत्रकृच्छ्रमें .... ...., माली गति ..... For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका जुल्फिकरत् गति.... .... ...., उठने बैठने आदिमें नाडीका विचार | ५५ मुर्त्तइद गति सौदावी .... ...., अफीम आदि उष्णभोजनमें नाडीमुर्तइस (सौदासफरा विशिष्ट) ४९ | की गति .... .... मुतिला गति .... .... .... नाडी देखनेकी विधि .... मुन्खफिज गति.... ...... .... आरोग्यावस्थाकी नाडी .... शाहक् वुलन्द गति .... .... अवस्थानुसार नाडीगतिचक्र दराज और तवील गति.... .... रोगावस्थाकी नाडी .... .... कसीर अमोक और अरीज गति | इंग्रजी संज्ञा. गल्वे कसर अरक्लात .... .... "फ्रीकैंट गति .... .... वाकियुत्वस्त नाडी .... ..... ५० इन् फ्रीक्ट गति .... यूनानीमतानुसार नाडीचक्र .... " रेग्यूलर गति .... नब्ज कहनेका कारण .... ...." इरेग्यूलर गति नाडी देखनेके नियम .... .... इन्टरमिटेंट गति.... इम्बसात और इन्कि वाजगतियोंका लागिति.... ..... __वर्णन और चक्र वक्र .... .... .... ." "इस्माल गति .... खिल्त वर्णन ..... .... ..... .... " ऐडीपल्त गति .... प्रत्येक दोषमें दो दो गुण हार्ड गति .... चक्रदारा इम्वसातके भेद साफ्ट गति-.... दूसरा चक्र .... .... .... , क्वीक गति .... कुतर अर्थात् प्रस्तार .... .... , स्लो गति .... .... .... नाडीन्का प्रस्तार चक्र .... ...., नाडीदर्शक यंत्र अर्थात् स्फिग्मोग्राअबैंग्लंडीयमतेन ना- | फका वर्णन .... .... .... डीपरीक्षा. स्फिग्मोग्राफ लगानेकी विधि .... ६१ पल्ससंज्ञा और उसका भेद ...., डाक्टरी मतानुसार नाडीचक्रम् .... , इति नाडीदर्पण विषयानुक्रमणिका समाप्ता पुस्तकमिलनेका ठिकाना गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" छापाखाना कल्याण-मुम्बई. For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir OXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXO ACTORATKI DN Voebeasoose . . औषधालय या रा HARA दवा रवाना. SHES रोगी परीक्षा और रोगचिकित्सा OOOOOOOOOOOXOXOXOOOOOOOOOO OXOXOXOXOXOXOXOXOXOSJOOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXOXO औषधीतैयारकरतेहै. Oणाराणाशा For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फिग्मोग्राफ यंत्रका रचरूप ISH RAAAAAAAAAAAAAAAAAAAYER नाडीकी अक्स पडनेका स्वरूप عک मूत्रजन्य पदार्थ IVARAN RRRRRRRORTYRIRRRRRRRRRRRRRRRRASS For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्रजन्य द्वितीय प्रकारके पदार्थ खुर्दबीन. रा RAN JAIATIM . . मूत्रदर्शक खुर्दवीन For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 558 धमनी प्रदर्शक चित्र. 8 इस धमनीप्रदर्शक चित्रमें ख ग धमनी मूल यह अर्ध्वा भिमुखी, पश्चाद् गामी तथा निम्न मुरवी ये तीन अशों में विभक्त है. ...रवग ....... कप FIR "रवत नक गटत तक चङ टडज...... जट गघ दक कपालस्थ धमनी उदरस्थ नाडीझन गलस्थ धमनी नलकास्थीय धमनी. ग। कंठस्थ धमनी जानुपश्चात् धमनी. क. कक्ष नाडी जानुस्थ सन्मुरव नाडी. ज धमनी स्कंध वा वक्षस्थ मूल नाडी रख त पर्शकाभ्यंतर धमनी तुङ उदरस्थ मूलनाडी. हक प्रगंडीय नाड़ी टङ जयंतर (भीतरकी) बस्तिनाडीत क मणिबंधस्थ नाडी जट बाह्य (बाहरकी) बस्तिनाडी | गध प्रकोष्टीय धमनी - For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीशंवन्दे। श्रीनिकुञ्जविहारिणे नमः। अथ नाडीदर्पणप्रारम्भः। मङ्गलाचरणम् । श्रीमन्तं जगदीश्वरं गदगदाधारश्च धन्वन्तरिमम्बां श्रीजगदम्बिकाप्रतिकृति श्रीकृष्णलालाभिधम् । तातं कृष्णपरावतारमहिमं नत्वा मुहुः संयतः श्रीकृष्णाघिसरोरुहद्वयसुधाधारामिलिन्दायितः॥१॥ श्रीमन्माथुरमण्डलाभिजननः श्रीदत्तरामाभिधो दृष्ट्वा तन्त्रसमूहमूहविधयाऽऽलोड्य स्वयं यत्नतः। बालानां सुखहेतवे मतिमतामानन्दसंप्राप्तये नाडीदर्पणनामधेयकमिमं ग्रन्थंकरोम्यादरात् ॥२॥ युग्मम्। अर्थ-श्रीमान् जगदीश्वर रोग और आरोग्यके आधार ऐसे श्रीधन्वंतरि भगवान् तथा जगन्माता ( लक्ष्मी) के तुल्य रमा नामक अपनी माताको तथा कृष्णका परावतार ऐसे श्रीकृष्णलाल (कन्हैयालाल ) नामक अपने पिताको वारंवार यत्नपूर्वक नमस्कारकर श्रीकृष्णचरणकमलयुगलामृतधाराको पानकरता भ्रमर और श्रीमधुपुरीमंडल अथवा माथुराद्विज ( चोवे ) नको मंडल कहिये समूह तामें निवास जाकों, अथवा जन्म जाको ऐसा जो दत्तराम संज्ञक में सो अनेक शास्त्रसमूहको देख और स्वयंविधिपूर्वक यत्नसैं मथनकर बालकोंके सुखकेलिये और पंडितोंके आनन्दकी प्राप्तीकेअर्थ इस नाडीदर्पण नामक ग्रंथको परमआदरसैं करताहूं । यहग्रंथ यथानाम तथा गुणोंमेंभी है अर्थात् जैसे दर्पणसे इसप्राणीके संपूर्ण गुणदोष प्रकटहोतेहै उसीप्रकार इसग्रंथसैं नाडियोंके संपूर्ण गुणदोष उत्तम रीतिसै प्रगटहोतेहै ॥ १ ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । वाग्भटः। रोगमादौ परीक्षेत तदनन्तरमौषधम् ॥ ततः कर्म भिषक् पश्चाज्ज्ञानपूर्व समाचरेत् ॥३॥ अर्थ-वाग्भट ग्रंथमें लिखाहै वैद्यको उचितहै कि प्रथम रोगकी परीक्षा करे रोगजाननेके अनंतर औषधकी परीक्षा करे रोग और औषध दोनों जाननेके पश्चात् ज्ञानपूर्वक अर्थात् सावधानीकेसाथ चिकित्साकरे यानी औषध देव ॥ ३ ॥ लक्षयित्वा देशकालौ ज्ञात्वा रोगवलावलम् ॥ चिकित्सामारभेद्यो यशः कीर्तिमवाप्नुयात् ॥४॥ अर्थ-देश और कालका लक्ष करके और रोगको बली और निलिव जानके जो वैद्य चिकित्साका प्रारंभ करताहै वह यश, और कीर्तिको पाताहै ॥४॥ रुग्णावस्थां ततो नाडी भेषजं पथ्यमेव च ॥ देशं कालञ्च पात्रञ्च यो जानाति स वैद्यराट् ॥५॥ अर्थ-जो रोगीकी अवस्था, नाडी, औषध, पथ्य, देश, काल, और पात्रको जानताहै । उसको वैद्यराज कहतेहै ॥५॥ रोगोंके आठस्थान। रोगाक्रान्तशरीरस्य स्थानान्यष्टौ परीक्षयेत् ॥ नाडी मूत्रं मलं जिह्वां शब्दस्पर्शगाकृतिम् ॥६॥ अर्थ-वैद्य रोगी मनुष्यके आठ स्थानोंकी परीक्षाकरे, जैसे कि नाडीपरीक्षा, मूत्रपरीक्षा, मलपरीक्षा, जिह्वापरीक्षा, शब्दपरीक्षा, स्पर्शपरीक्षा, नेत्रपरीक्षा और रोगीकी आकृतिकी परीक्षा ॥ ६॥ नानाशास्त्रविहीनानां वैद्यानामल्पमेधसाम् ॥ नाड्याधष्टपरीक्षाश्च सुखार्थ प्रभवन्ति हि ॥७॥ अर्थ-अनेक शास्त्र पढनेकरके रहित अल्प वुद्धि वैद्योंके लिये यह नाडी आदि अष्टविधपरीक्षा सुखके अर्थ होवेगी ॥ ७ ॥ आयं तावन्नाडिकाविज्ञानादेव वातपित्तकफजनितानामातङ्कानां साध्यासाध्यकष्टसाध्यसभेदकविज्ञानं सुकरत्वेन भिषग्भिरवाप्यतेऽत एव तावनिरूप्यते ॥८॥ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा (३) अर्थ-तहां प्रथम वैद्योंको नाडीके देखनेसैही वात, पित्त, और कफजनित रोगोंका साध्यासाध्य और कष्टसाध्य सभेदविज्ञान सहजमें प्राप्त होसक्ताहै; अतएव प्रथम उसी नाडीपरीक्षाका वर्णन करतेहै । प्रथम नाडीदेखनेकी आवश्यकता दिखाते है ।। ८॥ नाडीज्ञानकी आवश्यकता। नाडीज्ञानं विना वैद्यो न लोके पूज्यतां व्रजेत् ॥ अतश्चातिप्रयत्नेन शिक्षयेद्बुद्धिमानरः॥९॥ अर्थ-नाडीज्ञान के विना वैद्य संसारमें पूज्य ( माननीय ) नहीं होता अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको उचितहै कि नाडीज्ञानको सद्गुरुसैं अति यत्नपूर्वक सीखे अर्थात् नाडी देखनेका अनुभव करे ॥ ९ ॥ बोधहीनं यथा शास्त्रं भोजनं लवणं विना ॥ पतिहीना यथा नारी तथा नाडी विना भिषक् ॥१०॥ अर्थ-जैसे बोधविना शास्त्रपढनकी शोभा.नहीं, विना लवण भोजनके पदार्थ प्रियनहीं, और पति के विना स्त्रीकी शोभा नहीं, उसीप्रकार नाडी ज्ञानके विना वैद्यकी शोभा नहींहै ॥ १० ॥ नाडीजिह्वातवादोनां लक्षणं यो न विन्दति।। मारयत्याशुवै जन्तून्स वैद्यो न च शोभनः ॥११॥ अर्थ-जो नाडीपरीक्षा, जिव्हापरीक्षा, और स्त्रीके आर्त्तवकी परीक्षा नहीं जाने वह मूढवैद्य तत्काल रोगीयोंको मारताहै इसीकारण ऐसा मूढवेद्य उत्तम नहींहै ॥११॥ आदौ सर्वेषु रोगेषु नाडीजिहाग्रनेत्रकम् ॥ . मूत्रार्त्तवं परीक्षेत पश्चागुग्णं चिकित्सयेत् ॥ १२॥ अर्थ-वैद्य प्रथम संपूर्ण रोगोंमें नाडी, जिह्वा, नेत्र, मूत्र, और आर्त्तवकी परीक्षा कर फिर रोगीकी चिकित्सा करे ॥ १२ ॥ नाडीज्ञानं विना यो वै चिकित्सां कुरुते भिषक् ॥ स नैव लभते लक्ष्मी न च धर्म न वै यशः ॥१३॥ अर्थ-जो वैद्य विना नाडीपरीक्षाके जाने चिकित्सा करताहै वह धन, धर्म, और यशको नहीं प्राप्तहोता परंच उसको अपयशकी प्राप्ती और मूर्ख कहलाताहै ॥१३॥ For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) नाडीदर्पणः। नाड्या मूत्रस्य जिह्वायाः कुरु पूर्व परीक्षणम् ॥ औषधं देहि तज्ज्ञाने वैद्य रुग्णसुखावहम् ॥ १४ ॥ अर्थ-हे वैद्य प्रथम नाडी, मूत्र, और जिव्हाका परीक्षण कर जब नाडी मूत्र और जिव्हाको परीक्षाद्वारा रोगका निश्चय करलेवे तब रोगीको सुखकारी औषधी दे ॥१४॥ यथा वीणागता तन्त्री सर्वानागान्प्रभाषते ॥ तथा हस्तगता नाडी सर्वानोगान्प्रकाशते ॥ १५॥ अर्थ-जैसैं वीणाका तार संपूर्ण रागोंको सूचना करताहै, उसी प्रकार हाथकी नाडी सर्वरोगोंको प्रकाशित करतीहै इस श्लोकका तात्पर्य यह है वीणाका तारभी जो बजानेवालेहै उन्हीको उस तारके रागकी प्रतीत होती है उसीप्रकार हाथकी नाडीभी जो नाडीके जानने वाले है उन्हीको रोगप्रकाशित करतीहै जैसे मूर्खके वास्ते तारद्वारा राग नहींमालुमहो उसीप्रकार मूर्खवैद्यको नाडीदेखना निष्प्रयोजनहै ।। १५ ।। नाडीलक्षणमज्ञात्वा निदानग्रन्थवाक्यतः॥ चिकित्सामारभेद्यस्तु स मूढ इति कीर्त्यते ॥१६॥ अर्थ-जो वैद्य नाडीके लक्षण विना जाने केवल निदानग्रंथके वाक्योंसे रोगपरीक्षा कर चिकित्सा करताहै वह मूढ ( मूर्ख ) ऐसा कहलाता है ॥ १६ ॥ निदानपञ्चकादीनां लक्षणं वैद्यसत्तमः॥ नाडीतु संवलीकृत्य चिकित्सामाचरेत्खलु ॥१७॥ अर्थ-इसीकारण उत्तमवैद्य निदान पंचकादिके लक्षण जानके और उनमें नाडीके लक्षणभी मिश्रित ( सामिल ) करके चिकित्साका प्रारंभ करे ॥ १७ ॥ कियत्स्वपि च चिह्नेषु ज्ञातेष्वपि चिकित्सितम् ॥ निष्फलं जायते तस्मादेतच्छृण्वेकचेतसा ॥१८॥ अर्थ-अब कहते है कि बहुतसे चिन्ह जानने परभी चिकित्सा निष्फल होजाती है अतएव इसनाडीदर्पणग्रंथमें जो कहा जाताहै उसको हेवेद्य! तू एकाग्र चित्तसैं सुन १८ तत्रादौ प्रोच्यते नाडीपरीक्षातिप्रयत्नतः॥ नानातन्त्रानुसारेण भिषगानन्ददायिनी ॥ १९॥ अर्थ-तहां प्रथम अनेक ग्रंथोंके अनुसार वैद्योंको आनंददायिनी यत्नपूर्वक नाडीपरिक्षा कहतेहै ॥ १९॥ For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा क्वचिदन्थानुसंधानादेशकालविभागतः॥ क्वचित्प्रकरणाचापि नाडीज्ञानं भवेदपि ॥२०॥ अर्थ-अब नाडीज्ञानकी परिपाटी कहतेहै कि कहींतो नाडीज्ञान ग्रंथ पढनेसे होताहै, कहीं देश कालके जाननेसैं, और कहीं प्रकरण वशसें नाडीका ज्ञान होता है, तात्पर्य यहहै कि वैद्य केवल ग्रंथकेही भरोसैं न रहै, किंतु कुछ अपनीभी बुद्धिसै विचारे यह कौन स्थान है, कौनसा कालहै, और ये रोगी क्या आहार विहार करके आयाहै, इसप्रकार अच्छी रीति- विचारकर नाडीको कहे ।। २०॥ सद्गुरोरुपदेशाच्च देवतानां प्रसादतः॥ नाडीपरिचयः सम्यक् प्रायः पुण्येन जायते ॥२१॥ अर्थ-अब नाडीज्ञानकी उत्कृष्टता दिखातेहै कि सगुरु अर्थात् सद्वैद्यके बतानेसैं और देवताओंकी प्रसन्नतासै तथा पूर्वजन्मके पुण्यकरके नाडीपरिचय होताहै, किंतु अपने आप पढनेसें और विनादेव कृपाके तथा अधर्मी नास्तिकको नाडी देखनेका ज्ञान नहीं होताहै, अतएव जिसको नाडीज्ञानकी आवश्यकता होवे वो सद्गुरु और देवसेवा तथा धर्ममें तत्पर होय ॥२१॥ नाडीपरिचयो लोके न च कुत्रापि दृश्यते ॥ तेन यत्कथ्यत चात्र तत्समार्यमुत्तमः॥२२॥ अर्थ-नाडीका परिचय अर्थात् नाडीदेखनेका ज्ञान इससंसारमें कहीं नहीं दीखता इसीकारण जो इसग्रंथमें कहाजाताहै वो उत्तमपुरुषोंको अवश्य जानना चाहिये ॥२२॥ परीक्षणीयाः सततं नाडीनां गतयःपृथक् ॥ न चाध्ययनमात्रेण नाडीज्ञानं भवेदिह ॥२३॥ अर्थ-वैद्यको रचितहै कि निरंतर नाडीकी गतिकी परीक्षा कराकरे क्योंकि केवल पढनेहीसे नाडीका ज्ञान नहीं होता ॥ २३ ॥ न शास्त्रपठनादापि न बहुश्रुतकारणम् ॥ नाडीज्ञाने मनुष्याणामभ्यासः कारणं परम् ॥२४॥ अर्थ-नाडीके ज्ञानमें शास्त्रपठनेसैं अथवा बहुतनाडी संबंधी वार्ताओंके सुननेसैं नाडीका ज्ञान नहीं होता, किंतु नाडीज्ञानमें मनुष्योंको केवल अभ्यासही परम कारणहै इस्सैं अभ्यासकरे ॥ २४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ( ६ ) www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पण: । नाडीगतिमिमां ज्ञातं योगाभ्यासवदेकतः ॥ शक्यते नान्यथा वैद्य उपायैः कोटिशैरपि ॥ २५ ॥ अर्थ- वैद्यको इस नाडीकी गती जानने में समर्थहोना केवल योगाभ्यासके सदृश नाडीदेखने के अभ्यासही होसकता है, अन्य करोंडो उपायांस भी नाडी ज्ञान नहीं होता । जलस्थलनभचारिजीवानां गतिभिः सह गतयो ह्युपमीयन्ते नाडीनां भिन्नलक्षणाः ॥ २६ ॥ अर्थ - जल, स्थल, और आकाशमें विचरनेवाले जीवोंकी गति (चाल) करके भिन्न लक्षणा नाडियोंकी गति अनुमान करीजाती है, अर्थात् जलचर जीव ( जोंक, मेंडक आदि) स्थलचरजीव (सर्प, हंस, मोर आदि) और आकाश चारीजीव (लवा, वटेर, आदि) ए जैसे चलते है इनके सदृश नाडी चलती है, इनमें जिस दोपकी जैसी चाल नाडीकी लिखी है उसको उसी प्रकारकी देखकर वैद्य नाडीको वातपित्तादिककी नाडी बतावे, अन्यथा नाडीका ज्ञानहोना कठिन है || २६ ॥ कस्य कीदृग्गतिस्तत्र विज्ञातव्या विचक्षणैः ॥ अध्येतव्यं च तच्छास्त्रं सद्गुरोर्ज्ञानशादिनः ॥ २७ ॥ अर्थ- वैद्य होनेवाले प्राणीको उचित है कि उत्तम ज्ञानवान् शास्त्र के ज्ञाता गुरू मैं किस जीवकी कैसी गति है इसको सीखे और जो इसनाडी विषयके ग्रंथ है उनको पढे, किसी जगे हमने ऐसा लिखा देखा है कि दशवर्षतो वैद्यकके ग्रंथ पढे, और गुरुके आगे अनुभव (आजमायस) करे, क्योंकि यह विद्या पढनेका समय बहुत उत्तम है, इस समय ग्रंथ हे और रोगीदोनो उपस्थित है जो ग्रंथ में पढे उसको गुरुके आगे रोगी पर परीक्षा करे, यदि जो बात समझमें न आवे तो उसको उसीसमय गुरूसें पूछलेय ता संदेह निवृत्त होजावे, फिर दशवर्ष वन में रहकर बनवासियों से अर्थात् माली, काछी, भील, ग्वारिया, आदिसैं औषधका नाम और उसके गुण तथा परीक्षा सीखे तब इसको वैद्यक करनेका अधिकार होता है || २७ ॥ कल्याणमपि वारिष्टं स्फुटं नाडी प्रकाशयेत् ॥ रुजां कालिक वैशिष्टयाद्भवेत्सापि विलक्षणा ॥ २८॥ अर्थ - कल्याण (शुभ) और अरिष्ट (अशुभ) इन दोनोंको नाडी प्रत्यक्ष प्रकाशित For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा करे | तथा कालके वैशिष्ट्य करके रोगके समय नाडी विलक्षण होजाती है ॥ २८ ॥ यहक्षणा तु नैरुज्ये नोदितायां तथा रुजि ॥ वयः कालरुजां भेदैभित्रभावं विभति सा ॥ २९॥ अर्थ - जैसी आरोग्य पुरुषकी नाडी होती है ऐसी रोगावस्थामें नहीं रहती इसका यह कारण है कि अवस्था, काल, और रोगोंके भेदकरके नाडी भिन्न भावकों धारण करती है | अर्थात् विपरीतता ग्रहण करती है ॥ २९॥ तदवस्थामतः प्राज्ञः सर्वथा सार्वकालिकीम् । ज्ञातुं यतेत मतिमान् लक्षणैः सुसमाहितः ॥ ३० ॥ (७) अर्थ - इसी चतुर वैद्यको उचित है कि उस नाडीके सर्वकालकी सदैव लक्षणों के जाननेका यत्न सावधानता पूर्वक करता रहै ॥ ३० ॥ नाडीके स्पंदनकाकारण । परिव्याप्याखिलं कायं धमन्या हृदयाश्रयाः । वहन्त्यः शोणितस्रोतः शरीरं पोपयन्ति ताः ॥ ३१ ॥ हृदयाकुञ्चनाai कियदुत्पुत्य धामनीम् । तत्सञ्चितं तदुत्थञ्च प्रविश्य चापरास्वपि ॥ ३२ ॥ व्रजित्वा निखिलं देहं ततो विशति फुप्फुसम् । फुप्फुसाद्धृदयं याति क्रियैवं स्यात्पुनः पुनः ॥ ३३ ॥ रुधिरोत्प्लववेगेन धमनी स्पन्दते मुहुः । उत्प्लवप्र कृतेर्भेदाद्भेदः स्यात्स्पन्दनस्य च ॥ ३४ ॥ स्थौल्यादिकं धमन्याश्च तत्प्रकृत्यैव जायते । तत्प्रकारान्समासेन बुवे वत्स ! निशामय ॥ ३५ ॥ अर्थ - अब नाडीके चलनेका कारण कहते है कि हृदयके आश्रित धमनी नाडी सं For Private and Personal Use Only २ [वयःकाल रुजाभेदैः ] इस लिखने का यह प्रयोजन है कि जैसी नाडी बाल्यावस्था में होती है ऐसी यौवन अवस्थामें नहीं और जैसी यौवन अवस्था में होती है ऐसी वृद्धावस्था में नहीं होती इसीप्रकार प्रातःकाल, मध्यान्ह और सायंकालमें पृथक् पृथक् भावसे चलती है तथा प्रत्येक रोगों में नाडीकी गति विलक्षण होती है । अर्थात् जैसी ज्वरवानकी नाडी होती है ऐसी अतिसारवान्की नहीं होती और जैसी अतिमारीकी होती है ऐसी ग्रहणीरोगवालेकी नहीं होती इत्यादि । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८) नाडीदर्पणः । पूर्णदेहमें व्याप्तहो रुधिरको स्रोतके द्वारा वहन करतीहै । उसी रुधिरके वहने से शरीरको पोषण करती है । उन संपूर्ण धमनी नाडियोंका आश्रय हृदयस्थ रक्ताधार यंत्रहै, रक्ताधार यह एक स्थूलमांसनलिका ऊपरकी तरफ कुछ उठीहुईहै । यह नली समुदाय धमनी नाडीका मूलभागहै । इसी स्थानसैं धमनी नाडियोंकी अनेक शाखा प्रशाखा निकलीहै ये संपूर्ण देहमें व्याप्त है । इस समस्त सूक्ष्म नलाकृति मांसनलीका नाम धमनी है धमनी मार्गसैं हृदयका संचित रुधिर सकलदेहमें परिभ्रमण करके देहका पोषण करता है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ हृदययंत्र स्वभावसेंही सदैव खुलता मुदता रहता है, जैसे भिस्तीकी सछिद्र जलपूर्ण मसकको ऊपर से दाबनेसैं उस मुसकके भीतरका जल जैसैं छिद्रमें होकर बडे. वेगसैं निकलताहै, उसीप्रकार हृदयके मुदनसैं हृदयस्थ रुधिरका कितनाही अंश उछलकर तत्संलग्न स्थूल धमनीमें प्रवेश करे है । यह आकुंचन अर्थात् हृदयका मुदना जितनी देर में होताहै उतने कालमें वहउत्प्लत रुधिर धमनियोंके द्वारा समस्त देहमें परिभ्रमण करके फुप्फुसमें जायकर प्राप्त होताहै, फुप्फुससे फिर दूसरीवार हृदयमें आताहै, और उसीप्रकार जाता है, जीतेहुए देहमें इसीप्रकार यह क्रिया एक नियमके साथ वारंवार होती रहती है, इस रुधिरके उत्प्लव (उछलने) से संपूर्ण धमनी स्पन्दन कहिये फडकती है । रुधिर हृदयमेंसैं दारंवार उछलकर धमनीके छिद्रमें प्रवेश होकर वेगके साथ चलताहै, इसी कारण धमनी नाडीभी वारंवार तडफतीहें । यह रुधिरके उत्प्लव प्रकृति भेदसैं धमनीके तडफमैं भेद होताहै । [ अर्थात् यदि रुधिर मंदवंगसैं उछले तो नाडी मंद प्रतीत होतीहै, और रुधिर शीघ्र उछले तो नाडीभी शीघ्र चारिणी होती है ] एवं रुधिरके स्वभावानुसार नाडीमें स्थूलता, सूक्ष्मता, और कठिनत्वादि धर्म उत्पन्न होतेहै । अब जो जो अवस्था नाडीसें जैसे जैसे लक्षण होतेहै उन सबको मैं आगे कहताई ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५॥ नाडीके नाम । हिंस्रा स्नायुर्वसा नाडी धमनी धामनी धरा। तन्तुकी जीवितज्ञा च शिरा पर्यायवाचकाः ॥ ३६॥ अर्थ-हिंस्रा, स्नायु, वसा, नाडी, धमनी, धामनी, धरा, तंतुकी, जीवितज्ञा, और शिरा, ये नाडीके पर्यायवाचकशब्द है, अर्थात् ए नाडीके नामांतर है ॥ ३६ ॥ नाडीके भेद । तत्र कायनाडी त्रिविधा । एका वायुवहा । अन्या। मूत्रविडस्थिरसवाहिनी। अपरा आहारवाहिनीति ॥३७॥ For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडी परीक्षा अर्थ-तहां देहकी नाडी तीन प्रकारकी है, एक पवनको वहती है दूसरी मल, मूत्र, हड्डी, और रसको वहती है । तीसरी आहारको वहती है ॥ ३७॥ कन्दमध्ये स्थिता नाडी सुषुम्नेति प्रकीर्त्तिता । तिष्ठन्ते परितः सर्वाश्चस्मिन्नाडिकास्ततः ॥ ३८ ॥ अर्थ - नाभीके मध्य में सुषुम्ना नाडी स्थित है, इसी नाभिचक्र और सुषुम्ना नाडीके चारों तरफ संपूर्ण नाडी स्थित है ||३८|| नाभिमध्ये स्थितानाडी गोपुच्छाकृति सर्वतः ॥ तिष्ठन्ते परितः सर्वास्ताभिर्व्याप्तमिदं वपुः ॥ ३९॥ अर्थ- संपूर्ण नाडी नाभिके बीच में गोपुच्छके सदृश स्थितही सर्वत्र फेल रही हैं । जिनसे यह देह व्याप्त होरहांहे जैसे गौकी पूछ ऊपरके भागमें मोटी होती है और नीचेको क्रमसैं पतली होती है, उसीप्रकार नाडीनको जानना ये सब नाभीसे निकलकर चारों तरफ फैल गई है ॥ ३९ ॥ सार्द्धस्त्रिकोट्यो नाड्योहि स्थूलाः सूक्ष्माश्च देहिनाम् ॥ नाभिकन्दनिबद्धास्तास्तिर्यगूर्ध्वमधः स्थिताः ॥ ४० ॥ अर्थ - इन मनुष्योंके देहमें छोटी और बडी सब मिलकर ३५०००००० साडेतीन करोड नाडी है, वो सब नाभिरौं बंधी हुई तिरछी, ऊपर, और देहके अधोभागमें स्थित है ॥ ४० ॥ तिस्रः कोट्योऽर्द्धकोटी च यानि लोमानि मानुषे ॥ नाडीमुखानि सर्वाणि घर्मबिन्दून्क्षरन्ति च ॥ ४१ ॥ अर्थ - ऊपरके लोक में जो साडेतीन करोड नाडी कही हैं, वो मनुष्यके देहमें जित - मे रोमहे वो सब उन नाडियोंके मुखहै, उनसे पसीना झडता रहता है ॥ ४१ ॥ द्विसप्ततिसहस्रन्तु तासां स्थूलाः प्रकीर्तिताः ॥ देहे धमन्यो धन्यास्ताः पञ्चेन्द्रियगुणावहाः ॥ ४२ ॥ अर्थ-जन साडेतीन करोड नाडियोंमें १०७२ एकहजार और बहत्तर स्थूल नाडी है, वो धमनी देहमें पवनको धमाती है । और पंचेन्द्रियों के गुण ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध ) को बहती है ॥ ४२ ॥ तासांच सूक्ष्मसुषिराणि शतानि सप्त स्वच्छानि यैरसकृदन्नरसं वहद्भिः ॥ For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । आप्यायते वपुरिदं हि नृणाममीषामम्भः स्रवद्भिरिव सिन्धुशतैः समुद्रः ॥ ४३ ॥ अर्थ-उन पूर्वोक्त नाडीयोंमें छोटे छिद्रवाली स्वच्छ ७०० सातसौ नाडी है वो सब अन्नरसके वहनेवाली है, उस रसमें संपूर्ण देहका पोषण होताहे जैसे सैंकडों नदियोंके जल समुद्र तृप्त होताहै ॥ ४३ ॥ आपादतः प्रततगात्रमशेषमेषामामस्तकादपि च नाभिपुरः स्थितेन ॥ एतन्मृदङ्ग इव चर्मचयेन नद्वम् कायं नृणामिह शिराशतसप्तकेन ॥ ४४ ॥ अर्थ - नाभिस्थानस्थित सातसौं नाडीन्सें मस्तकसैले पैरोंतक संपूर्ण देह व्याप्त है जैसे मृदंगमें सर्वत्र चर्मकी रस्सी खिचीहुई होती है, उसीप्रकार मनुष्यकी देह इन सातसौं नाडियोंसें बद्ध होरही है ॥ ४४ ॥ सप्तशतानां मध्ये चतुरधिका विंशतिः स्फुटास्तासाम् ॥ rai परीक्षणीया दक्षिणकरचरणविन्यस्ता ॥ ४५ ॥ अर्थ- पूर्वोक्त सातसौं नाडीयोमें २४ चोवीस नाडी मुख्य है, उनमेभी पुरुषके दहने हाथ और पैर में स्थित मुख्य एक नाडीकी परीक्षा करनी चाहिये "चतुरधीका " इसपदके कहने से यह प्रयोजनहे कि धमनी नाडी चोवीस है जैसे लिखाहै ॥ ४५ ॥ तिर्यक्कूम देहिनां नाभिदेशे वामे वक्रं तस्य पुच्छन्तु याम्ये ॥ ऊर्ध्वे भागे हस्तपादौ च वामौ तस्याधस्तात्संस्थितौ दक्षिणौ तौ ॥ ४६ ॥ वक्रे नाडी द्वयं तस्य पुच्छे नाडी इयन्तथा ॥ पञ्च पञ्च करे पादे वामदक्षिणभागयोः ॥ ४७ ॥ अर्थ- मनुष्योंके नाभिदेशमें तिरछा कूर्म ( कछवा ) स्थित है, वांई तरफ उसका मुखहै और दहनी तरफ पूंछ है, ऊपरके भाग में वांईतरफ हाथहै, और नीचे दक्षिण १ शतानि सप्त यस्तु कथिता याः शरीरिणाम् । संभूयांगुष्ठमूले तु शिरामेकामधिष्ठिता । For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा ११ पैर है उस कच्छपके मुखमें नाडी, पूंछ में दो, और हाथ पैरोंमें दहनी और वांई तरफ - पांच पांच नाडी जाननी ॥ ४६ ॥ फिर उसी लोककी व्याख्या करते हैं “तासांमध्ये एकेति" इस पदलिखनेका यह प्रयोजन है कि यद्यपि हाथ पैरोमें पांच पांच नाडीहै परंतु उनमें भी पुरुषके दहने हाथ पैरकी एक एक नाडी मुख्य है और स्त्रीके वाम हाथ पेरकी एक एक नाडी मुख्यहै यह अर्थाशंसे जाना जाता है अतएव वैद्यकों इन्हीकी परीक्षा करनी चाहिये जैसे लिखा है७४ वामे भागे स्त्रिया योज्या नाडी पुंसस्तु दक्षिणे || इति प्रोक्तो मया देवि सर्वदेहेषु देहिनाम् ॥ ४८ ॥ अर्थ- स्त्री वामभागकी और पुरुषके दहने भागकी नाडी देखे हेदेवि ! यह सर्वदेहधारियां में देखने की विधि मेने कही है, परंतु जो नपुंसक है उनमें प्रथम यह परीक्षाकरे कि यह स्त्री षंढ है या पुरुषषंढ पश्चात् स्त्री षंढकी वामहाथकी और पुरुष षंढके दहने हातकी नाडी देखें इनमें समानता सर्वथा नहीं होसकती, और कृत्रिम ( बनेहुए) हिजडे होते है उनकी नाडी यथा प्रकृतिमें स्थित होती है और “चरणेति" इस पदके धरनेसें कोई कहता है कि वाम पैरकी नाडीको दहनी गांठके पिछाडीके पार्श्वभागमें देखनी और दहने पैरकी नाडी वाई ग्रंथिके पिछाडीके पार्श्वमें देखनी यह श्रेष्ठपुरुषोंकी आज्ञा है कोई छः स्थानोंकी नाडी देखना लिखता है यथा ॥ ४८ ॥ अङ्गुष्टमूले करयोः पादयोर्गुल्फदेशतः ॥ कपालपार्श्वयोः षड्भ्यो नाडीभ्यो व्याधिनिर्णयः ॥ ४९ ॥ अर्थ- हाथोंकी नाडी अंगूठेकी जडमें देखे, और पैरोंकी नाडी टकनाओंके नीचे देखे, मस्तककी नाडी दोनो कनपटीयोंमें देखे, इस प्रकार इन छः स्थानकी नाडी देखने से व्याधिका यथार्थ निर्णय होता है ॥ ४९ ॥ नाभ्योष्ठपाणिपात्कण्ठनासोपान्तेषु याः स्थिता ॥ तासु प्राणस्य सञ्चारं प्रयत्नेन विभावयेत्ः ॥ ५० ॥ अर्थ - नाभी, होठ पैर, हाथ, कंठ, और नासिका के समीप भागमें जो नाडी स्थित है उनमें प्राणोंका संचारको यत्नपूर्वक जाने, अर्थात् इन स्थानोंमें सदैव प्राण पवनका संचार होता है, इसींसें अत्यंत उपद्रवमें इन स्थानो की नाडी देखनी चाहिये ॥ ५१ ॥ For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः। पाणिपात्कण्ठनासाक्षिकर्णजिह्वान्तमेद्रगाः॥ वामदक्षिणतो लक्ष्याः षोडश प्राणवोधकाः॥५१॥ अर्थ-हात, पैर कंठ, नासिका, नेत्र, कान, जिव्हाका अंत्यभाग और मेद्र (योनि लिंग ) इनके वामभाग और दक्षिणभागमें नाडी देखनी क्योंकि ए १६ नाडी प्राणबोधकहै ऐसा जानना ॥ ५१ ॥ कण्ठनाडी। आगन्तुकं ज्वरं तृष्णामायासं मैथुनं क्रमम् ॥ भयं शोकं च कोपञ्च कण्ठनाडी विनिर्दिशेत् ॥५२॥ अर्थ-आगंतुकज्वर, तृषा, परिश्रम, मैथुन, ग्लानि, भय, शोक, और कोप इतने रोगोंको कंठनाडी देखकर कहे ॥ ५२ ॥ नासानाडी। मरणं जीवनं कामं कण्ठरोगं शिरोरुजाम् ॥ श्रवणानिलजान् रोगानासानाडी प्रकाशयेत् ॥५३॥ अर्थ-मरण, जीवन, कामबाधा, कंठरोग, मस्तकरोग, कानके, और पवनके रोगोंको नासिकाकी नाडी प्रकाशित करती है ॥ ५३॥ उक्त नाडियोंका प्रमाण । हस्तयोश्च प्रकोष्टान्ते मणिबन्धेऽङ्गलिद्वयम् । पादयोनांडिकास्थानं गुल्फस्याधोऽङ्गुलिद्रयम् ॥ ५४॥ कण्ठमूलेऽङ्गलिद्वन्दं नासायामङ्गुलिद्वयम् । एवमप्यङ्गुलिद्वन्द्वमग्रतः कर्णरन्ध्रयोः ॥१५॥ अर्थ-अब अन्यनाडी किस किस भागमेंहै और वो कितनी बडी है यह कहते है । तहां दोनो हाथके प्रकोष्ठान्तमें जहां मणिबंध अर्थात् पहुचाहै उसजगे दो अंगुल नाडी देखनेका स्थानहै और पैरोंमें टकनाके नीचे दो अंगुल नाडीका स्थान है तथा कंठकी जडमें अर्थात् हसलीमें दो अंगुल एवं नासिकामें दो अंगुल नाडीका स्थानहै । इसीप्रकार दोनो कर्णके छिद्रके अग्रभागमें भी दो दो अंगुल नाडीके परीक्षाका स्थानहै । तात्पर्य यहहै कि जब हाथकी नाडी प्रतीत नहोवे तब इन स्थानोकी नाडी देखनी५५ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा निस्तुषयव एकस्तत्प्रमाणाकुलं स्यात् तदुभयमितसद्मन्येव नाडीप्रचारः॥ न भवति यदि तस्मिन् गेहिनी गेहमध्ये कथमिह गृहमेधी तत्र जीवस्तदा स्यात् ॥५६॥ अर्थ-छिलका रहित एक यवके प्रमाण इस जगे अंगुल माना है । ऐसें दो अंगुल प्रमाण स्थानमें नाडी रहती है यदि देहरूप घरमें नाडीरूप स्त्री न होवे तो जीवरूप जो गृहस्थी है सो क्याकरे, अर्थात् यावत्काल देहमें नाडी रहतीहै तबतक जीवहै विना स्त्रीके घरमें रहना निंदितहै “धिग्गृहं गृहिणीं विन " तात्पर्य यहहैकी जीव पुरुष, नाडी स्त्री अन्योन्यएकके विना दूसरा नहीं रहसकता ॥५६॥ परीक्षणीय। वातं पित्तं कर्फ द्वन्द्वं सन्निपातं तथैव च । साध्यासाध्यविवेकञ्च सर्व नाडी प्रकाशयेत् ॥१७॥ अर्थ-वात पित्त कफ द्वंद्वज दोष और सन्निपात एवं साध्यासाध्य (चकारसैं कष्टसाध्य ) इनकी संपूर्ण विवेचनाको नाडी प्रकाशित करती है ॥१७॥ इति श्रीमाथुरकृष्णलालसूनुना दत्तरामेण सङ्कलिते नाडीदर्पणे प्रथमावलोकः । ___ नाडीज्ञानसमय । प्रातः कृतसमाचारः कृताचारपरिग्रहम् । सुखासीनः सुखासीनं परीक्षार्थमुपाचरेत् ॥१॥ अर्थ-अब नाडी देखनेका समय कहते है कि चिकित्सक प्रातःकालमें प्रातःकृत्यसमाप्तिके अनंतर नाडीपरीक्षार्थ रोगीके समीप प्राप्तहो रोगीके प्रातःकृत्य समाप्तिके पश्चात् उसको सुखपूर्वक बैठाकर इसीप्रकार स्वयं आप सुखपूर्वक बैठकर यथाविधान नाडी परीक्षा करे । इसजगे प्रातःकालका तो उपलक्षण मात्रहै किंतु मध्यान्ह और सायंकालमेंभी नाडीपरीक्षा करे जैसै लिखाहै " मध्यान्हे चोष्णतान्विता" इत्यादि ॥ १॥ निषिद्धकाल । सद्यानातस्य भुक्तस्य क्षुत्तृष्णातपसेविनः। व्यायामाकान्त For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ नाडीदर्पणः । देहस्य सम्यङ् नाडी न बुध्यते ॥ २ ॥ तैलाभ्यक्ते रतेरन्ते भोजनान्ते तथैव च । उद्वेगादिषु नाडी च न सम्यगवबुध्यते ॥३॥ सुप्तस्य " अर्थ - तत्काल स्नान करा हो, तत्काल भोजन करा हो, अथवा 66 अर्थात निद्रित, क्षुधित, तृषार्त्त, गरमी घबडाया हुआ, तथा व्यायामद्वारा थकित देह जिसका ऐसे मनुष्यकी नाडी भलेप्रकार प्रतीत नहीं हो उसीप्रकार जिसने तेल लगाया हो; मैथुनान्तमें भोजनके मध्यमें उद्वेग आदि समय में नाडीकी यथार्थगति निश्चय नहीं हो अतएव वैद्य इन समयोंमें नाडी परीक्षा न करे किंतु रोगीका चित्त जिससमय स्वस्थहोय तब नाडी देखे परंतु वात मूच्छदिक क्षणिक रोगोंम यह उक्तनियम नहीं है ॥ २ ॥ ३ ॥ नाडीदेखने योग्य वैद्य | स्थिरचित्तः प्रसन्नात्मा मनसा च विशारदः । स्पृशेदङ्गुलिभिर्नाडीं जानीयाद्दक्षिणे करे ॥ ४ ॥ अर्थ - अब नाडी देखने योग्य वैद्य कहते है कि जो स्थिरचित्त और प्रसन्न आत्मा तथा मनकरके चतुर ऐसा वैध तीन उंगलीयोंसें दहने हाथकी नाडीका स्पर्श करके उसकी गतीकी परीक्षा करे ॥। ४ ॥ मढवैद्य | पीतमद्यश्चञ्चलात्मा मलमूत्रादिवेगयुक् । नाडीज्ञानेऽसमर्थः स्याल्लोभाकान्तश्च कामुकः ॥ ५ ॥ अर्थ - जिसने मद्य पीरक्खाहो, और चंचलचित्त, मल मूत्र बाधा लग रहीं हो, लोभी और कामीहो ऐसे वैद्यको नाडी न दिखावे, क्योंकि यह नाडीके जाननेमें असमर्थ है ।। ५ ॥ नाडी देखने योग्य रोगी । त्यक्तमूत्रपुरीषस्य सुखासीनस्य रोगिणः । अन्तर्जानुकरस्यापि नाडी सम्यक् प्रबुद्धयते ॥ ६ ॥ अर्थ - अब नाडी देखनेके योग्य रोगी कहते है, कि जो मलमूत्रका परित्याग १ तैलाभ्यंगे च सुप्ते च तथा च भोजनान्तरे । तथा न ज्ञायते नाडी यथा दुर्गतरा नदी इति पाठान्तरम् । For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदाक्तनाडीपरीक्षा करचुकाहो, और सुखपूर्वक घाँटुओंके भीतर हाथको करे सावधानी से बैठाहो, ऐसे रोगीकी नाडीको वैद्य देखे, क्योंकि ऐसे मनुष्यकी नाडी भली रीतिसैं जानी जाती है ॥ ६ ॥ नाडीदर्शनमें अयोग्य । धूर्त्तमार्गस्थविश्वासरहिताज्ञातगोत्रिणाम् । विनाभिशंसनं वैद्यो नाडीद्रष्टा च किल्विषी ॥७॥ अर्थ-अब कहते । ऐसे मनुष्योंकी नाडी वैद्य न देखे, कि जो धूर्त है तथा मार्गमें चलते चलते दिखाने लगे, और जिनको विश्वास नहींहै तथा जिसकी जात पाँति वैद्य नहीं जाने, और विनकहे अर्थात् जबतक रोगी अथवा उस रोगीके बांधव न कहे तबतक वैद्य नाडी न देखे, यदि उक्तमनुष्योंकी वैद्य नाडी देखे तो पापभागी होताहै ॥ ७ ॥ परीक्षाप्रकार। सव्येन रोगधृतिकूपरभागभाजापीड्याथ दक्षिणकराङ्गुलिकात्रयेण। अङ्गुष्टमूलमधिपश्चिमभागमध्ये नाडी प्रभञ्जनगतिं सततं परीक्षेत् ॥८॥ अर्थ-अब नाडी परीक्षाका प्रकार लिखते हैकी रोगके धारण करने वाली जो पहुचे नाडी है उसको दहने हाथकी तीन उंगली (तर्जनी , मध्यमा और अ. नामीका ) मैं दाबकर तथा रोगीके हाथकी कोहनीको दुसरे हाथमैं अच्छी रीतिसें पकडकर उसके अंगूठेकी जडके नीचे वातगती नाडीकी वारंवार परीक्षा करे तात्पर्य यह है कि प्रथम दहने हाथमैं कोहनीको पकडे फिर वाहसैं हाथको हटाय नाडीको दावे, और वाऐ हाथमैं रोगीके हाथको साधकर नाडीकी परीक्षा करे। इसजगे " दक्षिणकराङ्गुलिकात्रयेण" यह पद केवल उपलक्षण मात्रको धराहै किंतु नाडी वामहाथसैं भी देखे यदि ऐसा न मानोंगे तो फिर अपनी नौडीका देखना किसप्रकारहोगा । और वाजे वैद्य दहने हाथकी नाडी वामहाथसैं और वामहाथकी दहनसैं देखतेहै यह ठीक है । कदाचित् कोई शंकाकरे कि एकही हाथकी नाडी देखेनेसैं रोग जानाजाताहै फिर दोनो हाथकी देखना व्यर्थहै इसलिये कहतेहै कि बहुत से मनुष्योंके वाम For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । अंगही चेष्टावाले होते है, अतएव ऐसे मनुप्योंके वामअंगकी जबतक नाडी नहीं देखीजाय तबतक यथार्थ ज्ञान नहीं होता । दूसरे दोषोंके भेदसैं नाडीके वाम दक्षिण में भेद होजाताहै अथवा यह परंपराहै इसीसे लोकविरुद्धभयसै देखते है ॥ ८ ॥ ___ दूसरा प्रकार । ईषद्विनामितकरं वितताङ्गुलीयं बाहुप्रसाररहितं परिपीडनेन। ईषद्विनम्रकृतकूपरवामभागहस्ते प्रसारितसदङ्गुलिसन्धिके च ॥९॥ अङ्गुष्ठमूलपरिपश्चिमभागमध्ये नाडी प्रभञ्जनगति प्रथमं परीक्षेत् ॥१०॥ अर्थ-वैद्य रोगीके हाथको किंचिन्मात्र नवायकर और हाथकी उंगलीयोंको एकत्र कर तथा भुजाको बहुत लंबी न होनेदे और हाथ पट्टी आदिसैं बंधा न हो क्योंकी पट्टिआदिके बंधनसै नाडीकीगति रुकजाताहै फिर रोगीके कूपर (कोहनीके वामभाग ) को पकड अंगुली और उनकी संधिसहित हाथको पसार रोगीके अंगूठेके पिछलेभागमें प्रथम वातकी परीक्षा करे, कारण यहहै कि आदिमें वातका स्थानहै अतएव प्रथम वातकी परीक्षा करनी चाहिये ॥ ९ ॥ १० ॥ प्रदर्शयेदोषनिजस्वरूपं व्यस्तं समस्तं युगलीकृतं च मूकस्य मुग्धस्य विमोहितस्य दीपप्रभावा इव जीवनाडी॥११॥ अर्थ-यह जीवनाडी गूंगेके मृटके और मोहितपुरुषके पृथक् पृथक और मिले तथा छैद्वज दोषोंका जो निजस्वरूप है उसको दिखाती है, जैसे दीपक अपने प्रकाशमैं घरमें स्थित पदार्थीको दिखताहै ॥ ११ ॥ स्त्रीणां भिषग्वामहस्ते वामे पादे च यत्नतः। शास्त्रेण संप्रदायेन तथा स्वानुभवेन च॥परीक्षेद्रत्नपच्चासावभ्यासादेव जायते॥१२॥ अर्थ-वैद्य स्त्रियोंके धामहाथ और वापपरमें शास्त्रकी संप्रदायसें और अपने अनुभवद्वारा रत्नके समान नाडी परीक्षाकरे, यह परीक्षा केवल अभ्याससाध्यहै For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा ( १७ ) तात्पर्य यह है कि जैसे जोहरी रत्नपरीक्षामें अभ्यास करनेसें रत्नकी परीक्षा करता है उसीप्रकार इस नाडीका देखनाभी रत्नपरीक्षाके समान है, अतएव इसके देखने में वैद्य अभ्यासकरे ॥ १२ ॥ करस्याङ्गुष्टमूले या धमनी जीवसाक्षिणी । तच्चेष्टया सुखं दुःखं ज्ञेयं कायस्य पण्डितैः ॥ १३ ॥ प्रभञ्जनगतिर्यत्र इति नाड्यन्तरनिरासः सततम् इति सुस्थदशायामपि परीक्षणीया । अर्थ-तहां नाडीदेखनेका स्थान कहते है, जैसेकि हाथ के अंगूठेकी जडमें जो जीवसाक्षिणी धमनी नाडी है उसकी चेष्टा करके इसप्राणीके देहका सुख दुःख वैद्यजन जाने, ८ के श्लोकमें “प्रभञ्जनगतिर्यत्र " इस लिखने से यह सूचनाकरी कि अंगूठेके संनिकट नाडीको देखनी अन्य नाडियोंको न देखना तथा " सततं " इस पदके धरनेंसें यह प्रयोजन है कि वैद्य रोगावस्थाही में नाडी न देखे किंतु स्वस्थ दशामेंभी नाChat परीक्षाकरे. कारण कि जिसकी नाडी स्वस्थावस्था में देखी है यदि उसके रोग प्रग टहोनेवाला होवेतो उस रोगका निश्चय नाडीद्वारा बहुत सुगमतास होसकता है इसी लिखाहै यथा ॥ १३ ॥ भाविरोगावबोधाय सुस्थनाडीपरीक्षणम् ॥ १४ ॥ अर्थ - अर्थात् होनहार रोगज्ञानके अर्थ वैद्यको स्वस्थ ( रोगरहित) मनुष्य की नाडीपरीक्षा करनी चाहिये ॥ १४ ॥ स्पर्शनादिभिरभ्यासान्नाडीज्ञो जायते भिषक् । तस्मात्परामृशेन्नाडीं सुस्थानामपि देहिनाम् ॥ १५ ॥ स्पर्शनात्पीडनाद्घाताद्वेदनान्मर्दनादपि । तासु जीवस्य सञ्चारं प्रयत्नेन निरूपयेत् ॥ १६ ॥ अर्थ- ग्रन्थान्तरोंमें लिखा है कि स्पर्शनादिके अभ्यास अर्थात् प्रत्येककी नाडी देखनेसे यह वैद्य नाडीका जाता होता है अतएव यह वैद्य स्वस्थ मनुष्योंकीभी नाडी देखाकरे उस नाडीके स्पर्शसें, पीडन ( दावने ) सैं, घातसैं ( ऊंगलियोंमें लगनेसें १ यद्यस्ति नाडी सर्वत्र शरीरे धातुवाहिनी । तथाप्यङ्गुष्ठमूलस्था करस्था सर्वशोभना ||१|| विलसति मणिरन्ध्रे ग्रन्थिरगुरष्टमूले तृदधरणामिताभ रुयङ्गुलीभिर्निपीड्य । स्फुरणमसकृदेषा नाडिकायाः परीक्षा पद्मनुबुटिकाधोऽङ्गुष्ठमूले तथैव ॥ २ ॥ 1 ३ For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८) नाडीदर्पणः। वेदन (तडफ) से और मर्दनकरना इन कारणों से वैद्य उन नाडियोंके जीवसंचारको निरूपण करे ॥ १५ ॥ ॥ १६ ॥ गुरुतोऽत्र प्रयत्नेन वैयेन शुभमिच्छता। ज्येष्ठेनाङ्गुष्टमूलेन नाडीपुच्छं परीक्षयेत् ॥१७॥ अर्थ-यशेच्छु वैद्य यत्नपूर्वक गुरुसैं अर्थात् गुरुद्वारा अंगुठेकी जडमैं नाडीपुच्छकी परीक्षाकरे, तात्पर्यार्थ यहहै कि जो वैद्य अपने हितकी चाहना करे वो गुरुद्वारा नाडीपरीक्षा सीखे स्वयंही न देखनेलगे ज्येष्ठ कहनेसैं अंगूठेका बृहनिम्नभाग जानना ॥ १७ ॥ नाडी वायुप्रवाहेन शास्त्रं दृष्ट्वा च बुद्धिमान् । गुरूपदेशं संस्मृत्य परीक्षेत मुहुर्मुहुः ॥१८॥ अर्थ-बुद्धिवान् वैद्य पवनके संचारकरके और शास्त्रके अनुसार तथा गुरूके उपदेशको स्मरणकर बारबार नाडीकी परीक्षा करे ॥ १८ ॥ वारत्रयं परीक्षेत धृत्वा धृत्वा विमुच्य च । विमृश्य बहुधा बुद्धया रोगव्यक्तिं तु निर्दिशेत् ॥१९॥ अर्थ-बारबार नाडीपर उँगलिरखे और हटायले अर्थात् नाडीको कुछ दवायके ढीली छोडदेवे इसप्रकार करनेसे नाडीकी सबलता और निर्बलता चौडाव लंबाव तथा शीघ्रता और मंदताका ज्ञान होताहै । इस प्रकार तीनवार परीक्षाकर संपूर्ण नाडीकी व्यवस्था अपने मनमें विचारकर फिर रोगव्यक्ति कहे अर्थात् इसरोगीके देहमें अमुक रोगहै ऐसै विना विचारे न कहे ॥ १९ ॥ अङ्गलित्रितयै स्पृष्ट्वा क्रमाद्दोपत्रयोद्भवैः। मन्दां मध्यगतां तीक्ष्णां त्रिभिर्दोषैस्तु लक्षयेत् ॥२०॥ अर्थ-नाडीको तीनउँगलियोंके स्पर्शसे तीनोदोषोंकरकै मन्द, मध्य, और तीक्ष्ण गति जाननी, अर्थात् प्रथम उँगलीमें मध्यस्पर्शहोनेमैं वातकी, और बीचकी उँगलीमें तीक्ष्णस्पर्श होनेसे पित्तकी, और अंतकी उँगली ( अनामिका ) में मंदस्पर्श होनेसैं कफकी नाडी जाननी ॥ २० ॥ रोगरहितमनुष्यकीनाडी। भूलता भुजगप्राया स्वच्छा स्वास्थ्यमयी शिरा। सुखितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती मता ॥२१॥ For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा अर्थ-स्वस्थ अवस्थाकी नाडी कैंचुआ और सर्पके समान टेढीगतिसैं और पुष्ट तथा जडता रहित होती है यह नैरोग्य पुरुषकी नाडीके लक्षणहै तथा सुखी पुरुषकी नाडी स्थिर और बलवान् होतीहै ॥ २१ ॥ नाडीके देवता । वातनाडी भवेत् ब्रह्मा पित्तनाडी च शंकरः। श्लेष्मनाडी भवेद्विष्णुस्त्रिदेवा नाडीदेवताः ॥२२॥ अर्थ-वातनाडीका ब्रह्मा, पित्तनाडीका शंकर, और कफनाडीका पति विष्णुहै।२२। नाडीन्के वर्ण । वातनाडी भवेन्नीला पित्तनाडी तु पाण्डुरा। श्वेता तु कफनाडी स्यादेवं वर्णानि संवदेत् ॥२३॥ __ अर्थ-वातकी नाडीका वर्ण नीलहै, पित्तकी नाडीका पीला, कफनाडीका श्वेत, इसमकार नाडीके वर्ण कहने चाहिये ॥ २३ ॥ नाडीका स्पर्श । पित्तनाडी भवेदुष्णा कफनाडी तु शीतला । वातनाडी भवेन्मध्या एवं स्पर्शविनिर्णयः ॥२४॥ अर्थ-पित्तकी नाडी स्पर्शकरनेसे गरम प्रतीत होतीहै, कफकी नाडी शीतल, और यातकी नाडीका स्पर्श मध्यम होताहै इसप्रकार नाडीका स्पर्श जानना ॥ २४ ॥ कालपरत्व नाडीकी गति । प्रातः स्निग्धमयी नाडी मध्याह्ने चोष्णतान्विता। सायाह्ने धावमाना च रांची वेगविवर्जिता ॥२५॥ अर्थ-स्वभावसँही नाडी प्रातःकाल स्निग्ध, मध्यान्हमें उष्ण, और सायंकालमें वेगवती, तथा रात्रि वेगवर्जित होती है ॥ २५ ॥ अथ वातादिस्वभावक्रम । आदौ च वहते वातो मध्ये पित्तं तथैव च । अन्ते च वहते श्लेष्मा नाडिकात्रयलक्षणम् ॥२६॥ अर्थ-अब वातादिकका स्वभाव क्रम कहतेहै, जिससमय वैद्य कोहनीको पकडताहैं । उसके द्वितीयक्षणमें प्रथम वातकी नाडी फिर मध्यमें पित्तकी और अंतमें कफकी नार्ड १ चिराद्रोगविवर्जितेति पाठान्तरम् । जवत वा नाटिका समय For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२०) नाडीदर्पणः । चलतीहै । यह द्वितीयादिक्षणोंमें जाननी कोई कहताहै कि आदिमें वातकी बीचमें पित्तकी और अंतमें कफकी नाडी चलती है यह बात सर्वथा निर्मूल है क्योंकि स्थानका नियम किसी जगे नहीं करा, विशेष आगे कहते है यथा ॥ २६ ॥ उक्तश्लोकका विरोधीवचन । आदौच वहते पित्तं मध्ये श्लेष्मा तथैव च। अन्ते प्रभचनो ज्ञेयः सर्वशास्त्रविशारदैः ॥२७॥ अर्थ-आदिमें पित्तकी मध्यमें कफकी और अंत्यमे वातकी नाडी सर्वशास्त्रज्ञाता वैद्योंकरके जाननी ॥ २७ ॥ नाडीचक्रमिदम् वात पित्त । __ कफ नाडीके नाम श्याम हरित पीत लाल नील सपेद नाडीके वर्ण ब्रह्मा शीव विष्णु नाडीके देवता न गरम न शीत ल किंतु मध्यम गरम शीतलनाडीका स्पर्श विषम दीर्घ हस्व नाडीमाप गंधहीन तीव्रगंध मध्यमगंध नाडीका गंध तिर्यग्गमन ऊर्ध्वगमन अधोगमन नाडीका गमन हलकी हलकी भारी नाडीका गुरुता और लघुता नाडीके बलवा नहोनेका समय रात्रिदिवाबली दिवाबली । रात्रिबली - For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा उक्तलोकका पुष्टिकर्त्ता दृष्टान्त । तृणं पुरःसरं कृत्वा यथा वातो वहेइली । शेषस्थं च तृणं गृह्य पृथिव्यां वऋगो यथा ॥ २८ ॥ एवं मध्यगतो वायुः कृत्वा पित्तं पुरस्सरम् । स्वानुगं कफमादाय नाड्यां वहति सर्वदा ॥ २९ ॥ ( २१ ) अर्थ - इस वाक्यको दृष्टान्त देकर पुष्ट करते है कि जैसे प्रबलवात अर्थात् आंधी. तिनकाओंको अगाडी करके और कुछ पिछाडीके तिनकाओं को लेकर आप बीचमें टेढ़ी होकर चलती है । इसीप्रकार मध्यरात वायु पित्तको अगाडीकर और अपने पिछाडी कफको करके बीचमें आप टेढी होकर चलती है ॥ २८ ॥ २९ ॥ अतएव च पित्तस्य ज्ञायते कुटिला गतिः । वक्रा प्रभञ्जनस्यापि प्रोक्ता मन्दा कफस्य च ॥ ३० ॥ पित्ताग्रेऽस्ति गतिः शीघ्रा तृणस्येति विश्यताम् । मन्दानुगस्य वक्रा वै मारुतो मध्यगस्य ह ॥ ३१ ॥ तथात्रैव च ज्ञातव्या गतिदपत्रिकोद्भवा । नान्यथा ज्ञायते स्नायुगतिरेतद्विनिश्चितम् ॥ ३२ ॥ अर्थ- इसींसें नाडीमें पित्तकी गति कुटिल है, और वातकी गति टेढी एवं कफकी मन्दगति प्रतीत होती है । पित्तकी शीघ्रगति सो आंधी में तृणके देखने तें प्रत्यक्ष होती है । और जैसें आंधी में पिछाडीके तृणकी मंदगति होती है उसीप्रकार नाडीमें पिछाडी कफकी मंदगति है । और जैसें आंधी के बीचमें पवनकी गति टेढी तिरछी होती है । उसीप्रकार इसनाडीके बीच में वातकी गति टेढी तिरछी प्रतीत होती है इस प्रकार ही नाडीकी गति प्रतीत होती है । अन्यप्रकारसैं नहीं ॥ ३० ॥ परंतु हमको शंका कि नाडीका और आंधीका क्या संबंध है, क्योंकि आंधी में आगे पीछे और बीचमें पवनही कहाती है, परंतु नाडीमे तो न्यारे न्यारे दोषहै, जैसें वात पित्त, तथा कफ, और पवनका एकही कर्म है परंतु इन तीन्यो दोषों के कर्म पृथक् पृथक् है इस कारण यह दृष्टान्तही असंभव है हमारे मनको हरण कर्ता नहीं है ॥ ३१॥३२ ॥ For Private and Personal Use Only ग्रंथकर्त्ता का मत इदानीं कथयिष्यामि स्वमतं शास्त्रसंमतम् । मिथ्यारोपित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२) नाडीदर्पणः । वादस्य खण्डनं लोकरञ्जनम् ॥ ३३ ॥ वातमग्रे वदन्त्येके पित्तमग्रे च केचन । हास्यास्पदमिदं सर्व नतु सत्यं मनागपि ॥३४॥ अर्थ-अब हम शास्त्रसंमत तथा मनुष्योकी रंजना (प्रसन्नता ) को और मिथ्यारोपित वादका खंडनरूप अपने मतको कहतेहै । जैसे कोई तो वातकी, और कोई पित्त की नाडीको आगे बतलाताहै यह केवल उनके हास्यका स्थानहै किंतु किंचिन्मात्रभी सत्य नहीहै इसप्रकार माननेसैं बडाभारी अनर्थ होताहै जैसे आगे लिखतेहै ॥ ३४ ॥ सति पित्तभवे व्याधौ बुद्धचतिक्रमतो यदि । वातकोपवशादेवमादौ ज्ञात्वा धरागतिम् ॥ ३५ ॥ प्रदेद्वेषजं घुष्णं तद्दोपविनिवृत्तये । तदा नूनं भवेन्मृत्युः पित्तकोपेन भूयसा ॥३६॥ अर्थ-कदाचित् किसीरोगीके पित्तकी व्याधिहोवे और वैद्यबुद्धिभ्रमसें वातकोपको नाडी अग्रभागमें समझकर उस रोगीको दोष दूर करनेको उस उष्ण (शुंठ्यादि) औषध देय तो कहो एकतो पित्तदोषकी गरमी और दूसरे गरम ही दीनी औषध अब कहो वह रोगी पित्तकी गरमीके मारे मरेगा कि वचेगा? किंतु अवश्यही मरेगा । सति वातभवे व्याधौ बुद्ध्यतिक्रमतो यदि । नाडीगतिं पित्तवशादादौ ज्ञात्वा ततो भिषक् ॥ ३७ ॥ प्रददेनेपनं शीतं तदोषविनिवृत्तये । तदा नूनं भवेन्मृत्युतिकोपेन भूयसा ॥३८॥ अर्थ-इसीप्रकार रोगीके देहमें वातजन्य रोगहोय और वैद्यबुद्धिके भ्रमसैं पित्तकी नाडी जानकर यदि उसरोगीको पित्तनाशक शीतल उपचार करे तो कही अत्यंत शरद औषधसैं रोगी सरदीके मारे मरेगा या वचेगा? किंतु अवश्यही मरेगा ॥ ३७-३८ ॥ अत्याश्चर्यमिदं लोके वर्त्तते दृश्यतां यथा । वदन्त्येके दिनं - रात्रि केऽपि रात्रि दिनं तथा ॥३९॥ एवं स्वेच्छाभिलापे For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा (२३) न स्वल्पलोभेन मानवाः । रोगिणां सुप्रिया प्राणान्हरन्ति ज्ञानवर्जिताः॥४०॥ अर्थ-इस मंसा में अत्यंत आश्चर्य है देखो कोई दिनको रात्रि और कोई रात्रिको दिन कहताहै । इसप्रकार अपनी अपनी इच्छानुसार वकतेहै और ए मूर्ख वैद्य थोडेसें लोभके कारण रोगियोंके परमप्रिय प्राणोंको हरण करते है | कहो इनसे बढकर कौन पामरहै जो विना विचारे अनर्थ करते है भाई यह वैद्यविद्या खेल नहीं है ॥ ४० ॥ अत एवं मया चित्ते सर्वमानीय तत्त्वतः। कथ्यते नास्ति नास्तीह नाडीस्थानविचारणा॥ ४१ ॥ किन्तु नाडीगतिः श्रेष्ठा शास्त्रकारैः प्रकीर्तिता । न च तत्रहि सन्देहो लेश मात्रोऽपि विद्यते ॥ ४२ ॥ तत्प्रकारोप्ययं ज्ञेयः सावधानतया किल । यथा सर्पजलौकादिगतिर्वातस्य गद्यते ॥४३ ॥ न तत्र कुरुते कोऽपि पित्तश्लेष्मभवं भ्रमम् । कुलिङ्गकाकमण्डूकगतिः पित्तस्य कीर्त्यते ॥४४॥ न तत्र कोऽपि कुरुते वातश्लेष्मभवं भ्रमम् । कपोतानां मयूराणां हंसकुक्कुटयोरपि ॥४५॥ या गतिः सा च विज्ञेया कफस्यैव गतिनृभिः। न तत्र कोऽपि कुरुते वातपित्तभवं भ्रमम् ॥ ४६॥ अर्थ-इन ऊपरकहेहुए सर्वकारणोंको अपने चित्तमें भलेप्रकार विचारकर हम कहते है कि नाडीके जो आदि मध्य और अंत्य ये स्थान किसीने कहे हैं सो नहीं हैं नहीं हैं । तो क्याहै? इसलिये कहते है कि नाडीकी जो गति है वो सत्यहै क्योंकि इसमें सर्वग्रंथकर्ताओंकी संमतिहै और इसमें लेशमात्रभी संदेह नहीं है, उसप्रकारको तुम सावधानताकरके सुनो, जैसैं सर्प और जोककी गति वातकी है इसमें कोई भ्रम नहीं करे कि यह पित्तकी नाडीहै या कफकी उसीप्रकार कुलिंग काक और मंडूककी गति पित्तकी है इसमें वात तथा कफकी नाडीका कोई भ्रम नहीं करता, इसीप्रकार कपोत, मोर, हंस, और कुकुट इनकी जो गतिहै वह कफकी है इसमें कोई यह नहीं कहे कि ये गति कफकी नहीं है वातपित्तकी है, इसीसे हमारातो यही सिद्धांतहै कि नाडीके स्थान असत्य और गति सत्यहै ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥४४॥ ४५ ॥ ४६॥ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २४ ) नाडीदर्पणः । वातादिकोंकी क्रम गति । वाताकगता नाडी चपला पित्तवाहिनी । स्थिरा श्लेष्मवती ज्ञेया मिश्रिते मिश्रिता भवेत् ॥ ४७ ॥ अर्थ- बात तिरछी बहती है, अतएव वातकी नाडी टेढी चलती है, अग्रि चंचल हो ऊपरको जाती है अतएव पित्तकी नाडी ऊपरकी तरफ वहती है और चपल है, जल नीचेको जाता है, इसी से प्रबल नहींहं अतएव कफकी नाडी भी स्थिर है और जो मिश्रित नाडी है उनकी गतिभी मिली हुई होती है । इस्से यह दिखाया कि द्विदोषजमें दोaiपके चिन्ह होते है, त्रिदोषमें तीनों दोषोंके चिन्ह होते हैं, कदाचित कोई प्रश्नकरोक एकही नाडी चपल और स्थिर कैसे होसकती है ? इस्सें कहते है कि समय भेद होने दोनो गति होती है ॥ ४७ ॥ वातादीकी विशेषगति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्पजलौका दिगतिं वदन्ति विबुधाः प्रभञ्जने नाडीम् । पित्ते च काकलावकभकादिगतिं विदुः सुधियः ॥ ४८ ॥ राजहंसमयूराणां पारावतकपोतयोः । कुक्कुटादिगतिं धत्ते धमनी कफसंवृता ॥ ४९ ॥ अर्थ - सर्प और जोखकी गति पंडितजन वातकी नाडीकी गति कहते है अर्थात् जैसे सर्प और जोख टेढे तिरछे होकर चलते है उसीप्रकार वादीकी नाडी चलती है । आदि शब्द से विछूकी गतिका ग्रहण है । उसी प्रकार पित्तमें काक कौआ लावक (लवा ) और भेद (मैंडका) की गतिके सदृश नाडी चलती है अर्थात् जैसैं कौआ, लवा, और मेंडका भुदकते उछलते चलते है उसी प्रकार पित्तकी नाडी चलती है । आदिशन्दसे कुलिंग और चिडा आदिकी गतिका ग्रहणहै । एवं राजहंस ( वतक) मोर खबुतर, कपोत ( पिंडुकिया) और मुरगा इन पक्षियोंकीसी अर्थात् ए पक्षी जैसे मंदमंद गति चलते है इसप्रकार कफकी नाडी चलती है । आदिशब्दसैं हाथी और उत्तम खीकी चालका ग्रहण है अर्थात् जैसे हाथी और उत्तम स्त्री झूमती हुई मंद मंद चलती है उसी प्रकार कफकी नाडी चलती है ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ नाडीकी चाल | मुहुः सर्पगत नाडीं मुहुर्भेकगतिं तथा । वातपित्तद्वयो- तां प्रवदन्ति विचक्षणाः ॥ ५० ॥ भुजगादिगतिञ्चैव राज For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदाक्तनाडीपरीक्षा हंसगति धराम् । वातश्लेष्मसमुद्भूतां भाषन्ते तद्विदो जनाः ॥५१॥ मण्डूकादिगतिं नाडी मयूरादिगति तथा । पित्तश्लेष्मसमुद्भूतां प्रवदन्ति महाधियः॥५२॥ अर्थ-बारबार सर्पगति ( टेढी ) और बारबार मेंडकाकी गति ( उछलती) नाडी चले उसको चतुरवैद्य वातपित्तकी नाडी कहतेहै । तथा कभी सर्पगति और कभी राजहंसकी गतिसं नाडी चले उसको पंडितजन वातकफकी नाडी कहतेहै । एवं कभी मेडक और कभी मोरकी चाल चलं उस नाडीको पित्तकफकी वृद्धि वान् वैद्य कहतेहै ॥ ५१ ॥५२॥ प्रकारान्तर । वातेऽधिके भवेन्नाडी प्रव्यक्ता तर्जनीतले । पित्ते व्यक्ता मध्यमायां तृतीयाङ्गुलिगा कफे ॥५३॥ तर्जनीमध्यमामध्ये वातपित्ताधिके स्फुटा । अनामिकायां तर्जन्यां व्यता वातकफे भवेत् ॥५४॥ मध्यमानामिकामध्ये स्फुटा पित्तकफेऽधिके । अङ्गुलित्रितयेऽपि स्यात्प्रव्यक्ता सानिपाततः॥५५॥ अर्थ-वाताधिक्य नाडी तर्जनीकं नीचं चलती है । पित्तकी नाडी मध्यमा ऊंगलीके नीचे । और कफकी नाडी तीसरी ऊंगली अर्थात् अनामिकाके नीचे चलती है । वातपित्तकी नाडी तर्जनी और मध्यमाके नीचे चलती है । वातकफकी नाडी अनामिका और तर्जनीके नीचे चलती है । मध्यमा और अनामिकाके नीचे पित्तकफाधिक नाडी चलतीहै । और तीनी ऊंगलियोंके नीचे सन्निपातकी नाडी गमन करती है ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ वक्रमुत्पत्य चलती धमनी वातपित्ततः । वहेडक्रञ्चमन्दञ्च वातश्लेष्माधिकं त्वचः॥५६॥ उत्प्त्य मन्दं चलति नाडी पित्तकफेऽधिके। अर्थ-वातपित्ताधिक्यसै नाडी टेटी और उछलती हुई चलती है । वातकफसैं टेढी और मन्दगमनकरती है पित्तकाधिक्यमें नाडी उछलीहुई मंद गमन करती है ॥५६॥ For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३ नाडीदर्पणः । त्रिदोषकीनाडी । उरगादिलावकादि हंसादीनाञ्च विभ्रती गमनम् ॥ ५७ ॥ वातादीनाञ्च समं धमनी सम्बन्धमाधत्ते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - वातादि त्रिदोष के समान होने से नाडी सर्प, लवा, और हंस आदि पक्षियों के समान गमन करती है । समके कहने से न्यूनाधिक्यका त्याग यदि नाडी तीनो दोषोंकी क्रमस चले तो असाध्य नहीं है ॥ ५७ ॥ लावतित्तिरवार्ताकगमनं सन्निपाततः ॥ ५८ ॥ कदाचिन्मन्दगमना कदाचिच्छीघ्रगा भवेत् । त्रिदोषप्रभवे रोगे विज्ञे या हि भिषग्वरैः ॥ ५९ ॥ अर्थ-लवा तीतर और वटेरकी चाल नाडी संनिपातके कोपसैं करती है कभी मंदगमन करे, और कभी शीघ्रगमनकरे, ऐसी नाडी त्रिदोषजन्य रोगमें वैद्योंको जाननी चाहिये इस त्रिदोष में पित्तके क्रमसैं साध्यासाध्य और कृच्छ्रसाध्य जानना अर्थात् अधिक पित्त साध्य, मध्यसै कष्टसाध्य, और पित्त सर्वथा नाडीमें न होयतो वह रोगी असाध्यहै || ५८ ॥ ५९ ॥ सामान्यतापूर्वक सुखसाध्यत्व । यदा यं धातुमाप्नोति तदा नाडी तथागतिः । तथा हि सुखसाध्यत्वं नाडी ज्ञानेन बुध्यते ॥ ६० ॥ अर्थ - नाडी जिससमय जिसधातुमें प्राप्तहोय उससमय यदि उसका प्रकृति अनुसार चलना होय तो पीडा सुखसाध्य ऐसे नाडीज्ञानकरके जानी जाती है इसका निष्कृष्टार्थ यह है कि अपराह्नादि कालमें वातोल्बणा नाडी प्रथम वातकी गति करके चले, फिर क्रमसैं पित्त और कफकी चालचले, किंतु पित्तोल्बणा वातगतिसें न चले तो सुखसाध्य जाननी यदि इसे विपरीतहोय तो विपरीत अर्थात् असाध्य जाननी जैसे किसीने कहा है " नाडी यथा कालगतिस्त्रयाणां प्रकोपशान्त्यादिभिरेव भूयः ॥ ६० ॥ असाध्यत्व | मन्दं मन्दं शिथिलशिथिलं व्याकुलं व्याकुलं वा स्थित्वा स्थित्वा वहति धर्मनी याति नाशं च सूक्ष्मा । For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा नित्यं स्थानात्स्खलति पुनरप्यङ्गुलिं संस्पृशेद्रा। भावैरवं बहुविधविधैः सन्निपातादसाध्या ॥६॥ अर्थ-जो नाडी कभी प्रखरतारहित मंदमंद गमन करे, कभी स्खलित भावसैं कभी व्याकुल व्याकुलवत् ( जैसे त्रासित मनुष्य चलताहै ) कभी ठहर ठहरके चले और जो संपूर्ण रूपसे लुप्तहोजाय अथवा बहुत सूक्ष्म वहे अर्थात् यह प्रतीत नहोय कि यह नाडी चलेहै या नहीं चले और जो नित्यस्थान अर्थात् अंगुष्ठमूलको परित्यागकरदे, इसीप्रकार कुछकालमें फिर अपने स्थानमें प्रगटहोय ऊंगलियोंको आघातकरे, ऐसे अनेक प्रकारके भावोंकरके नाडीको मृत्युकी कारण जाननी ॥ ६१ ॥ महादाहेऽपि शीतत्वं शीतत्वे तापिता शिरा। नानाविधगतिर्यस्य तस्य मृत्युर्न संशयः ॥ ६२ ॥ अर्थ-जिस प्राणीके देहमें अत्यंत ताप होय परंतु नाडी शीतल होय, एवं देह अत्यंत शीतल होय और नाडी उष्ण प्रतीतहो, तथा जिसनाडीकी अनेकप्रकारकी गति होय उसरोगीकी निश्चय मृत्यु होय, इस श्लोकमें महाशब्द पित्तकृत दाहके निवारणार्थ है ॥ ६२ ॥ त्रिदोषे स्पन्दते नाडी मृत्युकालेऽपि निश्चला ॥ ६३॥ अर्थ-संनिपातावस्थामें मृत्युकालमें भी नाडी सामान्य भावसें चलती है क्योंकी अतीसारादि रोगोंमें हाथपैर में स्वेदादिक करनेसें नाडीका तडफना प्रतीत होता है ॥ ६३ ॥ पूर्व पित्तगति प्रभञ्जनगति श्चेष्माणमाविभ्रतीम् । स्वस्थानभ्रमणं मुहुर्विदधतीं चक्रादिरूढामिव । तीव्रत्वं दधती कलापिगतिका सूक्ष्मत्वमातन्वतीम् । नो साध्यां धमनीं वदन्ति सुधियो नाडीगतिज्ञानिनः ॥६॥ अर्थ-प्रथम पित्तगतिमैं चले ( अर्थात् प्रथम वातगति चलना चाहिये सो त्याग दे यह विपरीत क्रम दिखाया) फिर वातगति और फिर कफकी गतिसैं' चले तथा अपने स्थानको छोड वारंवार अनेक प्रकारसैं चक्र (चाक ) पर बैठ चाकफेरीके सदृश भ्रमणकरे, कभी तीव्रवेगसें चले और कभी मोरकी गतिके समान १ भीमत्वंदधतीं कदाचिदपि वा इति पाठांतर । For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । उत्तरोत्तर मंद पडजावे ऐसी नाडीको नाडीके ज्ञाता साध्य नहींकहते, किंतु असाध्य कहतेहै ॥ ६४ ॥ यात्युच्चा च स्थिरात्यन्ता या चेयं मांसवाहिनी । या च सूक्ष्मा च वक्रा च तामसाध्यां विदुर्बुधाः॥६५॥ अर्थ-जो नाडी अत्यंत ऊंची, अत्यंत स्थिर. और जो मांसवाहिनी कहिये मांसाहारकरनेसे जैसी चले ऐसी चलने लगे और जो अत्यंत सक्ष्म, और टेढीहो उसको वैद्यजन असाध्य कहतेहै ।। ६५ ।। असाध्यनाडीका परिहार । भारप्रवाहमूर्छा भयशोकप्रमुखकारणानाडी। संमूच्छितापि गाढं पुनरपि सा जीवनं धत्ते ॥६६॥ अर्थ-अत्यंत वोझाके उठानेसें, अथवा विषवेग धाराके वहनेस, रुधिरदेखनेके कारण जो मूर्छित हो गयाहो राक्षसादि दर्शनकरके भयभीततासे धनपुत्रादि नष्ट होनेके शोकसैं जो नाडी अत्यंत स्पन्दरहितभी होगईहो वा फिरभी साध्यताको प्राप्त होतीहै कोई भावप्रवाह ऐसा पाठमानताहै सो असत्है ॥ ६६ ॥ पतितः सन्धितो भेदी नहशुक्रश्च यो नरः। शाम्यते विस्मयस्तस्य न किञ्चिन्मृत्युकारणम् ॥६७॥ अर्थ-जो उच्चस्थानादिसें गिराहो, हड्डी आदिके जोडनेसैं, अतीसार रोग वाला, जिसकैं यक्ष्मा आदि रोगके कारण अथवा रमणकरनेके कारण शुक्रक्षीण होगयाहो, ऐसे मनुष्योंकी यदि नाडी अत्यंत क्षीणभी होगईहो तथापि मृत्युका कारण नहींहै, अर्थात् असाध्यके विस्मयको दूरकरहै ॥ ६७ ॥ तथा भूताभिषङ्गेऽपि त्रिदोषवदुपस्थिता । समाङ्गा वहते नाडी तथा च न क्रमंगता। अपमृत्युन रोगाङ्गा नाडी तत्सन्निपातवत् ६८ अर्थ-एवं भूताभिषंग अर्थात भूतप्रेतबाधामें यदि नाडी सन्निपातके सदृश चले तथा वह नाडी वात पित्त कफ स्वभावक्रमवालीहो किंतु वे क्रम न होय तो उस सन्निपातके सदृश नाडीसैंभी मृत्युका भय नहींहै ॥ ६८ ॥ स्वस्थानहीने शोके च हिमाकान्ते च निर्गदाः । भवन्ति निश्चला नाड्यो न किञ्चित्तत्र दूषणम् ॥ ६९॥ अर्थ-उच्चस्थानसैं गिरनेसैं शोक और हिम ( बर्फ कोहल आदिकी शरदी) For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा से यदि नाडी निश्चल हाय फिरभी प्रगट होय इस्से मृत्यु शंकाका भय नहीं है इस श्लोकमें “निर्गदा " जो पदहै सो असंगतहै । क्योंकि निर्गदा नाडीभी निश्चला होतीहै ॥ ६९ ॥ स्तोकं वातकफ जुष्टं पित्तं वहति दारुणम् । पित्तस्थानं विजानीयाद्रेषजं तस्य कारयेत् ॥ ७० ॥ अर्थ-किंचिन्मात्र वातकफयुक्त और पित्त जिसमें प्रबल होय तो उस रोगीका यत्न करना चाहिये, वो असाध्य नहीं है ॥ ७० ॥ स्वस्थानच्यवनं यावद्धमन्या नोपजायते । तावचिकित्सा सत्वेऽपि नासाध्यत्वमिति स्थितिः ॥७१॥ अर्थ-जबतक नाडी स्वस्थान कहिये अंगुष्ठमूलसैं च्युत न होय, तावत्कालतक चिकित्सा करे यह असाध्य नहीं है ॥ ७१ ॥ प्रसङ्गवशकालनिर्णय कहतेहै भूलता भुजगाकारा नाडी देहस्य संक्रमात् । विशीर्णा क्षीणतां याति मासान्ते मरणं भवेत् ॥७२॥ अर्थ-कभी नाडी केंचुऐके सदृश कृश और टेटो चले, कभी सर्पके समान पुष्ट बलयुक्त और तिरछी चले, तथा कभी अलक्ष और अतिकृशतापूर्वक गमनकरे एवं कभी देह सूजन आदिसें स्थूल होजावे और कभी कृशहो जाय तो वह रोगी दूसरे महिनमें मरे ॥ ७२ ॥ क्षणाद्गच्छति वेगेन शान्ततां लभते क्षणात् । सप्ताहान्मरणं तस्य यद्यङ्ग शोथवर्जितः ॥७३॥ अर्थ-कभी नाडी जल्दी चले कभी चलनसैं रहि जावे और देहमें शोथ होय नहीं, तो उस प्राणीकी सातदिनमें मृत्यु होय ॥ ७३ ॥ निरीक्षा दक्षिणे पादे तदा चैषा विशेषतः। मुखे नाडी वहन्नित्यं ततस्तु दिनतुर्यकम् ॥ ७४॥ अर्थ-पुरुपके दहने पैर और स्त्रीके वामपैर में यदि नाडी विशेष संचारकरे तथा आदिमें नित्य नाडी चले तो वहर गी चारदिन जीवे । आदिशन्दमैं इस जगे तर्जनी ऊंगली जाननी ॥ ७ ॥ - १ तत्स्थाचिदस्य सत्पीति पाटान्तरम् । For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः। हिमवदिशदा नाडी ज्वरदाहेन तापिनाम् । त्रिदोषस्पर्शभजतां तदा मृत्युदिनत्रयात् ॥ ७९ ॥ __ अर्थ-सन्निपात ज्वर दाहसैं संतप्त रोगीकी नाडी यदि शीतल और निर्मल होय तो वह रोगी तीन दिनमें मरे ॥ ७५ ॥ गतिन्तु भ्रमरस्येव वहेदेकदिनेन तु । अर्थ-जिस प्राणीकी नाडी भ्रमरके सदृश गमन करे अर्थात् जैमें भौरा कुछ दूर उडकर चला जाताहै और फिर उसीजगे आय जाताहै इसप्रकार नाडी चलनेसैं उसकी एकदिनमें मृत्यु होय ॥ कन्दन स्पन्दते नित्यं पुनर्लगति नाङ्गलौ ॥७६॥ मरणे डमरूकारा भवेदेकदिने न तु । अर्थ-मरणमें नाडी डमरूके आकार होती है, वो १ दिनमें मरे ॥ ७६ ॥ दृश्यते चरणे नाडी करे नैवाधि दृश्यते। मुखं विकसितं यस्य तं दुरात्परिवर्जयेत् ।। ७७ ॥ अर्थ-जिसके चरणमें नाडी प्रतीत होय और हाथमें न मालमहो, तथा जिसका मुख खुलगयाहो उसै वैद्य त्यागदेय ॥ ७७ ॥ वातपित्तकफाश्चापि त्रयो यस्यां समाश्रिताः। कृच्छ्रसाध्यामसाध्यां वा प्राहुवैद्यविशारदाः॥७८॥ अर्थ-जिसकी नाडीमें वातपित्त और कफ ए तीनोंदोष होय उसरोगीको बुद्धिवान वैद्य कृच्छ्रसाध्य अथदा असाध्य कहतेहै ।। ७८ ॥ शीघ्रा नाडी मलोपेता शीलता वाथ दृश्यते। द्वितीयदिवसे मृत्यु डीविज्ञातृभाषितम् ॥ ७९ ॥ अर्थ-जिस रोगीकी नाडी बहुधा मलदूषित होकर शीघ्र चले, किंवा शीतल प्रतीतहो उस रोगीकी दूसरे दिन मृत्युहोय, इसप्रकार नाडीज्ञान पारंगत वैद्योंने कहाहै ॥ ७९ ॥ मुखे नाडी वहेत्तीवा कदाचिच्छीतला वहेत् । आयाति पिच्छलस्वेदः सप्तरात्रं न जीवति ॥८०॥ For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदाक्तनाडीपरीक्षा अर्थ-वातनाडी तीव्रगति, तथा कभी मंदवहं तथा अंगमेंसैं गाढा पसीना निकले तो वह रोगी सातरात्रि नहीं वचे ॥ ८० ॥ देहे शैत्यं मुखे श्वासो नाडी तीव्रा विदाहिनी। मासाध जीवितं तस्य नाडीविज्ञातृभाषितम् ॥८१॥ . अर्थ-शरीरमें शीतलता, मुखसै अत्यंत श्वास छोडे, तथा नाडी तीव्रदाहयुक्त चले, उसका अर्धमास आयुष्यहै, ऐसे नाडीज्ञाताओंने कहाहै ॥ ८१ ॥ मुखे नाडी यदा नास्ति मध्ये शैत्यं बहिः कुमः। यदा मन्दा वहेवाडी त्रिरात्रं नैव जीवति ॥ ८२॥ अर्थ-जिस कालमें वातनाडी चले नहीं अंतर्गत शीतहो तथा बाहर ग्लानीहोकर मंदमंद नाडी चले तो वह रोगी तीनरात्रि नहीं जीवे ॥ ८२ ॥ अतिसूक्ष्मातिवेगा च शीतला च भवेद्यदि। तदा वैद्यो विजानीयात्स रोगी त्वायुषः क्षयी ॥८३॥ अर्थ-जिसकालमें नाडी अति सूक्ष्म किंवा अतिवेगवान् और शीतल वहे तो रोगी क्षीण आयुहै ऐसे वैद्य जाने ॥ ८३ ॥ विद्युद्दोगिणां नाडी दृश्यते न च दृश्यते। अकालविद्युत्पातेव स गच्छेद्यमसादनम् ॥ ८४॥ अर्थ-जिस रोगीकी नाडी कभी कभी बिजलीके समान फडकजावे और फिर अस्त होजावे, वो रोगी अकस्मात् जैसे बिजली गिरती है, इसप्रकार रोगी यमराजके घर जाय ॥ ८४ ॥ तिर्यगुष्णा च या नाडी सर्पगा वेगवत्तरा। कफपूरितकण्ठस्य जीवितं तस्य दुर्लभम् ॥ ८५॥ अर्थ-नाडी उष्ण वक्रगति तथा सर्पके समान बहुत वेगवानही, तथा कंठ कसे घिरजावे ऐसा रोगीका जीवन दुर्लभ जानना ॥ ८५ ॥ चला चलितवेगा च नासिका धारसंयुता। शीतला दृश्यते या च याममध्येच मृत्युदा ॥८६॥ अर्थ-जिसकी नाडी कांपनेवाली तथा चंचल नासिकाके श्वासोच्छासके माधारसे चलनेवाली और शीतल ऐसी प्रतीतहो वो रोगी एकप्रहरमें मरे ऐसा जानना ॥ ८६ ॥ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३३ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । शीघ्रा नाडी मलोपेता मध्याह्नेग्रिसमो ज्वरः । दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीयेऽह्नि म्रियेत सः ॥ ८७॥ अर्थ - जिस रोगीकी त्रिदोषयुक्त नाडी बहुत जल्दी चले, तथा जिसको मध्याह्नमें अनके समान ज्वर आवे, उस रोगीकी आयु एकदिनकी है दूसरे दिन मृत्यु होय ८७ ॥ स्कन्देन स्पन्दते नित्यं पुनर्लगति नाङ्गलौ । मध्ये द्वादशयामानां नृत्युर्भवति निश्चितम् ॥ ८८॥ अर्थ- जो नाडी अपने मूलस्थान में फडके नही और ऊपलीयोंका स्पर्श न करे उसकी बारह प्रहरमें मृत्युहीय. ऐसा जानना ॥ ८८ ॥ स्थित्वा नाडी मुखे यस्य विद्युदयोतिरिवेक्षते । दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीये म्रियते ध्रुवम् ॥ ८९ ॥ अर्थ - जिस रोगीकी नाडी मूलस्थानके अग्रभागमें ठहरकर बिजली के सदृश तडफजावे वह एकदिन जीवे, दूसरे दिन निश्चय मरे ॥ ८९ ॥ स्वस्थानविच्युता नाडी यदा वहति वा न वा । ज्वाला च हृदये तीव्रा तदा ज्वालावधि स्थितिः ॥ ९० ॥ अर्थ- जिस रोगीकी नाडी अपने स्थानसें विच्युत हो ( छट ) कर कभी चले कभी नहीं और हृदयमें तीव्र दाहहोय तो जबतक हृदयमें ज्वाला तावत्काल रोगीका जीवन है ॥ ९० ॥ अङ्गुष्ठमूलतो बाह्ये व्यङ्गुले यदि नाडिका । प्रहराद हिमृत्युं जानीयाच्च विचक्षणः ॥ ९१ ॥ अर्थ - अंगुष्टमूल अर्थात् तर्जनी ऊंगली धरनेके स्थलमं यदि नाडीकी गति प्रतीत नहो, केवल मध्यमा और अनामिका इन दो अंगुली से प्रप्तीतहोय तो उस रोगीकी अर्ध प्रहरके उपरांत मृत्यु होय ॥ ९१ ॥ सार्द्धद्वयालाद्वा यदि तिष्ठति नाडिका । प्रहरैकाद्वहिर्मृत्युं जानीयाच्च विचक्षणः ॥ ९२ ॥ अर्थ - नाडी मूलस्थानसें २॥ अंगुल अंतर अर्थात् यदि केवल अनामिकाके शेषार्द्ध मात्रमें फडके उसकी प्रहरउपरांत अर्थात् दूसरे प्रहर में मृत्युहोय ॥ ९२ ॥ पादाङ्गुलगता नाडी चञ्चला यदि गच्छति । त्रिभिस्तु दिवसैस्तस्य मृत्युरेव न संशयः ॥ ९३ ॥ For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा अर्थ-यदि नाडी तर्जनीको सर्वाश और मध्यमा ऊंगलीके चतुर्थांशमें व्याप्तहो प्रतीत होवे और मध्यमाके अवशिष्ट पादत्रय और अनामिकाके सर्वांशमें न प्रतीत होय तो उस रोगीकी तीनदिनमें मृत्यु होय ॥ ९३ ।। पादाङलगता नाडी कोष्णा वेगवती भवेत्।। पञ्चभिर्दिवसैस्तस्य मृत्युर्भवति नान्यथा ॥९४॥ ___ अर्थ-नाडी पूर्ववत् तर्जनी और मध्यमाके चतुर्थांशमें व्यापकहो जल्दी जल्दी चले और किंचिन्मात्र गरम प्रतीत होय तो उसरोगीकी चारदिनमें निश्चय मृत्युहोय ॥९॥ पादाङ्गुलगता नाडी मन्दमन्दा यदा भवेत् । पञ्चभिर्दिवसैस्तस्य मृत्युर्भवति नान्यथा ॥ ९५ ॥ अर्थ-नाडी पूर्ववत् समग्र तर्जनी और मध्यमाके चतुर्थांशमें व्याप्तहो मन्दमन्द चले तो उसरोगीकी पांचवे दिन मृत्युहोय ॥ ९५ ॥ नाडीद्वारा आयुका ज्ञान ! वामनाडी दीर्घरेखा बाहुमूले च स्पन्दते । जीवेत्पञ्चशतं वर्ष नात्र कार्या विचारणा ॥ ९६॥ अर्थ-जिस रोगी वामनाड़ी दीर्घरेखाके आकारसें भुजाकी जडमें तडफे वो १०५ वर्षजीवे इसमें संदेह नहीं ॥ ९६॥ दीर्घाकारा वामनाडी कर्णमूले च स्पन्दते। जीवेत्पञ्चशतं सार्द्ध धनिको धार्मिको भवेत् ॥ ९७॥ अर्थ-जिसकी वामनाडी आकारमें लंबी होकर कानकी जडमें प्रतीत होय वह सार्धपंचशतवर्ष जीवे और धनिक तथा धार्मिक होय ॥ १७ ॥ वामनाडी स्वल्परेखा हनुमूले च स्पन्दते। पञ्चवर्षाधिकञ्चैव जीवनं नात्रसंशयः ॥९८॥ अर्थ-जिसकी वामनाडी स्वल्परेखामें हो ठोडीकी जडमें तडफे वो पांचवर्ष अधिक जीवे इसमें संदेह नहीं ॥ ९८॥ नाडीद्वारा भीजनका ज्ञान । पुष्टिस्तैलगुडाहारे मांसे च लगुडाकृतिः। क्षीरे च स्तिमिता वेगा मधुरे भेकवद्गतिः ॥ ५९॥ रम्भागुडवटाहारे रूक्षश For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www.kobatirth.org नाडीदर्पणः । ष्कादिभोजने । वातपित्तार्त्तिरूपेण नाडी वहति निष्क मम् ॥ १०० ॥ अर्थ - तेल और गुडके खानेसें नाडी पुष्ट प्रतीत होती है, मांसके खानेसें नाडी लकडी के आकार चलती है. दूधपीने से मंदगतिसें चलती है । मधुर आहारसैं नाडी मेंडकके समान चलती है केला, गुड, वडा रूक्षवस्तु, और शुष्कद्रव्यादि भोजनसें जैसी वातपित्तरोग में नाडी चलती है उसप्रमाण चले है ॥ ११ ॥ १०० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ रसज्ञानम् । मधुरे बर्हिगमना तिक्ते स्यालतागतिः । अम्ले कोष्णा त्वगतिः कटुके भृङ्गसन्निभा ॥ १०१ ॥ कषाये कठिना म्लांना लवणे सरला द्रुता । एवं द्वित्रिचतुर्योगे नानाधमवती धरा ॥ १०२ ॥ अर्थ - मिष्ट पदार्थ भक्षणसें नाडी मोरकीसी चाल चलती है कडुई द्रव्य भक्षण सें स्थूलगति, खट्टे पदार्थ खानेसें कुछ उष्ण और मैडकाकीगति होती है, चरपरी द्रव्य खानेसें भौरा के आकार गति होती है, कसेली द्रव्य खानेसें नाडी कठोर और म्लान होती है, निमकीन पदार्थ खानेसें सरल ( सीधी ) और जल्दी चलनेवाली होती है, इसीप्रकार भिन्न भिन्न रसके एकही समय सेवन करनेसें नाडी अनेकप्रकारकी गति . वाली होती है ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ अम्लैश्च मधुराम्लैश्च नाडी शीता विशेषतः । चिपिटैर्भष्टद्रव्यैश्व स्थिरा मन्दतरा भवेत् ॥ १०३ ॥ कूष्माण्डमूलकैश्चैव मन्दमन्दा च नाडिका । शाकैश्च कदलैश्चैव रक्तपूव नाडीका ॥ १०४ ॥ १ तिक्ते स्यात्स्थूलता गतेः । अर्थ - खट्टे पदार्थ अथवा मधुराम्ल ( मिष्ट और खट्टामिला भोजनसें नाडी शीतल होती है चिरवा औ भुनी हुई ( चना, वोहरी ) द्रव्य भक्षणसे नाडी स्थिर और मंदगति चलती है पेठा मूली अथवा कंदपदार्थके भक्षणसें नाडी मंद मंद चलती है शाक ( पत्रपुष्पादिकका) और केलेकी फली भक्षण करनेसें नाडी रक्तपूर्णके सदृश चले है ॥ १०३ ॥ १०४ ॥ २ कप कठिनाम्वा इति वा पाठ: । For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा ३५. मांसात्स्थिरवड़ा नाडी दुग्ध शीता वलीयसी । गुडैः क्षीरेश्व पिष्टैश्च स्थिरा मन्दवहा भवेत् ॥ १०५ ॥ द्रवेऽतिकठिना नाडी कोमला कठिनापि च । द्रवद्रव्यस्य काठिन्ये कोमला कठिनापि च ॥ १०६ ॥ अर्थ- मांस भक्षणसें नाडी मंदगामिनि होती है, दूधके पीनेसें नाडी शीतल और बलवती होती है, तथा गुड, दूध, और पिष्टपदार्थ ( चूनके, पिट्टी आदिके पदार्थ) भक्षण नाडी चंचलतारहित मंदगामिनी होती हे, द्रवपदार्थ ( कढी, पने, श्रीखंड आदि ) भोजनसे नाडी कठिन होती है और कठोर (लड्डुके सुहार आदि नाडी कोमल होती है यदि द्रवपदार्थ कुछ कठोर होयतो नाडी कोमल और कठोर उभय स्वभाववती होती है ॥ १०५ ॥ १०६ ॥ उपवासाद्भवेत्क्षीणा तथा च द्रुतवाहिनी । संभोगान्नाडिका क्षीणा ज्ञेया द्रुतगतिस्तथा ॥ १०७ ॥ अर्थ - उपवास ( निराहार ) से नाडी क्षीण और शीघ्रवाहिनी होती है एवं स्त्री संभोग से नाडी क्षीण और शीघ्र चलनेवाली' होती है ॥ १०७ ॥ कुपध्यवसनाडीकीचाल | उष्णत्वं विषमावेगा ज्वरिणां दधि भोजनात् ॥ १०८ ॥ अर्थ - यदि ज्वरवान् पुरुष दहि खाय तो उसकी नाडी गरम और विषमबेगबती होती है ॥ १०८ ॥ इति श्रीमाथुरकृष्णलालाङ्गजदत्त रामेणसङ्कलिते नाडीदर्पणे द्वितीयावलोकः अब इसके उपरान्त कितनेक रोगोंकी नाडीकी जैसी अवस्था होती है, उसको लिखते है, तहां रोगनिरूपण में प्रधानता करके प्रथम ज्वरनिरूपण करते है । ज्वर के पूर्व रूप में । अग्रहेण नाडीनां जायन्ते मन्थराः प्लवाः । प्लवः प्रबलतां याति ज्वरदाहाभिभूतये ॥ १ ॥ सान्निपातिकरूपेण भवन्ति सर्ववेदनाः । अर्थ-ज्वर आनेवाली अवस्था के कितनेक क्षण पहिले अंगमें पीडा होने लगे, नाडी मंथर ( मंद) भाव से मंडकाकी ' चाल चलने लगे तथा दाह ज्वरकी पूर्वाव For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । स्थाके वा धारामें वहनेवाले मैंडकाके समान तथा सांनिपातिक स्वरकी पूर्व अव स्थाके प्रमाण नाना आकृतिसें गमन करे ॥ १ ॥ ज्वरके रुपमें। ज्वरकोपेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत् ॥२॥ अर्थ-जिस कालमें इसप्राणीको ज्वर चढआताहै उस समय नाडी गरम और वेगवती होती है ॥ २॥ उष्मा पित्ताहते नास्ति ज्वरो नास्त्यूप्मणा विना। उष्णा वेगधरा नाडी ज्वरकोपे प्रजायते ॥३॥ अर्थ-विना पित्तके गरमी नहीं और विना गरमीके ज्वर नहीं होता अतएव ज्वरके वेगमें नाडी गरम और वेगवान होती है ॥ ३ ॥ ज्वरे च वक्रा धावन्ती तथा च मारुतप्लवे । रमणान्ते निशि प्रातस्तथा दीपशिखा यथा ॥४॥ अर्थ-ज्वरके कोपमें और वादीमें नाडी टेढी और दोडती चलती है तथा मैथुनकरनेके पिछाडी रात्रिमें और प्रातःकाल में नाडी दीपशिखाके समान मंद गमन करती है ॥ ४ ॥ वातज्वरे । सौम्या सूक्ष्मा स्थिरा मन्दा नाडी सहजवातजा। स्थूला च कठिना शीघ्रा स्पन्दते तीव्रमारुते ॥५॥ वक्रा च चपला शीतस्पर्शा वातवरे भवेत् । अर्थ-स्वाभाविक वायुके द्वारा नाडी कोमल, सूक्ष्म, स्थिर, और मंद वेगवाली होती है । तीबवायुद्वारा नाडी स्थूल, कठिन, तथा जल्दी चलनेवाली होती है । और वातज्वरमें टेढी, चपल, तथा शीतल स्पर्शवान् नाडी होती है ॥ ५ ॥ द्रुता च सरला दीर्घा शीघ्रा पित्तज्वरे भवेत् । शीघ्रमाहननं नाड्याः काठिन्याचलते तथा ॥६॥ अर्थ-पित्तज्वरमें नाडी शीघ्र चलनेवाली, सरल, दीर्घ, और कठिनताके साथ शीघ्र फडकनेवाली होती है ॥ ६॥ नाडी तन्तुसमा मन्दा शीतला श्लेप्मदोषजा। ९ मंदाच मुस्थिग शीता पिच्छला श्लोप्मिनाये। इति पाठांतरम् । For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा मलाजीणे नातितरां स्पन्दनं च प्रकीर्तितम् ॥७॥ अर्थ-कफके प्रकोपमें नाडी तंतुवत् सूक्ष्म, मंदवेगवाली, और शीतल होती है । और मलाजीर्णमें अत्यंत नहीं फडकती ॥ ७ ॥ द्वंद्वजनाडी चञ्चला तरला स्थूला कठिना वातपित्तजा । इंषच्च दृश्यते तूष्णा मन्दा स्याच्छेष्मवातजा ॥८॥निरन्तरं खरं रूक्षं मन्दश्लेष्मातिवातलम् । रूक्षवाते भवेत्तस्य नाडी स्यात्पित्तसनिभा॥९॥ सुक्ष्मा शीता स्थिरा नाडी पित्तश्लेष्मसमुद्भवा ॥ १० ॥ अर्थ-वातपित्तकी नाडी चंचल, तरल, स्थूल, और कठोर होती है । वातकफकी नाडी कुछ गरम और मंदगामिनी होती है । जिस नाडीमें किंचिन्मात्र कफ और अधिक वात होती है । वह अत्यंत खर और रूक्ष होती है । जिसके नाडीमें . वायुका अत्यंत कोप होय उसकी पित्तके सदृश अर्थात अत्यंत वक्र और अत्यंत स्थूल होय, पित्तकफज्वरमें नाडी सूक्ष्म शीतल, और मन्दवेगवाली होती है ॥ १० ॥ रुधिरकोपजानडी। मध्ये करे वहेनाडी यदि सन्तापिता ध्रुवम् । तदा नूनं मनुष्यस्य रुधिरापूरितामलाः ॥११॥ अर्थ-मध्य करमें अर्थात् मध्यमांगुली निवेशस्थल में नाडी संतापित होकर तडफे तो जानेकि वातादि दोषत्रय रक्तप्रकोपकरके परिपूर्ण है । अर्थात् रुधिरसैं दूषितहै ॥ ११ ॥ __ आगन्तुकरूपभेदमाह । भूतज्वरे सेक इवातिवेगात् धावन्ति नाड्यो हि यथाब्धिगामाः । अर्थ-भूतज्वरमें नाडी अत्यंत वेगसैं चलती है जैसें समुद्रमें जानेवाली नदियोंका प्रवाह वेगसैं चलता है ॥ १२ ॥ तथा। एकाहिकेन वचन प्रदूरे क्षणान्तगामा विषमज्वरेण ॥ १ वक्रा च ईपञ्चपला कठिना वातपित,जा इति पाठान्तरम् । For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । द्वितीयके वाथ तृतीयतुर्ये गच्छन्ति तप्ता भ्रमिवत् क्रमेण १३ अर्थ-एकाहिकज्वरमें नाडी सरलमार्गको त्यागकर क्षणक्षणमें पार्श्वगामिनी होती है तथा द्वितीय, तृतीय (तिजारी ) और चातुर्थनामक विषमज्वरमें उप्ण होकर इतस्ततो धावमाना होती है ॥ १३ ॥ अन्यत्रापि । उष्णवेगधरा नाडी ज्वरकोपे प्रजायते । उद्वेगक्रोधकामेषुभयचिन्ताश्रमेषु च । भवेत् क्षीणगतिर्नाडी ज्ञातव्या वैद्यसत्तमैः१४ अर्थ-गरम और वेगवान् नाडी ज्वरके कोपमें होती है उद्वेग, क्रोध, कामबाधा भय, चिन्ता, और श्रम इनमें नाडी क्षीणगतिवाली होती है अर्थात् मंद मंद गमन करती है ॥ १४ ॥ प्रसङ्गादाह। व्यायामे भ्रमणे चैव चिन्तायां श्रमशोकतः। नाना प्रभावगमना शिरा गच्छति विज्वरे ॥ १५ ॥ अर्थ-व्यायाम ( दंडकसरत ) करनेसैं, डोलनेमें, चिंता, श्रम, और शोकसैं, एवं ज्वररहित मनुप्यकी नाडी अनेकप्रभावसे गमन करतीहै ॥ १५ ॥ अजीर्णरूपमाह । अजीणे तु भवेन्नाडी कठिना परितो जडा। प्रसन्ना च द्रुता शुद्धा त्वरिता च प्रवर्तते ॥१६॥ अर्थ-आमाजीर्ण और पक्काजीर्ण दोनोंमें नाडी कठोर और दोनोपार्योंमें जड होती है इसीप्रकार कभी निर्मल निर्दोष तथा शीघ्रवेगवाली होती है ॥ १६ ॥ तत्र विशेषमाह ।। पक्काजीणे पुष्टिहीना मन्दं मन्दं वहेज्जडा। अमृक्पूर्णा भवेत् कोष्णा गुर्वी सामा गरीयसी ॥१७॥ अर्थ-पक्काजर्णिमें नाडी पुष्टतारहित मंद मंद चलती है । तथा भारी होती है एवं रुधिरकरके परिपूर्णनाडी गरम, भारी होतीहै और आमवातकी नाडी भारी होती है ॥ १७ ॥ लध्वी भवति दीप्तास्तथा वेगवती मता। For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . M . आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा मन्दाग्नेः क्षीणधातोश्च नाडी मन्दतरा भवेत् ।। मन्देऽनौ क्षीणतां याति नाडी हंसाकृतिस्तथा ॥१८॥ अर्थ-दीप्ताग्निवाले मनुष्यकी नाडी हलकी और वेगवती होती है, मंदानिवालेकी और क्षीणधातुकपुरुषकी नाडी मंदतर होती है, इसीप्रकार जिस मनुष्यकी जठराग्नि सर्वथा मंदहोई हो उसकी नाडी हंसके समान अतिशय मंदहोती है ॥१८॥ आमाश्रमे पुष्टिविवर्धनेन भवन्ति नाड्यो भुजगाग्रमानाः। आहारमान्यादुपवासतो वा तथैव नाड्योऽग्रभुजाभिवृत्ताः॥१९॥ __ अर्थ-आम, और परिश्रम न करनेसैं तथा देहमें अत्यंत पुष्टता होनेसैं नाडी सर्पके अग्रभागके सदृश होती है इसीप्रकार थोडा भोजन करनेसैं या उपवास करनेसैं नाडी भुजाके अग्रभागमें सर्पके अग्रभाग समान होती है ॥ १९ ॥ ग्रहणीरोगे। पादे च हंसगमना करे मण्डूकसंप्लवा । तस्याग्नेर्मन्दता देहे त्वथवा ग्रहणीगदे ॥२०॥ अर्थ-जिसकी पैरकी नाडी हंसके समान और हाथकी नाडी मैंडकाके समान चले उसके देहमें मंदाग्निहै अथवा संग्रहणी रोगहै ऐसा जानना ॥ २० ॥ भेदेन शान्ता ग्रहणीगदेन निर्वीर्यरूपा त्वतिसारभेदे । विलम्बिकायां प्लवगा कदाचिदामातिसारे पृथुता जडा च२१ - अर्थ-संग्रहणीका दस्तहोनेके उपरांत नाडी शांतवेगा होती है अतिसाररोगका दस्तहोनेके उपरांत नाडी सर्वथा बलहीन होजातीहै विलंबिकारोगमें नाडी मैंडकाके तुल्य चलती है इसीप्रकार आमातिसारमें नाडी स्थूल और जडवत होती है । विचिकाज्ञानम् । निरोधे मूत्रशकृतोर्विग्रहे त्वितराश्रिताः । विषूचिकाभिभूते च भवन्ति भेकवत्क्रमाः ॥२२॥ अर्थ-केवल मल वा केवल मूत्र अथवा मलमूत्र दोनो एसाथ बंद होजावे बा इच्छापूर्वक इनके वेगको रोकनेसैं एवं विचिका रोगमें नाडीकी गति मैंड. काकी चालके समान होती है ॥ २२ ॥ अनाहमूत्रकृच्छ्रे । अनाहे मूत्रकृच्छ्रे च भवेन्नाडीगरिष्ठता। For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः। __ अर्थ-अनाह अफरा और मूत्रकृच्छ्र रोगमें नाडी गुरुतर अर्थात् भारी होती है । शूलरोगे। वातेन शूलेन मरुत्प्लवेन सदैव वक्रा हि शिरा वहन्ती। ज्वालामयी पित्तविचेष्टितेन साध्या न शूलेन च पुष्टिरूपा॥२३॥ अर्थ-वायुशूलमें और वायुके प्रखरता निबंधनमें नाडी सदैव अत्यंत टेढी चलती है पित्तके शूलमें यह अतिशय गरम होती है। और आमशूलमें पुष्टियुक्त होती है ॥ २३ ॥ प्रमेहज्ञान। प्रमेहे ग्रन्थिरूपा सा सुतप्ता त्वामदूषणे। अर्थ-प्रमेह रोगमें नाडी ग्रंथि अर्थात् गांठके आकार प्रतीत होयहै और आमवात रोगमें नाडी सर्वकालमें उष्ण होती है ॥ विषविष्टम्भगुल्मज्ञानम् । उत्पित्सुरूपा विपरिष्टकायां विष्टम्भगुल्मेन च वकरूपा। अत्यर्थवातन अधः स्फुरन्ती उत्तानभेदिन्यसमाप्तकाले॥२४॥ अर्थ-विषभक्षण वा सादि दंशजन्य अरिष्टलक्षण प्रकाशित होनेसें त. कालमें नाडी देखनेसैं बोधहोयहैं । कि इसके यह रोगकी नवीन उत्पन्न होताहै। और विष्टंभ तथा गुल्म रोगमे विषके तुल्य और विशेषता यह होतीहै कि उसनाडीकी गति वक्ररूप होती है। इन दोनों पीडामें अत्यंत वायुका प्रकोप होनेसे नाडी अधस्फुरित होय एवं इनकी असंपूर्णावस्थामें अर्थात् पूर्वरूपावस्थामें नाडी अत्यंत ऊर्ध्व गतिहोय ॥ २४ ॥ गुल्मे विशेषमाह । गुल्मन कम्पाथ पराक्रमेण पारावतस्येव गतिं करोति ॥२५॥ अर्थ-गुल्मरोगमें नाडी कंपितहो बलपूर्वक खवुतरकी तुल्य गमन करती है । अथ भगन्दरज्ञानम् । व्रणाथै कठिने देहे प्रयाति पैत्तिकं क्रमम् । भगन्दरानुरूपेण नाडीव्रणनिवेदने॥२६॥प्रयाति वातिकं रूपं नाडीपावकरूपिणी अर्थ-व्रणरोगकी अपक्कअवस्थामें नाडीको गति पैत्तिक नाडीके तुल्य होती है । For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा ( ४१ ) भगंदर तथा नाडीव्रण रोगमं नाडीकी गति वातनाडीके तुल्य और अत्यंत उष्ण होती है ॥ २७ ॥ वान्तादिज्ञानम् । वान्तस्य शल्याभिहतस्य जन्तोर्वेगावरोधाकुलितस्य भूयः । गतिं विधत्ते धमनी गजेन्द्रमरालमानेव कफोल्वणेन ॥ स्त्रीरोगादिकमपि रक्तादिज्ञानक्रमेण ज्ञातव्यम् ॥ २८ ॥ अर्थ-मित (जिसने रद्द करीहो ) शल्याभिहत ( जिसके किसी प्रकारका बाण आदि शल्य लगाहो ) और वेगरोधी ( जिसने मल मूत्रको धारण कर रक्खाहो ) ऐसे प्राणियों की नाडी तथा कफोल्वणा नाडी हाथी और हंसादिक - की गति के समान चलती है । इसीप्रकार रक्तादि ज्ञानकर के अनुक्त जो स्त्रीके रोग प्रदरादिक उनकोभी वैद्य अपनी बुद्धि मानी से जानलेवे यह नाडी परीक्षा शंकरसेनके मतानुसार लिखिहै ॥ २८ ॥ नाडी स्पन्दनसंख्या | षष्टास्पन्दास्तु मात्राभिः पदपञ्चाशद्भवन्ति हि । शिशोः सद्यः प्रसूतस्य पञ्चाशत्तदनन्तरम् ॥ २९ ॥ चत्वारिंशत्ततः स्पन्दाःपत्रिंशद्यौवने ततः । प्रौढस्यैकोनत्रिंशत्स्युवर्धकेऽ ष्टौ च विंशतिः ॥ ३० ॥ अर्थ - अब नाडीके फड़कनेकी संख्या कहते है, जैसे कि ६० दीर्घ अक्षर उचारण करने में जितना काल लगता है उतने समय में अर्थात् १ पलमें तत्काल हुए बालकी नाडीकी स्पंदनसंख्या ५६ वार होती है । इसके उपरान्त अवस्था बढने - के अनुसार १० तथा ४० वार होती है । यौवन अवस्था अर्थात् जवानीमें ३६ वार होती है | और प्रौढ अवस्थामे २९ वार, और बुढापेमें २८ वार, एकपलमें नाडी फडकती है ॥ २९ ॥ ३० ॥ पुंसोऽतिस्थविरस्य स्युरेकत्रिंशदतः परम् । योषितां पुरुषाणांच स्पन्दास्तुल्याः प्रकीर्त्तिताः ॥ ३१ ॥ प्रौढानां रमणीनांत द्रयधिकाः सम्मता बुधैः ॥ ३२ ॥ अर्थ - अति वृद्धहोनेसें नाडीकी संख्या फिर बढनें लगती है अर्थात् एकपलमें ३१ वार तड़फती है यह अवस्थाभेद करके संपूर्ण स्पन्दन संख्या लिखि गई है । ६ For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२) नाडीदर्पणः । यह संख्या स्त्री और पुरुष दोनोंमें समान कही है । परंतु केवल मौढावस्थामें स्त्रीकी नाडी संख्या पुरुष संख्याकी अपेक्षा अधिक अधिक अर्थात् प्रौढ पुरुषकी स्पन्दनसंख्या प्रतिपलमें २९ वार होती है । और प्रौढा स्त्रीकी संख्या ३१ वार होती है ॥ ३१ ॥ ३२॥ दशगुर्वक्षरोच्चारकालः प्राणः पडात्मकैः।। तैः पलं स्यात्तु तत् षष्टया दण्ड इत्यभिधीयते ॥३३॥ अर्थ-एक दीर्घवर्णउच्चारण करनेमें जितना समय लगता है उसको एक मात्रा अथवा निमेष कहते है । १० मात्राका १ प्राण ६ प्राणका १ पल ६० पलका १ दंड होताहै । अतएव एक पलका साठ भाग उसमें एक भागको विपल कहतेहै उसीको मात्रा कहते है ॥ ३३ ॥ ___ मतान्तरेण । स्वस्थानां देहिनां देहे वयोवस्थाविशेषतः। प्रवहन्ति यथा नाड्यस्तत्संख्यानमिहोच्यते ॥ ३४॥ अर्थ-अब मतान्तरसे कहते है कि स्वस्थपुरुषोंके देहमें आयुकी अवस्था विशेषकरके जैसे नाडी चलती है उनकी संख्या इसग्रंथमें लिखते है ॥ ३४ ॥ सार्थद्वयपलः कालो यावद्गच्छति जन्मतः। तावत्प्रकम्पते नाडी चत्वारिंशच्छताधिकम् ॥ ३५ ॥ अर्थ-बालकके जन्मलेनेसैं यावत् २॥ पल व्यतीत नहीं हो उतने समयमें १४० वार नाडी वारंवार कंपन होती है ॥ ३५ ॥ तदूर्व हायनं यावत्साईदयपलेन सा। मुहुः प्रकम्पमाधत्ते त्रिंशद्वारं शतोत्तरम् ॥३६॥ अर्थ-फिर १ वर्षकी अवस्थापर्यंत बालककी नाडी २॥ पलमें १३० वार तडफती है ॥ ३६॥ - उपरिष्टादाद्वितीयात्तावत्काले शरीरिणः । ततः प्रकम्पते नाडी दशाधिकशतं मुहुः ॥३७॥ अर्थ-वर्ष दिनसें लेकर जबतक यह बालक दो वर्षका होताहै तावत्कालपर्यंत नाडी ढाई पलमें ११० वार वारंवार तडफती है ॥ ३७ ॥ ततस्त्रिवत्सरं व्याप्य देहिनां धमनी पुनः। For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा मुहुः प्रकम्पते तद्वत्सार्द्धद्वयपले शतम् ॥ ३८ ॥ अर्थ - फिर दो वर्ष से उपरांत तीन वर्षतकके बालककी नाडी २ || पलमें १०० वार वारंवार तडफती है ॥ ३८ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ततस्त्वासप्तमाद्वर्षान्नवतिः स्यात्प्रवेपनम् । धमन्यास्तन्मिते काले प्रत्यक्षादनुभूयते ॥ ३९ ॥ अर्थ - फिर तीन वर्षसैं सात वर्षतकके बालककी नाडी २ || पलमें ९० वार वारंवार चलती है ॥ ३९ ॥ ततश्चतुर्दशं तावत्पञ्चाशीतिः प्रवेपनम् । त्रिंशद्वर्षमभिव्याप्य ततोऽशीतिः प्रकीर्त्तितम् । शतार्द्धवत्सरं व्याप्य कम्पनं पञ्चसप्ततिः । ततोऽशीतौ प्रकथितं पष्टिवारं प्रवेपनम् ॥ ४० ॥ ار अर्थ - फिर सात वर्षसैं लेकर चौदह वर्ष की अवस्थातक इस प्राणीकी नाडी २॥ पलमें ८५ वार तडफती है । और चौदह वर्षकी अवस्थासें लेकर ३० वर्षकी अवस्थापर्यंत ढाई पलमें ८० वार तडफती है । तीस वर्षके उपरांत पंचास वर्ष पर्यंत ७५ वार कंपन होती है । और पंचास वर्षसें लेकर अस्सी वर्षकी अवस्थातक इस प्राणीको नाडी २ || पलमें ६० वार कंप होती है ॥ ४० ॥ ( ४३ ) वयोऽवस्थाक्रमेणैवं क्षीयन्ते गतयो मुहुः । सार्द्धद्रयपले काले नाडीनामुत्तरोत्तरम् ॥ ४१ ॥ अर्थ - फिर जैसे जैसे अवस्था क्षीण होती जाती है उसी प्रकार नाडीका गमनभी २ ॥ पलमें क्षीण होता जाता है ॥ ४१ ॥ 1 For Private and Personal Use Only एवं बहुविधाद्रोगात्तत्तलिङ्गानुबोधनी । नाडीनां च गतिस्तद्वद्भवेत्कालात्पृथक् पृथक् ॥ ४२ ॥ अर्थ - इसप्रकार अनेकविध रोगोंसें उन्ही लिङ्गोकी बोधन करनेवाली नाडियोंकी गति पृथक पृथक कालमें पृथक पृथक होती है ॥ ४२ ॥ हृदयस्य बृहद्भागः संकोचं प्राप्यते यदि । प्रसारयेत्तदा नाडी वायुना रक्तवाहिनी ॥ ४३ ॥ अर्थ-जिस समय हृदयका बृहद्भाग संकुचित होता है और खुलता है उससमय रक्तवाहिनी नाडियों की गति पवनके वेगस प्रस्पन्दन होती है ॥ ४३ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) नाडीदर्पणः। नाडीगतिरतिक्षीणा भवेन्मलविभेदतः। जीर्णज्वरादल्परक्ता दुर्बलत्वाच तादशी ॥४४॥ अर्थ-मलके निकलनेसे नाडीकी गति अत्यंत क्षीण होती है । उसीप्रकार जीर्णज्वरसैं अल्परुधिरसैं और दुर्बलतासैंभी नाडी अतिक्षीण होती है ।। ४४ ॥ तर्पयन्त्यसृजं देहे व्याघातैर्गतिभेदतः। तेजःपुना चञ्चला च दुर्बला क्षीणधीरकैः॥४५॥ अर्थ-ये संपूर्ण रक्तवाहिनी नाडी आयातकरके और अपनी गतिके भेदसैं देहमें रुधिरको तर्पण करेहै अर्थात् सर्वत्र फैलाती है। उनकी गति भेद कहतेहै । जैसे तेज:पुंजा, चंचला, दुर्बला, क्षीणदा, और धीरगामिनी, ये नाडियोंकी पांच प्रकारकी गती है ॥ ४५ ॥ चंचला और तेजःपुंजगति । रक्तोष्णे शीघ्रगा नाडी ज्वरे च चञ्चला भवेत् । ज्वरारम्भे तथा वाते तेजःपुना गतिः शिरा ॥४६॥ अर्थ-तहां रुधिरके कोपमें गरमीमें नाडी शीघ्र चलती है, उसीप्रकार ज्वरमें चंचला नाडी होती है और ज्वरके आरंभमें तथा वातके रोगमें नाडीकी तेजःपुंजा गति होती है ॥ ४६॥ दुर्बलाऔरक्षीणनाडी। दुर्बले ज्वररोगे च अतिसारे प्रवाहिके। दुर्बला क्षीणदा नाडी प्रबला प्राणघातिका ॥४७॥ अर्थ-दुर्बलतामें ज्वरमें अतिसार और प्रवाहिकारोगमें नाडीकी दुर्बला गति होती है, क्षीणदा नाडीप्रवल प्राणोंकी नाशक होती है ॥ ४७ ॥ बहुकालगता रोगाः सा नाडी धीरगामिनी। अर्थ-जिसप्राणीके बहुतदिनोंसे रोगहोवे उसकी नाडी धीरगामिनी होती है । सुखीपुरुषकीनाडी। हंसगा चैव या नाडी तथैव गजगामिनी। सुखं प्रशस्तं च भवेत्तस्यारोग्यं भवेत्सदा ॥१८॥ अर्थ-जिसप्राणीकी नाडी हंसकीसी अथवा हाथीकीसी चाल चले उसको उत्तम सुखहोय और सदैव आरोग्यरहे ॥ १८ ॥ For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षा सुव्यक्तता निर्मलत्वं स्वस्थानस्थितिरेव च। अमन्दत्वमचाञ्चल्यं सर्वासां शुभलक्षणम् ॥४९॥ अर्थ-उत्तम प्रकारसैं प्रतीतहो निर्मल अपने स्थानमें स्थिति, अमंदत्व और चांचल्यता रहितहो येसंपूर्ण नाडियोंके शुभ लक्षण जानने ॥ १९॥ दोषसाम्याच सादृश्यादनुक्तासु रुजास्वपि। ज्ञातव्या धमनीधर्मा युक्तिभिश्चानुमानतः॥५०॥ अर्थ-यह कितनेएक रोगोंमें नाडीकी प्रकृति लिखी है, इस्सै भिन्न अन्य समस्त रोगोंमें जैसी जैसी नाडियोंकी गति होती है उसको वैद्य अनुमान और युक्तिद्वारा जाने, अर्थात् जिस रोगकी जिस जिस रोगके साथ सादृश्यताहै अथवा जिसकिसी रोगमें संपूर्ण कुपितदोषोंके साथ अन्य किसीरोगके कुपित दोषोंकी साम्यता मिले उन उन रोग समस्तोंमें नाडीकी एकविध गति होती है ऐसा जानना ॥५०॥ नाडीदर्शनानंतरहस्तप्रक्षालन । नाडी दृष्ट्वा तु यो वैद्यो हस्तप्रक्षालनं चरेत् । रोगहानिर्भवेच्छीघ्र गंगास्नानफलं लभेत् ॥५१॥ अर्थ-जो वैद्य रोगीकी नाडी देवखकर हाथको जलसें धोताहै, तो जिसरोगीकी नाडीदेखी उसका रोग शीघ्र नष्टहोय, और वैद्यको गंगास्नानका फल प्राप्तहोय ॥५१॥ तथाच । यो रोगिणः करं स्पृष्ट्वा स्वकरं क्षालयेद्यदि। रोगास्तस्य विनश्यन्ति पङ्कःप्रक्षालनाद्यथा ॥५२॥ अर्थ-जो वैद्य रोगीकी नाडी देख अपने हाथको धोताहै इसकर्मसै जैसे धोने सै कीच जाती है इसप्रकार उस रोगीका रोग दूर होताहै ॥ ५२ ॥ इति श्रीपाठकज्ञातीयमाथुरकृष्णलालसूनुना दत्तरामण निर्मिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निघंटुरत्नान्तर्गते नाडीदर्पणे आयुर्वेदोक्तनाडीपरीक्षावर्णनंनामचतुस्त्रिंशस्तरङ्गः ॥ ३४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४६) नाडीदर्पणः। अथ यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षामाह ॥ नाडीनामान्तरं नजं यूनानी वैद्यके मतः। विधास्ये तक्रमं चात्र वैद्यानां कौतुकाय च ॥१॥ अर्थ-यूनानी वैद्यनाडीको नब्ज कहते है उस नन्जका क्रम अर्थात् नब्जपरीक्षाकोमें वैद्योंके कौतुकनिमित्त लिखताहू ॥ १ ॥ हयवानीचैव नफसानी रूहद्वयमुदाहृदम् । हृदयस्थं शिरस्थं च देही देहसुखावहम् ॥२॥ अर्थ-रूह दो प्रकारकी है एक हयवानी दूसरी नफसानी हयवानी हृदयमें रहती है । और नफसानी मस्तकमें रहती है । ए दोनो देहधारियोंकी देहको सुखदायक है ॥ २॥ तत्सङ्गतास्तु या नाड्यः शरियानसवःक्रमात् । हत्पने यास्तु सल्लग्नाः समन्तात्प्रस्फुरन्ति ताः॥३॥ १ मानसिक शिराके परिवर्तनको नाडी कहते, वह मनके प्रफुल्लित और संकुचित होनेसें चलतीहै । इसका यह कारणहै कि उसके विकसित होनसें वाहरी पवन भीतर जातीहै, इसीसे हयवानोरूह जो मनमेंहै वह प्रसन्न होतीहै । और उष्ण पवनके दूरकरनेको हृत्पद्म संकुचित होताहै, इन दोनो कारणोंसैं मनुप्यके संपूर्ण देहकी चेष्टा और उसके रोग तथा स्वस्थताका ज्ञान होताहै इस नाडीके दश भेदोंसे शरीरकी चेष्टा प्रतीत होती है। प्रथमतो यह कि यह कितनी विकसित और कितनी संकुचित होतीहै, इसके विस्तार (लंबाव ) आयत ( चोडाव ) और गंभीरादि भेदसैं नौ भेद होतेहै, अर्थात् कितनी लवी, कितनी चौडी, और कितनी गंभीर इनतीनोको अधिक न्यून और समानताके साथ प्रत्येकके गुणन करनेसें नौ भेद होजातहै । जैसै १ दीर्घ २ हख ३ समान ४ स्थूल ५ कृश और ६ समानविस्तृत ७ बहिर्गति अत्युच्च ८ अंतर्गति अतिनीच ९ उच्चनीचत्वसमान । १ अति लंबनाडीमें अति उष्णताके कारण रोगकी आधिक्यता प्रतीत होताहै । २ न्यूनलंबनाडीमें गरमीके न्यून होनेसैं रोगको न्यूनता प्रतीत होतीहै, ३ समान लंबनाडोमें प्रकृतिकी उष्णता यथार्थ रहतीहै, । ४ अधिक विस्तृतमें शरदी अधिक होतीहै । अतएव यह नानी अपने अनुमानसे अधिक चोडी होती है । For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा (४७) अर्थ-उस रूहके साथ लगीहुई जो नाडी है वो दो है एक शुरियान दूसरी असद इनमें शुरियान नाडी हृत्पद्ममें लगरही है उस्से सर्वत्र स्फुरण होताहै ॥ ३ ॥ शिरोन्तर्गिसम्बद्धास्ताभिश्चेष्टादिकं भवेत् । श्रेष्ठो जीवनिवासोद्राज्ञो राज्यासनं यथा ॥४॥ अर्थ-और दूसरी असव नामक जो नाडी है, वह शिरोन्तरभाग अर्थात् म. स्तकके भीतर लगरहीहै, इन नाडीयोंकरके इसदेहकी चेष्टादि होतीहै । जैसे राजा राजसिंहासनपर स्थितहो शोभित होताहै । उसीप्रकार जीवका श्रेष्ठनिवास हृदय स्थान है ॥ ४ ॥ तद्भवाधमनी मुख्या मनुष्यमणीबन्धगा। परीक्षणीया भिषजाह्यङ्गुलीभिश्चतसृभिः॥५॥ अर्थ-उन हृद्गतनाडीयोंमें मनुष्यके पहुचेकी धमनी नाडी मुख्यहै । उसको वैद्य चार उंगली रखकर परीक्षा करे । अपने शास्त्रमें तीन उंगलीसें परीक्षा करना सिखाहै परंतु यूनानी वैद्य चार दोषोंको चार उंगलियोंसे देखना कहते है ॥ ५ ॥ यथैणगतिपर्यायस्तद्वदुत्नुत्य गच्छति । गिजाली गतिराख्याता पित्तकोपविकारतः॥६॥ अर्थ-जैसे मृगकाबच्चा उछलता कृदता चलता है इस प्रकार नाडीकी गतिको गिजाली कहतेहै । यह पित्त कोप विकारको सूचित करती है ॥ ६ ॥ तरङ्गनाममोजस्यात् मोजीगतिरितीरिता। निवेदयतिवर्मस्थं वायोरूष्माणमेव सा॥७॥ अर्थ-यूनानी जलकी लहरको मौज कहते है उस मौज सदृश नाडीकी गतिको मौजी गति कहते है यह देहस्थ पवनकी गरमीको जाहिर करती है ॥ ७ ॥ दूदस्यात्क्रिमिपर्यायो दूती तस्य गतिः स्मृता। श्लेष्माणसंचयं चामं प्रकटीकुरुते हि सा ॥८॥ अर्थ-दृद ( कानसलाई आदि ) कृमिका पर्याय है अतएव तद्विशिष्टा नाडीकी गतिको दृदी गति कहते है । यह कफके संचयको और आमको प्रकाशित करती है ॥ ८॥ उमलपिपीलिकामोर उमली तद्गतिः स्मृता। For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४८) नाडीदर्पणः। यस्य नाडी तथा गच्छेन्मृति तस्याशु निर्दिशेत् ॥९॥ अर्थ-उमल चैटी (कीडी ) और मोरका नामहै अतएव इन्हो किसी गतिको उमली गति कहते हैं । जिस पुरुषकी नाडी ऐसी अर्थात् मोर चैटी कीसी चले वो प्राणी जल्दी मृत्युको प्राप्तहो ॥ ९ ॥ असिपत्रस्य पर्यायो भिन्शार इति कीर्तितः। यथास्यात्तत्क्रमः काप्टे मिन्शारी सा गतिर्भवेत् ॥१०॥ तद्गतिं धमनीधत्ते बाह्यान्तः शोथरोगिणः । अर्थ-आरेका पर्याय यूनानीमें मिन्शार है वो जैसे लकडीके ऊपर चलता है इसप्रकार नाडीके गमन करनेकी मिन्शारी गति कहतेहै । इसप्रकारकी नाडी बाहरभीतर सोथ रोगीकी चलती है ॥ १० ॥ जन्वलफारनाम्नीया गतिर्मूषकपुच्छवत् ॥ ११॥ पित्तश्लेष्मप्रकोपेण धमन्याः सम्भवेत्किल । अर्थ-जिस नाडीकी गति मूषक (चूहे ) की पुच्छसदृशहो अर्थात् एक औरसैं मोटी और दूसरी तरफ क्रमसें पतलीहो उसको जनवलफार गति कहते है। यह पित्तकफके कोपमें होती है ॥ ११ ॥ माली शलाका सहशी सूक्ष्मा धीरा बलात्ययात् ॥१२॥ गत्याघातद्वयं यस्यामधस्तादगुलेभवेत् । जुलफिकरत्तत्स्मृता पित्तश्लेष्मदग्धप्रबोधिनी ॥१३॥ अर्थ-जो नाडी सलाईके आकार अत्यंत सूक्ष्म और धीरगामिनी होय वह माली कहाती है यह बल नाश होनेसे होती है और जो नाडी मध्यमांगुलीमें दोवार आघातकरे वह पित्तकफ दग्धको बोधन करती है इसको जुलफिकरत् कहते दै॥ १२ ॥ १३ ॥ मुर्त्तइद प्रस्फुरन्तीया गतिः कोष्टस्य रूक्षताम् । विद्महत्वं च सौदावी विचारान् ज्ञापयत्यपि ॥१४॥ अर्थ-जिस नाडीके प्रस्फुरणसे कोठेको रूक्षता प्रगटहोवे उसको मुर्तइद कहते है और इसीसे मलqधका ज्ञान होताहे यह सौदावी (वादीकी ) नाडीके विचारसे जाने ॥ १४ ॥ For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा इतिशा कम्पपर्यायस्तद्विशिष्टा तु या भवेत् । मुर्त्तइशूनाम सा ज्ञेया सफासौदाविकारयुक् ॥ १५ ॥ अर्थ- कंपकी फारसी इतिशा कहते है उसके समान जो नाडी हो उसको इस नाडी कहते है यह सफर (पित्त) और सौदा दोनोंके मिश्रितावस्था में होती है ॥ ११ ॥ मुतिला पूर्ति तूद्दिष्टाऽसृजोस्यां मुस्तिली तु सा । तमः कफादधोगाया मुन्खफिज् सा प्रकीर्त्तिता ॥ १६ ॥ अर्थ- परिपूर्णको फारसी में मुमतिला कहते हैं, अतएव जिस नाडींसें रुधिरकी परिपूर्णता प्रतीत हो उस नाडीकी गतिको मुतली कहते है जी नाडी तमोगुण या कफसें अधोभागमें गमन करे उसको मुमुखफिजू नाडी कहते है ॥ १६ ॥ उर्ध्वमुत्पुत्य या गच्छेत्किचिन्मायुप्रकोपतः । शाहक्बुलन्द सा ख्याता धमनी संपरीक्षकैः ॥ १७ ॥ ४९ अर्थ- जो नाडी पित्तके प्रकोप सें उछलकर ऊपरको गमनकरे उसको नाडीके ज्ञाता वैद्य शाहबुलन्द नामक कहते है ॥ १७ ॥ चतुरङ्गुलिसंस्थानादपि दीर्घा तवीलसा । दराज इति पर्यायस्तस्या एव निपातितः ॥ १८॥ अर्थ- जो नाडी चारअंगुल से भी अधिक लंबीहो उसको तवील ऐसा कहते है और उसी नाडीका नामान्तर दराज है || १८ || परिमाणान्यूनरूपा साकसीर समीरिता । अमीक निम्नगा या च अरीज आयती स्मृता ॥ १९ ॥ अर्थ - जितना नाडीका परिमाण कहाँ है यदि उस्सें न्यूनही उसको कसीर कहते है और अधोगामिनी नाडीको अमीक कहते है और लंबी नाडीको अरीज कहा है ॥ १९ ॥ यथा गतिस्तु दोषाणां धत्ते प्राज्यत्वहीनते । गलवे कसूर अरकात तारतम्येन निर्दिशेत् ॥ २० ॥ For Private and Personal Use Only अर्थ- दोषोंके यथागति अनुसार नाडीको बली और निर्बली जानना इनकेवली निर्बली आदि नाडियों को गलवे कसूर और अरक्लातके तारतम्यसे कहे ॥ २० ॥ ७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आरा TIT For Private and Personal Use Only समान नहीं होती, कुछ न कुन्छ भेद रहताही है वैद्य जिस स्वस्थमनुष्यकी नाडी राका तडफना है वह प्रत्येक मनुष्यकी प्रकृति, देश, काल, अवस्थाओंके भेदसै यूनानी भाषामें नाडीको नब्ज कहनेका यह कारणहै कि नब्जका अर्थ शि | मृगके बच्चेके समान जो नाडी उछलती कूदती चले उसको गिजाली कहतेहै यह पित्ताधिक्यसै होती है। | जो नाडी जलकी तरंगके समान गमनकरे उसको मोजी गति कहते । है । यह तरीको सूचित करती है। अथवा देहकी निर्बलताको सूचित करेहै। | जो नाडी कीडाके समान मंद मंद गमनकरे वो कफ और आम दो षको सूचित करती है। इस नाडीकी गतिको दूदी कहतेहै। | जैसे लकडीके ऊपर आरा चलता इसप्रकार खरदराट लिये जो नाडी ऊंगलियोंका स्पर्शकरे वो वाहर और भीतर सुजनको सूचित करती है। इस गतिको मिन्शारी गति कहतेहै । । जो नाडी चूहेकी पूछसदृश गमन करे उसको जनवल्फारगति कहतिहै । यह कफपित्तके कोपसे होती है । __ जो नाडी चैटी और मोरकी गतिके समान गमन करे उसको नुमली मी. भगति कहतेहै । ऐसी नाडी रोगीकी शीघ्र मृत्यु सूचना करती है। __ जो नाडी सलाईके समान दोनो प्रांतों में पतली और बीचमें मोटी होकर गमन करे उसको मतलीगति कहतेहैं । यह निर्बलता सूचना करती है। जो नाडी हथोडे के समान उंगलियोंको वारंवार चोट देवे उसको म- Y. तरकी गति कहतेहै । यह अत्यंत गरमीकी सूचना करतीहै । | जो नाडी गमन करते करते ठहर जावे उसको जूफिकरगति कहते है। है। यह दिलकी कम्जोरी सूचित करती है प्रायः यह शोक समय होतीहै। | जिस नाडीका टंकोरदेना जिस वख्तमें देनाउचितहै उस्सै पूर्वही जास्ती टंकोर देदेवे यह श्वासाधिक्य निर्बलतामें होती है। मूंसेकी मोर.टी शलाई हाडा शावक मृग गिजालि मोजी दुदी मिन्शारी नुमली मतली मतरकी जुलाफ वाम समान कोरदेना शोकाक्रांत विषम टं करत फिलवस्त यूनानीमतानुसार नाडी कोष्टकम्. यूनानी मतानुसार नाडीपरीक्षा कही है इसका विस्तार मैने भाषामें कहाहै ॥२०॥ अर्थ-स्वस्थ प्राणीकी निर्दोष नाडीको वाकियुल्वस्त कहतेहै यह मेने संक्षेपसे विस्तरस्तु मया प्रोक्तो भाषायां जनहेतवे । इति संक्षेपतो नाडीपरीक्षा कथिता बुधैः॥२१॥ वाकियुल्वस्तनिर्दोषा स्वस्थस्य परिकीर्तिता। नाडीदर्पणः । www.kobatirth.org । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा अनेकवार देखी होगी यदि फिर उसकी रोगावस्थामें देखेगा तो उसको उसकी नाडीका ज्ञान यथार्थ होगा, अन्यथा ज्ञान होना अति दुस्तर है । नाडीदेखने वालेको वा दिखाने वालेको उचित है कि किसीवस्तुका हाथको सहारा न देवे, न कोई वस्तु पकड रख्खीहो, तथारोगीके हाथमें पट्टीआदि बंधनादिक न होवे, यद्यपि बहुतमे वैद्य पहुचे, कनपटी, गुदा, टकने आदि अनेक स्थानकी नाडी देखते है, परंतु बहुधा हाथकी देखनेका यह कारणहै कि अन्यनाडी सब थोडी थोडी प्रगटहै शेष हाड मांसमें प्रवेश होनेके कारण अस्त होरही है उसजगे उंगलीयोंको स्पर्श प्रतीत नहीं होसकता परंतु हाथकी नाडी विशदहै अतएव इसपर उंगली उत्तमरीतिलै धरी जाती है परंतु मुख्य कारण इसका यह है कि किसी स्त्रीकी नाडी देखनेकी आवश्यकता होवे तो वो अन्योन्य अङ्गोकी नाडी लज्जाके पस नहीं दिखा सकती. परंतु हाथके दिखानेमें किसिकोभी संकोच नहीं होता अतएव सर्वत्र हाथकी नाडी देखना प्रसिद्ध है ॥ अब कहतेहै कि यूनानी वैद्य नाडीकी गति दोप्रकारकी वर्णन करते है । प्रथम इम्विसात दूसरी इन्किबाज । ___इम्बिसात (बाह्यगति ) , इन्किवाज ( अभ्यंतरगति) इम्विसात उसगतिको कहते हैं जब नाडी इन्किवाज उसगतिको कहतेहै कि जब बाहर आनकर ऊंगलीयोंका स्पर्श नाडी ऊंगलियोंका स्पर्शकर भीतरको करती है। प्रवेश करतीहै। दोषः खिल्त इति प्रोक्तः स चतुर्धा निरूप्यते। सौदा सफरा तथा वल्गम् तुरीयं खून उच्यते ॥२१॥ यूनानीमें दोष शब्दको खिल्त कहतेहै वह चार प्रकारकाहै जैसे सौदा ( वात ) सफरा ( पित्त वल्गम् (कफ) और चौथा दोष खून (रुधिर) है परंतु अपने शास्त्रमें दृप्यहोनेसैं इसको दोप नहीं माना यह शारीरकमें हम लिख आएहै ॥ २१ ॥ प्रत्येकदोषमें दोदोगणहै यथा। तत्र सौदा धरातत्वं रूक्षं शीतं स्वभावतः। पित्तमग्नेः स्वरूपन्तु सफरा रूक्षउष्णकम् ॥२२॥ वल्गमवारिस्वरूपं स्यात्सकफः स्निग्धशीतलः । अत्रं वायुः खून इति स्त्रिग्धोष्णं तेषु तदरम् ॥२३॥ For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । तहां सौदा अर्थात् वातमें पृथ्वीतत्व अधिकहै अतएव वातस्वभावसे ही रूक्ष और शीतलहै पित्तमें अग्नितत्व विशेषहै अतएव सफरा पित्त रूक्ष और उष्ण है वल्गम (कफ) में जलतत्त्व अधिक होनेसे स्निग्ध शीतल गुणवालाहै खून ( रुधिर ) में वायुतत्व अधिक होनसैं स्निग्ध और उप्णहै अतएव अन्य दोषोंकी अपेक्षा यह रुधिर श्रेष्ठ है। इस प्रकार दोषोंके गुणोंका विचारकर उक्त नाडीके लक्षणोंसें मिलाकर द्वंद्वज गुण अपनी बुद्धिसै कल्पना करै । जैसे जो नाडी दीर्घ और स्थलहो उसको गरमतर गुणविशिष्ट होनेसे रुधिरकी जाननी और जो नाडी दीर्घ तथा पतली होवे उसमें गरम और खुष्क गुण होनेसैं पित्तकी जाननी जो हस्व और मोटीहो वुह शरद और तर गुणवाली होनेसे कफकी जाननी और जो नाडी ह्रस्व और पतली होवे उसमें शरद और खुष्क गुणहोनेसैं वातकी नाडी जाननी चाहिये । इम्वसातके भेद । तवील (दीर्घाकार ) | अरीज ( स्थूलाकार) । उमक (बहिर्गत्याकार ) मुअदिल कसीर । तवील | अरीज ज्ययकवा मुअदिल सुशरिफ मुनखफिज मुअदिल समान ३ ह्रस्व २ १ दीर्घ स्थूल (कृष) समान | बहिर्गत अंतर्गत समान | यदि नाडी चार अंगुलसें कुछभीन्यूनाधिक नहो किंतु समहो तो उसप्राणीके शरदी गरमी समान जाननी। और चार अंगुलसैं न्यून होवे तो वो शरदीके लक्षण वाली जाननी अर्थात् ऐसे पुरुषके शरदी जानना ।। al जो नाडी पहुचेसैं भुजाके प्रति चार अंगुलसैं अधिक लंबी प्रतीतहो तो वो गरमीके लक्षणवाली जाननी । यदि नाडी तर्जनी उंगलीसे लेकर कनिष्ठिका पर्यंत स्थूल प्रतीत होवे तो वो तर अर्थात् जैसै रुधिर और करें । मा जो नाडी पतली प्रतीतहोवे उस्को रूक्ष अर्थात खुष्क क-IA बहतेहै । जैसे पित्त और वातकोपमे होतीहै ।। | जो नाडी न स्थूलहो न कृशहोवे किंतु समानहो उसमे तHT जो नाडी अत्यंत उछलकर वलपूर्वक उंगलियोंको स्पर्श करे। उसमें गरमीकी आधिक्यता प्रतीत होताहै। | जो नाडी हृदसैं कम्उंची उठे अर्थात् धारे उंगलियों को स्प करे गरमी उसमें न्यूनता प्रतीत होतीहै । किंतु शरदीको | जो नाडी न बहुत उभरी हुईहो न बहुत बिलकुल दवी हुई हो किंतु समानहो इसमें गरमी होती है।। ग ठीकठीक होताहै। द्योतन करतीहै। a अब जानना गहिये कि हिकमतमें दोष चारप्रकारके कहे है यथा । For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Private and Personal Use Only जो नाडी उंगलियों के मांसमें जोर से धक्कादेवेकर ऊंची उठावे तो हृदयकी प्रबलता जाने | शीघ्रचारिणी मंदचारी और यदि नाडी उंगलियोंको स्पर्शकर दवजावे तो हृदयकी दुर्बलता जाननी । और जो नाडी न बहुत जोर लगे न अत्यंत धीरे लगे वो दिलकी समताको प्रगट करती है। समता जो नाडी शीघ्र आवा गमनकरे वो देहमें गरमीकी विशेषता द्योतन करती है । और धीरे धीरे आवा गमनकरे वो देहमें सरदीकी आधिक्यता द्योतन करती है । समता मंदचारी वती शीघ्रचारी मोअदिल गरम सखक्त जो नाडी मध्यम चालसैं आवा गमन करे वो सरदी गरमीकी समानता प्रगट करती है । जो नाडी दावनेसै सहज दवजावे उसको तरस्निग्ध कहते है, इसे फारसी में लीन कहते है । और जो दवाने न दवे वह खुष्क जाननी उसको फारसी में सत्व कहते है । जिसमें मध्यम गुणहो अर्थात् न बहुत कठोर न बहुत नम्र वो मोतदिल जाननी । जो नाडी मोटी और शीघ्र चलतीहो वह रुधिर और मवादसे भरी हुई जानना अथवा जीवसे परिपूर्ण जानना । मुमतिला मोअहिल खाली माद्दिल गरम उष्ण शीत सरद मोअद्दिल सम उस्तवा पूर्वसदृश और जो नाडी खाली होती है वो मंद और पतली होती है उसमें थोडा रुधिर और मवाद जानना | और जब नाडी न भरीहो न खालीहो वो समान कहलाती है । इसमें मवाद ठीक होता है.. जिस समय नाडीका स्पर्श गरम प्रतीतहों तव रुधिर में ज्वर वा गरमी जानना । और जिस समय स्पर्शमें शीतलता प्रतीतहो तव रुधिर में सरदीकी आधिक्यता जाने । जिस समय नाडी में शीत उष्णता समान प्रतीतहो उसको सम कहते है । जो नाडी कम्से कम् ३१ वार टंकोर देके ठेहर जावे वो साध्य है । जो ३५ वार टंकोर देनेमें कई वार टूटजावे अर्थात् ठहर कर चले वो असाध्य है । जो बहुतवार न टूटे किन्तु अल्पवार टूटकर फिर शीघ्र चलने लगे उसको थाप्य जानना । जो नाडी उंगलियोंको स्पर्शकरके शीघ्र नीचे चलीजावे वो निर्बल जाननी । जो नाडी उंगलियोंको कुछकालतक स्पर्शकरे उसको बलवान् कहते है । और जो समान रीतिसें उंगलियों का स्पर्शकरे उसको समान स्थिति वाली जाननी । सबल दुर्बल मोतदिल सरी मुटु कठिण सम रुधिरपूर्ण स्वल्परुधिर समता इख्तिलाप विपरीत मोअदिल समता मुतबातर अत्यंत मुतफावत धैर्य मोद्दिल समता लाबल (नाडीका ब- नाडीका विलंब होना २ आकृति प्रमाण स्पर्श साध्यासाध्य રૂ 8 6) अन्यचक्र यूनानीमतानुसारनाडीपरीक्षा Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । प्रत्येक प्रस्तारके नो नो भेद होतेहै लंवाव चौडावा और गहराई इन तीनोंके प्रमाणको हकीम लोग कुतर कहतेहै । उन दो तीन कुतरोंको एकत्र करो अर्थात् प्रस्तार करो तो दोपस्तार २७ सत्ता. ईस सर्त्ताईस के होतेहै जैसे आगेके दोनो चक्रोंमें लिखे है दोनो प्रस्तार करनेकी यह रीतिहै कि तीनप्रकारके लंवावको तीन प्रकारोंकी चोडाईके साथ गुणदेवे तो नो होवेगी इसीप्रकार लंबाई और गहराइयोंको तथा चौडाई और गहराईकी तीन तीन प्रकारोंके साथ मिलनेसैं नो नो भेद होतेहै इसप्रकार तीनो सत्ताईस सत्ताईस भेद होतेहै इसका उदाहरण आगे चक्रोसैं समझना चाहिये इस गुणनको फारसीवाले सनाई कहतेहै । नाडीनां प्रस्तारचक्रम् । सनाई (द्विगुण) । सलासी (त्रिगुण) द हह ह य य याद दददद ददद यस काय स क य व आय व अय hra • Ww to Ro | | how he "n her he too | कक | |24 12424 LANANA.A. द| द द ह ह ह य य य ह ह ह ह ह ह हह वय व अंय व अंय आय व आय व अंय | स स स क क क य | यय कककाala||य य य य य य य य य व अंय व स स स क क क य य या आय व अ य व अंय व अंय व आय इन दोनो चक्रोंमें जो अक्षर है उनमें द से दीर्घ, ह मैं हस्व, और य मैं यथार्थ कहिये समान जानना उसीप्रकार स से स्थूल, क से कृश व सैं बहिर्गत अ मैं अंतरगतकी समस्या जानलेनी चाहिये । इति श्रीबृहन्निघंटुरत्नाकरे नाडीदर्पणे यूनानीमतानुसार नाडीपरीक्षणे तरङ्गः PULSE EXAMIN. अबैंग्लंडीयमतेन नाडीपरीक्षा ऐंगलंडीयभाषायां नाडी पल्सेति शब्दिता । तस्याः परोक्षापरोक्षभेदेन द्विविधा गतिः ॥ १॥ द्रष्टुर्याङ्गुलिसंस्पर्श For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गंग्लंडीयमतानुसारनाडीपरीक्षा परोक्षा न करोति सा। करोति या साऽपरोक्षाङ्गलिस्पर्शञ्च पश्यतः॥२॥ अर्थ-इंग्लड अर्थात् अंगरेजीमें नाडीको पल्स Tulse कहतेहै वह दो प्रकारकी है एक परोक्ष और दूसरी अपरोक्ष तहां जो नाडी देखनेवालेकी ऊंगलियोंका स्पर्श न करे वह परोक्ष कहाती है और जो उंगलियोंका स्पर्श करे वो अपरोक्ष अर्थात् प्रत्यक्ष नाडी कहाती है। उत्थानापेक्षया पुंस आसने तदपेक्षया । शयने नाडीका वेगो मन्दी भवति नानृतम् ॥ ३ ॥ सायंतनाद्धि समयाप्रातःकालेऽधिका गतः । वेगसंख्या भवेनिद्राकाले ह्रासं च गच्छति ॥४॥ अर्थ-खडे होनेकी अपेक्षा ( वनिसवत ) वैठनमें और बैठनेकी अपेक्षा सोनेमें नाडीकी गति घटजातीहै । उसीप्रकार सायंकालकी अपेक्षा प्रातःकालमें नाडीकी गति बढजाती है । और निद्रामें नाडीकी संख्या घटजाती है ॥ ४ ॥ भोजनस्याथ समये वेगसंख्या विवर्द्धते । अहिफेनसुरादी नामुष्णानां यदि भोजनम् ॥५॥ बुभुक्षावसरे नाडी गतेवेंगो ह्रसत्यलम् । एषा नाडी गतेदेंगचर्या सामान्यतो मता ॥६॥ अर्थ-यदि अफीम मद्य आदि गरमवस्तु खायतो उस गरम भोजनके कारण नाडीकी संख्या बढजाती है, और अत्यंत शीतलवस्तु खानेसैं नाडीकी संख्या न्यून होजाती है, यह अर्थाशमैं जाना जाताहै । उसीप्रकार भोजनके समय नाडीका वेग मंद होजाताहै, यह नाडीकी सामान्य गति संख्या कही है । नाडीकी व्यवस्था जाननेके लिये वैद्यको प्रथम इतनी वस्तुओंका जानना अति आवश्यकहै । जैसे प्रथम नाडी देखनेकी विधि दूसरे आरोग्यावस्थाकी नाडी तीसरे रोगावस्थाकी नाडी और चतुर्थ नाडी देखनेका यंत्र । १ नाडीदेखनेकी विधि-नाडी देखनेके जो नियम वैद्योंने निश्चितकर रखेहै, यदि उनके अनुसार न देखी जावेतो हम जानतेहै कि नाडीका यथार्थज्ञान होना अति असंभवहै । अतएव अब उन नियमोंको वर्णन करतेहै । प्रथम-वैद्य या रोगी कहीसे चलकर आयाहो तो उचितहै कि थोडीदेर विश्राम For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडीदर्पणः । लेकर फिर नाडी देखे या दिखावे, तथा परिश्रमकी अवस्थामें और शोधक विचारके समयभी नाडी न देखे ऐसे समयकी नाडी विश्वास योग्य नहीं है । दूसरे-रोगीको बिठलाकर या लिटाकर यदि कोई आवश्यकता होयतो खडा करके रेडिअल आर्टरी Radial Artery (जो पहुचेमें अंगूठेकी जडमें त्वचाके भीतरहै उसपर वरावर तीन उंगली रखकर नाडी देखना, परंतु कभी पहुचेकी देखना असंभव होयतो अन्योन्य स्थानकी देखे, जैसैं मस्तक संबंधी रोगमें कनपटीकी नाडी तथा गठियामें पहुचेपर पटी बंधाहो अथवा दोनो हाथ कटगए हो तो प्रगंड ( वाजू ) की नाडी देखे, और कभी पैरमें टकनेके नीचे भीतरकी तरफ पोस्टीरिअर टीवीअल Posteriar Tiljial नाडीको देखते है ।। तीसरे-वैद्यको रोगीके दोनों हाथोंकी नाडी देखनी चाहिये, इसका यह कारण ह कि ऐसा देखा गयाहै, कि एक ओरकी नाडी दुसरी नाडीसैं बड़ी होती है । और यहभी स्मरण रखना कि दहने हाथकी वामहाथसैं और वामहाथकी देहने हाथसैं नाडी देखे इसमें सरलता रहती है। चतुर्थ-स्त्रीकी नाडी दहने हाथकी अपेक्षा वामहाथकी उत्तमरीतिलै विदित होती है इस्सैं प्रतीत होताहै कि स्त्रियोंकी वाए हाथकी नाडी कुछ वडी होती है। हिंदुस्थानी वैद्य जो स्त्रीके वामकरकी नाडी देखतहै कदाचित् उसका यही कारण न होय । पांचवे-नाडीकी स्पन्दन संख्या अर्थात् शीघ्रगति और मंदगति जाननेके पश्चात् उसके बलाबल जाननेको कुछ दवाकर फिर ढीली छोडदेवे, जिस्सै यह प्रतीत होजावे कि नाडी दबानेसैं कितनी दवती है । परन्तु इतनी न दवावे कि जिस्सै रुधिरका भ्रमण वन्दहोजावे, केवल इतनी दावेकि जिस्सै नाडीकी तडफ प्रतीत होती रहे । छटे-धैर्यरहित पुरुषोंकी या अत्यंत डरपोककी नाडी देखैतो उनका ध्यान वार्तालापमें लगाय लेवे, इसका यह कारणहै कि ऐसे मनुष्यों तुच्छकारणसे हृदयकी खटक न्यून होजाती है। अतएव नाडीका वृतान्त ठीक ठीक निश्चय नहीं होता। ___ अव कहतेहै कि रुदन करनेसे और मचलनेसै बालकोंके पहुचेकी नाडीका देखना कठिनहै । इसवास्ते उनको गोदीमें बैठाल खिलौने आदिका लोभ देके उनके छातीपर कान लगाकर हृदयकी धडधडाटका निश्चय करना । यदि नाडीकाही देखना जरूरी होवेतो निद्रा अवस्थामें देखनी चाहिये । . 'सातमे-नाडी देखनेके समय यहभी अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि नाही. For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐंग्लंडीयमतानुसारनाडीपरीक्षा (५७) पर किसी प्रकारका दवाव नही जैसे बंध, अथवा संगी, या रसौली, वा घोटू आदिका सहारा नहोवे । क्षणिक और मानसिक रोगों में अनेकवार नाडी देखनी । चाहिये कि जिस्सै रोग भलेप्रकार समझमें आयजावे । आरोग्यावस्थाकी नाडी। मध्यम श्रेणीके युवापुरुषोंकी नाडी आरोग्यावस्थामें साथ प्रबंधके कुछ दवने वाली और कुछ भरीहुई होती है। परंतु चिन्ह भेद और अवस्था तथा स्वभावा. दि भेदसे नाडीमें अंतर होजाताहै और बालिकाओंकी नाडी पुरुषोंकी अपेक्षा कुछ छोटी होती है और शीघ्रचारिणी होती है दंभी प्रकृतिवालोंकी नाडी भरीहुई, कठोर, और शीघ्रगामिनी होती है कोमलस्वभाववाले मनुष्योंकी नाडी धीरे धीरे चले है और नम्र होती है । वृद्धावस्थामें कठोर होती है । नाडीकी स्पन्दनसंख्या ( जिनका निश्चय करना नाडीकी और अवस्थाओंसे सुगमहै ) सदैव हृत्पद्मके संकुचित खटकेके समान होती है । इस्सैं कदापि अधिक नहीं होती, परंतु अपस्मार आदि चित्तके रोग और मूर्छा आदिमें एक दो गति, न्यून होजाती है। छोटे वालककी नाडीकी गति अधिक होती है, फिर जैसे जैसे अवस्थाकी वृद्धि होती है उसी प्रकार क्रमसैं नाडीकी स्पन्दन संख्या न्यून होती जाती है परंत वृद्धावस्थामैं फिर कुछ कुछ बढती है । अवस्थानुसारनाडीकीगति इस चक्रमें जो नाडीकी संख्या है वह आरोग्यपुरुषके लिये ठीक है। परंतु गतिप्रमाण रोगावस्थातें न्यूनाधिक होजाती है । यदि सद्यःप्रसूत बालककी नैरोग्यपुरुषकी नाडीकी गति १ मिटमें २० से १३० ७२ वार हो और स्त्रीकी ८२ पार होय द्धपीनेवाले बालककी तो ठीक जाननी, स्त्रीकी १० गति पुरु५ वर्षसै ६ वर्ष तकके बालककी से सदैव अधिक होती है । और गर्मी. १५ वर्षतकवाले नवयुवावस्थामें सूजन, ज्वर, अतिदुबलता, नागना, पे, -----थोराके प्रथमदर्जासेलाधिर. क्रोध, | ३५ वर्षतक आर्थात् युवावस्थामें जोश आदिमें ७० या अस्सीसैं १०० ३५वर्षसे लेकर ५० वर्ष वालोंकी या १२० वरंच २०० तक नाडीकी ग____ अर्थात् वृद्धावस्थामें -ति संख्यां प्रत्येक मिंटमें हो जाती है अति वृद्धावस्थामें .वं सरदी अलस्य, निद्रा, कुछ थकास्ट, अवस्था तक १०० ७५ सें ८० For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) नाडीदर्पणः । क्षुधामें, हवाके दवावमें, बेफिकरीमें, इत्यादि कारणोंसे नाडीकी गति ऐसी म्यून होजाती है कि प्रत्येक मिनटमें ६० या ३५ तकही रह जाती है । रोगावस्थाकी नाडी । रोगावस्थामें नाडीकी गति संस्था और अन्य अन्य लक्षणोंमें विशेष अंतर होताहै जैसे आगे लिखत है । ज्वर, प्रदर, वमन, विरेचन, वुहरान, इत्यादि रोगोंमें नाडी इतनी शीघ्र चलती है कि गणना करना कठिन होजाता है यदि ज्वरावस्थामें अकस्मात् नाडी मंदपडजावे तथा उसके साथ अन्य अशुभ लक्षणोंकी आधिक्यता होवे तो उसप्राणीके मस्तकमें किसीप्रकारके विघ्नंसें सत्ता या पक्षघात होकर रोगीके मरनेका भय रहता है। गति संख्याके शिवाय नाडीमें जो वृत्तान्त निश्चय होताहै, उसको आगे कहते है । नाडीकीइंग्रेजीसंज्ञा । आनन्दादितरावस्था स्वानंदापेक्षया गतेः। वेगसंख्या वईते सा नाडीन्फ्रीकेंटशब्दिता ॥१॥ अर्थ-आनंदकी अपेक्षा जिस नाडीकी संख्या अधिक वेगवान् हो उसको इंग्रेजीमें Freequent फ्रीकेंट कहते है । आनन्दादितरावस्था स्वानंदापेक्षया गत्तेः। वेगसंख्या ह्रसति सा नाडीन्क्रीकेंटशब्दिता ॥२॥ अर्थ-जिस नाडीमें आनन्दकी अपेक्षा स्पन्दन संख्या न्यून होय उसमंद चारिणी नाडीको अंग्रेजीमें Infreequent इनफ्रीकेंट कहते है । चिरकालधृतायां च नाड्यां संख्या न वर्द्धते। न वा हसति वेगस्य सा च रेग्यूलराभिधा ॥३॥ अर्य-जिस नाडीपर बहुतदेरीतक हाथवरनेपरभी कुछ न्यूनाधिक्य प्रतीत न होय उस नाडीको इंग्रेजीमें Reguler रेग्यूलर कहते हैं । चिरकालधृतायाञ्च नाडयां संख्या विवर्द्धते।। मन्दी भवति चावस्था सेरेंग्यूलरशब्दिता ॥४॥ अर्थ-जो नाडी बहुतदेरी हाथरखनेसैं कुछ न्यून्याधिक्य प्रतीत होय उस अव स्थाको डाक्टरलोग Irregular इरेग्यूलर कहते है । For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ऐंग्लंडीयमतानुसारनाडीपरीक्षा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकृदङ्गुलिसंस्पर्शादन्तर्धानन्तु गच्छति । इन्टरमिटेंटा भिया साऽसृक्कफाशयदूषिणी ॥ ५ ॥ अर्थ- जो नाडी एकवार उँगलियोंका स्पर्शकर छिपजावे, वह रुधिर और कफाशयको दूषितकर्त्ता हृदयसंबंधी व्याधिको उत्पन्नकरे इसको इंग्लंडी यवैद्य Intermittent इन्टरमिटेंट कहते है ॥ ५ ॥ यदा रक्तेन पूर्णत्वमापन्ना नाडीका भवेत् । ( ५९ ) तदा फुल शब्द विख्याताथवा लार्जेति विश्रुता ॥ ६ ॥ अर्थ - जिस समय नाडी रुधिरसें परिपूर्ण होती है उसको डाक्टरलोग फुल या Full Large लार्ज ऐसा कहते है ॥ ६ ॥ यस्यां हृत्कमलोच्छ्वासाद्रक्तमल्पं वहेत्तु सा । रिक्तानाडी स्माल संज्ञा समाख्याताभाषया ॥ ७ ॥ अर्थ - जिस समय हृदय रुधिर अल्पप्रगटहोय उस रिक्तनाडीको पाश्चिमात्यवैद्य - Egual इस्माल ऐसा कहते है || ७ || या वै गुणवदातन्वी नाडी क्षीणत्वशंसिनी । रक्तातां द्योतयन्ती सा थ्रेडीपल्ससंज्ञिता ॥ ८ ॥ अर्थ- जो नाडी डोरेके माफिक बहुतवारिक प्रतीत होय वह क्षीणता और रक्तकी अल्पताको प्रकाश करने वालीको Thready pulse थ्रेडीपल्स कहते है ॥ ८ ॥ अङ्गुलीभिर्यदा नाडी पीडितापि न नम्रताम् । व्रजेत्तदातिरुक्षत्वद्योतिनीहाडेशब्दिता ॥ ९ ॥ अर्थ - जो नाडी उँगलियोंके पीडनसेंभी अर्थात दाबने सैंभी नम्र न होवे वो रूक्ष ताकी द्योतनकरता नाडीको डाक्टरजन Hard हार्ड ऐसा कहते है ॥ ९ ॥ अङ्गुलीभिर्यदा नाडी पीडिता नम्रतां व्रजेत् । सार्द्धत्वद्योतिनी मृदी साफ्ट शब्देन शब्दिता ॥ १० ॥ अर्थ-जो नाडी उंगलियोंके दबानेसें दबजावे उस मृदुनाडीको साफ्ट ऐसा कहते है यह आर्द्रत्वको द्योतन करती है ॥ १० ॥ प्रतिस्पन्दं शीघ्रतायां संख्या यस्या न वर्द्धते । सकृच्छ्रेध्यधरा तूर्णंगा नाडी की शब्दिता ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ६० ) नाडीदर्पण: । अर्थ - जिस नाडीमेंकी प्रत्येक तडफ शीघ्रभी होय परंतु स्पन्दन संख्या न बढे किंतु एकवारही जल्दीकरे उस तृर्णगामिनी नाडीको इंग्लैंडीय वैद्य Quick कीक् ऐसा कहते है यह निर्बलताको द्योतन करती है ॥ ११ ॥ . यस्या मन्दगतिर्या च नाडी पूर्णा भवेत्तु सा । स्लोशब्दशब्दिता ज्ञेया रक्तकोपप्रकाशिनी ॥ १२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ - जो नाडी मंदगतिहो और परिपूर्णहो वह रुधिरकोपके प्रकाश करनेवाली माडीको इंग्लैंडीय वैद्य Slow स्लो कहते है ॥ १२ ॥ खूनकी गति के कारण नाडीके अनेक भेद है जैसें आर्योटा Poorta Water Hamr वाटर हेमर Bounding बौंडिंग Lavauering लेवरिंग Thriling Pulse थ्रिलिंग पल्स Readondled रिडवल Dierratores या डाईक्रोटस और इसीटेटआदि है । जो लहरके समान उंगलियोंको लगकर हटजावे उसको जर्किंग अर्थात् झटके दारी कहते है । किवारोंकी रिगडके माफिक आयोटा होती है । उछलनेवाली नाडीको बौडिंग कहते है, जो नाडी काँपती हो उसको थ्रिलिंगपल्स कहते है । इसीप्रकार अन्य सब नाडियोंकी गतिको बुद्धिवान् डाक्टरद्वारा और उनके ग्रंथोंसे जाननी इसजगे ग्रंथविस्तारके भय नहीं लिखी । नाडीदर्शक यंत्र । नाडी देखने के लिये अंग्रेजी डाक्टरोंने एक यंत्र निर्माण करा है उसको अंग्रेजी बोलीमें स्फिग्मोग्राफ Sphygmograph कहते है इसमें अनेक टुकडे होते है विना दृष्टिगोचर हुये उनका समझना मुसकिल है इसलिये उस यंत्रकी तसबीर जो इस नाडीदर्पणग्रंथके पिछाडी हैं उस्सें समझना उसके आवश्यक विभागों का कुछ इस जगे वर्णन करते है । अ- पटलीके चलाने और रोकनेका खूटी । क-तालील गानेकी कमानी । - नाडी कम्अधिक दववि करनेका गोलाकार चक्रविशेष | ट - कज्जल से रंजित कागज धरनेकी जगह | - चिन्हित होनेके पश्चात् जो कागज निकलता है । प - जिनसे कागजपर चिन्ह होते है वो सूई । इस यंत्र के लगानेकी यह विधि है कि जब हांतीदांतवाले स्थानको रेडियल्पर धरकर यंत्रको काम में लाते है तो नाडीकी तडफ कमानीको लगती है जिसके द्वारा सूईसें कागजपर लहरदार रेखा प्रकट होती है । कि जिनसें हृदयके घडनेका For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra For Private and Personal Use Only नाडीयोंकी व्यवस्था संस्कृतनाम इंग्रेजीअक्ष नाना० इंग्रेजी नाम संख्या हृदयकै खटकाके संख्यानुसारनाडी दोप्रकारकीहै पहली फ्रीक्वेंट इसमें आरोग्य अवस्थाकी शीघ्रचा अपेक्षा गति संख्या अधिकहोतीहै। रिणी Friquent फ्रिक्वेंट | दूसरी इन्फ्रीक्वेंट इसकी दशा फ्रीकैटसैं विपरीत होताहै यह स्त्रीयोंके वातगुल्म रोगमें होताहै। मंदगामिनी Infriquent__ इन फ्रिक्रेट हृदयकी गतिके प्रबंधानुसारभी नाडीकी दो अवस्था पाई जातीहै एक रेग्यूलर, नाडीन्में क्रमानुसार रुधिर जाने- सावधानता वाली नाडीको रेग्यूलर कहतेहै इसपर हाथ रखनेझैं गति एकसी मालूमहो और कभी बीचमें अंतर नहीं पड़ता। सूचक ___Regulars ऐयूलर्स दूसरी इररेग्यूलर अर्थात् नाडीन्में क्रमके विपरीत रुधिर जाय इसपर हाथ रखनेसै गति एकसी प्रति नहीं असावधान होती और बीचमें अंतर पढ जाताहै रोगावस्थामें नाडीका सप्रबंधित अर्थात् क्रमपूर्वक चलना अच्छाहै । Irregulars इररेग्यूलर्स | ता सूचक जिस नाडीके तडफ होने में जितना काल जाताहै उस्सै अधिक होजाय अर्थात् दूसरी गति काभी कालव्यतीत होजावे उसको इंटरमिट कहतेहैं परंतु गतिके भेदसे यह दोप्रकारकीहै एक सांतरिक Intermittent इंटरमिटेंट रिग्यूलर इन्टमिटेंट और दूसरी इररैग्यूलर इन्टमिटेंट है। म्तकके सजनेमें अन्यकारणोंसे नाडीमें अधिक रुधिर पहुचे और उंगलियोंके नीचे नाडीका उत्प्लवन अधिक धक प्रतीतहो तो उसनाडीको फुल या लार्ज कहतेहै यह अधिक रुधिर वृद्धि में अथवा कठोररोगों प्रतीत होतीहै। परिपूर्ण Full या Large फल या लार्ज | जो नाडी फल लार्जके विपरीतहो अर्थात् नाडीमें अल्प रुधिर पहचे और नाडीका उत्प्लवन का Esmal इस्माल उंगलियोंकों थोड़ा प्रतीतहो उसनाडीको स्माल अर्थात् बारीक नाडी कहतेहै। | जब नाडी अत्यंत सूक्ष्ममूतके समानहो तो उसको इंग्रेजीमें ऐडीपल्स कहतेहै यह रुधिर सूक्ष्मतर Thready Pulse ऐडीपल्स की न्यूनावस्था अथवा दुर्बलतामें देखी जातीहै। नाडीकी दिवारकी लचकके तुल्यनाडीकी दोगति होतीहै एक हार्ड अर्थात् कठोर इसैं किंचिन्मा Hard भी दबानेसैं उंगलियोंको कठोरता प्रतीत होताहै यह नाडीकी अधिक लचकके कारण होताहै। द्वितीय साफ्ट या नम्र जिसकी दशा हार्ट नाडीके विपरीत होतीहै यह नाडीके अनुरोध Soft ( नाडीकी दिवार ) की लचकसैं और देहके निर्वलतामें पाई जातीहै। साफ्ट __नाडीकी गतिमें जो समय व्यतीत होताहै उसके अनुसार नाडी द्विविध होतीहै एक क्वीक अर्थात् शीघ्रचारणी| शीघ्रगा नाडीकी प्रत्येक गात शीघ्र शघ्रिहो परंतु एक अथवा मानसिक रोगोमें जिनमें स्वभाव दुष्टहो उनमें पाईजातीहै । मिनी quick क्वीक् जो क्वीक नाडीके विपरीतहो अर्थात् सुस्तहो उसको स्लौ नाडी कहतेहै। धीरगामिनी Slow । स्लो __ अथ डाक्टरीमतानुसार नाडीचक्रम् ऐंग्लंडीयमतानुसारनाडीपरीक्षा www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६१) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६२) नाडीदर्पणः। हाल और रुपिरगणका वृत्तान्त उत्तमरीतीसे प्रतीत होता है । प्रत्येक लहर में एक रेखा उठनेकी होती है फिर मुख्नेकी और फिर उतरनेकी तथा उतरनेकी लहरमें दो लहर प्रगट होती है इन लहरोंकाभी चिन्ह स्फिग्मोग्राफ यंत्रमें लिखा है सो देखलेना। खडीरेखा हृदयके संकोच होनेसे होती है और मुरडनेका कोना नाडियोंके किसीप्रकार संकोच से होताहै और जिससमय हृदयके संकोचसै रुधिर अयाटीमें पहुँचताहै तो पहली रेखा प्रगट होती है फिर अपार्टीके किवाड बंदहोनेसे दूसरी लहर खांचेतक वनती है अयाीके सुकडनेके पीछे रुधिर आगेको बढजाताहै और दूसरी लहर परिपूर्ण होकर एकवार हृदयके खटकेकी चिन्हतरेखा संपूर्ण होजाती है । इति नाडीदर्पणे ऐंग्लैंडीयनाडीपरीक्षावर्णनं नाम पञ्चमावलोकः । इति श्रीमाथुर कृष्णलालपुत्रदत्तरामेण रुइलिते आयुर्वेदोद्धारे बृहन्निवण्टुरनाकरान्तर्गते नाडीदर्पणे ऐंग्लैंडीयनाडीपरीक्षावर्णनं नाम पञ्चमावलोकश्चाष्टत्रिशस्तरङ्गः ॥ ३८॥ समाप्तोयंनाडीदर्पणाख्यो ग्रन्थः। पुस्तक मिलनेका ठिकाना ___ गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" छापाखाना कल्याण-मुंबई. For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्ष्मीवेङ्कटेश्वराय नमः । कोकिलाव्रतमाहात्म्यस्र सूचनापत्रम् । इह तावद्ब्रह्माण्डान्तर्वर्तिनवखण्डभूमण्डलशिखण्डीभूत कर्मकाण्डस्थल भरतखण्डे स्ववर्णाश्रमधर्माचरणश्रद्धावतां जनानाम् इहामुत्रेष्टफलावाप्तिसाधनानि नित्यनैमित्तिककाम्यानि नानावतकमादीनि प्रसिद्धानि सन्ति । तथैव तत्तद्रतादिविधिप्रतिपादकत्रता कंत्रतराजादयोपि ग्रन्थाः प्रसिद्धः । तेषु स्त्रीणां जन्मनि जन्मान्तरेच सौभाग्यादि प्रिययोगभोगदं कोकिलानामकं व्रतं तदेवतार्चनोद्यापनादिविधिस्त दितिहासश्च कथितोस्ति खलु । तथापि स संक्षिप्त एव । अतो मया बहुप्रयत्नतः कस्यचित् विद्विप्रस्य सकाशात् स्कन्द पुराणान्तर्गत कनकाद्विखण्डस्यै कत्रिंशदध्यायात्मकं शिवनारदसंवादरूपं साद्यन्तं मनोरमं कोकिलाव्रतोत्पत्तिहेतुभूतं दग्धदेहपार्व त्याः कोकिलाजन्मप्राप्तिकथोपहितं कोकिलामाहात्म्यं समाहृत्य शास्त्रिभिः शोधयित्या सटिप्पणम् कारयित्वा च अस्मलक्ष्मीवेङ्कटेश्वराख्येनयण्त्रे सललितसीसकाक्षरै बुद्वितमस्ति । यस्मिन् वर्षेधिकापाठस्तस्मिन्नेव वर्षे शुद्धापाठपूर्णिनामारभ्य मासपर्यन्तं प्रत्यहं स्नानदानाचेनमाहात्म्यश्रवणविधियुक्तकोकिलाव्रताचरणं स्त्रीभिः कार्यमित्युक्तम् । स व्रताचरणकालोऽस्मिन्नेत्र वर्षेऽधिकापाढप्राप्तेरागन्तेति संप्रत्येवैतन्माहात्म्योपयोगः सर्वासां व्रताचरण शीलानां सम्यग् भविष्यतीति ज्ञात्वा ज्ञाविति संमुय प्रकाशितम् । तस्मात् तन्मुद्रणायासम् अस्ति यादकाः सफलीकुर्वन्त्विति सविनयेयं मत्प्रार्थना ! ग्राहकाणां माहात्म्य पुस्तकानि योग्यमूल्येन मिलिष्यन्तीत्य ं विस्तरेण । For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तनिश्लोक्याख्यया भूषणाख्यया रामानुजी याख्यया च व्याख्यया समेतस्य श्रीवाल्मीकिरामायणस्य प्रसिद्धिपत्रिका | भो भो विद्यापारावारपारीणा इदं विदाङ्कुर्वन्त्वत्रभवन्तः - तनिश्लोक्याख्यया भूषणाख्यया रामानुजीयाख्यया च व्याख्यया समेतं श्रीवाल्मीकिरामायणम् अत्युत्तमतैलङ्गदेशीयपुस्तकमालोच्य पण्डितैः संशोधितं तच्च सम्प्रति सुव्यक्तैः स्थूलसूक्ष्माक्षरेलक्ष्मीवेङ्कटेश्वरमुद्रणयन्त्रे मुयते, तस्य च नागेशप्रभृतिविनिर्मिताः सन्ति यद्यपि बह्वचो व्याख्याः, तथापि सहृदयहृदयाह्लादकनानाविधाऽपूर्वार्थान्वेषणे प्रयतमानैरार्यकुलोचितधर्ममर्यादाविचारशीलैर्महाशयैर्निर्विशेषत्वेन सविशेषत्वेन च बह्मस्वरूपप्रतिपादकवेदान्तवाक्यानां समीचीनतर्कसहकृत विषयभेदव्यवस्थापनेन तात्पर्यार्थनिर्णायकतया श्रीवाल्मीक्यभिप्रायानुगा रामानुजीयव्याख्यातनिश्लोकीव्याख्यासमेता भूषणाख्यव्याख्याऽवश्यं निरीक्षणीयेति, मन्येऽहं निरीक्षणेनाभिज्ञानामवश्यं जिवृक्षा भवेदिति । व्याख्याद्वयोपेतस्य भगवद्गुणदर्पणाख्यस्य श्रीविष्णुसहस्त्रनाम भाष्यस्य प्रसिद्धिपत्रिका | अनुष्टुप् श्लोकात्मकनिरुक्त्याख्यव्याख्यासमेतं, नामनिर्वचनोपयोगिप्रकृतिप्रत्ययप्रदर्शक निखिलतन्त्रप्रधानीभूत पाणिनीयस्मृतिसूत्रगर्भितनिर्वचनाख्यद्वितीयव्याख्यासमेतं च, सहृदयहृदयाह्लादकं श्रीभगवद्गुणदर्पणाख्यं श्रीविष्णुसहस्रनामभाष्यमासीत्तैलङ्गदेशाक्षरैद्रविडदेशाक्षरैश्व मुद्रितम्, तच्चास्मदीयदेशेऽतीवदुर्लभतरमिति मनसि निधाय सकलजनोपकतयेऽतिप्रयासेन तच्च तैलङ्गदेशादिहानाय्य देवारैर्लेखयित्वा मुहुर्मुहुरभिज्ञजनद्वारा संशोध्य च, स्थूलसूक्ष्माक्षरे - मनोहरं मुद्रयते, येषां महाशयानां स्याज्जिवृक्षा, तैर्द्वततरम् सूचना कार्या, यतस्तत्पुस्तकप्रेषणेऽहमुव्यतोभवेयमिति मे विज्ञप्तिः श्रीकृष्णदासात्मजो गंगाविष्णुः "लक्ष्मीवेंकटेश्वर " मुद्रणयन्त्रम् कल्याण - ( मुंबई ) For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WVI नाडीज्ञानप्रकाश भाषाटीका सहित हम हव.फ़र माईश मुन्शी घासीलाल बा साहब ताजिर कुतंव के छापागया देहली मत बझजेब काशी में मुन्शीशादी लाल के प्रबंध से छपासं०९८५२ WITUALIPANVI For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडीप्रकाश श्री गणेशायनमः अथनाडीज्ञान प्रकाश॥ जगन्नाथकृत लिख्यते प्रथमंगलाचरणालि श्लोक ध्यायेत वालंप्रभाते विकसित वदना फुल्लराजीवनेवामुक्तावैदूर्यगर्भर चिरकूनकभूषणभूषितागीम्॥वि छतकीटिछटामापरि मलवहलोदि व्यू सिंहासनस्थांगी? वीतस्यैदासीम वतिसरवननन्दन कैलिगेहम्॥१॥ टीका-हम प्रातसमें श्रीवालाजीकाध्यान करतेहैं कैसी हैवाला कि प्रफुल्लित है मुखफूले कमलकेसमाननेवमोती मोरवैदूर्य मरिणी जटितसंदरसव केभूषणकर्केभूषित हैं देहकोटि विजलीकेसमान प्रकाश बहुतसीसगंदयुक्तदेह श्रेष्ट सिंहासन पर स्थितऐसी वाला काजोमुनुय्यध्यान करता है तिसपुरुष की सरस्वतीदासी होगीरदेव तोकानंदन वन कीडाका स्थान हो। धूतेते नरगांब्रजस्व हृदयेमात रोयो निशतस्यास्यपरिनर्ततेप्रतिदिन वाग्गद्यपद्यात्मिका लक्ष्मीस्तस्यगृह - - - For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir h - mewww - - - ( नाडी प्रकाश-३. स्थिताकरतलमुक्तिःस्थिताःमियाहू रिविभूषिताश्चनिधयान्तिष्ट्रतिनित्यमुदा .. टीका-हेमातजो मनुष्य तेरे चरण कमलों को निरंतर अपने देश में ध्यान कर्ता है तिसके मुख मेगद्यरचनारूपीसरस्वतीनित्य नाचती है सके घरमें लक्ष्मी स्थिर रहे मोक्षउसके हाथमें स्थिररहै अष्ट सिध और नवनिधितिस के हार पर नित्य प्रशन्नतापूर्वकशाभावमान स्थि ररहैं पुनः दोहा ... जयजय गुरुपदपदनरजवदीवारंवार भवभेपनवररूजसमनदमनशोकसंसारपुनिवेदौसिंदुरबदनशंभुसूनुगणाराज विधनहरनमंगलकरनरावतजनकालाजवेदोधवसरिचरण अरु अश्विनीकुमार विश्वरोगभयहरणाकाली नो जिन अवतार गिरजा गिरजापतिसहितवदोदोजकरजोर नाडीज्ञानप्रकाशकोरचयथामतमोर. श्लोक नाडीज्ञानं बिनायोवेचिकित्सोकरते भिषकसनेवलभतेलक्ष्मीनधर्मन वेयशः॥३॥ टीका-नाडीकेजाने विनाजोवैद्य ओषधिअर्थातरोगीकोचिकित्सा करताहैवोवैद्यधनधर्मोर यशको नहिं पाता॥३॥ अथ वैद्यलक्षणामाहलि. - - - For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश ४ ) पंच तत्वात्मकं सर्व वेति यस्माद शेष तः ॥ तस्माद्विद्य इति क्षाती लोके भ 'वति न्यान्यथा ॥ टीका- जो इस पंच तत्वात्मक शरीर को सर्व प्रकार से जानता है इसी से उसे वैद्य कहते है । शास गुरु मुखो दीशी मादायो पास्य चा सकृत ॥ यः कर्म कुरते वैद्यः संवैद्य न्य तुत स्कराः ॥ | टीका- जो गुरु के मुख से कहे भय शास्त्र को अध्ययन करि के मोर वारं वार गुरु समीप अनुभव लेकें वैद्य कर्म करता है उसी को वैद्य कहते हैं और सब चोर है ॥ अन्यच ऐकं शाखं मधि यानोन विद्या च्छाख निश्वयं ॥ तस्माद्वहु कतः शाखं वि जा नीया चिकित्मक : ॥ टीका- तहां भी एक शास्त्र के अध्यन से शास्त्र का निश्चय बरावर जानने में नहीं आता है इस वास्ते शास्त्र प्रध्ययनक रना चाहिये प्रथीत् पढ़ना चाहिये ॥ प्रोषधं केवलं कर्तयो जानातिन चा मयं ॥ वैद्य कर्म सयत्कुर्या द्वधिमर्हति राजतः ॥ टीका- जो वैद्य रोग को नहीं पहिचानता है और औषधि कर ताहे ऐसा मनुष्य जो वैद्य कर्म करतो वो वैद्य राज़ से बध कर For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - (नाडीप्रकाश ५) ने योग्य है। तथाच आयुर्वेदं ततोऽधीत्य सका प्रात्सद्गुरो भिषक ॥ चिकित्सा रोगिणो कुर्या दन्यथा पाप भाग्भवेत् ॥ टीका- इस वास्ते प्रथम गुरुसे आयुर्वेद का मध्य यत्न करके वैद्य रोगों की चिकत्सा करें नहि ता पाप का भागी होता है। नाडीनांगतमाह वका ताब्रा मंदगा घात पितश्लेष्मभ्यः स्यान्नाटिकाहि कमेण ॥बीरगा तंत्रीस व राग प्रकाशात द्वन्नाडी सर्व रोग प्र काशा॥ टीका- अवनाड़ी की गति अर्थात् चाल कहते हैं वक अर्थात् टेढी तीव्र अर्थात् चपल मंद अर्थात् धीरी ये तीन चाल ना डी की हे सो वात पित कफ इन तीनों को कम से जानी जैसे वीणा के तार मेंसे अनेक प्रकार की गति निकलती हैं नै सेही उस मनुष्य की नाड़ी मेंभी समस्त रोगों की गति आनी जाती है। यथा बीशा' गता तंत्री सर्वान रोगान प्रकाशतः ॥ तथा हस्त गता नाडीस वान रागान् प्रभाषते। टीका जैसे वीणा का तार सव रोगों को बताता है तैसे ही हाथ की नाही शरीर के समस्त रोगों को बताता है। For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - ( नाडी प्रकाश नाड्या मूत्रस्य निहायालक्षयो निविदते॥मारय त्यावेजतूनस वद्यान यशालभेत् ॥१९॥ टीका-नाडी की ओर मृग की और जीभ की जो वैद्यालोग परीक्षा नहिं जानते हैं वह वैद्य मनुष्यों को जल्दी मार डालते हैं और यश कोनाहि पाते हैं। प्रथनाडीज्ञान योग्य बैद्य स्थिर चितो निरो गश्वसुखासीनः प्रसन्नधीः॥ नाड़ी ज्ञान समर्थःस्वा दत्याहःपरिमर्षयः॥१२॥ टीका-स्थिर चित निरोग गुख सुख हा प्रसन्नहि रोमा विध नाडी देखने में समर्थ होता है ॥ १२ ॥ - - - Menu स्थिरचितःसन्नात्मा मनसाच विशारदः॥स्पद गुलिभिनी जानीही इक्षिणा करे ॥१३॥ टीका-चित स्थिर होय और प्रशन्न प्रारीर होय मनमें चतुर होय रेसा वैद्य दहिने हाथ को अपनी मगलियों से स्पर्श कर्के नाड़ी को जाने। १ Prone Mara । पीतमद्यश्वचलात्मा मन मूत्रादि वगयुक॥ नाडी ज्ञान समर्थःस्था For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाडी प्रकाश ) ल्लोमाकांत श्व का मुकाः॥१४॥ टीका-जिसने मदरा पिया होय और जिसका मन चंचल होयओ रजिसको मल मूत्रादि त्यागिने की इच्छा होय और लोभी होय और काम करि के पीडितहोयरोसा बेटा नाड़ी देखने में असम र्थ होता है। नाडीअयोग्यरोगी मद्यस्मातस्य मुक्तस्य तथा तैला चना हिनः॥क्ष तृपयाँ तस्य सुतस्य नाडी सम्यकन वुध्यते॥१४॥ टीका-जिसने नत्काल स्नान किया होय वो भोजन किया होय थवा तेल मर्दन कराया हो अथवा भूख तथा प्यास करिक पीडत होय अथवा सोताहोयरोसे रोगी की नादी अच्छी तरह नहि देख ने में आती ॥ १४॥ नाडी देखने योग्यरोगी त्यक्त मूत्र पुरी पस्यसरखामोनस्य रोगिया। अंत जीनु करस्यापिन डीसम्यक परीशयेत्॥१५॥ टीका-जो मनुय्य मन्न सूत्र का त्यागन करके बैठा होय ता होय और दोनों जानू के बीच में हाथ किये होयोसेरोगी की नाडीम नी भाति से देखना ।। १५ ।। स्ती पुर्षनाडीभेद -ananesamand • सुख सचे Awa m-- -- For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (नाडी प्रकाश) मस्या से वापि रत्नवत्॥ टीका-अव खी पुरुष की नाडी का भेद कहते हे खी के वाम अंग में मोर पुरुष के दक्षिण अंगमें वैद्य साक्षात अपने प्र नु सेव करिकें और अभ्यास करके जानता है जैसे जोहरीरत्नों की परीक्षा करता हे तैसेही रोगी की परीक्षा करे॥ नाड़ीस्पर्शनवि० ईप द्विना मितकर विततो गुलीयम् प्रा ह प्रसार्य रहिते परि पीडिनेन ॥ पंगुष्ट मूल परि पश्चिम भागमध्ये नाडी प्रभा तसमये प्रथमं परिक्षेत्॥ टीका-अव नाड़ी देखने की विध कहते हैं वैद्य को चाहिये कि रोगी पुरुष के दहिने हाथ की सीधी अंगुली करके सोर थोडी नवाय के और एसे न पकड़े जिस्से रोगी को दुःख मालूम होय ओर अंगठा की नड में नाडी को प्रात काल के समय प्रथम देखें। प्रन्यच वारत्रये परी क्षेतघ्रत्वा ।धत्वा विमु. व्यच ॥ विमर्यवहधा वुध्या ततो राग विनि दिशिते॥ टीका वैद्य को चाहिये कि रोगी की नाडी पर अपने हाथ की अंगुलियों को तीन बार धरधर कर उठाय ले और अच्छी तर हसे विचार कर रोग को कहे। amerammarginamainamutnaseenasmeer mem eme For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाशी ईय द्विना मित मये बितता गुलिंच वाले निगृध कर मामि पिनो जनस्य ॥पुसोप सच्य मपि सव्य करेगा प. श्ये नाड्या चशश्वदप सव्य करां गुली॥२०॥ पिति समीरण मथोहि कफंक्रमेण घ्र गुष्ट मूलत इति प्रव दुर्ति वैद्याः। नायोस्तु वास मप सव्य करेंगधीरः संगृह्य सव्य करको गुलि मिस्त थेवः ॥२९॥ टीका- रोगी पुर्ष के दहिने हाथ को सीधी अंगुली करिकें । । और थोडी नवाय के अपने वारें हाथ से पकड़ कर नाड़ी के विय अंगूठे की जड से लेकर अपने दाहिने हाथ की तीन अंगुलियों अर्थात् तर्जनी १ मध्यम अनामिका ३दन तीनों को रख कर कम से देखे तर्जनी के नीचे पित्त मध्यमा के नीचे वायु और अनामिका के नीचे कफ को देखना ।। __ ओर स्त्री का वाम हस्त इसी कमसे देवना॥ अन्यच पुंसो दक्षिण हस्तस्य स्तिया बाम पर रस्यत् ॥ अंगुष्ट मूलगा नाडी परीक्षेत भिपम्वर ॥ २२॥ टीका-पुरुष के दाहिने हाथ की और स्त्री के वारे साथ की । और अंगूठे के मूल में नाही की परीक्षा करनी योग्य है ॥ २२॥. -- For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 1. (नाडी प्रकाश ९०) अन्यच स्त्रीणां वाम करे स्वीरणा बाग करे नाडी पुरवा गांच दक्षिणो परीक्षेत विभिषक सम्यक धृत्वा धृत्वा विमुच्यच ॥ २३ ॥ टीका ॥ स्त्री के वाम कर की नाड़ी देखनी चाहिये और पुरुष के दाहिने हाथ की इस तरह से वैद्य परीक्षा करें और अंगुलि यो को बार बार घर २ कर देखे ॥ २३ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करस्यां गुट मूले याध मनी जीवसा क्षिणी ॥ तचेष्टया सखं दुःखं ज्ञेयं का यस्य पहिते ॥ २४ ॥ टीका । अगूठे के जड़में अर्थात् पहुंच में जो नाडी चलती है वो जीव की साक्षी है उस की चेष्टा को देख कर वैद्य जो है सो सुख दुख जान लें ॥ २४ ॥ वाताधि का हे मध्ये त्वनेथहति पितला ॥ प्रेते श्लेष्म गति भैया मिश्रतो मिश्रता भवत् ॥ २४ ॥ टीका । वात अधिक होने से नाडी मध्यमें चलती है और पित की नाड़ी आदि में चलती है और कफ की नाडी अंत में वहति है। और जैसा जैसा दोष का मेल होय है वैसी वैसी चाल नाडी चल ती है अर्थात् वात पित की चाल चलती है और कफ पित्त में क फ पित की चाल चलती है और कफ बात की चाल चलती है । तथा विदोष में तीनों दोषों की मिली हुई चाल नाडी चलती है : ॥ २५ ॥ For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश ११) नाड़ी वक गति सर्पवद्वे गवतरा।। मुख विकसित यस्य तस्य मृत्यु नसंशयः॥ २६॥ टीका। जिस रोगी मनुष्य की नाडी टेडी चले मोर सर्प केसे घेरे वाली होय और उस रोगी मनुष्य का मुख खिल जाय तिस रोगी की निस्संदेह मृत्य जाननी॥२६॥ Romamar चाता द्वक गतिधते पिता दत्य गामिनी ॥ कफान्मन्द गति या सन्नि यातादति दुता॥ २७॥ टीका॥वात की साडी टेढी चलती है पित्त की कूदती हुई चल ती है और कफ से मंद मंद गति चलती है तथा सन्निपात से। अति शीघ्र नाडी चलती है ।। २ । वक्र मुत्लत्य चलत धमनी वातपि ततः॥ वहे.<के च मंदं च वात श्लेष्माधि के त्वतः॥२८॥ टीका॥तथा वात और पित सो टेढी ओर दौड़ती है और वात कफाधिक से टेडी और मंद चलती है ॥२८॥ इट्सत्यं मंद चलति नाडी पितक फेधिके॥कामात क्रोधाद्वेग वहां क्षीरा चिंता भवत्युता ॥२॥ टीका॥और कफ पित की नाडी में द ओर कूदती चलती है का म के वेग होने से ओर क्रोध से शीघ्र चलती है चिंता ओर भयसे - - - For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ( नाडीप्रकाश १२) नाडी क्षीण चलती है ॥ ६ ॥ प्रन्यच वाता धिके भवेवाडी प्रव्य तामध्य मा तले ॥ पित्ते व्यक्तातु तर्जन्या तृति यां गुलिगा भवेत् ॥ ३०॥ टीका- वात की अधिकता से नाड़ी मध्यमा के नीचे विशेष चलती है पित्त को अधिकता से तर्जनी के नीचे और कफ | की अधिक तासे अनामिका के नीचे प्रगट होती है। तर्जनी मध्यमा मध्ये वात पित्ताधि के स्फुटा ॥ अनामिकाया तजव्य तापित्त कफे भवेत् ॥ ३९ ॥ . टीका- वात और पित्त इन दोनों दोषों के मिलने से ना डी तर्जनी और मध्यम के नीचे में चलती है और पित कफ के मिलने से अनामिका और तर्जनी के नीचे फडती है॥ ३९ ॥ मध्यमा इनामिका मध्य स्फुटा वात कफाधिके । अंगुली वितय ऽपि स्या त्पव्यक्ता सन्ति पाततः॥ ३२॥ टीका-तथा वात कफ प्रवल होनेसे मध्यमा पोर अनामि का के मध्य भाग में नाडी चलती है और सन्नि पात में तीनों पालियों के नीचे नाडी समान चलती है ॥ ३२ ॥ मान्यच - - - For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश ९१) सपादि गति का नाड़ी का कादि गति का तथा ॥ वात पितामयोन्मश्रांप्र वदन्ति भिष ग्वरा ॥ १३ ॥ टाका-जिस रोगी की नाडी कभी सर्प गति चले और कभी का ग गति चलै तेस को वैद्य लोग वात पित की मित्रत नाड़ी जाने दंद शूक गतिं नाडी कदाचि ईस गामि नी॥कफ वाताभयो मिश्री प्रवदंति मिषग्वरा ॥ ३४॥ टीका-जोगाडी कभी सर्प की गति चले मोर कभी हंस गति चले उसे श्रेष्ट वैद्य कफ वात मिश्रित नाड़ी कहते हैं॥ ३४ ॥ मण्ड कादि गतिं नाड़ी कदाचि दम गा भिनी।कफपितामया मिश्रा प्रबद ति मिष ग्वरा॥ ३५॥ टीका-जोनाडी कदी मेडक की गति और कभी हंस की गति से चले उसको वैद्य कफ पित्त की नाडी कहते है ॥ ३५॥ अन्यच क्षो वका क्षणे तीव्रा मध्यमा तर्जनी तले ॥ स्फुटा भवितास नाडी वातपि त्त गदा द्रवः॥३६॥ टीका-जो नाड़ी क्षणा में वक गति प्रर्थात् दंदी चले और क्षणा तीव्र गतिसे चले और तर्जनी और मध्यमा के नीचे प्र कट होय उसे वात पित्त रोग की नाडी जानो ॥ ३६॥ | फुटा वका चमदाचमध्यमाऽनिमि - - - - - For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mom (नाडी प्रकाश९४) कातले ॥याभवत्साहि विज्ञेयाकफ वातसमुद्भवा ॥ ३७॥ टीका जोनाडी क्षणाक्षणा में वक और मंद मंद गति से मध्य मा और अनामिके नीचे प्रगट होय उस नाडी को वात कफ कीमि थित कहते हैं ॥ ३७॥ क्षण मंदा क्षो तीब्राऽनामिका त जनीतले ॥स्फुटास्यात्साधराज्ञया कफापित्त समुद्रवः॥३८॥ टीका जो नाडी क्षण में तीन गति चलै और क्षणा में मंद गति चले और अनामिका और तर्जनी के नीचे प्रगट होय उसे कफ पित मिश्रित नाही वोलते है॥३८॥ प्रन्यच नाडीधत्ते मरु कोपेजलोका सर्प. यो गति॥कलिंग काक मेडूक गति, पितस्य को पतः॥हंस परवत गति धते श्लेष्मःप्रको पतः॥ ३८॥ टीका वायुके कोय वालीनाडी जोक तथा सर्प कीसी टेोदी चा लचलती है और पित की नाडी कुलंग और काक आर्थात् कौरो की | सी तथा मेडक कीसीचाल चलती है और कफ के वेगसे नाडी हंस।। और कबूतर कीसी चाल चलती है ॥३॥ प्रन्युच सर्प जलो कादिगतिवदन्ति हिवुधा · प्रसंजने नाडी।पिचकाकलाव For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाही प्रकाश १५) कमेकादि गतिं तयाचपलां॥४॥ टीका॥वान अधिक होने से नाडी सर्प जोंक कीसी चालचलती है और पित की अधिकतासे कोरो कीसी तथा मेडक कीचालच लती और चपल भी चलती है।४ अतरावच पितस्य ज्ञायतेच पला गतिः॥वका प्रमजनस्या पिवेधे में दाकफस्यच॥ ४९ ॥ टीका॥इस वास्ते वैद्यों ने पित की नाडी की चपल गति कही है। ओर वायु की वक गति और कफ की मंद गति कही है। अन्यच करांगुष्ट मूलो द्रवा प्राणभूतानृणा रोगीगासाक्षिणी सौख्य भाजा॥ज लो कोरगानी गति नाडिका यो बिते निरुता चवातात्मिकासा॥४२॥ टीका॥हाथ के अंगूठे के मूल में अर्थात् जड़में मनुष्यों के सरव दुरव की साक्षी देन वारी नाडी कहिये वो नाडी जोक वा सर्प कीसी चाल चलेतो वात की अधिकता जानिये॥४२॥ विधुत गतिं काक मंडकुयायीमु जीन्द्र निरुताचापितासिकासा॥ शिराहं सयारावता नां गति याद धाति स्थिर श्लेष्मको पान्विता सा॥४३॥ टीका।और जो नाडी काक मेंडक कीसी गति चले तो मुनियों ने उसे पित्त की नाडी कही है और जो हंस कबूतर की चाल चले For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 14 - - - a anaramatiPasana arunaamwantinumrartermad (नाड़ी प्रकाश १६ । उसे कफाधिक जानिये॥ अन्यच नाडी चंचलता काचच्छथिलताशेत्यं क्वचि दुष्णा तो ॥धते मंदगतिद्वि दोष कुपितस्थानच्युति क्षीगाता॥ ४४ ॥ वूका कार गति क्वचि द्बित नुने प्रामो निकम्प कृचिद कलपम्विदधाति या ति कुपिता मासांन्तरे सानिशम् टीका-द्वि दोय को नाडी चंचल कभी सिथल कभी शीतल क भी गरम ओर मंद और विकलता को प्राप्त भई गमन करतीहै| और स्थान को छोड़ देय पोर बहुत धीरे धीरे चले और क भी टेढी चले मोर कभी कांपी विकलता को प्राप्त भई ऐसी | नाडी एक महीने के भीतर रोगी के प्राणों को हरती है। विदोषा न्विता नाडिका चंचलो एमा स्फुर द्वि विरुया त्वरायु विभिन्ना॥ गाँते तेतरोयं विधतेति कंपम्क्षगांक्षी गतां याति मूर्छ वचित्सा॥ ४६॥ टीका-सन्नि पात की नाडी चपल और गरम और दो तीन प्रकार की चाल चलै वो नाडी जलदी मायके काटने वाली है। ओर तीतर कीसी चाल चले और बहुत कापे और मंद मंद चले और कभी चलने में रहि जाय उसे सीत की नाड़ी जानों maane For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडीप्रकाश९१) - - - - - लवा तितर वतीनां गमनं सन्मिपाव तः॥कदा विन्मन्द गमना कदावि देग वाहिनी॥त्रिदोष कोप तो ज्ञेयाई तिच स्थानवियता॥४७॥ टीका-जिस रोगी की नाडी वटेर तीतर कीसीचालचलेउसे सन्नि पात की नाडी कहते है और दो दोषों की नाड़ी कभीधी रीचलती है और कभी जल्दी चलती है और जोनाडी-अप ने स्थान को त्यागदे उस नाड़ी को प्राणों के हरने वाली जाना स्थित्वा स्थित्वा चल नियासा स्मृता प्रारा नाशिनी ॥ अविक्षीगा चशी नाव जीवितं हंत्य संशयः॥ ४०॥ टीका-जो नाड़ी दश पांच वार चलके वन्द होय के चले या अति धीरी चले मोर अति ही ठंडी होय तो रोगी प्राणों के हरने वाली जानी॥ शिरा यस्य वाता दिता पित दग्या कफे नानि कोपेन नाडी कृतासा ।। 'गदी सोल्यु कालेन मृत्यो दिदीरोई मुख यास्चत दंत दंष्टा भिकीरों ॥ ॥४८॥ - - - - - - - For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 14 (नाडी प्रकाश १८ ) टीका। जिसरोगी की नाडी वात करिकें दुखित पित करिके दग्ध और कफ के कोप करिके खदित होय वह रोगी थोड़े ही काल में मो न के खुले हुऐ दंत ढाढा करिकें युक्त ऐमे मुखमें जाय गा ॥ नाडी वेग बती चोहमा ज्वरात्सं जा यते नृणाम् ॥ •प्रति सूक्ष्माति वेगा द्या भीतात प्राण नाशिनी ॥ ५० ॥ टीका- नाडी वेग से चलती हो और गरम होय तो ज्वर जानना प्रत्यंत सूक्ष्म होय मोर अत्यंत वेग से चले और प्रत्यंत ठंडी होय वो नाडी प्राणों के नाश करने वाली है ॥ ५० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यच स्पंदते चैक मानेन विंश द्वारं यदा धरा ॥ स्वस्थाने नयदा न्यून रोगी जी वति नान्यथा ॥ ५९ ॥ टीका-जिस रोगी की नाडी एक संग अपने स्थान पर तीम वार फड़के तो वो रोगी जीवे नहिं प्रर्थात् शीघ्र ही मृत्यु को प्रा प्र होय ॥ ५९ ॥ अन्यच स्थिरा नाड़ी भवेद्यस्यविद्य. विद्य ति रिवेक्षते ॥ दिनेकं जीवितं तस्य द्वितीये मृत्यु रे बच ॥ ५२ ॥ टीका-जिस रोगी की जाडी स्थिर होय और बिजली के समा न रहि के चलें तिस रोगी की मायु एक दिन की है दूसरे दिन - For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mara (नाडीप्रकार) मृत्यु होय ॥५२॥ अति सूक्ष्माचवेगावा शीतला च भवे द्यदि तदा वैद्यो विजानीया दयं रोगी विनश्यति॥५३॥ टीका- जिसरोगी की नाडी प्रति सूक्ष्म चले अथवा कति वेग से चलती होय तो वैद्य अपने मनमेंजान लेय कि यह रोगी जसर मरेगा॥५॥ अन्यच महे नाडी चहे तादाकदाचिच्छी तला वहेत.॥आयाति पिच्छला: स्वेदःश रावसजीवति॥५४॥ टीका-जिस रोगी की नाडी अगाडी से अति शीघ्र चले और कदाचित ठंडी भी होय और शरीर मेंसे चिकना पसीना निक ले ऐसा रोगी सात दिन जीवे॥ ५४॥ प्रन्यच मंदंमन्द शिथिल शिथिलं व्याकुलं व्याकुलंवा स्थित्वा स्थित्वावहतिध मनींयाति सूक्ष्मा नरायणा ॥ नित्य स्था नात्सर्वलति पुनर प्यं मूली से स्पृहा भावैरेववह बिधि तैरेस चियावे त्वताध्या ॥५४॥ टीका-जिसरोगी की नाडी मंद मंद मोर शिथिल शिथिल यन | - - - - - - For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (नाडीप्रकाश२७) व्याकुल व्याकुल चलती होय और ठहर ठहर के प्रति सूक्ष समोर निरंतर स्थान को छोड़ कर फिरभी अंगुली को छुवे ऐसे अनेक लक्षण होय तो वो नाडी सति पात की असा ध्य है। अर्थवेद्यबिनोदात् स्वस्थान विच्युतानाडी यदा बहित वानवा ॥ज्वालाच हदये तीव्रातदा ज्वाला वथि स्थिति ॥५६॥ टीका-जिस रोगी की नाही अपने स्थान को छोड़ केक भी चले कभी न चले और हृदय में ज्वाला का अति पगि होयतो जब तक ज्वाला रहेगी तब तक वह रोगी जीवेगा। अनिघंटरत्नाकरे शिरायस्यसूक्ष्मा तिशीतान्वितावा सरोगी नजीवेत्य यत्नेःकदाचित् ॥व लद्वित्रिरूपा त्रिदोषान्विता वासरोगी यमस्यालये शीघ्रगता:॥५॥ टीका-निस रोगी की नाडी अति मंद चले मोर शीघ्र करिके युक्त हो वो रोगी यम पुर को जावे चाहे जैसा वेद्य लोग यत्न क रे तोभी नवचै और जिस रोगी की नाडी त्रिदोष युक्त दो तीन प्रकार की चाल चलती होय वो रोगी यम राज के घर शीघ्र तथा वहुत जल्दी पहुंचेगा। अन्यच For Private and Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( नाडीप्रकाश २१) ज्वर को पेन धमनी सोस्मा वेगवती भवेत॥काम क्रोधाद्वग महाक्षीणा चिताभया प्रता॥५॥ टीका-ज्वर की नाडी गरम होती है मोर जल्दी चलती है. कामा तर की ओर कोध वान की नाही चलती है चिंता वान की और भयभीत की नाडी क्षीण होती है। क्ष्मा नाग सदृशी पायःवच्छवस्थ स्य वैशिरा ॥सुरखी तस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बल बती मता॥ टीका-सुरती मनुष्य की नाडी केंचुरो जान वर कीसी चालच लती है और स्वच्छ स्थिर घर संयुक्त होती है। पाल स्निग्धतरा नाडी मध्या न्हे प्यु मतान्विता ॥ सायान्हे घाम मानाव ज्ञेया रोग विवर्जितः॥ टीका-निरोग मनुष्य की नाड़ी प्रात काल के समय स्थिर ।। और सचिचरण चलती है और मध्यान्ह समय में कुछ गरमी संयुक्त नाडी चलती है और सायं काल के समय शीघ्र गति से चलती है। मधुरे वहिगा नाडीतिने स्थूल गति भवेत्॥अम्ले भेक गति कोआ कटु कैर्भग सनिभा॥ टीका-जिस मनुष्य ने मधुर भोजन किया होय उसकी नाड़ी मयूर की चाल चलती है और निक्त भोजन खाने से स्थूल गति For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ۲۲ (नाडीप्रकाश २२) होती है खटाई खाने से किंचित उद्यम और मेंडक की गति चलती है। और कडवे भोजन करने से भ्रमर कीसी चाल चलती है ॥ ६१ ॥ अन्यच स्वस्था नही नाशो के च हिमा कां ते चाने गदा : ॥ भवन्ति निश्वला ना ड्यो न किचतत्र वभयम् ॥ ६२ ॥ टीका । शोक में नाड़ी की गति स्थिर होती है ऐसे ही शीत से ना डी की गति स्थिर होती है उसे साध्य कहते हैं ॥ ६२ ॥ पुष्टि स्मैल गुड़ा हारे माये चल गुडा, कृतिः ॥ क्षीरो स्तिमित वेगाच मधुरे हंस गामिनी ॥ ६३ ॥ टीका || तेल और गुड के खाने से नाडी पुष्ट होती है और उड़ द के बने हुए भोजन के खाने से लकूट के आकार नाडी होती है दूध पीनेसे मंद गति होती है और मीठे भोजन करने से हंस की गति नाडी चलती है ॥ ६३ ॥ मार्तडात मैथुनां तेभवे च्छाघा सरला पिच नाडिका ॥ श्राकेश्र्व कदलै श्वेवरक्त पुरो वसा भवेत् ॥ ६४ ॥ टीका। जिस मनुष्य ने मैथुन कर्म किया होय उस पुरुष की ना डी शीघ्र और सरल चलती है मोर मला जीशी में नतुपरी की किं चित् २ चलती है ॥ ६४ ॥ प्रदरे रक्त पीते च श्वेते ग्रन्थि वदच्छे For Private and Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - (नाडी प्रकाश) निः॥क्षत काशे तथा राजयक्ष्मागि ग्रंथरुपिणी॥६५॥ टीका।जिन स्त्रियों के प्रदर रोग होय उन की नाडी की पहिचान। लिखते हैं कि लाल वर्गाकुं प्रदर में पीरे वर्ग के में स्वेत वर्ग केमे नाडी ग्रंथ रूप चलती है तैसेही क्षतरोग वाले की तेसेही कासरो गवाले की तैसेही क्षयी रोग वालेकी नाडीभीग्रंथि रूप चलती है॥६५॥ तथाच मंदाग्ने क्षीण धातोश्व नाडी मन्द तराभवेत् ॥असक पुर्गाभवत्को मागुर्वी सामागरीयसी॥६६॥ टीका॥ मंदाग्नि वाले मनुष्य की ओर धातुक्षीणा वाले कीनाडी अति धीरी अर्थात बहुत मंद मंद चन्नती है और रक्त विकार वाले मनुष्य कीनाड़ी किंचित् गरमसीहोय पत्थर के समान भारीचल ती है और पाम संयुक्त पुरुष की नाडी महिष के समान चालचल नीहै॥६६॥ प्रन्यच अजीर्णो तुम वेन्नाड़ी कठिना परि तोजड़ा । पूक्का जीर्णा पुष्टि हीना मंद मंद प्रवर्तते॥६॥ टीका॥जिस मनुष्य को अजीर्ण रोग होय उस मनुष्य की नाडीक ठिन मोर जडवत होयतीहै और पक्काजीर्ण वाले मनुष्यकीनाडी पुष्टी हीन और मंद गति से चलती है ॥६॥ - - - For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश २४० अन्यच लध्वी ब हतिदीनाने तया वेग वती मता॥सुखितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती स्मृताः॥ टीका- जिस मनुष्य के अग्नि दीप्त है उस मनुष्य की नाड़ी हल की और शीघ्र यानी जल्दी चलती है मोर आरोग्य मनुष्य की नाड़ी स्थिर और बलवान होती है और भूरखे। की चपल और भोजन करे की स्थिर चलती है। विशू चिकाइभिभूते चनाडिकाभेक संक्रमा॥प्रमेहे चोप देश चं ग्रंथी र पाथरा स्मृताः॥ टीका-विशू चिका रोग में नाड़ी मेंडक की गति चला करती है और प्रमेह वाले मनुष्य की और उपदंश वाले मनुष्य की नाड़ी यानी मातशक वाले की नाडी ग्रंथीरूप होती है। अन्यच भूता वेशषु तस्यापि नष्ट शकस्यना डिका ॥ विदोष गमना चापि सूक्ष्मा च पिन मृत्यु दा॥ टीका- जिस मनुष्य की देह में भूतका आवेश हुन्मा होय। तिस की मोर धातु क्षीशा वाले मनुष्य की नाड़ी विदोष गति भी चलती है और इन रोग वाले मनुष्यों की नाड़ी सूक्ष्म ग स्ति यानी मन्द मन्द भी चलती है तो भी ये नाही मृत्यु दायक नहिं है॥७॥ For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org (नाडी प्रकाश २५) प्रथ प्रसाध्य नाडी लक्षण Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Po शीघा नाड़ी मलो पेता मध्यान्हे ग्नि समो ज्वरः ॥ दिनेकं जीविते त स्य द्वितीये न्हि ग्निये तसाः ॥ ७९ ॥ टीका- जिस रोगी मनुष्य की नाडी मल युक्त होय और मध्या न्द्र समय में प्रग्नि समान ज्वर होग ऐसा रोगी एक दिन जीवे दूसरे दिन मृत्यु होय ॥ गुष्टमूलेतो वा ध्वं गुले यदि ना डिका || प्रहराद्धीद्ध हि मृत्यु जानीया च्वं विचक्षणः ॥ ७२ ॥ टीका- प्रगूठे की जड से दो अंगुल हटके नाडी चलती हो ये तो वो रोगी मधे पहर पीछे मृत्यु होय ॥ For Private and Personal Use Only अन्यच तृप्यते चरो नाड़ी करे नैव बि दृश्यते ॥ मुखं विलसितं यस्य जी वितं तस्य दुर्लभम् ॥ ७३ ॥ टीका- जिस रोगी के पग की नाही चलती होय और हाथ की नाडी नहिं चलती होय और मुख रोगी का फैल रहा होय. तो ऐसे रोगी का जीना कठिन जानो ॥ ७३ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५ (नाडी प्रकाश- २६) काष्ट कष्टो यथा काष्टं कुहते चाति वेगतः ॥ स्थित्वा स्थित्वा तथा ना .डी सचि पाते भवेद्धवम् ॥ ७४ ॥ टीका । जैसे काष्ट के फाड़ने वाला काष्ट को यम थम के फाड़ ता है तेसेही सति पात में नाडी जानो ॥ कंम्पते स्यदते ऽत्यं तं पुन:स्पृश ति चांगुली ॥ ताम साध्या विजानी या न्नाड़ी दूरेगा वर्जयेत् ॥ ७५ ॥ टीका । जिस रोगी की नाडी कंपे मोर चलती बंद हो जाय और फिर अंगुलीन को स्पर्श करने लगे ऐसे रोगी को असा ध्य जान के बैद्य दूर सेही त्यागन करे ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्यच सुखे नाडी यदा नास्ती मध्येशेत्य वहि लमः ॥ यदा मन्दा वहे नाडी सत्रि रात्रं न जीवति ॥ ७६ ॥ टीका । जिस मनुष्य की पित की नाडी नष्ट होगई होय और राध्य में बात की नाही शीतल होगई होय और बाहर र ग्लानि हो मोर नाड़ी मंद मंद गति चल रही होय तो ऐसा रोगी तीन रात नहिं जावेगा ॥ ७६ ॥ मध्ये रेखा समा नाडी यदि तिष्ट तिनिश्वला ॥ पूड भिम्व हरैस्त स्य मृत्यु ज्ञेया चिचक्षणा ॥ ७७ ॥ टीका । जिस रोगी की नाड़ी बात स्थान से जो रेखा सरीखी For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश- २७) निश्वल चलती होय वो रोगी छ पहर पीछे मरेगा ।। ७७ ॥ वातस्थाने चया ती वावात पित गदोद्भवा ॥मंदा वात कफोन्मि यात केशः नामिकामतल॥ टीका॥जो नाडी मध्यमा अंगुली के नीचे जो वात स्थान है त हां तीव गति चले तो वा नाडी को कफ वान की जानो। कास्थाने चया तीब्रा कफ पित गदो दवा ॥वका लेष्म मरु न्मि श्रात केशः नामि का तले॥७९॥ टीका॥ जो नाडी अनामिका के नीचे कफ के स्थान में तीव्र गति चलती होय उस नाडी को काफ पित की नाडी कहते हैं। और जो वह नाडी वक गति चलै तो कफ वात की नाडी जानों अन्यच पित स्थाने चया तीव्रा पित वातो द्रवाचसा ॥मंदापित कफा तंक संभवा तर्ज नीतले ॥८॥ टीका।जो नाडी तर्जनी अंगुली के नीचे पित के स्थान में वक गति से चले तो उस नाडी को वात पित की नाडी कहते हैं। और जो वो नाड़ी मंद गति चले तो उसे कफ पित की जान ले ना ॥१॥ प्रन्यच For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाड़ीप्रकाश-३०) पताको प्राप्ति होतो वो नाड़ी चौड़ी है। और तरी की नाड़ी वह है जिसे अगुलियों में दवानेसे छीने में नरमाई मालूम हो॥ और इससे खिलाफ होय तो उस नाडी को खुश की की कहते हैं। और जिस मनुष्य के शरीर में कोई रोग नहोय उसकी नाडी राकसी चाल चलती है। ओर जो नाड़ी राक चाल पर नहीं तो उसे दोष युक्त ना डीजानना॥ और जो नाडी हिरन कीसी चाल उछलती चले उसे गि जाकी नाडी कहते हैं। ओर जो लहर की तरह से चले वो मोजी है। और कामा तुर पुरुष की और और भयभीत नाडीक्षी र चलती है। ओर मंदाग्निवाले की ओर प्रमेह वाले की नाडी चेटी की चाल चलती है। मौर स्त्रीयों की नाड़ी से पुरुषो की नाडी वल वान होती है और बच्चों की नाडी नरम चलती है। ओर जवाव सादमी की नाड़ी चोड़ाव में पोर लम्बाव में विशेष होती है। ओर वृद्ध अवस्था वाले की तथा बल हीन पुरुष कीनाडी सुस्त चलती है। अवस्थागत नाड़ी For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश- ३९) जन्म काल से पल परमित काल पीछे एक बर्ष पर्यत एक पल में य २वार नाडी चलती है ॥ और एक वर्ष पीछे दो वर्ष तक एक पल में ४४ वार चलती है ॥ और दो वर्ष पीछे तीन वर्ष तक एक पल में ४० बार चलती है । और तीन वर्ष पीछे सात वर्ष की अवस्था तक एक पल में ३४ बार चलती है । और चौदह वर्ष से लगा कर तीस वर्ष तक एक थल में वार चलती है ॥ और तीस वर्ष से लगा कर पचास वर्ष तक एक पल में वार चलती है ॥ और पचास वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष तक एक पल में और दस कम से कम चले तो शरिदी जानो और ज्या दा चलेतो गरमी जानों ॥ इति नाडी ज्ञान प्रकाशसं For Private and Personal Use Only ۳۱ लि. मनोहर लाल श० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (नाडी प्रकाश ३२) इशतिहार प्रघट हो कि हमारी इकान पर हर किस्म की पुस्तकें नागरी. उरदू,फारसी, अंग्रेजी, अरवी गुर मुरखी मोर एक विम स हसनाम मोटा अक्षर का भाषा टीका बहुत उम्दा हमने म पने मत वजेव काशी में छापा है और पना पंडित जिया लाल का भी हमेंशा बहुत सहत के साथ इसी मत बस में छपता है पस जिन साहियों को चाहिये तलव करे सिर्फ रखत पाने पर कितावें भेजी जायेगी। दहली बाजार दरीवे कला दूकान मुन्ग्री शादी लाल घासी लाल ताजिर कुतव॥ For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Serving Jin Shasan 045749 gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only