Book Title: Kuvayalanand
Author(s): Bholashankar Vyas
Publisher: Chowkhamba Vidyabhawan

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Page 301
________________ २०४ कुवलयानन्दः वात्रापि स्यान्नत्वलङ्कारान्तरस्यावकाश इति चेत् अत्र केचित् - समर्थनसापेक्षस्यार्थस्य समर्थने काव्यलिङ्गं निरपेक्षस्यापि प्रतीतिवैभवात्समर्थनेऽर्थान्तरन्यासः । न हि 'यत्त्वन्नेत्र समानकान्ति' इत्यादिकाव्यलिङ्गोदाहर णेष्विव — 'अथोपगूढे शरदा शशाङ्के प्रावृड्ययौ शान्ततडित्कटाक्षा | कासां न सौभाग्यगुणोऽङ्गनानां नष्टः परिभ्रष्टपयोधराणाम् ॥' 'दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लीनं दिवा भीतमिवान्धकारम् | क्षुद्रेऽपि नूनं शरणं प्रपन्ने ममत्वमुच्चैः शिरसामतीव || ' ( कुमार० १|१२ ) इत्याद्यर्थान्तरन्यासोदाहरणेषु प्रस्तुतस्य समर्थनापेक्षत्वमस्तीति । वस्तुतस्तु प्रायोवादोऽयम् । अर्थान्तरन्यासेऽपि हि विशेषस्य सामान्येन समर्थनानपेक्ष इस पूर्वपक्ष का कुछ लोग इस प्रकार उत्तर देकर सिद्धान्त की स्थापना करते हैं । जहाँ किसी प्रस्तुत के समर्थन करने की अपेक्षा हो, तथा किसी वाक्य के द्वारा उसका समर्थन किया जाय, वहाँ अप्रस्तुत वाक्य प्रस्तुत वाक्य का समर्थक होता है तथा सापेक्षसमर्थन होने के कारण वहाँ वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग होता है। जहाँ निरपेक्ष प्रस्तुत का अप्रस्तुत उक्ति के द्वारा इसलिए समर्थन किया जाय कि कवि अर्थ-प्रतीति को और अधिक दृढ़ करना चाहे, ( वहाँ काव्यलिङ्ग तो हो नहीं सकता, क्योंकि काव्यलिङ्ग में सदा सापेक्षसमर्थन होगा ) वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । 'यत्वन्नेत्रसमानकान्ति' आदि उदाहरण में समर्थनापेक्षा पाई जाती है, किन्तु अर्थान्तरन्यास के निम्न उदाहरणों में प्रस्तुत में समर्थनापेक्षा नहीं पाई जाती । 'जब शरत् (नायिका) ने चन्द्रमा (नायक) का आलिङ्गन किया तो वर्षा ( जरती नायिका), जिसके बिजली के कटाक्ष अब शान्त हो चुके थे, लौट गई। गिरे हुए स्तन वाली (लुप्त मेघों वाली ) किन अङ्गनाओं का सौभाग्य नष्ट नहीं हो जाता ?" यहाँ प्रथम वाक्य विशेषरूप प्रस्तुत है, जिसका समर्थन सामान्यरूप अप्रस्तुत उक्ति के द्वारा किया गया है । इस पद्य में प्रथमार्ध की उक्ति स्वतः पूर्ण है, उसके समर्थन की अपेक्षा नहीं, किन्तु कवि ने स्वतः पूर्ण (निरपेक्ष समर्थन ) उक्ति की पुष्टि (प्रतीतिवैभव ) के लिए पुनः उत्तरार्ध की उक्ति उपन्यस्त की है । 'जो हिमालय मानों सूर्य से डर कर गुफाओं में छिपे अन्धकार की रक्षा करता है । जब बड़े लोगों की शरण में छोटा व्यक्ति भी जाता है, तो वे उसके साथ अत्यधिक ममता दिखाते हैं ।' यहाँ भी विशेषरूप प्रस्तुत उक्ति (पूर्वार्ध) का समर्थन सामान्य अप्रस्तुत उक्ति ( उत्तरार्ध) के द्वारा किया गया है। अपयदीक्षित को यह मत पसन्द नहीं है वे इस मत को प्रचलित होते हुए भी दुष्ट मानते हैं। क्योंकि कई ऐसे स्थल देखे जाते हैं, जहाँ अर्थान्तरन्यास में भी सापेक्षसमर्थन पाया जाता है । वे कहते हैं कि यद्यपि अर्थान्तरन्यास में विशेषरूप प्रस्तुत के लिए सामान्यरूप अप्रस्तुत उक्ति के समर्थन की अपेक्षा नहीं होती, तथापि जहाँ कवि सामान्यरूप प्रस्तुत का प्रयोग किया हो, वहाँ उसके समर्थन के लिए विशेषरूप अप्रस्तुत उक्ति की अपेक्षा होती ही है। क्योंकि यह न्याय है कि किसी भी सामान्य का वर्णन निर्विशेष' (विशेषरहित ) रूप में नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे कई स्थल हैं,

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