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कुवलयानन्दः
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हेतुर्गुणो विपत्त्याकाङ्क्षाया अप्रसक्तिः । सा च व्यतिरेकमुखप्रवृत्तेन सामान्येन विशेषसमर्थनरूपेणार्थान्तरन्यासेन दर्शिता ।
यथा वा
व्रजे भवदन्तिकं प्रकृतिमेत्य पैशाचिकीं किमित्यमरसम्पदः प्रमथनाथ ! नाथामहे । भवद्भव नदेहली विकटतुण्डदण्डाह
क्रुटमुकुट कोटिभिर्मघवदादिभिभूयते ।। १३७ ||
यह विपत्ति की आकांक्षा का न होना व्यतिरेकसरणि से वर्णित सामान्य के द्वारा विशेष के समर्थन वाले अर्थांतरन्यास से प्रदर्शित किया गया है। भाव यह है, यहां प्रत्युपकार विपत्ति की आकांक्षा नहीं करता इस बात को वैधर्म्य अनुज्ञा का ही दूसरा उदाहरण यह है :
की इच्छा न करने वाला व्यक्ति शैली में वर्णित किया गया है।
कोई भक्त शिव से प्रार्थना कर रहा है :- हे प्रमथनाथ शिव, हमारी तो यही कामना है कि पिशाच के स्वरूप को प्राप्त कर आप के ही समीप रहें। हम देवताओं की संपत्ति की याचना क्यों करें ? इन्द्रादि बड़े बड़े देवता भी आपके निवासस्थान की देहली पर बैठे गणेशजी के दण्डों की चोट से जीर्ण-शीर्ण मुकुट वाले होते रहते हैं । अर्थात् जिनके भवन की देहली से भी आगे बड़े बड़े देवता नहीं पहुँच पाते, उन भगवान् शिव के समीप हम पिशाच बनकर रहना भी पसन्द करेंगे ।
यहां 'पिशाच बनना' यह एक दोष है, किंतु शिवभक्त कवि ने इसकी इसलिए इच्छा की है कि इससे शिवसामीप्य रूप गुण की प्राप्ति होती है ।
टिप्पणी- अनुज्ञा. अलंकार के बाद पण्डितराज उगन्नाथ ने एक अन्य अलंकार का उल्लेख किया है, जिसका संकेत कुवलयानन्द में नहीं मिलता । यह अलंकार है - तिरस्कार। जिस स्थान पर किसी विशेष दोष के कारण गुणत्व से प्रसिद्ध वस्तु के प्रति भी द्वेष पाया जाता हो, वहाँ तिरस्कार अलंकार होता है । ( दोषविशेनानुबन्धाद्गुणत्वेन प्रसिद्धस्यापि द्वेषस्तिरस्कारः । ) इसका उदाहरण निम्न पद्य है, जहाँ राजाओं के समान विशाल ऐश्वर्य रूप प्रसिद्ध गुण के प्रति भी afa का द्वेष इसलिए पाया जाता है कि उसके कारण भगवान् के चरणों की उपासना अस्त हो जाती है तथा यह दोषविशेष वहां विद्यमान है:
श्रियो मे मा सन्तु क्षणमपि च माद्यद्गजघटामदभ्राम्यद्भृंगावलिमधुर संगीत सुभगाः । निमग्नानां यासु द्रविणरस पर्याकुलहृदां सपर्यासौकर्य हरिचरणयोरस्तमयते ॥
तिरस्कार अलंकार का वर्णन करते समय पण्डितराज ने कुवलयानन्दकार के द्वारा इस अलंकार का संकेत न करने की ओर भी कटाक्षपात किया है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि अप्पयदीक्षित के द्वारा अनुज्ञा के प्रकरण में उदाहृत 'ब्रजेम भवदन्तिकं' इत्यादि पद्य के 'किमित्यमरसंपदः' इस अंश में तिरस्कार अलंकार को मानने में भी कोई आपत्ति नहीं जान पढ़ती ( अमुं च तिरस्कारमलक्षयित्वाऽनुज्ञां लक्षयतः कुवलयानन्दकृतो विस्मरणमेव शरणम् । अन्यथा 'भवद्भवनदेहली' इति तदुदाहृतपद्ये 'किमित्यमरसंपदः' इत्यंशे तिरस्कारस्य स्फुरणानापत्तेः । (रसगंगाधर पृ. ६८७.)