Book Title: Kuvalaymala Katha Author(s): Vinaysagar, Narayan Shastri Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 9
________________ रूपान्तरकार-वक्तव्य कोई भी देश हो, वहाँ के सहृदय व्यक्ति की अन्तरात्मा सदाचार से विरुद्ध हो रहे दुराचार से व्यथित हुए बिना नहीं रहती, भले ही व्यक्तिगत रूप से वह इस दुराचार का शिकार नहीं हुआ हो । परन्तु कुटुम्ब की इकाई व्यक्ति, समाज की इकाई कुटुम्ब, प्रदेश की इकाई समाज, राष्ट्र की इकाई प्रदेश और विश्व की इकाई राष्ट्र को दुराचारों से आक्रान्त और दुःखी देखता है तो सहृदय व्यक्ति का हृदय स्वतः ही पिघल जाता है। वह इन दुराचारों का मूल कारण व्यक्ति के मन को प्रदूषित होना मानता है। वह अच्छी तरह जानता है कि जब मन प्रदूषित होता है, तभी व्यक्ति उसके प्रभाव में आकर नाना अनर्थ और उत्पात करने की ओर प्रवृत्त होता है । उस समय उसको कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य का विवेक नहीं रहता है । उसे स्वार्थ दृष्टि के सम्मुख यह भी बोध नहीं होता है कि मेरे किये गये अनर्थों से दूसरों को भी कष्ट पहुँचता है। यह भी सत्य है कि भले ही उस प्रदूषित मन वाले व्यक्ति को उसके दुराचार से लाभ मिल जाता हो, अभीष्ट सुख हो जाता हो, परन्तु वह सब स्थायी नहीं होता। वह स्वयं भी उन अनर्थकारी दुराचरणों के कारण अपने आपको सुखी नहीं समझता । उसको भी सुख की नींद नहीं आती। क्या आज विश्व में फैली नाना प्रकार की आतङ्ककारी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाले, प्रोत्साहित करने कुवलयमाला-कथा [ VII ]Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 234