Book Title: Kundalpur
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Mahendra Singhi

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईज्ज' अध्ययन में वहाँ गणधर गौतमस्वामी के विचरने और मेयज्जगोत्रीय पेढाल पुत्र उदक, जो भ० पार्श्वनाथ-संतानीय-अनुयायी था, के साथ तत्त्व चर्चा करके चतुर्याम धर्म से पंच महाबत सप्रतिक्रमण धर्म भगवान महावीर के पास स्वीकार कराने का विशद वर्णन है । भगवान महावीर ने दीक्षा लेने के पश्चात् अपना दूसरा चातुर्मास नालंदा तन्तुवायशाला में किया था और मंखलीपुत्र गोशालक यहीं से उनके साथ हुआ । भ० महावीर और गौतम बुद्ध समकालीन थे, बुद्ध भी अनेक बार नालंदा आये और वे यहाँ के प्रावारिक आम्रवन में विचरे पर कभी नालन्दा में चातुमांस नहीं किया जब कि भ० महावीर ने यहाँ चौदह चातुर्मास किये है। कारण स्पष्ट है यहाँ उस समय जेनों का ही वर्चस्व था। दोनों महापुरुषों का एक स्थान में विचरते हुए भी कभी परस्पर साक्षात्कार नहीं हुआ। बाद के बने. बौद्ध त्रिपिटकों में निग्रन्थों व श्रावकों के साथ भ० बुद्ध की चर्चा होने की कल्पित बातें पायी जाती है । भ० बुद्ध के प्रधान शिष्य. सारिपुत्र, मौद्गलायन में सारिपुत्र यहीं के थे, आज भी 'सारिचक' स्थान उनकी याद दिलाता है। धम्मपद अठ्ठकथा ८-५ के अनुसार सारिपुत्र का मामा राजगृह निवासी एक ब्राह्मण था जो निग्रन्थ जैन धर्म का उपासक था। . __ भगवान महावीर के यहाँ अनेक बार पधारे थे तथा गौतम स्वामी की जन्मभूमि गुम्बरगाँव भी नालन्दा के पास ही था। आज भी नालन्दा को बड़गाँव और गुव्वर गाँव कहते है–के कारण यहाँ पर जैन स्तूप का निर्माण हुआ था जिसका उल्लेख विविध तीर्थकल्प तथा परवत्ती तीर्थमालाओं में पाया जाता हैं कहा जाता है कि सम्राट अशोक ने ८४००० स्तुपों का निर्माण कराया था एवं भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् आठ राजाओं ने स्तूप बनवाये वे (१) नलका कुसीनगर (२) मल्ल की पावा (३) वैशाली (४) राजगृह (५) अल्लकप्प (६) कपिलवस्तु (७) रामग्राम (८) बेठदीप हैं। इनमें कहीं नालंदा में स्तूप होने का उल्लेख नहीं है अतः यहाँ जेन स्तूप होना चाहिये। जिनप्रभसूरिजी ने उसे कल्याणक स्तूप लिखा है। और उस पर भ. महावीर व गौतम स्वामी की चरणपादुका का पूजन तो बहुत बाद तक होता था। पहाड़पुर के जैनमठ की भाँति बौद्ध काल में उसका रूप परिवर्तित हो जाना भी असंभव नहीं । १५६५ वर्ष पूर्व अर्थात् सन् ४१० ई० में फाहियान के नालन्दा आगमन समय में यहाँ कोई शिक्षाकेन्द्र नहीं था पर ई० सन् ४५० तक शिक्षाकेन्द्र का रूप धारण कर लिया था। तिब्बत के इतिहास विशेषज्ञ तारानाथ के अनुसार For Private and Personal Use Only

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