Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
पढ़े या उदंडता करे और शिक्षक हाथ भी लगा दे तो बच्चे के मां-बाप लड़ने आ जाते हैं। सरकार और मनोवैज्ञानिक भी मना करते हैं। सब ओर भटककर अन्त में शिक्षा विभाग में आ टिकने वाला शिक्षक, अपनी घरेलू, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं में उलझा हुआ, हताशा-निराशा में जी रहा न्यून वेतनभोगी, उपेक्षित शिक्षक बच्चों का चरित्र-निर्माण कैसे कर सकता है?
माता-पिता, विद्यार्थी, शिक्षक, शिक्षण संस्था और सरकार, सबका लक्ष्य है कि शिक्षार्थी कक्षा में उत्तीर्ण हो जाय, डिग्री पा ले । उसके लिये कई तरीके हैं, कई हथकंडे हैं जिनके सहारे विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता है। यदा-कदा शिक्षक भी उस हथकडे में साथ देता है। चाहे भय से दे या लालच से दे । चरित्र वाले कालम में 'सामान्य' या 'ठीक' लिखना भी प्रधानाचार्य और प्राचार्य के लिये जोखिम का काम है चाहे विद्यार्थी दादा-गुण्डा ही क्यों न रहा हो और उसी के बल पर उत्तीर्ण क्यों न हुआ हो?
शिक्षकों के अल्पज्ञान, प्रमाद, चारित्रिक कमजोरी, पक्षपात, गुटबन्दी, राजनीति एवं सिद्धान्तविहीनता के कारण आज बच्चे उन पर एवं शिक्षण संस्थाओं पर पत्थर बरसाने लगे हैं। समर्पित माने जाने वाले शिक्षक, विद्वान, आचार्य, कुशल प्राचार्य और कुलपति भी घुटने टेक रहे हैं । उन्हें अगली कक्षा में चढ़ा रहे हैं, परीक्षा आसान कर रहे हैं, डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। इन सब शिक्षकों से बच्चों के चरित्र-निर्माण और भविष्य निर्माण की क्या अपेक्षा की जाए?
आज बच्चों के चरित्र-निर्माण में माता-पिता और शिक्षक की भूमिका शून्यवत् है। वे आदर्श नहीं रहे हैं। आज बच्चों के लिये आदर्श हैं नेता और अभिनेता ! आज उनके आदर्श हैं सिनेमा के गंदे पोस्टर; गलियों में बजने वाले शराब के और प्यार के गाने; 'गुण्डा', बदमाश, डाकू, पाकेटमार नामक फिल्में; उनमें फिल्मायें जाने वाले ढिशुम्-ढिशुम, अश्लील और वीभत्स दृश्य-चित्र; रहे-सहे में अश्लील-जासूसी उपन्यास, कहानियाँ, सत्यकथाएँ; फिल्मों और अभिनेताओं के व्यक्तिगत कार्य कलापों और रासलीलाओं से भरे पड़े सिने समाचार पत्र-पत्रिकाएँ। छोटे बच्चों को "ले जायेंगे-ले जायेंगे दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे", "झूम बराबर झूम शराबी", "खाइ के पान"-"खुल्लम-खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों" आदि सैकड़ों लाइनें याद हैं । आज अंत्याक्षरी में सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, निराला और महादेवी के पद वजित हैं जैसे पहले कभी सिनेमा के गाने वजित थे। महापुरुषों की जीवनी, इतिहास-पुरुषों के त्याग और उत्सर्ग की कहानियाँ आज के बच्चे को याद नहीं रहती पर सिनेमा के अभिनेता, अभिनेत्री के नाम-पते, उनके प्यार और विवाह के किस्से याद रहते हैं। किसका कितना नाप है याद रहता है, कौन किस-किस फिल्म में आ रहा है याद रहता है। इस वातावरण में बच्चों के चरित्र-निर्माण की क्या बात की जाय ?
दुसरे आदर्श हैं हमारे नेता ! जैसा दिल्ली दरबार में होता है या भोपाल या जयपुर आदि में होता है बच्चे उसकी नकल करते हैं । बच्चा देखता और सोचता है कि बिना पढ़े, बिना योग्यता के, बिना चारित्रिक गुणों के, परन्तु जोड़-तोड़ से शिखर पर पहुँचा जा सकता है। गाँव का बच्चा पंच-सरपंच के चुनावी अखाड़े देखता है। शहरी बच्चा भी चुनावी दंगल देखता है। स्कूल-कालेज में उसकी नकल उतारता है । दादागीरी-गुण्डागीरी, छल-कपट, प्रतिद्वन्दी को खरीदना, वोटर को खरीदना, यह सब बड़े नेताओं से सीखता है । बच्चा संसद व विधानसभाओं में जूते, चप्पल चलते देखता है, सुनता है, हाथापाई के समाचार सुनता है । सत्ता-प्राप्ति के लिए नेताओं का इधर से उधर उछलना-कदना देखता है । वायदा-खिलाफी देखता है । सत्ता से पैसा, पैसे से सत्ता, सत्ता से सुख और पैसा--यह चक्र चलते देखता है। फिर नेताओं द्वारा लाखों-करोड़ों के घपले भी सुनता है; फिर मी उनका बाल-बाँका नहीं होता है यह भी जानता है। राजनेता फिर भी उजला ही दिखता है। यह दृश्यावली बच्चे के सामने गुजरती है; फिर उसका चरित्र कैसे बनेगा ? यह सब चलता रहे और बच्चे का चरित्र बन जायेगा यह कैसे सम्भव है ?
इन सिद्धान्तविहीन कुर्सी-दौड़ वालों से बच्चा कौन-सा चरित्र ले ? समाज के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हुए समाज के ठेकेदारों, दो नंबरियों, काला-बाजारियों से बच्चा क्या सीखे ? सभी बच्चों को (११ वर्ष तक की आयु वालों को) निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सरकार नहीं दे सकी। मन्त्रियों, अधिकारियों के बंगलों पर लाखों खर्च हो सकते हैं पर
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